हिंदू बहुसंख्यकवाद के ख़तरों और चुनौतियों की शिनाख्त़ करती एक ज़रूरी किताब / संजीव कुमार


अपनी किताब के आमुख में परकाला प्रभाकर कहते हैं, ‘निकट भविष्य में एक चुनावी जीत ज़ाहिर तौर पर गणराज्य को इस संकट से उभरने में मदद देगी, जो किसी और तरीक़े से संभव नहीं। मेरे लिए, लेकिन वृहत्तर चुनौती यह है : हमारे समाज के एक तुलनात्मक तौर पर बड़े, मुखर और प्रभावी समूह के दिमाग़ से यह ज़हरीला और बेबुनियाद विचार निकाला जाये कि भारत केवल एक धर्म के लोगों का है और दूसरों को दोयम दर्जे के नागरिक बनकर संतोष करना चाहिए।’ 

पढ़िए,आम चुनावों के छठे चरण की पूर्वसन्ध्या पर इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक की समीक्षा :

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ज्यादा दिन नहीं हुए, द स्क्रॉल में एक दिलचस्प लेख पढ़ा था—Civil Society Emerges as Quiet but Formidable Challenger to Modi Govt in the 2024 Elections. लेख की मुख्य स्थापना यह थी कि भाजपा अगर इस चुनाव में हारती है तो यह मुख्यतः नागरिक समाज की कोशिशों की वजह से होगा और विपक्ष के राजनीतिक दल उसके आकस्मिक लाभार्थी होंगे। 4 जून के बाद इसी नागरिक समाज को लोकतंत्र की हिफ़ाज़त के लिए अपनी कमर कसनी पड़ सकती है, क्योंकि पूरी आशंका है कि अगर भाजपा की हार हुई तो वह दफ़्तर ख़ाली करने से इनकार कर दे। इसका कारण यह कि केंद्र सरकार के उन दफ़्तरों में उसके 10 साल के काले कारनामों के सारे रहस्य और सबूत दफ़न हैं जिन्हें अगले शासन द्वारा खोद कर निकाला जाना उन्हें काफ़ी महंगा पड़ सकता है। यही वजह है कि वे किसी भी क़ीमत पर चुनाव हारने को तैयार नहीं है और इसकी खातिर छल-प्रपंच, गुंडागर्दी, भयादोहन से लेकर प्रशासनिक तंत्र के चरम दुरुपयोग तक, कोई चीज़ बाक़ी नहीं रहने दी गयी है।

यह लेख परकाला प्रभाकर का था, जिनके लेखन से इसी लेख के ज़रिये मेरा पहला विधिवत परिचय हुआ था। इससे पहले मुझे मोटे तौर पर इतना पता था कि वे भाजपा सरकार से मुखर असहमति रखनेवाले ऐसे राजनीतिक अर्थशास्त्री हैं जिनकी पत्नी उसी सरकार में वित्तमंत्री हैं, यानी निर्मला सीतारमण।

उन्हीं परकाला प्रभाकर की किताब The Crooked Timber of New India का हिंदी अनुवाद, नये भारत की दीमक लगी शहतीरें हिंदी के लिए एक सौगात की तरह आया है। यह 2020 से 2022 के उत्तरार्द्ध तक लिखे गये लेखों का संकलन है जिन्हें मार्च 2023 में पुस्तकाकार प्रकाशन (अंग्रेजी) के समय, प्रथम प्रकाशन के बाद की घटनाओं और आंकड़ों की रौशनी में, थोड़ा संपादित या अद्यतन किया गया था। ज़ाहिर है, हिंदी में इसके आते-आते एक साल का समय और बीत गया है, इसलिए यह अद्यतनीकरण भी साल भर पुराना है, इसके बावजूद किताब के विश्लेषण और नतीजों की प्रासंगिकता में कोई कमी नहीं आयी है। हिंदी के लिए इसे सौगात कहने का कारण यह कि हमारी भाषा में साहित्य तो प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहा है, उसके द्वारा हमारे समय के यथार्थ को प्रस्तुत करने के दावे भी काफ़ी बड़े हैं (और कई मामलों में बहुत ग़लत भी नहीं हैं), लेकिन यथार्थ को समझने की वह पद्धति जो ठोस तथ्यों, आंकड़ों और उनके समाजवैज्ञानिक विश्लेषण के सहारे चलती है, हिंदी लेखन में बहुत क्षीणकाय है। ऐसे में प्रभाकर की किताब हमारे समय की तस्वीर के कुछ धुंधले रहे आये हिस्सों को ही स्पष्ट और रेखांकित नहीं करती, उन्हें रेखांकित करने की एक पद्धति भी हमें सौंपती है।

इन लेखों की विषय-वस्तु का दायरा बहुत बड़ा है—वे भारत की आर्थिक-सामाजिक बदहाली से लेकर प्रधानमंत्री के झूठे दावों और उनके छवि-निर्माण की कोशिशों तक, कृषि क़ानूनों से लेकर डिजिटल स्वतंत्रता और डेटा की निजता तक, आरएसएस की कार्य-पद्धति और ज़हरीली विचारधारा से लेकर विश्वविद्यालयों और विचारों की आज़ादी पर जारी हमलों तक, भांति-भांति के विषयों पर लिखे गये हैं—लेकिन इनमें गहरी विषय-वस्तुगत एकता भी है। वह यह कि ये लेख 2014 के बाद उभरे बहुसंख्यकवादी राज्य की चुनौतियों और ख़तरों के बारे में हैं। इन लेखों के साझा बिंदु के बारे में लेखक स्वयं आमुख में कहते हैं: ‘वह बिंदु है—भारत का वह विनाशकारी झुकाव जो बेहद कम धर्मनिरपेक्ष, कम उदारवादी, कम बहुलतावादी, कम प्रजातान्त्रिक राज्य बनाने पर आमादा है। यह प्रक्रिया तब अपरिवर्तनीय गति को प्राप्त होती दिखती है, जब से भाजपा की नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली सरकार 2014 में आयी है।’ (अमित शाह 2014 में सांसद या मंत्री नहीं थे, पर भाजपा-अध्यक्ष और एनडीए-संयोजक अवश्य थे, लेखक का आशय शायद इसी से है।)

दो से कुछ ज़्यादा वर्षों की अवधि में लिखे गये ये लेख इसी विनाशकारी रुझान के मुख्तलिफ़ पहलुओं को, और साथ ही साथ उसकी जड़ों को भी, समझने की कोशिश के रूप में हैं। प्रभाकर का मानना है कि हिंदू बहुसंख्यकवाद का आख्यान एक लंबी प्रक्रिया से गुज़र कर इतना प्रभावी हुआ है। तार्किक रूप से देखें तो इस आख्यान के प्रभावी होने का सबसे मुफ़ीद समय आज़ादी मिलने के तुरंत बाद का था जब विभाजन के साथ बहुत बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा हुई थी, और हिंदू राष्ट्र की बात करनेवाले श्यामा प्रसाद मुकर्जी, बलराज मधोक, करपात्री महाराज, गुरु गोलवलकर जैसे लोगों का क़द और प्रभाव भी आज की भाजपा और संघ के नेताओं से बड़ा था। लेकिन आज़ादी के बाद के चार दशकों तक कांग्रेस भारतीय राजनीति में प्रभावी भूमिका में रही। इसके बाद ग़ैर-कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष समूहों का प्रभाव रहा। राजनीतिक अस्पृश्यता का रोना रोती भाजपा के सामने भी अपना कोई गुप्त एजेंडा न होने की दलील पेश करने और हिंदू बहुसंख्यकवाद को अपना मुख्य विचार न मानने की विवशता थी। वाजपेयीनीत राजग सरकार ने हिंदुत्व के आख्यान को ऐसे नरम और उदार आवरण में पेश किया कि लगने लगा कि ‘भाजपा ने खुद को “राइट ऑफ़ सेंटर” वाले दल में तब्दील कर लिया है और वह बहुलतावादी भारत के खिलाफ़ नहीं है’। इस रुख को छोड़ना और बहुसंख्यकवादी विचार को खुले और आक्रामक तौर पर अपनाना धीरे-धीरे शुरू हुआ। 2014 के चुनाव प्रचार और उसी साल 15 अगस्त के भाषण तक में नरेंद्र मोदी समावेशी रवैया प्रदर्शित करते रहे। प्रभाकर ने अपने लेख ‘मोदी बनाम मोदी’ में इस पहले स्वाधीनता दिवस संबोधन के बाद से हर साल के संबोधन में आते बदलावों को सिलसिलेवार दिखाया है जहां वे क्रमशः समावेशी मुहावरों से दूर हटते जाते हैं। ज़मीनी स्तर पर इन्हीं सालों में हिंदू बहुसंख्यकवाद का नैरेटिव व्यापक होता जाता है और स्थिति यह हो जाती है कि

‘वर्तमान भाजपा का बहुसंख्यकवाद, सब कुछ को ढक लेनेवाला हिंदुत्ववादी दुराग्रह और ‘2014 से पहले कुछ भी ढंग का नहीं हुआ’ का नैरेटिव मध्यवर्ग के प्रभावी और वाचाल स्वरों में—नौकरीशुदा पेशेवरों, मीडिया मुग़लों, समाचार वाचकों, स्तंभकारों, सरकारी अधिकारियों, उद्यमियों और बहुराष्ट्रीय निगमों के अधिकारियों—की आवाज़ से और ज़्यादा गूंजता है। वे संघ और भाजपा द्वारा गांधी और नेहरू जैसे नेताओं का अपमान करने में सुर मिलाते हैं, गांधी के हत्यारे गोडसे का उत्सव मनाते हैं, और हिंदुत्व के विवादास्पद पुरोधा सावरकर को पूजते हैं और सरदार पटेल और सुभाष बोस जैसे महान ऐतिहासिक व्यक्तित्वों की विरासत को पहले भ्रष्ट करते और फिर अपनाते हैं। ये लोग मोदी सरकार की असफलता पर चुप रहते हैं—लगातार बढ़ती महंगाई, रुपये की लगातार गिरावट, ग्रामीण बदहाली, औद्योगिक उत्पादन में ख़तरनाक गिरावट, बढ़ती बेरोज़गारी, कोविड की मौतें, 2020 के आकस्मिक और अनियोजित लॉकडाउन के प्रवासी मज़दूरों पर क्रूर प्रभाव, नोटबंदी के दौरान आम आदमी की कठिनाइयों, किसानों की आय दुगुनी करने के असफल वादे, भीड़ द्वारा हत्याएं (मॉब लिंचिंग), सड़कों पर घूमते गुंडे, महिलाओं और दलितों पर हो रहे अत्याचारों, दोषी बलात्कारियों की रिहाई क्योंकि वे हिंदू हैं, सरकार या प्रधानमंत्री पर सवाल उठानेवाले नागरिकों पर राजद्रोह थोपने… इत्यादि की एक लंबी सूची है, जिस पर वे मौन रहते हैं।’

बहुसंख्यकवादी नैरेटिव का ऐसा वर्चस्व, प्रभाकर के अनुसार, आरएसएस के अनुशासित और निष्ठावान कार्यकर्ताओं की वजह से बना है जिन्होंने तात्कालिक राजनीतिक या चुनावी लाभ की लालसा किये बग़ैर लंबे समय तक ज़मीनी काम किया है, और संघ ने आज भी उसमें कोई कमी नहीं आने दी है, बल्कि ‘वह पहले से अधिक अनुशासन और संकल्प और अकूत संसाधनों के साथ काम में जुटी हुई है…’। ऐसे में बहुलतावादी, उदार और लोकतांत्रिक भारत की संकल्पना में यक़ीन करनेवालों को यह समझना चाहिए कि इस हिंदू बहुसंख्यकवादी विचार को महज़ चुनावी जीत के भरोसे अपदस्थ नहीं किया जा सकता।

‘उन्हें दीर्घकालीन ठोस राजनीतिक काम करना होगा ताकि देश की राजनीतिक आबोहवा से सांप्रदायिकता के गंदे दानव को व्यवस्थित तौर पर हटाया जा सके। उस तरह के गंभीर विचारधारात्मक काम के बिना भाजपा के ख़िलाफ़ चुनावी जीत मुश्किल लगती है। अगर चुनावी जीत ग़लती से हो भी जाती है तो यह उतनी ही अनिश्चित और हवा-हवाई होगी, जब तक सांप्रदायिक और बहुसंख्यकवादी आख्यान हमारे समाज से अपना बल और प्रभाव खो न दें। ग़ैर-भाजपाई राजनीतिक वर्ग की इसी असफलता के कारण हमारा देश आज इस स्थिति में है।’

आप कह सकते हैं कि 2022 में प्रभाकर जो कह रहे थे, उसका स्वर उनके 9 मई 2024 के स्क्रॉल वाले लेख से इस मामले में बहुत अलग या शायद विपरीत है कि यहां वे 2024 की चुनावी हार के बाद भाजपा-आरएसएस को वैसा ही झटका लगने की बात करते हैं जैसा गांधी की हत्या के बाद लगा था।  स्क्रॉल वाले उक्त लेख में वे लिखते हैं: जांच से ‘जो बातें सामने आ सकती हैं, उनमें उन्हें इस हद तक बदनाम करने की संभावना है कि निकट भविष्य में सरकार बनाने की गंभीर दावेदारी के लायक़ सम्मान हासिल करने में उन्हें दशकों लग जायेंगे। मोदी-शाह की ज़्यादतियों का रहस्योद्घाटन हिंदुत्व की ताक़तों को जो नुक़सान पहुंचायेगा, वह महात्मा गांधी की हत्या के बाद उन्हें मिले धक्के के बराबर होगा।’ अगर यह स्वर 2022 में लिखे गये उन लेखों में नहीं है जो समीक्ष्य पुस्तक में संकलित हैं, तो संभवतः इसलिए कि बदली हुई सरकार द्वारा भाजपा के घोटालों की जांच वाली बात पर विचार कर पाने का उस समय कोई कारण नहीं था।

बहरहाल, स्वर के इस अंतर के बावजूद प्रभाकर की दोनों बातों में सच्चाई के अंश हैं। आप अगर यह मान भी लें कि सरकार बदलने पर क़ायदे से जांच हुई तो भाजपा-आरएसएस को ज़बरदस्त झटका लगेगा, तब भी हिंदू बहुसंख्यकवाद का जो विषवृक्ष आरएसएस के अनवरत ज़मीनी कामों के बल पर गहरी जड़ें जमा चुका है, उसका सामना करने के कार्यभार की अनदेखी तो नहीं की जा सकती! इस मामले में चुनावी पूर्वसंध्या पर लिखे गये लेख के बलाघात के बावजूद समीक्ष्य पुस्तक में प्रभाकर का यह कहना अपनी जगह दुरुस्त है कि ‘यह आसान काम नहीं है, बल्कि ऐसी राजनीतिक संलग्नता है जिसकी अनदेखी करना निरर्थक होगा। बिना इस तरह की मुठभेड़ के, गहरी और दीर्घकालीन संलग्नता के, चुनावी जीत अगर कोई हो भी गई तो वह अधूरी, कमज़ोर और अल्पजीवी होगी।’

परकाला प्रभाकर की ख़ासियत है आंकड़ों पर उनकी पकड़। वे अर्थशास्त्री और डेटा साइंटिस्ट हैं। सरकारी आंकड़ों और दावों के खेल को वे खूब समझते हैं और उसे आसान भाषा में समझाने का हुनर भी रखते हैं। एक उदाहरण देखें। 2021 के स्वतंत्रता दिवस के भाषण में नरेंद्र मोदी ने देश के हरेक गांव में बिजली पहुंचनाने का श्रेय लिया और उसे इस तरह से पेश किया गया जैसे 70 सालों से यह काम नहीं हो पाया था, अब जाकर हुआ है। प्रभाकर लिखते हैं: ‘सच यह है कि मोदी सरकार का काम बहुत आसान था—जिस वक़्त मोदी प्रधानमंत्री बने, भारत के 6 लाख गांवों में से बस 18,500 गांवों तक ही बिजली नहीं पहुंची थी, इसका अर्थ हुआ कि 97 फ़ीसदी गांवों में पहले ही बिजली पहुंच चुकी थी। यह कुछ वैसा ही मामला था कि 10 हज़ार किलोमीटर की रिले-रेस में आख़िरी 100 मीटर दौड़नेवाला धावक पूरे मैराथन का श्रेय खुद को दे डाले।’

एक और उदाहरण आरएसएस-भाजपा की जनसंख्या-नीति के विश्लेषण में देखा जा सकता है जहां वे मोदी के 2019 के स्वतंत्रता दिवस भाषण और मोहन भागवत के 2021 के विजयादशमी व्याख्यान में बढ़ती जनसंख्या को लेकर व्यक्त की गयी चिंता की चर्चा करते हैं। यह दो अलग-अलग लेखों में है। प्रभाकर बताते हैं कि जब देश का टीएफआर घटता हुआ 2.179 हो गया है, जो कि प्रतिस्थापन स्तर यानी 2.1 से थोड़ा ही ऊपर है, तो जनसंख्या विस्फोट की चिंता करने का कोई आधार ही नहीं है। ‘टीएफआर किसी भी महिला द्वारा अपने उर्वर आयु के दौरान पैदा किये गये बच्चों की औसत संख्या है’ और प्रतिस्थापन स्तर वह स्तर है जिसके बाद आबादी बढ़ती नहीं, एक ही जगह स्थिर रहती है क्योंकि वाल्दैन बच्चों से प्रतिस्थापित होते रहते हैं। अगर टीएफआर 2 से नीचे आ जाये तो जनसंख्या सिकुड़ने लगती है जिसके अनेक दुष्परिणाम हो सकते हैं। इसलिए उसका 2.1 पर होना आदर्श स्थिति है। तो जब भारत आदर्श स्थिति के बिल्कुल क़रीब है और अनेक कारकों के प्रभाव से पिछले लगभग 70 सालों में 5.9 से घटकर आदर्श स्थिति तक पहुंचा है, तब प्रधानमंत्री और आरएसएस प्रमुख को इसकी चिंता क्यों करनी पड़ रही है? प्रभाकर इसका उत्तर देते हैं—वे जनसंख्या वृद्धि से चिंतित नहीं हैं, वे इशारों में आबादी के भीतर मुस्लिम अनुपात के बढ़ने की बात कर रहे हैं जो कि फिर एक झूठ है। असम, उत्तर प्रदेश, बिहार—इन सभी जगहों के मुख्यमंत्रियों या अन्य भाजपा नेताओं ने खुले आम यह चिंता ज़ाहिर की है और प्रभाकर अपने लेखों में बहुत क़ायदे से न सिर्फ़ यह दिखा पाते हैं कि ये चिंताएं बेबुनियाद हैं बल्कि यह भी दिखा पाते हैं कि इसका एकमात्र कारण है, ‘हम’ बनाम ‘वे’ की राजनीति।

‘आंकड़े चाहता कौन है, रुझानों की किसे पड़ी है? जो चाहिए, वो है—भय, आशंका, समुदायों के बीच असुरक्षा, यह भाव कि हमारी ग़रीबी “उनकी” वजह से है, “हमारी” बेरोज़गारी उनकी “संख्या” की वजह से है।’

‘ग़रीबी के आंकड़े और आंकड़ों की ग़रीबी’ शीर्षक लेख में आंकड़ों के प्रति इस सरकार की आपराधिक लापरवाही और उनके अक्षम्य दमन की कहानी बयां की गयी है जहां पुराने दौर के भारत की सांख्यिकी और आंकड़ा-संग्रहण की वैश्विक प्रतिष्ठा गिरती हुई आख़िरकार दुनिया-भर के 108 समाजवैज्ञानिकों की इस अपील तक पहुंचती है कि सरकार ‘सार्वजनिक सांख्यिकी तक पहुंच और विश्वसनीयता सुनिश्चित करे’।

अर्थशास्त्री और डेटा साइंटिस्ट होने के साथ प्रभाकर की गहरी दिलचस्पी इतिहास, मीडिया अध्ययन जैसे क्षेत्रों में भी है। इसीलिए सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल के प्रसंग में वे आरएसएस-भाजपा की विरासत-छापामारी की पोल खोल पाते हैं और न्यू इंडिया में न्यू मीडिया की पूरी कार्य-पद्धति का गंभीर विश्लेषण भी कर पाते हैं। जैसा कि पीछे कहा गया, उनका लेखन ऐसे विविध विषय-क्षेत्रों से जुड़ा है, और उन्होंने कहीं भी सतही, तुरंता क़िस्म के विश्लेषण से काम नहीं चलाया है। विषयों की इस विविधता के बीच 2014 के बाद के हालात की आमूल आलोचना एक सूत्र की तरह मौजूद है।

इन लेखों से गुज़रते हुए आपको यह बात थोड़ी खटक सकती है कि भाजपा-आरएसएस की चुनौती के सामने प्रभाकर इस देश के किसी भी राजनीतिक समूह से रत्ती भर उम्मीद रखते नहीं दिखाई पड़ते। उनका मानना है कि ‘वर्षों से कांग्रेस, वाम और दूसरे दलों के पास ऐसा काडर नहीं रहा जो धैर्यपूर्ण तरीक़े से, परिश्रमपूर्वक और लगातार विचारधारात्मक काम शहरों, ज़िलों, पंचायतों तक, हरेक स्तर पर करे। ये दल चुनाव दर चुनाव बस चलते चले जाते हैं, जैसे नींद में हों। बीच के अंतराल में कोई भी केंद्रित, प्रतिबद्ध विचारधारात्मक दृढ़ काम ये लोग नहीं करते हैं।’ क्या ये बातें वाम दलों पर उसी तरह से लागू हो सकती हैं जिस तरह दूसरे दलों पर? कौन मानेगा कि जन-संगठनों के ज़रिये किसानों, मज़दूरों, महिलाओं, युवाओं, विद्यार्थियों, वैज्ञानिकों और लेखकों-संस्कृतिकर्मियों के बीच काम करनेवाले वाम दल ‘चुनाव दर चुनाव बस चलते चले जाते हैं, जैसे नींद में हो’। हो सकता है, उनका काम पहले की तरह प्रभावी न रहा हो (चाहें तो कह लीजिए, पहले जितना भी प्रभावी न रहा हो), पर काम है और सूचना रखनेवालों को इसके प्रमाण बड़ी हड़तालों, प्रतिरोध आंदोलनों, नाटकों, लघु पत्रिकाओं के प्रकाशनों इत्यादि में मिलते रहते हैं जिन्हें किसी भी तरह से ‘चुनावी काम’ नहीं कहा जा सकता। खुद प्रभाकर ने सीएए विरोधी आंदोलन के प्रसंग में लिखा है कि ‘… वाम दलों को छोड़कर, मुख्यधारा का कोई भी दल सड़कों पर उतरकर सरकार द्वारा भारतीय संविधान के खिलाफ़ किये गये इस नंगे हमले के खिलाफ़ नहीं बोला…’। यही बात किसान आंदोलन के बारे में भी कही जा सकती थी, धारा 370 के उन्मूलन और कश्मीर में हुई ज़्यादतियों के खिलाफ़ उठी आवाज़ों के बारे में भी कही जा सकती थी, चुनावी बॉण्ड स्कीम को दी गयी चुनौती के बारे में भी कही जा सकती थी। लेकिन प्रभाकर को किसी भी प्रसंग में इनकी याद नहीं आयी है। उनका मुख्य ज़ोर वाम दलों समेत सभी दलों के नाकारेपन पर रहा है।

बहरहाल, देश के हालात जैसे हैं, उनमें हिंदुत्व के इस आक्रामक उभार के लिए सभी राजनीतिक दलों को समान रूप से कठघरे में खड़ा करना बहुत आश्चर्यजनक नहीं लगना चाहिए। इसे आक्रोश व्यक्त करने के एक तरीक़े की तरह ही समझना उचित होगा।

निस्संदेह, यह हिंदी के पाठकों के लिए अनिवार्यतः पठनीय पुस्तक है।

इस पुस्तक की पठनीयता का संबंध अनुवाद की गुणवत्ता से भी है। जो भी अंश पीछे उद्धृत किये गये हैं, उनसे यह समझा जा सकता है कि ये मूलतः हिंदी में लिखे गये लेख जान पड़ते हैं। इतने उम्दा अनुवाद के लिए व्यालोक पाठक को एक बड़ा शुक्रिया कहना बनता है। लगभग ढाई सौ पृष्ठों की इस किताब में आपको शायद ही कोई वाक्य ऐसा मिले जो अंग्रेजी की वाक्य-रचना को अटपटे तरीक़े से हिंदी में लाने का उदाहरण हो।

(नये भारत की दीमक लगी शहतीरें, परकाला प्रभाकर, अनुवाद : व्यालोक पाठक, राजकमल पेपरबैक्स, 2024, क़ीमत : रु. 399, पृष्ठ : 248.)

Sanjusanjeev67@gmail.com

 

 


3 thoughts on “हिंदू बहुसंख्यकवाद के ख़तरों और चुनौतियों की शिनाख्त़ करती एक ज़रूरी किताब / संजीव कुमार”

  1. बेहतरीन समीक्षा के लिए समीक्षक को साधुवाद। पढ़कर ऐसा लगा कि यह किताब हिंदी के लिए सचमुच सौगात की तरह है।

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  2. Though I have gone through its English version already but your appreciation for Hindi version entices again to read it ,,,the corporate communal regime has come across a new phase after 10 years of ruling,,, electoral setback of the ruling alliance might be a turning point as most of us hope ,,,but even after the electoral defeat the defeat of majotorianism as an idealogy would be essential in the years to come .

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  3. बेहतरीन ।
    वाम आन्दोलनों की कोशिश को नकारना आम बात हो गयी है। इससे खीज न उठने की सलाह दे कर रखना , ग्रेट।
    धन्यवाद।
    किताब लेने की कोशिश में।
    राम शर्मा

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