2022 में प्रकाशित राकेश बिहारी की कहानी ‘फांसी’ संभवतः मृत्युदंड से संबंधित बहस को संबोधित करती हिंदी की अकेली कहानी है। कहानी के केंद्र में फांसी देने के ख़ानदानी पेशे से जुड़ा एक चरित्र है। उसकी कश-म-कश में मौत की सज़ा के अनौचित्य का विमर्श अपनी पूरी जटिलता के साथ मौजूद है। कहानी का अंत अनौचित्य के इसी तीखे अहसास की चरम परिणति है।
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देशी घी में भिंगोकर रखे गये रस्से पर पके केले का लेप चढ़ाते हुए शंकर की पुतलियों में सहसा संजीत का चेहरा कौंधा और उसके कानों में सात वर्ष पुरानी उसकी मर्मभेदी चीख एक बार फिर से हरी हो गयी… उसने सोचा रस्से को वह चाहे जितना मुलायम कर ले, फंदा तो इससे फांसी का ही बनेगा… उसके हाथ खुद-ब-खुद गरदन की तरफ़ बढ़ चले जैसे अपने गिर्द कस रहे फंदे को वह नोच फेंकना चाहता हो… उसके रोम-रोम में कांटों की तेज़ चुभन-सी उठी और वह बेइंतहां तकलीफ़ से भर उठा।
कल रात देश के सबसे तेज चैनल को इंटरव्यू देकर घर लौटते हुए कितना खुश था वह! स्टूडियो से निकलकर जेब में हाथ डाल नोट गिनते हुए उसने खुद को आश्वस्त करने की कोशिश की थी। दो हजार के कुल पांच नोट थे। यानी उसके दो महीने की पगार। तीन चैनल वालों ने अपने प्राइम टाइम शो के लिए उससे संपर्क किया था। पर उसने सरकारी संविदाओं के ‘एल वन’ यानी लोएस्ट वन की नीति के विपरीत ‘एच वन’ यानी हाइएस्ट वन के फ़ॉर्मूले में विश्वास किया था। न्यूज़ एंकर के निर्देशों का पालन करते हुए उसने अपने आत्मविश्वास और निर्भीकता का भरसक प्रदर्शन किया था। पर आज सुबह, जब से मोबाइल पर उसने उस कार्यक्रम का वीडियो देखा है, उसकी धमनियों में दौड़ता रक्त पिघले हुए लोहे की तरह उबलता हुआ उसे आपादमस्तक बेचैन किये हुए है। अपनी जुबान से निकले शब्द और अपनी देह-मन की भाषा के बीच उग आयी फांकों को भला उससे ज़्यादा और कौन पहचान सकता है? अपने मुंह में किसी और की जुबान होने का यह अहसास बेहद डरावना और तकलीफ़देह था। उसे लगा उसका दम घुटा जा रहा है। उसके भीतर बिजली की गति से भी तेज़ रफ़्तार में कुछ घटा और देखते ही देखते ई रिक्शा लेकर कुछ ही देर में वह शहर के इकलौते वाटर पार्क के भीतर दाख़िल हो गया।
बाढ़ प्रभावित इलाक़े से होने के कारण उसकी परवरिश जलचरों की तरह हुई थी। इसलिए छोटे-से पूल में ट्यूब लेकर तैरते लोगों की भीड़ देखकर उसे पहले तो हैरत हुई, लेकिन अगले ही पल बिना कुछ सोचे-समझे अपने भीतर लगी आग को बुझाने वह भी उसमें कूद गया। पूल में आये अभी दस मिनट भी नहीं हुए थे कि पब्लिक एड्रैस सिस्टम पर एक तीखी-सी आवाज गूंजी- ‘रेन डांस का समय हो चुका है। सारे राइड्स बंद किये जा रहे हैं। आप सभी डांस फ्लोर की तरफ़ प्रस्थान करें।’ शंकर को न राइड्स का पता था, न रेन डांस का, वह पार्क के एक कोने से दूसरे कोने जाती भीड़ का हिस्सा हो गया। पानी की तेज़ और महीन बौछारों के बीच मटकते-थिरकते स्त्री-पुरुषों के साथ भीतर घुसते हुए एक अजीब-सा संकोच उसके ऊपर तारी था, लेकिन पलक झपकते ही भीड़ के रेले ने उसे धकेल कर डांस फ्लोर के बीचोंबीच पहुंचा दिया। तपती जेठ में सावन का यह आलम उसके लिए किसी आश्चर्यलोक से कम नहीं था। संगीत के शोर और पानी की बौछारों ने पूरे माहौल पर जैसे अनाधिकार क़ब्ज़ा कर लिया था। जाने उस हाल में भी कैसे किसी ने उसे पहचान लिया या यह सिर्फ़ उसका भ्रम था, कब उसके इर्द गिर्द लोगों ने घेरे लगाकर नाचना शुरू कर दिया, उसे पता ही नहीं चला। तभी उसे पिछली रात स्टूडियो में आत्मविश्वास की सीख देते न्यूज़ एंकर की छवि याद हो आयी और वह तमाम संकोचों से बाहर निकल भीड़ के बीच बेहिसाब नाचने लगा। डीजे की कानफाड़ू आवाज़ और तेज़ हो गयी थी… ‘मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए, मैं झंडू बाम हुई डार्लिंग तेरे लिए…’
वाटर पार्क से लौटते हुए बदनाम और झंडू बाम की बेमेल तुकबंदी लगातार उसके भीतर किसी हथौड़े की तरह चलती रही थी… कमरे में प्रवेश करने के बाद जैसे ही उसने लाईट ऑन किया, संजीत फिर से उसके सामने आ खड़ा हुआ… वह उसके दादा से लगातार अपने निर्दोष होने की दुहाई दे रहा था और दादा बिना उसके चेहरे की तरफ़ देखे यंत्रवत अपने काम में लगे हुए थे। हाथ-पैर बांधे जाने के पहले संजीत की आवाज़ में गिड़गिड़ाहट थी, आंखों में आंसुओं का सैलाब था… वह अपनी बूढ़ी मां और बिना मां की अपनी दो बेटियों के जीवन का वास्ता दे रहा था… मौत को ठीक सामने कुछ क़दम की दूरी पर खड़ा देख वह अपने होशोहवास इस तरह खो बैठा था कि उसे यह भी इल्म नहीं रहा कि सामने खड़ा शख्स महज़ हुक्म का गुलाम है… शंकर से उसकी विकलता देखी नहीं जा रही थी, उसने सायास अपना चेहरा दूसरी तरफ़ कर लिया… संजीत को जब अपनी सारी कोशिशें नाकाम-सी होती दिखीं, अचानक ही वह शांत हो गया… उस वक्त उसकी पथराई आंखों में खौफ़ की जो चुप्पी ठहर आयी थी, वह शंकर की पीठ में बेतरह चुभ रही थी… दीवारों से टकराकर शब्द किस तरह गूंजते हैं, वह खूब समझता था, पर चुप्पियों की टकराहट से गूंजने वाली आवाज़ इतनी भयावह होती है, वह पहली बार महसूस कर रहा था। दादा जब संजीत के पास पहुंचे, उसने लड़खड़ाती हुई-सी आवाज़ में उनसे कहा था- ‘बिस्मिल…और अशफाक जैसे…देशभक्तों की जान…तुम्हारे परदादा ने ही…ली थी न…?’ जाने उस वक़्त संजीत की आवाज़ में उलाहना था या तंज… दादा ने जैसे कुछ सुना ही नहीं था, लेकिन ऊंची दीवारों के बीच पसरा वह खौफ़नाक मौन इतना घना था कि संजीत की वह मरियल-सी आवाज़ भी शंकर के अंदरख़ाने में दर्ज हो गई थी… सहमते-सहमते उसने एक बार फिर अपना रुख सामने की तरफ़ किया था… उस वक्त संजीत की आंखों में नाउम्मीदी का जो अंधेरा खौल रहा था, शंकर के कमरे में लगे एल ई डी बल्ब की रोशनी में आज एक बार फिर से रौशन हो उठा था…
उस दिन घर लौटकर शंकर ने दादा से पूछा था, ‘संजीत… सही कहा रहा था क्या? क्या राम प्रसाद बिस्मिल…और अशफाकउल्लाह खां को फांसी हमारे…’
‘नहीं। कुछ लोग हमें और हमारे पेशे को बदनाम करने के लिए ऐसी बात करते हैं।’
दादा की आवाज़ में एक ख़ास तरह की तटस्थता या उससे भी ज़्यादा कठोरता-सी थी। उन्होंने कुछ और नहीं कहा, पर शंकर के नाजुक मन से वह बात गयी नहीं। बहुत बाद में किसी किताब में यह पढ़ने पर कि उन दोनों को एक ही दिन, लेकिन अलग-अलग जेलों में फांसी दी गयी थी, उसका मन थोड़ा हल्का हुआ था। पर आज संजीत की स्मृति के साथ ही उसका कहा हर शब्द किसी घाव की तरह उसके गस्से-गस्से में फिर से टभकने लगा है… आज देश के किसी भी जेल में फांसी देनी हो, हमारे ही परिवार को बुलाया जाता है। मेरे परदादा तीन भाई थे, यह भी तो संभव है कि एक भाई गोरखपुर…और दूसरे भाई फ़ैज़ाबाद गये हों। संजीत ने तो दो के ही नाम लिये थे। शंकर ने सोचा, उस दिन नैनी जेल में…ठाकुर रोशन सिंह को…कहीं उसके परदादा के तीसरे भाई ने…अगले ही पल शंकर ने खुद को झटकने की कोशिश की थी। जावेद आतंकवादी है, उसने कितने बेगुनाहों की जान ली है। और तो और, उसने खुद भी अपना गुनाह कुबूल कर लिया है। दादा ने बिलकुल ठीक कहा था…उसे इन बेवजह की बातों में एकदम नहीं उलझना चाहिए। बल्कि जावेद को फांसी के फंदे पर लटकाकर वह अपने ख़ानदान पर लगे बदनामी के दागों को भी धो सकता है। उसे न्यूज़ चैनलों पर चलने वाली पट्टियों में दिनरात दिखाये जानेवाले उन सैकड़ों-हज़ारों संदेशों की याद भी हो आयी जिनमें देश के कोने कोने से जावेद की फांसी की मांगें दिखायी जाती हैं। उसने मन ही मन फांसी देने के अभ्यास और अन्य तैयारियों की योजना बनानी शुरू कर दी। पूरे दिन की यंत्रणादायक उदासी के बाद जब शंकर बिस्तर पर गया, उसके पोर-पोर में समाये दर्द पर देशभक्ति का जज़्बा किसी झंडू बाम की तरह असर कर रहा था।
फांसी देना शंकर का ख़ानदानी पेशा है। कहते हैं, सात पुश्तों से भी पहले से उसके ख़ानदान के लोग ही देश के अलग-अलग जेलों में फांसी का फंदा खींचते आ रहे हैं। पहले शंकर को बिस्तर पर जाते ही नींद आ जाती थी, पर जबसे जावेद की फांसी का दिन तय हुआ है, कभी उत्साह से तो कभी भय से उसकी आंखें जलने लगती हैं, सर भारी हो जाता है और नींद आंखों से रूठकर मीलों दूर किसी अज्ञातवास पर निकल जाती है। घंटों की मशक्कत के बाद मुश्किल से तीन-चार घंटे ही सो पाता है वह…
शंकर के पप्पा दशरथ पासवान नहीं चाहते थे कि वह भी इसी ख़ानदानी पेशे में आये। वे पढ़ा-लिखाकर उसे जज बनाना चाहते थे। उन्होंने अपने जीवन की तीसरी और आखिरी फांसी सामूहिक हत्या के एक अपराधी को दी थी। क्या संयोग था कि उस अपराधी का नाम भी दशरथ ही था। जाने यह नाम की समानता से उपजा कोई सहज मैत्री भाव था या कुछ और, उन दिनों उसके पप्पा अक्सर उदास रहते। किसी को नहीं बताने की हिदायत के साथ एक दिन उन्होंने शंकर से कहा था कि वे हर रोज भगवान से यह प्रार्थना करते हैं कि दशरथ की दया याचिका मंजूर हो जाये।
दशरथ को काल कोठरी में रखा गया था। पूरे दिन में सिर्फ़ बीस मिनटों के लिए उसे सूरज की रोशनी में लाया जाता। उसकी आंखों ने अंधेरे से ऐसी दोस्ती कर ली थी कि रोशनी में आने के बाद पांच-सात मिनट तक बेतरह मिचमिचाती रहतीं। किसी तरह वह रोशनी से नज़रें मिलाने लायक हो ही पाता कि उसका वक्त समाप्त हो जाता और वह फिर से उसी काल-कोठरी में बंद कर दिया जाता।
दशरथ के जीवन में अंधरे और रोशनी का यह तकलीफ़देह खेल पूरे सात साल तीन महीने और छब्बीस दिनों तक चलता रहा और एक दिन शंकर के पप्पा की सारी प्रार्थनाएं बेअसर हो गयीं।
उस रात उन्होंने खाना भी नहीं खाया था। स्टील की चादर से बने घर की छत को घंटों निहारते शंकर के पप्पा के दिलोदिमाग़ पर उस दिन दशरथ की आंखों में सालों से ठहरी हुई सूनी उदासी छायी हुई थी। जब उससे उसकी अंतिम इच्छा पूछी गयी, उसने अपनी डायरी को जेल के पुस्तकालय में रखने की ख्व़ाहिश ज़ाहिर की थी… जेलर के निजी सहायक ने उनलोगों से बाद में बताया था कि डायरी में दशरथ ने लिखा है कि उसे क्षणिक उत्तेजना में किये गये अपने अपराध का बहुत पछतावा था। यदि उसकी दया याचिका मंजूर हो जाती तो वह आजीवन किसी अनाथाश्रम को अपनी सेवा देकर अपने किये का प्रायश्चित करना चाहता था। उस रात दशरथ के भीषण अपराध और उसके पछतावे की बातें किसी झूले की पेंग की तरह उनके भीतर उठती-गिरती रहीं। शंकर के पप्पा तर्क-वितर्क के किसी भीषण बीहड़ में जा फंसे थे… सज़ा आख़िर क्यों दी जाती है- अपराधी से बदला लेने के लिए या उसके अंतस को बदलने के लिए? यदि उसने अपनी डायरी में सचमुच कुछ वैसा ही लिखा था जैसा जेल वाले साहब बता रहे थे, तो वह दशरथ और इंसानियत दोनों का अपराधी है… शंकर के पप्पा कुछ दिनों से घर के बाहर बने कमरे में अकेले ही सोया करते थे। उस दिन देर रात या भोर में उन्होंने कीटनाशक पीकर आत्महत्या करने की कोशिश की थी। वो तो सुबह-सुबह घर में झाड़ू लगाने गयी मां ने उन्हें बिस्तर पर छटपटाते देख लिया, वरना…मां की वह हृदयबेधी चीख जो उस दिन घर के दरोदीवार में अटकी, सो आज भी उसी तरह अटकी हुई है।
पप्पा उस दिन तो किसी तरह बच गये, पर कोई तीन साल बाद एक रात डुब्बा घाट पर टूटे हुए लकड़ी का पुल पार करते समय, अचानक ही नदी में आयी तेज़ बाढ़ उन्हें अपने साथ जाने कहां बहा ले गयी…
पप्पा क्या गये, उनके साथ उनके वे सारे सपने भी चले गये… उनकी तेरहवीं के ठीक सत्रहवें दिन, यानी उनके बाढ़ में बह जाने के ठीक एक महीने बाद उन्हें संजीत को फांसी देनी थी। इतने कम समय में उनका वारिस खोजना बहुत कठिन था। नतीजतन शासन ने एक बार फिर से कोई दस साल पहले अवकाश ग्रहण कर चुके उसके दादा चरित्तर पासवान पर भरोसा जताया था। उस दिन परदादा गनेशी पासवान और लकड़दादा लच्छू पासवान की पीली पड़ चुकी धुंधली-सी तस्वीर के आगे हाथ जोड़कर दादा उसे भी अपने साथ जेल ले गये थे। पीढ़ी-दर-पीढ़ी फांसी देने की ट्रेनिंग का यह सिलसिला यूं ही चला आ रहा था… जाने वह पप्पा के असमय चले जाने के शोक से उपजी उदासी थी या बुढ़ापे में दादा के कंधे पर आ पड़ी परिवार की ज़िम्मेवारी का अहसास, किसी अनाम विवशता से बंधा शंकर बिना किसी प्रतिरोध के उनके साथ हो लिया था…
उस दिन की याद आते ही संजीत के कातर चेहरे की कई-कई प्रतिछवियां कमरे में फैले अंधेरे में अचानक ही चमक उठीं। शंकर ने सोचा, बाढ़ में बहते पिता को क्या बारिश वाली वह आख़िरी रात इतनी ही भयानक लगी होगी? डुब्बा पुल वर्षों से टूटा हुआ था। शहर से आनेवाली बसें उसी पार रह जाया करती थीं और लोग बांस की चचरी के सहारे पैदल या फिर पानी बढ़ जाने पर नाव से नदी पार किया करते थे… वह उस दिन की आख़िरी बस थी। वे अकेले नहीं थे। उनके साथ तेईस और लोग थे। लेकिन अचनाक आयी उस बाढ़ में…कोई और नहीं डूबा… सिर्फ़ और सिर्फ़ उसके पप्पा ही… शंकर की कनपटी की नसें तेजी से चटकने लगीं… क्या सचमुच वह एक दुर्घटना भर थी? या पप्पा ने खुद ही… अंधेरे कमरे में चमकती संजीत की प्रतिछवियों के बीच शंकर को पप्पा के चेहरे जैसा मुखौटा लगाये कई-कई आकृतियां दिखायी पड़ने लगीं। वह इस अंधेरे को चीरकर बाहर निकल आने की कोशिश कर रहा था… उसने लड़खड़ाते क़दमों से उठकर लाइट ऑन करने की कोशिश की, पर अंधेरा इतना गहरा था कि स्वीच बोर्ड ढूंढती उसकी उंगलियां बार-बार दीवारों से टकराती रहीं…संजीत की आख़िरी चीख जैसे अब भी दीवारों से टकराकर उस तक लौट रही थी… भीतर से लहूलुहान शंकर ने सोचा, अंधेरा दुनिया का सबसे बड़ा अभिशाप है… कुछ घंटे पूर्व उसके चेहरे पर आ चिपके देशप्रेम का नूर जाने कहां हवा हो चुका था… भय, संशय और दुविधा की स्याह ज़र्द परछाइयों ने फिलहाल उसके पूरे वजूद पर डेरा डाल दिया था…
मीडिया द्वारा सूत्रों के हवाले से प्रसारित ख़बरों के अनुसार उसकी शिनाख्त राष्ट्रपति भवन पर हमला करने की योजना बनानेवाले गिरोह के मास्टरमाइंड की तरह हुई थी। शंकर को जब पता चला कि जावेद ने कोर्ट में अपना गुनाह कुबूल कर लिया है वाली जो ख़बर व्हाट्सएप पर चल रही थी, झूठी है, तो उसका बचा-खुचा उत्साह भी जाता रहा। लेकिन यह सच अब भी मौजूद था कि तमाम सबूत और गवाहों के बयान के आधार पर ही माननीय उच्च न्यायालय ने उसे फांसी की सज़ा सुनायी थी। कुछ प्रगतिशील संगठन संयुक्त रूप से उसकी रिहाई के लिए हस्ताक्षर अभियान चला रहे थे। उनके अनुसार जावेद बेक़सूर था…उसका कश्मीरी होना और पर्शियन पढ़ाना ही उसका असली गुनाह था। सत्याग्रह चौक पर कुछ लोग पिछले तीन-चार वर्षों से उसकी रिहाई के लिए बारी-बारी से शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन भी कर रहे थे। गाहे बगाहे कुछ लेखक संगठनों की तरफ से संयुक्त बयान भी जारी किया जाता था। लेकिन कुल मिलाकर यह सब किसी रस्मअदायगी से ज़्यादा की हैसियत नहीं रखता था।
हत्या, बलात्कार जैसे संगीन मामलों में क़ैद अपराधी भी खुद को जावेद की तुलना में विशिष्ट और बेहतर मानते थे। उन्होंने चाहे जो भी किया हो, उसकी तरह देश से गद्दारी तो नहीं की थी। जब भी मौक़ा मिलता, वे जेल में उसे देशद्रोही कहना नहीं भूलते थे। जावेद खुद को अपराधी के बजाय एक राजनैतिक क़ैदी मानता था, इस आधार पर उसने खुद को अन्य क़ैदियों से अलग रखे जाने की मांग जेल प्रशासन से की थी, पर उसकी यह मांग ख़ारिज कर दी गयी। कुछ दिनों बाद जब भोजन वितरण के दौरान सामूहिक बलात्कार के आरोप में नामज़द किसी क़ैदी ने फ़र्श पर लगे टाइल्स के टुकड़े से जावेद पर हमला किया, उसे एक अलग कक्ष में शिफ़्ट कर दिया गया था। नयी कोठरी का अकेलापन जावेद के लिए एक नयी समस्या थी। पूरा-पूरा दिन बिना किसी हमजुबान को देखे बिता देना कितना तकलीफ़देह हो सकता है, उसका स्वाद जावेद से बेहतर कोई और नहीं जान सकता था। लोहे के बड़े दरवाज़े के बीच एक छोटी-सी खिड़की नियत समय पर खुलती और दास्ताना पहने एक जोड़ा हाथ उसका खाना अंदर सरका देता। खिड़की का ताला फिर बंद हो जाता। जावेद बड़ी शिद्दत से चाहता था कि कभी उन हाथों का चेहरा भी देख सके, लेकिन खिड़की की संरचना में मौजूद लौह-पट्टिका उसे इसकी इजाज़त नहीं देती थी। अलबत्ता खिड़की खुलने और बंद होने के दौरान होनेवाली आवाज़ उसके जीवन में व्याप्त सन्नाटे को हर रोज़ उस नियत समय पर एक ख़ास अंदाज़ में ज़रूर तोड़ती थी। खिड़की खुलने और बंद होने की वह आवाज़ किसी परिचित करुण संगीत की तरह जावेद के जीवन का स्थायी हिस्सा हो गयी थी। मेडिकल जांच या किसी अन्य प्रशासनिक कार्रवाई के लिए जब कभी उस कोठरी में लगा लोहे का दरवाज़ा खुलता, जावेद के भीतर दुबकी आशा और उम्मीद की गौरैया सहमी सी अपने पंख खोलती- शायद उसकी दया याचिका मंजूर कर ली गयी हो…पर ऐसी कोई सुगबुगाहट न देख, उम्मीद की वह गौरैया पुनः निराशा और उदासी की उसी खोल में दुबक जाती।
दया याचिका की मंजूरी के इंतज़ार में बीत रहे उन दिनों का लमहा-लमहा किसी फांसी से कम भयावह और ख़तरनाक नहीं था जावेद के लिए। हर सांस के साथ अंदर-बाहर जाती हवा में जैसे ज़हर का तीखापन घुला होता। गहन अवसाद और गहरी पीड़ा के उन तकलीफ़देह लमहों से ऊबकर कई बार वह सोचता, हर घड़ी की इस मौत से ज़्यादा अच्छा तो यह होता कि उसे बिना किसी देरी के तुरंत फांसी पर लटका दिया जाता। उन्हीं दिनों उसकी दोस्ती लंबी पूंछ वाली एक जंगली छिपकली से हो गयी थी। घरों में पायी जानेवाली आम छिपकलियों की तुलना में उसकी लंबाई दो से तीन गुणा अधिक थी। पहली बार जब जावेद ने उसे देखा, पल भर को डर-सा गया था। अपनी पूंछ खड़ी किये वह छिपकली किसी कीड़े को अपना ग्रास बनाने के लिए एक चौकन्ने आक्रमण की मुद्रा में थी। नीले और हरे रंगों के सहमेल से बने एक ख़ास रंग की उसकी आंखों में एक अजीब सी बनैली चमक थी। शायद उसे पता चल गया था कि जावेद उसकी तरफ़ देख रहा है…एक सेकेंड के सौवें हिस्से भर के लिए उसका ध्यान बंटा होगा कि उसका शिकार उसकी पहुंच से छिटक कर दूर चला गया। जावेद उस वक़्त भोजन कर रहा था। जाने उसे क्या सूझी, उसने बिना किसी देरी के रोटी का एक टुकड़ा उस दीवार की तरफ़ उछाल दिया। जितनी जल्दी से जावेद ने रोटी का टुकड़ा उछाला था, उससे भी ज़्यादा फुर्ती से छिपकली ने उसे लपक लिया। जाने क्या घटा था उस पल कि कुछ ही मिनट पहले किसी भयानक अजनबी की तरह दिखी वह छिपकली पलक झपकते ही जावेद की दोस्त हो गयी। उसके बाद से बिना नागा, खाने के वक़्त दोनों शाम वह समय से जावेद के कक्ष में आती, जावेद अपने हिस्से की आधी रोटी उसकी तरफ बढ़ा देता और वह बड़े मज़े से उसे खा लेने के बाद एक ख़ास तरह की आवाज़ निकालते हुए कोठरी से बाहर चली जाती। खिड़की से निकलने वाले उस नियमित करुण संगीत के बाद यह दूसरी आवाज़ थी जो अनायास ही उसके जीवन में शामिल हो गयी थी। हर दिन जावेद चुपचाप अपनी उस इकलौती दोस्त को खाते हुए देखता और उसकी ख़ास आवाज़ का इंतज़ार करता। उस आवाज़ को सुन उसे यह अहसास होता था मानो वह भोजन देने के लिए उसका शुक्रिया अदा कर रही है। देखते ही देखते छिपकली की आंखों की बनैली चमक में जावेद को अपने लिए एक ख़ास तरह की आत्मीयता महसूस होने लगी थी। उन विशेष पलों में जावेद सबसे ज़्यादा उम्मीदों से भरा होता और उसे लगता, उसकी दया याचिका ज़रूर मंजूर कर ली जायेगी।
ऐसी ही किसी एक रात खिड़की से अपनी थाली लेकर वह वापस मुड़ा ही था कि उसके कानों में एक सख्त़-सी आवाज़ गूंजी थी- ‘यह तुम्हारा आख़िरी खाना है। कल सुबह सात बजकर पच्चीस मिनट पर तुम्हें फांसी दी जाएगी।’ जावेद को लगा, अचानक ही किसी ने उसके नीचे से धरती और ऊपर से आसमान खींच लिया है। उसे दुख से ज़्यादा आश्चर्य हुआ था कि किसी ने आज तक उसकी याचिका के ख़ारिज होने की ख़बर भी नहीं दी। अगले ही पल मौत को इतना क़रीब देख वह दहशत से भर उठा। उसे लगा, कई सालों से उसके कमरे में दिनरात जलने वाला वह बल्ब जैसे अचानक फ्यूज़ हो गया हो। उसे कहीं इस बात का अंदेशा तो था कि उसकी दया याचिका ख़ारिज हो सकती है, पर यह इस तरह बिना आवाज़ होगा, उसने सपने में भी नहीं सोचा था…भय और दहशत के उन गाढ़े क्षणों में जावेद ने सोचा, ऊपर से क्रूर दिखने वाली यह व्यवस्था दरअसल भीतर से कायर और डरी हुई है। छिपकली हमेशा की तरह उस रात भी हाज़िर हुई थी…जावेद की भूख अचानक मर-सी गयी, लेकिन वह अपनी इकलौती दोस्त को कैसे भूखी रखता? उसने एक फीकी सी मुस्कुराहट में लपेट आधी रोटी का एक टुकड़ा उसकी तरफ़ सरका दिया…छिपकली ने कोई फुर्ती नहीं दिखायी…रोटी का वह टुकड़ा बारी-बारी से कभी छिपकली तो कभी जावेद को निहारता रहा…कोठरी की बेरौनक दीवारों ने महसूस किया कि छिपकली की गरदन का रंग जो कल तक गहरा लाल हुआ करता था, आज स्याह हो गया है, आंखों में चमक की जगह एक विरल-सी उदासी तैर रही है और उनकी जड़ों से कोई गाढ़ा-सा द्रव्य निकल रहा है…जबसे जावेद इस कक्ष में आया है, यह यहां की सबसे सघन चुप्पी का पल था…उस रात न जावेद ने खाया न छिपकली ने…दोनों बेआवाज़ एक दूसरे को देर तक देखते रहे…
शंकर को दिन में ही बुला लिया गया था। रात के खाने के बाद उसने ठीक से फंदे की जांच की… जेल अधिकारियों के साथ जावेद की कोठरी से लेकर फांसी की तख्ते तक जानेवाले गलियारे का बारीक मुआयना किया… जब वह बिस्तर पर आया, इंडिपेंडेंट इंडिया का स्टार ऐंकर प्रणव भूस्वामी किसी सनके हुए हाथी की तरह चिंघाड़ रहा था… उसके चैनल ने ही सबसे पहले यह ख़बर दी थी कि असोशिएट प्रोफेसर की खोल में घूमते जावेद के तार पाकिस्तान से जुड़े हैं… इस बात के लिए अपनी और अपने चैनल की पीठ ठोंकता भूस्वामी अपने दर्शकों से शंकर का परिचय कराते हुए उसे देश की भावनाओं का सम्मान करनेवाले सबसे बड़े राष्ट्रभक्त की तरह पेश कर रहा था… टेलीविज़न के परदे पर लहकते आग के एनीमेशन के ठीक नीचे चल रही पट्टी पर अपने लिए शाबासी और शुभकामनाओं के दर्जनों संदेश पढ़ते हुए शंकर के भीतर एक दहशत की बिजली दौड़ गयी… उसकी आंखें आज हमेशा से ज़्यादा जल रही थीं, रोज ही भारी रहनेवाला सर बेहिसाब दर्द से फटा जा रहा था, कनपटी की नसें किसी धौंकनी की तरह तेज़-तेज़ चल रही थीं… तकलीफ़ और यंत्रणा से भीगे आर्द स्वरों में उसने नींद को आवाज़ देनी चाही… दूर खड़ा एक सिपाही लगातार उसकी तरफ़ देख रहा था… जाने वह उसे देख रहा था या उस पर नज़र रख रहा था…शंकर की आवाज़ उसके गले में ही घुट कर रह गयी…
देर रात खूब तेज़ बारिश हुई, शंकर को ठंड लग रही थी… वह बहुत देर से पेशाब दबाये बिस्तर में सिकुड़ा पड़ा था… कोई तीन बजे जब उसके बर्दाश्त से बाहर होने लगा, वह बिस्तर से उठा… तेज़ क़दमों से बाथरूम की तरफ़ लगभग भागते हुए उसकी नज़र एक बार फिर कॉरीडोर में चल रहे टेलीविज़न पर गयी… नींद और खून सनी आंखों वाला प्रणव भूस्वामी अपनी बुझी हुई आवाज़ में एक न्यूज़ ब्रेक कर रहा था…
‘अभी-अभी ख़बर मिली है कि सर्वोच्च न्यायालय की एक विशेष बेंच ने खूंखार आतंकवादी जावेद को कल सुबह दी जानेवाली फांसी की सज़ा स्थगित कर दी है। सूत्रों से पता चला है कि जावेद को उसकी दया याचिका ख़ारिज होने की आधिकारिक जानकारी नहीं दी गयी थी। इसी कारण सुप्रीम कोर्ट ने उसकी फांसी पर यह अस्थायी रोक लगायी है। देशभक्त जनता का राष्ट्र के लिए इंसाफ़ का इंतज़ार कुछ और लंबा हो गया है…’
टेलीविज़न की आवाज़ यूरिनल तक साफ़-साफ़ सुनायी पड़ रही थी… पेशाब के दबाव से मुक्त होते शंकर की शिराओं में उस वक़्त एक ख़ास तरह का सुकून उतर रहा था… उसे धीमी आवाज़ में कही गयी पप्पा की बात याद हो आयी– ‘किसी को बताना मत, मैं हर रोज़ भगवान से प्रार्थना करता हूं कि दशरथ की दया याचिका मंजूर हो जाये।’ पप्पा की प्रार्थना तो स्वीकार नहीं हुई थी, पर जाने जावेद के हक़ में आज किसकी दुआ कुबूल हुई है… वह इस बात पर अभी बिलकुल नहीं सोचना चाहता था कि जावेद की फांसी अस्थायी रूप से स्थगित की गयी है।
जावेद प्रकरण मीडिया में चौबीसों घंटे छाया हुआ था। हर चैनल जैसे देशभक्ति का दरिया हुआ जाता था…राष्ट्रवाद की उत्तेजना में आकंठ भरा हुआ। हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के वकीलों और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों का बाज़ार तो ऐसे मौक़ों पर पहले से ही गर्म हुआ करता था, लेकिन इस बार न्यूज़ चैनलों ने अपनी स्ट्रेटजी बदल डाली थी। शंकर किसी हीरो की तरह ख़बरिया चैनलों के रास्ते लोगों के ड्राइंग रूम तक उतार दिया गया था। हर टेलीविज़न चैनल वाले उसे अपने प्राइम टाइम शो में बुलाना चाहते। शुरुआत में तो वह खुशी-खुशी किसी भी चैनल के बुलावे पर चला जाता, पर जैसे ही उसे अपने महत्त्व का पता चला, उसने चैनलों पर जाने के लिए फ़ीस लेना शुरू कर दिया। चैनल और कार्यक्रम के समय के अनुसार यह फ़ीस एक हज़ार रुपये से पांच हज़ार रुपये तक की होती। प्राइम टाइम का रेट सबसे ऊंचा था। कहीं वह अपने पुरखों की कहानी सुनाता तो कहीं फांसी की सज़ा कैसे दी जाती है, इसका वर्णन करता…कहीं अपनी संविदा वाली नौकरी और मामूली पगार का दुख बयान करता तो कहीं पप्पा और दादा से सुने जेल और फांसी के क़िस्से सुनाता… कमाल की बात तो यह थी कि अकेले में अक्सर ही दुविधाओं, आशंकाओं से घिरा रहनेवाला शंकर कैमरे पर बोलते हुए अमूमन अपने ही विरोधी की भूमिका अख्तियार कर लेता। पैनल डिस्कशन के उलट उसका शो एक्सक्लूसिव और सोलो हुआ करता था। जब दादा, परदादा के क़िस्से कम पड़ने लगे, शंकर ने कहानियां गढ़नी भी शुरू कर दी थी…
स्टूडियो में आत्मविश्वास से लबालब भरा शंकर घर पहुंचने के बाद देर रात तक अपनी टीवी वाली छवि से लड़ता, झगड़ता, जिरहें करता… फ़ीस के लिफ़ाफ़े उसे लुभाते, लेकिन इस बात पर कहीं उसे कोफ़्त भी होती कि दिन प्रति दिन वह सरकस का जोकर हुआ जा रहा है… खुद की तकलीफ़ों को नकार, खुद को खुद के ही ख़िलाफ़ खड़ा करके दुनिया का यूं मनोरंजन करना कोई आसान खेल नहीं था… शंकर हर नये दिन कुछ और टूटता… उसके भीतर हर रात एक दार्शनिक पैदा होता और हर अगले दिन वह दार्शनिक किसी न्यूज़ चैनल के स्टूडियो में दम तोड़ देता…
रात के अंधेरे में उसका यह विश्वास हर रोज़ रौशन होता कि न्यायालयों के फ़ैसले सच के हक़ में नहीं, बल्कि सच के पक्ष में दिखनेवाले सबूत और गवाहों के बयानों के आधार पर दिये जाते हैं… बिना सबूत और गवाह के यहां बेगुनाह भी क़सूरवार है… ऐसे में किसी फ़ैसले के शतप्रतिशत सही होने की गारंटी भला कौन ले सकता है… खुद से होनेवाली इन जिरहों के बीच अक्सर ही उसे संजीत का सपना आता… सपने में संजीत से मिलने के बाद उसे पप्पा की याद आती… उनका डुब्बा पुल में डूबना याद आता और वह अक्सर सोचता, जब फ़ैसले सबूत और बयान से ही तय होते हैं तो उनमें सुधार की गुंजाइश भी होनी चाहिए… लेकिन फांसी का फंदा तो किसी संशोधन के लिए कोई जगह नहीं देता… तर्क वितर्क के इन बीहड़ों से गुजरते हुए पप्पा किसी अदृश्य उपस्थिति की तरह लगातार उसके साथ होते… एक रात सपने में उसने पप्पा से पूछा था- ‘यदि फांसी की सज़ा इतनी ही सही और ज़रूरी है तो क्यों नहीं जज खुद फंदा खीच देते हैं? हम जैसे निरीह और मासूम, जिन्हें सच का लेश मात्र भी पता नहीं, को किसी की हत्या में क्यों शामिल किया जाता है?’ इससे पहले कि शंकर के पप्पा कुछ बोलते उसकी नींद खुल गयी… उसे लगा वह प्रश्नों की एक ऐसी शरशय्या पर लेटा है जहां वह चाहकर भी करवट नहीं बदल सकता…
शंकर के सारे प्रश्न उसके भीतर उठते और उसके भीतर ही दफ़्न हो जाते… उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि अपने भीतर खलबलाते इन सवालों को जुबान तक ला पाता… वैसे भी जावेद का मामला कुछ ज़्यादा ही संवेदनशील था। देश की सुरक्षा, देशप्रेम और राष्ट्रवाद जैसे शब्द लोगों पर किसी अफ़ीम का सा असर करते… इससे पहले कि सुप्रीम कोर्ट उसकी फांसी की अगली तारीख़ तय करती, हर चौक-चौराहों और टीवी चैनलों पर हर रोज़ जाने कितनी-कितनी बार उसे फांसी पर चढ़ाया जा चुका था।
पूरे सत्ताईस दिनों बाद अंततः सुप्रीम कोर्ट ने जावेद की फांसी की नयी तारीख़ तय कर दी। उस दिन ‘सी न्यूज़’ चैनल ने, जिसका स्वामी सत्ताधारी पार्टी का एक सांसद था, सारी हदें पार कर दीं। उसने जावेद की आगामी फांसी पर एक पूरा ऐनिमेशन शो ही कर डाला। अपने ख़ास कार्यक्रम ‘ज़ीरो टॉलरेंस ऑन नेशनल सेक्युरिटी’ को विश्वसनीय बनाने के लिए उन्होंने उस दिन शंकर को ख़ास तौर पर स्टूडियो में बुला रखा था।
तीस जनवरी 2021 की सुबह साढ़े पांच बजे जब जावेद को फांसी की तख्ते तक लाने के लिए उसकी कोठरी का दरवाजा खोला गया, उसकी इकलौती दोस्त उसी दीवार से चिपकी हुई थी… दरवाज़े के बाहर क़दम रखने से पहले उसकी सूनी निगाहों ने छिपकली की तरफ़ देखा… पलभर को छिपकली की देह में एक तेज़ हरकत हुई और वह गलियारे में सरपट दौड़ गयी…
शंकर ने पिछली रात जावेद के वज़न के बराबर की बोरी को फंदे से लटकाकर उसकी मज़बूती परख ली थी…
अपनी आख़िरी इच्छा बताने के पहले जावेद ने एक प्याली चीनी वाली चाय और एक टुकड़ा कश्मीरी सेब की फरमाइश की… पिछले सात वर्षों से वह डायबिटीज का मरीज़ था, उसे चीनी खाने की सख्त मनाही थी… उसकी बीवी डॉक्टर के कहे हर्फ़-हर्फ़ का पालन करती थी… चाय की प्याली होंठों से लगाने के पहले जावेद ने मन ही मन अपने डॉक्टर और बीवी से माफ़ी मांगी…और सेब का वह ताज़ा कटा टुकड़ा सामने वाली दीवार की तरफ़ उछाल दिया… दीवार से चिपकी उसकी इकलौती दोस्त ने पलक झपकते ही कश्मीरी सेब का वह टुकड़ा लपक लिया था…
जावेद को नहीं मालूम था कि उसके जाने के बाद उसकी अंतिम इच्छा की कौन और कितनी क़द्र करेगा…पर उसने बहुत यक़ीन के साथ यह रस्म भी निभाया… ‘मेरी कब्र पर एक पत्थर लगाकर उस पर मेरे ये आख़िरी अल्फ़ाज़ लिखवा सकें तो मेहरबानी होगी- “मैं जावेद, बेगुनाह था”…’
जावेद की अंतिम इच्छा सुनकर जेलर की सांसें एक बार को उसक फेफड़े में अटक गयीं… लेकिन अगले ही पल एक ख़ास तरह की कुटिलता के साथ मुस्कुराते हुए उसने शंकर की तरफ़ इशारा किया था…
जावेद को फांसी के तख्ते तक लाया गया…जेल के दो सिपाहियों की मदद से उसके हाथ पैर बांधे गये…
फांसी देने का शंकर का यह पहला अनुभव था… उसने खुद को सख्त़ कर लिया था… उसके जेहन में उस वक़्त देशभक्ति के जज़्बे में डूबे प्रणव भूस्वामी चेहरा था… उसने मन ही मन खुद की पीठ थपथपायी- आज भगवान ने उसे अपने ख़ानदान पर लगे बदनामी के दाग़ को धोने का बहुत बड़ा मौक़ा दिया है…
जावेद के चेहरे को काली टोपी से ढंकते हुए शंकर उसके कानों में बुदबुदाया… ‘मुझे माफ करना…मैं अपनी ड्यूटी से बंधा हूं…’
घड़ी की सुइयों ने जैसे ही सात बजकर चौबीस मिनट और पचपन सेकेंड का वक़्त बताया, जेलर ने एक बार फिर शंकर की तरफ़ इशारा किया… शंकर ने आंखें बंद कीं और जी को कड़ा कर लिया…उसने उंगलियां लीवर की तरफ बढ़ायी ही थी कि उसकी शिराओं में नाउम्मीदी और दहशत से सीझे संजीत की वही भयावह और ठंडी चुप्पी उतर आयी… पल भर को पप्पा और दशरथ का चेहरा भी कौंधा और फिर सबकुछ धुआं-धुआं सा हो गया…
सबकी निगाहें शंकर की ही तरफ़ देख रही थीं… उसकी उंगलियां अब भी लीवर पर थीं… जेलर एक अजीब-सी खिसियाहट के साथ उसे लगातार इशारे कर रहा था… उसने लीवर पर दबाव बनाने की कोशिश की…पर लगा जैसे उसकी उंगलियों की सारी ताक़त किसी ने निचोड़ ली है… सेकेंड वाली सुई बारह से निकल कर तीन…चार…और पांच के निशान तक पहुंच गयी…लेकिन शंकर लीवर नहीं खींच सका…
जेलर के निर्देश पर, जावेद के हाथ-पैर बाँधेने वाले सिपाहियों ने शंकर को अपनी गिरफ़्त में ले लिया था।
फांसी के वक़्त लीवर न खींच पाने की, देश के इतिहास में यह पहली घटना थी… जावेद को फिर से उसी कोठरी में भेज दिया गया… शंकर का क्या होगा, किसी को ठीक-ठीक नहीं पता था… टीवी चैनलों का बाज़ार एक बार फिर से रौशन हो उठा था… क़ानून के तथाकथित विशेषज्ञ चैनल-चैनल घूमकर अलग-अलग राय दे रहे थे… कुछ राष्ट्रवादी संगठनों ने देश के सभी ज़िला मुख्यालयों पर शंकर और जावेद के पुतला दहन का आह्वान किया था…
सुप्रीम कोर्ट ने जावेद की फांसी को एक बार फिर अस्थायी तौर पर स्थगित कर दिया था… फांसी का फंदा खींचने वाले किसी नये शख्स की तलाश जारी हो गयी थी…
इन सबसे बेख़बर जेल के बैरक का नया क़ैदी शंकर बहुत दिनों के बाद खुद को हल्का महसूस कर रहा था… कम से कम आज वह यह नहीं सोचना चाहता था कि कल उसके साथ क्या होगा…
नीले और हरे रंगों के सहमेल से बने ख़ास रंग की आंखों वाली वह छिपकली जेल की धूसर दीवार पर अब भी रेंग रही थी…
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