‘बाद में आने वाले लोगों के लिए रास्ता आसान न भी सही पर अनचीन्हा-अनजाना नहीं रह जाता, पर जिन्होंने सबसे पहले-पहल चढ़ाई शुरू की थी, उन्हें उन बीहड़ रास्तों पर चलते हुए इसका अंदाज़ा भी नहीं होता कि जो राह पकड़ी है उससे शिखर पहुँच भी सकेंगे या नहीं, और अगर पहुँच भी गये तो वहाँ से दिखने वाला दृश्य उनके श्रम के सापेक्ष होगा भी या नहीं। इरु की ज़िंदगी वस्तुतः विलक्षण, सच ही उल्लेखनीय थी। और उसे सिर्फ़ समाजशास्त्र और नृतत्त्वशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए सीमित कर देने से जो सामाजिक विस्मृति ऐसे व्यक्तित्व के साथ घटती आयी है, यह जीवनी उसका ही प्रतिपक्ष है।’–भारत की पहली महिला नृतत्त्वशास्त्री इरावती कर्वे की जीवनी पर अदिति भारद्वाज का समीक्षात्मक आलेख।
एक ऐसे समय में जब समाजशास्त्र या नृतत्त्वशास्त्र जैसे ज्ञान के अनुशासन औपनिवेशिक भारत में विकसित भी नहीं थे, इरावती कर्वे का नाम उन चंद लोगों में शुमार होता है जिन्होंने इस विधा को न केवल विकसित किया बल्कि ज्ञान के औपनिवेशिक तंत्र और उसके एकतरफ़े नियंत्रण पर भी प्रश्न किया। इरावती कर्वे, उर्फ़ इरु, की प्रामाणिक और आधिकारिक जीवनी Iru: The remarkable life of Irawati Karve (2024) को पढ़ना न केवल उनके व्यक्तित्व और उपलब्धियों को जानना है, बल्कि यह एक साथ भारत के औपनिवेशिक दौर और उसी के सापेक्ष घटे वैश्विक इतिहास को भी क़रीब से देखना है। प्रायः जब हमें कोई स्त्री आज से इतने सालों पहले दक्षिण एशियाई समाजों में अपने समकालीनों से इतना अलग जीवन जीती नज़र आती है, चाहे उसके जो भी कारण रहे हों—या तो उनके वर्गीय-जातीय विशेषाधिकार, या सांस्कृतिक पूँजी, या परिस्थितियों के विरुद्ध उठ पाने की इच्छा—तो वह हमें मुतासिर तो करता ही है, पर कहीं-न-कहीं विचलित भी करता है। भारतीय इतिहास ऐसी नारियों से शून्य नहीं है—पंडिता रमाबाई, डॉ. रुकमाबाई, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, डॉ. रशीद जहाँ इत्यादि तो बस कुछ उदाहरण भर हैं, पर ये इस बात पर हमारा विश्वास और गहरा कर देते हैं कि धारा के विपरीत चलने के निहित ख़तरे ज़रूर हैं, पर वह न उठाया गया तो भविष्य की पीढ़ियाँ कुछ ज़रूरी चीज़ों से वंचित रह जायेंगी। इसी सिलसिले में भारत की पहली महिला नृतत्त्वशास्त्री इरावती कर्वे ने भी अपने काम से भविष्य को दिशा दिखलायी थी। 1920 के दशक में एक भारतीय स्त्री ज्ञान के उन अनाम-अनचीन्हे आयामों तक पहुँच पा रही थी, विशेषकर हमारे औपनिवेशिक भारतीय पितृसत्तात्मक संदर्भों में, यह अपने आप में एक विरल परिघटना है। इस विरलता के कई कारण रहे हैं। इसलिए जैसा कि इस जीवनी के शीर्षक में एक ‘उल्लेखनीय जीवन’ (remarkable life) का ज़िक्र किया गया है, यह समीक्षा उसकी पड़ताल है। वह वस्तुतः उस विरल जीवन के उन आयामों को समझने की कोशिश है जो समय के प्रवाह में योग देने वाली धाराओं का निर्माण करती हैं।
कई बार ऐसा होता है कि व्यक्ति विशेष की उपलब्धि उसके निज की उपलब्धि न रह कर उसके वृहत्तर समाज की या यूँ कह लें उसके पूरे युग की ही उपलब्धि हो जाती है। हाँ, यह सच है कि किसी भी व्यक्ति की उपलब्धि के पीछे कई कारण होते हैं। इरावती कर्वे के संदर्भ में देखा जाये तो सबसे पहला कारण वह सांस्कृतिक पूँजी थी, जिसने निश्चित तौर पर उनके जीवन को तमाम औसत भारतीय स्त्रियों से अलग दिशा दी। न केवल वह अत्यंत संभ्रांत माता-पिता की संतान थीं बल्कि आगे चलकर महर्षि कर्वे जैसे प्रखर समाज सुधारक और स्त्री शिक्षा के अगुआ जननेता की पुत्रवधु और उनके अत्यंत योग्य व प्रगतिशील पुत्र डॉ. दिनकर कर्वे उर्फ़ दिनू की पत्नी थीं। दिनकर कर्वे स्वयं 1920 में विज्ञान में अपना शोध करने जर्मनी गये थे और जीवनपर्यंत एक प्रखर अकादमिक होने के साथ-साथ इरु की जीवन-यात्रा के सबसे क़रीबी सहचर बने रहे। इतने संभ्रांत और शिक्षित परिवेश के विशेषाधिकार ने निश्चित ही इरावती के व्यक्तित्व की प्रखरता और अवसरों की सुलभता को संभव बनाया। पर अपने जीवन को समाज और विज्ञान के हित में समर्पित करने में जिस दृढ़ इच्छाशक्ति, लगन और अध्यवसाय की आवश्यकता थी, वह तो उनकी निजी पूँजी थी।
बहरहाल, यह जीवनी उर्मिला देशपांडे और थियागो पिन्टो बारबोसा के सह-लेखन का परिणाम है। उर्मिला देशपांडे के पास अपनी नानी इरावती कर्वे के जीवन से जुड़ी तमाम स्मृतियाँ और पारिवारिक दस्तावेज़ थे और थियागो पिन्टो बारबोसा ने कर्वे पर अपना समाजशास्त्रीय शोध किया है। इसलिए इस जीवनी में जहाँ उर्मिला, इरु के विलक्षण व्यक्तित्व को उद्घाटित करने में निजता की ऊष्मा ले कर आती हैं, वहीं एक शोधकर्ता के रूप में थियागो की दृष्टि उनके जीवन का तटस्थ और सम्यक मूल्यांकन करने की रही है। इसलिए गहन शोधपरक अध्ययन होने के बावजूद इस जीवनी में किसी उपन्यास की भाँति एक कहानी है—अपने पात्र के जीवन को स्वयं जीवनीकार भी घटते हुए देखते हैं और उसके निर्णयों पर सहृदय आलोचकीयता से विचार करते हुए अंततः पाठकों के लिए अपने निष्कर्ष स्वयं ग्रहण करने का विकल्प छोड़ देते हैं।
जीवनी को चार खंडों में बाँटा गया है और अपने विषय के विलक्षण व्यक्तित्व के बर-अक्स ही यह जीवनी भी इरावती के जीवन के शुरुआती वर्षों को पहले नहीं उकेरती, जैसा कि अमूमन जीवनी-लेखन में प्रचलित है। थियागो और देशपांडे सबसे पहले हमें 22 साल की इरु की झलक देते हैं, जो मुंबई के बंदरगाह पर अपने पति दिनू के साथ खड़ी जर्मनी के हैम्बर्ग जाने वाले जहाज़ का इंतज़ार कर रही है। पति-पत्नी, जिनके विवाह को एक साल ही हुए हैं, के सुंदर संबंधों को हम यहाँ पहले ही दृश्य में समझ सकते हैं। यह एक ऐसे दाम्पत्य की लंबी साझेदारी है जो इरावती के जीवन को अपने साथ, विश्वास और समझ से और समृद्ध करती है। पहले खंड के चारों अध्याय इरावती के जर्मन प्रवास पर आधारित हैं। वे जर्मनी के KWI-A संस्थान में प्रसिद्ध जर्मन नृतत्त्वशास्त्री प्रो. युजीन फिशर के निर्देशन में शोध करने गयी थीं। नस्लीय शुद्धता की अपनी अवधारणा के लिए विख्यात प्रो. फिशर का शुमार उस समय के बड़े वैश्विक वैज्ञानिक-विचारकों में किया जाता था। हालाँकि जिन दिनों वह इस सिद्धांत के शोध में जुटे थे, उन दिनों यूरोपीय मस्तिष्क के अधिक विकसित और तार्किक होने का कारण उनके मस्तिष्क की विशिष्ट संरचना को मानना एक अनुमानित वैज्ञानिक समझ थी। कालांतर में यह अनुमान एक तथ्य के रूप में वैज्ञानिक समुदाय में प्रचलित हो गया था कि मस्तिष्क के दक्षिणी हिस्से के अधिक विकसित होने की वजह से ही संभवतः यूरोपीय मस्तिष्क की संरचना ऊबड़-खाबड़ है और ग़ैर-यूरोपीय (अश्वेत) नस्ल के लोगों के मस्तिष्क सपाट-एकसार होंगे क्योंकि वे तार्किक रूप से अक्षम और अविकसित हैं। यह प्राक्कल्पना अंततः औपनिवेशिक-नस्लवादी विमर्श को एक वैज्ञानिक वैधता देने का उपक्रम थी, इन यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों को एक तरह का नैतिक पुष्टिकरण देने के लिए ताकि वह तथाकथित आदिम-बर्बर-अविकसित-अतार्किक-हीनतर ग़ैरयूरोपीय नस्ल पर अपना औपनिवेशिक आधिपत्य बना सके।
बहरहाल, जिस विरलता की बात हमने इरावती के संदर्भ में प्रारंभ में की थी, उसका सबसे सबल पक्ष भी हमें इसी संदर्भ में मिलता है। फिशर की इस प्राक्कल्पना को या यूँ कहें कि औपनिवेशिक वर्चस्व की अवधारणा को चुनौती देने के लिए इरावती कर्वे ने अपना शोध किया और यह वस्तुतः इतिहास में एक विरल क्षण ही था जहाँ इतने प्रखर शोध निर्देशक की संकल्पना (नस्लीय शुद्धता/श्रेष्ठता का सिद्धांत) को सबसे बड़ी और पहली चुनौती उनके ही शोध विद्यार्थी और वह भी एक गैरयूरोपीय स्त्री द्वारा दी गयी। इरावती कर्वे वह पहली शोधकर्ता थीं जिन्होंने तक़रीबन 149 इंसानी कपालों (skulls) के अध्ययन और सूक्ष्म मापन-पर्यवेक्षण से यह सिद्ध किया कि ग़ैरयूरोपीय नस्लों के मस्तिष्क भी उतने ही ऊबड़-खाबड़ हैं और इस प्रकार नस्ल का मानवीय बुद्धि और मेधा के विकास व श्रेष्ठता से कोई संबंध नहीं है। यह निष्कर्ष जो उनके सालों के शोध का परिणाम था, स्वयं फिशर की संकल्पना का प्रतिकार था और बहुत संभव था कि उनकी पीएच.डी. की उपाधि ही ख़तरे में पड़ जाती, पर कर्वे ने बिना निजी लाभ की चिंता किये अपने शोध के केवल निष्कर्ष में ही नहीं बल्कि अपने शोध के शीर्षक में ही पूरे औपनिवेशिक ज्ञान को धता बता दिया। इरावती के जीवनीकार लिखते हैं:
‘Karve’s Ph.D. supervisor, Professor Eugen Fischer, would not have had to read Irawati’s entire thesis to know what it contained. She had stated her conclusion bluntly, right in her title: “the normal asymmetry of human skull.’
पर यह जीवनी इस गहन शोध और उसके इतने निर्णायक निष्कर्ष के समांतर इरावती के मानवीय पक्ष को भी उभारती है। यह पक्ष विभिन स्थितियों और इरावती की प्रतिक्रियाओं में दिखलायी पड़ता है। मसलन, अपने अध्ययन के दौरान जहाँ इरावती को मानवीय कपालों का मापन और पर्यवेक्षण करना था, वह इस बात के प्रति संवेदनशील थीं कि अंततः यह भी मनुष्य के ही अवशेष हैं और इस तरह मृत्युपरांत भी उनके अवशेषों के साथ यह परीक्षण उनके मानवीय अधिकारों का हनन है, एक क्रूर नृशंसता है। इसलिए वह हर मानवीय कपालों के परीक्षण से पहले धीमी आवाज़ में उनसे क्षमा माँगतीं और फिर उसे मापती-नापतीं। इस तरह के तथ्यों के समावेश से जीवनी सिर्फ़ उनकी उपलब्धियों का प्रचार न लग कर उनके मानवीय पक्ष को भी रेखांकित करती है। देखा जाये तो इरावती का एक प्रचलित यूरोपीय श्रेष्ठता की वर्चस्ववादी अवधारणा को चुनौती देना आख़िरकार इसीलिए भी मायने रखता है कि वह स्वर उस हाशिये पर जीने वाले व्यक्ति ने उठायी थी। इसी से हम समझ सकते हैं कि कई बार वर्चस्व की प्रबल आवाज़ों को नकारने या उन पर प्रश्न उठाने की हिम्मत वही व्यक्ति/ वर्ग/ समुदाय कर सकता है जो उस वर्चस्व का भुक्तभोगी है। और इरावती के संदर्भ में तो यह विज्ञान की नस्लीय दृष्टि पर प्रश्न उठाने का, उस भेदकारी ज्ञान को चुनौती देने का मसला था जो आने वाले समय में इस ज्ञान के इस अनुशासन को ही बदलने का उपक्रम करता है।
इरावती कर्वे की यह जीवनी, जैसा कि हमने पहले भी कहा, विश्व इतिहास के भी उन महत्वपूर्ण वर्षों को खोलती है जिसका अनुभव उन्होंने स्वयं एक भोक्ता के रूप में किया था। द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका के दौरान जिस नाज़ी जर्मनी ने 2 करोड़ से भी अधिक जनसंख्या को केवल नस्ल के नाम पर मौत के घाट उतारा था, उसके सैद्धांतिक ब्लू प्रिन्ट 1920 के जर्मनी में ही बनने लगे थे- तक़रीबन वही सारे साल जब इरावती स्वयं वहाँ उपस्थित थीं। एक उपनिवेश की प्रजा अपनी साम्राज्ञी के देश न जाकर जर्मनी, जो उसके शत्रु-देशों में से एक हो, जाकर अध्ययन करती है, यह 1920 के दशक में एक बहुत सशक्त उपनिवेशवाद विरोधी क़दम था। यह ब्रिटिश सत्ता से नभिनालबद्ध न रहने का एक वैचारिक और प्रत्यक्षतः किया जाने वाला कृत्य था, विशेषकर जब हम उस दौर की भारतीय प्रतिभाओं को इंग्लैंड के बजाय जर्मनी को अपना ठिकाना बनाते देखते हैं। इसीलिए जहाँ एक तरफ़ इरावती जर्मनी के हिंदुस्तान टी हाउस में उन युवा विचारकों के संसर्ग में आती हैं और ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों और एजेंडों की प्रत्यक्षदर्शी बनती हैं तो वहीं प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी के साथ मित्र राष्ट्रों के व्यवहार पर और उसकी भीषण आर्थिक दुरावस्था के उन लंबे वर्षों को एक सदय सहानुभूति से भी देखती हैं। हालाँकि इरावती अपने अध्ययन के लिए जब वहाँ जाती हैं तो जर्मनी को अपनी पिछली हार के शर्मनाक सलूकों से उभरता, अपने आर्थिक उभार की ओर अग्रसर देखती हैं। यह वर्ष जर्मनी के आर्थिक-सामरिक-राजनीतिक रूप से उठान के वर्ष थे। फिशर की नस्लवादी श्रेष्ठता की अवधारणा के राजनीतिक प्रभाव तो बहुत आगे चल कर पड़े, हालाँकि वह स्वयं बाद में उस नाज़ी पार्टी के सदस्य बन गये थे जिसने नस्लीय शुद्धता के नाम पर अपना एक अलग इतिहास ही बना दिया। पर उस अंध नृशंसता की, जो 1930 के दशक में अपने उफान पर आती है, पहली झलक इरावती को अपने शोध की समाप्ति के दिनों में मिलने लगी थी, जब उनकी ही इमारत में उनके एक परिचित यहूदी विद्यार्थी को मार दिया जाता है। अपनी आँखों से देखी उस लाश की वीभत्सता उनकी स्मृति में हमेशा के लिए दर्ज हो जाती है। हालाँकि अपने शोध की समाप्ति के बाद वह कभी फिर अपने जीवन में जर्मनी नहीं गयीं, पर उसके इतिहास के कुछ सबसे अधिक स्याह वर्षों की शुरुआती संकेत उन्हें मिल गये थे।
जीवनी का पहला खंड इरावती के जर्मन प्रवास की समाप्ति पर होता है। बाह्य संसार से मिलने वाले अनुभवों को विस्तार से बतलाते हुए भी जीवनी में उनके आंतरिक मानस में होने वाली हलचलों को उकेरा गया है। एक नये अपरिचित देश में, जहाँ संस्कृति और सभ्यता इतनी अलग है, वहाँ एक भारतीय स्त्री के अपने संघर्ष थे। चाहे वह खान-पान की एकदम भिन्न संस्कृति का मसला हो, या सांस्कृतिक उन्मुक्तता का, या पुरुषों की सर्वव्यापी वर्चस्ववादी दुनिया में एक स्त्री—वह भी एक गैरश्वेत स्त्री—के रूप में कमतर समझे जाने का, या नितांत अकेलेपन का, यह सब उनके बेहद निजी अनुभव और मानसिक संघर्ष थे जिसे जीवनी ने बहुत संवेदनशीलता के साथ दिखलाया है।
इरावती के निजी जीवन और उनके सामाजिक परिवेश पर जीवनी के दूसरे खंड में विस्तार से बात की गयी है । यहाँ उनके इरावती बनने की प्रक्रिया में संलग्न परिस्थितियों और उसके विरल संयोगों को दिखलाया गया है। ब्रिटिश बर्मा में बीते उनके बचपन और स्वयं उनके पिता के बर्मा पहुँचने और ब्रिटिश एस्टेट के सर्वोच्च पद तक पहुँचने के पीछे की पूरी कहानी दिलचस्प है। चित्तपावन ब्राह्मण पिता गणेश कर्माकर की ऊँची क़द काठी, गौर वर्ण और नीलिमा ली हुई आँखों को देख कर साक्षात्कार में उन्हें एंग्लो इंडियन मान लेने का भ्रम और इसीलिए सुदूर बर्मा में स्थित ब्रिटिश कॉटन कंपनी के लिए उनका चयन हो जाना, सब विरल संयोग ही कहे जा सकते हैं। कारण कि एक भिन्न परिवेश और संस्कृति वाले सुदूर क्षेत्र में एक साधारण मराठी का आजीविका के लिए जाना और उससे पायी गयी आर्थिक समृद्धि से अपना एक अलग जीवन निर्मित करना, यह इरु के संसाधन-सम्पन्न बचपन वाले पहले विशेषाधिकार का कारण है। पर इस वृतांत को लिखते हुए भी जीवनीकारों ने गणेश कर्माकर की पत्नी और इरावती की माँ भागीरथी के यूँ अपने मराठी परिवेश से कटकर सुदूर बर्मा के अपरिचित परिवेश में जीने के निर्णय में, चयन का कोई विकल्प न होने की स्थिति और इस प्रकार मौन कर दिये गये स्त्री स्वर के संकेत दिये हैं।
इरावती की आरंभिक शिक्षा घर पर हुई। परंतु जैसे कॉटन कंपनी के ब्रिटिश अफ़सर अपने बच्चों को पढ़ने के लिए अपने देश भेज दिया करते थे, उसी तरह पिता गणेश कर्माकर ने भी बेटी को अच्छी शिक्षा के लिए अपने मूल स्थान पुणे भेज दिया। इस प्रकार वह सात साल की उम्र में बर्मा से पूना आ गयीं और यहीं पर उनके जीवन में एक अनोखा संयोग घटित होता है। स्कूल के छात्रावास में रह रही इरु, आर. पी. पराँजपे की बेटी शकुंतला की अभिन्न मित्र थीं और कुछ ही दिनों बाद वह उसकी माँ के आग्रह पर, उनके घर रहने चली जाती हैं। पराँजपे परिवार से यह परिचय इरु के जीवन की दिशा तय करने वाला साबित होता है। पराँजपे, जो अपने समाज सुधार और स्त्री शिक्षा के प्रयासों के लिए पूरे महाराष्ट्र में प्रसिद्ध थे, इरावती के धर्मपिता की भूमिका निभाते हैं जिनकी छत्र-छाया में उन्होंने अपना बौद्धिक विकास किया। जीवनी का दूसरा खंड उनके इसी बौद्धिक और मानसिक विकास की कहानी है। पराँजपे की पत्नी सईताई और पुत्री शकुंतला आजीवन इरु के अतरंग बने रहे। सईताई के जीवन को इतने क़रीब से देखने पर ही किशोरी इरावती पहले-पहल स्त्रियों की अकथनीय पीड़ा को देख पाने की अंतर्दृष्टि प्राप्त करती है। स्त्रियों के जीवन के गहरे अंतर्तम को समझ पाने की मर्मभेदी दृष्टि उन्हें मिलती है, जिसे ही आगे चल कर वह भारतीय महाकाव्यों की स्त्रियों के परिप्रेक्ष्य में भी संदर्भित कर पाती हैं। वह यह संबंध स्थापित कर पाती हैं कि कैसे भारतीय समाजों में स्त्रियों की थोपी गयी नियति वर्तमान की स्थितियाँ मात्र नहीं हैं बल्कि चाहे वह महाभारत की कुंती हो या गांधारी, हर स्त्री की अनिर्वचनीय पीड़ा को इतिहास में अनसुना कर दिया जाता रहा है।
इरु की स्नातक की शिक्षा फ़र्गयुसन कॉलेज, पुणे में और बॉम्बे यूनिवर्सिटी से फिर एम.ए.की पढ़ाई, विरोधों के बग़ैर नहीं थी। सुदूर बर्मा में बैठे गणेश कर्माकर यूँ पुत्री के साल-दर-साल नयी कक्षाओं में दाख़िला लेने और आगे पढ़ने के विरुद्ध थे, और इसके विपरीत अब चाहते थे कि किसी राजसी परिवार में इरु की शादी हो जाये। पर पराँजपे परिवार के साथ रहती इरु ने जिस नयी जीवन पद्धति को अपनाया था, वहाँ शिक्षा पर कोई रोक-टोक न थी और फलतः पराँजपे की निगहबानी में वह आगे पढ़ती गयीं। इन्हीं आर.पी.पराँजपे के भाई प्रख्यात समाज सुधारक ढोंढो केशव कर्वे, जिन्हें सब अप्पा कर्वे कहते थे, के संपर्क में आने से इरावती के जीवन का दूसरा अध्याय शुरू होता है। कर्वे महाराष्ट्र में विधवा पुनर्विवाह और स्त्री शिक्षा के प्रखर अगुआ थे और उन्हीं के पुत्र डॉ. दिनकर कर्वे से आगे चलकर इरावती की शादी होती है। हालाँकि इतने शिक्षित व प्रगतिशील परिवार में विवाह करने पर भी, गणेश कर्माकर, कर्वे परिवार की बदहाल आर्थिक स्थिति देख कर पुत्री के इस चयन के मुखर विरोधी हो गये थे। हालाँकि स्वयं इरु का विवाह के लिए दिनकर का चयन, संभवतः उच्च शिक्षा की उनकी बलवती इच्छा का परिणाम अधिक था। इसी का प्रमाण है कि विवाह के एक वर्ष बाद ही, स्वयं दिनू के सुझाव और समर्थन से वे पीएच.डी. की शिक्षा के लिए जर्मनी चली गयीं। जर्मनी जाकर एक स्त्री के लिए शोध करना उस वक़्त के लिए एक अनोखी बात थी और साहसी भी। यह निर्णय उस वक़्त की मजबूरी थी और स्वयं दिनकर के अपने अनुभवों का भी परिणाम, क्योंकि यह वह समय था जब देश में समाजशास्त्र और नृतत्त्वशास्त्र जैसे अनुशासन उतने विकसित नहीं थे और फील्ड स्टडी के लिए भारतीय समाज विविधता का बड़ा भंडार होते हुए भी, देश में नृतत्त्वशास्त्र में शोध करने के विकल्प ही उपलब्ध नहीं थे। ऐसे में दिनू का अपनी मेधावी पत्नी की उच्च शिक्षा के लिए स्वयं पिता अप्पा कर्वे से भिड़ जाना, जो स्त्री शिक्षा के हिमायती होकर भी नई वधू के यूँ विदेश जाने और वह भी इतने लंबे अरसे अकेले रह जाने के ख़िलाफ़ थे, एक साहसिक क़दम था। दिनू आजीवन इरावती के बौद्धिक-मानसिक सहचर बने रहे और यह उस समय के लिहाज़ से वस्तुतः एक विरल घटना थी। जीवनीकार ने भी इसकी चर्चा करते हुए लिखा है:
‘Irawati, in her husband Dinu, had a champion, a partner, a lover, an admirer, a friend and a companion in every way. He was a fellow academic who would read and discuss and even carefully edit her writing, both in English and Marathi.’
जीवनी का तीसरा खंड सबसे अधिक विस्तृत है। एक समाजशास्त्री के रूप में उनकी अकादमिक यात्रा को समेटता यह खंड इरु के अपने विश्वासों और मान्यताओं के साथ अंतर्द्वंद्व को भी दिखलाता है। यहाँ उनके विचारों और पद्धतियों पर एक आलोचकीय दृष्टि डाली गयी है। उन्हें अपने समय के परिप्रेक्ष्य में ही रख कर समझने की कोशिश की गयी है और इस प्रकार उनके ऐसे कई मत या कार्य जिन पर आज के संदर्भों में प्रश्न लगाये जा सकते हैं, उसकी भी एक वस्तुनिष्ठ पड़ताल मिलती है। मसलन, नारीवादी विमर्श जो उस समय तक भारत में इतना अधिक सुस्पष्ट और परिभाषित नहीं था, उस दृष्टि से समाज या अपने आस-पास को देखने की अपेक्षा इरावती से करना, जीवनीकारों की दृष्टि में भी सही नहीं है। इस संदर्भ में एक प्रसंग उल्लेखनीय है। बेटी गौरी के उन्नीस साल में ही अपने पसंद से विवाह करने और फिर तलाक लेने की स्थिति पर इरावती की धारणा शायद आज की दृष्टि में हमें उतनी प्रगतिशील नहीं लगे, पर यह हमारे मानवीय समाज के पीढ़ीगत विकास को दर्शाता है। इस पूरी स्थिति पर इरु, जो स्वयं एक स्त्री के रूप में इतनी परिपूर्ण थीं, का मानना था कि पति अगर मार-पीट न करता हो, या परस्त्री की तरफ न झाँकता हो या शराबी न हो तो वह एक आदर्श पति न भी पर साथ रहने योग्य पति अवश्य है। हालाँकि गौरी देशपांडे जो स्वयं आगे चल कर मराठी साहित्य का एक प्रमुख हस्ताक्षर बनती हैं, अपनी प्रबुद्ध माँ के संदर्भ में एक आलोचनात्मक रुख अपनाती हैं:
‘Although Irawati was nothing short of brilliant, Irawati’s writing and anthropological work was part of her own evolution, not connected to the problems of women.’
इस तरह ऐसे कई प्रसंग हैं जहाँ हमें यह लगता है कि घर और आपसी संबंधों से जुड़े या भारतीय समाजों से भी संबंधित कई संदर्भों में इरावती की सोच उनके अपने युग की पारंपरिकता का अतिक्रमण नहीं कर पाती। सामाजिक स्तर पर इसे हम एक अन्य घटना से समझ सकते हैं, जहाँ देश के हर हिस्से, हर समुदाय, हर जाति में पत्नी को पति द्वारा मारे-पीटे जाने की घटना को इरावती एक तरह से भारतीय परंपरा का ही हिस्सा मान व्याख्यायित करती थीं। अपने एक निबंध ‘Women and Culture’ में वे स्त्रियों के यूँ पति द्वारा प्रताड़ित किये जाने की स्थिति को जिस प्रकार देखती हैं, उसके संदर्भ में जीवनीकार लिखते हैं:
‘She was simply pointing out that it was an ingrained part of Indian society. Not only was it widespread, it was accepted, and to such an extent that a man who did not beat his wife was the exception, and that this created its own problems: such men were not respected, not only by other men, but in examples she has recounted, even their wives.’
पर यह इरावती की दृष्टि के विरोधाभास नहीं थे, बल्कि यह एक समाजशास्त्री की अपने समाज को देखने की एक बेहद बारीक (nuanced) दृष्टि थी जो वस्तुतः यथार्थवादी थी। यह दृष्टि सामाजिक मानसिकता के यथार्थ से मुँह मोड़ने के बदले उसे स्वीकार करने के धैर्य और साहस के साथ विकसित हुई थी। और इसकी प्रामाणिकता इस बात से भी सिद्ध होती थी कि केवल वृहत्तर समाज को देखने में नहीं बल्कि अपने निजी परिवार को भी उन्होंने इस सिद्धांत पर कसा था। एक प्रसिद्ध निबंध ‘The ways of Love’ में अपने माता-पिता के संबंधों को केंद्र में रख कर उन्होंने एक पुरुष के स्त्री के प्रति निवेदित प्रेम का मूल्यांकन किया है। इसी प्रकार स्त्री-पुरुष संबंधों में समानता के प्रश्न पर भी उनकी राय अपने और संभवतः आज के समय से भी अलहदा थी। जीवनीकार लिखते हैं कि कैसे स्त्री-पुरुष समानता उनके लिए अलग मायने रखती थी और इस प्रश्न के जवाब में प्रायः वह यह प्रति-प्रश्न करतीं कि आख़िरकार हमें पुरुषों के साथ केवल समानता क्यों चाहिए और इससे अधिक की कल्पना हम क्यों नहीं करते। सच्ची समानता इरु की दृष्टि में वह थी जहाँ स्त्रियों को अपने निर्णय स्वयं लेने में स्वतंत्रता मिलती हो। वह जो करना चाहती हैं, वह बिना किसी पुरुष से सम्बद्ध होते हुए कर सकें, वह सही अर्थों में समानता है।
जीवनी का तीसरा खंड इरावती के अकादमिक जीवन को उसके विविधतापूर्ण विस्तार से समटेता है। संभवतः इरावती उन चंद प्रारम्भिक समाजशास्त्रियों में हैं जिन्होंने न केवल अंग्रेज़ी, बल्कि मराठी में भी अपने शोध, पुस्तकें, निबंध-शृंखलाएँ प्रकाशित कीं। उन्होंने भारतीय समाज की समस्याओं पर मराठी में एक-से-बढ़कर-एक जीवंत और सार्थक निबंध लिखे ताकि वह उस समाज द्वारा पढ़ी जा सके और उन विश्लेषणों का उपयोग किया जा सके। अपनी इसी समाजशास्त्रीय दृष्टि से महाभारत की जो नवीन और आधुनिक व्याख्या इरावती ने की, उसे युगांत (1967) शीर्षक से मराठी में प्रकाशित किया गया जिसे साल 1968 का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। आगे चलकर इसका अंग्रेजी अनुवाद Yuganta: The End of an Epoch नाम से किया गया। इरु द्वारा महाभारत को सिर्फ एक धार्मिक-मिथक न मानकर एक ऐतिहासिक स्रोत की तरह उसकी समुचित आधुनिक व्याख्या अपने आप में एक नवोन्मेषी पहल थी। वह इस महाकाव्य को पूरी भारतीय संस्कृति को एक सूत्र में बाँधने वाली कृति मानती थीं। एक कल्पनामूलक रचनात्मकता का कार्य भर मानने के बदले महाभारत, इरावती के लिए वह इतिहास था जिसमें न केवल महाभारतकालीन जीवन और उस वक़्त के लोगों के संदर्भ-सूत्र मिलते थे, बल्कि वर्तमान भारतीय उपमहाद्वीप के जीवन-पैटर्न को भी समझा जा सकता था। वे बारम्बार प्राचीन भारतीय समाज को समझने के लिए महाभारत की तरफ़ मुड़ती हैं। इसके आधार पर ही वे भारतीय समाजों, विशेषकर उत्तर भारतीय समाजों के पारिवारिक संघटन और जातीय संबंधों का विश्लेषण करती हैं। अपने समाजशास्त्रीय अध्ययनों में भी इरावती वर्तमान को समझने के लिए महाभारत से संकेत ग्रहण करती थीं। गारो जनजाति के लोग जिस प्रकार चावल की खेती के लिए पूरे-का-पूरा लहलहाता जंगल जला डालते हैं, वह स्थिति उन्हें महाभारत के उस प्रसंग की ओर ले जाती है जब अज्ञातवास के लिए गये पांडवों के रहने के लिए पूरे खांडव वन को जला दिया गया था। जिस तरह खांडव वन के जलने पर उसमें रहने वाले साँपों के जल कर मर जाने की सूचना महाभारत में दी गयी है, इरावती उन्हें प्रतीक मान कर यह व्याख्या करती हैं कि दरअसल वह सर्प नहीं बल्कि उन वनों में एकांत वास करने वाली जनजातियाँ रही होंगी जिन्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा, क्योंकि पांडवों के सुकुमार पुत्रों के लिए महल निर्मित करना था। इस दृष्टि से इरावती एक बेहद नवोन्मेषी और क्रांतिकारी निष्कर्ष देती हैं कि इतिहास में पांडवों विशेषकर अर्जुन और कृष्ण से बड़ा शत्रु शायद ही कोई हो। यह एक समाजशास्त्री की जन पक्षधरता को दिखलाता है।
पर महाभारत को यूँ नृतत्त्वशास्त्रीय और ऐतिहासिक महत्ता दिये जाने की इरावती के प्रविधि की अकादमिक आलोचना भी खूब हुई। फ्रेंच समाजशास्त्री लुइस ड्यूमॉन्ट जो भारतीय जाति व्यवस्था के आधिकारिक विशेषज्ञ और शोधकर्ता थे, उन्होंने अपने एक प्रसिद्ध निबंध में इस पद्धति की काफ़ी कड़ी आलोचना की थी। Kinship Organisation in India (1968) जो इरावती की सबसे महत्त्वपूर्ण समाजशास्त्रीय पुस्तक है, उसकी ड्यूमॉन्ट द्वारा की गयी विध्वंसकारी विवेचना के प्रहार से यह पुस्तक उबर न सकी। संस्कृत स्रोतों/ग्रंथों पर इरावती की ऐतिहासिक निर्भरता, ड्यूमॉन्ट को एक वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिक प्रविधि न लगते हुए एक हिन्दू ब्राह्मणवादी नज़रिया लगा। पर ड्यूमॉन्ट की यह दृष्टि विशेषकर औपनिवेशिक संदर्भों में, जहाँ पूर्व के ज्ञान को, उसके इतिहास और साहित्य को अवैज्ञानिक करार दिया जाता था, एक प्राच्यवादी (ऑरिएन्टलिस्ट) दृष्टि थी, जिसकी अपनी अंतर्निहित समस्याएँ थीं। वैश्विक दक्षिण या तीसरी दुनिया के जीवन पर केवल यूरोपीय नज़रिया ही एकमात्र प्रामाणिक नज़रिया है, इसे समाजशास्त्र ही नहीं, बल्कि ज्ञान के अन्य अनुशासनों में भी अब ख़ारिज किया जाने लगा है। पर एक समाजशास्त्री के रूप में इरावती अपनी इस प्रविधि पर कायम रहीं जहाँ वह वर्तमान समाज को समझने के लिए साहित्य और इतिहास को आधार बनाती थीं—एक ऐसी प्रविधि जिसका चलन नृतत्त्वशास्त्र और समाजशास्त्र में 1980 के बाद शुरू हुआ। यह भी इरु के विलक्षण जीवन की ही एक बानगी है कि अपने समाजों को एक तटस्थ वस्तुपरकता से देखने के बजाय उसे एक आत्मनिष्ठ अंतर्दृष्टि से देखने के उनके जिस नज़रिये को उनके अपने समय में औपनिवेशिक वर्चस्ववादी नज़रिये और ड्यूमॉन्ट जैसे यूरोपीय विद्वानों ने नकारा था, वह ही आगे चलकर एक प्रमुख समाजशास्त्रीय प्रविधि बना। आज इरावती के इतने सालों बाद जब दुनिया भर के समाजशास्त्री अपने समय और समाज को समझने के लिए ऐतिहासिक और साहित्यिक स्रोतों की तरफ़ मुड़ते हैं तो इरावती की अपनी उसी किताब के दूसरे संस्करण की भूमिका की वे पंक्तियाँ उल्लेखनीय हो उठती हैं, जहाँ वे औसत ग़ैर-भारतीय नृतत्त्वशास्त्रियों (विशेषकर यूरोपीय विद्वानों) को संबोधित करते हुए लिखती हैं:
‘To them (average non-Indian anthropologists) Indian literary traditions appears as a useless, nostalgic dipping into a vanished past. I assure him that the past lives with us even today vividly, obstinately and sometimes obtrusively and must be known by everyone interested in the present.
बहरहाल, युगांत जिसे इरावती अपने वैज्ञानिक शोध की तरह नहीं मानती थी, उसके प्रकाशन ने भारतीय अकादमिक परंपरा में महाभारत की मार्क्सवादी, स्त्रीवादी और दलित व्याख्या का नया चलन शुरू किया।
इरावती की समाजशास्त्रीय दृष्टि इसीलिए भी बहुआयामी या सूक्ष्म (nuanced) थी कि वह न केवल अपने आस-पास, हाट-बाज़ार, सड़क-सफ़र, शहर-गाँव में अपरिचितों से, लोगों से अपना संबंध जोड़ कर उनसे संवाद करती थीं, बल्कि जैसा कि जीवनीकार कहते हैं, उनकी यह अंतर्मुखी दृष्टि और दूसरों की पीड़ा से तादात्म्य स्थापित कर लेने की संवेदनशीलता ही उनके निबंधों में अभिव्यक्त सामाजिक-सांस्कृतिक भाव-बोध का कारण थी। इरावती के समाजशास्त्रीय अध्ययन ने सिर्फ़ शोध ग्रंथों और किताबों तक अपने आप को सीमित नहीं रखा, बल्कि सरकार की नीतियों को भी स्त्रियों और हाशिये पर रह रही जनता के पक्ष में प्रभावित करने का ऐतिहासिक काम किया। अपने एक बेहद महत्त्वपूर्ण निबंध ‘Indian Woman’ (1975) में उन्होंने अपनी तरह का एक नवीन अध्ययन किया जहाँ पर स्त्रियों की शिक्षा और रोज़गार के सामाजिक ट्रेंड्स (चलन) का विश्लेषण किया गया। महिला-केंद्रित नीति निर्माण के लिए प्रस्तावित सकारात्मक सुझावों के साथ ही इस अध्ययन ने भारतीय जनक्षेत्र में यह मुद्दा सबसे पहली बार उठाया कि कैसे देश में स्त्रियों की संख्या घट रही है, पर आदिवासी-जनजातीय समाजों में स्त्री-पुरुष लिंगानुपात स्त्रियों की तरफ़ झुका है। इरावती के विश्लेषण के अनुसार इस चलन का कारण यह है कि इन आदिवासी समाजों में स्त्रियों के पास अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता या चयन के विकल्प मौजूद हैं, इसीलिए यहाँ स्त्रियों की संख्या भी अधिक है। स्त्रियों की सामाजिक स्वतंत्रता और लिंगानुपात में स्त्रियों के पिछड़ने के अन्तःसंबंध ने कल्याणकारी राज्य की आगे की नीतियों के लिए एक ब्लूप्रिंट का काम किया। इस शोध में अंततः इरावती ने सामाजिक न्याय और संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण को वह कुंजी माना है जिससे समाज के उन पिछड़े-दमित वर्गों का हित संभव होगा। इसी प्रकार कोयना नदी परियोजना से विस्थापित हुए लोगों के अध्ययन पर आधारित एक शोध में उन्होंने यह पाया कि कैसे जो पिछली पीढ़ी के लोग हैं, वे इस प्रकार के विस्थापन से अधिक भयाक्रांत और बेचैन हैं। पर नयी पीढ़ी इसे एक अवसर की तरह देख रही थी जिसे भरपाई के तौर पर एकबारगी इतने पैसे मिल गये थे कि उसका उपयोग उन्होंने शराब, गाँजा और जुए जैसे व्यसनों में किया। परियोजना के इस समाजशास्त्रीय अध्ययन का एक बड़ा विश्लेषण यह था कि कैसे विस्थापन के बाद जो नये गाँव बसाये गये, वे भी पुराने सामाजिक ढाँचों पर ही बसाये गये। जाति और सामाजिक पदानुक्रम की वही पुरानी भेदकारी श्रेणियाँ इन नये गाँवों में भी अपनी जड़ें जमा बैठीं। इरावती कर्वे द्वारा किया गया A survey of the people displaced through the Koyna Dam (1969) पहला ऐसा अध्ययन था जो किसी विकास परियोजना के फलस्वरूप हुए विस्थापन के प्रभाव को समझने के लिए भारत में हुआ था।
नृतत्त्वशास्त्रीय प्रविधि, Anthropometry, जिसमें मानव-शरीर की बनावट और नाप के आधार पर नस्लीय या जैविक विकास में उनके स्थान को ट्रेस किया जाता था, वस्तुतः भेदकारी और अवैज्ञानिक प्रविधि थी। इस भौतिक प्रविधि के नकारात्मक पक्ष को जब हम जर्मनी के उग्र राष्ट्रवाद के उभार के साथ जोड़ कर देखते हैं तो इस प्रकार की नस्लीय समाजशास्त्रीय अवधारणा के भीषण दुष्परिणाम भी देख पाते हैं जो नाज़ी जर्मनी के रूप में पूरे विश्व के सामने आते हैं- जिसने नस्लीय शुद्धता के अपने दुराग्रह के कारण एक बड़ी जनसंख्या का पूर्ण ख़ात्मा ही कर दिया। पर इरावती इस ज्ञान परंपरा में ही दीक्षित थीं और इसीलिए वापस आने पर उन्होंने अपने समाजशास्त्रीय शोध के तहत भारतीय समाजों की नस्लीय, जातीय, सामुदायिक विविधताओं का अध्ययन उनकी शारीरिक संरचना, रक्त समूहों की जाँच इत्यादि के आधार पर किया। आगे चल कर इस प्रविधि की अपनी अलग समस्याएँ भी उपजती हैं, विशेषकर एक ऐसे सामाजिक संदर्भ में जो पहले से ही जाति और वर्ग के स्तर पर इतने गहरे में विभाजित था। सामुदायिक-पारिवारिक संबंधों के पैटर्न की तुलना करते हुए और इसके साथ ही मानव-समूहों की भौतिक संरचना में परिवर्तन और रक्त समूहों की तुलना के आधार पर वे भाषाओं और जातीय समूहों की विविधता को समझने की कोशिश करती हैं। उनका अध्ययन उन सूत्रों को ढूँढ़ता है जिनसे यह स्थापित किया जा सके कि एक जातीय-भाषिक समूह के दूसरे समूहों से क्या संबंध हैं या उनका वर्तमान स्वरूप किस प्रकार स्थिर हुआ या प्राचीन समय से वे कितने परिवर्तित हुए हैं। हालाँकि इस प्रकार के अध्ययन के अपने अंतर्निहित ख़तरे भी थे और दूरगामी राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रभाव भी। भाषा के आधार पर राज्यों के बँटवारे और नवनिर्माण के निर्णयों को इस प्रकार के अध्ययन ने बहुत हद तक प्रभावित किया। मसलन, महाराष्ट्र के राज्य के रूप में राजनीतिक स्वरूप लेने से पहले ही इरावती के शोध ने महाराष्ट्र की एक काल्पनिक रूप-रेखा उन क्षेत्रों के अध्ययन से तैयार कर दी थी जहाँ मराठी बोली जाती थी। इन इलाक़ों के निवासियों—चाहे वे ब्राहमण हों, आदिवासी हों, तटीय इलाक़ों के हों या अंदरूनी भागों के—उन सबके शारीरिक गठन-संरचना और अन्य कारकों को ध्यान में रखते हुए उन्हें एक मराठी अस्मिता या पहचान के भीतर समूहीकृत किया गया था। महाराष्ट्र क्षेत्र के इस नृतत्त्वशास्त्रीय अध्ययन ने इस मत का समर्थन किया कि बॉम्बे प्रेज़िडेन्सी के मराठी भाषी क्षेत्रों को गुजराती भाषी इलाक़ों से अलग कर देना चाहिए, जिसका ही प्रतिफलन हम 1960 में देखते हैं जब एक लंबे राजनीतिक संघर्ष के बाद महाराष्ट्र का गठन किया गया था।
जीवनी के चौथे खंड में सिर्फ़ दो अध्याय हैं जहाँ उनके अकादमिक लेखों और उनके पीछे छिपी वैचारिकता का नज़दीकी से विश्लेषण किया गया है। जीवनीकार यह दिखला पाने में सक्षम हुए हैं कि कैसे एक व्यक्ति के रूप में इरावती के मानवीय होने के ही प्रमाण थे कि वे समय के साथ, समाज और देश में होने वाले परिवर्तनों के बर-अक्स अपने विचारों में भी संशोधन, दृष्टि का परिमार्जन करती रहीं। इस अर्थ में इस जीवनी को एक व्यक्ति के अपने मतों, पूर्वाग्रहों में समय के साथ होने वाले परिवर्तनों के रूप में भी ग्रहण किया जाना चाहिए। अंतिम अध्याय ब्राह्मण (ब्रह्म) में इरावती के आंतरिक दार्शनिक पक्ष को उनकी विचार सरणियों के माध्यम से समझाया गया है। एक समाजशास्त्री जिसने मानवीय समाजों के न जाने कितने रूपों का अध्ययन किया था, अंततः समस्त मानव जाति-चराचर जगत को उस एक परम सत्ता, पूर्ण स्वरूप ब्रह्म का ही एक अंश मानती हैं और अंततः उससे ही एकमेव होने की बात करती हैं। आत्म का परमात्म ब्रह्म से मिलन ही अंततः इस सृष्टि के प्राणी मात्र की एकता का सूत्र-सार है, ऐसा मानना हिन्दू उपनिषदों में इरावती की आस्था का प्रमाण था। यह सब हमें इरावती के साधनात्मक-दार्शनिक पक्ष की झलक दिखलाता है, जिससे उनका बाह्य जीवन संबल पाता रहा। यह भी देखा जाये तो एक विलक्षण व्यक्तित्व की ही बानगियाँ हैं। एक पत्नी के रूप में पारंपरिक विवाहित स्त्री के लिए निर्धारित सभी चिह्नों को सिरे से नकारने वाली इरावती, एक चर्चित नास्तिक पति और परिवार से सम्बद्ध इरावती, क्यों पंढारपुर के विठोबा पर अपनी भक्ति न्योछावर करती थीं? इतना ही नहीं बल्कि जीवनी में एक ऐसा क्षण भी आता है जब पंढारपुर की एक यात्रा के दौरान इरु की आस्था उस चरम तक पहुँची होती है जहाँ स्वयं श्रद्धालुओं की भीड़ में विट्ठल उन्हें दिखलायी पड़ते हैं। इन सबके उत्तर तो मानवीय मन की विचित्रताओं में ही समाहित हो सकते हैं।
ऐसी अनेकानेक विलक्षणताओं से निर्मित इरावती का व्यक्तित्व वस्तुतः एक जानने योग्य व्यक्तित्व बन कर इस जीवनी में उभरता है। इस अर्थ में इरावती एक ऐसे विचारक के रूप में हमारे सामने आती हैं, जिन्होंने एक लीक पकड़ कर चलने की अपेक्षा अपनी ही मान्यताओं को, पूर्वाग्रहों को स्वयं प्रश्न की दृष्टि से देखा, उसमें संशोधन किये और अपने देखने को, सोचने को और उदार और समावेशी बनाया। हिन्दू धर्म के प्रतीक चिह्नों और बाह्याचारों को ना मानकर भी इरावती अंततः स्वयं को हिन्दू ही मानती थी तो केवल इसलिए नहीं कि उसी धर्म में उनका जन्म हुआ था, बल्कि इसीलिए कि वह हिन्दू महाकाव्यों, पुराणों, वेदों-उपनिषदों आदि से धर्म, कर्म, जन्म-पुनर्जन्म, अद्वैत, ब्रह्म-जीव इत्यादि के विचार ग्रहण करती थीं। पर इसका अर्थ यह निश्चित नहीं था कि प्राचीन हिन्दू धर्म, जो उपनिषदों की वैज्ञानिक सोच पर आधारित था, अपने वर्तमान स्वरूप में कितना सँकरा और धर्मांधता से ऊभ-चुभ कर रहा है, इसकी उन्हें ख़बर न थी। इसीलिए इरावती की दृष्टि प्राचीन स्रोतों की ओर जाते हुए भी एक समाजशास्त्रीय आलोचकीयता से भरी थी। इसीलिए इरावती के जीवनीकार उन्हें महाभारत काल के हिन्दू की तरह देखते हैं जो अपने धर्म, अपने स्वप्न और अपने जीवन की आकांक्षाओं की पूर्ति करने का संघर्ष करता था। वह, जो धर्म के साधनात्मक स्वरूप को जीवन में धारण करने का पक्षधर था और अपने हिन्दू होने पर इतना आश्वस्त था कि जर्मनी में गौ-माँस सिर्फ़ घोर आवश्यकता के कारण नहीं बल्कि इसीलिए भी खा सकता था कि वह हिन्दू धर्म के लिए कोई इतना बड़ा पाप नहीं था।
1970 में इरावती का निधन होता है। देखा जाए तो पचास साल बाद का यह समय, जब हम न केवल एक नयी सहस्त्राब्दी में बल्कि एक नयी सामाजिक पारिस्थितिकी में प्रवेश कर चुके हैं, इरावती कर्वे को देखने का वह वैन्टिज पॉइंट हमें देता है जहाँ से हम उन्हें उनके युग के सापेक्ष ही नहीं बल्कि अपने वर्तमान के बर-अक्स भी रख कर देख सकते हैं। यह देखना संभवतः हमें उन्हें न केवल पहली महिला नृतत्त्वशास्त्री होने की चुनौतियों से परिचित करवायेगा, बल्कि उनकी प्रविधियों पर प्रश्न उठाते हुए भी कुछ बड़े दूरगामी प्रभाव डालने वाले उनके शोधों के प्रति हमें उत्सुक करेगा। बाद में आने वाले लोगों के लिए रास्ता आसान न भी सही पर अनचीन्हा-अनजाना नहीं रह जाता, पर जिन्होंने सबसे पहले-पहल चढ़ाई शुरू की थी, उन्हें उन बीहड़ रास्तों पर चलते हुए इसका अंदाज़ा भी नहीं होता कि जो राह पकड़ी है उससे शिखर पहुँच भी सकेंगे या नहीं, और अगर पहुँच भी गये तो वहाँ से दिखने वाला दृश्य उनके श्रम के सापेक्ष होगा भी या नहीं। इरु की ज़िंदगी वस्तुतः विलक्षण, सच ही उल्लेखनीय थी। और उसे सिर्फ़ समाजशास्त्र और नृतत्त्वशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए सीमित कर देने से जो सामाजिक विस्मृति ऐसे व्यक्तित्व के साथ घटती आयी है, यह जीवनी उसका ही प्रतिपक्ष है। अगर इरावती महाकाव्यों और प्राचीन साहित्य को जानना हर किसी के लिए अनिवार्य मानती थीं तो इरु और उनके विलक्षण जीवन को भी जानना हर किसी के लिए अनिवार्य होना चाहिए।
aditi.bhardwaj13@gmail.com
समीक्षित पुस्तक : Iru: The remarkable life of Irawati Karve – Urmila Deshpande and Thiago Pinto Barbosa; Speaking Tiger Publication, 2024
ग़ज़ब की जीवनी!
बाकमाल समीक्षा।
अदिति भारद्वाज को धन्यवाद।
इरावती कर्वे से मुख़ातिब कराने के लिए शुक्रिया अदिति l
Gajab ki jivani hai mere liye maine apni life Mai. Aisa kabhi nahi padha