‘सचाई तो यह है कि 1970 के दशक तक दुनिया के स्तर पर ही स्त्री कलाकारों के पर्याप्त नामलेवा नहीं थे। पुरातन समय से चली आ रही पुरुष-दृष्टि समाज में यथावत थी। रसूखदार कला-संग्राहकों, संग्रहालयों और कला-व्यवसायियों ने अपने हितों के अनुसार कुदरती ‘प्रतिभा’ और ‘महान-कलाकार’ की अवधारणाएं गढ़ रखी थीं। किसी कलाकार विशेष को श्रेष्ठ साबित करने के उनके अपने तरीक़े थे, समाज के हाशिये पर रही आयी ‘स्त्री’ को जिनसे बाहर ही रख छोड़ा गया था।’–लेखक और चित्रकार मनोज कुलकर्णी का आलेख :
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कला-इतिहास, वैश्विक कला-परिदृश्य और आधुनिक कलांदोलनों के मद्देनज़र चित्रकला में ‘स्त्री’ के ‘दख़ल’ पर विचार करें तो वह दो भूमिकाओं में हमारे सामने आती हैं। एक, बतौर चित्र-विषय और दूसरे, रचनाकार के रूप में।
प्रागैतिहासिक शैलचित्रों में आदिम युग की कुछ झलकियां मिलती हैं किंतु प्राचीन सभ्यताओं की जो कलाकृतियां मिली हैं, उनमें स्त्री-आकृतियां स्पष्ट पहचानी जा सकती हैं। मसलन, सिंधू-घाटी क्षेत्र से मिली नृत्यांगना की चर्चित प्रतिमा। यूनान, मिस्र, मेसापोटामिया, चीन, रोम आदि सभ्यताओं के कलावशेषों में भी ‘स्त्री’ हैं। उस दौर की कृतियां इंगित करती हैं कि सामाजिक जीवन में पुरुषों का वर्चस्व रहा होगा। ‘वीनस ऑफ विलेंडार्फ’, ‘नेफर्टिटी’, ‘नाइके’ आदि नायिकाओं की भंगिमाओं और आंगिक अनुपात से अनुमान मुश्किल नहीं कि तब तक ‘स्त्री’ सौंदर्य, प्रजनन और प्रकृति आदि का प्रतीक बना दी जा चुकी थी।
समाज में पुरुष-सत्ता क़ायम होते ही स्त्री को कमतर आंका जाने लगा था। जगत को ‘पुरुष’ नज़रिये से ही देखे जाने से सामाजिक मानस में स्त्री का दिमाग़ छोटा और उसमें ऊर्जा का अभाव होने जैसी मिथ्या धारणाएं स्थापित होती चली गयीं। उसका ‘गर्भ’ महत्वपूर्ण बना दिया गया। उसे प्रजनन मात्र के काम का बना दिया गया। वह परिवारिक दायरे में सिमटती चली गयी। उसे नम्रता और लज्जा की प्रतिमूर्ति बताया जाने लगा और बौद्धिक अथवा रचनात्मक कामों के लिए अक्षम। बरसों-बरस के ऐसे सामाजिक और मानसिक दबावों ने स्त्री के आत्माभिमान को तोड़-फोड़ डाला। वह अपनी भावनाओं और विचारों को नियंत्रित और अप्रगट रखने लगी। जाहिर है, कला-संसार भी ऐसी धारणाओं से अछूता नहीं रहा। इतिहास के तमाम कला-आंदोलनों में इसी कारण स्त्री रचनाकारों के नाम लगभग नदारद रहे।
भारत में अजंता की गुफाओं में मिले भित्ती-चित्रों के अलावा विभिन्न उत्खननों में मिले ऐतिहासिक दौरों के देवालयों, चैत्यालयों, स्तूपों आदि में मिली प्रतिमाओं में पर्याप्त स्त्री-आकृतियां हैं। जो किवंदंतियों के चरित्रों, देवी-देवताओं, राजकन्याओं के अलावा दरबारियों, नर्तकियों और दासियों की मालूम देती हैं। पुरातन भारतीय कला-साहित्य में स्त्री-सौंदर्य की जो कसौटियां निर्मित की गयीं, उनके उदाहरण यक्षिणी, शाल-भंजिका आदि की ख्यात प्रतिमाएं हैं। भारतीय दर्शन और तदनुसार भारतीय कला-शैलियों में प्रकृति ‘स्त्री’ में ही रूपांतरित, चित्रित की जाती रही है। लोक और जनजातीय चित्रशैलियों में भी ‘स्त्री’ उल्लेखनीय तौर पर दिखायी देती है, हालांकि कला-इतिहास में पारंपरिक शैलियों के विकास और परिवर्तनों का व्यवस्थित दस्तावेजीकरण अनुपलब्ध है।
वैश्विक परिदृश्य में पिछली पांच-छः सदियां अत्यधिक बदलावकारी रही हैं। ख़ास तौर पर यूरोप में हुए विज्ञान के क्रांतिकारी अविष्कारों से विकसित नयी तकनीकों ने उत्पादन में एकाएक तेज़ी ला दी जिससे जन-जीवन की गति भी बढ़ी। उत्पादन की नयी विधियों से शहरी मध्यवर्ग पैदा हुआ। शक्ति-संबंधों में आये परिवर्तनों से सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक हलचलों के उस दौर में यूरोप में जो नयी जीवन-दृष्टि तैयार हुई, वह ‘आधुनिकता’ कहलायी। बदलते यथार्थ को पकड़ पाने में रचनाकारों को चले आ रहे बिम्ब, रूपक और प्रतीक आदि नाकाफ़ी मालूम देने लगे होंगे। मानसिक और रचनात्मक बेचैनी से रूपंकर कलाओं में नयी शैलियां जन्मती, विकसित होती गयीं। चित्रण-विधियों में बदलाव आते गये जो कला-इतिहास में विभिन्न कला-प्रवृत्तियों और आंदोलनों के बतौर दर्ज हैं।
स्वतंत्रता और समानता के जीवन-मूल्यों की वकालत के बावजूद स्त्री की स्थिति में बहुत परिवर्तन नहीं आया था। सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक मामलों में मर्दवादी वर्चस्व क़ायम रहा। सांस्कृतिक क्षेत्र की कहानी भी भिन्न न थी। दुनिया को पुरुष-दृष्टि से ही देखे जाने का चलन बरक़रार रहा। इस पृष्ठभूमि में भारत की आधुनिक चित्रकला में स्त्री के ‘दख़ल’ पर विचार करें तो देखना होगा कि भारतीय चित्रकला में ‘आधुनिकता’ का प्रस्थान बिंदु कहां से माना गया।
उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश हुकूमत के पीछे-पीछे पश्चिमी कला-शैलियां और चित्रण-पद्धतियां भारत पहुंचीं। उससे पहले की हमारी पारम्परिक चित्र-शैलियों में चित्र दो-आयामी ही थे, अर्थात उनमें लम्बाई-चौड़ाई ही होती थी। सपाट सतह पर ‘गहराई’ चित्रित करने का परिप्रेक्ष्य अनुपस्थित था। पश्चिमी-पद्धति से तेल-रंगों में त्रिआयामी यथार्थवादी चित्र बनानेवाले शुरुआती भारतीय कलाकारों में राजा रवि वर्मा प्रमुख और चर्चित नाम है, जिन्होंने विलायती प्रशिक्षक से चित्रकारी सीखी। उनके चित्र-विषय, अलबत्ता, पौराणिक ही रहे जिनमें अनेक ‘स्त्री’ चरित्र हैं, किंतु मिथक-कथाओं के ही। समसामयिक विषय और पात्र उनके चित्रों में जगह नहीं बना सके।
अंग्रेजी हुकूमत के दौर में 1854 से 1875 के बीच कलकत्ता, मद्रास, मुंबई और लाहौर में ‘आर्ट-स्कूल’ स्थापित किये गये थे जो दरअसल भारतीय दस्तकारों के कौशल को विकसित कर उनका उपयोग उद्योगों और निर्माण-क्षेत्रों में करने तथा भारतीय हस्तकला के प्रयोगों को यूरोपीय बाज़ार में बेचने के लक्ष्य से शुरू किये गये थे। भारतीय कारीगरों के महानगरों से दूर रहने के चलते वह योजना विफल रही। 1880 में शासन द्वारा उन संस्थानों को अपने अधीन लेकर ‘कला-महाविद्यालयों’ में बदल दिया गया। इस तरह भारतीय कला विद्यार्थी इज़ल (चित्र बनाते वक़्त फलक रखने का उपकरण), चित्रकारी और तेलरंगों के संपर्क में आये। नयी तकनीकों और पद्धतियों के कला-प्रयोगों से भारतीय चित्रकला में नवाचार बढ़ा।
अंग्रेज़ों का उपनिवेश बनते जाने के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बदलावों से भारतीय रुपंकर कलाएं भी प्रभावित होती गयीं। कला में पश्चिमी वर्चस्व को प्रश्नांकित करते हुए अंतरराष्ट्रीय बनाम स्थानीय की बहस भी उठी। राष्ट्रवादी स्वदेशी आंदोलन के दौर में जो कला में परत-दर-परत बढ़ती गयी। बीसवीं सदी की शुरुआत तक आते-आते ब्रिटिश-शासन के विरोध में गति पकड़ चुके आज़ादी के आंदोलन का असर कला-संसार पर भी दिखायी देने लगा। पश्चिमी बनाम भारतीय को चित्रों की ‘विषय-वस्तु’ अथवा चित्रण-शैलियों से परिभाषित-व्याख्यायित किया जाने लगा था। बंबई के चित्रकारों पर जहां कंपनी-कलाकारों का असर था, वहीं कलकत्ता में पश्चिमी प्रभावों को नकार कर ‘भारतीयता’ को रेखांकित करने का आग्रह तेज़ होता गया। पुरातन कला-शैलियां पुनर्जीवित करने की उस हलचल को रुपंकर कलाओं में ‘पुनरुत्थानवाद’ कहा गया। मुख्यतः अवनींद्रनाथ टैगोर की चित्रकारी और कुमारस्वामी के वैचारिक नेतृत्व में चली वह प्रतिक्रिया कला-सामग्री और चित्रण पद्धतियों में ‘विदेशी’ के संपूर्ण नकार तक पहुंची। जलरंगों और टेम्परा-पद्धति पर ज़ोर दिया जाने लगा। ‘भारत’ को ‘माता’ की तरह चित्रित कर अवनींद्रनाथ ‘देश’ का धार्मिकीकरण ही कर रहे थे। नंदलाल बोस और जामिनी राय ने चित्रण की अपनी शैलियों में लोकतत्त्व और जलरंगों के प्रयोग से आधुनिक बनाम परंपरा के विमर्श में अपना योगदान दिया।
हालांकि रवींद्रनाथ टैगोर ‘देशज’ के उस आग्रह के समर्थक नहीं थे। वे ‘कला’ को ‘वैश्विक’ मानते थे। कवि, लेखक और शिक्षाविद के बतौर अंतरराष्ट्रीय पहचान और सम्मान अर्जित कर चुके रवि बाबू जब साठ बरस की उम्र में अनायास चित्रकारी करने लगे तो कला-शैली अथवा कला-सामग्री आदि के मामलों में तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त थे। 1930 के दशक में उनके चित्र-प्रयोग चर्चा में आने लगे। उसी दौर में भारतीय कला-जगत में युवा चितेरी अमृता शेरगिल की उपस्थिति भी दर्ज हुई। भारतीय पिता-हंगेरियन मां की उस संतान का कला-प्रशिक्षण यूरोप में हुआ था, स्वाभाविक ही कला-शैलियों, तकनीकों और कला-सामग्री के तत्कालीन वैश्विक रुझानों से वे परिचित थीं। इनके अलावा शिल्पकार रामकिंकर बैज और चित्रकार बिनोदबिहारी मुखर्जी के चित्रों से भारतीय चित्रकला में विषय के स्तर पर भी ‘आधुनिकता’ प्रकट होने लगी थी। मिथकीय पात्रों और राजशाही के किरदारों को कुछ परे हटा आम भारतीय जन और उनका जीवन भी चित्र-फलक पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगा था।
यह प्रस्थान 1940 के दशक में ‘प्रगतिशील’ मोड़ लेता है जब देश के कुछ महानगरों में युवा चित्रकार अपने समय और समाज की चिंताओं से व्यथित और उनके समाधान के लिए आंदोलित होते हैं। कलकत्ता (अब कोलकाता), दिल्ली, मद्रास (अब चेन्नई), बंबई (अब मुंबई) आदि शहरों के कलाकार समूहों में संगठित होते हैं जिनमें से ज़्यादातर राजनीतिक तौर पर वामपंथी विचारधारा के क़रीब थे। इनमें से बहुतों के कला-मुहावरों और अंकन-पद्धतियों पर अंतरराष्ट्रीय कला-शैलियों का असर था, कुछ अराजक भी रहे। इन समूहों के सदस्यों की कलाभिव्यक्तियों में रोज़मर्रा का जीवन, आम आदमी की पीड़ा और जद्दोजहद रूपाकार पाने लगे थे।
1947 में देश के आज़ाद होने के पश्चात जीवन, व्यक्ति तथा समाज की आकांक्षाओं में आते गये बदलाव भी भारतीय कला-जगत को प्रभावित करते हैं। शासकीय कला-संस्थानों, संस्थाओं, संग्रहालयों और कला-दीर्घाओं आदि के उभरने से कला का वातावरण बदलता है। प्रतियोगी माहौल तैयार होने लगता है। कला-बाज़ार आकार लेने लगता है। बावजूद इस सबके, महिला चित्रकारों की बहुत उपस्थिति भारतीय कला-संसार में तब तक दर्ज नहीं हो पाती। सचाई तो यह है कि 1970 के दशक तक दुनिया के स्तर पर ही स्त्री कलाकारों के पर्याप्त नामलेवा नहीं थे। पुरातन समय से चली आ रही पुरुष-दृष्टि समाज में यथावत थी। रसूखदार कला-संग्राहकों, संग्रहालयों और कला-व्यवसायियों ने अपने हितों के अनुसार कुदरती ‘प्रतिभा’ और ‘महान-कलाकार’ की अवधारणाएं गढ़ रखी थीं। किसी कलाकार विशेष को श्रेष्ठ साबित करने के उनके अपने तरीक़े थे, समाज के हाशिये पर रही आयी ‘स्त्री’ को जिनसे बाहर ही रख छोड़ा गया था।
महिलाओं के हुकूक के लिए उठी आवाज़ों से कला-क्षेत्र की रूढ़ अवधारणाओं को भी प्रश्नांकित किये जाने की शुरुआत हुई। विख्यात मार्क्सवादी-सत्रीवादी विदुषी कैरोल डंकन कला-इतिहास के ऐसे पहलुओं की ख़ासी ख़बर लेती हैं और बताती हैं कि श्रेष्ठता के वे मानदंड किसी कलाकार के कला-कौशल और प्रवीणता से अधिक पुरूषवादी दृष्टि तथा सामाजिक-राजनीतिक ‘मांग’ अनुसार तय होते थे। स्त्रीवादी सिद्धांत बनने के बाद स्त्री कलाकारों की कृतियों की पहचान, अध्ययन और उनकी कला-शैलियों के निर्धारण की शुरुआत हुई। कला-इतिहास में स्त्री कलाकारों के नाम, उनके कालानुसार, विविध कला-आंदोलनों के साथ जोड़ने की पहलकदमी हुई। मगर, उसके साथ ही यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ कि मात्र नाम जोड़ देना पर्याप्त होगा?
भारतीय कला-संसार की कहानी भी भिन्न नहीं रही। 1930 से लगा कर 1970 के बीच की कालावधि में अमृता शेरगिल का नाम चाहे सम्मान पा गया, अनेक स्त्री कलाकारों को भारत के कला-इतिहास में वह स्थान नहीं दिया गया जो उनका दरअसल होना चाहिये था। यहां तक कि भारतीय कला में महत्वपूर्ण माने गये राजा रवि वर्मा की बहन मंगला थम्पूरात्ती (1865-1954) और अवनींद्रनाथ टैगोर की बहन सुनयनी देवी (1875-1962) की चित्रकारी तक की उतनी चर्चा नहीं हो सकी जितनी कि होनी चाहिये थी। ज़ाहिर है, उन्हें उतने अवसर और सुविधाएं भी नहीं मिलीं जितनी उनके प्रतिष्ठित कलाकार भाइयों को। संपन्न सांमती पृष्ठभूमि से आनेवाली इन कलाकारों की जब यह स्थिति रही तो साधारण परिवारों की महिला चित्रकारों की स्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
मगला बाई की चित्रकृति
सुनयनी देवी की चित्रकृति
यह तथ्य रेखांकित किया जाना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि पहले जिन स्त्री कलाकारों के नामों का थोड़ा-बहुत उल्लेख हुआ भी, उनमें से अधिकतर का संबंध किसी प्रख्यात कलाकार अथवा संपन्न-शक्तिशाली ख़ानदान से रहा। जैसे कि अंबिका धुरंधर (1912-2009) चित्रकार और ख्यात कला-शिक्षक महादेव विश्वनाथ धुरंधर की पुत्री थीं और गौरी भंज (1907-1998) चर्चित चित्रकार-कलागुरु नंदलाल बोस की बेटी थीं। वनलीला शाह का ताल्लुक प्रसिद्ध गांधीवादी ख़ानदान से रहा। शिल्पकार महाराज कुमारी बिनोदीनी मणिपुर के राज-परिवार से थीं। ऐसा क्यों है कि ललित कला अकादमी की सचिव रही चित्रकार, कला-इतिहासकार और आलोचक जया अप्पास्वामी अपने समकालीन पुरुष कलाकारों की अपेक्षा कम चर्चा पा सकीं? इंदौर के ललित-कला संस्थान में डी. डी. देवलालीकर से प्रशिक्षित पुरुष चित्रकारों की जितनी चर्चा हुई, उसके मुक़ाबले उनकी शिष्या देवयानी कृष्ण की चर्चा कितनी कम हुई! अलहदा चित्रकार नसरीन मोहम्मदी का नाम भी कला-जगत में उनकी योग्यता और योगदान के अनुरूप नहीं जाना-पहचाना गया।
अंबिका धुरंधर
अंबिका धुरंधर की चित्रकृति
वैश्विक स्त्री-आंदोलनों के बाद ‘स्त्री’ के प्रति नज़रिया बदलने की जो सुगबुगाहट हुई, उसकी आहट पश्चिम के साहित्य और कला-जगत में भी सुनायी देने लगी। भारत के कला-संसार में भी मृणालिनी मुखर्जी, नीलिमा शेख, नलिनी मलानी, माधवी पारेख, मीरा मुखर्जी, अर्पिता सिंह आदि के कला-मुहावरों की पहचान बनी और उनकी कलाकृतियां चर्चा में आने लगीं। हालांकि 1990 के दशक तक आते-आते भारतीय कला-जगत में स्त्री उपस्थिति कुछ अधिक मुखर हुई। अंतरराष्ट्रीय प्रभावों से ‘स्त्री’ कलाकारों ने अपनी ‘देह’ को कला-विषय बनाना शुरू किया। अपनी रचनात्मक बेचैनी व्यक्त करने के लिए स्त्री कलाकार केवल चित्रकारी तक सीमित नहीं रहीं। वे रूपंकर कला के नये माध्यमों की संभावनाएं भी टटोलने लगी थीं। ‘पर्फारमेंस’ कला में रुमन्ना हुसेन के कल्पनाशील प्रयोगों ने नयी शुरुआत की। ‘स्त्री-यौनिकता’ को स्त्री-दृष्टि से देखने, परखने की पहलकदमियां भी हुईं। यहां ध्यान दिलाना वाजिब होगा कि बतौर चित्र-विषय ‘स्त्री’ आधुनिक चित्रकारों की कृतियों में तो आती रही लेकिन अधिकांशतः एक ‘वस्तु’ रूप में ही। नयी सदी में भी अनेक कलाकार अपनी कृतियों में ‘स्त्री’ को ‘उर्वरता’ के प्राचीन आशयों के साथ ही बरतते हैं।
आज भी, बावजूद सारी हलचलों और प्रयासों के, कला-जगत में संस्थानों, दीर्घाओं और आलोचना पर पुरुष वर्चस्व जस-का-तस है। यह कड़वा सच भी कि ‘बाज़ार’ में स्त्री कलाकारों की उपस्थिति अब भी पुरुष कलाकारों की तरह महत्वपूर्ण और ताक़तवर नहीं हो सकी है। इस कारण कुछेक अपवाद जाने दें तो अधिकतर भारतीय स्त्री-चित्रकार अब भी खुद को ‘स्त्रीवादी’ घोषित करने से बचती हैं, तब भी सदियों से होते आये स्त्री-शोषण के विरुद्ध उनका उठ खड़ा होना महत्वपूर्ण माना जाना चाहिये। आख़िर ‘स्त्री’ की कामना, आकांक्षा, भय और तमाम तरह की सत्ताओं के साथ उनके संघर्ष को गहन संवेदना के साथ वे ही अभिव्यक्त कर सकती हैं। इसी कारण उनके चित्र-विषय और उनका कलात्मक निर्वाह पुरुषों की चित्रभाषा और कला-मुहावरों से भिन्न है। उम्मीद की जा सकती है कि आधी आबादी की मुखरता आने वाले समय में बढ़ेगी। खुद पर ‘स्त्रीवादी’ होने के ठप्पे से संकोच में न पड़ कर उनका पक्ष अधिक दृड़ता के साथ व्यक्त हो सकेगा।
manoj4165@gmail.com
बधाई, इस शोधपूर्ण आलेख के लिए मनोज भाई I वैसे समकालीन कला से हटकर लोक-चित्र शैलियों की बात करें तो यह एक ऐसा क्षेत्र रहा है, जिसकी कमान महिलाओं के हाथ ही रही है I संभवतः यह भी एक कारण रहा है कि हमारे आधुनिक कला समाज द्बवारा बहुत देर से लोक कलाकारों को महत्त्व दिया जाने लगा
ज़रूरी लेख।
नसरीन मोहम्मदी भारत की सम्भवतः पहली अमूर्त चित्रकार हैं। वे गायतोंडे की समकालीन थीं।उनका ज़िक्र भी न के बराबर सुनने को मिलता है। अच्छे आलेख के लिए धन्यवाद।