युवा कवि वरुण प्रभात के प्रथम कविता-संग्रह, अंतहीन रास्ते से गुज़रना प्रीतिकर भी है और आश्वस्तिपरक भी। प्रीतिकर इस अर्थ में कि संग्रह की कविताओं में अपने समय की चिंताओं से गहरी संलग्नता व सजगता दिखायी देती है और आश्वस्तिपरक इस अर्थ में कि चिंताओं के प्रति प्रतिरोध का संस्कार झलकता है। नवसाम्राज्यवाद के मायावी दौर और बाज़ार-केन्द्रित अर्थतंत्र व समाजतंत्र में एक संवेदनशील और नैतिक मनुष्य किस क़दर मर्माहत, उपेक्षित, पराजित और विकल होने को अभिशप्त है— इन ट्रैजिक मनोभावों को संग्रह की कविताएं गहरे यथार्थ में जाकर उद्घाटित करती हैं। निश्चय ही ऐसी कविताएं एक नवोदित कवि की सार्थक उठान की ओर भी संकेत करती हैं। संग्रह की कविताओं से गुज़रते हुए लगता है कि वरुण प्रभात गहरे दुखबोध के कवि हैं। यह दुखबोध जितना वैयक्तिक है, उतना ही निर्वैयक्तिक भी। वैयक्तिकता में निर्वैयक्तिकता की प्रतीति इस युवा कवि की रचनात्मक ताक़त भी है और काव्य-कौशल भी। यह दुखबोध कवि ने घरेलू दुनिया से अर्जित और विकसित किया है। घरेलू दुनिया से उपजा दुखबोध कैसे सार्वजनिक दुखबोध में तब्दील हो जाता है— इसे देखने के लिए संग्रह की कविताओं से साक्षात्कार ज़रूरी है। इसी दुखबोध से वे अपनी कविताओं में सामाजिक हस्तक्षेप दर्ज करते हैं। इस दुखबोध में उदासी, हताशा और निराशा भी है, पर साथ ही संघर्ष के थपेड़े खाती जिजीविषा जीवन के रागात्मक उत्स को खोजती हुई भी दिखायी देती है। इस दुखबोध से कवि ने समय की एक वृहत्तर दुनिया रची है जहां कवि स्वयं है, उसके पिता हैं, उसकी मां है, उसकी पत्नी है, उसके बच्चे हैं, परिजन हैं, पुरजन हैं, समाज है, संस्कृति है, अर्थनीति है, राजनीति है, यानी बहुत कुछ एक साथ उपस्थित है।
वरुण प्रभात के काव्य-विवेक की सबसे बड़ी पूंजी है मानवीय संवेदना की गरमाहट। मानवीय सरोकार और कला की आंतरिक लय को सहेजे संग्रह की कविताएं इंसानी जीवन की बहुरंगी स्थितियों और संबंधों की नानारूपात्मक परिणतियों की ऊष्मा भरने के लिए कहीं निःशब्द बन चुकी कारुणिक मनोदशाओं को तो कहीं दुख की कातर पुकार को मिलाकर एक ऐसा भावलोक सृजित करते हैं जिसमें कविता एक नैतिक कार्यवाही की तरह लोगों के साथ खड़ी दिखती है। ऐसा करते हुए वे एक ओर उच्चवर्ग के साथ-साथ मध्यवर्ग की आत्मकेंद्रित और विरोधाभासी दुनिया की निर्मम शिनाख्त करते हैं तो दूसरी ओर अपने कवि को वहां खड़ा करते हैं जहां वंचितों, शोषितों और सामाजिक हाशिये पर सहमे-ठिठके लोगों की दुनिया अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए जद्दोजहद करती नज़र आती है—
“ज़िंदगी नहीं है/ क़िस्से-कहानियों की/ श्वेत चादर/ जिस पर लेट/ अधखुली नींद में बुने जा सकें सपने/ गढ़े जा सकें रिश्ते/ या महसूसी जा सके/ प्रेम की अनित्य-सार्थकता/ सुनो दोस्त/ ज़िंदगी है यथार्थ की मटमैली चादर/ जिस पर पड़े अनेक धब्बे/ बयां कर रहे हैं/ रोटी के गणित को।”
वर्ग-विभाजित समाज में कला का उत्पादन भी वर्गीय होता है। ज़ाहिर है, कवि चीज़ों, वस्तुओं, जगहों को उतना ही देखता है, जितना उसे देखना है। पर यह देखना महज़ एक ‘क्रिया’ भर नहीं है, बल्कि जीने की वैचारिकी-संपन्न प्रक्रिया है। देखने में जीने की यह प्रक्रिया कविता को वस्तुपरक भी बनाती है और व वृहत्तर भी। फलतः कविता में दृष्टि की बहुलता और विशिष्टता, दोनों साथ-साथ प्रकट होती हैं। श्रमविरोधी और आर्थिक विषमता से भरे समाज में जिसे हम आम आदमी कहते हैं, क्या हम उस आम आदमी को प्रेम और सम्मान देते हैं; एक आम आदमी की पूंजीवादी समाज में नियति क्या है, इस सत्य को पूरी बेधकता और करुणा के साथ कवि पकड़ने की कोशिश करता है। यही कारण है कि वरुण प्रभात कुलीनवर्ग की उत्सवधर्मी जीवन-शैली के बरक्स आम लोगों के जीवन में पसरे विषाद, अवसाद, ठहराव को ही अपनी कविताओं का केंद्रीय संदर्भ बनाते हैं और इस काव्य-प्रक्रिया की विश्वसनीयता इस बात में है कि कवि आम लोगों के जीवन में खुद भी शामिल है। इसीलिए कविताओं का यथार्थ ‘आउटसाईडर’ की तरह दूर से देखा हुआ यथार्थ नहीं लगता, बल्कि भोगा हुआ यथार्थ लगता है—
“चलो/ चलते रहो/ कि तुम्हारे जीवन का/ अर्थ ही है चलना/ यही तो होता आया है/ सदियों से/ या कि युगों से/ नहीं/ जब से धरती-आकाश है/ शायद तबसे/ तुम चलते रहे हो/ पैरों में बेवाइयां लिये/ पत्थरों से रगड़ खाये/ लहूलुहान तुम्हारे पैर अब भला क्यों रुकेंगे/ तुम कहां रुके थे/ जब गांव की माटी ने/ बंद कर दिया था/ तुम्हें दो वक़्त भरपेट रोटी देना/ तुम तब भी नहीं रुके थे/ जब सृजन की बूंद/ कही जानेवाली बरखा/ बहा ले गयी अपनी धार में/ तुम्हारे घर को/ अपने सिर पर/ जुनून का गठ्ठर उठाये/ तुम निकल पड़े थे/ उगाने थाली में चांद/ इन रास्तों का अंत नहीं होता/ और रोटी की भूख/ तुम्हें थकने नहीं देती।”
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“और फिर डरा-सहमा आदमी/ ईंट-गारों की दीवारों के पीछे/ ढकेल देता है अपने जिस्म को/ ज़िंदा रखने के लिए।”
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“धीरे-धीरे/ पथराती गयी आंखें/ कुंद होता गया/ बूढ़ा बरगद/ ठीक वैसे ही जैसे कुंद होता जाता है/ आदमी।”
उक्त पंक्तियां इस बात की गवाही देती हैं कि कवि अपने आसपास और अपने भीतर खदबदा रही मनुष्यता को लेकर किस तरह मरणांतक बेचैनी महसूस कर रहा है। ऊपर के उद्धरणों में जीवन को ढोते, उल्लासहीन, उदासीन और यंत्रवत जीते आम लोग समय के निविड़ अंधेरे में परछाइयों की तरह लगते हैं। परिस्थितिजन्य क्रूरताओं और विवशताओं के अलग-अलग विवरण ‘केलिडोस्कोपिक’ दृश्य की मानिंद लगते हैं तो एक ओर समाजतंत्र की उपभोक्तावादी क्रूरताओं और दूसरी ओर जनविरोधी सत्तातंत्र की संवेदनहीनताओं के विविध रूपों को दर्ज कराते हैं।
जीने के उपभोक्तवादी ढांचे ने व्यक्ति के चारित्रिक गठन, जीवन-दृष्टि और समाज की संरचना को प्रभावित किया है और यही उपभोक्तादी ढांचा व्यक्ति-जीवन की अंतर्वस्तु का निर्धारक तत्व बना है। उपभोक्तावाद और बाज़ारतंत्र की आपसदारी ने हमारी संवेदना को इतना अपाहिज बनाया है कि ऐसा लगता है मानो सभी बाज़ार में खड़े हैं, जहां हर आदमी दूसरे के साथ क्रय-विक्रय का मोल-जोल कर रहा है। बाज़ारवादी अर्थतंत्र ने चरित्र और संबंधों के विन्यास को इस क़दर बदल दिया है कि जो संबंध किसी स्वार्थ की पूर्ति में सहायक है, वहीं सच्चा और सार्थक संबंध है। एक मायावी परिदृश्य है जिसमें हर चीज़ अपनी वास्तविकता को छिपाकर छद्मरूप में प्रकट हो रही है—
“कहां मिलते हैं अब/ सच्चे-अच्छे दोस्त/ जिनकी नैसर्गिकता/ गढ़ती थी/ अंधे-लगड़े की कहानी/ इबादत होती थी दोस्ती/ जिनके लिए/ अब दोस्ती की वैशाखी टिकी है/ बाज़ार के संक्रमित कंधों पर/ जो पल-पल खोती जा रही है/ अपनी ताज़गी और अपना वजूद भी।”
समाज, संस्कृति और सत्ता के परिदृश्य में बाज़ारवादी शक्तियों तथा संस्थानों ने एकाधिपत्यशाली, संवेदनहीन और मुनाफ़ाधर्मी विमर्शों को रचा है और इन विमर्शों ने एक सहज, सौम्य और मानवीय संवेदना से आप्लावित मनुष्य के भीतर बहुस्तरीय तनावों को जन्म दिया है। यह तनाव वस्तुतः वस्तुओं और व्यक्तियों के बहिरंग और अन्तरंग के बीच मौजूद भिन्नता से उपजा है। जब मूल्य बदलते हैं, तब चीज़ों के मूल्यांकन के प्रतिमान भी बदलते हैं। विस्तार लेता भोगवाद, लोप होते सामाजिक सरोकार और मनुष्योचित संबंध, घिनौनी सौदेबाज़ियां, संवेदनों की मुक्केबाज़ी और अमानवीयकरण के जटिल रूप रोज़मर्रे के जीवन में क्रमशः प्रेवश करते गये हैं। ऐसे में चरित्रहीनता, मूल्यहीनता, पाखंड आदि का तेज़ी से फैलाव हुआ है जिसने समाज की उदात्तता, सृजनात्मकता, संवेदनशीलता और मानवीय सौंदर्य-बोध को अवरुद्ध किया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों और देश की कॉरपोरेट पूंजी पर टिका नये क़िस्म का यह बाज़ारतंत्र हमारी देशज जन-संस्कृति को नष्ट कर रहा है और उसकी जगह लालची, भोगवादी व नृशंस संस्कृति को फैलाव दे रहा है। लिहाज़ा, पारस्परिकता व सामाजिकता की जगह घमासान प्रतियोगिता यानी छीना-झपटी और छल-छद्म की घातक मनोवृत्ति पैदा हुई है। ऐसे में कवि की अन्तर्व्यथा गहरी प्रश्नाकुलता के साथ सामने आयी है—
“लगने लगा है/ अब तो हर रिश्ता/ तवायफ़ के कोठे का तबलची/ और प्यार/ किसी रकासा के पैरों की घुंघरू/ कैसे ठहर पायेगी/ मेरे वजूद की कमज़ोर नौका/ इन ऊंची-ऊंची/ लहरों के बीच।”
संग्रह की आरंभिक कविताओं से जब आगे बढ़ते हैं तो यह साफ़-साफ़ बोध होता है कि युवा कवि का चिंतन और सृजन क्रमशः व्यापक आशयों से जुड़ता गया है जहां कवि ने समय और समाज में चल रहे राजनीतिक और सांस्कृतिक पतन के विरुद्ध मोर्चा खोल रखा है। समाज और सत्ता के अमूर्त प्रत्ययों के स्थान पर समाज के, जीवन के, राजनीति के विसंगत दृश्य और जन सामान्य के ठोस मुठभेड़ी चरित्र हैं उनकी कविताओं में। कवि सतही और प्रचारात्मक कविता की रुग्ण परंपरा से बिल्कुल अलग है। आसपास के जीवन की छोटी-छोटी चीज़ों को उनके बारीक विवरणों के साथ कविता में दर्ज करना कवि की ईमानदार कोशिश है। एक सार्थक कविता की शक्ति इस बात में निहित होती है कि वह पाठक के भाव-संवेदन को जाग्रत कर एक भावजगत से दूसरे भावजगत की यात्रा कराने में सफल हो सके। संग्रह की कविताओं में पटाखों की लड़ियों की तरह उठाये गए प्रश्नों से विचारों की, विमर्श की ऐसी भावसरणि बनती है जिसमें एक विचार दूसरे विचार को अपनी प्रश्नाकुलता से आंदोलित कर देता है। हर युग के संघर्ष और चुनौतियां पूर्ववर्ती दौर के संघर्ष और चुनौतियों से भिन्न होते हैं। लिहाज़ा अपने समय के समर से जूझने और उनकी चुनौतियों से निपटने के लिए हर पीढ़ी को नये यानी युगीन अस्त्र-शस्त्र तैयार करने होते हैं। यह ठीक है कि संग्रह में कोई व्यापक आकार वाली कविता नहीं है, पर छोटी-छोटी कविताओं के जलते हुए संदर्भ आपस में मिलकर एक विराट फलक का निर्माण करते हैं जिसमें मौजूदा सामाजिक-सांस्कृतिक व राजनीतिक यथार्थ के चेहरे को साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने समय के अनुभवों, तनावों, दबावों को कवि ‘तृतीय पुरुष’ के रूप में नहीं देखता है, बल्कि वह स्वयं भी परिवेशगत विसंगतियों, जटिलताओं, तनावों को भोगता हुआ दिखायी देता है। पर ये कविताएं आत्मदया व आत्मपीड़न की कविताएं नहीं हैं, बल्कि लोकतांत्रिक संवेदना के आधार पर निरंतर जूझने के जीवनगत और रचनागत साहस का प्रतिफल है। इसीलिए एक ओर ठहरे हुए देश की चिंता है तो दूसरी ओर भीतर से रिक्त होते हुए आदमी की जिजीविषा को परिवर्तनकामी ऊर्जा देने की चिंता हैं। कवि सही भाषा में सही बयान देता है, इसीलिए उसकी कविताओं में परिदृश्य अपनी भयानकता और अभिव्यक्ति के नुकीलेपन के साथ परिलक्षित है। पैंतरेबाज़ तथाकथित सभ्यवर्ग और सत्ता पर क़ाबिज़ उनके राजनीतिक प्रतिनिधियों की चालाकी, बंधुत्व और करूणा के ओढ़े हुए नकाब, जनविरोधी व्यवस्था का जनपक्षीय मुखौटा, आम आदमी की चीखों को दबानेवाली ताक़तें–इन सब स्थितियां ने कवि को भयाक्रांत भी किया है और आंदोलित भी। एक ओर सहमे, ठिठके, निरीह व निहत्थे लोग और दूसरी ओर सत्ता का बर्बर चेहरा। ये यातनामयी स्थितियां कवि को जूझने के लिए विवश करती है– बंद रास्ते पर दौड़ने की यातना, दौड़ में हार जाने की नियति को जानते हुए भी दौड़ना। निहत्थे, बेकसूर, बेजुबान और दहशत से भरा आम आदमी कविताओं में अपने होने का सही अर्थ पा सका है–
“मैं मौन हूं/ इसलिए कि संविधान की/ जुबान काट ली गयी है/ मैं मर चुकी हूं/ इसलिए नहीं कि/ मेरे साथ बलात्कार हुआ/ और मुझे मार दिया गया/ बल्कि इसलिए कि/ बलात्कार भारत का हुआ है/ मेरे गले पर/ जिस्म पर/ जो निशान उभरकर आये हैं/ वास्तव में वे संसद/ का रूपान्तरण हैं।”
वरुण प्रभात की कविताओं में अंतर्जगत का घनीभूत अवसाद और परिस्थितिजन्य दबाव हैं। लेकिन कवि परिस्थितियों के आगे आत्म-समर्पण नहीं करता। वह अपनी कविताओं में उस यातनाग्रस्त आदमी को केंद्र में रखता है जिसके बचपन से यौवन तक केवल चीत्कार पसरा है। झूठी संवेदनशीलता, सभ्यता का भीतरी पाखंड, राजनीतिक चरित्रहीनता और दमनचक्र और नारों-घोषणाओं का छद्म कविताओं में पूरी व्यंजना के साथ अनावृत्त हुआ है। निज़ाम को बदलना एक आदमी के वश में नहीं होता, इसलिए शोषित-प्रताड़ित लोगों के बीच चेतना जगाने यानी उनकी अभिशप्त नियति के लिए उत्तरदायी शक्तियों-संस्थानों को चिह्नित करने और उनके विरुद्ध संगठित प्रतिरोध की ज़मीन तैयार करने की दिशा में लगातार प्रयास ज़रूरी होता है। कवि में मूक-असहाय बनी जनता के प्रति गहरी सहानुभूति भी है और जनपक्षीय बदलाव लाने की तीव्र आकांक्षा भी। यह संपूर्ण सच है कि लोकतंत्र के सारे स्तंभ सत्ता-अनुकूलित हो गये हैं, ऐसे में गहन मानवीय चिंता से उपजी वरुण प्रभात की कविताएं एक जागरूक विचारोत्तेजना पैदा करती हैं और लोकतंत्रविरोधी सत्तातंत्र के विरुद्ध संगठित हरकत करने को प्रेरित और विवश भी करती हैं :
“संसद के गलियारों में गूंजता/ मेज पर थपथपाता/ सत्ता की थोथी दलील/ कि भूख से नहीं मरा है आदमी/ सरकारी आंकड़ों का/ बदल देता है चश्मा/ दहाड़ पड़ता है राष्ट्रवाद/ एकाकार होकर/ उगने लगता है/ कूड़ेदान में/ संसद का लिजलिजा बयान/ जहां से भूख चुनती है/ रोटी का टुकड़ा/ कुछ दाने भात के/ बना रहे हाकिमों का ज़ायका इसलिए/ खोज ही लेती है/ दो-चार कतरे आलू के/ ताकि फूलता-फलता रहे संसद/ खिली रहे विधायिका/ह रा-भरा रहे/ बाग-बगीचा/ सरकारी दस्तावेज़ों का/ गूंजता रहे/ राष्ट्रवाद का उद्घोष/ लगता रहे नारा/ भूख से नहीं मरता आदमी/ आदमी तो मर जाता है/ बेशर्म झूठ की शर्म से/ कहा है एक देशद्रोही कवि ने।”
मुक्तिकामी कविता अपने समय की सुलगती समस्याओं की समझवाली और जन-आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी निभानेवाली कविता होती है, जो सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था के उस ढांचे को तोड़ने का दुस्साहस करती है जिसमें दुहाई तो जनतंत्र की दी जाती है, लेकिन सारी नीतियां, सारे कार्यक्रम जनविरोधी होते हैं। वरूण प्रभात की कविताएं एक सही व संपूर्ण जनतंत्र को लाने का आह्वान करती कविताएं है। उनकी कविताएं पूंजीवादी लोकतंत्र और उस पर क़ाबिज़ नेताओं का न केवल भंडाफोड़ ही करती हैं, बल्कि जनता से व्यवस्था-परिवर्तन में सक्रिय हिस्सेदारी की अपील भी करती हैं, जनता को बुनियादी हक़ के लिए जगाती हैं और अपने तार्किक व ठोस विश्लेषणों के द्वारा उन्हें झकझोरती भी हैं। उनकी कविताएं जन-आक्रोश का प्रतिनिधित्व करती हैं, इसलिए कविता की भाषा जितनी नुकीली, विस्फोटक व मारक है, उतनी ही विचारवाही भी। कवि मनुष्यविरोधी ताक़तों के आंतक और पूंजीवादी सत्ता-संरचना की बर्बरता के बरक्स प्रतिरोध की जन-संस्कृति और कविता के जन-सरोकारों को गहरा अर्थ देता है :
“जिस चमन को बना रहे हो तुम/ श्मशान/ उसकी खामोशी को/ कान लगाकर सुनो/ सुनायी देगी तुम्हें/ उसकी चीख/ कुलबर्गी, पानसरे, लंकेश सरीखे/ आदमीयत के पहरेदारों की चीख/ बार-बार/ भूलो मत/ श्मशान डोलियों का नहीं/ इंतज़ार करता है/ अर्थी का।”
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“सुलग उठती है/ विरोधी की चिंगारी/ सफ़ेद हो चुका रक्त/ होने लगता है/ धीरे-धीरे लाल ठीक वैसे ही/ जैसे धौंकनी/ कोयले को धधकाकर/ बना देती है/ अंगार/ जिस पर पिघल कर/ लोहा भी हो जाता है पानी/ बदल लेता है अपना आकार/ फ़ैसला तुम्हें करना है/ मेरे दोस्त/ फूंकोगे क्रांति का बिगुल/ छीनोगे अपने हिस्से की रोटी/ गाओगे सर्वहारा का गीत/ या यूं ही/ किसी चौक-चौराहे पर/ भूख की कुलबुलाहट से/ सूखी अंतड़ियों के संग अकड़कर/ब दल जाओगे/ एक ओर लावारिस लाश में।”
किसी भी भाषा में कविता यदि प्रतिकार या प्रतिवाद की भावभूमि तैयार करती है तो वह निश्चय ही उस भाषा के साहित्येतिहास के लिए एक महत्वपूर्ण उपार्जन है। विगत कुछ वर्षों में जिस तरह हमारे समय और समाज में प्रतिरोधी शक्तियों की आवाज़ें दुर्बल होती दिखायी दे रही हैं, ऐसे में हिन्दी कविता में प्रतिरोधी आवाज़ों का कहीं से उठना कविकर्म की महत्ता को बढ़ा देता है। संग्रह की कविताओं में राजनीतिक व्यवस्था और सामाजिक ढांचे को लेकर गहरा असंतोष और असहमति का स्वर है। ऐसे समय में जब समय और समाज को बदलनेवाली लोकतांत्रिक व्यवस्था से संबद्ध अनेक संस्थाएं अपना अर्थ खोती जा रही है। उदारीकरण की अर्थनीति ने देश के नब्बे प्रतिशत नागरिकों को बट्टे खाते में डाल दिया है और दस प्रतिशत नागरिकों को एक लोभी उपभोक्ता में बदल दिया है, धार्मिक और सांस्कृतिक कट्टरता व्यक्तियों के निजी जीवन में हस्तक्षेप करते हुए उनकी व्यापक संवेदनाओं और मानव-प्रेम सरीखी कोमल भावनाओं को निशाना बना रही है, लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अपने सामाजिक और नागरिक दायित्वों को विस्मृत कर बजबजाते हुए विज्ञापनों व सत्ता-चरण का भोंपू बन चुका हैं–ऐसे में समय और समाज को लेकर वरुण प्रभात की कविताएं हमारे अन्त:करण में लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर, मनुष्यता को लेकर एक भरोसा पैदा करती हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि कविता एक भरोसा भी है। कई बार समाज और समाज की सांस्थानिक इकाइयों से हमारा भरोसा टूटता हैं तो कविता ही हमें भरोसा देती है :
“एक दिन/ सबकुछ बदलेगा/ पैरों के निशान बदलेंगे/ खेत-खलिहान बदलेंगे/ दिल्ली का भूप बदलेगा/ थाली बदलेगी/ भात बदलेगा/ झूठे राष्ट्रवाद का/ लंगोट बदलेगा/ धरती बदलेगी/ आकाश बदलेगा/ सड़क, चौबारे और/ संसद की तस्वीर बदलेगी/ हल के फालों संग धंसे/ किसानों की तक़दीर बदलेगी/ उन्मादी सत्ता का/ निज़ाम बदलेगा/ बदलेगा साथियो/ एक दिन/ सबकुछ बदलेगा।”
कविता का लोकतांत्रिक होना अपने निहितार्थ में मनुष्य के सपनों का आख्यान बनना है। यह आख्यान सही मायने में जनविरोधी राजनीतिक व्यवस्था का एक प्रति-आख्यान भी है।
संग्रह की कविताओं का एक हिस्सा ऐसा भी है जिसमें छोटी-छोटी स्मृतियाँ, छोटी-छोटी भाव यात्राएं हैं–पर ये स्मृतियां, ये भाव-यात्राएं व्यक्तिवाचक होते हुए भी अपनी अंतिम परिणति में समूहवाचक बन गयी हैं। यह संवेदनात्मक विस्तार ही शायद कविता का अंतिम सत्य है। स्मृतियों से जुड़ी वरुण प्रभात की कविताओं पर नज़र डालें तो ऐसा प्रतीत होता है, इन कविताओं में एक ग्राम-लोक उपस्थित है। पर यह ग्राम-लोक वस्तुतः कवि का स्मृति-लोक है और इस स्मृति लोक की यात्रा पर निकल पड़ा है वरुण प्रभात का भावप्रवण कवि। दो राय नहीं कि शहरी जीवन की यांत्रिकता, बनावटी आधुनिकता और घनघोर उपभोक्तावाद के विरुद्ध लोक-जीवन की छवियां, स्मृतियां समकालीन कवियों की शरणस्थली बनी हैं। मौजूदा तिलिस्मी बाज़ारतंत्र के दौर में लोक-जीवन से जुड़ी कविताएं मानवीय संवेदनों को, मानवीय मूल्यों को, मानवीय रागबोध को, मानवीय संबंधों की गरिमा व गर्माहट को बचाये रखने का रचनात्मक उपक्रम है। वरुण प्रभात के लोक-जीवन यानी जन्मभूमि से जुड़ी कविताओं को पढ़ने से इस तथ्य का अहसास अधिक तीव्रता से होता है कि कवि के यहां लोक-जीवन स्मृति के रूप में संदर्भित है, पर यह लोक-जीवन का यथार्थ भी है। ये स्मृतियां दरअसल जिया जा चुका अनुभव हैं, बीता हुआ जीवन है जिसे पुनः जीने की विकलता कविता में मानो उमड़ पड़ी है–एक वयस्क मन मानो बालपन में लौटने को व्याकुल है। वस्तुतः कवि दुहरी नागरिकता में जी रहा है–मन लोक-जीवन में है और शरीर शहरी सभ्यता के दबाव से उपजे यातनादायी अनुभव-लोक में। एक ऐसे दौर में जब आदमी आत्मकेंद्रित होता जा रहा है, आत्मीय रिश्तों में भी बर्फ़ानी ठंडक महसूस हो रही है–एक कवि का अपने दिवगंत पिता के व्यक्तित्व को, उनके विचारों को, उनके रागभाव को, उनके संघर्ष को प्रेरणा-उत्स के रूप में अपनी चेतना में बसाये रखना पिता-पीढ़ी और पुत्र-पीढ़ी के संबंधों को सार्थकता और गरिमामंडित अर्थ प्रदान करता है। संबंधवाचक कुछ शब्द किसी परिभाषा, किसी मीमांसा के मुखापेक्षी नहीं हैं। केवल शब्द का उच्चारण ही उस शब्द के अर्थ को, उसकी महानता व पवित्रता को उजागर कर देता है–ऐसा ही एक विराट अर्थवाही व पुनीत शब्द है-‘बाबूजी’। संग्रह में पिता पर केंद्रित ‘बाबूजी’ शीर्षक से ग्यारह कविताओं की एक लंबी शृंखला है। हर कविता गहरे स्तर पर संवेदित करती है। पिता की स्मृतियों को सहेजे वरुण प्रभात की कविताएं संबंधों को नया जीवन और जीवन को नयी ऊर्जा देकर मानवीय संवेदना को संपूर्णता प्रदान करती हैं। प्रत्येक कविता की समाप्ति पर सर्वथा एक नयी आकृति का निर्मल भावबोध गतिशील दिखायी देता है—
“अब भी डरता हूं/ अंधेरी रातों में/ सहमा कांपते हाथों से/ टटोलता हूं/ सिलवटी बिस्तर को/ बंद आंखें खुल जाती हैं/ अचानक/ जागृत हो जाती है चेतना/ और हिचकियां दबाये नहीं दबतीं/ तकियों के बीच/ प्यासी रूह अब भी ढूंढती है/ बाबूजी की चौड़ी छाती/ जिस पर सो सकूं सुकून से।”
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“उड़ गयी मेरे सिर से छत/ छोड़ गये बाबूजी/ धूप, वर्षा, आंधी, ओले/ बेधड़क, बेहिचक आयेंगे/ करूंगा स्वागत उन सबका/ बड़ी हिम्मत के साथ/ धरती और आसमां की विराटता में/ घर्षण कर उत्पन्न करना है/ स्वयं में बाबूजी को।”
यह संपूर्ण सत्य है कि वर्ग के गठन में जो भूमिका इतिहास बोध की होती है, लोकचेतना की निर्मिति में वही स्थान परंपरा-बोध का होता है। स्मृतियों से जुड़ी वरुण प्रभात की कविताओं को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए जो एक गहरी अनुगूंज की तरह लोक-जीवन के लंबे नैरंतर्य में से छनकर आती हैं।
कुल मिलाकर संग्रह की कविताएं अपनी समग्रता में उत्तर-औद्योगिक समय का विश्वसनीय सामाजिक-राजनीतिक पाठ है। एक ऐसे दौर में जबकि दुनिया पहले के समयों की तरह सरलरेखीय नहीं रही, जहां मनुष्य के किसी बड़े स्वप्न या आदर्श को झुठलाया जा रहा है, परस्परविरोधी सत्ताएं लड़ने के बजाय पिघलकर गलबहियां करती नज़र आ रही हैं, वफ़ादारियां बदल रही हैं, बाज़ार अब समाज का पर्याय बनता जा रहा है और शोषण, संवेदनहीनता तथा अमानवीयता का जिस तरह संस्थानीकरण हो रहा है–ऐसे में वरुण प्रभात का यह प्रथम कविता-संग्रह कविकर्म के जनपक्षीय हस्तक्षेप के प्रति आश्वस्त करता है। कवि का लिखना ही एक सक्रिय कार्रवाई है। वाल्टर बेजामिन से शब्द उधार लेकर कहें तो यह कार्रवाई पुरानी अच्छी चीज़ों से नहीं, बल्कि नयी ख़राब चीज़ों से भी शुरू की जा सकती है।
[अंतहीन रास्ते , वरुण प्रभात, 2021, सर्व भाषा ट्रस्ट, नयी दिल्ली ; पृष्ठ : 160, क़ीमत : रु. 300.]
हिन्दी-विभाग, करीम सिटी कॉलेज
साकची, जमशेदपुर, झारखंड
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