‘इस बिलियनेयर राज से लड़ना ब्रिटिश राज से लड़ने की तुलना में कहीं अधिक मुश्किल है। ब्रिटिश राज के पास केवल भय की सत्ता थी, इनके पास जन-उन्माद का बल भी है। उग्र हिंदूराष्ट्रवाद, जो कि भारतीय फ़ाशीवाद के रूप में प्रकट हुआ है, केवल चुनावी राजनीतिक पार्टियों के द्वारा बेदख़ल नहीं किया जा सकता। चुनाव में इसकी पराजय सुनिश्चित करना बेशक एक ज़रूरी तात्कालिक कार्यभार है, लेकिन एक-दो चुनावी हार इसके सामाजिक-राजनीतिक प्रभुत्व को हिला नहीं सकती। आज़ादी, समानता, बहनभाईचारा और लोकतंत्र से प्यार करने वाले लोगों को इसके ख़िलाफ़ एक लंबी ज़ंगे आज़ादी की तैयारी करनी होगी।’–आशुतोष कुमार का लेख :
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“एक बार सत्ता मिल जाए, हम उसे किसी भी सूरत में नहीं छोड़ेंगे. हमें हटाने के लिए उन्हें मंत्रालयों से हमारे मुर्दा शरीर खींच कर ले जाने पड़ेंगे.” — गोएबेल्स (हिटलर का प्रचार मंत्री)
यह घटना देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय की है। शहादत दिवस यानी तेईस मार्च के आसपास कुछ छात्रों ने भगतसिंह को याद करने के लिए कुछ पोस्टर बनाये। कैंपस के लंबे-चौड़े हरे भरे प्रांगण में कहीं दो पेड़ों के बीच सुतली बांध कर आठ-दस पोस्टर टांग दिये गये। लगभग इतनी ही संख्या वहां मौजूद छात्र-छात्राओं की थी। कुछ ही देर में विश्वविद्यालय की सुरक्षा–गारद वहा आ गयी। कहा गया कि चूंकि आपने पहले से अनुमति नहीं ली है, इसलिए आप न तो यहां पोस्टर टांग सकते हैं, न बातचीत कर सकते हैं। छात्र-छात्राओं ने समझाने-बुझाने की कोशिश की… वे किसी की शांति भंग नहीं कर रहे। कोई बाहरी व्यक्ति यहां नहीं है। विश्वविद्यालय की किसी सम्पति को कोई नुक्सान नहीं पहुंचा रहे। पोस्टर किसी दीवार या पेड़ पर नहीं चिपकाया गया। कुछ ही समय पहले कैंपस में जगह जगह राम मंदिर के झंडे लगे थे। प्राणप्रतिष्ठा का जश्न मनाया गया था। सवाल ही नहीं कि कोई अनुमति मांगी या दी गयी हो।
ज़ाहिर है, उनकी एक नहीं सुनी गयी। छात्रों ने बिना किसी हंगामे के पोस्टर हटा लिये। सवाल यहां यह नहीं है कि विश्वविद्यालय को भगत सिंह के हाथ से बने पोस्टरों से क्या दिक्कत थी। सवाल यह है कि क्या आज से दस साल पहले ऐसा कुछ हुआ होता तो मामला इतनी शांति से निपट गया होता? क्या छात्र विरोध नहीं करते? क्या वे बड़ी संख्या में वहां इकट्ठे नहीं हो गये होते?
वे दिन गये जब कैंपस लोकतांत्रिक गहमा गहमी की जगहें हुआ करती थीं। कहीं पोस्टर बनाये-लगाये जा रहे हैं। चाय के ढाबों पर गरमा गरम बहसें चल रही हैं। एक तरफ़ कोई समूह बैठा क्रांतिकारी गीत गा रहा है। कोई गिटार बजा रहा है। लगातार सेमीनार, गोष्ठियां, सभाएं चल रही हैं। पर्चे-पत्रिकाएं निकल रहीं हैं।
अब यह सब कुछ बंद हो चुका है। कैम्पसों में मुर्दा खामोशी छायी हुई है। कक्षाएं सुनसान हो गयी है। छात्र- शिक्षक कम आते हैं। जो आते हैं, वे बहस नहीं करते। सवाल नहीं पूछते। शिक्षक डरा हुआ है कि न जाने कब उसके मुंह से निकली कौन-सी बात अपने संदर्भ से काट कर वायरल कर दी जाये! इसके नतीजे भयावह हो सकते हैं। छात्र डरा हुआ है अपने शिक्षक से, प्रशासन की आंख से, यहां तक कि अपने ही दोस्तों से। पुलिस से, सरकार से। वैचारिक–राजनीतिक सवाल तो छोड़िए, वो अपनी पढ़ाई-लिखाई, रोज़गार, होस्टल, मेस, लैब और लाइब्रेरी तक की परेशानियों तक पर मुंह नहीं खोल रहा। यहां तक कि सरकार-समर्थक भी डरे हुए हैं। कहने के लिए भी कोई असहमति ज़ाहिर करने से बचना आम आदत हो गयी है।
यह डर यूं ही नहीं है। यह केवल दाखिलों और नियुक्तियों में होने वाले भेदभाव का डर नहीं है।
कैंपस केंद्रित पिछली बड़ी हलचल सीएए एनआरसी विरोधी आंदोलन था। उस आंदोलन से जुड़ी छात्र-छात्राएं लंबे समय तक जेल में रहीं। कुछ अभी भी हैं। किसी के खिलाफ़ कोई सबूत नहीं है। बीबीसी हिंदी पर दिल्ली दंगों से संबंधित गिरफ़्तारियों पर खोजी रपट छपी हुई है (‘दिल्ली-दंगा – एक साल बाद, चार्जशीट, क्रोनोलोजी, साज़िश, गिरफ़्तार छात्र-नेता और कार्यकर्ता’ और संबंधित रिपोर्टें)। सबूतों के आधार पर बताया गया है कि पुलिस की बनायी सारी कहानी बेहद संदिग्ध है। आंदोलन में शामिल छात्रों का दिल्ली दंगों से कोई संबंध नहीं है। सबूता का एक रेशा तक नहीं है, जबकि विपरीत सबूत भरे पड़े हैं। फिर भी उमर ख़ालिद और शर्जील इमाम जैसे आरोपियों को जमानत तक नहीं मिल रही।
प्रोफ़ेसर जी एन साईबाबा माओवादी संगठनों से संबध रखने के आरोप में दस साल जेल में बंद रहे. दो साल पहले पुलिस द्वारा क़ानूनी प्रक्रिया का पालन न किये जाने के कारण हाई कोर्ट से मिली जमानत पर ख़ुद सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी। पुलिस की कहानी पर दुबारा विचार करते हुए हाई कोर्ट ने पाया कि न तो गिरफ़्तारी की प्रक्रिया सही थी, न कहीं कोई प्रमाण था. साईबाबा के साथ साथ पत्रकार प्रशांत राही, महेश तिर्की, हेम केशव दत्त मिश्रा, और विजय नान तिर्की को भी सभी अरोपों से मुक्त ठहराया गया। इसी मामले के एक आरोपी पांडू नरोटे की मौत दो साल पहले जेल में ही हो गयी।
साईबाबा ख़ुद नब्बे फ़ीसद विकलांग हैं। जेल में वे लगातार बीमारियों से जूझते रहे. न्यूनतम सुविधाओं और इलाज के लिये उन्हें निरंतर संघर्ष करना पड़ा। वे जीवित कैसे रह गये, यह स्वयं में एक आश्चर्य है। मानवीय इच्छा शक्ति और वैचारिक दृढ़ता का प्रत्यक्ष चमत्कार है। उनकी और संगिनी वसंत के संघर्ष की साझेदारी वाले प्रेम का महान आख्यान है। लेकिन कठोर उम्र कैद जैसी सज़ा तो उन्हें भुगतनी ही पड़ी। विश्वविद्यालय की नौकरी भी छीन ली गयी। जो उनके साथ हुआ, किसी के भी साथ हो सकता है। शाहे वक़्त का यही सन्देश है। हिंदूवादी राजसत्ता कुछ भी कर सकती है। भले ही आपने कोई क़ानून न तोड़ा हो, कोई जुर्म न किया हो, आपको दसियो साल जेल में यातना और अपमान की चक्की पिसवायी जा सकती है।
भीमा कोरेगांव मामले में भी यही हो रहा है। आलोचना-63 के सम्पादकीय में इस मामले में हुए क़ानूनी फ़र्जीवाड़े की विस्तार से चर्चा की गयी थी। इस मामले में गिरफ़्तार किये गये लोगों में एक थे तिरासी साल के फ़ादर स्टेन स्वामी। आदिवासी अधिकारों के लिए आजीवन लड़ने वाले कर्मकर्ता। कांपते हाथों से वे पानी का गिलास तक नहीं पकड़ सकते थे। जेल में पानी पीने के लिए उन्हें सिपर तक मुहैया नहीं कराया गया। आखिर जेल में ही उनकी मृत्यु हुई। वे निर्दोष थे, क्योंकि यह पूरा मामला ही फ़र्ज़ी है। हां, वे अपनी ज़मीर की आवाज़ सुनने के दोषी थे! जैसे शर्जील इमाम और उमर ख़ालिद भी हैं। न तो साईबाबा और उनके सह-आरोपियों ने, न भीम कोरेगांव के आरोपियों ने और न सीएए एनआरसी विरोधियों ने कोई क़ानून तोड़ा है। लेकिन वे सभी सज़ा भुगतते रहे। इस देश की महान कही जाने वाली न्यायपालिका उनकी कोई मदद नहीं कर पायी। संविधान उनके काम नहीं आया।
ये तो वे लोग हैं जिनकी पहुंच क़ानून और अदालतों तक है। इन्हें दुनिया जानती है। ये मक़बूल लोग हैं। आम लोगों की क्या हालत है? वेबसाइट आर्टिकिल-14 पर छपी एक रपट के हवाले से आलोचक हिमांशु पांड्या ने सोशल मीडिया पर यह कहानी साझा की:
“18 जून, 2017 – यह वह दिन है जब पाकिस्तान ने भारत को ओवल के मैदान में चैंपियंस ट्रॉफी के फ़ाइनल में हराया था।
मध्यप्रदेश में एक गांव है मोहाद। मध्यप्रदेश-महाराष्ट्र की सीमा पर बसा छोटा सा गांव। मध्यप्रदेश पुलिस ने इस मैच के बाद सत्रह बालिग और दो नाबालिगों को इस ‘जुर्म’ में गिरफ़्तार कर लिया कि उन्होंने पाकिस्तान की जीत पर मिठाई बांटी और पटाखे छोड़े। पहले पुलिस ने ‘देशद्रोह’ / सेडिशन और आपराधिक षड्यन्त्र का मुकदमा बनाया, फिर उन्हें समझ में आया कि ये मुक़दमा तो बनता ही नहीं, तो फिर उन्होंने सेक्शन 153 यानी समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ाने का मुक़दमा बनाया।
साढ़े छह साल बाद अब 2024 में सभी अभियुक्त बरी हुए, सभी गवाहों ने बयान में कहा कि पुलिस ने उन्हें जबरन गवाह बनाया था और अदालत ने पूरे मुक़दमे को फ़र्ज़ी/फेब्रिकेटेड बताया।
सत्रह में से एक ने जेल में खुदकुशी कर ली। एक के पिता उसके जेल जाने की ख़बर पाकर सदमें से चल बसे। दो नाबालिग बाल सुधार गृह से 2022 में रिहा हुए। दोनों की छूटी पढ़ाई छूट ही गय।
सभी को पुलिस गिरफ़्तारी के समय घसीटते-पीटते, लात-घूंसे मारते ले गयी थी जिसका गवाह पूरा गांव है। जेल में (मार पीट के अलावा) उनसे रोज पाखाना साफ़ करवाया जाता था। अदालत में हर पेशी के वक़्त वकीलों का झुंड ‘देश के गद्दारों को…’ नारे लगाता था। न्यूज़ चैनल्स पर उनके लिए ‘गद्दार’ शब्द काम में लिया जाता था।
जून, 17 में उनकी गिरफ़्तारी की ख़बर सभी न्यूज़ चैनल्स पर चली थी, पर उनकी रिहाई की ख़बर किसी ने नहीं चलायी। किसी को कोई मुआवज़ा नहीं मिला। झूठा मुक़दमा बनाने के लिए किसी पुलिस वाले को कोई सज़ा नहीं मिली। उज्जैन, शाजापुर, कटनी, छतरपुर, मंदसौर सभी जगहों पर इसी तरह के मुक़दमे चले/चल रहे हैं, कुछ इसी तरह ख़ारिज हो चुके हैं।
करण सिंह बारह में से एक जबरिया गवाह हैं। उन्होंने बताया कि 18 को अफवाह फैली, फिर पुलिस आयी और उनके निर्धारण का तरीक़ा बहुत आसान था। जिस मुस्लिम के घर में टीवी है, वह अपराधी है और उसका पड़ोसी हिन्दू गवाह है।
रुबाब नवाब, जिन्होंने जेल में कीटनाशक पीकर जान दे दी, उनके पीछे एक बेवा और दो बच्चे हैं। उनके बड़े बेटे ने पढ़ाई छोड़कर दिहाड़ी मज़दूरी शुरू कर दी है।
सत्रह में से एक थे इमाम तड़वी, जिनके पास न टीवी है न स्मार्टफोन। उनका सिर्फ़ एक टीन का टप्पर है, वही उनका घर है। उन्होंने कहा, “हमारे पास खाने का पैसा नहीं होता, हम पटाखे और मिठाई कहां से लाएंगे?” उन पर इस मुक़दमे के दौरान दो लाख का क़र्ज़ा हो गया।
अब उस गांव में कोई मुस्लिम परिवार टीवी पर मैच नहीं देखता और बच्चों को क्रिकेट नहीं खेलने देता।
ज़्यादा कुछ कहने को बचा नहीं है मेरे पास।”
अब्दुल वाहिद एक शिक्षक थे। बम धमाकों के समय मुंबई में थे। निर्दोष होने के बावजूद धमाकों में शरीक होने के आरोप में उन्हें गिरफ़्तार किया गया। उन्हें जेल में लंबे समय तक यातनाएं दी गयीं। उन्होंने जेल में रहते हुए क़ानून का अध्ययन किया, न्याय के लिए संघर्ष किया और आख़िरकार बरी किये गये। अपने इसी संघर्ष पर उन्होंने एक किताब लिखी है- बेगुनाह क़ैदी । इस किताब पर हीमोलिम्फ नाम की चर्चित फ़िल्म बनी है। लेकिन भारतीय जेलों में ऐसे तीन लाख सात हज़ार क़ैदी हैं, जिन्हें कच्चे क़ैदी कहा जाता है। इन्हें विभिन्न कारणों से फ़र्ज़ी आरोपों में गिरफ़्तार किया गया है। ये न क़ानून जानते हैं, न इनके पास वकील को देने के लिए पैसे हैं, ना ही इनके घर परिवार के लोग इनकी मदद करने की हालत में हैं। इनमें से अधिकतर ख़ुद ही अपने परिवारों के सहारा थे। इनके जेल में होने की सज़ा इनके परिवारों को मिल रही है। लाखों परिवार इसी तरह नष्ट हो रहे हैं।
मनीष सिसोदिया, सत्येंद जैन और संजय सिंह के बाद अब ऐन चुनाव के समय अरविन्द केजरीवाल की गिरफ़्तारी ने दिखा दिया है कि हिंदूवादी राजसत्ता न केवल ‘कुछ भी’ करने में सक्षम है, वह ‘कुछ भी’ कर गुज़रने के लिए दृढप्रतिज्ञ भी है [यह लेख अरविन्द केजरीवाल को ज़मानत मिलने से पहले का है]। उसकी यह क्षमता राज्य की मशीनरी, न्यायपालिका, मीडिया, सोशल मीडिया पर निर्णायक वर्चस्व स्थापित कर लेने से बनी है। यह वर्चस्व ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा गढ़ी गयी हिंदू हीनता ग्रंथि के राजनीतिक शोषण के ज़रिये स्थापित किया गया है। एक ऐसा बड़ा हिंदू वोट बैंक बना लिया गया है जो ‘कुछ भी’ बर्दाश्त कर सकता है और किसी भी चीज़ का समर्थन कर सकता है। हालांकि कुल मतदाताओं के बीच कभी भी उनका प्रतिशत सैंतीस से ऊपर नहीं हुआ, लेकिन वे संगठित हैं, मुखर हैं, आक्रामक हैं और सुप्रबंधित हैं। उन्होंने भय के उस साम्राज्य को मज़बूती दी है, जो असहमति की आवाज़ों को उभरने नहीं देता।
तिरेसठ प्रतिशत असहमत मतदाता संगठित न होने पाये, इसके लिए साम दाम दंड भेद का सहारा लिया जाये, यह अनपेक्षित नहीं है। विपक्ष की अपनी राजनैतिक और नैतिक कमज़ोरियां हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार ने सीएए एनआरसी विरोधी आंदोलनकारियों की गिरफ़्तारी और ज़मानत के अधिकार के निषेध पर कभी एक शब्द नहीं कहा। बीजेपी के उग्र हिंदूराष्ट्रवाद का जवाब देने के लिए उसने उदार भावनात्मक हिंदूराष्ट्रवाद का रास्ता चुना। बीजेपी के उभार के पहले से कांग्रेस भी इन्ही रास्तों की ओर उझकती रही है। भावनात्मक राष्ट्रवाद की राजनीति हमेशा फ़ाशीवाद की ज़मीन तैयार करती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इधर कांग्रेस नेतृत्व ने अपनी इस भूल को सुधारने की भरपूर कोशिश की है। उनकी पदयात्रा भावनात्मक राष्ट्रवाद से न्यायमूलक राष्ट्रवाद की ओर चली है। लेकिन कांग्रेस पार्टी और उसकी राज्य सरकारें इसका कोई व्यावहारिक आर्थिक मोडल पेश करने में विफल रही हैं।
एक तरफ़ हिंदूराष्ट्रवाद का उन्माद और दूसरी तरफ़ चौतरफ़ा भय का माहौल उन सच्चाइयों को उभरने से रोक देने के लिए है जो आम जनता के वास्तविक दुखों को राजनीतिक फलक पर सक्रिय कर सकती हैं। जनता के दुख वास्तविक हैं, लेकिन जब तक वे राजनीतिक प्रश्न नहीं बनते, राजनीतिक परिवर्तन नहीं हो सकता।
क्या विकसित भारत की पहचान यह है कि अस्सी करोड़ आबादी पांच किलो भात के मासिक राशन पर निर्भर है? क्या इसका मतलब यह नहीं है कि देश अभूतपूर्व भुखमरी के मुहाने पर है, जिसे सरकारी भिक्षा के सहारे जबरन रोका जा रहा है? दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर चल रहे देश में यह सूरत कैसे पैदा हुई? इसका जवाब वैश्विक विषमता प्रयोगशाला की नवीनतम आंकड़ों और उस पर आधारित एक पर्चे से मिल सकता है. इस पर्चे का उन्वान है- ‘भारत में आय और संपत्ति की विषमता, 1922-23: खरबपति (बिलियनेयर)-राज का उभार’।
यह रिपोर्ट भारत सरकार द्वारा उपलब्ध कराये गये आंकड़ों पर आधारित है। इस रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया है कि ये आंकड़े वैज्ञानिक दृष्टि से मज़बूत नहीं है, जिसका मतलब यह है कि वास्तविक स्थिति कहीं अधिक बुरी हो सकती है। बहरहाल, आंकड़े जो बताते हैं वह यह है कि 2022-23 में राष्ट्रीय आय का 22.6 प्रतिशत केवल ऊपर की एक प्रतिशत जनसंख्या के हिस्से में आया। इसी एक प्रतिशत के पास कुल राष्ट्रीय सम्पत्ति का 40.1 प्रतिशत हिस्सा मौजूद है। 1990 के पहले भारत में कोई खरबपति नहीं था। उदारीकरण के बाद सन 2011 तक कुल 52 बिलियनेयर उभर चुके थे। 2022 तक इनकी संख्या बढ़ कर 162 हो चुकी थी। पी साईनाथ ने नवें सुनील मेमोरियल लेक्चर में बताया था कि कोविद के पहले साल में 42 नये बिलियनेयर उभरे थे, और दूसरे साल में 29। यह वह दौर था जब भारत की अर्थव्यवस्था में गिरावट आ रही थी, और लोग दवा और हवा (ऑक्सीजन) के बिना मर रहे थे। भारत दुनिया का इकलौता देश है जिसे यह भी प्रमाणिक रूप से पता नहीं है कि कोविड महामारी के दौरान कुल कितने लोगों ने जान गंवायी। भारत दुनिया का इकलौता देश है जहां कोई यह सवाल पूछ भी नहीं रहा।
कोविड के दौरान तेज़ी से खरबपति बनने वालों में दवा कंपनियों, ऑनलाइन भुगतान ऐप और ऑनलाइन पाठयक्रम चलाने वाले उपक्रमों की संख्या ज़्यादा है। यही वह खरबपति जमात है जो राजनीतिक पार्टियों को खरबों का चंदा देती है और राज्य की नीतियों और नियंत्रण को अपने मनमुताबिक़ चलाती हैं। इस तरह वे अपनी आय और सम्पत्ति का बेतहाशा विस्तार करती चली जाती हैं। विश्व विषमता प्रयोगशाला की रिपोर्ट में इसी को बिलियनेयर राज कहा गया है।
इस बिलियनेयर राज से लड़ना ब्रिटिश राज से लड़ने की तुलना में कहीं अधिक मुश्किल है। ब्रिटिश राज के पास केवल भय की सत्ता थी, इनके पास जन-उन्माद का बल भी है। उग्र हिंदूराष्ट्रवाद, जो कि भारतीय फ़ाशीवाद के रूप में प्रकट हुआ है, केवल चुनावी राजनीतिक पार्टियों के द्वारा बेदख़ल नहीं किया जा सकता। चुनाव में इसकी पराजय सुनिश्चित करना बेशक एक ज़रूरी तात्कालिक कार्यभार है, लेकिन एक-दो चुनावी हार इसके सामाजिक-राजनीतिक प्रभुत्व को हिला नहीं सकती। आज़ादी, समानता, बहनभाईचारा और लोकतंत्र से प्यार करने वाले लोगों को इसके ख़िलाफ़ एक लंबी ज़ंगे आज़ादी की तैयारी करनी होगी। इस लड़ाई को राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक स्तर पर एक साथ अनेक रूपों में परिकल्पित करना होगा।
ashuvandana@gmail.com
(आलोचना 74 से साभार)
बहुत प्रासंगिक और जरूरी आलेख।
बहुत ही सारगर्भित और साक्ष्यों के साथ अच्छा आलेख
हालांकि यह आलेख मेरा पढ़ा हुआ है फिर भी सामयिक लगता है, जरूरी लगता है और संघर्ष के लिए प्रेरित करता भी करता है
बहुत ही प्रासंगिक व तथ्यपरक आलेख। यह तो केवल सीधा-साधा मामला है। भ्रष्टाचार और घोटाले इनसे भी सैकड़ों गुना पैमाने पर हैं। एक संयुक्त आन्दोलन इन सब के विरुद्ध चलाया जाना जरूरी है।- सुनील