‘ “शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट” निबंध को अंत तक पढ़ लेने के बाद आप पाएंगे कि इसमें सत्य को जान लेने का दावा करने की एक मसीहाई मुद्रा है। साही जैसे विद्वान आलोचक के लिए यह सहज भी है। लेकिन सत्य को जान लेने के दावे की मुद्रा के कारण, क्षमा करेंगे, अर्थ का अनर्थ करने जैसे संकट भी खड़े हुए हैं। ऐसा महसूस होता है कि सत्य को जानने और बताने के संकल्प के बजाय अगर शमशेर की कविताओं से तन्मयतापूर्वक जुड़ने की कोशिश की गई होती तो सत्य का साक्षात्कार ज्यादा प्रामाणिक ढंग से हो पाता।’–विजयदेव नारायण साही के जन्मशती वर्ष में एक टेक यह भी… पढ़िए रमेश बर्णवाल का लंबा आलेख :
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‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’ (1964) विजयदेव नारायण साही जी का प्रसिद्ध आलोचनात्मक निबंध है। यह हिंदी में व्यावहारिक आलोचना का एक विचित्र उदाहरण है। विचित्र इसलिए कि इस निबंध की अकादमिक जगत में जितनी व्यापक प्रतिष्ठा है, उतनी ही कम इस निबंध के निष्कर्षों पर चर्चा हुई है। इस निबंध की विश्लेषण-पद्धति पर भी विचार नहीं किया गया है, जिसके ज़रिए साही जी ने निष्कर्ष निकाले हैं, जबकि इस निबंध के वक्तव्यों को बार-बार दुहराया जाता है। आलोचक कृष्णदत्त शर्मा ने इस निबंध के निष्कर्षों के लिए साही जी को आड़े हाथों लिया है और उनकी कुछ सीमाओं की अपने निबंध ‘मुक्तिबोध की दृष्टि में शमशेर’ में चर्चा की है। यह निबंध उनकी पुस्तक मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि (2018) में संकलित है। इसके अलावा श्रीराम वर्मा के शमशेर संबंधी संस्मरण ‘जस्ट फिट’ (दूधनाथ सिंह द्वारा संपादित एक शमशेर भी है में संकलित) में यह ज़िक्र मिलता है कि जब साही जी ने इलाहाबाद की एक गोष्ठी में यह निबंध पढ़ा था, तो ‘बाद में तो प्रगति-प्रकोष्ठियों ने उस लेख के जाने क्या-क्या अर्थ निकाले।’ क्या उस समय ‘प्रगति-प्रकोष्ठियों’ की वे प्रतिक्रियाएं किसी लेख के रूप में भी आईं, इसकी पुष्टि के लिए कोई प्रकाशित सामग्री मुझे नहीं मिली है। 1994 में प्रकाशित शमशेर पर अपनी पुस्तक काल से होड़ लेता कवि शमशेर का व्यक्तित्व में विष्णुचंद्र शर्माजी ने शमशेर पर रामविलास शर्मा और विजयदेव नारायण साही दोनों की आलोचना-दृष्टि के पूर्वाग्रहों की आलोचना करते हुए टिप्पणी की है, ‘यह दोनों आलोचक पहले अपनी समीक्षा के मूल्य गढ़ लेते हैं, फिर इधर-उधर बिम्बों या प्रतीकों का सरल भाष्य पेश करके शमशेर के चिंतन में रहस्यवाद के भारतीय या पाश्चात्य स्रोत खोजते हैं।’1 लेकिन यह आलोचना व्यवस्थित विश्लेषण नहीं है, बल्कि प्रासंगिक टिप्पणी के रूप में ही है। इसके अलावा शमशेर पर जितने लेखकों द्वारा लिखा प्रकाशित रूप में मिलता है, उनमें कहीं साही के लेख का कोई प्रत्याख्यान नहीं मिलता है।2 नामवर सिंह ने भी, जिन्होंने शमशेर की प्रतिनिधि कविताएं संपादित की है और उसमें एक भूमिका लिखी है, साही के निबंध ने जो भ्रमजाल फैलाया, उसकी कोई चर्चा नहीं की है। लेकिन इतना ज़रूर कहा है कि ‘जो शमशेर को “शुद्ध सौंदर्य का कवि” मानने के आग्रही हैं, उनकी आंख खोलने के लिए उन छवियों की ओर संकेत करना पर्याप्त होगा जिनमें अकुंठ भाव से शरीर का उत्सव रचा गया है।’ यह बहुत ही अपर्याप्त प्रतिक्रिया है। और एक तरह से साही की ‘सौंदर्य का कवि’ वाली धारणा की पुष्टि ही करती है, मात्र ‘शरीर का उत्सव’ पर केंद्रित होने के कारण। वरिष्ठ आलोचक नित्यानंद तिवारी ने 2011 में शमशेर की जन्मशती के अवसर पर इग्नू में दिए व्याख्यान में, जिसे अनभै सांचा में लेख के रूप में प्रकाशित किया गया, शमशेर की कविता ‘बैल’ का जिक्र करते हुए कहा है- ‘ये बां बां बां श्रम और यातना की ऐसी चीख है जिसमें मार्क्सवाद हाशिए पर नहीं हो सकता।’ केवल साही का लेख पढ़ चुके पाठक ही समझ सकते हैं कि इशारा साही के लेख की ओर है, जिसमें साही जी ने मार्क्सवाद के हाशिए पर होने की बात कही है। इसके अगले पैराग्राफ में ही नित्यानंद जी ने कहा है- ‘शमशेर की कविता में जिस वैष्णव तत्त्व की खोज साही जी ने की है, उससे एक सीमा तक ही मैं सहमत हूं। लेकिन वह अनुगूंज है।’3 इस टिप्पणी को एक तरह का प्रत्याख्यान कहा जा सकता है। साथ ही इससे साही के लेख की प्रतिष्ठा का अंदाज़ा भी लगाया जा सकता है। साही का लेख शमशेर पर बात करने के लिए हमारे सर्वश्रेष्ठ आलोचकों के लिए भी एक ज़रूरी संदर्भ की हैसियत रखता है। विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने अनभै सांचा में ही प्रकाशित एक साक्षात्कार में, जो सत्यप्रकाश सिंह ने लिया है, शमशेर की कविताओं पर लिखने वाले दो आलोचकों के नाम लिए हैं- ‘शमशेर पर मुक्तिबोध ने लिखा है, साही ने लिखा है। और जितना लिखा गया मुझे सबसे अच्छा मुक्तिबोध का लगता है। साही का लेख मैं प्रायः समझ लिया करता हूं।’4 मुख्य बात यह है कि अकादमिक जगत में साही जी का निबंध आज भी मानक बना हुआ है।
साही न सिर्फ़ नई कविता के एक प्रमुख कवि थे, बल्कि अपने दौर के प्रतिनिधि और विशिष्ट आलोचक भी थे। वे इलाहाबाद की साहित्यिक संस्था ‘परिमल’ के संस्थापक सदस्य थे। साहित्य में प्रगतिवादी धारा के विरोधी और उसके समानांतर दूसरी धारा चला रहे उस समय के अनेक लेखक, कवि और आलोचक इस संस्था के सदस्य थे। साही के अधिकतर चर्चित और बहस के लिए आमंत्रित करने वाले निबंध उनकी पुस्तक छठवां दशक में संकलित हैं। ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’ इसी में संकलित है। यह कुल 26 पेज का निबंध है। इस निबंध में ही उन्होंने लिखा है- ‘शमशेर की कविता या समूची नई कविता को ठीक-ठीक देखने के लिए नई कविता के प्रतिमान की ज़रूरत नहीं है, बल्कि कविता के नए प्रतिमान की ज़रूरत है।’5 साही के इस वक्तव्य की शब्दावली तक के लिए हिंदी के शिखर आलोचक नामवर सिंह ऋणी कहे जा सकते हैं, जिन्होंने नई कविता पर महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी- कविता के नये प्रतिमान। और इसमें आलोचना के औज़ार भी कमोबेश नई समीक्षा वाले ही रखे, जो साही की भी पसंदीदा पद्धति है।
इस निबंध को विश्वविद्यालयों में शमशेर पर सबसे प्रामाणिक काम के रूप में अनुशंसित किया जाता रहा है और इसमें दिए गए वक्तव्य शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए उद्धरण के काम आते हैं। यह निबंध यों तो शमशेर की काव्यानुभूति पर केंद्रित है, लेकिन शमशेर की कविता को समझने और समझाने के क्रम में नई कविता के बारे में भी कुछ महत्त्वपूर्ण स्थापनाएं की गई हैं। निबंध के दूसरे ही पेज में कहा गया है- ‘नई कविता की बहसों में यह मान्यता अंतर्भुक्त रही है कि न सिर्फ़ कविता का ऊपरी कलेवर बदला है, या नए प्रतीकों या बिम्बों या शब्दावली की तलाश हुई है, बल्कि गहरे स्तर पर काव्यानुभूति की बनावट में ही परिवर्तन आ गया है।…चेतना के जो तत्त्व काव्यानुभूति के आवश्यक अंग दिखते थे, उनमें से कुछ अनुपयोगी या असार्थक दिखने लगे, कुछ अन्य जो पहले अनावश्यक या विरोधी लगते थे, काव्यानुभूति के केंद्र में आ गए। और कुल मिलाकर काव्यानुभूति और जीवन की काव्येतर अनुभूति में जो रिश्ता दिखता था, वह रिश्ता भी बदल गया।’6
इस पूरे निबंध से हम कुछ दिलचस्प और महत्त्वपूर्ण सूत्रात्मक वाक्य चुनकर यहां एक जगह प्रस्तुत कर रहे हैं। इनसे इस पूरे निबंध की दृष्टि और प्रेरणा सूत्र समझने में पाठकों को आसानी होगी।
1. हमारे चारों ओर रोजमर्रा का एक जीवन है। इसी का अतिक्रमण करने की कोशिश कविता करती है। (पृ.195)
2. कविता के जन्म में ही निषेध का तीर बिंधा हुआ है। (पृ.196)
3. कविता सिर्फ जन्म ही नहीं लेती, वह कवि से अलग होकर एक सार्वजनिक अस्तित्व ग्रहण करती है। (पृ.196)
4. शून्य से, नितांत न कुछ से कविता का जन्म होता है- इस गति में रुकावट नहीं है, लेकिन जन्म लेते ही एक प्रतिगति भी सक्रिय होती है। (पृ.196)
5. शमशेर की काव्यानुभूति सौंदर्य की ही अनुभूति है। (पृ.200)
- शमशेर की सारी कविताएं यदि शीर्षकहीन छपें, या उन सब का एक ही शीर्षक हो ‘सौंदर्य’ शुद्ध सौंदर्य, तो कोई अंतर नहीं पड़ेगा। (पृ.203)
- शमशेर ने किसी विषय पर कविताएं नहीं लिखी हैं। उन्होंने कविताएं, सिर्फ कविताएं लिखी हैं, या यों कहें कि एक ही कविता बार-बार लिखी है। (पृ.203)
8. मनोविश्लेषण आदमी के व्यक्तित्व के बारे में जो कुछ भी बतलाता है, कविता के बारे में कुछ नहीं बतलाता। (पृ.204)
- देशकाल से बंधे हुए यथार्थ के मर्म में ही एक दरार, फांक या रिक्तता है जहां देश न वैसा देश है जिसे हम साधारणतः जानते हैं और न काल घटनाओं की न लौटने वाली गति है जिसे घड़ी नापती है। (पृ.208)
- बिम्बों का सृजन ही काव्यानुभूति की वह नैसर्गिक अवस्था है, जहां वह जीवन की अनुभूति से एकाकार होती है। (पृ.210)
- बिम्ब आत्म की वस्तुता और वस्तु की आत्मता की तलाश है। 210
- यूटोपियन दृष्टि वर्तमान का निषेध नहीं करती, भविष्य और वर्तमान के बीच जो अंतराल है, उसका निषेध करती है। (पृ.212)
- यूटोपिया का मतलब क्या है? वह लोक जिसका अस्तित्व नहीं है। इस तरह उसके अस्तित्व में ही अनस्तित्व का आवरण है। (पृ.212)
- शमशेर मूलतः अतिवादी हैं, ऐसे अतिवादी जो अपने ही अतिवाद से सहम कर वापस लौटने की चिरंतन मुद्रा में गिरफ्तार हो गए हैं। (पृ.214)
- शमशेर की काव्यानुभूति बिम्ब की नहीं, बिम्बलोक की अनुभूति है। इसी का निर्माण वे बार-बार करते हैं और विविध बिम्बों के बावजूद एक ही कविता लिखते हैं। (पृ.216)
- शब्द की जड़ अवस्था वह है जो उनको रूढ़ अर्थों के पाश में बांधती है। (पृ.217)
- आज की कविता की समस्या लगभग उसी शक्ल में सामने आती है जिस तरह वह ध्वनिकार के सामने आई थी। (पृ.217)
- शमशेर की कविता या समूची नई कविता को ठीक-ठीक देखने के लिए नई कविता के प्रतिमान की जरूरत नहीं है, बल्कि कविता के नए प्रतिमान की जरूरत है। (पृ.218)
- कविता शब्दों और शब्दों के संयोग से नहीं बनती, बल्कि शब्दों का जाल जो यथार्थ पर फेंका जाता है, उससे बनती है। यह फेंका हुआ जाल ही अर्थ है। (पृ.218)
- वस्तुतः संभावना ही वह आधारभूमि है जिसमें आत्म और वस्तु दोनों का अस्तित्व होता है। इस संभावना को सिर्फ दिमागी कौल की तरह नहीं, बल्कि सीधी, माध्यमहीन, जीवन की धड़कन की तरह अनुभूत करना ही काव्यानुभूति है। (पृ.207)
निश्चित रूप से आपको ये सूत्र दिलचस्प, अंतर्दृष्टिपूर्ण, गहन और मौलिक लगेंगे। ये सूत्र इस पूरे निबंध की दिशा के संकेत-सूत्र हैं। आगे के विश्लेषणों में भी इनका जगह-जगह हवाला लिया जाएगा। आप लक्ष्य करेंगे कि इन सूत्रों में कहीं समाज, इतिहास जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया है। हम इसकी जांच करेंगे कि इसके लिए क्या शमशेर की कविता उत्तरदायी है या स्वयं आलोचक?
यहां से हम निबंध की संरचना में प्रवेश करेंगे और उसके संकल्प, आशयों, तर्क-प्रणाली, दार्शनिक संदर्भों, पूर्वाग्रहों और निष्कर्षों पर प्रकाश डालेंगे। चूंकि शमशेर की कविता पर यह निबंध बहुत निर्णयात्मक स्वर में लिखा गया है, इसलिए हम भी प्रयास करेंगे कि निबंध की समीक्षा में निर्णयात्मकता के स्वर की रक्षा की जाए। स्पष्ट है कि इसमें शमशेर की कविता के प्रति एक पक्षधरता का भाव आपको मिलेगा। लेकिन वह पूर्वाग्रहरहित हो, इसकी हर संभव कोशिश भी आपको मिलेगी।
शमशेर की काव्यानुभूति की चुनौती
तो सबसे पहले हम उस चुनौती की चर्चा करेंगे जो आलोचक महसूस करता है शमशेर की कविता पर बात करते समय। यह चुनौती दो तरह की हो सकती थी। एक, कि शमशेर की कविता से आलोचक दूरी महसूस करता है और फिर भी उसे तटस्थ होकर उस पर बात करनी है, यह चुनौती। दूसरी चुनौती यह हो सकती थी कि शमशेर की कविता अपनी जटिलता के कारण आलोचना की दृष्टि से चुनौतीपूर्ण है, इसलिए उस पर आलोचक के लिए बात करना एक चुनौती की तरह है। लेकिन यहां साही के सामने ऐसी कोई चुनौती नहीं है। यहां चुनौती कुछ और है। चुनौती यह है कि ‘शायद लोग यह भी प्रश्न उठाने की जरूरत समझें कि जो कुछ शमशेर ने अब तक लिखा है या प्रकाशित कराया है, वह कविता है भी या नहीं।’7 चुनौती यह है कि बकौल साही ‘शमशेर की कविता का वह केंद्रीय भाग, जो उनका खास रंग है, बहुतों के लिए संदेह-भरी भू्र-भंगिमा का अवसर भर हो सकता है।’8 (अनुपात की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए बोल्ड मैंने किया है।) यह शमशेर की कविता के प्रति अनुराग व्यक्त करने और उसके महत्त्व को उजागर करने का आलोचक का अपना अंदाज है! साही ने शमशेर की कविता के संदर्भ में इन्हें ‘आरंभिक सवाल’ कहा है। और ये ‘आरंभिक सवाल’ नई कविता के पूरी तरह स्थापित हो जाने के बाद उठाए जा रहे हैं।
आलोचक ने यह जरूर कहा है कि ‘शमशेर ने कविता के छंद, लय, शब्दावली सबमें बहुत से नए प्रयोग किए हैं। उन्होंने ऐसे प्रतीकों और बिम्बों का सृजन किया है जो कविता के अभ्यस्त पाठकों और श्रोताओं को अक्सर चुनौती की तरह लग सकते हैं।’9 (यह भी ‘आरंभिक सवाल’ है। ऐसे चार ‘आरंभिक सवाल’ साही ने रखे हैं। शेष बचा ‘आरंभिक सवाल’ यह है-‘फिर शमशेर की कविताओं की दुरूहता का प्रश्न है। इसमें शक नहीं कि हिंदी में शमशेर से ज्यादा दुरूह कविताएं किसी ने नहीं लिखीं।’) आप संभवतः यहां उम्मीद करेंगे कि आलोचक आपको इसका समाधान देगा कि कवि ने ऐसे प्रयोग क्यों किए हैं। लेकिन आलोचक कहता है, ‘इन सवालों के विभिन्न पहलुओं में उलझने में खतरा यह है कि बात शमशेर की कविता पर न होकर शमशेर की कविताओं जैसी कविता पर हो जाएगी। और इस तरह शायद कवि शमशेर के साथ हम न्याय नहीं कर सकेंगे।’10 यहां दो बातें गौर करने की हैं। एक कि आलोचक चाहता है कि कवि शमशेर के साथ न्याय किया जाय। उनकी कविताओं को गलत न समझा जाए। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आलोचक मानता है कि शमशेर की दो तरह की कविताएं हैं। एक, जिसे आलोचक कविता कह रहा है। और दो, जिसे आलोचक ‘कविताओं जैसी कविता’ कह रहा है। साही जी की बात से तो यही व्यंजना निकल रही है। ‘कविताओं जैसी कविता’ से आखिर क्या समझा जाए? क्या यह कहना काफी होगा कि ये वे ‘कविताएं’ हैं, जिन्होंने लोगों के मन में इनके कविता होने के प्रति संदेह और विस्मय को जन्म दिया है?11
यहां यह भी एक सवाल है कि शमशेर के यहां ऐसी कविताएं अनुपात में कितनी हैं? साही जी ने ‘आरंभिक सवालों’ के रूप में दूसरों के संदेहों का जो जिक्र किया है, उसके अनुसार तो शमशेर की सारी कविताएं उसी पाले में गिरती हैं।
ध्यान दें कि चार में से तीन ‘आरंभिक सवाल’ दूसरों के कंधों पर रखकर प्रस्तुत किए गए हैं और वह भी संभावनासूचक क्रियाओं के साथ। हालांकि हम जानते हैं कि उस दौर में यह शमशेर की कविताओं के प्रति लोगों के दृष्टिकोण से जुड़ी एक सचाई थी, लेकिन यह सचाई का एक पहलू था।
सचाई के दूसरे पहलू पर बात करें, तो हम देखते हैं कि बहुत गहरी साधना से अर्जित अपने विशिष्ट शिल्प और संवेदना के गहरे और निजी रंग के कारण शमशेर को, शुरुआती उपेक्षा का एक दौर गुजरने के बाद, व्यापक पहचान और स्वीकृति मिली थी। कविता के प्रति समर्पित निष्ठा के कारण सभी समकालीन कवियों के बीच उनका अलग दर्जा था। उनकी कविताएं 1933-3612 से ही यानी छायावादी दौर में छपना शुरू हो चुकी थीं। ‘सरस्वती’ में उनकी पहली कविता छपी थी। पंत द्वारा संपादित ‘रूपाभ’ तथा ‘हंस’ जैसी पत्रिकाओं में उनकी कविताएं छप रही थीं। शुरुआती कविताओं में छायावादी रंग दिखाई देता है, लेकिन उन्हीं के भीतर से शमशेर का निजी रंग भी उभर रहा था।
अधिकतर समकालीन कवियों के साथ उनके निजी और आत्मीय संबंध थे, तो इसके पीछे मित्रता के अलावा काव्य जगत में उनकी विशिष्ट पहचान भी थी। अज्ञेय ने 1951 में ‘दूसरा सप्तक’ में उनकी कविताएं शामिल की थीं। बहुतों का मानना था कि उन्हें ‘तारसप्तक’ (1943) में शामिल किया जाना चाहिए था। नेमिचंद जैन ‘तारसप्तक’ की योजना में एक तरह से संयोजक की भूमिका निभा रहे थे और शमशेर की कविताओं से परिचित थे। हालांकि उन्होंने ‘तारसप्तक’ की योजना का, पत्राचार के साक्ष्यों के साथ जो पूरा विवरण दिया है, ‘तारसप्तक प्रसंग’ लेख में, उसके अनुसार मूल योजना में ‘मध्य भारत या मालवा के’ कवियों की कविताएं ही शामिल करने की योजना थी। बाद में मूल योजना में शामिल दो कवि प्रभागचंद्र शर्मा और वीरेंद्र कुमार जैन निकल गए और बदले घटनाक्रम के चलते अज्ञेय और रामविलास शर्मा शामिल हो गए।14 अज्ञेय ने ‘तारसप्तक’ में शमशेर को शामिल न करने के सवाल पर बाद में यह सफाई दी थी कि शमशेर की कविताएं ‘तारसप्तक’ में आ जातीं, अगर शमशेर ने समय पर अपनी कविताएं दे दी होतीं। (पाठकों की जानकारी के लिए बता दें कि अज्ञेय और शमशेर हमउम्र कवि थे। दोनों का जन्म वर्ष 1911 है। हां, दोनों की जीवन-स्थितियां भिन्न थीं।) इससे इतना निष्कर्ष तो निकलता है कि 1943 में भी शमशेर की नए किस्म के कवि की छवि बन चुकी थी। 1951 में ‘दूसरा सप्तक’ में, जो पूरी तरह अज्ञेय की योजना थी, शमशेर की कुछ विशिष्ट कविताएं उनके वक्तव्य के साथ प्रकाशित हुईं। उनमें से कई कविताएं शमशेर की स्थायी पहचान का हिस्सा हैं।15
साही ने अपना यह निबंध 1964 में इलाहाबाद में एक गोष्ठी में पढ़ा था। और यह 1958 की बात है कि शमशेर के समकालीन कवि, मित्र और वैचारिक साथी मुक्तिबोध ने शमशेर की कविताओं पर नरेश मेहता और श्रीकांत वर्मा द्वारा संपादित ‘कृति’ में बहुत ही अंतर्दृष्टिपूर्ण लेख लिखा था। उस लेख में शमशेर की कविताओं के प्रति मुक्तिबोध की तन्मयता सहज ही महसूस की जा सकती है। 1964 तक शमशेर के दो काव्य-संग्रह ‘कुछ कविताएं’ और ‘कुछ और कविताएं’ प्रकाशित हो चुके थे। यह 1964 की ही बात है कि मुक्तिबोध दिल्ली के एम्स में रोगशैय्या पर थे और शमशेर उनकी बीमारी की खबर सुनकर इलाहाबाद से दिल्ली उनसे मिलने पहंुचे। और मुक्तिबोध की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु के बाद प्रकाशित उनके काव्य-संग्रह ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ की भूमिका लिखने के लिए सबको शमशेर ही सबसे उपयुक्त लगे थे।
इस तरह शमशेर अपने निजी जीवन में भले ही अभाव और फक्कड़पन का जीवन जी रहे थे, लेकिन काव्य-जगत में उनकी खासी प्रतिष्ठा थी। निश्चित रूप से उस प्रतिष्ठा का आधार सिर्फ वे ‘संदिग्ध’ कविताएं तो नहीं रही होंगी, जिसे साही ‘जो कुछ शमशेर ने अब तक लिखा है या प्रकाशित कराया है’ भी कह रहे हैं। यहां साही के कथन की मात्र इतनी ही सार्थकता है कि इससे शमशेर की कविताओं पर उस समय तक उठाए जाने वाले सवालों का संकेत मिलता है। यह एक सचाई है कि नई कविता के एक बड़े हिस्से पर असंप्रेषणीयता का आक्षेप लगाने वाले लोगों ने शमशेर की कविताओं को उदाहरण की तरह इस्तेमाल किया और विश्वविद्यालयों में आज तक यह होता आ रहा है। अपने भाषा और शिल्पगत अनोखे-अनदेखे प्रयोगों से शमशेर ने सबका ध्यान खींचा और इसी कारण कविता के अभ्यस्त पाठकों को भी वे चुनौती लगे। अपने समय के इसी संदर्भ को साही ने सामने रखा है। इस बात को मानते हुए ही वे लिखते हैं- ‘‘नई कविता की सामान्य विवेचना के लिए शमशेर को उदाहरण की तरह इस्तेमाल करना एक बात है और कवि शमशेर का जो अपना निजी स्वतःसंपूर्ण काव्यजगत है, उसमें प्रवेश करना दूसरी बात है।… पहले प्रकार की चर्चा तो काफी हो चुकी है। इसलिए भी दूसरे ढंग से विचार करने की उपयोगिता कुछ अधिक दिखती है।16 यहां साही ने यह भी कहा है कि ‘यदि हम सीधे शमशेर की मनोभूमि में प्रवेश करने की कोशिश करेंगे तो शायद आरंभिक शंकाओं का उत्तर भी एक हद तक मिल जाएगा।’17
पूरे निबंध में साही ने शमशेर की मनोभूमि में प्रवेश करने और उसके माध्यम से शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट को पूरी तरह स्पष्ट करने की कोशिश की है। इस तरह उन्होंने शुरू में जिन चुनौतियों का जिक्र किया, उनके कारणों की व्यापक पड़ताल इस निबंध में की है। लेकिन इस निबंध को अंत तक पढ़ लेने के बाद आप पाएंगे कि इसमें सत्य को जान लेने का दावा करने की एक मसीहाई मुद्रा है। साही जैसे विद्वान आलोचक के लिए यह सहज भी है। लेकिन सत्य को जान लेने के दावे की मुद्रा के कारण, क्षमा करेंगे, अर्थ का अनर्थ करने जैसे संकट भी खड़े हुए हैं। ऐसा महसूस होता है कि सत्य को जानने और बताने के संकल्प के बजाय अगर शमशेर की कविताओं से तन्मयतापूर्वक जुड़ने की कोशिश की गई होती तो सत्य का साक्षात्कार ज्यादा प्रामाणिक ढंग से हो पाता।
नई समीक्षा की भूलभुलैया
आलोचक ने काव्यानुभूति की बनावट को स्पष्ट करने के लिए तर्कों की एक लंबी शृंखला बनाई है और एक-एक करके शमशेर की काव्यानुभूति के आधारों की व्याख्या करते हुए काव्यानुभूति के रहस्य को खोलने का दावा किया है। प्रस्तुत बिम्बों के भीतर जो काव्यानुभूति व्यक्त या अव्यक्त, स्फुटित या अस्फुटित है, उसके विश्लेषण के लिए उसके मूल कारणों को बता दिया गया है। लेकिन क्या यही मूल कारण हैं, इसे प्रमाणित करने के लिए वैचारिक स्रोतों पर ज्यादा भरोसा किया गया है। कवि की रचना-प्रक्रिया क्या रही है, इन कविताओं के संवेदना-स्रोत क्या हैं, काव्य-रचना के इन वास्तविक संदर्भों को महत्त्व नहीं दिया गया है। कविताओं में उपलब्ध भाषागत साक्ष्य को ही विश्लेषण और निष्कर्ष का आधार बनाया गया है। नई समीक्षा में माना गया कि कविता ही विश्लेषण का विषय है, कविता ही कवि का वक्तव्य है। कविता के विश्लेषण के लिए कविता और कवि की सामाजिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि की तलाश करना बेमानी है, इनके विश्लेषण से कविता के सत्य तक पहुंचने में कोई मदद नहीं मिलती। कविता के विश्लेषण के लिए काव्येतर पृष्ठभूमियों के विश्लेषण की विधि अप्रामाणिक है। कविता में प्रस्तुत सामग्री ही कविता का सत्य है, आदि-आदि।
हम साही को नई समीक्षा से प्रभावित पाते हैं। यही नहीं, पूरा ‘परिमल’ ग्रुप, साही जिसके नेतृत्वकर्ता सदस्य थे, नई समीक्षा की विधियों का कायल था। डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. रघुवंश, रामस्वरूप चतुर्वेदी सबने नई समीक्षा की काव्य-भाषा-विश्लेषण-विधि पर जोर दिया। ऐतिहासिक रूप से देखें तो यह आलोचना की प्रगतिवादी धारा से अलग धारा के विकास का सचेत प्रयास था। साही भी यही करते हैं। उनका ध्यान कविता में प्रस्तुत बिम्बों पर, बिम्बलोक पर और अर्थ की उपलब्धि के लिए ‘शब्दों के पाश’ टूूट जाने पर केंद्रित है। इसके लिए एक जगह व्यंजना शब्द शक्ति और ध्वनि सिद्धांत का भी उन्होंने हवाला दिया है। हालांकि उस मार्ग पर वे आगे नहीं बढ़े हैं, लेकिन शमशेर की कविता में ‘शब्दों के पाश’ टूट जाने को कविता की व्यंजना शक्ति से जोड़कर उन्होंने काव्य भाषा की एक महत्त्वपूर्ण शक्ति का इशारा किया है। साही ने इस निबंध में नई समीक्षा की भाषा-विश्लेषण विधि के अनुसार कविता को ही प्रमाण माना है और कविता में प्रयुक्त शब्दों, या यों कहें, अनोखे और अद्वितीय बिम्बों को ही विश्लेषण का आधार बनाया है।
लेकिन उन्होंने दो और चीजें की हैं जो नई समीक्षा के संकल्पों से दूर जा पड़ती हैं। एक तो यह कि उन्होंने ‘दूसरा सप्तक’ और काव्य संग्रहों की भूमिकाओं में दिए गए कवि के वक्तव्यों को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। उनमें भी एक तरह के वक्तव्य को या वक्तव्यों को इतना प्रामाणिक माना है कि शमशेर की समस्त कविताओं पर उसे घटाते हुए, समस्त कविता का मूल और एकमात्र सत्य बताया है। सब मर्ज की एक दवा। और दूसरे तरह के वक्तव्यों को बहुत जोर देकर विरोधाभासी बताया है। साही ने यह किस प्रकार और क्यों किया है, इस पर हम बाद में चर्चा करेंगे। यहां महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि आलोचक ने कविता मात्र को ही कवि का वक्तव्य मानने के साथ-साथ कविता के बाहर कवि के दिए गए वक्तव्य को भी प्रमाण माना है और वैचारिक स्रोतों पर ज्यादा भरोसा किया है। इससे यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कविताओं के संवेदनागत स्रोतों की तलाश पर आलोचक का ध्यान कम रहा है, और लगभग समकालीन होते हुए भी कवि से उसका खुला संवाद नहीं रहा है। जबकि उस दौर में आलोचक और कवि, दोनों का ही ठिकाना इलाहाबाद था।
उस समय इलाहाबाद के कई युवा लेखक-कवि शमशेर के निकट संपर्क में रहे, बल्कि उन्हें शमशेर के अनोखे और छोटे से निवास ‘जस्ट फिट’ में साथ रहने का सौभाग्य भी मिला।18 उस समय के अनेक चर्चित लेखकों, कवियों और आलोचकों का, आवभगत की अति सादगी के बावजूद, ‘जस्ट फिट’ में अक्सर आना-जाना होता था। शमशेर पर जितने भी संस्मरण लिखे गए हैं, किसी में साही का शमशेर के साथ बौद्धिक आदान-प्रदान या आत्मीयता भरे प्रसंग का कोई जिक्र नहीं मिलता। एक प्रसंग मिलता है कि कवि नरेश मेहता की शादी में आवभगत में बहुत व्यस्त शमशेर जी जब साही जी के पास पहुंचे, ‘साही जी ने उनका हाथ पकड़ लिया और कहने लगे, शमशेर जी, आप हमें कांटों में मत घसीटिए। आप बड़े हैं, आप हमारे लिए यह सब करें, हमारे लिए डूब मरने की बात है।’19 शमशेर जी किन्हीं कारणों से वहां लड़की वाले की भूमिका में थे। दोनों की उम्र की बात करें तो साही शमशेर से पंद्रह साल छोटे थे। शमशेर ने भी कहीं साही का कोई जिक्र नहीं किया है।
विष्णुचंद्र शर्मा ने, जो बनारस में प्रो. साही के शिष्य रह चुके थे, यह जिक्र किया है कि काशी विद्यापीठ से साही इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर होकर चले गए थे। ‘‘अक्सर कवि सम्मेलन या फैक्ट्री के ट्रेड यूनियन के सिलसिले में वह बनारस भी आते थे। मैंने एक दिन उनसे पूछा था- ‘क्या शमशेर से आप कभी मिलते हैं?’ प्रो. साही ने उत्तर दिया था- शमशेर के करीब तो नहीं हूं, पर उनकी कविता की बनावट पर इधर बार-बार सोचा है।’’20 इससे यह पता चलता है कि शमशेर के प्रति एक निरपेक्षता साही में रही है। एक और कारण यह भी हो सकता है कि साही इलाहाबाद की संस्था ‘परिमल’ के प्रमुख और संस्थापक सदस्य थे। ‘परिमल’ का प्रगतिवादी या मार्क्सवादी साहित्यकारों से स्पष्ट विरोध था। शमशेर मार्क्सवादी थे। उनकी कविताओं पर यह आरोप जरूर लगा कि वे प्रगतिवाद के अनुरूप नहीं हैं। लेकिन उन्होंने अपनी विचारधारा में कभी परिवर्तन नहीं किया। श्रीराम वर्मा ने शमशेर से जुड़े अपने संस्मरण में लिखा है कि जब वे शमशेर के साथ जस्ट फिट में रहा करते थे, तो कुछ लोगों ने शमशेर से शिकायत की थी कि ये ‘परिमल’ का जासूस है। लेकिन शमशेर ने इसे महत्त्व नहीं दिया था।21 शमशेर अपनी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध बने रहे लेकिन व्यक्तिगत संबंधों में उसे बाधा नहीं बनने दिया। अज्ञेय मार्क्सवादी नहीं थे, लेकिन उनसे शमशेर के निजी संबंध थे। शमशेर के जस्ट फिट में वे आया करते थे। हालांकि कुछ निजी कारणों से दोनों के बीच संबंधों में दूरी पैदा हो गई थी। लेकिन उसके निजी कारण थे। यह जरूर था कि ‘परिमल’ के किसी भी सक्रिय सदस्य से शमशेर के नजदीकी संबंध नहीं रहे और अपनी विचारधारा के साथियों के बीच वे ज्यादा सहज रहे। ऐसे साथियों की फेहरिस्त लंबी है, जिसमें कवि, आलोचक, कलाकार, चिंतक, राजनीतिक कार्यकर्ता सभी हैं।
‘परिमल’ से जुड़े मलयज और श्रीराम वर्मा, ये दो कवि-लेखक शमशेर जी के करीब आए थे, तो शमशेर के प्रति कुछ आकर्षण के कारण और कुछ नवयुवक कवि-लेखक होने के नाते। बाद में तो शमशेर मलयज के परिवार के बहुत ही करीब होकर रहे। लेकिन मलयज और श्रीराम वर्मा शमशेर से लगभग तीस साल छोटे थे और वे उनके लिए परिमल के सदस्य मात्र नहीं थे।
परिमल के कार्यक्रम में शमशेर जी के जाने के दो प्रसंग जरूर मिलते हैं। एक बार, श्रीराम वर्मा के शब्दों में, ‘‘उन्होंने साही जी के घर ‘परिमल’ में अज्ञेय जी की उपस्थिति में एक कविता पढ़ी यह कहते हुए कि यह कविता ‘एक बहुत बड़े आलोचक से’ शीर्षक से पढ़ रहा हूंः ‘जो नहीं है उसका गम क्या’।’’22 बाद में यह कविता ‘कुछ कविताएं में ‘अज्ञेय से’ शीर्षक के साथ छपी थी। दूसरी बार तब, जब साही ने एक गोष्ठी में ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’ अपना निबंध पढ़ा था। इस गोष्ठी में निबंध के बाद शमशेर की आवाज में रिकॉर्ड की गई दो कविताएं सुनाई गई थीं।23 शमशेर खुद इस कार्यक्रम में उपस्थित थे। शमशेर की क्या प्रतिक्रिया रही, यहां इसकी चर्चा करना उचित नहीं होगा। इस प्रसंग में यही तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि साही शमशेर के घर जाते थे या अपने निबंध की तैयारी के लिए उनका कोई साक्षात्कार लिया था, इसका कोई जिक्र हमें नहीं मिलता। शमशेर अभावपूर्ण जिंदगी में संतुष्ट रहनेवाले एक कवि-लेखक थे। जबकि साही इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थे और खुद साहित्यिक गतिविधियों का एक केंद्र बन चुके थे।
दूसरी चीज, आलोचक ने काव्यानुभूति में अभिव्यक्ति और संकोच के तनाव और संतुलन की पड़ताल के लिए कविता में व्यक्त सत्य के अलावा कवि के निजी व्यक्तित्व और स्वभाव को भी प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। साथ ही इसकी पुष्टि के लिए कवि के कविता के बाहर दिए गए एक वक्तव्य की ‘वैष्णव शब्दावली’ पर भी ध्यान केंद्रित किया है। हालांकि आलोचक खुद एक जगह मानता है कि ‘मनोविश्लेषण आदमी के व्यक्तित्व के बारे में जो कुछ भी बतलाता है, कविता के बारे में कुछ नहीं बतलाता।’24 यह बात नई समीक्षा के निष्कर्षों के अनुरूप ही है। आप देख सकते हैं कि साही अपनी समीक्षा पद्धति में ऐसी चीजों का भी समावेश करते हैं, जिन्हें उनकी समीक्षा पद्धति स्वीकार नहीं करती। आगे आप पाएंगे कि साही ने उन्हें इसलिए स्वीकार किया है क्योंकि इससे उन्हें अपने निष्कर्ष बनाने में सहायता मिली है और वे उनके निष्कर्षों के अनुरूप हैं।
गति और प्रतिगति का तनाव
साही का पहला निष्कर्ष है कि शमशेर की कविता निषेधों से बनी है। इसके लिए उन्होंने 19वीं सदी के प्रतीकवादी कवि मालार्मे की काव्य-दृष्टि का सहारा लिया है। और दोनों में कुछ समानता की चर्चा करते हुए इस निष्कर्ष तक पहुंचे हैं कि ‘कविता के जन्म में ही निषेध का तीर बिंधा हुआ है।’25
मालार्मीय विडंबना का संदर्भ देते हुए साही जीवन और सृष्टि के प्रति संदेह, नफरत और अनास्था के बोध से बनी काव्यानुभूति की चर्चा करते हैं और यह कहते हैं कि ‘शायद ही आज का कोई कवि हो जिसे अपने ढंग से इस मालार्मीय विडंबना का सामना कभी न कभी न करना पड़ा हो।’26 आशय यह है कि जीवन के प्रति एक निरर्थकता के बोध से कवि ग्रस्त होता है और इसलिए कविता में निषेध की दृष्टि जन्म लेती है। साही ने लिखा है- ‘हमारे चारों ओर रोजमर्रा का एक जीवन है। इसी का अतिक्रमण करने की कोशिश कविता करती है।’27 दूसरे शब्दों में हम इसे कह सकते हैं कि जो बाह्य यथार्थ है, कविता में कवि उसे अतिक्रमित कर कल्पना के जरिए, बिम्ब के जरिए एक नया यथार्थ रचने की कोशिश करते हैं। और कविता में रचे गए इस नए यथार्थ के महत्त्व के बारे में एक लेखक का तो यहां तक कहना था कि ‘कला में जो यथार्थ चित्रित होता है, वह बाह्य यथार्थ की अपेक्षा अधिक यथार्थ है।’28 लेकिन हमें सावधान रहना होगा कि ‘अतिक्रमण’ किसी भी सूरत में पलायन नहीं है। इस तरह, कविता में बाहर से होकर ही भीतर की यात्रा हो सकती है, या होनी चाहिए, उससे नजरें चुराकर नहीं।
यह सच है कि रोजमर्रा के जीवन में एक नीरसता होती है, लेकिन किसी न किसी कारण से प्रसूत सरसता या सरसता की संभावनाएं भी उसी के भीतर होती हैं। जीवन के उत्कर्ष के सारे प्रयास उसी के भीतर होते हैं। लेकिन साही रोजमर्रा के जीवन को अनुभव के एक भिन्न धरातल पर देखते हैं, जिसे ‘हम चाहें तो तमस् कह लें, मध्यवर्गीय कुठाएं कह लें, कोल्हू के बैल का अंधा चक्कर कह लें, वस्तुओं का शिकंजा कह लें, या विज्ञान की जड़, यांत्रिक दुनिया कह लें-’29 और इसी का अतिक्रमण आधुनिक कविता, बल्कि ‘नई कविता’ करती है। लेकिन अतिक्रमण किस ओर? साही कहते हैं, ‘अगर चारों ओर का प्राकृत जीवन सत्य है तो फिर क्या हम सचमुच सत्य का ही अतिक्रमण नहीं करते?’30 उनके प्रश्न में ही उत्तर निहित है और इसी बिंदु के इर्द-गिर्द वे ‘मालार्मीय विडंबना’ को रेखांकित करते है। इस विडंबना-बोध के परिणामस्वरूप ही वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं -‘‘कविता के जन्म में ही निषेध का तीर बिंधा हुआ है।’’ शमशेर की काव्यानुभूति के दरवाजे पर यह उनकी पहली दस्तक है। और फिर जब दरवाजा खुलता है तो साही इस सवाल और जिज्ञासा के साथ प्रवेश करते हैं कि ‘निषेध के तीर ने कितनी काव्यानुभूतियों को जन्म लेने के समय ही बींध दिया?’31 हम स्पष्ट देख सकते हैं कि जिज्ञासा की यह यात्रा निष्कर्ष के साथ शुरू होती है।
साही लिखते हैं, ‘मालार्मीय विडंबना एक संकोच के रूप में काव्यानुभूति को बिद्ध करती है।’32 संकोच का शाब्दिक अर्थ भी उन्होंने बताया है- ‘सिमटना, अपने में संकुचित हो जाना।’ यहां वे एक महत्त्वपूर्ण काव्य-सत्य कहते हैं- ‘कविता सिर्फ जन्म ही नहीं लेती, वह कवि से अलग होकर सार्वजनिक अस्तित्व ग्रहण करती है।’33 लेकिन इस काव्य-सत्य को वे कविता की, लिखी जाने के बाद कवि से स्वायत्तता के अर्थ में नहीं देखते, काव्यानुभूति के संदर्भ में एक अलगाव, एक दरार के रूप में देखते हैं। ‘जन्म और अस्तित्व, काल-क्षण और काल-प्रवाह के बीच एक दरार है। शून्य से, नितांत न कुछ से कविता का जन्म होता है।’34 आप देख सकते हैं कि जिसे आलोचक ने पहले ‘दरार‘ कहा, उसे ही फिर ‘शून्य’ और ‘नितांत न कुछ’ से प्रतिस्थापित कर दिया है। यह आलोचक का सचेत, सप्रयोजन प्रयास है। संबंध और संघर्ष के बजाय अलगाव और दरार देखने पर उसका विशेष बल है।
साही आगे लिखते हैं- ‘इस गति में शायद रुकावट नहीं है, लेकिन जन्म लेते ही एक प्रतिगति भी सक्रिय होती है।’35 यहां से साही शमशेर की काव्यानुभूति की एक मूल प्रवृत्ति को पकड़़ने का प्रयास करते हैं। -‘शमशेर की कविता में एक प्रतिगति है, उसी शून्य, उसी न कुछ में वापस चले जाने की। गति और प्रतिगति-अभिव्यक्ति और संकोच के इस तनाव में एक तरह की स्थिरता, संतुलन पैदा होता है।’36 इस स्थिरता और संतुलन के लिए कहा गया है, ‘यह स्थिरता, यह अटकाव, यह स्थिति अनस्तित्व और अस्तित्व के बीच एक अंतराल है-विशुद्ध संभावना का क्षण है। यह वह मनोभूमि है जहां कविता अपने अर्थ से आलोकित होती है।’37
साही अपनी आलोचना को दुरूह होने से बचाने का भरसक प्रयास करते हैं। देखिए, वे अगले ही वाक्य में क्या कहते हैं, ‘विश्लेषण की यह शब्दावली दुरूह या रहस्यवादी न हो जाए, इसलिए मैं बात को बीच में रोककर शमशेर की एक छोटी-सी कविता प्रस्तुत करूंगा…’।38 आप उम्मीद कर सकते हैं कि आगे दुरूह और रहस्यवादी शब्दावली से परहेज किया जाएगा। साही शमशेर की प्रसिद्ध कविता ‘एक पीली शाम’ उद्धृत करते हुए अपनी बात ‘स्पष्ट’ करते हैं। कविता की अंतिम पंक्तियां हैं- ‘अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आंसू/ सांध्य तारक-सा/ अतल में।’ पूरी कविता में साही की दृष्टि मात्र इन अंतिम पंक्तियों को ही विश्लेषण के दायरे में लेती है। कविता के अन्य, बल्कि मूल मार्मिक अंशों को वे छोड़ देते हैं और मात्र अंतिम पंक्तियों से ही वे निष्कर्ष निकालते हैं। एक पैराग्राफ में किया गया यह विश्लेषण और निष्कर्ष ज्यों का त्यों प्रस्तुत है। शायद आपको यह कम दुरूह और रहस्यवादी लगे-
‘अतल में गिरने से पहले संकोच का, अटकाव का, एक क्षण है जिसमें आंसू अपनी जीवितता ग्रहण करता है। वह सृजन के रूप में शुद्ध संभावना के एक झिलमिलाते हुए अंतराल में अटका हुआ है। यह वह क्षण है जहां आंसू अनस्तित्व-गर्भ से अलग होकर जन्म लेता है। जन्म लेना अलग होना है, अनस्तित्व-गर्भ से अतल की ओर जाना है। निजी और बिलकुल पराए के बीच एक और क्षण है-जहां आंसू निजी भी है और नहीं भी है। पराया है भी और नहीं भी है। न तो वह बिलकुल आत्मपरक है, और न बिलकुल वस्तुपरक। वह अभिव्यक्ति भी है और संकोच भी है।’39 (काश, आलोचक ने शमशेर की कविता ‘घनीभूत पीड़ा’ [रचनाकाल 1946, ‘कुछ कविताएं’ में संकलित] पढ़ी होती, तो ‘एक पीली शाम’ की काव्यानुभूति इतनी रहस्यमय नहीं मालूम होती। उसकी अंतिम पंक्तियां हैं- देखा था वह प्रभात;/तुम्हें साथ; पुनः रातः/पुलकित…फिर शिथिल गात;/तप्त माथ, स्वेद-स्नात;/मौन म्लान, पीत पात;/पुनः अश्रु-बिम्ब-लीन/शनैः स्वप्न-कंप वात।)
ऐसा लगता है कि आलोचक कुछ ठान कर आया है। कविता उसके मर्म को स्पर्श नहीं करती। सिर्फ उसकी दार्शनिकता को झंकृत भर करती है। ऐसा इसलिए हुआ है कि आलोचक ने कविता को अपनी बात कहने के लिए साधन के तौर पर इस्तेमाल किया है। कविता से सचाई अर्जित करने का प्रयत्न नहीं किया है। यहां इस पर टिप्पणी करने की जरूरत नहीं है कि विश्लेषण की भाषा स्पष्ट है या रहस्यवादी। इस पर भी शायद टिप्पणी करने की जरूरत नहीं कि ‘आंसू अपनी जीवितता ग्रहण करता है’ और ‘अनस्तित्व-गर्भ’ तथा ‘अनस्तित्व-गर्भ से जन्म लेता है’ के बजाय ‘अनस्तित्व-गर्भ से अलग होकर जन्म लेता है’ जैसी अभिव्यक्तियां हिंदी की किस प्रकृति की ओर संकेत करती हैं (‘अनस्तित्व-गर्भ से’ यानी न होने, जो नहीं है, वास्तविकता से शून्य है, उसके गर्भ से। पृष्ठ सं. 197 के बाद पृष्ठ सं. 206 में भी लगभग यही बात दुहराई गई है- ‘आंख की कोर पर अटके हुए आंसू को शून्यगर्भ से पृथकत्व का जीवित क्षण प्रदान करता है।’ यहां ‘अनस्तित्व-गर्भ’ के पर्याय रूप में ‘शून्यगर्भ’ का प्रयोग हुआ है। यह आलोचक का मौलिक प्रयोग होने के बजाय कहीं न कहीं अनुवाद होने का संकेत देता है। भला एक ही शब्द के इतने मौलिक आविष्कार के बाद उसी अर्थ के लिए किसी दूसरे शब्द का आविष्कार कोई क्यों करेगा?)।
साही आगे स्थापित करते हैं कि यह शमशेर की काव्यानुभूति की मूल प्रवृत्ति है। इस काव्यानुभूति में निषेध की प्रवृत्ति प्रबल है। इतनी प्रबल कि जो ‘संतुलन’ पैदा होता है, वह ‘दो निषेधों के आपसी निषेध से पैदा होता है।’40 ‘यह संतुलन एक विधेयक, सक्रिय, स्वयंभू उत्स की तरह नहीं जन्म लेता, जैसा कि अज्ञेय के काव्य में है।’41
‘वैष्णव भावना’ या पुष्टिमार्ग की तलाश
शमशेर की काव्यानुभूति में अभिव्यक्ति और संकोच के तनाव और संतुलन की पड़ताल करने के क्रम में साही शमशेर के व्यक्तित्व और स्वभाव में मौजूद संकोच और विनयशीलता को इसके कारण के रूप में व्याख्यायित करते हैं, जो है तो स्वभावगत विशेषता लेकिन काव्यानुभूति में इसकी जड़ें ज्यादा गहरी हैं। साही ने ‘अर्पित निरीहता’ और ‘एक तरह की वैष्णव भावना’ को इसके पूरक के रूप में देखा है जो इसे ‘संतुलन’ प्रदान करती है।
-‘एक तरह की वैष्णव भावना, अर्पित निरीहता शमशेर की कविता में बराबर मौजूद है। वही है जो उनके काव्यजगत को धारण करती है। मालार्मे के काव्यजगत में तो रचनेवाले ब्रह्मा का ही अभाव है, लेकिन शमशेर की समस्या विष्णु तत्त्व को स्थापित करने की है।’42
अपनी इस बात के समर्थन के लिए साही शमशेर की एक कविता की कुछ पंक्तियां और ‘दूसरा सप्तक’ में प्रकाशित उनके वक्तव्य का एक वाक्य प्रस्तुत करते हैं। कविता की वे पंक्तियां यों हैं- ‘मैं समाज तो नहीं, न मैं कुल/जीवन/कण समूह में मैं केवल एक कण!/-कौन सहारा/ मेरा कौन सहारा!’ यह कविता में ‘वैष्णव भावना’ और ‘विष्णु तत्त्व को स्थापित करने की समस्या’ का प्रमाण है।
आप चौंकेंगे कि ये पंक्तियां तो 1941 में लिखी ‘लेकर सीधा नारा’ कविता से उद्धृत हैं। ‘लेकर सीधा नारा/ कौन पुकारा…’। 1959 में प्रकाशित ‘कुछ कविताएं’ संग्रह में इस कविता का रचना-काल भी दिया गया है। उसके बाद तो बीस साल बीत चुके हैं जिनमें कवि के ढेरों आयाम विभिन्न पत्रिकाओं, दूसरा सप्तक और दो काव्य-संग्रहों में सबके सामने प्रकट और प्रकाशित हो चुके हैं। इसी कविता में ये पंक्तियां भी हैं- ‘फिर किसने यह, सातों सागर के पार/ एकाकीपन से ही मानो हार/एकाकी उठ मुझे पुकारा/कई बार?’ अगर शब्दावली पर ही जाएं तो क्या वैष्णव-भावना में ईश्वर के एकाकीपन की कोई धारणा है? इन पंक्तियों की काव्य संवेदना और कवि के जीवन में इस संवेदना के ऐतिहासिक संदर्भ को स्पष्ट किए बिना साही अपने मत का प्रतिपादन करते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ‘भारतीय दर्शन की शब्दावली में कहें तो यह रहस्यवाद नहीं है, पुष्टिमार्ग की तलाश है।’43
अव्वल तो किसी भी लेबल या रहस्यवाद से ही शमशेर को शायद इनकार होता, लेकिन पुष्टिमार्ग की तलाश? पुष्टिमार्ग यानी कविता में सूरदास, सूरदास की विनयशीलता और ईश्वर के अवतारी रूप के प्रति अगाध विश्वास और भक्ति का उनका मार्ग। जबकि शमशेर की इस कविता में व्यक्त लगभग ऐसी ही काव्य-संवेदना को छायावाद के आलोचकों ने रहस्यवाद माना। शमशेर की आरंभिक कविताओं में छायावाद का गहरा संस्कार है। निराला उनके आदर्श कवि हैं। पंत से भी वे प्रभावित अपने-आपको मानते हैं। बल्कि अपनी मूल जमीन वे रोमानी और आदर्शवादी ही मानते हैं, जिस पर भारतीय कवियों में इकबाल, रवींद्रनाथ और निराला का प्रभाव वे खुद स्वीकार करते हैं। लेकिन इस कविता में ‘लेकर सीधा नारा’ शब्दों की भी आप उपेक्षा नहीं कर सकते, जो शमशेर की निजी काव्य-संवेदना का स्पष्ट संकेत देते हैं। और यह शमशेर के काव्य जीवन में कैशौर्य के चिह्न नहीं हैं। शमशेर इस वक्त तक काफी रचनाएं लिख चुके थे। आप जानकर हैरान होंगे कि ‘लेकर सीधा नारा’ के रचनाकाल के ठीक एक साल बाद ही यानी 1942 में शमशेर की दो सबसे प्रसिद्ध रचनाएं ‘शिला का खून पीती थी’ और ‘सींग और नाखून’ रची गई थीं।
शमशेर की ‘वैष्णव-भावना’ को सिद्ध करने के लिए साही ने ‘दूसरा सप्तक’ में दिए शमशेर के एक प्रसिद्ध वक्तव्य को भी उद्धृत किया है। वह वक्तव्य ये है- ‘‘सुंदरता का अवतार हमारे सामने पल-छिन होता रहता है। अब यह हम पर है कि हम अपने सामने और चारों ओर की इस अनंत और अपार लीला को कितना अपने अंदर घुला सकते हैं।’’ शमशेर ‘सुंदरता का अवतार’ कह रहे हैं। साही ने भी ‘सुंदरता का अवतार’ शब्दों को प्रमाण मानकर शमशेर को सौंदर्य का कवि सिद्ध किया है, जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे। लेकिन यहां वे इस वक्तव्य में आए ‘अवतार’, ‘लीला’ जैसे शब्दों को नोटिस करते हुए कहते हैं- ‘इस सूत्र की लगभग हूबहू वैष्णव शब्दावली अवश्य ही आपका ध्यान खींचेगी।’44 क्या कवि के किसी एक वक्तव्य के बजाय कविता को प्रमाण मानना आलोचना के लिए ज्यादा विश्वसनीय विकल्प का चुनाव नहीं है? लेकिन यहां तो आलोचक की विवशता है कि वह वक्तव्य की ‘वैष्णव शब्दावली’ पर ध्यान केंद्रित करे। उसने जो तर्क-प्रणाली अपनाई है, उसकी कोई और परिणति संभव ही नहीं है। जब आप निष्कर्ष लेकर प्रमाण ढूंढेंगे तो यही होगा। अगर शमशेर की मूल जमीन पुष्टिमार्ग की तलाश की है, तो बाद में प्रकाशित कविता ‘ओ मेरे घर’45 में जब वे कहते हैं- ‘मुझे भगवान दिए कई-कई/ मुझसे भी निरीह मुझसे भी निरीह’ तो ये क्या है?
‘अवतार’ शब्द का प्रयोग शमशेर ने अपनी कविता में भी किया है। उनकी कविता में प्रकृति भी नित नए अवतार लेती रहती है। 1958 की शमशेर की एक कविता है ‘ओ युग आ’। ‘कुछ कविताएं’ और ‘कुछ और कविताएं’ में यह संकलित नहीं है। ‘चुका भी हूं नहीं मैं’ में यह संकलित है, थोड़े परिवर्तित रूप में। आगे उद्धृत पंक्तियां नामवर सिंह द्वारा संपादित ‘प्रतिनिधि कविताएं’ में उपलब्ध हैं। इसकी कुछ पंक्तियां हैं-‘ओ अवतारों के युग मेरे नए/मानव की नई/संज्ञा के/अमर आधारों के/संग अपने आधारों के/और जरा-सा मुझे ले चल/और जरा-सा!’ क्या यहां ‘अवतारों’ शब्द में वही वैष्णव भावना आपको मिलती है जो आलोचक को मिली है? आखिर कविता के आलोचक के लिए कविता प्रमाण है या वक्तव्य? और वक्तव्य को भी प्रमाण मानें, आखिर वो कवि ने ही दिया है, तो हम ‘वैष्णव शब्दावली’ के एक और शब्द ‘लीला’ पर विचार करते हैं, शमशेर के एक वक्तव्य के ही हवाले से। हालांकि यह वक्तव्य बाद का है। 1975 में प्रकाशित ‘चुका भी हूं नहीं मैं’ के ‘आभार-ज्ञापन’ से। इसमें अंतिम पंक्तियां हैं-‘‘काव्य-कला समेत जीवन के सारे व्यापार एक लीला ही हैं-और यह लीला मनुष्य के सामाजिक जीवन के उत्कर्ष के लिए निरंतर संघर्ष की ही लीला है।’’ अब साही क्या करेंगे? क्या मनुष्य के ‘सामाजिक जीवन के उत्कर्ष के लिए निरंतर संघर्ष की लीला’ को भी ‘शब्दावली’ के आधार पर ‘वैष्णव भावना’ का ही प्रमाण मानेंगे?
वैष्णव भावना शमशेर के व्यक्तित्व में है या नहीं है, हम इस पर विचार नहीं कर रहे हैं, हमें तो सरोकार आलोचक की विश्लेषण-पद्धति से है।
विशुद्ध सौंदर्य के कवि शमशेर
‘सुंदरता का अवतार’ वाले शमशेर के जिस वक्तव्य को अभी प्रस्तुत किया गया, साही पुनः उसे अत्यधिक महत्त्व देते हैं और शमशेर की काव्यानुभूति संबंधी अपने दूसरे निष्कर्ष का उसे आधार बनाते हैं। एक तरह से शमशेर की समस्त कविताओं की काव्यानुभूति के रहस्य का ताला खोलने के लिए उसे अपनी कुंजी बनाते हैं। और यह कुंजी क्या है, उसकी लीला देखिए-
-शमशेर की काव्यानुभूति सौंदर्य की ही अनुभूति है।
-आज तक हिंदी में विशुद्ध सौंदर्य का कवि यदि कोई हुआ है, तो वह शमशेर हैं।
साही कहते हैं- ‘सुंदरता के इस “अवतार” की निरंतर प्रक्रिया में ही सब कुछ समाया हुआ दिखता है।’46 अपनी बात को पुष्ट करने के लिए उन्होंने दो कविताओं को प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत किया है। एक, ‘चीन’ शीर्षक कविता और दूसरी ‘सौंदर्य’ शीर्षक कविता। ‘सौंदर्य’ शीर्षक कविता आलोचक का कोई रहस्योद्घाटन करने वाला चुनाव नहीं कही जा सकती, क्योंकि ‘सौंदर्य’ शीर्षक कविता में सौंदर्य की बात तो होगी ही। इसके विपरीत कोई बात होती तो वह आलोचक की खोज होती। ‘चीन’ शीर्षक कविता में पंक्तियां हैं- ‘और पहुंच कर वहीं/ अपने प्रेम की बांहों में बांहें डाल दी मैंने/ और इस सीमा के ऊपर खड़े हुए/हम दोनों प्रसन्न थे।/ अमर सौंदर्य का इशारा-सा/एक तीर-/दिशाओं की चौकोर दुनिया के बराबर/संतुलित/सधा हुआ/निशाने पर/ छूटने-छूटने को था’। आलोचक ने शमशेर को विशुद्ध सौंदर्य का कवि सिद्ध करने के लिए ‘अमर सौंदर्य का कोई इशारा-सा’ शब्दावली का ऐसे सहारा लिया है जैसे वे सत्यम्, शिवम् सुंदरम् की अवधारणा में व्यक्त अर्थ से परिचित ही न हों, जिसमें सच्चाई, अच्छाई और सुंदरता को एकलय माना गया है। शब्दों के थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ यह अर्थ दार्शनिक परंपराओं में उपलब्ध है। कीट्स ने 19वीं सदी के आरंभ में अपनी रोमांटिक कविता में ‘सौंदर्य’ पर बहुत बल दिया, और साहित्य-जगत में इसका व्यापक प्रभाव भी पड़ा। लेकिन पहली बात कि साहित्य वहां ठहरा नहीं रह गया, आगे बढ़ा। दूसरी बात कि वह ‘सौंदर्य’ भी शून्य-गर्भ या ‘अनस्तित्व-गर्भ’ से जन्मा सौंदर्य नहीं था। उसकी सकारात्मक भूमिका थी। छायावाद में भी, जिस पर अंग्रेजी और बांग्ला, मूलतः टैगोर के रोमांटिक-काव्य का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव माना जाता है, सौंदर्य के प्रति प्रबल आकर्षण है, लेकिन ज्ञान-क्रिया-इच्छा के सामंजस्य की मौलिक खोज भी उसमें है।
सौंदर्यानुभूति की बात अपने में सही है और हिंदी कवियों में यह पंत के बाद शमशेर में सबसे अधिक सूक्ष्मता से व्यक्त है। और अगर कविता में ‘सौंदर्य’ शब्द के आने से ही शमशेर को ‘विशुद्ध सौंदर्य का कवि’ मानना हो, तो शमशेर की अनेक कविताओं में यह शब्द आपको मिल जाएगा। ‘सौंदर्य का इशारा’, ‘सौंदर्य का प्रकाश’ इत्यादि। हालांकि शमशेर के यहां सौंदर्यानुभूति इस तरह सतह पर नहीं, बल्कि बहुत गहरे में विद्यमान है। लेकिन क्या हम इसे ‘विशुद्ध सौंदर्य’ की ही अनुभूति कहेंगे? साही को शुद्ध और विशुद्ध शब्द बहुत प्रिय हैं। हम आगे भी एक दूसरे संदर्भ में इसे देखेंगे। यहां हम साही का यह वक्तव्य देखते हैं- ‘सच तो यह है कि शमशेर की सारी कविताएं यदि शीर्षकहीन छपें, या उन सबका एक ही शीर्षक हो “सौंदर्य” शुद्ध सौंदर्य, तो कोई अंतर नहीं पड़ेगा। शमशेर ने किसी विषय पर कविताएं नहीं लिखी हैं। उन्होंने कविताएं, सिर्फ कविताएं लिखी है, या यों कहें कि एक ही कविता बार-बार लिखी है।’47 इस वक्तव्य में स्पष्ट है, आलोचक का अतिआत्मविश्वास बोल रहा है। आश्चर्य नहीं कि शमशेर ने साही से कहा था- मुझे आपका लेख समझ में नहीं आया।48
आलोचक का उपरोक्त वक्तव्य तथ्यात्मक रूप से भी गलत है और अवधारणात्मक रूप से भी। जिस अर्थ में आलोचक ने शुद्ध सौंदर्य या विशुद्ध सौंदर्य कहा है, वह सौंदर्य की सीमित अवधारणा है। सौंदर्य को व्यापक जीवन-मूल्यों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। जीवन-मूल्यों के संदर्भ के कारण ही ‘जड़ सौंदर्याभिरुचि’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। साहित्य में सौंदर्यबोध और सौंदर्य-दृष्टि साहित्यकार के जीवन-मूल्यों से बनती है। जीवन के व्यापक पक्षों तक उसकी व्याप्ति होती है। जीवन के किसी एक पक्ष तक वह सीमित नहीं होती। लेकिन साही ‘शुद्ध सौंदर्य’ या ‘विशुद्ध सौंदर्य’ कहकर जीवन के सीमित पक्ष को ही काव्यानुभूति के दायरे में रख रहे हैं। अगर आप शमशेर की कविताओं की अंतर्यात्रा करें तो पाएंगे कि वहां सौंदर्य के रंगारंग, ऐंद्रिक, उल्लासपूर्ण और उद्दाम चित्र तो हैं, लेकिन सौंदर्य शब्द सिर्फ उसी अर्थ में नहीं आया है, जिस अर्थ में साही ले रहे हैं।
साही जी की बात तथ्यात्मक रूप से गलत होने की बात हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि शमशेर के काव्य-संसार में, जीवन के स्थूल चित्र भले न हों, लेकिन व्यापक चित्र मौजूद हैं। जिसमें आप संघर्ष के चेहरे देख सकते हैं, तनी हुई मुट्ठियां देख सकते हैं, उदासी देख सकते हैं, निराशा देख सकते हैं, काल से होड़ देख सकते है, पृथ्वी का घर देख सकते हैं, अमन का राग देख सकते हैं, जनता की एकता का स्वर देख सकते हैं, समय का घिरा हुआ रथ देख सकते हैं, भारत की आरती देख सकते हैं, बाढ़ देख सकते हैं, देश का जनतंत्र-जीवन देख सकते हैं, तट का हाड़ तोड़ने वाली समंदर की पछाड़ देख सकते हैं, अंधेरे की तलवारें देख सकते हैं, अभावजन्य बेचैनी देख सकते हैं, अकेलेपन की हाय-हाय देख सकते हैं, आसमान के इंद्रधनुषी ताल के प्रति कवि का मौलिक और गहरा अनुराग देख सकते हैं, बचपन का उदास मां का मुख देख सकते हैं, बहुत सारे वास्तविक नाम देख सकते हैं, उनके प्रति सम्मान, प्रशंसा और सहानुभूति और करुणा की भावना देख सकते हैं। कवि का अपनी जीवन-दृष्टि के प्रति विश्वास देख सकते हैं और प्रेम की अनेकानेकरूपी कामनाएं देख सकते हैं। यहां हम शमशेर की सिर्फ प्रसिद्ध कविताओं के संदर्भ में यह बात कर रहे हैं, जिनमें से अधिकतर साही के सामने आ चुकी थीं। अगर अचर्चित लेकिन महत्त्वपूर्ण कविताओं को उदाहरण के तौर पर सामने रखें तो शमशेर की काव्यानुभूति पर पुनर्विचार की जरूरत और ज्यादा महसूस होगी। क्या शमशेर की उन सारी कविताओं से बनने वाली काव्यानुभूति को केवल ‘सौंदर्य की अनुभूति’ कहकर व्याख्यायित किया जा सकता है? शमशेर को विशुद्ध सौंदर्य और शुद्ध सौंदर्य का कवि कहना आलोचक की राजनीति है। ऐसा करके साही शमशेर-काव्य की व्यापक संवेदना के महत्त्व को जानबूझकर कम कर रहे हैं। या फिर शायद वे यूरेका की मनःस्थिति में ऐसा कर रहे हैं।
वस्तुपरकता और आत्मपरकता की शुद्धता उर्फ हाशियों से बनती काव्यानुभूति
साही ने इस निबंध में कवि शमशेर की विचारधारा की विस्तृत पड़ताल की है। शमशेर के बारे में यह प्रसिद्ध है कि वे विचारधारा में मार्क्सवादी हैं और कविता में इसके उलट। मलयज ने अपनी डायरी में तो यहां तक लिखा है कि ‘मार्क्सवादी विचारधारा में शमशेर की कविता तो नितांत बुर्ज्वा और रुग्ण लगेगी।’49 शमशेर की कविता में विचारधारा की उपस्थिति पर हमेशा ही संदेह व्यक्त किया गया है। समकालीन और लगभग मित्र होने के बावजूद मार्क्सवादी आलोचक रामविलास शर्मा शमशेर की कविताएं पसंद नहीं करते थे। लेकिन शमशेर की कविताएं पसंद करने वाले भी काफी रहे हैं और उनमें मार्क्सवादी भी रहे हैं। यहां मुक्तिबोध को उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है। उन्होंने शमशेर की कविताओं पर बहुत हार्दिकतापूर्ण लेख भी लिखा। शमशेर विचारधारा और काव्य के संबंध को अपने संदर्भ में विशिष्ट ढंग से देखते हैं। उस पर बाद में चर्चा करेंगे। पहले हम आलोचक की पड़ताल पर चर्चा करेंगे। यहां पुनः उन्होंने कवि के वक्तव्यों को काफी महत्त्व दिया है। लेकिन साथ ही कविता के उदाहरणों से भी अपनी बात कही है। इसके अलावा उनके अपने तरकश के तीर तो हैं ही। विचारधारा की चर्चा उन्होंने बहुत निर्णायक ढंग से और बहुत विस्तार से की है।
साही मार्क्सवाद और अतियथार्थवाद का विलोम खड़ा करते हैं। वे लिखते हैं- ‘उनके लिए अतियथार्थवाद शुद्ध आत्मपरकता है और मार्क्सवाद शुद्ध वस्तुपरकता।’50 साही का मानना है कि शमशेर की कविता में मार्क्सवाद हाशिए पर लिखा एक नाम है, और उनके शब्दों में, ‘शमशेर की कविता के हाशिए पर सिर्फ मार्क्सवाद का नाम नहीं लिखा है।’ आप उम्मीद करेंगे कि उस हाशिए पर शायद कोई और नाम भी लिखा होगा। लेकिन आलोचक कहते हैं, ‘दूसरी तरफ एक और हाशिया है जिस पर एक और इबारत है जो एक दूसरे अर्थ में वर्जित है। उस इबारत का नाम शमशेर देते हैं-सुर्रियलिज्म या अतियथार्थवाद। यह पहली इबारत की ठीक उलटी इबारत है।’51 यहां पहली चीज जो ध्यान देने की है, वह ये कि मार्क्सवाद और अतियथार्थवाद दोनों शमशेर की कविता में वर्जित हैं। मार्क्सवाद एक अर्थ में वर्जित है और अतियथार्थवाद ‘एक दूसरे अर्थ में वर्जित है’।52 ‘एक दूसरे अर्थ में वर्जित है’ से आखिर और क्या संकेत लिया जा सकता है? या तो यह दोहरा शिकार करना है, एक मार्क्सवाद का और दूसरा, ‘वर्जित’ के शाब्दिक अर्थ का। यहां हम एक चीज छोड़कर चल सकते हैं, यानी शब्दों की एक जो असंगति लग रही है। यानी जो साही कह रहे हैं कि ‘शमशेर की कविता के हाशिए पर सिर्फ मार्क्सवाद का नाम नहीं लिखा है।’ यानी कोई और नाम भी लिखा है। लेकिन दूसरी ही पंक्ति में वे कहते हैं कि-‘दूसरी तरफ एक और हाशिया है जिस पर एक और इबारत है।’ यानी मार्क्सवाद एक हाशिए पर और अतियथार्थवाद एक दूसरे हाशिए पर। इस तरह तो हाशिए भी शमशेर की कविता में काफी जगह घेर रहे हैं! साही पहले वाले हाशिए में मार्क्सवाद के नाम के अलावा भी जगह छोड़कर चल रहे हैं। यानी हाशिए में भी मार्क्सवाद को एक छोटा हाशिया मिल रहा है, जबकि अतियथार्थवाद को एक दूसरा स्वतंत्र हाशिया मिल रहा है। इस असंगति की चर्चा बाल की खाल लग सकती है। लेकिन आगे हम देखेंगे कि आलोचक ने यह अनायास नहीं किया है। जो उनका आशय है, उसी ने उनसे जोर देकर यह लिखवाया है।
बकौल साही, शमशेर की कविता में ‘अतियथार्थवाद वह है जो बरबस काव्यानुभूति में फूटा पड़ता है।’ और यह शमशेर की काव्यानुभूति में इतना प्रबल है कि कवि को ‘मानसिक विक्षिप्तता’ और ‘चेतना की मृत्यु’ की स्थिति की ओर धकेलता है। और इसलिए ‘घबरा-घबराकर शमशेर इस प्रतीकात्मक अतियथार्थवाद से यदि वापस लौटते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं।’53
साही का स्पष्ट आशय है कि दोनों हाशियों का महत्त्व शमशेर की काव्यानुभूति में समान नहीं है। वे लिखते हैं, ‘मार्क्सवाद या वस्तुपरकता वह है जिसका कवि कायल है, लेकिन जिसे वह काव्यानुभूति में ला नहीं पाता। अतियथार्थवाद वह है जो बरबस काव्यानुभूति में फूटा पड़ता है, लेकिन कवि जिसका कायल नहीं है।’54
शमशेर की कविताओं में अतियथार्थ की व्याप्ति और उससे मुक्ति की छटपटाहट संबंधी निष्कर्ष के लिए, जिसके लिए साही ने कहा है ‘कवि जिसका कायल नहीं है और जिसे दबाकर, निकालकर कविताओं से अलग कर देना चाहता है’55 दो चीजें उत्तरदायी हैं। एक तो आलोचक द्वारा शमशेर की कविताओं में आए बिम्बों की इस रूप में पहचान। और दूसरी, स्वयं कवि शमशेर का अतियथार्थवाद से सैद्धांतिक दूरी बताने वाला ‘कुछ और कविताएं’ में प्रकाशित वक्तव्य, जिसे साही ने उद्धृत किया है। शमशेर अपनी कविताओं के चुनाव में उनके प्रति ‘मोह’ को जगह न देने की चर्चा करते हुए ‘कुछ और कविताएं’ की भूमिका में लिखते हैं- ‘तीन और कविताएं भी जरूर ऐसी हैं जो मुझे जी से पसंद हैं और जो सुर्रियलिस्ट पेंटिंग हैं और जिन्हें इसीलिए मैं अपने इस चयन में शामिल नहीं करता।…’56
ये तीन कविताएं हैं- ‘ये लहरें घेर लेती हैं’, ‘शिला का खून पीती थी’ और ‘सींग और नाखून’। ‘ये लहरें घेर लेती हैं’ के लिए उन्होंने कहा है कि इसकी कुछ पंक्तियां उनके एक वक्तव्य के अंतर्गत बहस में आ गईं, इसलिए पूरी कविता को पाठकों के समक्ष रखना उचित जान पड़ा। ये कविता 1943 की है। ‘शिला का खून पीती थी’ कविता के बारे में उन्होंने लिखा है कि इस कविता पर छायावादी युग के एक कवि-विचारक (सुमित्रानंदन पंत, जिनसे शमशेर के व्यक्तिगत संबंध बहुत अच्छे थे और निराला के अलावा दूसरे छायावादी कवि के रूप में वे पंत से भी खुद को प्रभावित मानते थे।) टिक लगा चुके थे। इसलिए इसका चयन किया। यह कविता 1942 की है। ‘सींग और नाखून’ का चयन करने के पीछे कारण यह था कि ये ‘शिला का खून पीती थी’ के संग की कविता- ‘कंपेनियन पोयम’ है। यह कविता भी 1942 की है। श्रीराम वर्मा के संस्मरण को प्रमाण मानें, तो शमशेर ने जगदीश गुप्त के ‘नई कविता’ में प्रकाशन के लिए कविताएं देने के अनुरोध पर बाद की दोनों कविताएं दी थीं।57 सन् की चर्चा इसलिए की जा रही है ताकि ये स्पष्ट हो सके कि ये कविताएं साही के निबंध की प्रस्तुति से बीस साल पहले लिखी गई थीं। भले ही प्रकाशित बाद में हुई हों।
शमशेर अपने वक्तव्य में आगे कहते हैं, ‘‘…अतः सुर्रियलिज्म से अपने सैद्धांतिक विरोध को सिद्धांत की ताक पर रखा और इस रचना को संग्रह में शामिल कर लिया।’’ साही ने इसी वक्तव्य को अतियथार्थवाद के हाशिए पर होने संबंधी अपने वक्तव्य का आधार बनाया है। यानी कविता के बाहर दिए गए कवि के वक्तव्य को यहां भी आलोचक ने प्रमाण माना है। इसलिए एक तरफ उन्होंने शमशेर की कविताओं में अतियथार्थवाद की व्याप्ति देखी है, जो ‘बरबस काव्यानुभूति में फूटा पड़ता है’ तो दूसरी तरफ स्वीकार किया है कि अतियथार्थवाद वह है, ‘कवि जिसका कायल नहीं है’। वह ‘हाशिए पर’ है और ‘एक दूसरे अर्थ में वर्जित’ भी है। यानी कवि में उन्होंने एक तरह का अंतर्विरोध देखा है।
साही ने जिज्ञासा व्यक्त की है कि, ‘पिछले बीस-पच्चीस बरसों की हिंदी कविता में जो एक व्यक्त या अव्यक्त संघर्ष काव्य के आदर्शों को लेकर रहा है, स्थूलतः प्रगतिवाद बनाम प्रयोगवाद का, क्या उसका हल शमशेर ने निकाल लिया है?’58 और इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा है, ‘सतही तौर पर कहा जा सकता है कि शायद ऐसा है। सामाजिक दृष्टि से रामविलास शर्मा और अज्ञेय दोनों को एक साथ साधने का सौभाग्यशाली और असंभव पराक्रम शमशेर ने कर दिखलाया है।…वक्तव्य उन्होंने सारे प्रगतिवाद के पक्ष में दिए, कविताएं उन्होंने बराबर वह लिखीं जो प्रगतिवाद की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं।’59 वे आगे लिखते हैं- ‘माई, का. भारद्वाज, ये शाम है, हमारे दिल सुलगते हैं आदि कविताओं का प्रगतिवाद भी उन कविताओं में उतना नहीं जितना इन कविताओं के साथ जड़ी टिप्पणियों में। यह निष्कर्ष निकालने का लोभ होता है कि शमशेर का प्रगतिवाद उनकी कविता के हाशिए तक सीमित रह गया।’60 लोभ एक बुरी चीज है। यह जानते हुए भी साही ऐसा कर रहे हैं तो इसके पीछे जरूर कोई सुविचारित कारण होगा।
हम आगे जांच करेंगे कि क्या मार्क्सवाद या प्रगतिवाद सच में शमशेर की कविता में उनके निजी विश्वास के बावजूद अनुपस्थित है, हाशिए तक सीमित है और उन कविताओं में उतना नहीं जितना इन कविताओं के साथ जड़ी टिप्पणियों में है।
साही लिखते हैं-‘शमशेर की प्रकृति हमेशा वस्तुपरकता को उसके शुद्ध रूप, या उन्हीं के शब्दों में उसके ‘मर्म रूप’ में पकड़ने की रही है।’61 मेरी राय में यहां चीजें एकदम उलट गई हैं। ऋणात्मक चीज धनात्मक बन गई है। शुद्ध वस्तुपरकता का शाब्दिक आशय तो यही हो सकता है कि उसमें आत्मपरकता की मिलावट न हो। कविता में वस्तुपरकता गलत चीज नहीं है, बल्कि समाज-सत्य और इतिहास-सत्य से जुड़ने में मददगार भी है। इससे बहुत सी श्रेष्ठ कविताएं भी रची गई हैं। लेकिन उसका ‘शुद्ध रूप’ क्या है? वह वांछनीय है या अवांछनीय?
यहां हम याद करें तो शमशेर की अनेक कविताएं याद की जा सकती हैं, जिनमें वस्तुपरकता किसी न किसी रूप में मौजूद है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में। तथ्य मात्र की नहीं, बल्कि भावनाओं की सचाई लिए हुए। वह व्यापक भावनाओं के रूप में भी है, निजी अनुभूति के रूप में भी है, प्रतिक्रिया के रूप में भी है, और वस्तुपरक बिम्बों के रूप में भी है, जो अंततः कवि की वस्तुपरकता का ही प्रमाण बनकर आते हैं, बाह्य यथार्थ से आंख मूंदने के नहीं, बल्कि उस यथार्थ से बहुत निजी रूप से गुजरने का प्रमाण बनकर। उनकी कविताओं में ‘समय’ और ‘युग’ सिर्फ आत्मगत सचाई नहीं हैं, बल्कि वस्तुगत सचाई से गुजरकर बनने वाली आत्मगत सचाई के रूप हैं। प्रेरणा के रूप में हो, या आकांक्षा के रूप में लेकिन वे वस्तुगत सचाइयों की जड़ों से प्राण खींचकर ही व्यक्त हुए हैं। समय का रथ, जीवन की कमान, बात बोलेगी, काल तुझसे होड़ है मेरी, फिर वह एक हिलोर उठी, ओ युग आ, वाम वाम दिशा, ये शाम है, हमारे दिल सुलगते हैं, शाम होने को हुई, बाढ़-1948, एक मौन, बैल, अफ्रीका, टूटी हुर्इ्र बिखरी हुई, ओ मेरे घर आदि अनेक कविताएं हैं।
‘अमन का राग’ (1945) युद्धों के खिलाफ एक तरह की स्वप्न-शैली में कवि की अमन की आकांक्षाओं को व्यक्त करती है। जो ‘हकीकत’ है, उसे बदलकर एक दूसरी हकीकत की कामना। यह एक तरह का आदर्शवाद है, लेकिन क्या यह यथार्थ के बरक्स अपने महत्त्व को जाहिर नहीं करता, उस समय के एक कवि की प्रतिक्रिया को दर्ज नहीं करता, जो ऐतिहासिक रूप से देखें तो गुटनिरपेक्ष आंदोलन के रूप में बाद में साकार होता है, जो विश्व में बने दो गुटों की युद्धगत निरंतर तैयारियों के बीच शांति की चाह का आंदोलन था। शमशेर लिखते हैं- ‘मेरी देहली में प्रह्लाद की तपस्याएं दोनों दुनियाओं की/चौखट पर/युद्ध के हिरण्यकश्यप को चीर रही हैं।’ यहां यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि यह लंबी कविता ‘हंस’ में पहली बार छपी थी, जो उस समय वस्तुपरकता को अहमियत देने वाली प्रतिनिधि पत्रिका थी। इसके अंत में शमशेर कहते हैं- ये आंखें हमारे इतिहास की वाणी/और हमारी कला का सच्चा सपना हैं/ये आंखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं/ये आंखें ही अमर सपनों की हकीकत और/हकीकत का अमर सपना हैं/इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ/पाना है।/हम मनाते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।
यहां शमशेर की कविता में वस्तुपरकता का प्रमाण देने वाली कुछ काव्य-पंक्तियां और बिम्ब आप देखेंगे, जिनमें उतनी ‘शुद्ध वस्तुपरकता’ नहीं है, जो कवि को केवल ‘शुद्ध सौंदर्य का कवि’ बनने की दिशा में ले जाए-
- नाज पकने पर खुले आकाश से/बिजलियां गिरती हैं निर्धन के लिए/संकुचित है आज जीवन का हृदय/व्यक्ति मन रोता है जन-मन के लिए (कुछ मुक्तक, रचनाकाल-1943, ‘कुछ और कविताएं’ में संकलित)
- य’ शाम है/कि आसमान खेत है पके हुए अनाज का/लपक उठीं लहू-भरी दरातियां/-कि आग हैः/धुआं-धुआं/सुलग रहा/गवालियर के मजूर का हृदय (य’ शाम है, रचनाकाल-1943, ‘कुछ कविताएं’ में संकलित)
- सत्य का/क्या रंग है?/पूछो/एक संग।/एक-जनता का/दुःख एक।/हवा में उड़ती पताकाएं/अनेक (बात बोलेगी, रचनाकाल-1945, ‘कुछ और कविताएं’ में संकलित)
- यह समंदर की पछाड़/तोड़ती है हाड़ तट का-/अति कठोर पहाड़। (सागर-तट, रचनाकाल-1945, ‘कुछ कविताएं’ में संकलित)
- घेरने को दुर्ग की दीवार मानों/अचल विंध्या पर/कुंडली खोली सिहरती चांदनी ने/पंचमी की रात।/घूमता उत्तर दिशा को सघन पथ/संकेत में कुछ कह गया (घिर गया है समय का रथ, रचनाकाल- 1946, ‘कुछ और कविताएं’ में संकलित )
- भेद ऊषा ने दिए सब खोल/हृदय के कुल भाव,/रात्रि के, अनमोल।/दुःख कढ़ता सजल, झलमल।/आंख मलता पूर्व-स्रोत।/पुनः/ पुनः जगती जोत। (घिर गया है समय का रथ, रचनाकाल-1946, ‘कुछ और कविताएं’ में संकलित )
- जन का विश्वास ही हिमालय है/भारत का जन-मन ही गंगा है/हिंद महासागर लोकाशय है/यही शक्ति सत्य को उभारती। (भारत की आरती, 15 अगस्त, 1947, ‘उदिता’ में संकलित)
- मैली हाथ की खादी सा है/आसमान/जो बादल का पर्दा है वह मटियाला धुंधला-धुंधला/एकसार फैला है लगभगः/कहीं-कहीं तो जैसे हलका नील दिया हो। (सावन, 1948, ‘कुछ और कविताएं’ में संकलित )
- सरकारें पलटती हैं/जहां हम दर्द से करवट बदलते हैं (हमारे दिल सुलगते हैं, ‘कुछ और कविताएं’ में संकलित)
- तुम कल्पना के पुतले/नहीं हो/तुम कम्युनिस्ट पार्टी की ‘मशीन’/नहीं हो/तुम कला का मौन/शांत/विवाह/संघर्ष के साथ हो। (बाढ़ 1948, ‘प्रतिनिधि कविताएं’ में संकलित)
- मुझको चना नहीं चाहिए महादेवी जी,/हालांकि उसी पर मेरा गुजारा भी है,/बल्कि वह एक पल, जिसमें कि मैं भाई से मिल सकूं/और हवाई जहाज में उड़ने वालों से मैं पूछता हूं/कि मुझे साइकिल का किराया ही वहां तक का मिल जाए/क्योंकि इस तरह तो मुझे जेलखाना है यह जिंदगी (बाढ़ 1948, ‘प्रतिनिधि कविताएं’ में संकलित)
- मैं सरकार की दुहाई नहीं देता,/जनता का अपने हृदय में ध्यान धरता हूं/जनार्दन की तरह,/कि वही इंकलाब का वरदान देने वाली है। (बाढ़ 1948, ‘प्रतिनिधि कविताएं’ में संकलित)
- बहुत हौले-हौले नाच रहा हूं/सब संस्कृतियां मेरे सरगम में विभोर हैं/क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूं (अम्न का राग, 1945, ‘कुछ और कविताएं’ में संकलित)
- शिला का खून पीती थी/वह जड़/जो कि पत्थर थी स्वयं (शिला का खून पीती थी, 1942, ‘कुछ और कविताएं’ में संकलित)
- खुश हूं कि अकेला हूं,2कोई पास नहीं है-/बजुज़ एक सुराही के,/बजुज़ एक चटाई के,/बजुज़ एक ज़रा-से आकाश के,/जो मेरा पड़ोसी है मेरी छत पर/(बजुज़ उसके, जो तुम होतीं-मगर हो फिर भी/यहीं कहीं अजब तौर से।) (आओ, रचनाकाल-1949, ‘कुछ कविताएं’ में संकलित)
- टूटी हुई बिखरी हुई चाय/की दली हुई पांव के नीचे/पत्तियां/मेरी कविता/बाल, झड़े हुए, मैल से रूखे, गिरे हुए, गर्दन से फिर भी/चिपके/…कुछ ऐसी मेरी खाल,/मुझसे अलग-सी, मिट्टी में मिली-सी (टूटी हुई, बिखरी हुई, रचनाकाल-1954, ‘कुछ और कविताएं’ में संकलित)
- यात्रि ओ!/हम तुम नाविक हैं/इस दस ओर के/अनुभव एक हैं/दस रस ओर केः/यात्रि ओ! (एक मौन, रचनाकाल-1951, ‘कुछ कविताएं’ में संकलित)
उपरोक्त सभी पंक्तियां जिन कविताओं से उद्धृत हैं, वे सब साही जी के निबंध लिखे जाने से पहले ही प्रकाशित हैं। बाद की ‘बैल’, अफ्रीका’ आदि उत्कृष्ट वस्तुपरक कविताओं के उद्धरण हम जानबूझकर नहीं दे रहे हैं।
वस्तुतः कई बार लगता है कि साही अपने इस निबंध में शमशेर की कविताओं की तुलना में उनके वक्तव्यों से ज्यादा आक्रांत रहे हैं। मार्क्सवाद या प्रगतिवाद से भी। हालांकि मुठभेड़ करना जरूरी था क्योंकि काव्यानुभूति के विश्लेषण में वे मददगार हो सकते थे। नई समीक्षा के हिसाब से बाहरी चीजें होने के बावजूद। लेकिन महत्त्व की चीज यह है कि साही शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट को समझाने में इनका उपयोग किस तरह करते हैं। एक तरफ वे मानते हैं कि प्रगतिवाद उनके लिए ‘अभिनय नहीं है, वास्तविकता है।’ जो ‘उनकी निजी जरूरत को पूरा करता है। उनकी काव्यानुभूति की बनावट का अंग बनकर प्रस्तुत होता है।’ हालांकि यह प्रगतिवाद ‘मात्र वह नहीं है, जो वह है।’ दूसरी तरफ उन्हें ‘यह निष्कर्ष निकालने का लोभ होता है कि शमशेर का प्रगतिवाद उनकी कविता के हाशिए तक सीमित रह गया।’ और यह निष्कर्ष इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसे एक बहुत बड़ी उम्मीद, शमशेर की कविता के संदर्भ में मुख्य लक्ष्य तक पहुंचने का आधार बनाया गया है – ‘क्या इस निष्कर्ष से शमशेर की काव्यानुभूति के केंद्र तक पहुंचने में सहायता मिलती है?’62
पूरे निबंध में आलोचक की शैली उत्तर को प्रश्न रूप में रखने की रही है। आप पाएंगे कि कहीं भी प्रश्न का उत्तर ‘नहीं’ में नहीं है। शमशेर की कविता में प्रगतिवाद ‘हाशिए तक सीमित रह गया’ इस निष्कर्ष के सहारे शमशेर की काव्यानुभूति के केंद्र तक पहुंचने की यात्रा, सही यात्रा के लिए गलत मार्ग का चुनाव नहीं कहा जाएगा? निश्चित रूप से साही ऐसा अनजाने में नहीं कर रहे हैं। वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं कि इस निष्कर्ष से उन्हें दूसरे निष्कर्षों का पिरामिड बनाने में सहायता मिल रही है। इसलिए वे कविताओं में मार्क्सवाद या प्रगतिवाद की संगति या विसंगति के विस्तार में नहीं जाते, बल्कि एक ही अभिप्राय के लिए अनेक तरह से अलग-अलग शब्दावली का प्रयोग करते हैं और शमशेर द्वारा प्रयुक्त शब्दों का भी उसी अभिप्राय के लिए उल्लेख करते हैं। दुखद यह है कि ये सारी बातें कहने के लिए उन्होंने कविताओं के अंतर्साक्ष्य को प्रस्तुत करना जरूरी नहीं समझा है। मूल बात यह है कि साही जी को शुद्धता से बहुत लगाव है। ‘शुद्ध सौंदर्य’, ‘शुद्ध आत्मपरकता’, ‘शुद्ध वस्तुपरकता’, ‘शुद्ध वस्तुता’ सब उसी लगाव का परिणाम है। यहां हम स्पष्ट कर दें कि शमशेर की कविता में मार्क्सवाद के प्रभाव संबंधी यह चर्चा इतनी लंबी इसलिए नहीं रखी गई है कि सवाल कविता में मार्क्सवाद की उपादेयता होने, न होने का या इसके पक्ष में होने, न होने का है। सवाल आलोचना पद्धति का है। साही ने स्वयं इस तत्त्व में इतनी दिलचस्पी ली है कि आश्चर्य होता है। जबकि कवि की ईमानदारी यह है कि वह कहता है, ‘वह चीज मेरी कविता में आते-आते भी नहीं आ पाई है।’63
देशकाल की रिक्तता और यूटोपिया
शमशेर की कविता में देश और काल को साही जी ने जिस तरह समझाया है, आप उससे अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकते। भाषा की पादर्शिता की दृष्टि से तो वह पढ़ना बहुतों के लिए रोचक अनुभव रहा होगा। कविता के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि वहां शब्दों का मात्र वही मतलब नहीं होता, जो यथार्थ जीवन में होता है। खुद साही जी शमशेर की कविता के संदर्भ में इसे ‘शब्दों के पाश’ टूट जाना कहते हैं। लेकिन साही सिद्ध करते हैं कि आलोचना में भी ‘शब्दों के पाश’ टूटा करते हैं। और फिर उसकी भी उसी तरह से व्याख्या की जरूरत होती है, जिस तरह कविता की।
-‘देश के रूप में काल की अनुभूति, या यों कहें कि काल की वह सरहद जहां वह देश से अभिन्न दिखता है……’64
एक जगह वे लिखते हैं- ‘देशकाल से बंधे हुए यथार्थ के मर्म में ही एक दरार, एक फांक या रिक्तता है।’65
इस वाक्य का आशय बहुत सीधा है, – ‘जहां देश न वैसा देश है जिसे हम साधारणतः जानते हैं और न काल घटनाओं की न लौटने वाली गति है, जिसे घड़ी नापती है।’66
इसके बाद वे ‘ये लहरें घेर लेती हैं’ और ‘एक आदमी दो पहाड़ों को’ कविताएं उद्धृत करते हैं और कहते हैं- ‘‘देश की तरह काल में भी फांक है।’’ उद्धृत कविताओं के बिम्बों को स्पष्ट करना वे जरूरी नहीं समझते और उनसे स्वतः अपनी बात प्रमाणित मानते हैं। यहां गणित की प्रमेय-शैली से हमारा सामना होता है। बस ‘चूंकि’ और ‘इसलिए’ का क्रम उलट गया है। यानी-
- शमशेर की कविता में अनुभूत और व्यक्त देश में फांक है।
- काल में भी फांक है। इसलिए,
- देश-काल से बंधे हुए यथार्थ के मर्म में ही एक दरार, फांक या रिक्तता है।
जब देश में फांक है और काल में भी फांक है, तो दोनों से बंधे हुए यथार्थ के मर्म में ही फांक, दरार या रिक्तता दिखाई दे, तो आश्चर्य की कोई बात नहीं। आश्चर्य की बात तो यह है कि शमशेर की कविता में देश की बात इतना जोर देकर क्यों की जा रही है। जबकि शमशेर की कविता में आप देश की बात न करें तो भी कोई बड़ा नुकसान नहीं है क्योंकि उनकी कविताओं की मुख्य पहचान वह नहीं है। हर कवि का अपना खास रंग होता है। शमशेर की कविताओं का भी अपना खास रंग है। बल्कि शमशेर की एक कविता से शब्द लें, जो उन्होंने आसमान के लिए प्रयुक्त किया है, वह ‘इंद्रधनुषी ताल’ है। ऊपरी तौर पर शमशेर की बहुत सी महत्त्वपूर्ण कविताएं ‘देश’ के स्थूल अर्थ से बंधी हुई नहीं हैं। बहुत गहराई में जाकर आपको उनमें ‘देश’ की अनुभूति होती है, जहां गंगा की रेत है, अचल विंध्या है, सारनाथ है, राख का लीपा हुआ चौका है, संस्कृति के विशिष्ट संदर्भ हैं, देश के लेखक-कवि-कलाकार हैं, संघर्ष करते लोग हैं, जीवन के आम किरदार हैं, कवि के मित्र हैं आदि। शमशेर की कविताओं में देश को देखना हो तो कुछ इसी रूप में आप देख सकते हैं। आपको शमशेर में धूमिल, रघुवीर सहाय और नागार्जुन नहीं मिल सकते। लेकिन यहां एक और बात ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। देश, जिससे यथार्थ की ठोस पहचान बनती है, निश्चित रूप से काल से आबद्ध होता है। यानी काल और देश की पहचान, चाहे वह स्पष्ट हो या धुंधली, एक साथ ही होती है। लेकिन साही देश-काल की समझ को एक भिन्न दार्शनिक मोड़ देना चाहते हैं, जहां दोनों ही खंडित अवस्था में हैं और दोनों अभिन्न भी हैं। फांक वाली बात हो चुकी है। हालांकि वे देशकाल से बंधे हुए यथार्थ के मर्म में ‘फांक’ और ‘दरार’ देखने के क्रम में ‘रिक्तता’ भी देख लेते हैं और रिक्तता को दरार और फांक का पर्याय बताते हैं। जैसे एक जगह उन्होंने दरार को ‘शून्यता’ बताया था, ‘नितांत न कुछ’ बताया था। जब यथार्थ के मर्म में ही रिक्तता या खालीपन है तो हम उस तथाकथित यथार्थ की सार्थकता पर बात ही क्या कर सकते हैं?
दूसरी बात है- ‘देश के रूप में काल की अनुभूति’। देश को शमशेर किस रूप में अनुभूत कर रहे हैं, इसे स्पष्ट नहीं किया गया है, जो आलोचक से पहले अपेक्षित था। बस एक ‘रिक्तता’ शब्द से उसकी व्याख्या कर दी गई है। और इसके बाद आलोचक का कहना है- ‘शमशेर की कल्पना काल को भी देश की ही तरह अनुभूत करती है। एक विशाल विस्तार की तरह, जिसमें पौर्वापर्य की बाध्यता नहीं हैं।’67
इस सिलसिले में शमशेर की प्रसिद्ध कविता ‘अम्न का राग’ और ‘गिन्सबर्ग के नाम’ का जिक्र करते हुए साही लिखते हैं- ‘जहां काल देश में परिवर्तित होकर यूटोपिया का निर्माण करता है।’68 पहले वे कह चुके हैं कि देश-काल से बंधे हुए यथार्थ के मर्म में एक रिक्तता है। और उसे ही फिर ‘यूटोपिया’ की संज्ञा देते हैं। आप पूछेंगे, क्या ‘यूटोपिया’ रिक्तता ही है? सीधा जवाब मिलने से तो रहा। साही के शब्दों में- ‘शमशेर के लिए यूटोपिया का अस्तित्व भविष्य की भविष्यता में नहीं, भविष्य की वर्तमानता में है, बल्कि अतीत और भविष्य, दोनों की वर्तमानता में है। इसीलिए वह इतिहास की सरहद पर नहीं, ऐतिहासिक क्षण के मर्म में, उसकी धड़कन में विद्यमान है। नैरंतर्य नहीं है, बल्कि निःसीमता है।’69 ‘ता’ प्रत्यय भी आलोचक को बहुत प्रिय है- भविष्यता, वर्तमानता, निःसीमता, जीवितता, वस्तुता, आत्मता, मध्यता आदि। साही में इस प्रवृत्ति को लक्ष्य करते हुए आलोचक और भाषाविद् कृष्णदत्त शर्मा ने लिखा है, ‘साही में भाषागत स्खलन जगह-जगह हैं। उन्हें हिंदी की प्रकृति की पहचान नहीं है। ‘ता’ प्रत्यय से भाववाचक संज्ञा बनाना उनकी आदत में शुमार है, शौक की हद तक, अटपटेपन की परवाह किए बिना।’70
दो बिम्बलोक-दो यूटोपिया
साही शमशेर की कविता में दो तरह के यूटोपिया देखते हैं। एक यूटोपिया मार्क्सवाद से निर्मित है और दूसरा अतियथार्थवाद से। साही के अनुसार दोनों ही यूटोपिया कवि को मृत्यु की ओर ले जाते हैं। साही लिखते हैं-‘जैसे-जैसे कवि यूटोपिया की ओर बढ़ता है, वह अपनी मृत्यु की ओर बढ़ता है। क्योंकि यूटोपिया की अंतिम परिणति मार्क्सवाद है (कम से कम शमशेर के लिए अब तक रही है), और मार्क्सवाद वह हिस्सा है जो काव्यानुभूति के बाहर पड़ता है। वह शुद्ध वस्तुपरकता है जहां कवि मर जाता है, कवि ही क्यों यथार्थ भी मर जाता है, हाथ आता है सिर्फ एक मरा हुआ भविष्य।’71
साही पूछते हैं, यूटोपिया का मतलब क्या है? उनका जवाब अलग-अलग वाक्यों के रूप में प्रस्तुत है-
-वह लोक जिसका अस्तित्व नहीं है।
-उसके अस्तित्व में ही अनस्तित्व का आवरण है।
-उसका संकल्प जितना शुद्ध, जितना उन्मुक्त होगा, उतना ही वह निषिद्ध एवं वर्जित होता जाएगा, इसी कारण वह बिम्बलोक है।
-सरहद के पार यूटोपिया की स्पृहा अपने अंतिम रूप में मृत्यु की स्पृहा की तरह महसूस होती है।
साही के शब्दों में ‘मार्क्सवाद की तरह अतियथार्थ भी एक यूटोपिया की सृष्टि करता है। यह यूटोपिया एक तरह की निषेधात्मक यूटोपिया है। धन बिम्बलोक के मुकाबिले में ऋण बिम्बलोक है।’72
पाठकों की स्पष्टता के लिए यह बताना उचित होगा कि शमशेर की कविताओं में ‘धन बिम्बलोक’ से साही का ठीक-ठीक क्या अभिप्राय है। उनके अनुसार, शमशेर की कविताओं में ‘सुंदरता का अहैतुक अवतार, अनंत और अपरंपार लीला होने लगती है। यह यूटोपिया का वह क्षण है जिसमें पूरा का पूरा काल देश में परिवर्तित हो जाता है। अत्यधिक उल्लास, और चमकते हुए उत्साह के साथ, परिपूर्ति का यह अनुभव एक नए तरह की निःसीमता, बंधनमुक्ति और स्वतंत्रता की निःसीमता से कवि का साक्षात्कार कराता है, क्योंकि यह सिर्फ उल्लास और आवेग का नहीं बल्कि एक बहुत बड़ी विजय का भी क्षण है।…परिपूर्ति की यह धारासार बारिश, जो लगता है कि कोई भी खाली जगह नहीं छोड़ती, शमशेर की यूटोपियन कविताओं में व्यक्त हुई है।…जो कुछ पहले अभाव या रिक्तता की तरह लगता था, वह सहसा भाव या परिपूर्ति में बदल जाता है। शून्य अवस्था धन अवस्था में बदल जाती है।’73
यहां साही शमशेर की कविता के मर्म को पकड़ते मालूम पड़ते हैं। शमशेर की प्रकृति-सौंदर्य संबंधी कविताओं से परिचित पाठक इसकी कल्पना कर सकते हैं। हालांकि उनमें से भी कई कविताओं में कवि के व्यक्तिगत जीवन की रिक्तता और उदासी सौंदर्य के प्रति उल्लास के साथ-साथ व्यक्त हुई है। यानी यथार्थ की जमीन पूरी तरह नहीं छूटती। लेकिन हमें देखना होगा कि आलोचक का इशारा क्या इन्हीं कविताओं की तरफ है, क्योंकि इन कविताओं में यथार्थ की जमीन पर ही सही, लेकिन रोमानीपन ज्यादा है, जो जीवन का सहज अंग है, जीवन की रसमयता के लिए जरूरी है। और शमशेर अपने में यह रोमानीपन स्वीकार करते हैं। आलोचक का इशारा अतियथार्थ संबंधी यूटोपिया की चर्चा में पूरी तरह स्पष्ट होता है, जहां वे ‘अम्न का राग’ और ‘चीन’ कविताओं के बरक्स रखकर अतियथार्थ के ‘ऋण बिम्बलोक’ की चर्चा करते हैं।
अतियथार्थ से निर्मित ‘ऋण बिम्बलोक’ संबंधी चर्चा के लिए आलोचक ने ‘सींग और नाखून’ और ‘शिला का खून पीती थी’ इन दो कविताओं का चुनाव किया है। उनमें भी ‘शिला का खून पीती थी’ का ही उद्धरण के साथ विश्लेषण किया है। पहली कविता का बस नाम भर लिया है। लिखा है- ‘ “सींग और नाखून” तथा “शिला का खून पीती थी” इस निषेधात्मक या यों कहें, निषिद्ध यूटोपिया का चित्र प्रस्तुत करती हैं। यहां भी काल पूर्णतः देश में समाहित हो जाता है-जैसे समय का प्रवाह पत्थर होकर रुक गया हो। इसके आगे राह नहीं है।’74 एक ही अभिप्राय के लिए साही तीन तरह के शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं- निषेधात्मक यूटोपिया, निषिद्ध यूटोपिया और ऋण बिम्बलोक। लेकिन कविताओं का सीमित चुनाव विश्लेषण की व्यापकता और गहराई के बारे में बहुत कुछ कह देता है। याद करें, शमशेर ने ‘कुछ और कविताएं’ में तीन कविताओं को ‘सुर्रियलिस्ट पेंटिंग’ कहकर प्रस्तुत किया था। उनमें से ही दो कविताएं आलोचक ने चुनी हैं। जबकि आलोचक पहले कह चुका है कि ‘अतियथार्थवाद वह है जो बरबस काव्यानुभूति में फूटा पड़ता है, लेकिन कवि जिसका कायल नहीं है, और जिसे दबाकर, निकालकर कविताओं से अलग कर देना चाहता है।’ कवि के इस द्वंद्व को सही-सही बतलाने के लिए और ‘जो बरबस काव्यानुभूति में फूटा पड़ता है’ इसे स्पष्ट करने के लिए आलोचक से यह सहज अपेक्षा थी कि वह इन तीन कविताओं से अलग अन्य कविताओं के उदाहरण प्रस्तुत करता। बहरहाल, ‘शिला का खून पीती थी’ की जो आलोचक ने व्याख्या की है, वह कवि या कविता की मनोभूमि में प्रवेश करने का उदाहरण बिलकुल भी नहीं बन पाती। कम से कम बिम्ब की संवेदना के स्रोत की कुछ अटकलें लगाने की कोशिश ही आलोचक ने की होती। हम भूल नहीं सकते कि आलोचक खुद एक जाना-माना कवि है। लगता है ‘खून पीती थी’ पंक्ति से ही आलोचक ज्यादा आतंकित हो गया है। आलोचक के अनुसार, ‘यह बेचैन छटपटाहट जो गति और प्रतिगति के बीच संतुलन खोजती हुई “अम्न का राग” में उन्मुक्त हो गई थी, यहां आकर ठोस, बिलकुल जड़ हो गई है। इन कविताओं75 के बिम्ब भी उतने ही सघन, ठोस और अपारदर्शी हैं। लेकिन इस ध्रुवांत पर वे सबसे अधिक दुरूह लगते हैं।…पूरी कविता के भीतर एक विशाल अनुपस्थिति की व्यंजना होती है।’76
इस कविता के बिम्बों के बारे में वे लिखते हैं- ‘वे बिम्ब नहीं रह जातेः वे प्रतीक हो जाते हैं। ये प्रतीक किसके प्रतीक हैं? ये प्रतीक हैं- कुछ-नहीं के। अक्षरशः कुछ-नहीं के। यह पीड़ा की वह अवस्था है जहां उसमें से स्पृहा, उच्छ्वास, तड़प, बेचैनी सब कुछ अनुपस्थित हो जाता है और दर्द संगमरमर की एक जड़ चट्टान की तरह जम जाता है।’77 इस बात का विरोध करना चाहिए। और विरोध किया भी गया है। नई कविता दौर के कवि अजित कुमार ने इस कविता की पृष्ठभूमि बताई है। इस कविता के बारे में स्वयं कवि शमशेर ने अजित जी को बताया कि 1942 में जब यह कविता रची गई वे उन दिनों अपने मामा जी के साथ जबलपुर में रहते थे। ‘घर के निकट स्थित पथरीले मैदान पर एक विशाल वृक्ष की जड़ें शिला में इस कदर धंसी हुई थीं कि वे पत्थर जैसी जान पड़ती थीं -यह बिम्ब एक अन्य कविता में भी इसी भांति दर्ज हुआ हैः ‘जड़ों का भी कड़ा जाल/हो चुका था पत्थर।’78 उन्होंने बताया था कि नीची सड़क से ऊंचे मैदान तक पहुंचने के लिए कुछ सीढ़ियां चढ़नी पड़ती थीं जो पेड़ की पत्तियों से ढकी रहती थीं। मैदान पर एक पक्का चबूतरा भी बना था, जिस पर वे कभी-कभी बैठा करते थे। इसी दृश्य को उन्होंने अपनी ‘हूडलिंग’ (रेखांकन) का विषय बनाया था और बाद में उस पर यह कविता लिखी थी।’79
अगर संवेदना-स्रोत संबंधी यह संदर्भ न भी हो, क्योंकि कविता रची जाने के बाद उसकी बहुत ज्यादा प्रासंगिकता नहीं रह जाती और आलोचक की समीक्षा-पद्धति (नई समीक्षा) की दृष्टि से ये ‘बाहरी’ भी है, तो भी आलोचक को एकदम विपरीत संवेदना तक पहुंचने से पहले अपने ही शब्द याद रहने चाहिए न, कि कविता में ‘शब्दों के पाश’ टूट जाते हैं? लेकिन व्याख्या में वे जड़ को जड़ता का प्रतीक मान लेते हैं। जो एक क्रिया के साथ मौजूद है (शिला का खून ‘पीती थी वह जड़’), सक्रिय है, वह जड़ता का प्रतीक कैसे है, यह बात समझ नहीं आती। क्रिया को नजरअंदाज करके साही ‘जड़’ और ‘पत्थर’ में उलझ गए हैं। इस कारण मूल अभिप्राय को पार करके ‘जड़ चट्टान’ जैसी अभिव्यक्ति को प्राप्त कर गए हैं। अभिधा को व्यंजना और व्यंजना को अभिधा मान लेना इसी का परिणाम है। यह उनके इच्छित निष्कर्ष के अनुरूप है। तभी वे लिखते हैं- ‘हाशिए की इस ऋण दशा में भी कविता जैसे-जैसे बढ़ती है, अपनी मृत्यु की ओर बढ़ती है। इसलिए कि इसके आगे पागलपन, मानसिक विक्षिप्तता की स्थिति है जो चेतना की मृत्यु का पर्याय है। घबरा-घबरा कर शमशेर इस प्रतीकात्मक अतियथार्थ से यदि वापस लौटते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं। वह अपने होशो-हवास की दुरुस्ती को बनाए रखने के लिए ही संघर्ष करते हैं।’80 आप देख सकते हैं, आलोचक कल्पना के किस स्तर तक चला गया है। लगता है, कवि नहीं, किसी मनोरोगी की बात हो रही है। ‘घबरा-घबरा कर’ किन कविताओं के प्रतीकात्मक अतियथार्थ से कवि ‘वापस लौटता है’, इसकी साक्ष्य-आधारित कोई पड़ताल नहीं है। जबकि इसी ‘सहृदय’ आत्मविश्वास के साथ ढूंढने पर आलोचक को जरूर कुछ हाथ लग जाता। लेकिन ‘शिला का खून पीती थी’ कविता में ‘आत्मा के कल्पतरु’ जैसा जीवन के विस्तृत प्रवाह का संकेत देने वाला बिम्ब देख-पढ़कर भी कविता के प्रति आलोचक का यह बर्ताव अविश्वसनीय लगता है। अतियथार्थ संबंधी ‘शुद्ध आत्मपरकता’ के और प्रमाण आलोचक ने नहीं दिए हैं इसलिए इस पर आगे बात करना निरर्थक है।
न समझने की दार्शनिक अदा
शमशेर की कविता की चर्चा करते हुए साही ऐसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं, जिससे शमशेर की विशिष्टता उनका दोष मालूम पड़ती है। बानगी देखिए- ‘यथार्थ के मर्म में जो फांक है, वह कुछ नहीं है, कवि के मर्म की ही फांक है। चेतना के अंतरिक्ष में ही इस अभाव का, न कुछ का, दीर्घ समतल मौन का जन्म होता है। इस तरह जैसे पानी की सतह पर फैले हुए तेल की झिल्ली, फैलने की प्रक्रिया में ही बीच में फट जाती है और पानी की सतह पर एक शुद्ध अभाव छोड़ जाती है।’81 एक और ‘शुद्ध’ का यहां प्रवेश होता है-‘शुद्ध अभाव’। पढ़कर ऐसा लगता है कि कवि सचेत रूप से कविता नहीं लिखता, बल्कि कविता में जो व्यक्त होता है, वह सीधे प्राकृतिक रूप से व्यक्त हो जाता है, उसमें शब्दों, बिम्बों, अनुभूतियों के चुनाव-त्याग की कोई प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती। इसलिए यथार्थ के मर्म की फांक ‘कवि के मर्म की ही फांक’ सिद्ध हो जाती है। यह कविता को लेकर बड़ी रोमांटिक अवधारणा है। आधुनिक कवि-आलोचक विजयदेव नारायण साही ऐसा क्यों कर रहे हैं? और उक्त धारणा कवि की प्रशंसा है या कवि पर चोट? हमें लगता है, यह शमशेर की कविता के महत्त्व को न समझने की कोशिश या न समझने की दार्शनिक अदा है। विचित्र यह है कि ऐसी धारणा व्यक्त करते समय साही कविता की व्याख्या करने के बजाय अपनी ही धारणा की व्याख्या करने लगते हैं और इस तरह केंद्र में शमशेर की काव्यानुभूति न होकर आलोचक की अद्वितीय प्रतिभा विराजमान हो जाती है। दुखद यह है कि यह व्याख्या भी अपारदर्शी, रहस्यमय और अबूझ रह जाती है, जो थोड़ा-सा ध्यान देने पर आलोचक के मनमानेपन का संकेत दे देती है।
– ‘ब्रह्मांड चेतना के उस पार नहीं है, बल्कि चेतना के भीतर अंतर्वर्ती विस्तार के उस पार है’82 आपकी जिज्ञासा होगी कि जो चीज ‘चेतना के भीतर अंतर्वर्ती विस्तार’ के भी उस पार है, वह कविता में कैसे संभव होगी? आलोचक इसकी कोई पड़ताल या व्याख्या प्रस्तुत नहीं करते और आपकी जिज्ञासा अनुत्तरित रह जाती है। ‘चेतना के उस पार नहीं है’ यह बात हमें समझ में आती है, क्योंकि हमारा मानना है कि चेतना के उस पार कुछ नहीं है। ब्रह्मांड को भी हम चेतना में ही महसूस कर सकते हैं। लेकिन ‘चेतना के भीतर अंतर्वर्ती विस्तार के उस पार’ यह वाक्यांश क्या ‘उस पार’ के प्रति आलोचक का विशेष प्रेम सूचित नहीं करता? -यह निश्चित ही चेतना के विभिन्न स्तरों की बात करने वाले फ्रायड, युंग आदि से आगे की बात है। – क्या आलोचक यह नहीं कह रहे हैं कि ब्रह्मांड कवि की चेतना के अंतर्वर्ती विस्तार से छिटका हुआ है, ‘उस पार’ है? यह पुनः शमशेर की काव्यानुभूति के महत्त्व को रिड्यूस करने की, जानबूझकर न समझने की कोशिश है। इससे बेहतर होता, आलोचक सीधे कह देता- ‘ब्रह्मांड चेतना के उस पार है।’ ‘नहीं है’ के बाद फिर ‘है’ का चक्कर लगाने की क्या जरूरत थी। लेकिन यह चक्कर इतना प्रबल है कि आप देखेंगे, आलोचक इसके लिए भाषा के अजब-गजब और दुर्लभ संयोग से आपको परिचित कराता है। ‘चेतना के भीतर अंतर्वर्ती विस्तार’ वाक्यांश पर ही जाएं तो ‘अंतर्वर्ती विस्तार’ दो तरह के सिद्ध होते हैं। एक, चेतना के ‘भीतर’ अंतर्वर्ती विस्तार। और दूसरा, चेतना के बाहर अंतर्वर्ती विस्तार! प्रस्तुत वाक्यांश से मैंने कोई बाह्यवर्ती या सीमावर्ती अर्थ तो नहीं निकाला है, वाक्यांश में ही यह अभिप्राय मौजूद है। ‘अंतर्वर्ती विस्तार’ का अभिप्राय अब भी स्पष्ट नहीं हुआ हो, तो हम आपको इसके एक और अभिप्राय से परिचित कराते हैं, जो एक शब्द से उसका अर्थ निकालकर उसमें दूसरा अर्थ भरने का आलोचक का अनोखा प्रयास है। आलोचक ने एक जगह लिखा है- ‘आशा करता हूं कि ‘घिरे हुए असीम’ की कल्पना सिर्फ शाब्दिक उलटबांसी नहीं लगेगी, लेकिन आप देखेंगे कि यह वही है जिसे पहले दरार, फांक या अंतर्वर्ती विस्तार नाम दिया गया।’83 ‘अंतर्वर्ती विस्तार’ यहां ‘दरार’ और ‘फांक’ का समानार्थी है। तो क्या ‘चेतना के भीतर अंतर्वर्ती विस्तार’ दरार या फांक ही है? ‘दरार’ के लिए आलोचक ने एक जगह ‘रिक्तता’ और एक दूसरी जगह ‘शून्यता’ का, पर्याय रूप में प्रयोग किया है। इस तरह ‘अंतर्वर्ती विस्तार’ रिक्तता और शून्यता हो सकता है।
दरार = रिक्तता
दरार = शून्यता
अंतर्वर्ती विस्तार = दरार = रिक्तता = शून्यता
इस निबंध में ‘चेतना के भीतर अंतर्वर्ती विस्तार’ के अलावा भी अंतर्वर्ती विस्तार है।
-इस शुद्ध अंतर्वर्ती विस्तार के उस पार आईने में जो दिखता है, वह और कोई नहीं है कवि स्वयम् है। ब्रह्मांड चेतना के उस पार नहीं है, बल्कि चेतना के भीतर अंतर्वर्ती विस्तार के उस पार है। (पृ. 210)
-जिस तरह वर्तुल आईने में देखने पर प्रतिबिम्ब आईने और देखने वाले के बीच अंतर्वर्ती विस्तार में अटका हुआ मालूम पड़ता है। (पृ. 210)
-काव्यानुभूति का क्षण जो एक साथ ही अंतर्वर्ती विस्तार के दो कोरों पर रखे हुए आईनों के साक्षात्कार का और इसीलिए अपने को ही दो हिस्सों में विभाजित पाने का क्षण है… (पृ. 211)
-आशा करता हूं कि ‘घिरे हुए असीम’ की कल्पना सिर्फ शाब्दिक उलटबांसी नहीं लगेगी, लेकिन आप देखेंगे कि यह वही है जिसे दरार, फांक या अंतर्वर्ती विस्तार का नाम दिया गया। (पृ. 211)
दूसरे और तीसरे उद्धरण पर ध्यान दें, तो इसमें ‘अंतर्वर्ती विस्तार’ से मध्यवर्ती विस्तार के अर्थ का संकेत मिलता है। निबंध में एक जगह साही जी ने ‘शमशेर सचमुच कितनी सांसत में हैं’ यह कहते हुए उनकी समस्या को ‘बिना तट पर पहुंचे हुए ही तटस्थ होने की’ और ‘चेतना के सीमांतों को चेतना के मध्य में महसूस करने की समस्या’ के रूप में परिभाषित किया है। इसी ‘मध्य’ या मध्यवर्ती के लिए साही ने ‘अंतर्वर्ती विस्तार’ कहा है। और यह अंतर्वर्ती विस्तार फांक है, दरार है, रिक्तता है, शून्यता है।
आलोचक के अनुसार शमशेर की कविता में वस्तुपरकता हाशिए पर है, देश काल से बंधे यथार्थ में फांक है, कवि के मर्म में फांक है, ब्रह्मांड चेतना के अंतर्वर्ती विस्तार के उस पार है। तो फिर आप जरूर पूछना चाहेंगे, शमशेर की कविता में फिर बचता क्या है? क्या सिर्फ ‘न कुछ’, ‘नितांत न कुछ’, ‘रिक्तता’? आलोचक ने इसका उत्तर प्राप्त किया है- शुद्ध सौंदर्य, विशुद्ध सौंदर्य। ‘शमशेर विशुद्ध सौंदर्य के कवि हैं।’ क्या यह ‘विशुद्ध सौंदर्य’ वस्तुपरकता, देशकाल, ब्रह्मांड यानी जीवन के सभी प्रासंगिक तत्त्वों से शून्य होकर प्राप्त किया गया है? संभवतः साही यही कहना चाहते हैं। साही अपनी दार्शनिकता के जाल में नहीं फंसे हैं, बल्कि उन्हांेने अपने इस जाल में ‘विशुद्ध सौंदर्य’ नामक मछली ही फंसाई है जो अपने जल से आजाद हो गई है।
बिम्ब की परिभाषा और दार्शनिक व्याख्या
अब तक आपने साही जी की दार्शनिक शैली ही नहीं, दार्शनिक शब्दावली भी देखी है। उसमें रहस्यमयता तो है, लेकिन व्यंजना की सुंदरता भी है। बिम्ब की परिभाषा में भी आपको ये गुण देखने को मिलेंगे। शमशेर इसमें एक बहाना भर बने हैं। देखिए-
- ‘इस ‘बेठोस नीले आईने’ में, बर्फ की इस पारदर्शी पोली परत में, वह जो अपने को देखता है-उसका प्रतिबिम्ब हूबहू वैसा ही नहीं है, जैसा वह है। और न वह बिल्कुल दूसरा, बिल्कुल भिन्न ही है, न तो वह प्रतिबिम्ब ही है और न छायाभास ही है- वह इन दोनों के बीच की स्थिति अर्थात् बिम्ब है।’84
- ‘बिम्ब आत्म की वस्तुता और वस्तु की आत्मता की तलाश है। इस स्थिति को मैं ‘ऑप्टिक्स’ के उदाहरण से समझा सकता हूं। जिस तरह वर्तुल आईने में देखने पर प्रतिबिम्ब आईने और देखनेवाले के बीच अंतर्वर्ती विस्तार में अटका हुआ मालूम पड़ता है- उसी तरह चित् और अचित् के दोनों दर्पण बीच में एक बिम्बलोक का निर्माण करते हैं।’85
आप समझ सकते हैं कि शमशेर की कविता साही जी के लिए किस तरह की चुनौती लेकर आई है। साही जी को अपनी ही बात की रहस्यमयता समझाने के लिए एक दूसरी रहस्यमय भाषा के भंवर की जरूरत पड़ती है। आप उसमें डूबना चाह नहीं सकते और निकलना आसान नहीं है। ये आदरणीय त्रिपाठी जी के ही वश की बात है कि वे कहते हैं-‘‘साही का लेख मैं प्रायः समझ लिया करता हूं।’’
सबसे पहले तो आलोचक ने जिस ‘बेठोस नीले आईने’ बिम्ब का शमशेर की कविता से हवाला देते हुए अपनी बात कही है, उसकी अनुभूति से गुजरने, उसकी व्याख्या करने के बजाय, बल्कि उसे शीर्षक से आगे जाकर ठीक से पढ़ने की जहमत उठाने के बजाय उसके लिए ‘बर्फ की पारदर्शी पोली परत’ जैसी शब्दावली का इस्तेमाल क्यों किया है, यह समझ से परे है। कविता का शीर्षक है-‘एक नीला आईना बेठोस’। पूरी पहली पंक्ति है- ‘एक नीला आईना/बेठोस-सी यह चांदनी/और अंदर चल रहा हूं मैं/उसी के महातल के मौन में।’। नीला आईना आसमान है। फैलती चांदनी को कवि ‘बेठोस-सी चांदनी’ कह रहा है और उसमें न सिर्फ बहुत कुछ खुद को घुला हुआ महसूस कर रहा है, बल्कि ‘चांदनी में घुल गए हैं/बहुत से तारे’। कवि इस दृश्य में डूबा, अपनी आत्मा में उसे महसूस करता हुआ और अपनी आत्मा को उससे मिलाता हुआ इसमें मौन रागात्मक यात्रा कर रहा है-‘उसी के महातल के मौन में’। और इस तरह ब्रह्मांड की विराटता और उसके विराट सौंदर्य के साथ अपने रागात्मक संबंध को, अपनी मनःस्थिति को व्यक्त कर रहा है और इसे इतिहास के संपूर्ण अनुभव के बजाय क्षण का अनुभव बता रहा है-‘एक पल की ओट में है कुल जहान’। यह इस एक अनमोल पल के महत्त्व की व्यापकता का इजहार है। कविता पढें़गे तो आपको यह व्याख्या स्थूल लगेगी। वैसे भी अच्छी कविता महसूस करने की चीज है, व्याख्या करने से उसका रहस्य अनावृत्त हो जाता है।
तो इस कविता में, अव्वल तो ‘बेठोस’ नीला आईना नहीं है, जैसा कि साही कह रहे हैं, बल्कि चांदनी ‘बेठोस-सी’ है। एकदम साफ अभिव्यक्ति है। कोई उलटबांसी नहीं। अनुभूति के इस रंग के लिए ‘बर्फ की पारदर्शी पोली परत’ क्यों कहा गया है? क्या यह उच्चतर, गहनतर और ज्यादा स्पष्ट और सुंदर अभिव्यक्ति है? और यह कवि की प्रशंसा है या उसके प्रति संदेह की सृष्टि? जी हां, सृष्टि।
यहां बिम्ब की भी जो गूढ़ परिभाषा दी गई है, वह गैरजरूरी है। कविता की अंतिम पंक्तियां हैं-‘रह गया-सा एक सीधा बिम्ब/चल रहा है जो/शांत इंगित-सा/न जाने किधर।’ साही जी की आलोचक दृष्टि ने यहीं से बिम्ब को पकड़ लिया है और अपनी बिम्ब-विवेचना का निमित्त बना लिया है।
क्या फांक को पाटना संभव है
यथार्थ के मर्म में फांक है, कवि के मर्म में फांक है, चेतना के मर्म में फांक है। फांक को एक जगह आलोचक ने ‘रिक्तता’ भी कहा है। आलोचक का प्रश्न है- ‘यथार्थ के मर्म में, चेतना के मर्म में जो फांक है, क्या उसे पाटना संभव है? काव्यानुभूति का क्षण जो एक साथ ही अंतर्वर्ती विस्तार के दो कोरों पर रखे हुए आईनों के साक्षात्कार का और इसलिए अपने को ही दो हिस्सों में विभाजित पाने का क्षण है, कांपते हुए, डरे हुए, पिघलते हुए प्रश्न का भी क्षण है।’86 शमशेर की कविताओं से जिन पाठकों और कविता-प्रेमियों का संबंध जुड़ा है, वे समझ सकते हैं कि यह आलोचक की रहस्यवादी कल्पना ज्यादा है, शमशेर की कविताओं से जुड़ी सचाई कम। शमशेर की कुछ कविताओं में मसलन एक नीला आईना बेठोस, गीली मुलायम लटें, टूटी हुई बिखरी हुई आदि में न जाने कहां, न जाने कौन, न जाने किधर जैसे प्रश्नों को देखकर ही ‘कांपते हुए, डरे हुए, पिघलते हुए प्रश्न’ आलोचक ने कहा है और इसे एक तथ्य माना है कि ‘काव्यानुभूति के तल में प्रश्न है, उत्तर नहीं।’87 और यही ‘तथ्य’, बकौल साही, ‘शमशेर को छायावाद के निकट ले जाता है–विशेषतः महादेवी के, जिनमें भी काव्यानुभूति मुख्यतः प्रश्न का रूप लेती है। लेकिन महादेवी का प्रश्न शुद्ध प्रश्न है-वह शुद्ध मैं का शुद्ध तू के प्रति फेंका हुआ तीर है। दूसरी तरफ शमशेर का प्रश्न प्रश्न की शुद्धावस्था नहीं है, वह मैं का ऐसे तू के प्रति फेंका हुआ तीर है जो प्रश्न के पहुंचते-पहुंचते मैं में ही परिवर्तित हो जाता है।’88
‘शुद्ध’ शब्द के प्रति आलोचक के लगाव पर हम और नहीं कहेंगे। यहां लक्ष्य करने वाली बात यह है कि ‘शुद्ध’ शब्द से आलोचक वायवीयता का संकेत दे रहे हैं। हम यह भी नहीं कहेंगे कि ‘तीर’ ‘फेंका’ जाता है, या पत्थर या भाला फेंका जाता है। लेकिन हम यह जरूर कहेंगे कि साही ‘न जाने नक्षत्रों से कौन/बुलावा देता मुझको मौन’ कहने वाले पंत को भूल गए, उन्हें छायावाद में सिर्फ महादेवी याद हैं। शमशेर ने एक कविता में ठीक कहा है- ‘शतरंज का एक खाना है/ जिसमें तुम मुझे उठाकर रखते हो’।89
आलोचक के इस निबंध की खासियत यह है कि इसकी भाषा अत्यंत सघन है। एक-एक पैराग्राफ में इतनी बातें कही गई हैं कि हरेक बात अपनी व्याख्या की मांग करती है। लेकिन सभी बातें विचार की अलग-अलग दिशाओं को सूचित नहीं करतीं, बल्कि आपको एक ही दिशा में ले जाती हैं।
सबसे पहले एक निष्कर्ष दिया गया है और उसे प्रमाणित करने के लिए दूसरा निष्कर्ष दिया गया है- ‘‘शमशेर की काव्यानुभूति के तल में प्रश्न है, उत्तर नहीं।’’ इसे एक तथ्य कहा गया है। यह सही नहीं है। पहले तो ऐसे प्रश्नवाची वाक्य, जिनके आधार पर साही जी ने यह धारणा बनाई है, शमशेर की सभी कविताओं में नहीं है और जिन कविताओं में हैं, वहां भी प्रश्न एक काव्य-युक्ति ज्यादा है, कोई दार्शनिक तथ्य या भावना नहीं। लेकिन आलोचक ने उनका मनमाना अर्थ किया है। उदाहरण के लिए शमशेर की प्रसिद्ध प्रेम कविता ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ जिसमें विषम यथार्थ, प्रेम और अभावजन्य बेचैनी के अनुभव और बिम्ब भरे पड़े हैं, एक बिम्ब आता है-
आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही है
मैं उसी में कीचड़ की तरह सो रहा हूं
और चमक रहा हूं कहीं
न जाने कहां।
आगे-पीछे की पंक्तियों को पढ़ें और पूरी कविता का असर ग्रहण करें तो इन पंक्तियों में व्यक्त कवि की विडंबनापूर्ण, अभावजन्य अनुभूति, अपनी अकिंचनता का बोध और साथ ही अपनी सचाई के प्रति विश्वास की गहरी चमक स्पष्ट दिखाई देती है। ‘न जाने कहां’ यहां एक दार्शनिक प्रश्न नहीं है, जिसका कि कोई उत्तर कवि के पास नहीं है, बल्कि इसके जरिए कवि ने अपने खोएपन की स्थिति को, प्रेम की अभावपूर्ण स्थिति के बावजूद सकारात्मकता की तलाश को व्यक्त किया है। लेकिन आलोचक ने इस बिम्ब को भी अपने मत के समर्थन के लिए प्रमाणस्वरूप प्रयुक्त किया है- संदर्भ से काटकर। प्रश्न कैसे एक गहरी बात को अनिश्चय और संभावना के खुले आकाश में ले जाने, अर्थ को घुलाने (‘कवि घंघोल देता है/व्यक्तियों के जल/हिला-मिला देता कई दर्पनों के जल’-शमशेर) वाली युक्ति बन जाते हैं, शमशेर की अनेक कविताओं में इसे देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए ‘गीली मुलायम लटें’ कविता लें। उसमें कहा गया है- ‘जाने कौन से कवि को….’, ‘न जाने कहां तक’। लेकिन हम इसके जरिए यह नहीं कह सकते कि ‘काव्यानुभूति के तल में प्रश्न है, उत्तर नहीं’। आपमें आस्वादन-क्षमता है तो उत्तर बहुत स्पष्ट है। कविता में कोई फांक, दरार, रिक्तता नहीं है। रात है, आकाश है और कवि की अभावजन्य उदासी है, कचोट है, अभाव का व्यंग्य है। प्रतीकों का कोई उलझाव नहीं है। गीली मुलायम लटें आकाश है। कवि स्त्री को देखना चाहता है, लेकिन जो है, सो है। अकेलेपन की विडंबना में वह आकाश को देखता है, वह गीली मुलायम लटें हैं। रात है, उसका गहरा सलोना सांवलापन है। वही स्त्री है। स्तनों के बिम्बित उभार लिए हवा में बादल हैं। ये बादल अभाव की अनुभूति से जूझ रहे कवि के ख्वाब हैं, उसकी कामनाएं हैं। लेकिन ये ख्वाब ही उसके वजूद को मिटाते हुए चले जाते हैं। -‘हवा में बादल/सरकते हुए/चले जाते हैं मिटाते हुए/ जाने कौन से कवि को…’। क्या प्र्रश्न के तल में उत्तर नहीं है? हम अलग-अलग अनुभूतियों के ऐसे कितने उदाहरण शमशेर की कविता में देख सकते हैं। शमशेर की बहुत-सी प्रेम-कविताओं में ही ऐसे कई प्रश्न-उत्तर आपको एक साथ मिल जाएंगे। अनुभूत करने पर आपको स्पष्ट उत्तर मिलेंगे, उत्तर की झिलमिलाती संभावना मात्र नहीं।
आपको आश्चर्य और अफसोस होगा कि सबकुछ मथकर भी आलोचक को प्रेम की गहरी अनुभूतियों के सबसे बड़े कवियों में से एक शमशेर की प्रेम-कविताएं नहीं दिखीं। यह कवि के प्रति आलोचक की कैसी बेरुखी है? जबकि अनगिनत अन्य कविताओं को छोड़ दें, शमशेर की दो सबसे महत्त्वपूर्ण और लंबी प्रेम कविताएं ‘आओ’ और ‘टूटी हुई बिखरी हुई’, मुख्यतः जिनसे उनकी प्रेम-कवि की पहचान है, क्रमशः ‘कुछ कविताएं’ और ‘कुछ और कविताएं’ में संकलित हैं। साही जी के सामने ये दोनों ही संग्रह हैं। ‘कुछ और कविताएं’ से वे शमशेर के कितने वक्तव्य उद्धृत करते हैं। लेकिन ये प्रेम-कविताएं न उनकी आलोचक-दृष्टि को दिखती हैं, न उनके सहृदय पाठक-मन को छूती हैं? भयावह यह है कि साही अपने निबंध में ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ कविता से एक बिम्ब उद्धृत करते हैं और संदर्भ से काटकर उसे मनमाने अर्थ के लिए इस्तेमाल करते हैं, जिसका जिक्र हमने किया है। यानी साही इस कविता से गुजर चुके हैं। लेकिन वे किस तरह से गुजरे हैं कि गुजरके भी नहीं गुजरे हैं। 26 पेज के निबंध में उन्होंने एक बार भी यह कहने की जरूरत नहीं समझी कि शमशेर प्रेम की अनुभूतियों के भी कवि हैं। साही की मंशा की जांच की जानी चाहिए। लेकिन इस काले रंग से भरे कोरे निबंध को तो शमशेर पर सबसे प्रामाणिक काम माना गया है! दूसरी तरफ मुक्तिबोध का लिखा याद करें- ‘प्रणय-जीवन के जितने विविध और कोमल चित्र वे प्रस्तुत करते हैं, उतने चित्र शायद और किसी नए कवि में दिखाई नहीं देते।’90 काश, आलोचक ने मुक्तिबोध का लेख पढ़ा होता। या शायद उन्हें अपनी अद्वितीयता का इतना भरोसा रहा हो कि किसी और का लिखा पढ़ना उन्हें अभीष्ट ही न रहा हो।91
आलोचक ने ‘काव्यानुभूति मुख्यतः प्रश्न का रूप लेती है।’ अपने इस निष्कर्ष के आधार पर शमशेर की तुलना छायावाद, विशेषतः महादेवी की कविता से की है। हम इस बहस में नहीं जाएंगे कि महादेवी का प्रश्न ‘शुद्ध प्रश्न’ है या नहीं। या, कि वह ‘शुद्ध मैं का शुद्ध तू के प्रति फेंका हुआ तीर’ है या नहीं। यह अलग निबंध का विषय है। हम आलोचक के इस कथन से सहमति जताएंगे कि ‘शमशेर के प्रश्न के कोर पर उत्तर की संभावना झिलमिलाती है।’92 अगर हम देखना चाहें तो। लेकिन इस ‘संभावना’ को लेकर आलोचक की अपनी व्याख्या है। आगे साही लिखते है, ‘प्रश्न के कोर पर उत्तर की जो संभावना झिलमिलाती है, वही बिम्बलोक है।’93 और यह बिम्बलोक क्या है? बकौल साही, ‘‘यह काव्यानुभूति की दरार को भरने वाला यूटोपिया है। और यह यूटोपिया क्या है? इस गणित को ऐसे समझिए-
प्रश्न के कोर पर उत्तर की संभावना = बिम्बलोक = यूटोपिया = दरार को भरने वाला = वह लोक जिसका अस्तित्व नहीं है। इस तरह अंतिम रूप से, उत्तर की जो संभावना झिलमिलाती है, वह यूटोपिया है यानी वह लोक जिसका अस्तित्व नहीं है। ‘उत्तर की संभावना’ की यह व्याख्या आलोचक की है। और आलोचक के अनुसार, जिसका अस्तित्व नहीं है, वह दरार को, फांक को, रिक्तता को भरता है!!
-‘शमशेर की यूटोपियन कविताओं में ही उनके बिम्ब सर्वाधिक सघन, ठोस और अपारदर्शी मालूम पड़ते हैं, या यों कहें कि वे कम से कम बिम्ब रह जाते हैं, और अधिक से अधिक प्रतिच्छवि मालूम पड़ने लगते हैं। उनकी वह गहराई जो उन्हें एक बिम्बलौकिक चमक देती है, विलीन होने लगती है।’94 एक सिरा बढ़ाकर दूसरा सिरा काटने की यह आलोचक की तकनीक है। आप बता सकते हैं, यह शमशेर के महत्त्व को उजागर करना है या शमशेर के महत्त्व को विलीन करने की कोशिश? वास्तव में यह शमशेर की कविताओं के साथ न्याय करने के आलोचक के उस संकल्प का चरित्र है, जो निबंध की शुरुआत में उन्होंने व्यक्त किया है। और यह तब है, जब साही ने शमशेर की ‘कविताओं जैसी कविता’ पर बात नहीं की है, शमशेर की कविता पर बात की है।
अब समझ में आता है, क्यों विश्वविद्यालयों में इस निबंध को इतना ऊंचा दर्जा दिया जाता है। क्योंकि ज्यादातर अध्यापकों को भी यह निबंध समझ नहीं आया है और इसे वे अपने से ऊपर की चीज मानते हैं। वे ये निबंध अनुशंसित करते हैं, और बेचारे विद्यार्थियों पर रौब जमता है। अगर किसी कवि पर लिखे आलोचनात्मक निबंध को बिजूका कहा जा सकता हो, तो इसका सेहरा इसी निबंध के सिर बंधना चाहिए। इस निबंध की दुरूह शैली से ही इसकी पुष्टि होती है कि जब आलोचना इतनी दुरूह है तो फिर कविता कितनी दुरूह होगी! इसलिए साधारणतः अध्यापक ये कहते पाए जाते हैं कि ‘शमशेर तो बहुत दुरूह कवि हैं’। हालांकि आलोचक ने यह मानते हुए भी कि ‘शमशेर से ज्यादा दुरूह कविताएं किसी ने नहीं लिखी हैं’ पूरे निबंध में कहीं यह आभास नहीं होने दिया है कि उन्हें ये कविताएं दुरूह लगती हैं, क्योंकि उन्हें तो इन कविताओं का रहस्य पता है।
-‘यह विवेचना की अलग दिशा है और मेरे लिए आकर्षक भी है। लेकिन यह विस्तार की बात है।’95
-‘शमशेर के बारे में बात करने वाले व्यक्ति से शायद यह एक उम्मीद की जा सकती है कि वह बहुत कुछ व्याख्याता का काम करे। यह काम अपने में ही इतना दिलचस्प है कि शायद पूरी बातचीत इसी तक सीमित रह जाए।’96
आलोचक विद्वान हैं। नई कविता के प्रतिष्ठित कवि हैं। इसलिए उनके लिए ऐसा कहना सहज ही है। सारा दोष मालार्मे का है। न मालार्मे होता, न ‘मालार्मीय विडंबना’ का तीर हमारे आलोचक को बींधता। न हमारा आलोचक…….खैर, जो है सो है…। शमशेर की एक कविता है-‘एक नीला दरिया बरस रहा’। डायरीनुमा कविता है। इसमें कवि कहता है- ‘नश्शा मुझे नहीं होता। नहीं होता/मुझे पीने वालों को होता है/-मेरी कविता को/अगर वो उठा सकें और एक घूंट/ पी सकें/ अगर।’ लगता है आलोचक को इस तरह पीना पसंद नहीं था। शायद आप एक घूंट पीना पसंद करें-
प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे
भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)
बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से
कि जैसे धुल गई हो
स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
मल दी हो किसी ने
नील जल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो।
और…
जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है। (‘उषा’ कविता)
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संदर्भ और टिप्पणियां
- विष्णुचंद्र शर्मा, काल से होड़ लेता कवि शमशेर का व्यक्तित्व, जयपुर: हंसा प्रकाशन, 1994, पृ. 47
- 2011 में जब शमशेर की जन्मशती मनाई जा रही थी, तब शमशेर पर लिखे सभी लेखों और संस्मरणों का संकलन कर उद्भावना, अनभै सांचा जैसी पत्रिकाओं में, और ‘एक शमशेर भी है’ पुस्तक में प्रकाशित किया गया था। उस समय तक मैं शमशेर की कविताओं का प्रेमी होने के नाते पहले से उपलब्ध स्रोतों के आधार पर शमशेर पर व्यवस्थित रूप से पढ़ना-लिखना शुरू कर चुका था। जन्मशती के अवसर पर प्रकाशित, खासकर संस्मरणों ने मेरे सामने शमशेर के कई आत्मीय चित्र प्रस्तुत कर दिए, जिनसे शमशेर की काव्यानुभूति के स्रोतों को समझने में निश्चित रूप से मदद मिलती है। लेकिन साही के लेख का प्रत्याख्यान उनमें नहीं मिलता।
- अनभै सांचा, अंक-24, संपा. द्वारिका प्रसाद चारुमित्र, अक्टूबर-दिसंबर 2011, पृ. 83
- उप., पृ. 224
- विजयदेव नारायण साही, ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’, छठवां दशक, इलाहाबाद: हिंदुस्तानी एकेडमी, 2007, पृ. 218
- विजयदेव नारायण साही, ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’, छठवां दशक, इलाहाबाद: हिंदुस्तानी एकेडमी, 2007, पृ. 195
- विजयदेव नारायण साही, उप., पृ. 194
- उप.
9. उप.
- उप.
- एक निजी चर्चा में मुझे यह सुझाव मिला कि ‘शमशेर की कविताओं जैसी कविता’ को ‘दूसरे कवियों द्वारा लिखी गई शमशेर जैसी कविताओं’ के रूप में लिया जाए। लेकिन मेरी राय में यह पदबंध शमशेर की कविताओं को लेकर साही ने संदेह और आशंका से भरे जो ‘आरंभिक सवाल’ रखे हैं, उनसे नाभिनालबद्ध है और ये ‘आरंभिक सवाल’ शमशेर की कविता को लेकर ही उठाए गए हैं, न कि दूसरे कवियों या सामान्य रूप से ‘नई कविता’ को लेकर। शमशेर की कविताओं से जुड़े ‘आरंभिक सवालों’ के संबंध में ही साही ने कहा है कि ‘‘इन सवालों के विभिन्न पहलुओं में उलझने में खतरा यह है कि बात शमशेर की कविताओं पर न होकर शमशेर की कविताओं जैसी कविता पर हो जाएगी।’’ जब ‘आरंभिक सवाल’ शमशेर की कविताओं से जुड़े हैं तो उनके विभिन्न पहलुओं में उलझने में खतरा दूसरे कवियों की कविता पर बात करने का हो जाएगा, यह मानना आलोचक को संदेह का अतिरिक्त लाभ देना हो जाएगा। ‘दो तरह की कविता’ वाला मेरा मत साही जो कह रहे हैं, उसकी व्यंजना पर ही आधारित है। बेशक उन्होंने ऐसी दो श्रेणियों का स्पष्ट रूप से उल्ल्ेख नहीं किया है। ‘शमशेर की कविताओं जैसी कविता’ का आशय ‘शमशेर की तरह लिखने वाले दूसरे कवियों की कविता’ से लिए जाने पर यह यक्ष प्रश्न फिर भी बना रहता है कि शमशेर की किस तरह की कविताओं जैसी कविता? क्या शमशेर ने एक तरह की कविताएं लिखी हैं? और क्या शमशेर की कविताएं शैली मात्र हैं? साही ने स्वयं शमशेर को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों मायनों में अपनी तरह का अकेला और विशिष्ट कवि सिद्ध किया है। वैसे भी, ‘नई कविता’ के सभी कवि अपनी ‘अलग-अलग राहों के अन्वेषी’ थे। न सभी एक राह पर चल रहे थे और न शमशेर की कविताएं कोई ऐसा मॉडल थीं जिनका अनुसरण अन्य कवि कर रहे थे।
- रंजना अरगड़े ने, जिन्होंने शमशेर पर महत्त्वपूर्ण शोध किया, उनके लंबे इंटरव्यू लिए और शमशेर की बीमारी की अवस्था में उन्हें अंतिम समय तक अहमदाबाद में अपने घर में रखकर उनकी सेवा की, लिखा है, ‘‘इन्होंने लगभग सन् 1932-33 में लिखना आरंभ किया। इनकी आरंभिक रचनाएं ‘सरस्वती’, ‘रूपाभ’ आदि में छपती थीं।’’ रंजना अरगड़े, प्रास्ताविक, कवियों का कवि शमशेर, वाणी प्रकाशन। जबकि विष्णुचंद्र शर्मा ने लिखा है, ‘‘शमशेर ‘दूसरा सप्तक’ के प्रकाशन के बहुत पहले सन् 1936 के आस-पास छपने लगे थे। ‘सरस्वती’ में उनकी पहली कविता छपी थी।’’ विष्णुचंद्र शर्मा, काल से होड़ लेता कवि शमशेर का व्यक्तित्व, पृ. 48।
13. शमशेर पूरी तरह एक साहित्यिक व्यक्ति थे। दो और चीजें साहित्य-जगत में शमशेर को पहचान दिला रही थीं। एक, कि उन्होंने कहानी, हंस, नया साहित्य, माया और रूपाभ पत्रिकाओं में थोड़े-थोड़े समय काम किया, जिससे संकोची स्वभाव के बावजूद मित्रता का उनका दायरा बढ़ा। दूसरी चीज कि मुख्यतः इन पत्रिकाओं में काम करने के दौरान एक अच्छे गद्य लेखक के रूप में उनकी पहचान बनी। कहानी, स्केच, डायरी, निबंध आदि में अपनी विशिष्ट शैली के कारण। उल्लेखनीय है कि उनकी पहली प्रकाशित पुस्तक गद्य की है। ‘दूसरा सप्तक’ में उनकी कविताएं आने तक ‘प्लॉट का मोर्चा’ और ‘दोआब’, उनके गद्य के दो संग्रह प्रकाशित हो चुके थे।
- नटरंग, 106-108, संपा. अशोक वाजपेयी, रश्मि वाजपेयी, जनवरी-सितंबर 2019, पृ. 154-56
15. यह जानना दिलचस्प है कि शमशेर ने ‘नया साहित्य’ में ‘तारसप्तक’ की बड़ी नकारात्मक समीक्षा की थी। यह समीक्षा ‘दोआब’ में ‘सात आधुनिक कवि’ नाम से संकलित है। इसमें वे प्रयोगशीलता के दावे और इन कविताओं की भावभूमि पर निर्मम टिप्पणी करते हैं।
- यहां साही ‘कृति’ के अक्टूबर 1958 में प्रकाशित मुक्तिबोध के लेख को बड़ी समझदारी से भूल जाते हैं। जबकि मुक्तिबोध के इस लेख से शमशेर की कविताओं के प्रति साहित्यिक पाठकों में एक नए सिरे से आकर्षण पैदा हुआ था, तब जब उनके दोनों ही संग्रह प्रकाशित नहीं हुए थे। साही ने वह लेख देखा-पढ़ा न हो, इसकी संभावना कम है। ‘परिमल’ के उस समय के युवतर सदस्य श्रीराम वर्मा ने बताया है-‘‘ ‘कृति’ उस समय शमशेर के घर की आखिरी सीढ़ी पर फेंकी मिलती। कभी शमशेर उठाते, कभी मैं उठाकर उन्हें देता। मैं कभी उन्हीं के यहां जाकर पढ़ लेता, कभी वे दे देते और मैं पढ़कर लौटा देता। मलयज भी ऐसा ही करते।’’ नरेश मेहता और श्रीकांत वर्मा के संपादकत्व में निकलने वाली ‘कृति’ की उस समय अच्छी प्रतिष्ठा थी। फिर भी उसमें शमशेर की कविता पर ‘दूसरे ढंग से’ हुई चर्चा की साही उपेक्षा करते हैं, तो यह संभवतः मौलिक बने रहने के प्रति साही की अतिरिक्त सजगता कही जा सकती है।
- विजयदेव नारायण साही, ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’, पूर्वोद्धृत, पृ. 195
- ‘जस्ट फिट’ इलाहाबाद के बहादुरगंज में एक टेलर की दुकान थी जिसकी बगल से ऊपर सीढ़ियां जाती थीं। सीढ़ियां चढ़कर एक के ऊपर एक दो छोटे कमरे थे। यही शमशेर का लंबे समय तक निवास बना रहा। एक चार फुट ऊंचे कमरे की खिड़की से आसमान दिखता था, जिसे वह अपना पड़ोसी कहते थे। यही कमरा शमशेर की ‘स्टडी’ थी। साथ में छत थी। जहां वे पेंटिंग भी बनाते थे।
- श्रीराम वर्मा, ‘जस्ट फिट’, एक शमशेर भी है, संपा. दूधनाथ सिंह, नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, 2007, पृ. 126
- विष्णुचंद्र शर्मा, काल से होड़ लेता शमशेर का व्यक्तित्व, पूर्वोद्धृत, पृ. 3
- श्रीराम वर्मा, ‘जस्ट फिट’, पूर्वोद्धृत, पृ. 130
22. उप., पृ. 116
- उप., पृ. 117
- विजयदेव नारायण साही, ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’, पूर्वोद्धृत, पृ. 204
- विजयदेव नारायण साही, उप., पृ. 196
26. उप., पृ. 195
27. उप., पृ. 196
- कृष्णदत्त शर्मा, भाषा आलोचना और आलोचक दृष्टि, नई दिल्ली: अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 2017, पृ. 287
- विजयदेव नारायण साही, ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’, पूर्वोद्धृत, पृ. 196। यह देशज भाषा में अस्तित्ववाद का ही अनुवाद है, जिसे नई कविता में ‘आधुनिकतावाद’ कहा गया, जो जीवन के प्रति भाववादी दृष्टिकोण पर आधारित है। उस समय की हिंदी आलोचना के भीतर विकसित हुए इस दृष्टिकोण पर टिप्पणी करते हुए मुक्तिबोध ने लिखा है-‘‘नए प्रकार के समीक्षक-विचारक (अब उन्हें नया नहीं कहा जा सकता), जो बनते हुए साहित्य की समीक्षा के क्षेत्र में दिशा-निर्देश करते रहते हैं, उनमें से कुछ मुझे त्याज्य प्रतीत होते हैं। मुझे बार-बार लगता है कि वे लेखक को जिंदगी के तजुर्बों से हटा देना चाहते हैं। उनका सौंदर्य-संबंधी सिद्धांत, कलाकार के धर्म और व्यक्तित्व के संबंध में उनके विचार, आधुनिक भावबोध की उनकी धारणा, जनसाधारण की उपेक्षा करके लघुमानव की उनकी कल्पना, समाज और जनता को भीड़ कहकर उनका अपमान करने की उनकी प्रवृत्ति, पूंजीवादी समाज-रचना और साम्यवादी समाज-रचना दोनों को औद्योगिक सभ्यता कहकर उस औद्योगिक सभ्यता के अंतर्गत व्यक्ति के व्यक्तित्व के नाश की अनिवार्यता को मानना, और इस प्रकार मानव की विफलता और अगतिकता को मूलभूत और चरम मानकर अनाशा की प्रस्थापना करना-ये मुझे असंगत, अनुचित और हानिप्रद मालूम होते हैं।’’ मुक्तिबोध, समीक्षा की समस्याएं, दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, 1994, पृष्ठ-9
- विजयदेव नारायण साही, ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’, पूर्वोद्धृत, पृ. 196
31. उप.
32. उप.
33. उप.
34. उप.
- उप.
- उप.
- उप., पृ. 197
38. उप., पृ. 197
39. उप.
- उप., पृ. 214
- उप., पृ. 196
- उप., पृ. 199
- उप.
44. उप.
- शमशेर बहादुर सिंह, इतने पास अपने, नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, 1980, पृ. 19
- विजयदेव नारायण साही, ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’, पूर्वोद्धृत, पृ. 200
- उप., पृ. 203
- श्रीराम वर्मा, ‘जस्ट फिट’, पूर्वोद्धृत, पृ. 117
49. मलयज, ‘शमशेर जी’, एक शमशेर भी है, संपा. दूधनाथ सिंह, नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, 2007, पृ. 58
50. विजयदेव नारायण साही, ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’, पूर्वोद्धृत, पृ. 213
51. उप., पृ. 213
52. यहां अज्ञेय के एक वक्तव्य में व्यक्त ‘वर्जनाओं के पुंज’ को याद किया जा सकता है, जो उन्होंने ‘तारसप्तक’ के अपने ‘कवि-वक्तव्य’ में लिखा है। अज्ञेय उसमें ‘एक दूसरे प्रकार की वर्जनाओं का पुंज खड़ा होता है’, कहते हैं- व्यक्तिगत चेतना के ऊपर एक वर्गगत चेतना भी लदी हुई है और उचितानुचित की भावनाओं का अनुशासन करती है, जिससे एक दूसरे प्रकार की वर्जनाओं का पुंज खड़ा होता है, और उनके साथ ही उन के प्रति विद्रोह का स्वर जागता है। पहला प्रकार ‘यौन वर्जनाओं’ का है।
- विजयदेव नारायण साही, ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’, पूर्वोद्धृत, पृ. 216
- उप., पृ. 213
55. उप.
- शमशेर बहादुर सिंह, ‘पहले संस्करण का वक्तव्य’, कुछ और कविताएं, नई दिल्ली: राधाकृष्ण प्रकाशन, 1984
57. श्रीराम वर्मा, ‘जस्ट फिट’, पूर्वोद्धृत, पृ. 117
- विजयदेव नारायण साही, ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’, पूर्वोद्धृत, पृ. 203
59. उप.
60. उप., पृ. 204
61. विजयदेव नारायण साही, ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’, छठवां दशक, इलाहाबाद, पृ. 207
- उप., पृ. 204
- शमशेर बहादुर सिंह, ‘सीधे अपने पाठक से’, उदिता, दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 1980, पृ. 105। शमशेर के कविता-संग्रह ‘उदिता’ में दो भूमिकाएं हैं। एक 1949 में लिखी-‘सीधे अपने पाठक से’, दूसरी 1980 में-‘यह संस्करण’ नाम से। 1949 में कविताएं और भूमिका तैयार होने के बावजूद कई कारणों से संग्रह प्रकाशित नहीं हो पाया था। 1980 में जाकर यह उसी ‘उदिता’ नाम से प्रकाशित हुआ। 1949 में लिखी नौ पेज की भूमिका विषय की दृष्टि से बहुत विस्तृत है और अपने रचना-कर्म के कई जरूरी पहलुओं को बहुत आत्मीय ढंग से रखती है। इसमें वे अपनी विचारधारा की सीधी अभिव्यक्ति करते हैं, और उसे मध्यवर्गीय भंवर से बाहर निकलने का साधन भी मानते हैं।
64. उप., पृ. 209
65. उप., पृ. 208
- उप.
67. उप., पृ. 209
- उप.
- उप., पृ. 209
- कृष्णदत्त शर्मा, मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि, नई दिल्ली: अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 2018, पृ. 181
- विजयदेव नारायण साही, ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’, पूर्वोद्धृत, पृ. 212
- उप., पृ. 213
- उप., पृ. 212
74. उप.
75. ‘इन कविताओं’ से आप कन्फ्यूज न हों। ‘शिला का खून पीती थी’ की ही बात हो रही है। लेकिन इसे ही वे ‘इन कविताओं’ के पर्याय के तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं।
- विजयदेव नारायण साही, ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’, पूर्वोद्धृत, पृ. 214
77. उप.
- यह अन्य कविता ‘सींग और नाखून’ है, जिसकी ये अंतिम पंक्ति है। शमशेर ने ‘शिला का खून पीती थी’ और ‘सींग और नाखून’ को कंपेनियन पोयम्स कहा है। यह विचित्र है कि साही जी ने इस बिम्ब पर ध्यान नहीं दिया जबकि दोनों कविताएं ‘कुछ और कविताएं’ में एक के बाद दूसरे पेज पर छपी हैं।
79. अजित कुमार, ‘शमशेर की शमशेरियत’, सात छायावादोत्तर कवि, पृ.117 मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि, कृष्णदत्त शर्मा, पृ. 183 में उद्धृत
- विजयदेव नारायण साही, ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’, पूर्वोद्धृत, पृ. 214
81. उप., पृ. 210
82. उप., पृ. 210
83. उप., पृ. 211
84. उप., पृ. 210
85. उप.
86. उप., पृ. 211
87. उप.
88. उप.
- शमशेर बहादुर सिंह, ‘मेरे समय को’ कविता, इतने पास अपने, पूर्वोद्धृत, पृ. 41
- मुक्तिबोध, ‘शमशेरः मेरी दृष्टि में’, समीक्षा की समस्याएं, नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, 1989, पृ. 128
91. पूरे निबंध में साही इस तथ्य का भी कोई जिक्र नहीं करते कि शमशेर एक प्रशिक्षित चित्रकार भी हैं। जबकि उनके चित्रकार होने का गहरा संबंध उनकी अनेक कविताओं और उनके विशिष्ट शिल्प से है। मुक्तिबोध ने इस तथ्य के ज्ञान से शमशेर संबंधी अपने लेख में लाभ उठाया था। लेकिन शायद साही इस तथ्य को ‘बाहरी’ मानकर इसका लाभ उठाना उचित नहीं समझते।
92. विजयदेव नारायण साही, ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’, पूर्वोद्धृत, पृ. 211
- उप.
94. उप., पृ. 212
95. उप., पृ. 209
96. उप., पृ. 194
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