आहत भावनाओं की राजनीति / मनोज कुलकर्णी


22 जनवरी 2025 को दिल्ली की एक अदालत ने विख्यात भारतीय चित्रकार, स्मृतिशेष मक़बूल फ़िदा हुसेन के दो चित्रों को ज़ब्त किये जाने का आदेश दिया। पृ ष्ठभूमि यह थी कि डीएजी (देल्ही आर्ट गैलरी), नयी दिल्ली द्वारा अक्टूबर-दिसंबर 2024 में ‘हुसेन—द टाइमलेस मॉडर्निस्ट’ शीर्षक सेआयोजित एक प्रदर्शनी में आये हज़ारों दर्शकों के बीच से एक दर्शक ने, जो पेशे से वकील भी हैं, दो चित्रों को हिंदू देवताओं के प्रति अपमानजनक पाया था और उन्हें धार्मिक भावनाएँ आहत करने वाला बताते हुए शिकायत दर्ज की थी। आइए, पढ़ते हैं इस घटना और परिघटना पर मनोज कुलकर्णी की टिप्पणी:

समकालीन चित्र-मूर्तिकला संसार का संचालन चुनिंदा महानगरों का अतिसम्पन्न, अभिजात, कारपोरेट-पोषित तबका करता है, बाक़ी बचा व्यापक देश-समाज जिससे क़रीब-क़रीब बाहर छूटा हुआ है। नाम-दाम की लालसा कलाकारों को शक्तिशाली ख़रीदार की अपेक्षाओं पर ‘खरा’ उतरने की दौड़ में उलझा देती है। लिहाज़ा, जनता से जुड़ने के लिए वे कतई उत्साहित नहीं रहते। इसी कारण आम जनता तक आधुनिक कला-इतिहास, चित्रण-शैलियों, पद्धतियों और प्रमुख कलाकृतियों आदि की बाबत बहुत ही सीमित सूचनाएँ और जानकारियाँ पहुँच पाती हैं। अपने वक़्त के कला-परिदृश्य से व्यापक समाज के ऐसे अलगाव के चलते चर्चित आधुनिक चित्रों, विशेषतः गैर-आकृतिमूलक, के बारे में आम राय और उद्गार अक्सर मखौल उड़ाने वाले हुआ करते हैं। बावजूद इसके मक़बूल फ़िदा हुसैन आज़ाद हिंदुस्तान के सर्वाधिक ज्ञात और चर्चित चित्रकार बने। वे लोकप्रिय रहे और संभवतः सर्वाधिक विवादास्पद भी। उनका नाम और रूप-रंग सामाजिक जीवन में अच्छी-बुरी चर्चाओं का बायस बनते रहे हैं। उनके चित्रों की रिकार्ड-तोड़ कीमतें हो, उनकी लहराती सफ़ेद ज़ुल्फें और फहराती-सी लम्बी दाढ़ी, या नंगे पाँव रहे आने का अनोखा अंदाज़, ग़रज़ यह कि उनके तमाम नाज़-ओ-नखरे और तरह-तरह के कला-टोटके उन्हें सतत चर्चा और बारहा विवादों में बनाये रखते थे।

‘प्रोग्रैसिव आर्टिस्ट ग्रुप’ का सदस्य होने से कला-जगत में पहचाने गये हुसैन जन्मना मुसलमान थे और आस्थावादी भी। मगर बतौर चित्रकार वे खुद को समावेशी भारतीय संस्कृति और पुरातन कला-परम्पराओं का नुमाइंदा मानते थे। समाजवादी चिंतक और राजनेता डॉ. राममनोहर लोहिया के सुझाव पर व्यापक भारतीय समाज से जुड़ने के लिए हुसैन ने रामायण-महाभारत जैसे महाकाव्यों के चर्चित आख्यानों और चरित्रों को भी अपना चित्र-विषय बनाया। कभी प्रशंसनीय रहे उनके वे प्रयास कालांतर में भारतीय राजनीति के ऊँट के दक्षिणी करवट तरफ़ झुकते-बैठते जाने के साथ संकट का सबब बनते गये।

बीसवीं सदी के आख़िरी बरसों में सांप्रदायिक हिंदुत्ववादी संगठनों ने उनके विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। हिंदू मिथकों को लेकर बनाये गये उनके चित्र निशाने पर लाये जाने लगे। भारत की चित्र-मूर्तिकला की विरासत, प्रतीकात्मकता, सौंदर्य-शास्त्र और कलाबोध से सर्वथा अनभिज्ञ हुड़दंगी आरोप लगाने लगे कि हुसैन जानबूझ कर हिंदू देवी-देवताओं को निर्वस्त्र दिखाते हैं। उनके चित्रों से हिंदुओं की धार्मिक आस्थाएँ आहत होने का प्रचार जोर-शोर से चलाया जाने लगा। हुसैन के ख़िलाफ़ चला वह नफ़रती अभियान देश की भिन्न-भिन्न अदालतों में उन पर मुक़दमे ठोक दिये जाने तक जा पहुँचा था। जीवन के आठ दशक पार कर चुके एक कलाकार के साथ हो रही बदसलूकी के विरुद्ध चुनिंदा जनवादी-प्रगतिशील संगठनों और संस्थाओं के अलावा किसी ने आवाज़ नहीं उठायी। तत्कालीन शासन-प्रशासन ने हुसैन की हिफ़ाज़त की गंभीर कोशिशें नहीं कीं। सरकारी कला-अकादमियों, कला-संस्थानों ने उनका साथ नहीं दिया। उनके चित्रों के ख़रीदार और उनसे व्यक्तिगत दोस्ती का दम भरने वाली कारपोरेट, सिनेमा और राजनीति की हस्तियों में से कोई भी उनके समर्थन में सामने नहीं आया। यहाँ तक कि हुसैन के चित्र बेच-बेच कर धनी हुई व्यावसायिक कलादीर्घाओं तक ने उनसे किनारा कर लिया था। सांप्रदायिक-शक्तियों द्वारा हुसैन के बहिष्कार से डरी आर्ट-गैलरियों के संग्रह की हुसैन की कलाकृतियाँ ‘भूमिगत’ ही कर दी गयी थीं। हैरान-परेशान उम्रदराज़ चित्रकार ने अंततः आत्म-निर्वासन का रास्ता अपनाया। जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने कतर देश की नागरिकता स्वीकार ली थी। करीब 95 वर्ष की आयु में 2011 में लंदन में मृत्यु हो जाने तक वे कभी अपने वतन नहीं लौट पाये और दुबई-लंदन के बीच अपना जीवन गुज़ारते रहे।

स्मृतिशेष हो जाने के साथ ही हुसैन फिर भारत के कला-कारोबारियों के लिए महत्वपूर्ण होते गये। महानगरीय कला-मेलों और अंतरराष्ट्रीय कला-नीलामियों में उनकी कलाकृतियाँ फिर नमूदार होने लगीं। यहाँ तक कि वर्ष 2024 में वेनिस की 60 वीं कला-द्विवार्षिकी में ‘द किरण नाडार म्युज़ियम ऑफ़ आर्ट’ की तरफ़ से हुसैन पर एक अनोखी प्रदर्शनी ‘द रूटेड नोमेड’ भी संयोजित की गयी थी। बीते अक्टूबर में दिल्ली की एक कलादीर्घा ‘डीएजी’ (देल्ही आर्ट गैलरी) ने ‘हुसेन-द टाइमलेस मॉडर्निस्ट’ शीर्षक तले उनके चित्रों की एक नुमाइश शुरू की जिसमें 1950 से लगा कर 2000 तक के उनके कला-जीवन के अलग-अलग दौरों की चित्रकृतियाँ प्रदर्शित की गयी थीं।

ख़बरों के मुताबिक, इस प्रदर्शनी को देखने-सराहने वाले सैकड़ों दर्शकों में अकादमिक विद्वान, कलालोचक, समीक्षक, छात्र और आम कलाप्रेमी शामिल रहे। इनमें से एक दर्शक सुश्री अमिता सचदेव, जो पेशे से वकील हैं, को हुसैन के दो चित्र आपत्तिजनक मालूम दिये। उन्हीं की शिकायत पर दिल्ली की एक अदालत ने 20 जनवरी को ‘कथित तौर पर हिंदू देवताओं का अभद्र चित्रण करने वाले’ उन दो चित्रों को ज़ब्त कर लेने की अनुमति दे दी। चित्र यदि वाकई धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाले थे तो खुद शिकायतकर्ता को उन्हें सोशल-मीडिया पर प्रचारित कर अधिक लोगों तक पहुँचाना चाहिये था, मगर ऐसी विडम्बनाओं को आजकल पुलिस-प्रशासन तो ठीक, अदालतें भी बेहिचक नज़र-अंदाज़ कर देती हैं।

कलाकृतियों से धार्मिक आस्थाओं को ठेस पहुँचाने का हल्ला मचाने और अप्रत्यक्षतः कलाकारों को धमकाने का आज़माया हुआ तरीक़ा एक बार फिर प्रयोग किया गया है, जिसका कला-जगत और कला-व्यावसायिकों की तरफ़ से किसी तरह का संगठित विरोध नहीं किया जा रहा है। भुलाया नहीं जाना चाहिये कि 2008 में अपने एक महत्वपूर्ण फ़ैसले में सर्वोच्च अदालत ने दर्ज किया था कि ‘निर्वस्त्रता’ भारतीय प्रतीक-विज्ञान और कला-इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा रही है। इसी बिना पर उन्होंने हुसैन सहित अन्य चित्रकारों की चित्रकृतियों को अश्लील मानने से इंकार करते हुए उनके विरुद्ध अपराधिक कार्रवाई किये जाने से मना कर दिया था। यह ध्यान दिलाना भी उचित होगा कि पिछले महीनों में ही अश्लील होने के हवाले से चित्रकार फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा और अकबर पदमसी की कलाकृतियाँ जब्त कर लेने पर मुंबई हाईकोर्ट ने कस्टम-विभाग को फटकारा था।

कलाकृतियों को ‘अश्लील’ ठहराने की ऐसी शिकायतें नयी बात नहीं है। भारत में तेलरंगों के प्रयोग से यथार्थवादी शैली में चित्रकारी करने वाले प्रमुख शुरुआती चित्रकार राजा रवि वर्मा को भी ऐसे संकट का सामना करना पड़ा था। मगर पिछले दो-तीन दशकों में सांप्रदायिक हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा समाज में दरार पैदा करने के लिए धड़ल्ले से इसका उपयोग किया जाने लगा है। पिछले दस बरसों में साहित्य, सिनेमा, नाटक आदि विधाओं में स्वतंत्र और नवोन्मेषी अभिव्यक्तियों को बहिष्कार की धमकियों और हिंसक विरोध का सामना करना पड़ा है।

2014 के बाद सामाजिक जीवन में धार्मिक घृणा और असहिष्णुता तेज़ी के साथ  फैलायी गयी है।  अल्पसंख्यक समुदायों के विरुद्ध विषवमन और नफ़रती प्रचार को मॉबलिंचिंग तक पहुँचा दिया गया है। कला-साहित्य की सरकारी अकादमियों, अधिकतर कला-संस्थानों, विश्वविद्यालयों, सृजनपीठों और संग्रहालयों आदि में सांप्रदायिक-सोच वाले प्रमुखों की नियुक्ति/पदस्थि के ज़रिये वर्तमान राजनीतिक-सत्ता अपने सांप्रदायिक सांस्कृतिक एजेंडे को बेशर्मी से पूरा करने पर तुली हुई है। छात्रों की आड़ में स्थानीय गुंडों के द्वारा विश्वविद्यालयों के कला-संकायों में की जाने वाली तोड़-फोड़,  लेखक-कलाकारों को दी जाने वाली धमकियों अथवा उनके विरुद्ध की गयी हिंसक कार्रवाइयों की सूची यहाँ दोहराने की ज़रूरत नहीं, तब भी यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि शासकीय शह, बल्कि संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों द्वारा किये जा रहे निर्लज्ज कुप्रचार से ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ संकट में तो है ही। हुसैन के हश्र से भयग्रस्त लेखक-कलाकारों में से अनेक होंगे जिन्होंने अभिव्यक्ति के ख़तरे न उठाना मन ही मन तय पा लिया होगा। कलाकारों-साहित्यकारों की बड़ी संख्या यदि अपने समय को प्रश्नांकित करने की महती जवाबदेही से कन्नी काटने लगे तो कला-साहित्य की कृतियों का महज़ सौंदर्याभिव्यक्ति अथवा सस्ते मनोरंजन में बदलते जाने का संकट है। हमारी भावी पीढ़ियों और मनुष्यता के लिए यह निश्चय ही अशुभ होगा।

manoj4165@gmail.com

 

 


2 thoughts on “आहत भावनाओं की राजनीति / मनोज कुलकर्णी”

  1. ज़रूरी लेख।
    ‘आहत भावना’ जनतंत्र को कमज़ोर करने वाली जाँची-परखी युक्ति है।

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  2. प्राचीन मंदिरों में हिन्दू देवी-देवताओं के नग्न चित्र देखने को मिल जाते हैं। यह शाय़द भारतीय कला रूपों की परंपरा रही होगी। फिर आधुनिक चित्र कला में इसकी अभिव्यक्ति में ऐतराज क्यों? कला को कला की दृष्टि से देखा जाना चाहिए।

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