छह कविताएँ / शंकरानंद


युवा कवि शंकरानंद की कविताएँ ‘नया पथ’ समेत हिंदी की तमाम महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। ‘नया पथ’ के ऑनलाइन होने के बाद इसके पाठकों से उनकी भेंट-घाट का यह पहला मौक़ा है। 

भुट्टे के दानों के बीच

पत्तों का हरा जब
धीरे धीरे पीला पड़ता जाता है
तब पता चलता है कि
अब फसल पक कर तैयार हो गयी है

भुट्टे के दानों के बीच जो
बह रही थी दूध की नदी
वह अब इतनी पुष्ट और ठोस हो गयी है कि
भूख मिटा सकती है अकाल में

अब जबकि हर दरवाज़े पर
ढेर लगा है भुट्टे का
वहीं कहीं कतार में ट्रक भी खड़ा है
दानों को बहुत दूर ले जाने के लिए

ऐसा ही होता है अक्सर
ख़रीदार की ताक़त हैं उसकी आँखें जो
भादों की बारिश में
अकाल का अनुमान लगा लेती हैं

आज जिसे वे सबसे कम क़ीमत में खरीद रहे हैं
कल वही सबसे ऊंची बोली लगायेंगे
बेचने के लिए
उगाने वाले दानों को
कुछ नहीं कर पायेंगे

भुट्टे के दानों के बीच
सिर्फ़ मिठास नहीं रहती
वह साज़िश भी रहती है
जो मुनाफ़े का पूरा गणित पलट देती है

फसल कोई बुनता है
काट कर कोई और निकल जाता है।

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दियारे की धूल

नदी के पानी को देखो
वहाँ रेत नहीं दिखायी देगी
जहाँ रेत दिखायी देगी
वहाँ से जा चुका होगा पानी
फिर कभी न कभी वह
लौट कर आयेगा वहाँ

एक नदी सिर्फ़ बहते हुए पानी का नाम नहीं है
वह प्यास और पानी की एक खूबसूरत दुनिया है
जिसके किनारे उड़ती है धूल तो
आग लेकर साथ उड़ती है

वहाँ बंजर में पैदल चलने पर बैशाख में
जलते कोयले पर चलने जितनी होती है जलन
छन से जल जाती हैं उँगलियाँ

वहीं कहीं पानी की एक दुनिया हरे पत्तों के बीच
खिलखिलाती है तरबूज़ की शक्ल रंग में
खीरे की शक्ल में जीभ पर फैलता है पानी
सबके रूप अलग आकार अलग बेढंग

रेत पर फैलती पलती और बढ़ती हुई मिठास
दूर तक धरती छेंक लेती है
यह कितना अजीब है कि बीज की असंख्य दुनिया
खोलती हैं आँखें रोज़
दियारे की धूल में

वहाँ सिर्फ़ रेत नहीं होती
रेत की नस नस में दौड़ती है एक नदी!

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गिरने की आवाज़

इस पृथ्वी पर जो कुछ होता है
उसके होने के निशान भी छूट ही जाते हैं
उसके विदा होने के बाद
जैसे दीवार से गिर जाती है तस्वीर
कील वहीं गड़ी रहती है उदास

जैसे काटे गये पेड़ की जगह का ख़ालीपन
एक दिन पूरी कहानी कह देता है
पेड़ के बड़े होने और पत्तों से भरने की
फूलने और फलने की तमाम तस्वीरें
बीते दिनों की
एकाएक कौंध जाती हैं

जो पेड़ काटता है
वह आख़िर क्या सोचता है कि
इतना मगन होता है जड़ काटते हुए

उसके गुनगुनाने की आवाज़ सुनकर
डर जाता हूँ मैं
कैसे कोई हरे भरे पेड़ को काटने का काम भी
इतने मज़े से कर सकता है

फिर मुझे लगता है कि
यह जो पेड़ काट रहा है मज़े में
कोई इसकी भी जड़
इतनी ही सावधानी से काट रहा है

गिरने की आवाज़ का गूँजना अभी बाक़ी है।

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रात में बदली तस्वीर

विस्मृत होने के लिए
न जाने कितनी चीज़ें अभिशप्त हैं
फिर भी रोज़ कुछ नया घटता है
रोज़ सूखती है मन की टहनी और
फिर नमी सोख कर हो जाती है ताज़ी हरी
दो दिन बाद

एक एक पल जो लगता है
साँस की तरह ज़रूरी
कुछ ही दिनों में उसकी याद
धुँधली पड़ जाती है धब्बे में बदल
जैसे साल भर पहले की भादों वाली रात या
पिछली बारिश में जूतों में पानी फैलने की ठंड
कुछ याद नहीं इस बीहड़ में

कबाड़ जितनी जगह शेष बचती है अंत में
सब कुछ वैसा ही उलझा हुआ
एक में गुँथा दूसरा तीसरे से उलझा हुआ

जिसके एक स्पर्श से काँप गया था बुख़ार
पिछली बार
तस्वीर जो बच गयी उस चेहरे की आँखों में
वह भी धुँधली पड़ती हुई एक दिन
रात में बदल जाती है
फिर भी नहीं छूटता जीना।

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निशानी

आज पिता मेरे पास नहीं हैं तो
उनकी बहुत सी चीज़ें
ठोस रूप में हमारे साथ साँस लेती हैं
मुझे चीज़ों में मन नहीं लगता
चीज़ों के बीच पिता को खोजने लगता हूँ मैं

उनकी आवाज़ सुनने का मन होता है
वह कहीं सुरक्षित नहीं है कि
बजा दिया जाये
जब मन करे
जैसे पुकार लिया करते थे वे कई बार मेरा नाम

उनकी हँसी पहले खूब गूँजती थी
अब लेकिन कम हो गयी है उसकी छाप

उनके स्पर्श की गंध भी धीरे धीरे उड़ गयी
जैसे कोई फूल सुबह खिल कर नया रहता है
चार दिन बाद वही इतना सूख जाता है कि
मानने का मन नहीं होता ये वही फूल था

किसी का होना ही उसकी छाप है
जब तक वह रहता है
उसकी छाप चमकती है
उसके जाने के बाद उड़ने लगती है उसकी रंगत

जैसे धूप में लगातार सूखने के बाद
नयी कमीज़ भी जर्जर हो जाती है।

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भगदड़

ये जो बिछी हुई चादर है कुचली हुई
यहाँ एक स्त्री सो रही थी
एक बच्चा माँ की देह से सटा
सपने देख रहा था गहरी नींद में
सो रहा था एक आदमी
दिन भर देह टूटने के बाद
नींद में देह के पुर्ज़े जोड़ता हुआ
अगली सुबह के लिए

सोने से पहले
सबकी आँखों में एक चमक थी
सबके चेहरे खिले हुए थे
अगली सुबह के इंतज़ार में
सबकी साँसें चल रही थी
सबके सब ज़िंदा थे

आधी रात में पता नहीं क्या हुआ
उनकी नींद के बाहर
कि थोड़ी देर में शोर फैल गया
चीख पसर गयी पानी की तरह हर दिशा में
अपनी जान बचाने के लिए
दौड़ने लगे लोग आधी रात

दौड़ने वाले लोग नहीं देख रहे थे कि
वे जिसे रौंद रहे हैं भागते हुए
वह एक स्त्री है
वह एक बच्चा है
वह एक आदमी है
जिसने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा
फिर भी वे उसे रौंदते हुए
आगे निकल गये बेरहमी से

जितनी बेरहमी से
कोई घास को नहीं रौंदता
लोग उतनी बेरहमी से
गर्दन रौंद कर चले गये

यह जो चारों तरफ़ की चीख है
मरे हुए लोगों की नहीं है
उन बचे हुए लोगों की है जो
बर्बाद हो चुके हैं एक रात में
एक रात में बदल गयी उनकी ज़िंदगी
एक रात में उनका घर उजड़ गया
एक रात में उनकी साँसें बिखर गयीं

इस पूरे दृश्य में चीख़ है
पुकार है
कराह है
और है उठता हुआ धुआँ

इसी धुएँ के बीच
गुम हो रहा है धीरे-धीरे हर चेहरा
कुचलने वाले लोग
अफवाह फैलाने वाले लोग
आग लगाने वाले लोग
सबकुछ जलाने वाले लोग
सब दृश्य से बाहर हो जायेंगे धीरे धीरे

इतने अन्याय और अपराध के बावजूद
कोई अपराधी साबित नहीं हो पायेगा
कोई इसकी ज़िम्मेदारी नहीं लेगा
इस तरह फिर मिट जायेगी
एक भगदड़ की याद
ठीक उसी तरह जैसे पिछली बार

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संपर्क : क्रांति भवन,कृष्णा नगर,खगरिया-851204

मोबाइल : 8986933049

 


3 thoughts on “छह कविताएँ / शंकरानंद”

  1. कई पत्रिकाओं में शंकरानंद को पढ़ना हुआ है। अपनी सहजता की छाप वो अपनी हर कविता में छोड़ जाते हैं। व्यवस्था की शातिराना चुनौतियों का चित्रण करते हुए उससे सावधान होने और संघर्ष करने की कला उनकी कविताओं में दिखती है। साथी को सलाम, इस भयावह समय में भी सच कहने के लिए।

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  2. सभी कविताएँ अच्छी हैं। भगदड़ का शीर्षक कुम्भ में भगदड़ होना चाहिए। भगदड़ में के वक्त हमेशा सोये हुए नहीं होते लोग।

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