इस वकील की अभी सख्त़ ज़रूरत है / संजय जोशी


2007 की ‘एडवोकेट’ पर, दस्तावेज़ी फ़िल्मों के बारे में अपनी जानकारी को अद्यतन रखनेवाले संजय जोशी की टिप्पणी: 

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दक्षिण भारत की मशहूर दस्तावेज़ी फ़िल्मकार दीपा धनराज ने दक्षिण के ही एक दूसरे मशहूर आदमी पर साल 2007 में दो घंटे की फ़िल्म बनायी और उसके तीन साल बाद ही वे चल बसे। आज फ़िल्म के निर्माताओं की मेहरबानी से ‘एडवोकेट’ नाम की यह फ़िल्म यू ट्यूब पर उपलब्ध है और इस कठिन समय में इस मशहूर आदमी यानी वकील के. जी. कन्नाबिरन की कहानी से हम कितना कुछ समझ सकते हैं, कितना हौसला बटोर सकते हैं। फ़िल्म के आख़िर में आने वाले क्रेडिट से पता चलता है कि फ़िल्म का निर्माता कोई सरकारी या प्राइवेट एजेंसी नहीं बल्कि कन्नाबिरन का ही समूचा परिवार है। शायद इस वजह से भी कन्नाबिरन जैसे थे, वह पूरी ईमानदारी से हमारे सामने आता है।

यह कन्नाबिरन की कहानी के साथ–साथ आज़ाद भारत में मानवाधिकार आंदोलनों के शुरू होने और उनके संस्थाबद्ध होने की भी कहानी है। ग़ौरतलब है कि के. कन्नाबिरन आंध्र प्रदेश के सफल वकील होने से पहले आंध्र प्रदेश में शुरू हुए मानवाधिकार आंदोलन के अग्रणी नेता थे जिस वजह से उनकी प्रैक्टिस का एक बड़ा हिस्सा इस मुद्दे के लिए समर्पित रहा।

9 नवंबर 1929 को मदुरई में जन्मे के. जी. कन्नाबिरन की पढ़ाई मद्रास (अब चेन्नई) में हुई और उन्होंने अपनी वकालत मद्रास से शुरू की। जल्द ही वे हैदराबाद में बस गये और यहीं वकालत करते हुए नामी वकील बने और फिर मानवधिकार कार्यकर्ता के रूप में मशहूर हुए। वे पीयूसीएल (पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़) और एपीसीएलसी (आंध्र प्रदेश सिविल लिबर्टीज़ कमेटी) के संस्थापक सदस्य थे। वे 1995 से 2009 तक पीयूसीएल के अध्यक्ष भी रहे।

के. जी. कन्नाबिरन पर केंद्रित यह 120 मिनट की पूरी फ़िल्म दस्तावेज़ी सिनेमा की अद्भुत उपलब्धि है। पूरी फ़िल्म कन्नाबिरन से तीन–चार लोकेशन पर लिये गये इंटरव्यू और उनके अलावा नारीवादी कार्यकर्त्ता और उनकी जीवन-संगिनी वसंथ कन्नाबिरन, दूसरे अन्य कानूनविद जैसे कि प्रोफ़ेसर उपेन्द्र बक्षी, मानवाधिकार आंदोलन के उनके सहयोगी डॉ. के. बालगोपाल और माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े संस्कृतिकर्मी कवि वरवर राव और नाट्यकर्मी गद्दर से लिये गये इंटरव्यू पर आधारित है। इन सभी व्यक्तियों से बातचीत के साथ–साथ फ़िल्म में बीच–बीच में कुछ अभिलेखीय सामग्री का इस्तेमाल भी फ़िल्मकार ने किया है। पूरी फ़िल्म बातचीत प्रधान है, दृश्यों या लैंडस्केप का इस्तेमाल तभी होता है जब किसी अभिलेखीय सामग्री का इस्तेमाल साक्ष्य की तरह कन्नाबिरन की बात को और वज़नदार बनाने के लिए फ़िल्मकार को करना होता है। इतनी सारी बातचीत के बाद भी यह फ़िल्म हमारा ध्यान बनाये रखती है क्योंकि एक ख़ास समय पर खुद कन्नाबिरन के परिवार और फ़िल्मकार ने इस दस्तावेज़ीकरण के महत्व को समझा और इसे भविष्य के लिए दर्ज कर लिया।

के. जी. कन्नाबिरन अपने समय के ज़रूरी वकील ही नहीं, बेहद सफल वकील भी थे। उनके सफल होने यानी खूब पैसा कमाने का ज़िक्र बहुत सामान्य ज़िक्र की तरह फ़िल्म में आता है। आम बायोपिक की तरह यह फ़िल्म किसी मशहूर शख्सियत के खूब पैसा कमाने तक सिमटने के बजाय उनके असल योगदान को अच्छे से रेखांकित करती और इस तरह विधा के रूप में भी दस्तावेज़ी फ़िल्म कला को महत्व दिला पाती है।

यूं तो पूरी फ़िल्म की बातचीत को ही ट्रांसक्राइब कर एक पुस्तिका के रूप में वकालत पढ़नेवाले विद्यार्थियों के बीच मुफ़्त वितरित करना चाहिए ताकि उन्हें ठीक से समझ आये कि बड़े वकील होने का मतलब सिर्फ़ बहुत मोटी फीस ही नहीं बल्कि अपने काम से पागलपन की हद तक प्यार करना होता है— ऐसा पागलपन जिसमें एक क्लाइंट से मोटी फ़ीस लेकर अपने सैकड़ों ज़रूरतमंद क्लाइंटों को न सिर्फ़ गुणवत्ता वाली क़ानूनी सलाह देना बल्कि दूर गांव से शहर आने पर कोई ठिकाना न होने पर अपने बड़े बंगले में जगह देना, खाना खिलाना और गांव लौटते वक़्त बस के भाड़े के पैसे भी देना शामिल है।

पूरी फ़िल्म मज़ेदार तरीक़े से सुनाये गये ज़रूरी क़िस्सों से भरी पड़ी है जिन्हें सुनते हुए महसूस होता है कि अगर आंध्र प्रदेश की वकील बिरादरी को एक भी कन्नाबिरन न मिला होता तो क्या होता। इन सारे क़िस्सों का विवरण देना आपको इस फ़िल्म को पूरा देखने के उत्साह से वंचित कर देगा लेकिन फिर भी कुछ-कुछ ज़रूरी क़िस्सों को रेखांकित कर देना उचित होगा।

चलिए, एकदम शुरू से ही बात करते हैं। मज़े–मज़े में बात करते हुए कन्नाबिरन कहते हैं कि ‘अगर आप सामान्य जीवन चुनते हैं तो साठ साल के बाद रिटायर हो जाते हैं और आराम से रामायण, महाभारत, गीता पढ़ते हुए बाक़ी ज़िंदगी काट देते हैं लेकिन जब आप इस तरह का जीवन चुनते हैं तो पहली बात तो यह कि   रिटायर होना बहुत मुश्किल होता है, दूसरी तरफ़ आंख की रोशनी कम होने पर आपको पढ़ने में दिक़्क़त आती है, एक-एक अंगुली से लिखते हुए लंबा-लंबा कंप्यूटर पर लिखना होता है। हर चीज मुश्किल तरह से और यही है कन्नाबिरन।’ यह मुश्किल होना ही कन्नाबिरन की ख़ासियत है जो उन्हें एक नामीगिरामी वकील से आगे उठाकर न्यायपालिका के लिए ऐसा मुश्किल आदमी बना देती है जो वर्षों तक अपने सवाल से, अपने कंसर्न से न्यायपालिका और कार्यपालिका के लिए मुश्किलें खड़ी करता रहा और आम लोगों का, संघर्षरत लोगों का गहरा दोस्त बनता गया।

कन्नाबिरन की जीवन-यात्रा आंध्र प्रदेश में मानवाधिकार आंदोलन की विकास यात्रा के साथ–साथ कम्युनिस्ट आंदोलन के विकास और ठहराव का भी दस्तावेज़ है। असल में कन्नाबिरन की वकालत का दूसरा क्रांतिकारी पक्ष तभी शुरू होता है जब 1969 में आंध्र प्रदेश के सशस्त्र कम्युनिस्ट आंदोलन को कुचलने के लिए बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारियां और हत्याएं शुरू होती हैं। राज्य की ज़्यादती से उपजे नकली एनकाउंटर के बारे कन्नाबिरन विस्तार से बताते हैं। उस समय राज्य की ज़्यादतियों की जांच–पड़ताल लिए कोई संगठन ही नहीं था और इसी ज़रूरत से शुरू होता है आंध्र प्रदेश का मानवाधिकार आंदोलन। इतिहास के इस दौर के महत्व को फ़िल्म में नारीवादी कार्यकर्त्ता और कन्नाबिरन की जीवन-संगिनी वसंथ कन्नाबिरन बहुत अच्छे से रखती हैं। वे कहती हैं, ‘1969-70 में जब कन्ना ने इन सब गतिविधियों में दिलचस्पी लेनी शुरू की तो सहसा सुकूनदायक मध्यवर्गीय जीवन से हमारी ज़िंदगी दूसरी पटरी पर आ गयी।’ वसंथ जी के इंटरव्यू का फ़िल्म में कई बार इस्तेमाल किया गया है। उनकी मूल्यवान बातचीत से न सिर्फ़ उस समय की ज़रूरी बहसें दर्ज हुईं बल्कि क्रांतिकारी आंदोलन की बहुतेरी कमियों पर भी रोशनी पड़ी जिसमें से सबसे महत्वपूर्ण है, महिला मुद्दों पर आंदोलन का कम संवेदित होना।

असल में कन्नाबिरन कई विरुद्धों के बीच एक अडिग पुल की तरह थे। इसी वजह से कई बार राज्य सरकार और नक्सलियों के बीच बातचीत में ठहराव आ जाने पर उन्होंने जमी बर्फ़ को पिघलाने का काम किया। कई बार उन्होंने एन. टी. रामाराव और चन्द्र बाबू नायडू जैसे शक्तिशाली मुख्यमंत्रियों को फटकार लगायी तो कई बार नक्सलियों की अपहरण की नीति को ग़लत बताते हुए उनकी नीति में बदलाव करवाने में भी सक्षम रहे।

कन्नाबिरन सबसे पहले मानवाधिकार कार्यकर्ता थे, उसके बाद कुछ और। शायद यही वजह थी कि जहां उन्होंने कम्युनिस्टों के 300 से अधिक मुक़दमे लड़े, वहीं ज़रूरत पड़ने पर आरएसएस कार्यकर्त्ता के लिए भी अपनी सेवाएं दीं।

आज जब बहुमत के नाम पर हर तरह के निरंकुश क़ानून को हम पर लादा जा रहा है और देश की तमाम जेलों में बिना अपराध साबित हुए सैकड़ों नागरिक गिरफ़्तार कर प्रताड़ित किये जा रहे हैं, इस दो घंटे के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ को देखना न सिर्फ़ नयी रोशनी हासिल करना है बल्कि अपने हौसले को क़ायम रखना और आगे बढ़ाना भी है।

thegroup.jsm@gmail.com

फ़िल्म का लिंक:

Part 1: https://www.youtube.com/watch?v=haGd9ICmD8w&t=770s

Part 2: https://www.youtube.com/watch?v=lrLStnOMP4s

Part 3: https://www.youtube.com/watch?v=4QsQ75fPFEM

Part 4 : https://www.youtube.com/watch?v=ZCPx1i_pDD8


2 thoughts on “इस वकील की अभी सख्त़ ज़रूरत है / संजय जोशी”

  1. अच्छी और प्रासंगिक फिल्म जिस पर संजय ने संक्षेप में सभी महत्त्वपूर्ण बाते कह दी हैं। उन्हें इस तरह की फ़िल्मों पर आगे भी नया पथ में लिखना चाहिए।

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  2. Thank you for this information on Kannibaran the great human rights advocate. I met him only once when his group organised a discussion with me on grave human rights violations in Punjab during one of my visits to Hyderabad. It left a lasting impression on me and I feel intellectually, politically and emotionally bonded with him and his wonderful partner and daughter. I look forward to seeing the film Advocate and sharing your message further

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