उस्मान मास्टर / संदीप मील


साहित्य का एक काम ताक़तवर आख्यानों के सामने प्रति-आख्यान रख देना है। संदीप मील की यह कहानी मौजूदा ‘अयोध्या -कांड ‘ के  बीच हमें उस समय में ले चलती है जब एक अदालती फ़ैसले ने इस कांड का शिलान्यास कर दिया था। राजनीति के लिए सजायी और भुनायी जानेवाली चकाचौंध के पीछे का अंधेरा दिखाती कहानी :

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अरसे बाद अचानक भारत की अदालत को ख़्याल आया कि अयोध्या का फैसला कर देना चाहिए। वहां एक मस्जिद को गिराया गया था और दावा किया गया कि उसकी जगह एक मंदिर था। अदालत को धरती की पैदाइश तक जाकर देखना था कि सबसे पहले वहां क्या था। मुल्क में इस फ़ैसले के आने की ख़बर से बहुत हलचल थी। कुछ लोग इतने उत्साहित थे कि आसमान को सर पर उठाने की तैयारियां कर चुके थे और कुछ इतने डरे हुए थे कि जान बचाने के तरीक़े खोज रहे थे। ज़ाहिर है कि इन हालात का अयोध्या पर भी असर पड़ता। फ़ैसले के ऐलान के साथ ही वहां पर भी हलचलें होने लगीं। बाहर से आने वाले लोगों की तादात अचानक बढ़ गयी। मीडिया से लेकर भांति-भांति के लोग उस क़स्बे में घूमने लगे। हर किसी के पास इस मसले पर एक फ़ैसला था और उसके पक्ष में अनगिनत तर्क।

अयोध्या बिल्कुल ख़ामोश हो गयी थी। वे लोग भी चुप थे जिनके घरों में खुशी के इज़हार के लिए पटाखे रखे गये थे। वे भी चुप थे जिनके पास चुप रहने के अलावा कोई चारा नहीं था। सब आशंकाओं से घिरे हुए थे। क़स्बे के पुजारियों को यह चिंता था कि अगर मंदिर बना तो महंत कौन होगा। चढ़ावे का बंटवारा कैसे होगा। मंदिर के बाहर फूलों की दुकान किसकी होगी। बजरी-सीमेंट से लेकर लोहे की सप्लाई करने वाले ठेकेदार लगातार यह गणित बैठाने में लगे हुए थे कि किस अधिकारी को कितनी रिश्वत देकर कितने ठेके हासिल किये जा सकते हैं। पुलिस के सिपाहियों से लेकर अधिकारियों के बीच इस पर गुसर-पुसर हो रही थी कि अब तो यहां पोस्टिंग करवाने के लिए दी जाने वाली राजनीतिक वसूली में कई गुणा बढ़ोतरी होगी। इसे पाटने के लिए उन्हें ज़्यादा मेहनत करनी पड़ेगी।

यहां तक कि चैन तो शहर के जेबकतरों में भी नहीं था। वे इस बात से बुरी तरह चिंतित थे कि मंदिर-मस्जिद जो भी बने, उसके आसपास का इलाक़ा किसके हिस्से में आयेगा। दरअसल, अयोध्या मठों की नगरी है—वहां धर्म से लेकर ठगों और जेबकतरों तक, सबके मठ हैं। सब अपने आपको देश में श्रेष्ठ मानते हैं।

जगह-जगह पर लोग छोटे-छोटे गुटों में खड़े बातें कर रहे थे। इन गुटों में दो-चार से ज़्यादा लोग होते ही कोई पुलिस वाला आ जाता और ये लोग बिखर जाते क्योंकि शहर में धारा 144 लगी हुई थी। महिलाएं और बच्चे घरों की खिड़कियों की सूराखों से देख रहे थे, सुन रहे थे। कुछ लोगों को अब भी उम्मीद थी कि न्याय होगा तो मस्जिद बनेगी। वे भी अपने छोटे-छोटे फ़ायदों को जोड़-घटा रहे थे। मसलन, जो ईमाम बनेगा, उसके साथ उनके ताल्लुकात कैसे हैं। वह उन्हें कुछ ख़ास तव्वजोह देगा या बाकी भीड़ की तरह ही उनसे सलूक किया जायेगा!

सुतहटी मोहल्ले में भी इसी तरह का माहौल था। यहां अधिकतर मुस्लिम आबादी रहती है। दो-दो कमरों के घर थे। बगल में बकरी, गाय या किसी के यहां भैंस भी बंधी हुई थी। कुछ ई-रिक्शे खड़े थे जिन्हें आज सवारियों का इंतज़ार नहीं था। तभी पूर्व की ओर से बिना पलस्तर किये कमरे से बड़बड़ाता हुआ एक इंसान निकला। कद पांच फिट। वह सफ़ेद, फटा हुआ, मैला कुर्ता-पाजमा पहने था। पैरों में रस्सी से बंधे हुए फीते की हवाई चप्पलें थीं। बदन पर बिना शर्ट के सिर्फ़ एक कथई रंग की स्वेटर थी। स्वेटर में कई जगहों पर छेद थे और यह किसी ज़माने में हाथ से बुनी हुई लग रही थी। उसकी लंबी सफेद दाढ़ी थी और दोनों कनपटियों पर भारी चोटों के निशान थे जिनकी वजह से माथा कुछ पिचक-सा गया था।

‘माई नेम इज़ ओस्मान मास्टर। आई हैव ब्राट फॉर यू दि मैसेज ऑफ़ क्वीन विक्टोरिया।’ कहता हुआ उस्मान मास्टर चार नौजवानों के पास पहुंचा। उन्होंने इस आवाज़ पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे अपनी बातें करते रहे। नावेद कह रहा था कि कानून हमेशा न्याय ही करता है। वह अन्याय नहीं कर सकता।

‘गर कानून ने अन्याय कर दिया तो।’ एक लम्बे क़द वाले नौजवान ने शब्द चबा-चबाकर कहे।

‘यू आर स्टुपिड, मिस्टर जमील।’

‘और…आप उस्मान मियां पागल हैं।’

‘नहीं, जमील। उस्मान मास्टर से ऐसे बात नहीं की जाती है।’ नावेद और उसके दो दोस्तों ने जमील को हाथ पकड़कर बैठाया।

उस्मान मास्टर कुछ देर आसमान की तरफ़ देखता रहा। ज़मीन को निहारा और उन युवकों के पास ही बैठ गया। कहने लगा, ‘जमील मियां, मुल्क ने अपनी तासीर ही नहीं, तहज़ीब भी खो दी है। हमारे ज़माने में कोई बुजुर्ग से ऐसे बातें नहीं करता था। क़ानून किसने बनाया, डू यू नो?’

रहीम ने बीच में ही टोका, ‘आप पहले यह बतायें कि मुल्क का बंटवारा क्यों हुआ?’

‘ऐसा है बच्चे, उस वक़्त मैं लंदन में था। वहीं पढ़ता था। नेहरू भी पढ़ते थे। वे पढ़ने में मेरे से थोड़े कमज़ोर थे। जिन्ना का भी आना-जाना रहता था। मैं पढ़ाई में सबसे अव्वल था। लेकिन मियां हम तीनों में दोस्ती ग़ज़ब की थी। आप सोचिए कि कई बार मैंने इन दोनों पर हज़ारों खर्च किये। उधार दिये सो अलग। आप सोचिए कि दोनों बाद में दो मुल्कों के वज़ीर-ए-आज़म बने लेकिन उस्मान मियां का क़र्ज़ उनकी औलादें भी आज तक नहीं चुका पायीं।’ उस्मान मास्टर अपनी बात कह ही रहा था कि उसे खांसी आ गयी। खांसते वक़्त उसका अंदरूनी ढांचा इस कदर हिल रहा था जैसे कि थोड़ी देर में अंतरी-ओजरी बाहर आ गिरेंगी।

‘तनिक बकरी बांध दियो। इस उम्र में भी दिनभर लौंडों के साथ ठिठोली कर रहे हो।’ एक अधेड़ उम्र की औरत ने उस्मान मास्टर को दरवाज़े से आवाज़ लगायी।

उस्मान ने खांसी रोकी। कंधों को हिलाया और पेट तानकर कहा, ‘बेगम, आप चिंता बिल्कुल ना करें। हम अभी किसी नौकर को भेज रहे हैं। ऐ सुथिया, जा बकरी बांध।’

‘का कहें भइया, उस मनहूस हादसे ने तो हमारी ज़िंदगी तबाह कर दी। सारे सपने टूट गये और ये तबाह सियासत के बादशाह बन गये। लड़के तो सब अपनी औरतों के साथ अलग हो गये। कमाते खाते हैं। हमारे पास ये बादशाह हैं और एक यह बकरी। खाने को सरकारी राशन मिल जाये तो पेट भर लेते हैं। बाक़ी सब अल्लाह के भरोसे है।’ दुपट्टे के पल्लू से आंखें पोंछते हुए उस्मान मास्टर की बीवी बकरी के कान पकड़कर घर ले गयी। उसका नाम तो किसी को मालूम नहीं था, क्योंकि उस्मान चचा उसे ‘बेगम’ कहते थे और बाक़ी मोहल्ला ‘चची’।

 

सुतहटी मोहल्ले के चौक के किनारे वाले घर में आज शादी है। मां-बाप की ख़्वाहिश थी कि बच्चों की शादी धूमधाम से हो। लेकिन अब तो पांच लोगों से अधिक मेहमान नहीं रख सकते घर में। सिकंदर जो अरबाज नाम के लौंडे का बाप था, उसे बहुत चिंता हो रही थी क्योंकि शादी तो उसके बेटे की थी। लड़की वालों ने तो कह दिया कि आप दुल्हे और काजी को ले आओ, मियां-बीवी बिल्कुल राजी हैं। सिकंदर बड़ी मुश्किल में था। उसकी आधी से ज़्यादा उम्र दावतें खाने में गुज़री है। तभी असग़र वकील आ गये। उन्होंने गुटखा की पिचकार थूकते हुए कहा, ‘सिकंदर भाई, हम तो खै़रियत पूछने आ गये थे। शादी के आलम में ऐसी मुश्किल आ पड़े तो इंसान क्या करे! अल्लाह पर यक़ीन रखो। वही कुछ हल निकालेगा।’

‘वकील साब, सारे अरमान धूल में मिल गये। चार मेहमान नहीं बुला सकते तो क्या शादी हुई! हमें तो अपना घर ही मनहूस लग रहा है।’ इतना कहकर सिकंदर रोने लगे। सुबकने की आवाज़ सुनकर उनकी बेटी शमशाद आयी और उनके आंसू पोंछने लगी, ‘अब्बू, ऐसे थोड़े ही रोते हैं। शादी आज खुशी से करेंगे। कल हालात नार्मल होंगे तो धूम-घड़ाके से दावत करेंगे।’

‘बहुत अच्छी बात, बेटी। सिकंदर, बिटिया ने क्या शानदार बात कही है भई! सारे मसलों का हल हो गया। अब जो भी बन पड़े, शादी कर दो।’ असग़र वकील ने सिकंदर के कंधे पर हाथ रखा।

सिकंदर ने अपने कंधे पर रखे तौलिये से आंसू पोंछे। गले की सारी नमी को जिस्म के अंदर खींचकर खुद को नॉर्मल किया। शमशाद वापस कमरे के अंदर चली गयी। कुछ देर तक खामोश रहने के बाद सिकंदर ने कहा, ‘असग़र भाई, शादी कितनी भी छोटी हो लेकिन घर परिवार के लोगों के लिए तो कुछ खाना पकाना ही पड़ेगा।’

असग़र ने कहा, ‘कितने लोगों का ?’

‘क़रीब चालीस लोगों का।’ सिकन्दर संख्या बताते ही फिर चिंतित हो गया।

‘गोश्त ही बनाना है या कुछ वेज खाने से काम चल जायेगा?’ असग़र ने पूछा।

‘वकील साब, गोश्त बनाने का ही मन था। लेकिन अब कहां से इंतज़ाम होगा?’

‘कितने किलो के बकरे से काम चल जायेगा?’

‘सात-आठ किलो के बकरे से हो जायेगा।’

‘सिकंदर भाई, मैं कुछ सोचता हूं।’

 

रहीम ने एक गुटखा का पावच उस्मान मास्टर की तरफ बढ़ाया और कहा, ‘फिर क़ानून कैसे बना?’

‘राइट, रहीम। यू आर ए सीरियस बॉय। देखो, हुआ ऐसे कि उस वक़्त भी मैं दुनिया भर के क़ानूनों का बहुत बड़ा जानकार था। ‘ए रियल स्कॉलर ऑफ़ लॉ’ मुझे ही कहा जाता था। मुल्क बनते ही सबसे बड़ी समस्या क़ानून बनाने की आयी। नेहरू उस वक़्त इलाहबाद आये हुए थे। देखो, ये हिन्दू-मुसलमान के झगड़े का काई मतलब नहीं है। हम सब एक हैं। बिना मतलब की लड़ाई में कौमें बर्बाद हो जाती हैं।’

नावेद ने बीच में ही टोका, ‘मास्टर साब, इलाहबाद वाला क़िस्सा सुना रहे थे?’

‘हां। वही तो सुना रहा हूं, नावेद मियां। सब्र रखो। इलाहबाद में कौन-से हिन्दू-मुसलमान नहीं रहते! फ़सादात भी होते हैं। वह भी दंगे का ही वक़्त था जब मैं नेहरू से मिलने चला गया। वे अपने बरामदे में चाय पी रहे थे। मुझे दिखते ही दौड़कर आये और गले से लिपटकर रोने लगे। कहने लगे कि उस्मान भाई, लोग समझ ही नहीं रहे हैं। आपस में बेवजह मज़हब के नाम पर लड़ रहे हैं। आप और हम तो भाइयों की तरह रहते रहे हैं। मैंने कहा कि जवाहर, चिंता मत करो, अब मैं आ गया हूं। उन्होंने बैठने को कहा।’

‘कहां बैठने को कहा?’

‘जमील, तेरे बाप के सर पर बैठने को कहा। साले, तुम्हें शर्म नहीं आती! शर्म आएगी भी कहां से? तेरा दादा तो नवाब साब के घोड़ों की लीद चुराता था। तेरा बाप अंग्रेजों की मुखबरी करता था और तू साले आज़ाद भारत में कालाबाज़ारी करता है।’ उस्मान मास्टर का चेहरा लाल हो गया। उसके खून की रफ़्तार बढ़ने से कनपटियों पर दोनों तरफ दो नसें साफ़ उभरकर दिखने लगीं।

 

शमशाद अपनी सहेली रावी के साथ एक कमरे को सजा रही थी। यह वही कमरा है जिसमें होने वाले दुल्हे-दुल्हन को रहना है और वे तमाम इंसानी काम करने हैं जिनको करने से यूं तो दुनिया में आज तक कोई किसी को रोक नहीं पाया है, लेकिन शादी के बाद वालों को ‘पाक’ मान लिया जाता है और पहले वालों को ‘नापाक’। शमशाद को यह नहीं समझ में आ रहा था कि एक छोटे-से इंसानी काम को करने के लिए शादी-ब्याह का बवंडर क्यों रचा जाता है। वह यह सब सोच रही थी, तभी रावी ने कहा, ‘तेरे को क्या लगता है कि माहौल ठीक हो जायेगा?’

‘हो जायेगा। कमरे में उधर कपड़ों की तरफ़ पर्दा लगा देंगे। वैसे दुल्हे-दुल्हन को इसमें कमरा निहारने के लिए तो रखा नहीं जायेगा। इतना वक़्त भी उनके पास कहां होगा?’ शमशाद कपड़ों को तरतीब से अलमारी में सजा रही थी।

‘तुम्हें तो इस कमरे के अलावा कुछ दिखता नहीं है। मैं मुल्क के माहौल की बात कर रही हूं। बहुत डर लगता है।’ रावी बोली।

शमशाद जिस सलवार को समेट रही थी, उसे वहीं छोड़ दिया। एक हाथ अपनी ठोड़ी पर रखा और एक रावी के घुटने पर। फिर गहरी सांस छोड़ते हुए बोली, ‘देख, रावी। अयोध्या टूट सकती है, बिखर सकती है लेकिन मर नहीं सकती। मस्जिद तोड़े जाने के वक़्त भी बवाली सब बाहर से आये थे। अयोध्या के लोग तो अब भी आराम से बैठे हैं। तुम्हें और मुझे कौन जुदा कर सकता है। सरयू का पानी लोगों को मिलाने वाला पानी है, बिछड़ाने वाला नहीं। लेकिन अब क्या बतायें सरयू में भी तो इतना खून मिल गया है कि पानी का असर शायद कम हो जाये। जो भी हो, तेरी शादी में सुहागरात का कमरा मैं ही सजाऊंगी। तेरे शौहर का घर खोजते वक़्त नहीं लगेगा मुझे।’

 

नावेद ने जेब से एक बीड़ी निकाली और सुलगाकर उस्मान मास्टर को दी जिसे अपने कंपकंपाते हाथों से उस्मान मास्टर ने पकड़कर सिगरेट की तरह पीना शुरू किया। फिर हल्की हंसी हंसते हुए वे बोले, ‘तुम नौजवानों को कुछ करना चाहिए मुल्क के लिए। ऐसे ही जवानी को दीवार के सहारे गप्पें हांककर बिताने से कुछ नहीं होगा। हम कब तक मुल्क को संभालते रहेंगे!’

नावेद ने धीरे से पूछा, ‘आपको मारने वाले हरियाणा के थे क्या?’

उस्मान मास्टर ने अब तक पूरी बीड़ी पी ली थी। बचे हुए टुकड़े को फेंककर कहा, ‘साल 1992 का था। तुम तो पैदा ही नहीं हुए थे। मैं अपने दोस्त जोगींदर के साथ हरियाणा के एक गांव के स्कूल में पढ़ाता था। वहीं पर हम दोनों रहते थे। गांव वालों से बड़ा प्यारा रिश्ता था। बच्चे सब इज़्ज़त करते थे। स्कूल के ही एक कमरे में हम लोग रहते थे। साथ ही खाना बनाना और एक ही कमरे में सोना। फिर मेरी शादी हो गयी। आपकी चची को भी साथ ले गया। तब राजाराम ने एक कमरा किराये पर दे दिया था जिसमें हम दोनों मियां-बीवी रहते। बगल की खुली जगह पर हमारा चूल्हा था जिस पर जोगींदर का भी खाना बनता था। रोज़ वह खाना हमारे पास ही खाकर जाता। गांव की औरतों से तुम्हारी चची की दोस्ती हो गयी थी। मैं तो दिन में स्कूल चला जाता और वह गांव की औरतों के साथ सिलाई करती। ज़िंदगी में एकदम सुकून था। किसी तरह की कोई चिंता नहीं। सुन रहे हो? तुमने तो वक़्त की मार के मारे हुए उस्मान मास्टर को देखा है। उस ज़माने में देख लेते तो कहते कि क्या खूबसूरत बंदा है, जिस्म से भी और ज़ेहन से भी। अचानक से मुल्क की फ़िजां में ज़हर घुलने लगा, जिसका अहसास पाकर तुम्हारी चची ने कहा कि अयोध्या चलेंगे अब।’

नावेद को कोई अफ़सोस नहीं था कि अचानक से उस्मान मास्टर इस तरह की संजीदा बातें करने लगेंगे, क्योंकि यह ढर्रा वह बरसों से देख रहा है। अब कभी भी उस्मान मास्टर ट्रैक से उतर सकते थे। उसने पूछा, ‘चची को ऐसा क्यों लगा?’

‘तुम नावेद, सवाल बहुत सटीक करते हो। हमारे अयोध्या के होने की ख़बर उस गांव में सबको थी। जब हम लोग छुट्टियां मनाने घर आते थे तो उस गांव के बहुत सारे हिंदू भाई आयोध्या में हनुमानगढ़ी में उनके नाम से परसाद चढ़ाने के लिए पैसे देते थे। उस ज़माने में दस रुपये बहुत होते थे। हम उन पैसों को अलग रखते और आते ही उनके नाम का परसाद चढ़ाते। माहौल जब ख़राब हुआ तो एक दिन राजाराम के छोटे-से बच्चे ने तुम्हारी चची से कहा कि आप ‘अयोध्या’ वाली हो न? अब वहां मंदिर बनाएंगे।’ उस्मान मास्टर ने अपने सर के बालों पर हाथ फेरा जो पहले से ही बेतरतीब थे।

बिना किसी सवाल के उस्मान मास्टर फिर शुरू हो गये, ‘वह 4 दिसम्बर की सुबह थी। पूरी आयोध्या में देशभर से कार सेवक आ रहे थे। उनके हाथों में हथियार थे। ऐसी अयोध्या कभी नहीं थी। किसी भी काल में। भय से त्रस्त। मैं सरयू की तरफ़ से खेतों के किनारे आ रहा था कि कुछ लड़कों ने लोहे के सरियों से मेरी पिटाई शुरू कर दी। उस घर के क़ासिम को तो पीटते-पीटते मार डाला था। मेरे सर में चोट लगी और मैं बेहोश हो गया था। हमारे खेत के पड़ौसी गंगाराम ने मुझे अस्पताल पहुंचाया। बताओ, कौन राम भक्त हुआ? जो जान बचा रहा था वो या फिर जो जान ले रहा था वो? मुझे जब होश आया तब अयोध्या में खून के धब्बे और मस्जिद की ईंटें बिखरी हुई थीं।’

ठीक उसी वक़्त एक कैमरामैन के साथ एक नौजवान महिला पत्रकार आती हुई दिखायी दी, जिसे देखते ही उस्मान मास्टर चुप हो गये। उस महिला ने आते ही उस्मान मास्टर के सामने माइक किया और पूछा, ‘अयोध्या पर जो फ़ैसला आने वाला है, उस पर आप क्या कहेंगे?’

‘डियर सिस्टर, व्हाट एवर डिसीज़न, देयर विल बी नो इम्पेक्ट ऑन अयोध्या।’ उस्मान मास्टर एकदम तनकर बाइट देने लगे।

महिला पत्रकार अंग्रेजी सुनते ही असहज हो गयी, ‘सर, हमारे दर्शकों को थोड़ा हिन्दी में समझाइये।’

‘ज़रूर। देखो मेरी बात है ना, वह पूरी आयोध्या की राय समझ लो। कोई भी इससे ना नहीं करेगा। मेरी क़ानून की किताबें सारी दुनिया में पढ़ायी जाती हैं। हर जज मेरी किताब पढ़कर नौकरी लगता है। आप यूं समझ लीजिए कि मेरी किताब के बिना पढ़े क़ानून समझने का दावा कोई भी नहीं कर सकता। फ़ैसला देने वाले जज को भी मेरी किताब पढ़नी होगी। ग़ौर करने वाली बात यह है कि मैंने सब किताबों में लिखा है कि धर्म के नाम पर लड़ने वालों की अयोध्या में कोई जगह नहीं है। कल सुबह ही मैंने फोन करके कह दिया था कि जवाहर, तुम दिल्ली संभालो, मैं अयोध्या संभालता हूं ।’ उस्मान मास्टर लगातार बोले जा रहे थे जिन्हें बीच में ही रोककर पत्रकार बोली, ‘जवाहर कौन?’

‘जवाहरलाल नेहरू। जवाहर को नहीं जानती! मेरा बचपन का दोस्त है।’ उस्मान मास्टर ने अफ़सोस ज़ाहिर किया।

यह सुनकर पत्रकार ने तुरंत माइक उस्मान मास्टर के सामने से हटा ली और बड़बड़ाती हुई वहां से चली गयी। उस्मान मास्टर के पास मौजूद नौजवान इस उदास मौसम में भी अपने आपको हंसने से नहीं रोक पाये। चंद पलों के बाद वहां सब ख़ामोश हो गये क्योंकि वे जानते थे कोई आफ़त आ सकती है। तभी सामने से अर्द्धसैनिक बलों के जवान आते हुए दिखायी दिये। लड़के उठकर घर की तरफ चले गये, उस्मान मास्टर वहीं बैठे रहे। जवानों ने चारों तरफ़ मोर्चा संभाल लिया। एक जवान ने उस्मान मास्टर को घर जाने का इशारा किया जिसका कोई असर न होता देखकर गुस्से में बोला,

‘ऐ बुड्ढ़े, भाग जा यहां से।’

‘सुनो, मैं दो मिनट में तुम्हारा कोर्ट मार्शल करवा सकता हूं। तुम्हें सिविलियन के साथ बिहेव करना नहीं आता? नाम बताओ अपना। अभी किसी अफ़सर को फोन करता हूं। तुम्हारा डिफेंस मिनिस्टर मेरा स्टुडेंट था।’ उस्मान मास्टर बड़बड़ाने लगा तो दौड़कर नावेद आया और उन्हें पकड़कर घर छोड़ आया।

उस्मान मास्टर अपनी टूटी हुई चारपाई पर गुमसुम बैठा था। उसकी बीवी ने दो रोटी बनायी थी और थोड़ी-सी चटनी। दो प्लेटों में एक-एक रोटी रखी और आधा चम्मच चटनी। वह रोटी को अपने अधटूटे दांतों से चबाकर खाते हुए उस्मान मास्टर को देखती सोच रही थी कि 92 के हादसे ने उसकी जवानी और बुढ़ापा दोनों को छीन लिया। उसे भी कई लोगों ने कहा कि भरी जवानी इस शौहर के भरोसे मत बरबाद करो। कोई दूसरा खोज लो ताकि बचा हुआ समय तो आराम से गुज़र जाये। लेकिन जब भी दूसरे शौहर की बात आती तो उसके सामने काली दाढ़ी वाला नौजवान उस्मान आकर खड़ा हो जाता जिसने कम समय के लिए ही सही, उसकी सारी ख्व़ाहिशों को पूरा किया। ऐसे इंसान को छोड़कर जाना तो उसके ज़मीर को गवारा नहीं है।

‘जल्दी कर, शमशाद। घर में और भी तो काम हैं।’ रावी खुशी में थोड़ी ज़ोर से बोल गयी।

‘धीरे, यार!’ शमशाद ने मुंह पर अंगुली रखते हुए कहा।

रावी तुरंत सहम गयी क्योंकि आज अयोध्यावासी ख़ामोश थे। लोग सोच रहे थे कि क्यों आख़िर लोग हमारी इस छोटी-सी नगरी का अमन छीनने पर आमादा हैं। तीन पीढ़ियां बीत गयीं लेकिन हम कुछ दूसरा सोच ही नहीं पाते हैं। अयोध्या के लोगों ने अशांति के जंगल में तीस साल का बनवास झेल लिया, अब तो उसे शांति के घर में रहने दो। पता नहीं इस नगर को किसका अभिशाप लगा है!

सुबह से शहर में बिजली भी कटी हुई है। किसी घर में टीवी नहीं चल सकता। इंटरनेट तो दो दिन से बंद है। कैसे मालूम चले कि मुल्क में क्या हो रहा है, क्योंकि जो भी होना है, उसे अयोध्या भी भुगतेगा।

राधावल्लभ अपनी दुकान की खिड़की से सैनिकों के जूतों पर नज़र गड़ाये हुए थे। उन्होंने अपने घर में कह रखा था कि कुछ भी होगा तो सबसे पहली ख़बर उनको मिलेगी क्योंकि वे सैनिकों के जूतों की हरकतों से अंदाज़ लगा लेंगे। घर वालों के पास इस बात पर विश्वास करने के अलावा कोई उपाय नहीं था।

 

दोपहर को दो लड़कों के साथ सेहरा बांधे सिकंदर का बेटा घर के पीछे से पड़ोसियों के घर से होता हुआ दुल्हन के घर पहुंचा। ऐसी बारात न सिर्फ़ आयोध्या में बल्कि पूरी दुनिया में नहीं गयी होगी। निकाह की रस्म बहुत जल्दी और उदासी से पूरी की गयी और दुल्हन उसी पीछे के रास्ते से दूल्हे के घर आयी।

दिन ढलने को था और सरयू के पानी में सूरज की परछाईं दिख रही थी। नदी एकदम शांत थी जैसे सांसें रोक रखी हों, जैसे कि उसे किसी अनहोनी के होने का अहसास हो गया हो। पक्षी उड़कर नदी पार करते हुए आयोध्या से दूर जंगल की तरफ़ जा रहे थे। इंसान तो कहीं जा भी नहीं सकते थे, उनके घरों के सामने सैनिक तैनात थे।

सिकंदर के घर में दावत का सामान बहुत कम बना था। इतना तो शादी में खाने के बाद बच जाता है, लेकिन आज पूरे घरवालों के कोर भी नहीं ढल रहा था। शमशाद ज़रूर घर में इधर-उधर भाग रही थी लेकिन उसके पैर भी बिना उमंग के थे। रावी के घरवालों के लिए मिठाई पैक कर दी थी लेकिन डर के कारण उसने घर जाने से मना कर दिया। वह शमशाद के साथ ही सो गयी। आज रात तो दिन में ही शुरू हो गयी थी। सिर्फ़ अंधेरा होना था, वो भी हो गया। दुल्हन और दूल्हा भी अपने कमरे में चले गये। वे चुपचाप बैठे रहे। ऐसी सुहागरात की उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी, जिसमें पूरी रात में दूल्हे ने गिने-चुने अल्फाज़ वाले तीन वाक्य बोले और दुल्हन चुप रही। वे थे, ‘ठीक हो, पानी पीओगी, नींद नहीं आ रही।’

 

उस्मान मास्टर अपनी चारपाई से उठा और खूंटी पर टंगे हुए एक सफ़ेद कपड़े को उतारा। कपड़े को किसी झंडे़ की तरह एक लकड़ी से बांधा। कपड़े ने अपनी चमक तो पहले ही खो दी थी। अब उस पर कुछ मटमैले धब्बे भी फैले हुए थे, लेकिन अभी भी उसे सफ़ेद ही कहा जा सकता है। इस घर में बरसों से कोई नया कपड़ा नहीं आया है। पुराने कपड़े फटने पर टांके देकर काम चलाया जाता रहा है। कई बार पड़ोसी कुछ पुराने कपड़े उस्मान मास्टर के घर दे जाते थे। उन्हीं में से यह कपड़ा था जिसका इस्तेमाल कई बार उस्मान मास्टर रूमाल के तौर पर बड़ी शान से किया करते हैं। अभी इसे देखकर कहा जा सकता है कि यह सफ़ेद है। उसने दरवाज़े को धीरे से खोला ताकि बीवी को पता न चल जाये। अपनी बीवी के प्रति अथाह प्रेम उमड़ा, दिमाग में एक रोशनी चमकी जिसके साथ ही वह मस्जिद के विध्वंस के दिनों अपनी पिटायी का दृश्य याद करने लगे। कितना खून बहा था उसके सर से! गर्म खून का अहसास अभी भी याद है। यही सोचता हुआ वह सफ़ेद झंडा लिये हुए सुतहटी के चौक में आ गया। रात को चौक सुनसान था जिसमें अमूमन देर रात भी नौजवान झुंड बनाकर मोबाइल देखते रहते थे। सब तरफ़ लोगों की छतों पर और रास्तों में कोनों पर कई परछाईंयां दिखायी दे रही थीं, जिनके खामोशी से खड़े होने के ढब और हाथों में बंदूक की परछाईं से अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि वे सैनिकों की परछाईंयां हैं। किसी घर से बच्चे की एक हल्की-सी रोने की आवाज़ आयी और उसके बाद आवाज़ ऐसे बंद हुई जैसे किसी ने मुंह पर हाथ रख दिया हो।

शायद सबको फ़ैसले का पता चल गया होगा, लेकिन उस्मान मियां को नहीं मालूम था। वह बड़बड़ा रहा था, ‘उस्मान इज़ द मैसेंजर ऑफ़ पीस। हि कैन नॉट अवोइड हिज़ रिस्पॉन्सिब्लिटी।’

तभी एक सैनिक की उस पर नज़र पड़ी जो सामने के घर की छत पर तैनात था। उसको भी यहां शांति स्थापना के लिए भेजा गया है। उसे अपनी ज़िम्मेदारी याद आयी। वह थोड़ा-सा हिला, छत के कोने में घुटनों के बल बैठकर मोर्चा संभाल लिया जैसे कि सामने से कोई उस पर हमला कर देगा। बंदूक को कंधे पर लगाया और नींद में आधी खुली आंखों से गोली दाग दी। एक ज़ोर का धमाका हुआ जिसकी गूंज सरयू पार तक सुनायी दी, लेकिन आज कुत्ते, पक्षी और अन्य जानवर पूरी तरह से खामोश थे जो किसी हल्के धमाके से भी अयोध्या को सर पर उठा लिया करते थे। गोली उस्मान मास्टर के हाथ में पकड़े सफ़ेद झंडे के बीच से गुज़री। वह सहमकर एक पत्थर पर गिरा और चोट खाये हुए सर से खून बहने लगा, बिल्कुल वैसा ही गर्म जैसा बरसों पहले था। शांति का सफेद झंडा टुकड़ों में बिखर गया। झंडे के डंडे से हल्का धुआं निकल रहा था।

ज़मीन पर पड़ा हुआ उस्मान बड़बड़ाया, ‘बक रहा हूं जुनूं में क्या क्या कुछ, कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई।’

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3 thoughts on “उस्मान मास्टर / संदीप मील”

  1. वाह! संदीप जी, बहुत ही बेहतरीन कहानी, आज के इस कठिन दौर में सामायिक और आगामी खतरों को चुनौती देने वाली। हां, आलोचना की भी दृष्टि से कहूंगा कि कहानी में क‌ई झोल हैं, शुरू में उस्मान मियां के साथ १९९२की घटना का इशारा हरियाणा है, लेकिन आपकी कहानी में घटना अयोध्या में घटित होती है। आखिर उस्मान मियां अयोध्या कैसे पंहुचें? दूसरा जब मंदिर पर फैसला आया, उस दिन क्या वाकई अयोध्या का ऐसा ही माहौल था? वैसे कथानक की दृष्टि से कहानी बहुत अच्छी है। – सुनील

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    • 1992 एक पूरा साल था. उस्मान 92 में ही हरियाणा से अयोध्या आया. कहानी में इसका ज़िक्र है. फैसले के दिन मैं अयोध्या में ही था. लोगों के मन का माहौल तो ऐसे ही था.

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