राकिया की अम्मा / समीना ख़ान


2024 के राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान से सम्मानित ‘राकिया की अम्मा’ को पढ़ते हुए किसी वरिष्ठ, तथापि अ-गरिष्ठ, उस्ताद की लिखी कहानी पढ़ने का-सा अहसास होता है। ज़रूरी ब्योरों से चरित्र को जीवंत कर देने और मार्मिकता को एकदम सही बिंदु पर उभार देने की कला इस कहानी की ताक़त है। यहां दो चरित्र हैं—राकिया की अम्मा और फ़िरोज़—एक, दुलाइयां सीकर किसी तरह अपना गुज़र करने वाली मेहनतकश, चुप्पा और निहायत अकेली वृद्धा; और दूसरा, उन दुलाइयों को कारीगर की जानकारी के बग़ैर ऊंचे दामों और ऊंची जगहों पर बेचने वाला, बेईमान लेकिन अपनी बेईमानी को लेकर अपराध-बोध का मारा बिचौलिया। इनकी कहानी बड़े आराम से शोषित और शोषक की, भोले-भाले श्रमिक और घाघ दलाल की कहानी बन सकती थी, लेकिन समीना ख़ान इस सरलीकृत फॉर्मूले की तरफ़ नहीं जातीं। इसीलिए कहानी के आकार में ही चरित्र-निर्मिति की उस जटिलता को संभव कर पाती हैं जो निस्बतन दुर्लभ है। यहां चीज़ें सफ़ेद और स्याह खानों में बंटी हुई नहीं हैं। अगर अपने अकेलेपन, ख़ामोशी और असाधारण हुनर के कारण राकिया की अम्मा अविस्मरणीय हैं तो वह फ़िरोज़ भी भुलाने लायक़ चरित्र नहीं है जिसकी दुविधाओं के साथ-साथ जिसके बेईमान बिचौलिया बनने की पृष्ठभूमि को भी कहानी अनायास सामने ले आती है।

मामूली-से दिखते इशारों और ग़ैर-इरादतन लाये गये-से ब्योरों के ज़रिये यह कहानी बहुत कुछ साध लेती है—तभी यहां मौत के बहाने ‘पहली बार’ होने वाली चंद चीज़ों का चलता-चलाता-सा ज़िक्र भी एक जीवन-शैली की तस्वीर बन जाता है: ‘ये मोहल्लेवालियां पहली ही बार इस कमरे की दहलीज़ में दाखिल हुई थीं। पहली ही बार राकिया की अम्मा बिना चश्मे के नज़र आई थीं और पहली बार ही उनके तन पर बिना जोड़-पेबंद वाला इतना साफ़-सफ़ेद पहनावा सबने देखा था। बस सुकून था जो हमेशा की तरह आज भी वैसे ही उनके चेहरे पर डटा हुआ था, रूह के निकल जाने के बावजूद।’

समीना की कथा-भाषा अनुकरणीय रूप से परिपक्व और प्रवाहपूर्ण है जिसमें शब्दों का चयन ही नहीं, ‘कहने’ और ‘दिखाने’ का अनुपात भी बेहद सधा हुआ है—इतना कि आपको कहीं कुछ भी ‘अतिरिक्त’ नहीं लगता। आइए, कहानी पढ़ें!

–संजीव कुमार   

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माहौल में बसी सीलन पर लोबान की महक और धुआं हावी होने लगा था। डबलबेड से कुछ बड़े उस कमरे में एक ही दरवाज़ा था, जिसे मोहल्लेवालियां अंदर आने और बाहर निकलने के लिए इस्तेमाल कर रही थीं। कमरे की छत भी इतनी ऊंची थी कि औसत क़द की औरत उसे एड़ी उठाए बिना आसानी से छू सके। दरवाज़े वाली दीवार में एक खिड़की ज़रूर थी मगर एक दूसरे से सटी औरतों ने इसे पूरी तरह से सील कर दिया था। इस कमरे में बाहर से आने वाली रोशनी का कोई गुज़र नहीं था। दरवाज़े के सामने वाली दीवार मज़बूत होने के साथ अच्छे मसाले और रंग-रोग़न की मालिक रही होगी। इसी दीवार पर न जाने कितने वॉट का बल्ब था जिसकी रोशनी को उस पर जमी चिकटी मैल ने बहुत कमज़ोर कर दिया था। स्विच बोर्ड से बल्ब के होल्डर तक जाने वाले जिस तार में करंट दौड़ रहा था, उसपर चढ़े रबर से मोटी परत, धूल-मिटटी और मटमैले बारीक रेशों की थी। इस बल्ब को खोलने बंद करने वाला स्विच भी अपनी असली रंगत खोने के बाद एक कील के सहारे दीवार में झूल रहा था।

बल्ब के नीचे इसी दीवार से सटी राकिया की अम्मा अपने आख़िरी सफ़र पर जाने की तैयारी पूरी कर चुकी थीं। यह पहला मौक़ा था जब उनके जानने वाले उन्हें इस तरह चार कंधों पर सवार देखेंगे। कभी किसी ने उन्हें अपने पैरों के अलावा किसी और सवारी का मोहताज नहीं पाया। उनकी हर ज़रूरत उसी दायरे में सिमटी हुई थी, जहाँ तक उनके क़दम पहुंच सकें। घर से गली, गली से सड़क और सड़क से चौराहा। इस चहलक़दमी की हर दूरी में उनकी जायज़ ज़रूरतें पूरी हो जातीं और किसी ने उन्हें इस सरहद के बाहर न तो जाते देखा और न कभी किसी से सुना।

ये मोहल्लेवालियां पहली ही बार इस कमरे की दहलीज़ में दाखिल हुई थीं। पहली ही बार राकिया की अम्मा बिना चश्मे के नज़र आई थीं और पहली बार ही उनके तन पर बिना जोड़-पेबंद वाला इतना साफ़-सफ़ेद पहनावा सबने देखा था। बस सुकून था जो हमेशा की तरह आज भी वैसे ही उनके चेहरे पर डटा हुआ था, रूह के निकल जाने के बावजूद।

नाक पर अपना आंचल या नक़ाब रखे इन औरतों के बैठने की जगह इस कमरे में नहीं थी। इस आने और जाने के बीच में कुछ देर रुकना, फुसफुसाहट के साथ एक जैसी बातों का दोहराना और फिर कमरे से बाहर आकर खुले में सांस लेने का सिलसिला ज़्यादा देर नहीं चला। मिट्टी उठाने की बात उठते ही अंदर मौजूद औरतें भी बाहर निकल आई थीं और गली में इस तरह से खड़ी हो गईं ताकि ज़यादा से ज़्यादा रास्ता दिया जा सके। इन हमदर्दी और तसल्ली वाले चेहरों में कोई आंख नम न थी। आपस में होने वाली सुगबुगाहटें मिट्टी उठने के साथ तेज़ आवाज़ वाले कलमे में बदलने लगीं और ‘ला इलाहा इल्लल्लाह…’ के साथ आख़िरी सफ़र की रूहानियत का समां खुद-ब-खुद बनाता चला गया। जैसे-जैसे मिट्टी आगे बढ़ी, कलमे की आवाज़ें धीमी होती हुई सुगबुगाहटों में तब्दील होने लगीं।

‘’बेचारी की मुश्किल आसान हुई।‘’ ‘’बेचारी का कोई सगा नहीं था।‘’ ‘’नेक औरत थी। पूरी उम्र मेहनत और हलाल की कमाई खाई। क्या मजाल जो किसी के आगे हाथ फैलाया हो।‘’ ‘’बेचारी का हुनर भी चला गया मनो मिट्टी में!’’

चालीस बरस पहले जब राकिया के अब्बा ने दम तोड़ा था तो इसी जगह बनी उनकी टट्टर और टीन वाली झोपड़ी के अलावा एक पुराना रिक्शा उनकी मिलकियत हुआ करती थी। इस हाथ वाले रिक्शे पर राकिया के अब्बा दिनभर सवारी ढोते थे और राकिया की अम्मा दुलाइयां सीती थीं। कोई नहीं जानता कि राकिया उनके बेटे का नाम था या बेटी का? राकिया की पैदाइश और मौत का भी किसी को पता नहीं था। राकिया के नाम से ये दोनों मियां बीवी ऐसे बंध गए थे कि अपने नाम को भी भुला बैठे।

मोहल्ले में आबाद नस्ल ने जबसे होश संभाला था, इन दोनों को पक्की उम्र का देखा था। जब राकिया के अब्बा मरे थे, तब चेहरे की झुर्रियां और सफ़ेद बाल उनके बुढ़ापे की निशानियां बनकर उभर चुकी थीं। किसी को भी नहीं याद था कि उनकी मौत किस बहाने से आई थी। बताते हैं कि राकिया की अम्मा अकेली रह गई थीं और कुछ दिन पास-पड़ोस से खाना आता रहा फिर उन्होंने अपने आपको समेटा और उसी काम में खुद को खपा दिया जो उन्हें आता था।

राकिया के अब्बा की मौत पर गली के जिन बच्चों ने राकिया की अम्मा को देखा था, आज उनकी क़लमें सफ़ेद हो चुकी हैं और दुनिया भर की चकल्लस से किनाराकशी के बाद अपने काम के अलावा अब उन्हें मस्जिद के रुख़ पर जाता देखा जा सकता है। उस दौर की बच्चियां भी अब उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहां बहु और दामाद की तलाश रहती है। इस अरसे में राकिया की अम्मा में भी बड़े बदलाव आए। पता नहीं उम्र का तक़ाज़ा था या हुनर की देन, बरसों पहले ही उन्होंने झुककर चलना शुरू कर दिया था। क़द औसत से कुछ छोटा ही था। तपे हुए जस्ते जैसी खाल पर इक्का-दुक्का चेचक के दाग़ नज़र आ जाते थे। गोल चेहरे पर छोटी सी नाक, जिस पर हमेशा चश्मा अटका रहता। बहुत चौड़े फ्रेम वाला काला चश्मा और उसके मोटे-मोटे लेंस। पिछले कुछ बरसों से इस चश्मे की डंडियां नज़र नहीं आती थीं। उन पर डोरे की घेरेबंदी भी मटमैली होकर सख्त प्लास्टर की तरह टूटी कमानी को जोड़ने का काम करती थी। नाक के हिस्से पर भी की गई इस घरेलू मरम्मत ने एक शीशा ज़रा ऊंचा कर दिया था। सामने देखने के लिए जब राकिया की अम्मा चेहरा उठातीं तो लेंस सीधे करने की कोशिश में चेहरा एक तरफ झुक जाया करता था। मगर उन्हें निगाह साध लेने का हुनर भी आ ही गया था। बहुत सफ़ाई के बावजूद भी चश्मे के कांच पर फ़्रेम के किनारों से जमने वाली धूल धीरे-धीरे लेंस का काफ़ी हिस्सा घेर चुकी थी। इस नाकाफ़ी सफ़ाई ने लेंस का इतना हिस्सा अभी भी साफ़ रखा था कि राकिया की अम्मा दूरबीन की तरह दोनों पुतलियों से देखने का काम ले ही लेती थीं।

वैसे तो कभी किसी ने उनका चश्मा उतरा नहीं देखा था मगर न जाने क्यों एक डोरी दोनों डंडियों के साथ उनकी गर्दन में पड़ी रहती थी। डोरी देखकर यूं लगता था कि शायद इसे डाल कर भूल गई हों। अपनी ज़ात से कुछ ज़्यादा ही बेपरवाह थीं राकिया की अम्मा। गर्मियों में ही रोज़ नहाना नहीं होता था। बाल सवारने की आदत भी नहीं थी। जिस दिन नहातीं तो बालों को इतनी ज़ोर से खींचकर चुटिया बनातीं कि भवें तक खिंच जाया करती थीं। धीरे-धीरे ये बाल चोटी की पकड़ से आज़ाद होते और फिर अगले कई दिनों तक बिखरते चले जाते। ये रूखे बाल कंघे के मोहताज नहीं थे। हवा का रुख़ या राकिया की अम्मा की हथेली इन्हे जिधर समेट दें, ये उधर के होकर रह जाते थे। तब-तक जब-तक अगली बार सिर न धुल जाए। अकसर नहाने का मौक़ा न आता और सारे बाल रिबन की गिरफ़्त से आज़ाद होकर पतली सी चोटी का वजूद ही ख़त्म कर देते तो एक बार फिर से राकिया की अम्मा अपनी इन लटों को समेटकर धागे की नलकी जैसा जो जूड़ा लपेटना शुरू करतीं तो न जाने उनका हाथ कितने चक्कर घूमता चला जाता और वह लट के आख़िरी बाल को भी लपेटकर ही दम लेतीं।

दरवाज़े के पास से भीड़ छंटने लगी थी। आस-पड़ोस के लोगों का ग़म भी धीरे-धीरे छंटने लगा। किसी ने आगे बढ़कर दरवाज़ा बंद कर दिया था। कुछ ही देर में गली अपने मामूल पर आ गई। लोबान भी बेअसर हो चुकी थी। जल्दी ही मलकुलमौत के इस इलाक़े से गुज़रने के सारे सबूत मिट गए। बंद दरवाज़े वाले इस धुंधले कमरे में कोई रोने वाला भी नहीं बचा था। अगर होता तो पड़ोसी अगले तीन रोज़ तक इस घर का चूल्हा न जलने देते। मय्यत वाले घर में अगले तीन दिनों तक खाना कहां पकता है! हमसाये और रिश्तेदारों की ज़िम्मेदारी होती है कि पाबन्दी से चाय और खाने का इंतिज़ाम करवाएं। मगर मरहूमा बड़ी ख़ुद्दार निकलीं। मरने के बाद पड़ोसियों को इस ज़िम्मेदारी से भी बचा गईं।

 

 

उस रात मय्यत वाले घर का मटमैली रोशनी वाला बल्ब और दरवाज़ा दोनों ही बंद थे मगर गली की तेज़ रोशनी ने इस एहसास को भी हावी न होने दिया। राकिया की अम्मा और उनका हुनर मनो मिट्टी में दब चुका था। वही हुनर जिससे वह ख़ुद बेख़बर थीं। राकिया की अम्मा को दुलाइयां बनाने की बड़ी ही बारीक जानकारी थी। नवाबों की जड़ावल हुआ करती थी ये दुलाइयां। अपनी ज़िंदगी में उन्होंने हज़ारों दुलाइयां बनाई होंगी और सैकड़ों की मरमत की होगी।

कुछ बरसों बाद शायद ही कोई जान सके कि दुलाई नाम से कोई जड़ावल होती थी जो गुलाबी सर्दियों में ओढ़ी जाती थी। यह नवाबों का शौक़ था और उनके ख़त्म हो जाने के बाद भी राकिया की अम्मा की उम्र तक खिंचा चला आया। अब इस इलाक़े और शहर क्या शायद दुनिया में भी कोई दुलाई बनाने वाला न बचा होगा।

राकिया की अम्मा अपने घर में दुलाई बना रही हों या किसी और के आंगन में, उस जगह को गुलज़ार कर दिया करती थीं। ज़्यादातर ख़ामोश रहने वाली राकिया की अम्मा जहां जातीं वहां पहले पोछा लगवाकर बड़ी सी जाज़िम बिछवा लेतीं। फ़र्श अगर बहुत साफ़ है तो उन्हें कुछ बिछाने की भी ज़रूरत नहीं महसूस होती और पोछे के सूखने के बाद उनका रंग-बिरंगा संसार उस आंगन में फैलता चला जाता। अस्तर, रुई, उपल्ला, गोट, कैंची, सुई-धागा और राकिया की अम्मा का हुनर। सबसे पहले दुलाई का अस्तर बिछातीं, फिर इस पर रुई की तह लगाती चली जातीं। कभी रुई धुनी हुई मिल जाती और कभी बंडल वाली। अब तो कभी-कभी लोग फ़ाइबर वाली रुई की बनी-बनाई शीट भी ले आया करते थे। फिर इस पर उपल्ला (कपड़े की ऊपरी परत) बिछातीं। जाली वाली दुलाई के लिए जाली से पहले अस्तर लगता। उपल्ले के किनारे गोट लगाई जाती। इस गोट की ख़ूबी इसका औरेबी होना होता था। यानी कपड़ा सीधा-सीधा काट कर अगर बॉर्डर बना दिया तो क्या कमाल किया? ख़ूबी तो तब है कि बॉर्डर का कपड़ा बेड़ा कटा हो और चारों कोने बिलकुल तराशे हुए सधे नज़र आएं। तब ही लखनव्वा दुलाई की ख़ूबसूरती परवान चढ़ती है।

ज़रा अंदाज़ा लगाइए, लखनव्वा दुलाई का एक कोना जब इतनी मेहनत मांगता है तो इस जड़ावल का शौक़ नवाबों के बस का ही हो सकता है। लखनव्वा दुलाई बनाते वक़्त ऊपर-नीचे की इन तहों में पांच से सात परतें बिछाई जाती थीं। राकिया की अम्मा औरेबी गोट को सुई धागे से इतना बारीक सीतीं थीं कि उसके आगे मशीन की सिलाई फेल हो जाए। इनके पास नापने वाला फीता कभी किसी ने नहीं देखा। छोटी उंगली से अंगूठे तक की दूरी वाला बालिश्त और छोटी उंगली से शहादत वाली उंगली तक एक से चार अंगुल। बस यही उनकी पैमाइश के औज़ार थे। उम्रभर की इस मशक़्क़त ने उनकी नज़रों में एक न नज़र आने वाला पैमाना भी सेट कर दिया था। चश्मे के पीछे से उनकी नज़रें इस नाप-जोख को बख़ूबी समझ कर ज़ेहन की किताब में गुणा-भाग कर लेतीं और इस तराश-ख़राश के बाद जो नतीजा सामने आता, उसमे न तो कपड़े पर कोई शिकन होती और न ही इस पूरी कारीगरी में दुलाई पर कोई खिंचाव नज़र आता।

निचले अस्तर से ऊपरी परत तक, गोट और सजावटी सामान के साथ जब सारीं तहें बिछ जातीं तो शुरू होता था राकिया की अम्मा का इस दुलाई के चारो तरफ़ किया जाने वाला तवाफ़ (परिक्रमा)। उस वक़्त तो राकिया की अम्मा ज़मीन बन जातीं और उनके सामने बिछी दुलाई सूरज। फिर वह इस सूरज के चक्कर लगाना शुरू करतीं और तब तक लगाती जातीं जब तक पूरी दुलाई के हर कपड़े को कच्ची सिलाई से जकड़ न दें। इस तवाफ़ की शुरुआत से पहले की तैयारी कुछ यूं होती थी कि बाएं पैर का घुटना मुड़कर ठुड्डी के करीब आ जाता और दाहिने हाथ में चुटकी की मदद से सुई संभाल लेतीं। गज़भर तागे वाली एक और सुई भी अपने नंबर के इन्तिज़ार में दुलाई के बीचोबीच जैसे मोर्चा संभाले नज़र आती थी। दाहिना पैर इस तरह मुड़ता कि घुटना ज़मीन से लग जाता। बाएं पैर का तलवा ज़मीन पर और दाहिने पैर का तलवा बाएं पैर से लगा हुआ। बाएं हाथ से कपड़े की सिलवटें हटातीं और दाहिने हाथ की चुटकी में थमी सुई इन परतों को नन्हे-नन्हे टांकों से जकड़ती आगे बढ़ने लगती। दुलाई की डगर और सुई तागे का सफ़र। राकिया की अम्मा इस सफ़र में ऐसा खोतीं कि सारी दुनिया से बेख़बर हो जातीं। अपनी ज़िंदगी में राकिया की अम्मा ने जितने चक्कर दुलाई के लगाए थे अगर उतना ज़मीन पर किसी एक दिशा में चलना शुरू करतीं तो ना मालूम धरती के कितने चक्कर पूरे कर लेतीं।

कच्ची सिलाई करने में दिन बीत जाता। इस बीच अगर कोई खाने को पूछ लेता, तो सुई को किसी मुनासिब मोड़ पर रोक दिया करती थीं। ख़ामोशी से खाना खातीं, कभी कोई यह न जान सका कि मिर्च-मसाले की शौक़ीन हैं या सादे खाने की। न मुर्ग़-मछली देखकर चेहरे पर मुस्कान सजी और न ही दाल सब्ज़ी उन्हें रुसवा कर पाई। खाने के बाद अगर पान न मिले तो उनके मुंह से दो लफ़्ज़ बरामद हो ही जाते थे। उस घर की बहु को ‘दुल्हिन’ या बेटी को ‘बिटिया’ के नाम से मुख़ातिब करते हुए उसमे ‘पान’ जोड़ दिया करतीं। सभी जानते थे की ज़रा सी तम्बाकू वाला पान अब बाक़ी दिन इनके मशीन जैसे जिस्म में तेल का काम करेगा और दुलाई में अच्छे ख़ासे तागे डालकर ही राकिया की अम्मा उसको समेटेंगी।

नाज़-नख़रे वाली एक दुलाई पूरी होने में डेढ़ से दो दिन लग जाया करते थे और इसका जोड़ा पूरा करने में तीन से चार दिन। अकसर लोग पुरानी दुलाइयां खोल कर उन्हें फिर से बनवाते तो भी इतना ही वक़्त लगता था। राकिया की अम्मा, पुरानी दुलाई को भी उसी सलीक़े से सीने बैठतीं जिस लगन से वह जहेज़ की दुलाई सिया करती थीं।

ऐसा लगता था कि उनकी ख़ामोशी का उनके हुनर से बड़ा गहरा ताल्लुक़ हैं। सुई की बदौलत टंकने वाले ये टांके शायद उनके अलफ़ाज़ का बदल थे या उन्होंने कोई ऐसी मन्नत मान ली थी कि जितना वह ख़ामोश रहेंगी उतना ही उनका हुनर शानदार रहेगा। हालांकि कभी किसी ने उन्हें इन बोले गए दो चार अलफ़ाज़ पर अफ़सोस करते भी नहीं देखा था। राकिया की अम्मा का हुनर बस यहीं पर ख़त्म नहीं हो जाता था। पुरानी साड़ी, गरारा और शलवार जम्पर से भी वह बड़ी ही ख़ूबसूरत दुलाइयां बना दिया करती थीं। मोहल्ले की दूर बियाही बेटियां या कई रिश्तेदार इस हुनर की क़द्र करते थे और अपनी शादियों के झिलमिलाते दुपट्टे, साड़ियां या फिर ग़रारे इस नियत से संभालकर रख लिया करते थे कि इस सीज़न में राकिया की अम्मा को बाक़ी सामान देकर दुलाई ज़रूर सिलवानी है। बेटी के जहेज़ में दुलाई देकर ज़िम्मेदारी ख़त्म नहीं हो जाया करती थी क्योंकि मोहल्ले भर के नाती-पोतों की छठी की दुलाई का बयाना भी राकिया की अम्मा के पास ही रहा। सुनहरी, रुपहली दुलाइयां, सलमा-सितारों और धनक-चंपा से सजी दुलाइयां।

कभी-कभी ऐसा भी लगता कि उन्होंने अपनी ख़ामोशी को तैयार हो रही दुलाई की हरारत से जोड़ लिया है। वह जितना ख़ामोश रहेंगी उतना ही यह दुलाई ओढ़ने वाले को गर्मी देगी। अगर वाक़ई उन्होंने ऐसा कुछ सोच रखा था तो उनकी सोच ग़लत नहीं थी। क़द्रदान इस दुलाई के आगे बाज़ार के कम्बल और रज़ाइयां किनारे कर दिया करते थे। माएं भी अपने बच्चों को उनकी सिली दुलाई के हवाले करके मुतमईन हो जाया करती थीं।

राकिया की अम्मा का यह हुनर मोहल्ले और शहर तक नहीं फैला था बल्कि परदेस में भी उनके क़द्रदान थे। हां, ख़ुद राकिया की अम्मा इस बात से बेख़बर थीं। काम से काम रखने वाली राकिया की अम्मा ज़रूरत भर का बोलतीं थी और सिलाई भर का सुनती थीं। उन्हें क्या ख़बर कि उनकी तैयार इस दुलाई को कौन कहां भेज रहा है, मगर भेजने वाले इसे लंदन अमरीका भी पहुंचा चुके थे।

वतन से भेजे गए इस शाही तोहफ़े से लोगों ने ख़ूब-ख़ूब रिश्तेदारियां मज़बूत कर डालीं थीं। मोहल्ले की बेटियों के ससुराल दर ससुराल उनकी कारीगरी जहेज़ में सज-सज कर वाहवाही लूट चुकी थी। इस फले-फूले कारोबार से बेनियाज़ राकिया की अम्मा ने अपनी जो रेटशीट बनाई थी, उसमे आठ-दस बरस तक कोई बदलाव नहीं होता था। उनका हमेशा का उसूल था कि एक वक़्त में एक दुलाई सीतीं और अपना मेहनताना ले लेतीं।

मरहूम की कभी किसी पर उधारी नहीं रही। इधर तैयार दुलाई तह की और उधर डेढ़ सौ रुपया एक दुलाई की क़ीमत वसूली। खाना और चाय-पान उनको हमेशा उनका बोनस लगा करता था। जिन दिनों सख़्त गर्मी होती, उन दिनों राकिया की अम्मा का सीज़न ऑफ़ चलता। रुई का काम इतना हाथों को पसीज देता था कि सुई पकड़ना मुहाल हो जाता। बाक़ी पूरा साल उनके पास ख़ूब काम रहता और इसी सालभर की थोड़ी सी बचत में अपनी गर्मी के दिन वह गुज़ार लिया करतीं।

जाड़ेभर काम करते-करते जिस्म ऐसा गठरी बन जाता कि गर्मी में भी यह गठरी पूरी तरह से नहीं खुलती थी। जब कभी सीधा होने की कोशिश की तो कंधे जवाब देने लगे और उस हद तक झुककर ही चैन लिया, जब तक एक कूबड़ सा न बन गया। कभी सीधी हुईं भी तो लगा कि गिरेंगी नहीं मगर तकलीफ़ में हैं।

उनको देखकर समझना आसान था कि झुकी हुई कमर, सामने देखने की कोशिश में चेहरे को ऊंचा कर दिया करती है।राकिया की अम्मा भी इसी जिस्म में ढल गई थीं। दुलाई सीतीं तो हुनर के आगे सिर झुका लेतीं लेकिन जब चलतीं-फिरतीं तो झुकी कमर को सीधा न कर पाने की कोशिश शायद चेहरे पर आज़मा लिया करती थीं। इस कोशिश में चेहरा थोड़ा आगे आ जाया करता था।

 

 

क़ब्रिस्तान से आने वाले लोग अपने-अपने घरों को पहुंच चुके थे। सभी जानते थे कि राकिया की अम्मा का कोई ऐसा सगा नहीं था जो उनके लिए आंख नम करता या अगले रोज़ उनकी क़ब्र पर फ़ातिहा पढ़ने जाता। मगर ऐसा नहीं था। नूर टेलर मास्टर का बेटा फ़िरोज़ आज फ़जिर की नमाज़ के बाद ही घर से निकल गया था। उनकी क़ब्र पर पहुंच कर निढाल सा फ़िरोज़ घुटनों के बल बैठ गया। सूजी हुई लाल आंखें उसके रतजगे और रोने की गवाही दे रही थीं। वह ज़्यादा देर बैठ न सका। सजदे के अंदाज़ में उनकी क़ब्र से माथा टेक दिया और हिचकियों से रोता रहा।

बहुत देर बीत गए। फ़िरोज़ वहीं बैठा रहा और सोचता रहा। बीते पांच बरसों से वह राकिया की अम्मा से दुलाइयां सिला रहा था। उसकी छोटी सी दुकान पर औरतें लेडीज़ सूट सिलवाने आती थीं। दुकान में न तो बहुत नुमाइश का सामान था और न ही कोई मददगार। नूर टेलर मास्टर का घर राकिया की अम्मा के घर से दो मकान छोड़ कर था। मास्टर साहब ने अपने एकलौते बेटे को भी सिलाई-कटाई का हुनर सिखा दिया था। हालांकि मास्टर साहब उसे पढ़ाना चाहते थे। मुट्ठीभर कमाई और मास्टर साहब का जज़्बा, फ़िरोज़ के निकम्मेपन के आगे ज़्यादा देर न टिक सका। फ़िरोज़ का दिल जब किसी सूरत पढ़ाई में न लगा तो थक-हारकर नूर मास्टर ने उसे भी सिलाई-कटाई सीखने की ख़ातिर दुकान पर ले जाना शुरू कर दिया। फिरोज़ ने काम की शुरुआत जम्पर के दामन में हाथ की बख़िया से की। मशीन से तैयार जम्पर में हाथ की बख़िया क़द्रदान लोग कराते थे और इसके लिए उस वक़्त दस रुपये ज़्यादा चार्ज किए जाते थे। फ़िरोज़ ने ज़रूरत भर का काम सीख लिया तो नूर मास्टर ने भी उसका ब्याह करके अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर दी।

फ़िरोज़ को याद आ रहा था कि कैसे पांच बरस पहले एक ग्राहक किसी बेहतरीन दुलाई सीने वाली की तलाश में उसकी दुकान तक पहुंच गई थी। फ़िरोज़ को ख़ुराफ़ात सूझी तो कह गया कि- ‘’मेरी बेवा बहन सीती है मगर बाहर के काम नहीं करती।’’ ग्राहक की ग़रज़ इतनी ज़्यादा थी कि मुंह मांगी क़ीमत देने को तैयार हो गईं। अब फ़िरोज़ ने एक दिन का वक़्त मांगा और शाम को जब घर आया तो राकिया की अम्मा से बात की। उस वक़्त राकिया की अम्मा सौ रुपये में एक दुलाई सिया करती थीं। फ़िरोज़ ने उन्हें बाहर से काम लाने की बात बताई तो राकिया की अम्मा भी राज़ी हो गईं। अगले दिन वह मोहतरमा पूरे सामान के साथ फ़िरोज़ की दूकान पर मौजूद थीं। फ़िरोज़ ने भाव बढ़ाने के लिए दोहराया- ‘’मेरी बेवा बहन बस घरवालों के लिए सीती है।‘’ बड़ी बी ने उसे राज़ी करने की ख़ातिर कहा-‘’समझ लेना अपनी नन्द के जहेज़ के वास्ते सी रही है। तुम्हारा बड़ा एहसान होगा। मेरी ख़्वाहिश है कि बड़ी बेटी के जहेज़ में लखनव्वा दुलाई दी थी तो इसके साथ क्यों हक़तल्फ़ी करें।‘’

अंदर ही अंदर राज़ी फ़िरोज़ ने इस बात पर ऊपर से भी रज़ामंदी दे दी- “कैसी बात करती हैं ख़ाला! अब समझिए मेरी बहन अपने जहेज़ में शाही लखनव्वा दुलाई लेकर ही रुख़सत होगी।”

बड़ी बी ने झट से पांच सौ रुपये फ़िरोज़ के हाथ में रखे और बोलीं- ”यह एक दुलाई की क़ीमत पेशगी रखो और जिस दिन तुम जोड़ा सिलकर लाओगे बाक़ी रक़म भी अदा कर दूंगी।” नोट गिरफ़्त में आते ही फ़िरोज़ को रगों में ख़ून फर्राटे मारता महसूस हुआ। सपाट चेहरे से उसने कहा- ”कभी बाहर का काम नहीं किया मगर आप ने बात ऐसी कह दी है कि अब बहन से यह लेते भी शर्मिंदगी हो रही है।”

”कोई बात नहीं। इसे मेहनताना नहीं, मेरी ख़ुशी समझ कर रख लो।” बड़ी बी ने रक़म के बाद उसे ढेरों दुआएं भी दे डालीं।

चौथे दिन जब फ़िरोज़ ने राकिया की अम्मा से दुलाई लेकर बड़ी बी के हवाले की तो उसकी जेब में आठ सौ रुपये थे। इतना पैसा कमाने में तो उसे दो या तीन दिन की मेहनत लगानी पड़ती थी, उसमे भी काज-बटन, बख़िया, तुरपाई जैसे काम वह बीवी के मत्थे मढ़ दिया करता था।

फ़िरोज़ का सिलाई में दिल नहीं लगता था। अब्बा के बाद से उसके ग्राहक भी काफ़ी कम हो गए थे। वक़्त के साथ उसने नए फ़ैशन के कपड़े बनाने में दिलचस्पी नहीं ली और ग्राहकों को उसमे दिलचस्पी नहीं रही। दिनभर में एक सूट काटकर सीना भी अब उसके लिए मुश्किल हो गया था। ऐसे में दुलाई की यह रक़म उसे लॉटरी नज़र आ रही थी। ऐसी लॉटरी जिसे वह हर दिन खेलना चाहता था। ख़ाला शाही दुलाई देख बलिहारी हुई जा रही थीं। जब फ़िरोज़ ने उन्हें मुख़ातिब किया- ”खाला! यह तो बहन का काम था। मेरी बेवा बहन ऐसा और काम करने को राज़ी है जिसमे बाहर निकलने से बच सके। आप ध्यान रखिएगा। घर बैठे उसका हुनर ख़त्म हो जाए, से अच्छा है कि कुछ काम करके चार पैसे ही आ जाएं।”

‘’हां हां, क्यों नहीं, हमारे ख़ानदान में अभी लखनव्वा दुलाई का रिवाज बाक़ी है। ख़ानदान भर में बोल दूंगी। इंशाअल्लाह तुम्हारी बहन का हुनर भी ख़ूब चमकेगा और चार पैसे भी मिल जाएंगे।”

आज पहली बार फ़िरोज़ मियां इस बात पर शुक्रगुज़ार हुए थे कि अब्बा मियां ने दुकान घर से ख़ासी दूर ली थी। सुकून इस बात का भी था कि इस काम की भनक भी मोहल्ले तक न जा सकेगी।

फ़िरोज़ ने जब इन नोटों को अकेले में देखा तो एक बार उसका दिल लरज़ा था। फिर जल्दी ही उसने ख़ुद पर क़ाबू भी पा लिया। वह ऐसा था तो नहीं और ना ही उसने ऐसा बनना चाहा था। मगर आज वो ऐसा हो चुका था। आज की इस हरकत को वह बार-बार अपने ज़ेहन से झटकने की कोशिश करता मगर हर बार नाकामयाब होता। उसे फिर ख़याल आया कि मां-बाप भी उसे अच्छा इंसान बनने की सीख दिया करते थे। उनकी आंखों में उसने कई बार अपनी कामयाबी और नेकियों की हसरतें देखी थीं। वही हसरतें जिन्हे अब्बा दुआ में खामोशी से मांग लिया करते मगर अम्मी लफ़्ज़ों में बयान कर दिया करती थीं।

फ़िरोज़ को याद है जब बचपन में अम्मी उसे स्कूल भेजने के लिए तैयार करतीं तो मुस्तक़िल अल्लाह से उसकी कामयाबी की दुआ करती जातीं। ऐसा लगता था की चंद घंटों बाद फ़िरोज़ की वापसी किसी अफ़सर की शक्ल में होने वाली है।

कई बार फ़िरोज़ को ऐसा लगा था कि वह भी पढ़ जाता अगर वह मदरसानुमा स्कूल ज़रा ढंग का होता। ख़स्ता इमारत में टूटे फ़र्नीचर वाला स्कूल, जिसमे बेतरतीब यूनिफ़ॉर्म वाले बच्चे उसे कभी भी अच्छे नहीं लगे। स्कूल के टीचर तो उसे बच्चों से ज़्यादा बेढंगे नज़र आते थे। बस एक उसकी मां ही उसे सजा-संवारकर भेजती थीं बाक़ी यहां आने वाले बच्चे और उस्ताद जैसे बिस्तरों से निकलकर सीधे क्लास में आ जाया करते थे। फ़िरोज़ को अंदाजा था कि यूनिफार्म और अच्छे बस्ते वाले स्कूल में जाने की उसकी हैसियत नहीं और फिर पढ़ाई से उसे बेदिली होती गई। बेटे की अफ़सरी से जुड़ी अम्मा की उम्मीदें भी टूटने लगी थीं मगर उन्होंने यह कभी नहीं सोचा था कि फ़िरोज़ का ईमान भी कमज़ोर निकल जाएगा।

फ़िरोज़ मियां के पास काम तो आया मगर तीन-चार महीने में दो-तीन दुलाई से उन्हें तसल्ली नहीं मिली। फिर इस कारोबार को आगे बढ़ाने का सोचा। सिलाई के जानकार थे। कपड़े की तमीज़ थी और रंगों का भी सलीका ठीक-ठाक था। एक जोड़ी दुलाई का कच्चा माल ले आए। फ़ाइबर वाली रुई लेने में ज़रा झिकझिक हुई मगर सुनहरी जाली का उपल्ला किफ़ायती क़ीमत पर मिल ही गया जिसके अंदर झलकता साटन का सुर्ख़ अस्तर किसी भी क़द्रदान को लालच दिलाने के लिए काफ़ी था। साटन की ही गोल्डेन गोट में जैसे शाही दुलाई पर शाही फ़्रेम का एहसास उन्हें बड़ा भला लगा था। राकिया की अम्मा ने जब दुलाई पर सुनहरी चंपा से किनारों को सजाया तो फ़िरोज़ मिया का मुंह और आंखें दोनों ही खुली की खुली रह गई थीं। ख़ुद राकिया की अम्मा भी अपने कूबड़ को धकेल कर पूरी खड़ी थीं और इस तरह दोनों हाथ अपनी कमर के पीछे बांध लिए थे कि अपने आप को भी थाम लिया और फ़िरोज़ मियां से बिना कुछ कहे अपनी फ़तह का एलान भी कर दिया। राकिया की अम्मा के चेहरे की मुस्कराहट के साथ होंठों के दोनों तरफ बनी लकीरों में बसा पान का रंग आज साफ़ नज़र आ रहा था।

एक झिझक फिर फ़िरोज़ के भीतर कौंधी मगर उसने इस ख़याल को धकेलने के लिए अपनी आंखे चमकीली दुलाई में धंसा दीं। ख़याल पर हावी होने के लिए दुलाई को थामना ज़रूरी लगा। उसने अपना हाथ दुलाई के उपल्ले से गोट तक इस तरह सहलाते हुए फेरा कि ‘’यह क्या कर रहे हो फ़िरोज़ मियां?’’ वाला सवाल मचलने से पहले ही नींद की आग़ोश में समां गया। अब उसने ख़ुद से कहा- ”मैंने ऐसा कब बनना चाहा था? यह तो हालात ने ऐसा बना दिया।”

दुलाई को नज़र भरकर देखने के बाद फ़िरोज़ मियां ने इसे चादर में लपेटा और दुकान पहुंच गए। अच्छी पैकिंग का इंतिज़ाम करने के बाद हाजी साहब फ़र्नीचर वाले के शोरूम का रुख़ किया। हाजी साहब का फ़र्नीचर का ठीक-ठाक कारोबार था। छोटे-बड़े सभी क़िस्म के लकड़ी के सामान बेचते थे।

अकसर बेटी का जहेज़ लेने वाले यहां पूरा सामान एक साथ लेने आया करते थे। हाजी साहब के केबिन में पहुंचकर फ़िरोज़ मियां ने शाही लखनव्वा दुलाई दिखाई और उन्हें बेवा बहन का ऐसा दर्दभरा क़िस्सा सुनाया कि उस वक़्त हाजी साहब भी उनके ग़म में बराबर के शरीक हो गए। फ़िरोज़ मियां ने कुछ ही देर में हाजी साहब को इस बात पर राज़ी कर लिया कि अगर कोई जहेज़ लेने आए तो आप उसे यह लखनव्वा दुलाई भी ज़रूर दिखा दें।

हाजी साहब को दुलाई की पांच हज़ार रुपये क़ीमत बताने से पहले फ़िरोज़ मियां इस पर ख़र्च की गई मेहनत और लागत का जो नक़्शा खींच चुके थे वह इस तरह था- ”इसे कहते हैं शाही लखनव्वा दुलाई। कोई मशीन से तो बनी नहीं है। पांच से सात परतों को तले ऊपर बिछाना, उन्हें साधते हुए औरेबी गोट वाले किनारे बनाना। एक-एक टांका सुई से लगा है, मशीन से कोई काम नहीं हुआ इसमें। आहिस्ता-आहिस्ता की जाने वाली इस सिलाई में आंखे फोड़ने के साथ कमर भी दोहरी हो जाती है। एक जोड़ा तैयार होने में एक हफ़्ता लग जाता है। बनाने वाले भी शहर में नहीं बचे और जो बचे भी हैं तो इसलिए नहीं बनाते कि कोई इसकी मज़दूरी नहीं अदा कर पाएगा।”

हाजी साहब को हैरान देख फ़िरोज़ मियां आगे बोले- ”बेवा बहन इसमें लगी रहेगी तो एक हुनर भी बचा रहेगा और ख़ुद को मजबूर बेसहारा भी न समझेगी।” आख़िरकार हाजी साहब को कहना ही पड़ा- ”ठीक है रख जाओ। वादा नहीं करता मगर कोशिश रहेगी कि कोई इसे ख़रीद ले।”

बेवा बहन वाला तीर निशाने पर लगा था। हाजी साहब की उधेड़बुन आख़िर इस नतीजे पर पहुंची कि जहेज़ लेने आया ग्राहक अगर एक लाख से ज़्यादा की ख़रीदारी करेगा तो बेटी के लिए शाही दुलाई का तोहफ़ा हाजी साहब की तरफ से हो जाएगा। तीसरे ही दिन हाजी साहब ने यह शाही दुलाई भी एक जहेज़ के साथ पैक करवा दी। शाम को उन्होंने फ़िरोज़ मियां को बुलाया और पंद्रह हज़ार रुपये उनके हाथ में रखे। ”यह रक़म अपनी बहन को दीजिएगा और उनसे कहिएगा कि जितनी जल्दी हो सके ऐसी ही दो जोड़ी दुलाइयां और बना दें।”

हाजी साहब ग्राहक को दिए गए इस तोहफ़े की बदौलत वाहवाही भी लूट रहे थे और बेवा बहन की मदद कर के मुतमईन भी ख़ूब थे। उन्हें अंदाज़ा था कि अभी तो काम चल रहा है मगर जब सीज़न होगा तो दुलाइयां कम पड़ सकती हैं। फ़िरोज़ मियां को उन्होंने समझाया कि बहन से कहो कि इस काम को थोड़ा और बढ़ा ले और एक-दो लोगों को शामिल भी कर ले। फ़िलहाल उन्होंने हर महीने के हिसाब से पांच जोड़ी दुलाइयां बनवा कर जमा करनी शुरू कर दी थीं ताकि सीज़न के दिनों में उन्हें ग्राहक के सामने रुसवा न होना पड़े।

नए कारोबार की एक हरारत सी सारे दिन फ़िरोज़ मियां ने महसूस की। अच्छी रक़म और बहुत सारे ख़्वाब वह जागती आंखों से देख रहे थे। पैडल घुमाने वाली सायकिल की जगह सेकेण्ड हैंड पेट्रोल से चलने वाली दुपहिया। पहले दुकान की मरम्मत कराएं या पहले घर की, इस ख़याल की उधेड़बुन में उन्हें राकिया की अम्मा की भी फ़िक्र थी। कभी दिल बड़ा करके सोचते उन्हें पचास रुपया हर दुलाई पर बढ़ाकर देंगे और फिर ख़ुद से ही कहते कि अभी जल्दबाज़ी की ज़रूरत नहीं। थोड़ा काम पनप गया तो पचास कर देंगे। अभी पच्चीस ही काफ़ी हैं।

बेवा बहन का ख़्याल आया तो ख़ुद-ब-ख़ुद एक शातिर सी मुस्कराहट उनके चेहरे पर आ गई और अगले ही लम्हे यह मुस्कराहट इसलिए ग़ायब हो गई क्योंकि अम्मी की नसीहत भी कहीं किसी कोने से दुबककर निकल आई थी। बचपन में अम्मी उसे बड़े प्यार से समझाती थीं- ”अल्लाह ताला ने हर इंसान के दिल को बड़ा पाक बनाया है मगर जब वो कोई गुनाह करता है तो एक स्याह नुक़्ता उसके दिल पर लग जाता है। तौबा करने से यह नुक़्ता साफ़ हो जाता है लेकिन अगर इंसान तौबा नहीं करता तो ये नुक़्ता भी अपनी जगह मौजूद रहता है। फिर जब-जब इंसान गुनाह करता है तब-तब एक नुक़्ता और बढ़ता जाता है।” अम्मी का बयान उसके ख़्याल में जारी था। अम्मी कह रही थीं- ”… और फिर एक दिन इंसान का दिल स्याह हो जाता है।”

ख़्वाब छितर गए थे। नोटों की हरारत और अम्मी की नसीहत में कशमकश जारी थी। फ़िरोज़ मियां के ज़ेहन में कभी स्याह दिल अपना वजूद बढ़ाता और कभी अच्छी दुकान, सहूलियतों वाला घर और तमाम ऐसी ही अधूरी ख़्वाहिशें जिनसे वह बचपन में महरूम रह गए थे। फिर इसी सबके बीच वही दुलाई भी ज़ेहन के अंदर आ ही गई जिसपर उन्होंने एक बार फिर से अपनी आंखें धंसा दी थीं। फ़िरोज़ मियां ने तमाम नेक ख़यालात को यही दुलाई उढ़ाने के बाद थपककर सुला दिया था। उनका हाथ आहिस्ता-आहिस्ता उपल्ले से गोट की तरफ़ बढ़ रहा था और फिर वही ख़्याल- ”मैंने ऐसा कब बनना चाहा था? यह तो हालात ने ऐसा बना दिया।”

 

 

अब फ़िरोज़ मियां भी कच्चा माल ख़ूब पड़ते में उठा लिया करते थे और राकिया की अम्मा को भी पता था कि हर महीने पांच जोड़ी दुलाइयों का काम कहीं नहीं गया है। हर महीने डेढ़ हज़ार बंधी कमाई की उम्मीद हुई तो उन्होंने भी तय कर लिया था कि पहले चश्मा बनवाएंगी, फिर जल्दी ही नए दांत का सेट भी लगवाने का इरादा था।

चश्मे और दांत के नए सेट के ख़याल ने यह भुला दिया था कि राकिया की अम्मा की अपनी जड़ावल इस सर्दी में नाकाफ़ी होगी। कमरे की सीलन और कड़कड़ाती ठंड ने उन्हें बीमार कर दिया था। सड़क पार वाले डॉक्टर से दवा तो ला रही थीं मगर फ़ायदा नहीं हुआ। बुख़ार ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। जिस्म कमज़ोर होने लगा तो बिस्तर से लग गईं। फ़िरोज़ मियां को बाक़ी मोहल्ले से ज़्यादा उनकी फ़िक्र थी। कुछ दिन दवाई ख़ुद से ले आए मगर जांच कराने की ज़हमत न की। जब हालत ज़्यादा बिगड़ी और फ़िरोज़ मियां उन्हें लादकर अस्पताल पहुंचे तो डाक्टरों ने बताया कि निमोनिया हो गया है और बचने के आसार कम हैं।

सबके मशवरे से यह तय हुआ कि भर्ती रखने में ही भलाई है। घर पर कौन उनका सगा बैठा है जो तीमारदारी करेगा। राकिया की अम्मा दो दिन ज़िंदा रहीं मगर बेसुध। जब उनकी मौत की ख़बर मिली तो फ़िरोज़ मिया घर पर ही थे। गली में बातें हो रही थी कि जितनी जल्दी हो सके ग़ुस्ल देकर सुपुर्द-ए-ख़ाक किया जाए। कुछ औरतें उनके कमरे में दाख़िल होकर मय्यत रखने का इंतिज़ाम कर रही थीं और कुछ ग़ुस्ल के पानी का। इसी बीच किसी घर से सुलगता हुआ लोबान आ गया था। क़रीब की मस्जिद से तीन बार एलान गूंजा- ”राकिया की अम्मा नहीं रहीं। इन्ना लिल्लाहि वा इन्ना इलैही राजिऊन। उनकी नमाज़ जनाज़ा ज़ोहर बाद होगी।”

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(साभार, ‘हंस’, नवंबर 2023)

saminasayeed@gmail.com

 

 

 


12 thoughts on “राकिया की अम्मा / समीना ख़ान”

  1. अपने शिल्प और कथ्य, दोनों दृष्टियों से यह एक परिपक्व कहानी है। आपकी टिप्पणी ने कहानी के साथ पूरा न्याय किया है।

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  2. मुस्लिम समाज की मुफ़लिसी बयान करती उम्दा कहानी। लेखिका समीना को इस बेहतरीन रचना के लिए बहुत बहुत मुबारकबाद ।

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  3. बेहद शानदार कहानी है । बहुत ही सादा तरीके से समाज के एक वर्ग के हालात को दर्ज़ करती है। फिरोज़ के व्यवहार से किसी की लिखी यह लाइन याद आ गई कि ‘अभाव स्वभाव बदल देता है ‘ समीना की भाषा में बहुत रवानगी है। इस सुंदर कहानी के लिए बहुत बधाई। ऐसे ही वो लिखती रहें बहुत शुभकामनाएं।
    अनीता मिश्रा

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  4. यह हर तरह से एक सशक्त कहानी है ,अपने कथ्य और शिल्प में ,इसकी भाषा इसका एक खूबसूरत पहलू है ।
    समीना को पुनः बधाई

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  5. मानवीय भावनाओं को सागर की लहरों की तरह छूती कहानी। परिस्थितियों का सूक्ष्म विश्लेषण बेहद शानदार है। खान जी को इस कहानी के लिए ढेरों मुबारकबाद।

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  6. एक अनूठे विषय को लेकर जिस तरह कहानी बुनी गई है..उसमें इस बात की संभावना भी थी कि कहानी अपनी कहन में थोड़ी उबाऊ और अरुचिकर भी हो सकती थी लेकिन कमाल की बात है कि समीना की कहानी अपनी रवानगी में इतनी रोचक है की पाठक को पूरा पढ़वा कर ही छोड़ती है,साथ ही पाठक के ज़ेहन में बहुत सारे सवाल भी छोड़ जाती है..पहली ही कहानी में समीना ने एक बड़ी लक़ीर खींच दी है..पूरी उम्मीद है की भविष्य में समीना से और भी ऐसी ही अच्छी कहानियाँ पढ़ने को मिलेंगी..बहुत बहुत शुभकामनाएँ उन्हें

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  7. कमाल की खूबसूरत कहानी। संजीव जी ने जो टिप्पणी की है,शब्दशः सही हैं।शुरु करने के बाद छोड़ पाना मुश्किल है। समीना जी को बहुत बहुत बधाई।

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  8. समीना जी को इतनी अच्छी कहानी प्रस्तुत करने के लिये बहुत – बहुत बधाई। कहानी में मुस्लिम समाज की बदहाली और मुफ़लिसी का यथार्थ चित्रण किया गया है। कहानी को कथानक और कहने का शिल्प बहुत ही सुन्दर है। आज के दौर में मुस्लिम समाज जो मुफ़लिसी के साथ-साथ हिन्दू साम्प्रदायिकता की नफ़रत व हत्यायें तक झेल रहा है, कभी सच्चर आयोग ने इनकी बदहाली दूर करने के कुछ सुझाव दिये थे, उन्हें पूरा करना तो दूर और जो सुविधायें मिल भी रहीं हैं, उन्हें मुस्लिम – तुष्टिकरण कहके छीनने की तैयारी है। ऐसे यह कहानी और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है।

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  9. जब अल्फाज़ मआनी से आगे निकल जाते हैं तो शाइरी होती है। शाइरी नज़्म और नस्र दोनों में हो सकती है। तहरीर को शाइराना लिबास पहनाने के लिए तवील रियाज़ चाहिए।
    उमरें तज देनी पडती हैं इक हर्फ़ रक़म करने के लिए
    लेकिन समीना ने जितनी कम मुद्दत में अहल्फ़ाज़ को अपना असीर बना लिया है, ये क़ाबिले हैरत भी है और मुस्तहिक़े सताइश भी। राकिया की अम्मा एक ऐसी कहानी है जो इस्तेयारों से भरपूर है। तह ब तह इसमें हज़ारों जज़्बे निहां हैं।
    ये कहानी किसी फ़क़ीर का नारा ए मस्ताना भी है और एक आम इंसान के लतीफ़ और अनकहे एहसासात का आइना भी। एक फ़लसफ़ी का फ़लसफ़ा भी है और जोगन का विरह भी।
    यानी इसे पढ़ने वाला जिस हवाले से पढ़ेगा उसे उन हवालों के जज़्बे इस कहानी में रौशन रौशन नज़र आने लगेंगे।
    अगर हम यूं कहें कि समीना का पहला क़दम ही कमाले बयान है तो मुबालग़ा न होगा। और जब पहला क़दम इतना बुलन्द है तो सुरय्या को भी पस्त होने में क्या ही ताख़ीर है।
    हमारी बड़ी उम्मीदें वाबस्ता हैं। दिली मुबारकबाद और नेक तमन्नाएं।

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  10. कहानी की खूबसूरती इसके बयान में छुपी हुई है। इसकी बारीक डिटेलिंग इसे हर तरह से विश्वसनीय बनाती चलती है।

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