छह कविताएं / अदनान कफ़ील दरवेश


अदनान कफ़ील दरवेश की कविताएं हमारे समय के बारे में कवि की बेहद व्याकुल और आविष्ट प्रतिक्रियाएं हैं। जिन ‘फिल्मों, नाटकों और कथाओं के दृश्य / इस बात की गवाही देते हैं / कि सब सही है यहां, वे काल के गाल में समय जायेंगी, लेकिन अदनान की इन कविताओं को सालों-दशकों बाद भी इस भयावह दौर के अभिलेख के रूप में पढ़ा जायेगा। 

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छुटकारा

एक दिलफ़रेब ख़ाब था
या कोई और दुनिया का मख़्सूस वक़्फ़ा
बताना मुश्किल है…
लेकिन उससे भी मुश्किल ये है
कि जब आंख खुली
मैं मेज़ पर रखे रान की तरह पड़ा था
और मेरे गिर्दो-पेश
एक चार सौ साल पुरानी
तारीकी थी
जिसमें मैं
सिक्के की तरह खनकता था

मुझे रुई के गोले में बदल कर
एक टिन के बक्स में
हिफ़ाज़त से रखा गया
किसी का ज़ख़्म साफ़ करने के लिए

मुझे आबनूस की लकड़ी के फ़्रेम में
आईना बनाकर
जड़ दिया गया
और शहर की फ़सील पर
लटकाया गया

मैं सैकड़ों साल तक मनो धूल खाता
और पानी पीता रहा
मेरी लकड़ी को मुलायम समझ
ख़ून और वीर्य पोंछे गए
जिनके निशान
आबनूस में ग़ायब हो जाते…

मैंने जंग के मैदान से
उठते शोर को
गहराई से महसूस किया
जब मेरा शीशा
चटख़ गया
और मैं
अपने आबनूस से
लगभग आज़ाद हो गया…

लेकिन सवाल था
अभी मेरे पास सिर्फ़ दो हाथ और आधा धड़ थे
मेरे पैर अभी भी क़िले के अंदरूनी हिस्से में दफ़्न थे
मुझे उन्हें पाने के लिए
अपनी ज़ुबान का सौदा करना पड़ा

मुझे एक दरख़्त की ठंडी छांव में ले जाया गया
जब मैं अपनी तलवार खो चुका था
अपनी ज़ुबान गिरवी रख चुका था
अपनी क़लम तोड़ चुका था
मुझे एक हैबतनाक वाक़ये का किरदार बनाया गया
मुझे नई ज़ुबान पहनायी गयी
मुझे एक नई तलवार दी गयी
मुझे एक सफ़ेद घोड़े पर
यूं महाज़ पर रवाना कर दिया गया
जैसे इसी दिन के लिए मैं पैदा हुआ था
जैसे यही मेरा ख़ाब था
यही मेरा किरदार

मैंने लगाम खींची और मेरे हाथ उखड़ गये
मैंने सदाएं देनी चाहीं और मेरी ज़बान खो गयी

मैं घोड़े से उतर गया
और उसके खुरों से
नाल निकाल कर
उसे आज़ाद कर दिया
और मैं अपने हाथ
और ज़बान के इंतज़ार में
रस्ते के किनारे
वहीं लेट गया
और जब मेरी आंख खुली
मैं मेज़ पर रखे रान की तरह पड़ा था

मैंने इस तरह ख़ाब और जिस्म
दोनों से छुटकारा किया।

 

निकालो बाहर

निकालो बाहर मेरे लहू से मेरी ख़ामोशियां
मेरी हैरत, मेरी सरगोशियां
निकालो ! निकालो ! उस क़दीमी मायूसी को
जो निकलती नहीं किसी करवट
उस मामूलीपन को भी निकालो
जो याद आती है छुटपन की तरह

निकालो ! निकालो !
मेरे लहू से मेरे खोये हुए असरार
निकालो मेरे लहू से मेरा बिलखना,
मेरी पुकार
निकालो मेरी ठण्डी रूह को
उस हौलनाक अंधेरे से
जहां वो कबसे पड़ी है साकित

निकालो ! निकालो !
मुझसे मेरी उलझनें,
मेरी नाचारी
मेरे लहू में उतारो अपने ख़ंजर
अपने तिरशूल
अपनी तलवारें
अपनी पिस्तौल

निकालो ! निकालो !
मेरे लहू से शरारे
निकालो मेरे लहू से शहर के शहर
सहरा के सहरा
दश्त के दश्त
निकालो मेरे लहू से मेरी बेचैनियां,
मेरी तड़प

निकालो मेरे लहू से अपने आहन
अपना सोना
अपने शीशे
अपने जहाज़
अपना फ़रेब, अपना झूठ
निकालो बाहर मुझसे अपनी तस्वीरें
निकालो ! निकालो !
मेरे लहू में तैरती अपनी गड़ती आंखें

निकालो बाहर मुझसे जानवरों के रेवड़
मुझसे बाहर निकालो मेरी उदास शामें,
मेरी रातों के रतजगे
मेरी सुब्ह की चटख़
मेरी बरहनगी
मेरे शोले, मेरे बुत, मेरी रौशनाई
निकालो बाहर मेरे लहू से बेशुमार सनमकदे, मनादिर और कलश और कंवल और राख

मेरे लहू से निकालो अपने खुदाओं को
ख़ुदा के लिए एक-एक कर अब…

 

महशर*

बहुत पुराना है उनका दुःख
पुरानी चादरों और पुराने कंबलों से भी पुराना
पुराने बर्तनों और पुराने पीपल के दरख़्तों से भी पुराना
जर्जर कुओं, सूखे तालाबों, बंजर चरागाहों
और खंडहर मकानों से भी पुराना
उजाड़ परित्यक्त रेल संपत्तियों से भी पुराना
पुराने ज़ख़्मों और पुरानी अवैध कॉलोनियों से भी पुराना
रेत और बर्फ़ से भी प्राचीन है उनका दुःख
धरती और समुद्र से भी पुराना
जितना पुराना है नमक
उतना पुराना है उनका दुःख
या उससे भी पुराना
कि जितनी पुरानी है हिंसा…
आप सोचते होंगे आख़िर वे कौन लोग हैं
जो धुएं की मानिंद उठते हैं और फैल जाते हैं
धूल की तरह उड़ते हैं और बैठ जाते हैं
राख की तरह झड़ते हैं और खो जाते हैं
आप जानना चाहते होंगे उनके नाम
उनके बाप-दादाओं के नाम
उनकी ज़ुबान और उनके मज़हब का नाम
उनके नाम अलग-अलग भाषाओं में हैं
लेकिन उनके डर अद्भुत रूप से समान हैं
वे दुनिया के सबसे पुराने मकीन हैं
और सबसे पुराने मुहाजिर भी

उनके चेहरे भी मिलते-जुलते से हैं
वे दुनिया के सबसे सताये हुए लोग हैं

वे अपने मुहल्लों और बस्तियों में भी
विस्थापितों की सी ज़िंदगियां बसर करने पे
मजबूर किये जाते हैं
उनके घरों को दंगों में सबसे पहले
आग लगाया जाता है
और सरकारी बुल्डोज़रों से
सबसे पहले नेस्तोनाबूद किया जाता है उन्हें

वे सबसे ज़्यादा खटने वाले मेहनतकश लोग
सबसे कमज़ोर समझे जाने वाले लोग
एक दिन उट्ठेंगे
और डटकर खड़े हो जाएंगे
तमाम ज़ालिम तानाशाही हुकूमतों के ख़िलाफ़
और अपने सारे पुराने दुःखों का हिसाब मांगेंगे
एक दिन महशर यहीं से उट्ठेगा
यहीं लगेगी सबसे बड़ी अदालत
और होगा न्याय
आप मज़लूम बस्तियां उजाड़ने वाले हुक्मरान लोग
उस रोज़ किस ख़ुदा को याद करेंगे ?

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*क़यामत का दिन

 

मुश्किल दिनों की तैयारी

मुश्किल दिनों में
दिन और रात भी मुश्किल लगते हैं
दिन, जैसे हंसता मालूम पड़ता है
हमारी बदहाली पर
और रातें, बदशक्ल चेहरे छुपाये
बच्चों को डरा कर, ठहाके लगाती हैं
समय, एक चुनौती की तरह
दरवाज़े पर खड़ा, दस्तक देता रहता है
और हम कांपते हुए, दुबके रहते हैं
उसकी जेबों में नुकीले चाक़ू, छुपे रहते हैं
हम घुटन से भरे अपने कमरों से भागते हैं
आंगन की तरफ़
और क़त्लगाहों के मोड़ हमें
खींच लेते हैं
मुश्किल दिनों में ज़ोर-ज़ोर से हंसते हैं हम
या दहाड़ें मार रोते हैं
लेकिन एक फ़र्क़ के साथ
कि हम शामिल नहीं होते
इन दोनों में अक्सर ही
एक पागलपन में नसें चिटकती हैं
और लहू ठोस हो जाता है
और पत्थर की तरह
आंखों से झांकता है बार-बार…

मैं मुश्किल दिनों की तैयारी
अभी से थोड़ा-थोड़ा करने लगा हूं

जैसे अपने आंसुओं को बचा कर रखने लगा हूं
बच्चों के लिए मीठी लोरियां याद करने लगा हूं
और अपनी आंखों को बार-बार जांचने लगा हूं
कि उन्हें नुकीले दांत और नाख़ून
साफ़-साफ़ दिखायी देते हैं या नहीं
उन दिनों के लिए
जब रोने, छिपने और लड़ने के सिवा
और कोई काम
बचेगा ही नहीं इस दुनिया में।

 

अब तो सब सही है

जो हुआ, वो सही था
तुमने जो किया, सही था
तुम जो करोगे, वो सही ही होगा
जैसे बंटवारा सही था
भोगी-लोभी भी सही हैं
बाबरी मस्जिद विध्वंस सही था
गोधरा में जो हुआ सही था
तुम्हारी घृणा सही ही है
तुम्हारा चुनाव सही है
तुम्हारी ज़ुबान सच्ची है
तुम्हारा हिंदूवाद सही है
तुम इतने नफ़ीस दुश्मन हो कि
अब तो सब सही है
न्यायालय
लोकतंत्र
भांड
मसख़रे
चुनाव…
तुम्हारी नफ़रत सही है
क्योंकि उसपे तुमने कोई मुखौटा नहीं ओढ़ा
आज एक दोस्त से मुसाफ़ा करते वक़्त
उसकी आस्तीन में छुपा
छुरे का सिरा चमक उठा
इससे पहले कि पुराने वक़्तों की याद के बाबत
दोस्त शर्मिंदा होता
मैं ख़ुद शर्मिंदा हो लिया

और मुस्कुरा दिया

हमें भी यक़ीन आ ही गया अब
आना ही था एक दिन
कि कोई भाईचारा नहीं था कभी यहां
न कोई गंगा-जमुनी तहज़ीब थी
ये सब तो बुज़ुर्गों की क़ब्रों से उड़ती धूल थी
जो बैठ गयी
तुम्हारे फिल्मों, नाटकों और कथाओं के दृश्य
इस बात की गवाही देते हैं
कि सब सही है यहां
इसलिए अब किसी तमहीद की ज़रूरत नहीं रही…

ग़नीमत है
तुमने पचहत्तर सालों का भ्रम
दूर कर ही दिया हमारा
इसलिए अब तो सब सही है !
और मैं ये सोचकर कितना आश्वस्त हूं
कि इस गर्मी की दुपहर
कच्चे प्याज़ और कुछ रोटियां खाकर
मुझे आख़िरकार
शायद नींद आ जायेगी।

मदफ़न*

एक हिंदुस्तान था
जो हृदय से चीत्कार की तरह उठ कर…
आंखों में गर्म चुभती हवा की मानिंद
लहरा रहा था
उस वक़्त मैं अपनी ही विस्मृत गली में
एक फटे काग़ज़ की मानिंद
पुरानी जर्जर चौखटों से लिपटता
फड़फड़ा रहा था

इन सबके बीच उमीद का
एक अदृश्य ख़ून आलूद आंचल
जिस्म पर आख़िरी लिबास की तरह
चिपक रहा था
और एक दरवेश
अपना फूटा कश्कोल लिये
अपना अंतिम गीत गाता फिर रहा था…

हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा अब एक गर्म ख़ंजर का
पुराना पड़ चुका खोल भर था
जो किसी दम हमारा ही सीना
चाक कर सकता था
लेकिन कमर से लटकाये
हम अब भी उस पर यक़ीन करने की ज़िद्द पर
अड़े हुए थे

अब हिंदुस्तान, एक अनोखा मदफ़न बन चुका था
जिसमें हर रात मैं और मेरे जैसे तमाम लोग
अपनी ही छोटी-छोटी क़ब्रें खोद रहे थे…

_________
*दफ़्न करने की जगह

 

thisadnan@gmail.com

 

 


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