हरिशंकर परसाई की जन्मशती बीतते-बीतते उनकी मृत्यु के लगभग 30 वर्ष पूरे हो जायेंगे। 1995 में उनकी मृत्यु हुई थी जब भारत एक बहुत बड़े बदलाव के शुरुआती दौर में था। हम उसे उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण (एलपीजी) के नाम से जानते हैं जिसका क़ायदे से आग़ाज़ 1991 में हुआ, यों बेक़ायदे अस्सी के दशक के उत्तरार्ध से उसकी निशानदेही की जा सकती है। परसाई का लगभग समस्त लेखन परिपक्व एलपीजी वाले भारत से पहले का है। और शुक्र है कि पहले का है! वरना किसी हिंदी वाले ने ‘भूमंडलीकरण और हरिशंकर परसाई का साहित्य’ विषय पर सोपाधि शोध कर डाला होता। मंडलीकरण और कमंडलीकरण से जोड़कर साहित्य का अध्ययन करने में हिंदी वालों की कभी रुचि नहीं रही, पर भूमंडलीकरण में जैसे उनकी जान बसती है। अरुंधती रॉय कहती रहें कि भारत में दो ताले एक साथ खुले, बाबरी मस्जिद का ताला और बाजार का ताला, हिंदी के शोधार्थियों की नज़र एक ही ताले पर रहती है—बाद वाले पर। अगर यह न खुलता और अंततः भारत भूमंडलीकृत न होता तो हिंदी में शोध का आइडिया देनेवाले शोध-निर्देशकों का क्या होता, भगवान जाने! अलबत्ता, यह हार मानने वाली प्रजाति है नहीं, इसलिए हम अनुमान लगा सकते हैं कि इसने अपना कोई और शिकार ढूंढ़ ही लिया होता।
वैसे ‘भूमंडलीकरण और हरिशंकर परसाई का साहित्य’ विषय पर सचमुच प्रबंध लिखा जा चुका हो तो कोई आश्चर्य नहीं। किसी ऐसी विभागीय शोध समिति बैठक की कल्पना करना बेबुनियाद न होगा जिसमें इस शीर्षक से एक उम्मीदवार ने अपना शोध-प्रस्ताव रखा हो और उम्मीदवार के किसी सरपरस्त की बदौलत, या फिर इस वजह से कि किसी को पता ही न हो परसाई जी इस फ़ानी दुनिया से कब गए, वह शोध-प्रस्ताव बिना किसी सवाल/चूं-चपड़ के पास हो गया हो; अगर किसी ने खुदा-न-खास्ते आपत्ति उठा ही दी हो तो सरपरस्त ने कहा हो, ‘लेखक की मृत्यु तिथि से क्या फ़र्क़ पड़ता है? शोधार्थी को यह गवेषणा करनी है कि परसाई जी के यहां भविष्य के कैसे संकेत मिलते हैं और उनके साहित्य के आलोक में हम भूमंडलीकृत भारत का अध्ययन किस तरह कर सकते हैं।’
अच्छी बात यह है कि अगर इस तरह का काम हो चुका हो तो कम-से-कम परसाई जी उसे देखने के लिए इस दुनिया में नहीं रहे। होते तो देख लेने के बाद न रह जाते। इसका मतलब यह नहीं कि उनमें उन लेखकों जितना जिगरा न था जो अपने ऊपर हुए शोध-कार्य को देख लेने के बाद भी खुशी-खुशी जीवित रह जाते हैं। बस, विडंबनाओं और विसंगतियों को परखने वाली उनकी नज़र थोड़ी ज़्यादा भेदक थी और यही उनकी समस्या थी। और लोग ‘कर-कमलों’ से उद्घाटन करके गौरवान्वित होते होंगे, परसाई जी कर के कमल होने से चौकन्ने हो जाते थे कि शायद जूते पड़ने का समय नज़दीक आ रहा है।
‘मैंने भरसक कोशिश की है कि हाथ कमल न हो जायें। हथेली पर मैंने कांटे बोये हैं। मगर न जाने क्या हुआ कि कर एकाएक कमल हो गये। अब मैं परेशान हूं। जिनके हाथ मुझसे पहले कमल हो गये, उनकी दुर्दशा देख रहा हूं।… सार्वजनिक जीवन में एक ऐसा वक़्त आता है जब आदमी कमल हो जाता है। फिर ऐसा वक़्त आता है जब कमल पर जूते पड़ते हैं’ (‘कर कमल हो गये’)।
ऐसे परसाई शोध-विषय बन जाने का मतलब न समझते हों, यह मुमकिन नहीं। तभी तो लिख गये हैं, ‘जो नहीं है, उसे खोज लेना शोधकर्त्ता का काम है’ (‘सिलसिला फ़ोन का’)। जिस लेख में यह लिखा है, उसी में शोध-छात्र को ‘विभाग के अध्यक्ष को अपने गांव का शुद्ध घी खिलाकर और उनकी पत्नी को बच्चे के गुच्छे समेत प्रदर्शनों में झूले झुलाकर ज्ञान की साधना’ करनेवाला बता गये हैं।
बहरहाल, ‘भूमंडलीकरण और हरिशंकर परसाई का साहित्य’ पर प्रबंध लिखने वाले शोधकर्त्ता ने क्या लिखा होता या होगा, यह तो क़यास का विषय है, पर यह एक तथ्य है कि आमूलचूल बदलावों वाले इन 30 सालों के बाद भी परसाई ‘मौक़ों’ पर सबसे अधिक उद्धृत किये जाने वाले लेखकों में शुमार हैं। फ़ेसबुक को खंगालिये तो पता चलेगा कि जन्मशती की ख़बर उड़ने के पहले से वहां परसाई खूब चिपकाये जाते रहे हैं। नयी पीढ़ी भी उन्हें उद्धृत कर रही है, इसका मतलब उन्हें पढ़ और सराह रही है, उनसे प्रभावित हो रही है। आज के पाठक को वे सही मायनों में ‘समकालीन’ लगते हैं।
तो इस बदले हुए, भूमंडलीकृत, उदारीकृत, खुले बाज़ार वाले भारत में साठ, सत्तर, अस्सी के दशक में लिखे गये परसाई के लेखों को अस्सी और नब्बे के बाद पैदा होनेवाली पीढ़ी क्यों सराह रही है? क्या यहां प्रासंगिकता वाले उसी चिर-प्रासंगिक जुमले—‘देखिये, आज भी वही तो हो रहा है!’—से काम चलाया जा सकता है, जो अनजाने में लेखक को श्रेय देने के बजाये उसके द्वारा संबोधित समस्याओं के हल न होने को पूरा श्रेय दे जाता है? सच तो यह है कि प्रासंगिकता का गुणगान जिस पद्धति से किया जाता है, उससे हर दिवंगत लेखक की आत्मा को कष्ट होना चाहिए, क्योंकि वह लेखक की सृजनशीलता से ज़्यादा यह भांप लेने वाली चतुराई का प्रमाण प्रतीत होता है कि कौन-सी समस्याएं दशकों बाद भी हल नहीं होने जा रही हैं, जिन पर लिखकर लंबी अवधि तक ‘प्रासंगिक’ रहा जा सकता है।
तो क्या यह एक वाजिब उत्तर हो सकता है कि अपने समय में खूब गहरे धंसा हुआ लेखन ही समय के पार जा पाता है? खुद परसाई ऐसा ही मानते थे। कहा है,
‘अपना लिखा जो रोज़ मरता देखते हैं, वही अमर होते हैं—जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं, वह अनंतकाल के प्रति क्या ईमानदार होगा?’
यह तर्क काफ़ी हद तक दुरुस्त है, पर इसकी अपनी सीमा है। ख़ासकर परसाई जी ने इस तर्क को जिस तरह से रखा है, उसमें तो रोज़ मरने वाला लेखन ही अमरत्व की शर्त बन जाता है। जो लिखे जाने के अगले ही दिन बासी न हो जाये, वह लेखक को अमरता नहीं दे सकता। इस तर्क से सामयिक टिप्पणियां और ख़बरें लिखने वाले पत्रकार का ही अमरता पर पहला दावा बनता है। और इस तर्क से परसाई के अद्यावधि महत्त्व का कारण यह है कि उन्होंने अपने समय की हर महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय-राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटना पर कलम चलायी है।
क्या कोई भी व्यक्ति, और ख़ासकर उनके मरने के बाद पैदा होकर उन्हें पढ़ने-सराहने वाले युवा इस बात से सहमत होंगे? सवाल ही नहीं उठता। परसाई आज भी पढ़े जाते हैं तो इसलिए कि ‘अपने युग के प्रति ईमानदार’ रहते हुए उन्होंने एक तरह के बिपरजॉयी और अवज्ञाकारी मिज़ाज के साथ अपनी रचनाओं में उसे (यानी युग को) दर्ज करने की ऐसी युक्तियां तलाशी हैं जो कारयित्री प्रतिभा से ही संभव है, पत्रकारयित्री प्रतिभा से नहीं, और वे आज भी अगर पढ़े जाते हैं तो इसलिए नहीं कि उनके समय की हर महत्त्वपूर्ण घटना उनके यहां दर्ज है, बल्कि इसलिए कि उनके दर्ज किये जाने में ऐसा अनोखापन है जो अन्यत्र नहीं मिलता। वस्तुतः, परसाई के कथन का उत्तरार्ध—‘जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं, वह अनंतकाल के प्रति क्या ईमानदार होगा’—बहुत दुरुस्त है, लेकिन युग के प्रति यह ईमानदारी तो नींव के समान है जिस पर असंख्य रचनाकारों ने बहुत भद्दी या कामचलाऊ इमारतें खड़ी की होंगी। परसाई ने उसी पर ऐसी अनोखी इमारत खड़ी की जिसे आज भी देखा-सराहा जाता है। इसलिए नींव-चर्चा हमें बहुत दूर तक नहीं ले जाती। अमरत्व (यह मेरा प्रिय शब्द नहीं, लेकिन परसाई जी के कथन में आया है, इसलिए यहां भी) के प्रसंग में अधिरचना का अनोखापन ही दरअसल विचारणीय है। अगर परसाई या उनके समानधर्मा अनेक लोग इस नींव की चर्चा पर बहुत बल देते रहे तो इसका कारण उनके समय की वे बहसें हैं जिनमें ग़ैर-प्रगतिशीलों द्वारा प्रगतिशीलों पर यह कहकर हमला किया जाता था कि साहित्य तो शाश्वत मानवीय मूल्यों की साधना है, साहित्यकार को अपने समय की क्षुद्र राजनीति (राजनीति तो क्षुद्र ही होती है!) और रोज़मर्रा के क्लेशों से क्या मतलब? ज़ाहिर है, इसके प्रत्युत्तर में प्रगतिशीलों को समय के साथ साहित्य के जुड़ाव पर बल देना ही था क्योंकि अपने समय की समाजेतिहासिक शक्तियों के बीच अपनी पक्षधरता स्पष्ट-प्रकट किये बगैर प्रगतिशीलता का कोई अर्थ नहीं।
समय के साथ जुड़ाव की इस बात को, परसाई के ही प्रसंग में, विश्वनाथ त्रिपाठी ने इतने सधे हुए अंदाज़ में और ऐसी दार्शनिक ऊंचाई के साथ कहा है कि आगे उस पर कुछ कहने की संभावना निःशेष हो गयी है। उनके दो प्रमुख बिंदु हैं:
1. ‘शाश्वत अरूप है, सरूप—और सबसे ज़्यादा सरूप वर्तमान है। लेखक सरूप वर्तमान से प्रभावित न हो और जिसे देख नहीं रहा, उसी से प्रभावित होने का प्रयास करे या ढोंग रचे तो वह अपनी समझ से शाश्वत लिखेगा। विभिन्न युगों के “वर्तमानों” के योग के आधार पर हम शाश्वत की कल्पना करते हैं। इसी को निराला कहते थे—हम नित्य नवीनता में ही सनातनता पाते हैं।’
2. ‘काल को भूत, भविष्य, वर्तमान में बांट दिया गया है, समझने समझाने की सुविधा के लिए। भूत और भविष्य को वर्तमान जोड़ता और काटता है।… काल को कर्म में हम केवल वर्तमान में ढाल सकते हैं।… हरिशंकर परसाई वर्तमानता के रचनाकार हैं।’
(देखिए : देश के इस दौर में, [1989] 2000, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली)
परसाई जी की ‘वर्तमानता’ और उस वर्तमानता के महत्त्व को रेखांकित करनेवाला इससे मज़बूत तर्क और क्या होगा! और इसका श्रेय परसाई जी जैसे लेखकों और उन पर लिखी गयी ऐसी उम्दा आलोचनाओं को ही दिया जाना चाहिए कि आज वर्तमानता और शाश्वतता वाली बहस न सिर्फ़ ख़त्म हो गयी है, बल्कि सारतः प्रगतिशीलों के पक्ष में हल हो चुकी है।
तो वापस उस नुक़्ते पर लौटें कि यह अंततः नींव-चर्चा है। अपने समय में धंसी हुई मज़बूत नींव पर भद्दी इमारत भी खड़ी हो सकती हैं और बहुत खूबसूरत इमारत भी जिसे देखते रहने का मन करे! परसाई की इमारत ऐसी है कि आज भी लोग सैर करते उसकी तरफ़ निकल जाते हैं। दुनिया बदल गयी, पर उसका आकर्षण फीका नहीं पड़ा। सोचिए, कितनी बदली कि परसाई के यहां आपको एकाधिक लेख फ़ोन (आज उसे लैंड्लाइन कहते हैं) के लगने-कटने जैसे विषयों पर मिलेंगे! ऐसे आमूलचूल बदलाव के बाद भी उनका आकर्षण क्यों बना हुआ है?
एक ठोस वजह तो है, परसाई का उच्छेदक और अवज्ञाकारी मिज़ाज। पीछे मैंने इसी उच्छेदक मिज़ाज को बिपरजॉय तूफ़ान के नाम पर बिपरजॉयी भी कहा था। ‘सब्वर्सिव राइटिंग’ के लिए ‘बिपरजॉयी लेखन’ अच्छा शब्द हो सकता है, लेकिन चलेगा नहीं, इसलिए रहने दीजिये। और ‘उच्छेदक लेखन’ मैं चलाऊंगा नहीं, इसलिए उसे भी रहने दीजिये। हमारा काम ‘अवज्ञाकारी’ से चल जायेगा। असल बात है कि परसाई जी का लेखन अपने समय के प्रचलित मान-मूल्यों और सोच की स्थिर पद्धतियों को तहस-नहस करने वाला लेखन है। यह एक ऐसी चीज़ है जो लेखन को समय बीतने के साथ अधिक स्वीकार्य बनाती जाती है। वह इसलिए कि समय के साथ वे मान-मूल्य और स्थिर पद्धतियां अधिकाधिक अप्रासंगिक या प्रश्नांकित होती जाती हैं और उन्हें लात मारनेवाले, या लात न मार पायें तो कम-से-कम मारने की तमन्ना रखनेवाले लोगों की संख्या बढ़ती जाती है। समय में आगे बढ़ने के साथ उनका अप्रासंगिक या प्रश्नांकित होना लेखन की प्रेरणा/वजह भी बनता है और उसका परिणाम भी। जिसे हम ‘बिपरजॉयी लेखन’ कह रहे हैं, वह स्वयं समाज में उभर रहे एक रुझान का प्रतिबिंब है और उस रुझान को सामने लाते हुए वह उसे बढ़ाने का काम भी करता है।
इस अवज्ञाकारी मिज़ाज के उदाहरण तो परसाई में भरे पड़े हैं जिन्हें यहां दुहराने की ज़रूरत नहीं, पर तीन पृष्ठों का निबंध ‘कंधे श्रवणकुमार के’ देखें तो वह उदाहरण ही नहीं, उपर्युक्त बात की व्याख्या भी प्रतीत होगा। इस निबंध में परसाई एक सज्जन का ज़िक्र करते हैं जो छोटे बेटे से दुखी हैं कि जब पीने बैठते हैं और उसे दुकान से सोडा लाने कहते हैं तो किताब पढ़ता हुआ बेटा पैराग्राफ़ पूरा करके ही उठता है, जबकि बड़ा वाला ‘फ़ौरन किताब के पन्नों में पेंसिल रखकर सोडा लेने दौड़ जाता था’। छोटा वाला न सिर्फ़ काम निपटाकर उठता है, जल्दी मचाने पर कह भी देता है, ‘जाता तो हूं’। बड़े और छोटे की उम्र के अंतर से रवैये में जो यह फ़र्क़ आया है, उसकी अपने ख़ास चुटीले अंदाज़ में व्याख्या करते हुए परसाई न सिर्फ़ छोटे के रवैये का समर्थन करते हैं बल्कि स्थितियों को यथावत बनाये रखने और पुनरुत्पादित करने वाली ‘विचारधारा’ की पोल-पट्टी भी खोल देते हैं। उनका ख़याल है कि खुद उनका हमउम्र बड़ा वाला बेटा उन ग़लत किताबों की पैदावार है जो
‘सवालों को मारने की किताबें थीं। स्कूल प्रार्थना से शुरू होता था—शरण में आये हैं हम तुम्हारी, दया करो हे दयालु भगवान! क्यों शरण में आये हैं, किसके डर से आये हैं, कुछ नहीं मालूम। शरण में आने की ट्रेनिंग अक्षर-ज्ञान से पहले हो जाती थी। हमने ग़लत किताबें पढ़ीं और आंखों को उनमें जड़ दिया।’
इसके मुक़ाबले छोटे वाले की किताबें और किताबों को लेकर उसका रवैया, दोनों अलग हैं:
‘छोटा लड़का दूसरी किताबें पढ़ता है। वह अपनी आंखों को फूटने से बचाने की कोशिश कर रहा है, इससे सारे पिता-स्वरूप लोग परेशान हैं—भौतिक पिता, गुरु, बड़े-बूढ़े, शासक और नेता। हमारी किताबों में पिता-स्वरूप लोग सवाल और शंका से ऊपर होते थे। शिष्य पक्षपाती गुरु को अंगूठा काटकर दे देता था और दोनों “धन्य” कहलाते थे।’
सिर्फ़ पिता नहीं, पिता-स्वरूप लोग। एकलव्य वाले इस संदर्भ को छोड़ दें तो आगे पूरे निबंध में पितृ-भक्ति के पौराणिक उदाहरणों की ही खाट खड़ी की गयी है, लेकिन इस शुरुआती हिस्से में ही परसाई यह साफ़ कर देते हैं कि पितृभक्त-आज्ञाकारी बेटा होने का मतलब सिर्फ़ ऐसा बेटा होना नहीं, बल्कि ऐसा ही विद्यार्थी, ऐसा ही नागरिक, ऐसा ही कनिष्ठ और ऐसी ही जनता होना भी है। यह हर स्तर पर शक्ति-संबंध को प्राकृतिक जैसा दर्जा देने और मातहती स्वीकार कर लेने वाली प्रवृत्ति है। सवालों को मारने वाली किताबें आपको ऐसा ही बनाती हैं।
आगे बच्चों को पढ़ाई जानेवाली तीन कथाओं का संदर्भ आया है और तीनों की निर्मम चीर-फाड़ हुई है। एक संदर्भ उस कथा का है जिसमें भक्त मोरध्वज भगवान को संतुष्ट करने के लिए अपने पुत्र को आरे से चीर देता है। दूसरा संदर्भ शांतनु और भीष्म की कथा का है। तीसरा, कंधे पर बहंगी में अंधे मां-बाप को ढोकर तीर्थाटन करानेवाले श्रवणकुमार का। तीनों का हवाला देते हुए प्रश्नातीत आज्ञापालन को प्रश्नों के कठघरे में खड़ा किया गया है और ऐसा करते हुए परसाई अपने सर्वोत्तम फ़ॉर्म में हैं क्योंकि यह विपर्यय/सब्वर्शन उनके दिल के सबसे क़रीब है। श्रवणकुमार की कथा पर यह टिप्पणी देखिये:
‘विचित्र दृश्य है यह। दो अंधे एक आंख वाले पर लदे हैं और उसे चला रहे हैं। जीवन से कट जाने के कारण एक पीढ़ी दृष्टिहीन हो जाती है, तब वह आगामी पीढ़ी के ऊपर लद जाती है। अंधी होते ही उसे तीर्थ सूझने लगता है। वह कहती है—हमें तीर्थ ले चलो। इस क्रियाशील जन्म का भोग हो चुका है। हमें आगामी जन्म के भोग के लिए पुण्य का एडवांस देना है। आंख वालों की जवानी अंधों को ढोने में गुज़र जाती है। वह अंधों के बताये रास्ते पर चलता है। उसका निर्णय और निर्वाचन का अधिकार चला जाता है। उसकी आंखें रास्ता नहीं खोजतीं, सिर्फ़ राह के कांटे बचाने के काम आती हैं।’
जिन कथाओं की मार्मिकता पर लोग वारी जाते हैं और बच्चों में संस्कार डालने के लिए उन्हें सुनाते हैं, उनकी ऐसी मज़म्मत कितनी असाधारण बात है, बताने की ज़रूरत नहीं। इस मज़म्मत को तब भी ‘छोटे बेटे’ जैसे लोगों ने हाथों-हाथ लिया होगा, आज दशकों बाद तो प्रश्न करनेवाली यह आबादी तुलनात्मक रूप से काफ़ी सघन हुई है।
लेकिन बात यहीं तक नहीं रहती। उद्धृत अंश के तुरंत बाद परसाई जी फिर एक वैसी ही छलांग लेते हैं जैसी ‘पिता-स्वरूप लोगों’ वाली चर्चा में ली थी। श्रवणकुमार सिर्फ़ एक आज्ञाकारी पुत्र नहीं रह जाता, वह राजनीति, साहित्य, कला, धर्म, शिक्षा—हर क्षेत्र में कांवड़ ढोने वाला अनुचर बन जाता है और, ज़ाहिर है, कांवड़ ढोना भी बस कांवड़ ढोना नहीं रह जाता, वह सभी तरह के शक्ति-संबंधों में अपनी मातहती से संतुष्ट और सेवा में सन्नद्ध युवाओं की सेवकाई बन जाता है।
‘कितनी कांवड़ें हैं—राजनीति में, साहित्य में, कला में, धर्म में, शिक्षा में। अंधे बैठे हैं और आंखोवाले उन्हें ढो रहे हैं। अंधे में अजब कांइयांपन आ जाता है। वह खरे और खोटे सिक्के को पहचान लेता है। पैसे सही गिन लेता है। उसमें टटोलने की क्षमता आ जाती है। वह पद टटोल लेता है, पुरस्कार टटोल लेता है, सम्मान के रास्ते टटोल लेता है। आंख वाले जिन्हें नहीं देख पाते, उन्हें वह टटोल लेता है।’
सज्जन के छोटे बेटे के बाग़ी मिज़ाज से प्रभावित परसाई संस्कार के इस अत्याचार से हताश नहीं हैं :
‘कांवड़ें हिलने लगी हैं। ढोनेवालों के मन में शंका पैदा होने लगी है। वे झटका देते हैं तो अंधे चिल्लाते हैं—अरे, पापी! यह क्या करते हो? क्या हमें गिरा दोगे? और ढोनेवाला कहता है—अपनी शक्ति और जीवन हम अंधों को ढोने में नहीं गुजारेंगे। तुम एक जगह बैठो। माला जपो। आदर लो, रक्षण लो। हमें अपनी इच्छा पर चलने दो। अनुभव दे दो, दृष्टि मत दो। वह हम कमा लेंगे।’
ऐसा कहना एक तथ्य को दर्ज करना ही नहीं, कांवड़ों को और हिलाना, ढोनेवालों के मन में और शंका पैदा करना भी है। यह परसाई के लेखन की ऐसी ताक़त है जिसने आज के युवाओं को भी उनका मुरीद बनाया है। वे सभी स्थिर हो चुकी परिपाटियों को हिलाते हैं; जिन ‘कर्तव्यों’ को प्राकृतिक और प्रश्नातीत माना जा चुका है, उन पर पड़ा हुआ विचारधारा का पर्दा हटा देते हैं; विसंगतियों, पाखंड और दो-मुंहेपन को हास्यास्पद बनाकर उन्हें उनकी सही जगह दिखा देता हैं। समाज की विसंगतियों और प्रचलित नैतिक रूढ़ियों के बीच उनका लेखन एक मूलगामी नैतिक आवाज़ की तरह है। यहां यह याद कर लेना अनुचित न होगा कि पश्चिम में अक्सर सटायर को नैतिक उद्देश्यों से संचालित कला के रूप में देखा गया है। एक दर्शन-शास्त्री निकोलस डेह्ल ने तो नैतिक दर्शन के साथ सटायर के बहुत निकट रक्त-संबंध की बात करते हुए व्यंग्य के माध्यम से विश्लेषणात्मक परंपरा में दार्शनिक काम किये जाने की संभावना पर भी विचार किया है।
‘व्यंग्य को हम जिस रूप में जानते हैं, उस रूप में वे दृढ़तापूर्वक दार्शनिक नहीं हैं और उन्हें दर्शन के काम की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, इस तथ्य के बावजूद किसी व्यंग्य के लिए यह संभव है कि वह विश्लेषणात्मक परंपरा में एक मौलिक, सुदृढ़ दार्शनिक कार्य हो।’
(‘Satire, Analogy, and Moral Philosophy’, The Journal of Aesthetics and Art Criticism, 71:4, Fall 2013)।
नैतिक प्रश्नों के साथ व्यंग्य का यही संबंध है जो ज्ञानरंजन को कही गयी परसाई की इस बात में निहित है:
‘व्यंग्य एक पाज़िटिव चीज़ है, उसे नकारात्मक नहीं मानना चाहिए। व्यंग्य लेखक यही तो बताता है कि समाज में यह बुरा है, यह असंगत है, यह अकल्याणकर है। वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि वह दुखी है कि इतना बुरा क्यों हुआ? वह एक बेहतर मनुष्य, एक बेहतर समाज-व्यवस्था के प्रति आस्था रखता है, इसलिए जो बुराई उसे दिखती है, उसे इंगित करता है। डॉक्टर अगर मरीज़ों को रोग बताता है तो वह निराशावादी, नकारात्मक और “सिनिकल” नहीं है, वह आदमी को स्वस्थ करना चाहता है, इसलिए रोग बताता है।’
यहां आप सवाल उठा सकते हैं कि अगर समय के साथ गहरा जुड़ाव नींव के समान है (जिस पर भद्दी इमारतें भी बन सकती हैं), तो क्या यह नैतिक बोध और उससे संचालित अवज्ञाकारी मिज़ाज भी नींव के समान ही नहीं हैं? क्या यह नहीं हो सकता कि ऐसे बोध और मिज़ाज के बावजूद रचना में उसका प्रतिफलन निहायत उबाऊ हो? और अगर ऐसा है तो फिर वह कौन-सी चीज़ है जो इनको भी माइनस कर देने के बाद बचती है और परसाई जी की लोकप्रियता का आधार बनती है?
निस्संदेह, नैतिक बोध, अवज्ञाकारी मिज़ाज, पाखंड-छद्म आदि के प्रति गहरी आलोचनात्मक चेतना, विसंगतियों की परख वगैरह ही काफ़ी नहीं है। अगर इन्हें रचना में ढालते हुए परसाई असाधारण विनोद-विदग्धता और सूक्ति-कौशल का परिचय न देते तो वे और कुछ भले ही होते, परसाई न होते। ये परसाई ही हैं जो तुलसीदास की एक-एक पंक्ति के दस अर्थ लगानेवाले पेशेवर रामायणियों को कह सकते हैं कि ‘जिसकी बात के एक से अधिक अर्थ निकलें वह संत नहीं होता, लुच्चा होता है।… तुम संत की बात के कई अर्थ निकालकर क्यों अनर्थ करते हो?’ ये परसाई ही हैं जो अपने टपकते हुए घर में पानी भर जाने की सूचना इस तरह दे सकते हैं, ‘घर में इतना पानी भर जाता है कि अगर फ़र्श पत्थर का न होता तो इन कमरों में धान बो देता।’ लेकिन ऐसे मकान के लिए भी मकान-मालिक को तो दोष नहीं दिया जा सकता! इसलिए परसाई कहते हैं, ‘मकान मालिक का अपराध नहीं है। उसने मकान ऐसा बनवाया है कि पानी क्या, हवा तक न घुस सके। एक भी खिड़की नहीं। आलमारी या ताक भी नहीं, क्योंकि इससे दीवारें कमज़ोर होती हैं। बस दीवारें हैं और ऊपर पत्थर-सीमेंट की छत। दो हज़ार वर्ष बाद पुरातत्त्ववेत्ताओं को ऐसा ही ज़मीन में गड़ा मिल जायेगा।’ जिस सड़क पर दो-दो दवा की दूकानें खूब चल रही हैं, उसी पर एक ग्राहक-विहीन किताब की दूकान की चर्चा करते हुए परसाई ही बात में यह ट्विस्ट डाल सकते हैं, ‘तूने धंधा ग़लत चुना। इस देश को समझ। यह बीमारी प्रेमी देश है। तू अगर खुजली का मलहम ही बेचता तो ज़्यादा कमा लेता। इस देश में खुजली बहुत होती है। जब खुजली का दौर आता है, तो दंगा कर बैठते हैं या हरिजनों को जला देते हैं। तब कुछ सयानों को खुजली उठती है और वे प्रस्ताव का मलहम लगाकर सो जाते हैं। खुजली सबको उठती है—कोई खुजाकर खुजास मिटाता है, कोई शब्दों का मलहम लगाकर।’ यह परसाई ही हैं जो ‘निंदा में प्रोटीन और विटामिन’ होने की बात करते हुए संतों की आत्मनिंदा को भी उसमें लपेट लेते हैं: ‘ “मो सम कौन कुटिल खल कामी”—यह संत का विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा कांइयां होता है। हम समझते हैं, वह आत्म-स्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा होता है।’ यह परसाई ही हैं जो सब कुछ ‘पवित्र’ रीति से अंजाम देते आदमी के निंदा-प्रेम की चर्चा करते हुए यह सूक्ति दे सकते हैं: ‘पवित्रता का मुंह दूसरों की अपवित्रता के गंदे पानी से धुलने पर ही उजला होता है। वे हमेशा दूसरों की अपवित्रता का पानी लोटे में लिये रहते हैं। मिलते ही पवित्रता का मुंह धोकर उसे उजला कर देते हैं।’ ये सज्जन एक दिन भोजन के बाद कलंक-चर्चा का चूर्ण फांकते हुए बता गये कि ‘अमुक साहब की लड़की अमुक साहब के लड़के के साथ भाग गयी और दोनों ने इलाहाबाद में शादी कर ली। कैसा बुरा ज़माना आ गया।’ इस पर परसाई ही यह टिप्पणी कर सकते हैं, ‘मैं जानता हूं कि वे बुरा ज़माना आने से दुखी नहीं, सुखी हैं। जितना बुरा ज़माना आयेगा, वे उतने ही सुखी होंगे—तब वे यह महसूस करके और गर्व अनुभव करेंगे कि इतने बुरे ज़माने में भी हम अच्छे हैं। कुछ लोग बड़े चतुर होते हैं। वे सामूहिक पतन में से निजी गौरव का मुद्दा निकाल लेते हैं और अपने पतन को समूह का पतन कहकर बरी हो जाते हैं।’ यह परसाई ही हैं जो लोहिया के हनुमान रह चुके राजनारायण के बारे में कह सकते हैं, ‘त्रेता के हनुमान ने सीता का पता लगाया, रावण की लंका जलायी और युद्ध में सेनापति की हैसियत से लड़कर रावण के पक्ष को हराया। ये कलियुगी हनुमान ऐसे हैं कि सीता का पता लगाने जायें तो रावण से ही मिल जायें और उसके मंत्रिमंडल में शामिल हो जायें। इधर राम इंतज़ार में बैठे हैं कि हनुमान सीता का पता लगाकर अब आये, अब आये। उधर हनुमान लंका में स्वास्थ्य मंत्री के कक्ष में बैठे भांग चढ़ाकर मथुरा के पेड़े खा रहे हैं।’
ज़्यादा उदाहरण देने का कोई मतलब नहीं। परसाई के रचना-संसार में हर दूसरा वाक्य या अनुच्छेद ऐसा है। वे कहानी लिख रहे हों या निबंध, कोई नियमित स्तंभ लिख रहे हों या राजनीतिक टिप्पणी, हर जगह वे उंगली टेढ़ी करके घी निकालते, बात को एक रोचक ट्विस्ट देकर व्यापक संदर्भ से जोड़ते, और टुच्ची स्थितियों के बीच से कोई सूक्ति संभव करते नज़र आते हैं। यह उनके सोचने के तरीक़े का अनोखापन है जिसके सामने वे खुद ही लाचार हैं। ज्ञानरंजन को दिये गये साक्षात्कार में वे व्यंग्य-लेखक मान लिये जाने पर बात करते हुए इसी लाचारी की ओर इशारा करते हैं :
‘… इस प्रकार का लेबिल लगाना ठीक नहीं है, परंतु ज़िम्मेदारी कुछ मेरी भी बनती है। मैंने यह तय करके लिखना शुरू नहीं किया कि व्यंग्य नाम की चीज़ ही लिखूंगा। वास्तव में, हर लेखक जीवन की खोज और समीक्षा करता है और जीवन से साक्षात्कार करता है। इसके लिए किसी विशिष्ट रूप या शैली का चुनाव सहज ही हो जाता है। मैंने वही लिखा है जो दूसरे लेखकों ने दूसरे ढंग से लिखा है, पर कुछ तो मेरी मानसिक प्रवृत्ति और चेतना तथा सामाजिक जीवन के प्रति मेरी प्रतिबद्धता थी जिसके कारण मैंने विसंगतियों, विकृतियों, अन्याय, शोषण, पाखंड, दो-मुंहेपन, ढोंग इत्यादि को पकड़ा। इस पर लेख भी लिखा जा सकता था या अख़बारी टिप्पणी भी। पर एक रचनाकार के नाते इन्हें अभिव्यक्त करने के लिए मुझे व्यंग्य का माध्यम अनुकूल पड़ा।’
अपनी बातचीत में आगे परसाई ने व्यंग्य को विधा की जगह स्पिरिट माना है, जो बहुत दुरुस्त बात है। व्यंग्य कोई विधा इसलिए नहीं है कि ‘इसका कोई अपना स्ट्रक्चर नहीं है। यह एक स्पिरिट है जो हर विधा में आ सकती है।’ परसाई जी के नियमित स्तंभों में ही नहीं, उनकी कहानियों, उपन्यासों और ललित निबंधों में भी यह स्पिरिट मौजूद है और यह अपनी मौजूदगी के लिए कई बार इन विधाओं के मान्य ढांचे को इतना दरेरा देती है कि लोग रचना की श्रेणी तय करने में असमर्थ होकर उसे व्यंग्य कह देने में ही सहूलियत महसूस करते हैं। इसे ऐसे समझिये। उनकी रचनावली के खंड 2 में ‘एक गोभक्त से भेंट’ एक कहानी के रूप में शामिल की गयी है। इस कथित कहानी में एक गोभक्त बाबा से काल्पनिक बातचीत वर्णित है। अगर इसे कहानी माना जाये तो कोई कारण नहीं कि इंदिरा गांधी, जयप्रकाश नारायण, राजनारायण वगैरह से लेकर ‘एक कुलपति’, ‘एक मुख्यमंत्री’, ‘एक अभिनंदनी जी’ आदि से की गयी काल्पनिक मुलाक़ातों को कहानी न माना जाये। लेकिन चूंकि ये ‘कबीरा खड़ा बजार में’ स्तंभ के अंतर्गत प्रकाशित हुई रचनाएं थीं, इसलिए रचनावली के संपादकों ने इसे स्तंभों वाले खंड (6) में जगह दी है। यह परसाई के साथ बड़ी समस्या है। आप किसे कहानी कहेंगे, किसे नहीं कहेंगे, किसे ललित निबंध कहेंगे, किसे अख़बारी टिप्पणी कहेंगे—तय कर पाना मुश्किल है। इस मुश्किल का ज़िक्र कई आलोचकों ने किया है। पर सही बात है कि यह आलोचक की ही मुश्किल है, लेखक और पाठक को इससे क्या! लेखक लिखकर मस्त है, पाठक पढ़कर। आप विधा तय करते रहिये! अच्छा तो ये हो कि परसाई जी के अगर पूरे नहीं तो अधिकांश लेखन को ‘बतकही’ जैसा कोई नाम दे दिया जाये (याद दिला दूं कि राजस्थानी में ‘बात’ एक विधा है)। वे दरअसल पाठकों से बतियाने वाले लेखक हैं। पाठक उनकी व्यंग्योक्तियों से लदी हुई बतरस का आनंद लेता है और अपने समय और समाज के बारे में अपनी निगाहों का पावर बढ़ा हुआ पाता है। उनकी बतरस का आनंद लेने के बाद वह अपने आसपास की कितनी ही चीज़ों को उनकी असलियत में देखने लगता है। मज़े की बात यह है कि उनमें खुद उसकी अपनी असलियत भी शामिल होती है जिसके प्रति उसने एक तरह की अंधता ओढ़ ली थी। मसलन, जब परसाई उसे ‘विनय की मुलायम मखमली म्यान के भीतर रखी दंभ की प्रखर तलवार’ दिखाते हैं, तो ऐसा नहीं है कि वह दूसरों में ही दिखती है। पाठक अपने अंदर भी झांकने के लिए बाध्य होता है (वैसे भी ‘मखमल की म्यान’ का यह कथन ‘लोगों’ के बारे में नहीं, ‘हम’ के बारे में है)।
बहरहाल, अगर बतकही को एक विधा मान लें तो तो परसाई पर शोध का एक नया इलाक़ा खुल जायेगा। ‘हिंदी बतकही का शिल्प-विधान / विशेष संदर्भ : हरिशंकर परसाई’, ‘हरिशंकर परसाई की बतकही में सामाजिक चेतना’, ‘स्वातंत्र्योत्तर भारतीय यथार्थ और हरिशंकर परसाई की बतकही’, ‘उत्तर-आधुनिकता के संदर्भ में हरिशंकर परसाई की बतकही का आलोचनात्मक अध्ययन’। किसी दबंग आचार्य का वरदहस्त मिल जाये तो इनमें से कोई भी विषय शोध कमेटी की बैठक में पास हो सकता है। यह कम-से-कम भूमंडलीकरण वाले विषय से तो बेहतर ही होगा।
भूमंडलीकरण से तो कहीं बेहतर कमंडलीकरण वाला विषय भी होगा। परसाई का लेखन अपने समय के कमंडलीकरण की बहुत सख्ती से नोटिस ले रहा था। वे हमें इतने समकालीन इसलिए भी लगते हैं कि आज भारत जिन फ़ासीवादी ताक़तों के चंगुल में है, उनकी पहचान करानेवाले लेखकों में परसाई अग्रणी हैं। आरएसएस के बारे में जितना तीखा उन्होंने लिखा है, उसे आज कहीं चौराहे पर पढ़कर सुनाने के लिए हिम्मत चाहिए :
‘फासिस्ट संगठन की विशेषता होती है कि दिमाग़ सिर्फ़ नेता के पास होता है, बाकी सब कार्यकर्त्ताओं के पास सिर्फ़ शरीर होता है। अपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी ऐसा ही है। स्वयंसेवकों के पास भी अगर बुद्धि रह गयी तो संगठन टूट जायेगा। इसलिए संघ में लगातार ‘बुद्धिनाश’ का कार्यक्रम चलता है, जिसे उनकी भाषा में ‘बौद्धिक वर्ग’ कहते हैं याने ‘बुद्धिनाश वर्ग’। नेता के पास ख़बर आती है कि स्वयंसेवकों में बुद्धि की घुसपैठ हो रही है, तो नेता हुक्म देता है कि जल्दी-जल्दी बौद्धिक लो और उन्हें पूरी तरह जड़बुद्धि बना दो। सुना है, संघ के नेता कुछ वरिष्ठ सर्जनों से सलाह कर रहे हैं कि ऑपेरेशन करके सोचने की मशीन निकाल ली जाये।’
ऐसा नहीं कि ये बातें कहने के लिए तब हिम्मत की ज़रूरत न थी। परसाई संघियों के हाथों पिट चुके थे और पिटने के बाद ‘पिटने-पिटने का फ़र्क़’ समेत कई बतकही लिख चुके थे। वे बाला साहब देवरस पर लिख रहे हों, अटल बिहारी पर लिख रहे हों, नाना जी देशमुख पर लिख रहे हों या गोरक्षा की राजनीति पर—हर जगह उनकी नज़र बहुत पैनी और खिल्ली उड़ाने का अंदाज़ बहुत निर्मम है। उनकी एक बतकही ‘एक गोभक्त से भेंट’ को तो आज नुक्कड़ों पर सुनाने की ज़रूरत है—ज़ाहिर है, अपने रिस्क पर। बेहतर होगा कि ऐसा करने से पहले आप अपने किसी शौकिया साइकिलिस्ट दोस्त से पूरा जामा-जोड़ा उधार ले लें! वैसे मोटरसाइकिल वाले दोस्त से भी काम चल जायेगा, पर उसके पास सिर्फ़ सिर को बचाने का इंतज़ाम होगा, जबकि साइकिल वाले के पास सिर, कंधे, कलाईयां, टखने—सबको बचाने का इंतज़ाम रहता है।
कहने की ज़रूरत नहीं कि परसाई केवल अपने बिपरजॉयी और अवज्ञाकारी मिज़ाज के कारण ही हमारे समकालीन नहीं लगते, इसलिए भी लगते हैं कि उन्होंने उन ताक़तों को खूब आड़े हाथों लिया है जो किसी भी चिंतनशील व्यक्ति के लिए आज के भारत की सबसे बड़ी समस्या हैं।
आखिर में, यह कहना ज़रूरी है कि आज के पाठक को परसाई का लेखन कहीं भी समस्यामूलक न लगे, यह संभव नहीं। उन पहलुओं पर भी बात होनी चाहिए। मसलन, उनका स्त्री संबंधी दृष्टिकोण कई जगह आपको दिक़्क़ततलब लग सकता है। वे बहुत स्पष्ट रूप से स्त्री-पुरुष की बराबरी के पक्ष में हैं, लेकिन उनके स्त्री-मुक्ति के अर्थ की सपाटता कमला दास और अमृता प्रीतम की आत्मकथाओं पर की गयी टिप्पणी में साफ़ हो जाती है, और उसी से इस बात का भी उत्तर मिल जाता है कि स्त्री के पक्ष में होने के बावजूद क्यों उनकी बतकही में संबोध्य का दर्जा निहित रूप से सिर्फ़ पुरुष को मिला हुआ है। इन पहलुओं पर बात एक ही लेख की सीमा में संभव नहीं, इसलिए फिर कभी।
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परसाई जी की जिन रचनाओं और साक्षात्कारों के उद्धरण दिये गये हैं, वे परसाई रचनावली 2, 3, 5 और 6 ([1985] 2017, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली) में उपलब्ध हैं।