प्रकृतिपुत्र बैगा और उनकी रहस्यमयी दुनिया / ज्ञान चंद बागड़ी


विगत 32 वर्षों से मानव-शास्त्र और समाज-शास्त्र के अध्ययन और अध्यापन में लगे ज्ञान चंद बागड़ी इन दिनों आदिवासी इलाक़ों में खूब यात्राएं कर रहे हैं। ऐसी ही एक यात्रा से निकला है बैगा जनजाति का यह दिलचस्प वृत्तांत।

श्री बागड़ी उपन्यास, कहानी, यात्रा वृतांत, संस्मरण और कथेतर लेखन के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाओं में स्तंभ लेखन करते रहे हैं। वाणी प्रकाशन, दिल्ली से आखिरी गांव (उपन्यास), संभावना प्रकाशन से ये जो दिल्ली है (उपन्यास), रे माधव आर्ट से बातन के ठाठ (कहानी संग्रह), आधार प्रकाशन से सफ़र में धूप तो होगी (यात्रा वृतांत) और जो सम्भव हुआ (संस्मरण) प्रकाशित।

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बरसात का मौसम मुझे मध्य प्रदेश की यात्रा के लिए बहुत सुहावना लगता है। अपने उफान से मचलती हुई नदियां और कल-कल बहते झरनों का सौंदर्य देखकर मन नाचने लगता है। इस बार भी अगस्त के महीने में जबलपुर होते हुए सड़क मार्ग से मैंने डिंडौरी के लिए प्रात: ही अपनी यात्रा प्रारंभ कर दी। इन दिनों यहां बारिश बहुत होती है। जैसे चुंबक लोहे को खींचता हैं, वैसे ही घने पेड़ बरसात को बुलाते हैं। पूरा रास्ता खेत और हरियाली से पटा हुआ था। इस यात्रा के लिए दिल्ली की दूषित हवाओं के आदी मेरे फेफड़ों ने भी मुझे चुपके से दुआ दी होगी।

डिंडौरी पहुंचने से पहले मार्ग में दो घंटे के लिए मैं राष्ट्रीय जीवाश्म उद्यान, घुघुआ रुका। इस स्थान पर ही मुझे एहसास हो गया था कि डिंडौरी मेरे लिए एक विशेष ज़िला होने वाला है। डिंडौरी ज़िले में वनस्पति और विभिन्न जीवों के जीवाश्म बहुतायत में मिलते हैं। इस जीवाश्म उद्यान के अलावा डिंडौरी ज़िले की अन्य प्रमुख विशेषताओं में बैगा जनजाति और शालवन के पेड़ों के विषय में तो कम से कम मैं पहले से ही जानता था।

डिंडौरी पहुंचते ही मेरे मेजबान ने मेरे लिए सर्किट हॉउस या किसी अच्छे होटल में रुकने की योजना का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव को मैंने सिरे से ख़ारिज कर दिया और चांड़ा में वन विभाग के विश्राम घर में रुकने की इच्छा ज़ाहिर की। ब्रिटिश समय का बना ये रेस्ट हॉउस बैगा जनजाति के गांवों के बिल्कुल बीच में बना है। डिंडौरी में जल्दी से दोपहर का भोजन लेकर मुझे बिना वक़्त गंवाये गाड़ासरई पहुंचकर डॉ. विजय चौरसिया से मिलकर अपने अध्ययन की योजना बनानी थी। डॉ. चौरसिया बरसों से बैगाओं पर काम कर रहे हैं जिनसे मैंने फोन करके पहले ही वक़्त ले लिया था।

डॉ. साहब से मिलकर मैं सीधा बैगा गांवों में चला गया। दिन में ये लोग जंगल या खेतों में निकल जाते हैं तो बहुत कम लोगों के मिलने की संभावना थी, फिर भी इस काम के अलावा मेरी कोई दूसरी प्राथमिकता नहीं थी।

सबसे पहले मैं जलदा और बौना गांव गया। जैसा कि अनुमान था, वहां बहुत कम लोग मिले। जलदा में जितने भी लोग मिले, सभी मंद (महुए की शराब) पीकर मस्त मिले। मंद बैगा लोगों के जीवन की धुरी है, ये मैं जानता था, लेकिन मुझे यहां अन्य बदलाव नज़र आये। बहुत सी महिलाएं मिलीं जो सभी नशे में थीं। युवा लड़कियों और महिलाओं को देखकर नहीं लगा कि मैं किसी बैगा गांव में आया हूं। महिलाओं के शराब पीने की बात नयी नहीं थी लेकिन यहां मेरा आशय बैगा गांवों में हुए बदलावों से है।

गोदना वैसे तो दुनिया की सभी जनजातियों को प्रिय है, लेकिन बैगा महिलाओं की तो पहचान ही गोदना है। माथे से लेकर पैरों तक पूरे शरीर पर गोदना बैगा महिला की पहचान है तो छोटी-सी विशेष लंगोटी बैगा पुरुष की। सभी बूढ़ी महिलाओं के शरीर पर गोदना था, लेकिन बैगाओं को लेकर मेरे मन में जो पहचान थी, वो इन गांवों में नज़र नहीं आयी।

पहले दिन कोई ख़ास काम नहीं हुआ और थक-हारकर हम चांड़ा रेस्ट हाउस चले गये। सुबह पड़ोस के कई गांवों में लोगों से मिलना हुआ, लेकिन जो काम करना चाहता था, उसका रास्ता नज़र नही आया। दोपहर के बाद रैयत और पंचगांव जाना हुआ। पंचगांव में जाकर मेरी साध पूरी हुई। एक तो यहां लोग आज भी पारंपरिक बैगा वेशभूषा में मिले, ऊपर से रतन सिंह बैगा के रूप में एक अच्छा दोस्त भी मिला। रतन सिंह ज़बरदस्त क़िस्सागो है और उसे हज़ारों क़िस्से जुबानी याद हैं।

अभी तक मैं सोचने लगा था कि डिंडौरी और मंडला घूमकर निकला जाये लेकिन पंचगांव देखकर और रतन सिंह से मिलकर सारा धुंधलका छंट गया। अगले दिन ही मैंने रेस्ट हाउस छोड़ दिया। वैसे भी दो लॉज वाले इस रेस्ट हाउस में लम्बे समय तक नही रुका जा सकता था क्योंकि अतिविशिष्ट लोगों के रुकने की इस क्षेत्र में ये एकमात्र जगह है।

फूस के बैगा घरों में बहुत कम जगह होती है। रतन सिंह ने एक चादर और खेस देकर मेरी खटिया गांव के पंचायत घर में लगवाकर मेरे रहने की व्यवस्था कर दी। रहने की स्थायी व्यवस्था होने के बाद अब मुझे अपना काम प्रारंभ करना था।

बैगा जनजाति मध्य प्रदेश के मुख्यत: चार ज़िलों – मंडला, डिंडौरी, शहडोल एवं बालाघाट में मुख्य रूप से पाये जाने के अलावा छत्तीसगढ़ और झारखंड में भी पायी जाती है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार इनकी जनसंख्या 3,00,000 थी।

मैंने अपना कार्य क्षेत्र बैगा चक को बनाया। बैगा चक की स्थापना जबलपुर संभाग के सचिव आई. के. लौरियार के आदेश क्रमांक – 2860/221/13 मई/1890 द्वारा की गयी थी। बैगा चक क्षेत्र ज़िला मुख्यालय डिंडोरी से क़रीब 65 किलोमीटर जबलपुर–अमरकंटक मार्ग पर गाड़ासराई नामक क़स्बे से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। बैगा चक का केंद्रबिंदु वन ग्राम, चांड़ा है। संपूर्ण बैगा चक क्षेत्र डिंडोरी ज़िले के विकास खण्ड बाजाग, करंजिया एवं समनापुर के अंतर्गत आता है।

बैगा चक क्षेत्र समुद्र तल से 2975 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। इस क्षेत्र में बैगा चक के अंतर्गत 52 बैगा बहुल ग्राम हैं। प्रारंभ में बैगा चक के अंतर्गत सात वन ग्रामों का चयन किया गया, जिसमें 1551 बैगा जनजाति के लोग निवास करते थे। इनमें वन ग्राम धुरकुटा, सिलपिड़ी, अजगर, ढाबा, झीलंग, लमोठा, एवं अन्य बैगा बहुल ग्रामों को सम्मिलित किया गया। फिर क्रमश: समस्त 52 ग्रामों को बैगा चक में शामिल कर लिया गया। बैगा चक के समस्त 52 ग्राम डिंडोरी ज़िले के अंतर्गत आते हैं।

बैगा शब्द के अनेक अर्थ हैं। बैगा जाति विशेष का सूचक होने के साथ ही अधिकांश मध्य प्रदेश में “गुनिया” और “ओझा” का भी पर्याय है। बैगा लोगों को इसी आधार पर ग़लती से गोंड भी समझ लिया जाता है। यह सही है कि बैगा अधिकांशतः गुनिया और ओझा होते हैं, किंतु ऐसा नहीं है कि गुनिया और ओझा अन्य वितरण क्षेत्रों में बैगा जाति के ही पाये जाते हैं। जनजाति में पायी जाने वाली ये दोनों जातियां क्रमश: कोल और द्रविड़ जनजाति समूहों से सम्बद्ध हैं। इन दोनों जातियों में विवाह संबंध होते हैं क्योंकि दोनों जातियां हज़ारों वर्षों से साथ-साथ रह रही हैं। गोंडो के समान ही बैगाओं में भी बहुत-से सामाजिक संस्तर हैं। राजगोंडों के समान ही बैगाओं में भी बिन्झवार बड़े ज़मींदार हैं और उन्हें राजवंशी होने की महत्ता प्राप्त है। मंडला में बैगाओं का एक छोटा समूह भारिया बैगा कहलाता है। भारिया बैगाओं को हिंदू पुरोहितों के समकक्ष ही स्थान प्राप्त है। मंडला, डिंडोरी के गांवों में ज़मीन के सीमा-संबंधी विवाद का बैगाओं द्वारा किया गया निपटारा गोंडों को भी मान्य होता है। बैगाओं को छोटा नागपुर की आदि जनजाति भुइयां की मध्य प्रदेश शाखा भी मानते हैं जिसे बाद में बैगा कहा जाने लगा। जहां तक शाब्दिक अर्थ का प्रश्न है, भुइयां (भुई, पृथ्वी) “भूमि” शब्द से संबंधित अर्थ बोध कराते हैं।

लोक कथाओं के अनुसार प्रारंभ में भगवान ने नागा बैगा और नागा बैगिन को बनाया। नागा बैगा और नागा बैगिन जंगल में रहने लगे। थोड़े दिन बाद उनकी दो संतानें हुईं। पहली संतान बैगा और दूसरी गोंड हुई। दोनों संतानों ने अपनी बहनों से शादी कर ली। आगे चलकर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई। पहले की संतान बैगा हुई, दूसरे गोंड हुए। इनका मुख्य निवास तलहटी और घाटियां हैं। बैगा स्वयं को पृथ्वी के प्रथम मानव मानते हैं।

बैगा जाति की मान्यता के अनुसार त्रेता युग में श्री राम और रावण के बीच युद्ध के समय श्री रामचंद्र जी के छोटे भाई श्री लक्ष्मण जी को जब शक्ति बाण लगा था, उस समय हनुमान जी सुषेण वैध को लक्ष्मण जी के उपचार हेतु लेकर आये थे। इन्हीं सुषेण वैद्य को बैगा पितृ पुरुष मानते हैं। उनका मानना है कि उस काल में भारतवर्ष के मध्य क्षेत्र में चिकित्सा तथा स्वास्थ्य का जिम्मा बैगा को दिया गया था जिसे वे आज भी निभाते चले आ रहे हैं । जड़ी-बूटियों तथा विष चिकित्सा के जानकार होने के कारण इन्हें वैद्य नाम दिया गया, जो वैद्य-विग्य तथा कालांतर में बैगा हो गया। बैगा इनको दी गयी सम्मानसूचक उपाधि थी जो कालांतर में जाति सूचक शब्द हो गयी।

पृथ्वी और जीवन की उत्पत्ति के विषय में अपने शानदार अभिनय और जादुई आवाज के साथ रतन सिंह बैगा ने मुझे ये लोक कथा सुनायी :

पूरे संसार में प्रारंभ में केवल जल ही जल था। जल के सिवाय कुछ नहीं था। न भगवान थे, न भूत थे, न हवा, जंगल, फल, फूल और न कोई पेड़ था। था तो मात्र ऊपर आकाश और नीचे जल।

उसी जल में एक कमल के विशाल पत्ते पर भगवान ब्रह्मा जी विराजे थे। एक दिन भगवान ब्रह्मा जी ने अपने मन में सोचा कि क्यों ना सृष्टि का निर्माण किया जाये। क्योंकि पूरे संसार में पानी ही पानी था और धरती का कहीं अता-पता नहीं था। तब भगवान ब्रह्मा जी ने अपनी छाती का मैल निकालकर उससे एक कौवा बनाया।

उसके बाद ब्रह्मा जी उस कौवे से बोले – जा रे कौआ, धरती का पता लगा कर आ, मुझे इस संसार की रचना करनी है। तब वह कौआ ब्रह्मा जी के पास से उठकर आकाश में चला गया। वह बहुत दिनों तक आकाश में उड़ता रहा, परंतु उसे धरती कहीं नहीं मिली। एक दिन वह आकाश में उड़ रहा था, उसी समय उसे एक टीला दिखायी दिया। वह आकाश से नीचे आया और उस टीले पर बैठ गया। उसने समझा कि यही धरती है। परंतु उसे मालूम पड़ा कि वह तो ककरामल कुंवर (केकड़ा) की पीठ थी।

तब कौआ ककरामल कुंवर से बोला – ककरामल कुंवर, मुझे तुमसे काम है, लेकिन तुम झूठ बिल्कुल मत बोलना, मुझे ब्रह्मा जी ने भेजा है। तुम धरती की मिट्टी का पता बता दो। तुम कहीं से भी धरती की मिट्टी लाकर मुझे दो। ब्रह्मा जी को सृष्टि का निर्माण करना है।

ऐसा सुनकर ककरामल कुंवर ने कहा – धरती की मिट्टी तो किचकमल (केंचुआ) राजा के पास में है। वह पाताल लोक में धरती की मिट्टी को खा रहा है। तब ककरामल कुंवर ने कौवे को अपने ऊपर बिठाया और उसे किचकमल राजा के पास पाताल लोक ले गया। क्योंकि धरती की मिट्टी किचलमल राजा के पास थी और वह उस मिट्टी को खा रहा था।

अब ककरामल कुंवर ने किचकमल राजा की गर्दन को दबाया तो किचकमल राजा ने धरती की मिट्टी उगली। तब ककरामल कुंवर ने वह धरती की मिट्टी कौवे को दी। कौवे ने मिट्टी अपने पास रख ली और वह उड़ते-उड़ते ब्रह्मा जी के पास आया। उसने वह धरती की मिट्टी ब्रह्मा जी को दे दी।

ब्रह्मा जी ने उस मिट्टी का बर्तन बनाया। उसके बाद उन्होंने नाग देवता की गेरी और उसी की मथानी बनायी। फिर उस बर्तन में मिट्टी डालकर सांप की गेरी और मथानी से खूब मथा। जब मिट्टी अच्छे से मिल गयी तो ब्रह्मा जी ने उस मिट्टी को समुद्र के जल में बिखेर दिया, जिससे धरती का निर्माण हो गया।

उसके बाद ब्रह्मा जी ने धरती की चारों दिशाओं में घूम कर देखा तो धरती यहां-वहां हिल रही थी। तब ब्रह्मा जी ने फिर से अपनी छाती का मैल निकाला और उससे पांच जीवों को बनाया। सबसे पहले ब्रह्मा जी ने अगरिया, फिर नागा बैगा, बैल, कुत्ता और उल्लू को बनाया। उसके बाद अगरिया ने लोहे के चार मज़बूत कीलों का निर्माण किया।

तब ब्रह्मा जी ने बैगा से कहा – जा रे नागा बैगा, जाकर धरती के चारों कूंट में कीले ठोंक दे। बैगा गया और धरती के चारों कूंट में कीले ठोंक कर आ गया, जिसके कारण धरती एक जगह पर रुक गयी। इसके बाद ब्रह्मा जी ने पुन: अगरिया, बैगा, कुत्ते और उल्लू को बुलाया। ब्रह्मा जी ने उन सभी से कहा कि तुम लोगों को धरती पर जाकर राज्य करना है।

इसके बाद ब्रह्मा जी ने सबसे पहले बैल को बुलाया और बैल से कहा – तुम धरती पर जाकर अगरिया और बैगा के कामों में सहयोग करना। उनके लिए जंगल से लकड़ी और खेत से अनाज लाने-ले जाने का काम करना। उनकी घर-गृहस्थी बनाने का काम करना। इसके लिए तुम्हें चालीस वर्ष की उम्र दी जाती है।

ऐसा सुनते ही बैल अपने दोनों हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बोला – प्रभु, जब मुझे धरती पर जाकर अगरिया और बैगा की घर-गृहस्थी में सहयोग करना है, आपने उनके ढेर सारे कार्य मेरे भरोसे छोड़ दिये हैं, वहां जाकर मुझे जी-तोड़ मेहनत करनी है, तो क्यों नहीं मेरी उम्र कुछ कम कर देते?

ब्रह्मा जी ने बैल की बात सुनी तो उन्हें उस पर दया आ गयी। तब ब्रह्मा जी बोले – जा रे बैल, मैं तेरी उम्र बीस वर्ष करता हूं।

इसके बाद ब्रह्मा जी ने कुत्ते को बुलाया और कुत्ते से बोले – जा रे कुत्ते, तुम पृथ्वी लोक में जाकर बैगा और अगरिया के साथ रहना, हमेशा उनकी रक्षा करना, उनके स्वामी भक्त बनकर रहना। तुम रात-दिन जागकर उनकी रक्षा करना, थोड़ी-सी भी आहट पाकर तुम उठ जाना। वे तुम्हें मारेंगे, पीटेंगे फिर भी तुम्हें दो वक़्त का भोजन ज़रूर देंगे। तुम इनका साथ कभी नहीं छोड़ना, इसलिए तुम्हें मैं चालीस वर्ष की उम्र देता हूं।

ऐसा सुनते ही कुत्ता भी अपने दोनों हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। वह ब्रह्मा जी से निवेदन करने लगा – प्रभु, जब मुझे रात-दिन जागना ही है, इनकी मारपीट, दुत्कार सुननी ही है, तो क्यों ना मेरी उम्र कुछ कम कर देते? तब ब्रह्मा जी बोले – जा रे कुत्ते, तुम्हारी भी उम्र बीस वर्ष कर देता हूं।

उसके बाद ब्रह्मा जी ने उल्लू को बुलाया और उससे कहा – जा रे उल्लू, तुम पृथ्वी लोक में जाकर अगरिया और बैगा के साथ रहना। यह लोग तुझे निकृष्ट समझेंगे, फिर भी तुम रात भर जागकर भूत, प्रेत, पिशाच, डायन, चुड़ैलों से इनकी रक्षा करना। उनके तंत्र-मंत्र और गुनियायी में सहयोग करना। इसके लिए तुम्हें चालीस वर्ष की उम्र देता हूं। तो उल्लू भी ब्रह्मा जी के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। उसने ब्रह्मा जी से कहा- भगवान जी, जब मुझे सारी रात जागना ही है, तब क्यों ना मेरी उम्र कुछ कम कर दो? ऐसा हो जाए तो अच्छा रहेगा। तब ब्रह्मा जी फिर सोच में पड़ गए और उल्लू की उम्र भी बीस वर्ष कर दी।

इसके बाद ब्रह्मा जी ने सबसे अंत में अगरिया और बैगा को बुलाया। ब्रह्मा जी ने दोनों से कहा – तुम लोगों ने मुझे पृथ्वी लोक बनाने में सहयोग दिया है, इसलिए तुम पृथ्वी लोक पर राज्य करना। तुम्हारी सेवा के लिए मैं तीनों प्राणियों को पृथ्वी लोक में तुम्हारे साथ भेज रहा हूं। तुम पृथ्वी लोक में इन प्राणियों का सहयोग करना, इसके लिए मैं तुम्हें चालीस वर्ष की उम्र देता हूं।

इतना सुनते ही अगरिया और बैगा अपने दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गए। वे ब्रह्मा जी से निवेदन करने लगे और कहने लगे – भगवान हम दोनों पर दया करें, जब हमें पृथ्वी लोक पर जाकर राज करना है तो चालीस साल में क्या होगा ? भगवान, हमारी उम्र कुछ और बढ़ा देते तो बड़ी कृपा होती।

ब्रह्मा जी असमंजस में पड़ गये और सोचने लगे कि मैंने बैल, कुत्ते और उल्लू की उम्र कम की है। उनकी बात मानी है, इन दोनों ने तो पृथ्वी के निर्माण में सहयोग भी किया है। यदि मैं इनकी बात नहीं मानता तो ये लोग बुरा मान जायेंगे। सबसे बड़ी बात यह है कि मेरे पास उनको देने के लिए उम्र नहीं बची है। तब ब्रह्मा जी उन दोनों से बोले – मेरे पास तो तुम्हें देने के लिए उम्र नहीं बची है। बैल, कुत्ते और उल्लू ने जो उम्र वापस की है, वही मेरे पास बची है। अगर चाहो तो उसे ले सकते हो।

तब बैगा बोला – ठीक है महाराज, हमें उन्हीं की उम्र दे दो।

तब ब्रह्मा जी ने कहा – जा रे बैगा और अगरिया, तुमको आज से इनकी बची हुई उम्र देता हूं। आज से तुम जन्म से लेकर चालीस साल तक मानव का जीवन, चालीस से साठ साल तक बैल का जीवन, साठ से अस्सी साल तक कुत्ते का जीवन और अस्सी से सौ साल तक उल्लू का जीवन व्यतीत करोगे।

तब से ब्रह्मा जी के वरदान के कारण मनुष्य जन्म से चालीस वर्ष तक मानव का जीवन व्यतीत करता है। इस उम्र में उसे किसी प्रकार की चिंता नहीं रहती है। निश्चिंत होकर खेलता कूदता रहता है। चालीस वर्ष से साठ वर्ष तक की उम्र में मानव घर गृहस्थी के जंजाल में फंस जाता है। वह बैल के समान अपनी गृहस्थी बनाने में लग जाता है और दिन-रात मेहनत करता है। साठ से अस्सी वर्ष के बीच मानव में कुत्तों के गुण आ जाते हैं। थोड़ी-सी आहट पाकर वह उठ जाता है। परिवार के सदस्य उसकी ओर ध्यान देना कम कर देते हैं। वह रात-दिन वफ़ादारी से अपने घर की रक्षा करता है। परिवार के सदस्य उसे दुत्कारते रहते हैं, फिर भी सुबह-शाम उसे भोजन अवश्य देते हैं।

अस्सी से सौ वर्ष की उम्र तक मानव अत्यंत वृद्ध हो जाता है। उसको रात में नींद नहीं आती। रात भर खांस-खांसकर बैल, कुत्ते और उल्लू से मिला उधार का जीवन व्यतीत करते हुए स्वर्ग सिधार जाता है ।

कितना बड़ा क़िस्सा है, समझोगे तो तुम्हारी और नहीं समझे तो हमारी।

 

बैगा प्रमुख रूप से प्रकृतिपुत्र हैं। प्रकृति के सान्निध्य में रहने के कारण इनकी त्वचा का रंग काला होता है। कहीं-कहीं ये ताम्रवर्णी भी होते हैं। इनकी नाक चौड़ी और होठ कुछ मोटे होते हैं। स्त्री-पुरुष दोनों ही जन्म से लंबे बाल रखते हैं। बाल लंबे और घुंघराले होते हैं। सर के बालों को काटने का रिवाज नहीं है। बालों को इकट्ठा कर पीछे की ओर चोटी डाली जाती है। बैगा युवतियां आकर्षक होती हैं। उनके चेहरों और आंखों की बनावट सुंदर होती है। इन्हें अन्य आदिवासी स्त्रियों से अलग ही पहचाना जा सकता है। यद्यपि गोंड और बैगा जंगलों में साथ रहते हैं, तथापि गोंडों में द्रविड़ विशेषताएं और बैगाओं में मुंडा विशेषताएं परिलक्षित होती हैं।

पंचगांव में नागा बैगा हैं जो बैगा जनजाति में सबसे बड़े बैगा के रूप में जाने जाते हैं। प्राचीन काल में नागा जाति के बैगा जन सघन वनों में नग्न अवस्था में रहते थे, इस कारण ही इन्हें नागा बैगा नाम दिया गया था। आज भी सुदूर वन क्षेत्र में रहने वाले नागा उपजाति के बैगा बहुत कम कपड़ों में जीवनयापन करते देखे जा सकते हैं। नागा बैगा पुरुष शरीर पर मात्र एक लंगोटी ही धारण करते हैं। नागा बैगा पंडागिरी करते हैं। इनको जंगली जड़ी-बूटियों की अच्छी जानकारी होती है। अन्य बैगा जन के घरों में धार्मिक पूजा-पाठ, शादी-विवाह आदि के काम नागा बैगा ही करवाते हैं। मड़ई जैसे धार्मिक आयोजनों के पूजा पाठ भी नागा बैगा ही करवाते हैं। बैगा समाज के साथ-साथ अन्य जनजातियों में देवबाधा, प्रेतबाधा की पूजा या अनुष्ठान भी नागा बैगा ही करवाते हैं। नागा बैगा को दवार भी कहा जाता है। “दवार” शब्द का अर्थ होता है देने वाला। दवार शब्द किसी बैगा के लिए एक सम्मानसूचक शब्द होता है। नागा बैगा के अतिरिक्त बैगा जनजाति की अन्य प्रमुख उपजातियों में बिन्झवार बैगा, भरोटिया बैगा, नाहड़ बैगा, अगरिया बैगा और कंडरा बैगा प्रमुख हैं।

बैगा वनवासियों के घर मिट्टी, लकड़ी, घास से बने होते हैं। उनके घरों की दीवारें बांस या लड़कियों से बनी घनी बाड़ के ऊपर मिट्टी छाप कर बनायी गयी होती हैं। कुछ घरों की दीवारें मिट्टी और घास-भूसा से बने गारे से बनी होती हैं, इन दीवारों को भीठ की दीवार कहते हैं। इनके घरों की छतें या छावनी घास-फूस की बनी होती हैं जो दोनों और झुकी होती हैं। ये घास की छतें कुछ ज़्यादा झुकी होती हैं, जिससे कि बरसात का पानी घास के सहारे झट से सरक कर नीचे गिर जाये। इन झोपड़ियों की छत बनाने के लिए लंबी लड़कियों का सांचा तैयार करके उस पर घने बांस बांधते हैं और फिर इसके ऊपर वे घास डालते हैं। इनकी ये झोपड़ियां आकार में भी बहुत छोटी होती हैं। कुछ झोपड़ियों की लंबाई इतनी कम होती है कि एक सामान्य लंबाई का आदमी पैर सीधे करके इसके अंदर नहीं सो सकता। वास्तव में ये झोंपड़ियां उनके दैनिक उपयोग की चीज़ों को सुरक्षित रखने के भंडारगृह के ही काम आती हैं। बैगा जन साल के बारह महीने अपने इस घर से बाहर घास से बनी एक बड़ी सी छतरी के नीचे आग जलाकर उसके आस-पास सोते हैं। घास की इस छतरी को “ढाबा” या “ढबुआ” कहते हैं। इनकी झोंपड़ी के किनारे ही झोंपड़ी की छत थोड़ी आगे बढ़ी हुई होती है जिसे “परछी” कहते हैं। यह परछी बरसात के दिनों में उनकी जलावन की लड़कियां रखने के काम आती है। इस परछी के अंदर या इनके मुख्य दरवाज़े के पास दो लकड़ियां ज़मीन पर खड़ी गड़ी होती हैं जिनके ऊपर एक लकड़ी का मोटा-सा पाटा लगा होता है जिस पर एक या दो लगभग चार इंच व्यास के अवतलाकार गड्ढे बने होते हैं, इन्हें वे घिनौची कहते हैं जो उनके पीने के पानी के घड़े रखने के काम आती है। ये लोग वर्ष के बारहों महीने काले रंग के मिट्टी के घड़ों से ही पानी पीते हैं। इनकी झोपड़िया में खिड़कियां देखने को नहीं मिलती हैं। इनकी झोंपड़ियों में सिर्फ़ एक दरवाज़ा होता है, जिसमें बंद करने के लिए कोई पल्ला नहीं होता बल्कि बांस से बना हुआ एक टट्टा होता है। इनके घरों के मुख्य द्वार के सामने छत की बल्लियों के सहारे एक लंबा बांस दो मज़बूत डोरियों के सहारे टंगा होता है। इस बांस की छत से दूरी लगभग छह से आठ इंच की होती है। इसी बांस’ के सहारे बांस का बना हुआ एक टट्टा टंगा होता है। इस टट्टे की लंबाई इतनी होती है कि यह ज़मीन से न टकराये, पर ज़मीन से इतना भी दूर नहीं होता कि कोई उपद्रवी जानवर इस खाली जगह से घर के भीतर घुस जाये। यह टट्टा सामान्य तौर पर दरवाज़े से हटकर बांस पर टंगा रहता है परंतु जब घर के लोग बाहर काम पर जाते हैं, उस समय इस टट्टे को दरवाज़े के सामने सरका दिया जाता है, यही उनके घर का दरवाज़ा है। इस तरह के दरवाज़े यह सिद्ध करते हैं कि जनजाति के गांवों में चोरी जैसे अपराध नहीं होते और इस समाज के लोग अपनी मेहनत से कमाये धन पर ही जीवनयापन करने में विश्वास रखते हैं। यह भी सिद्ध होता है कि बैगा भौतिक वस्तुओं के संग्रह पर विश्वास नहीं रखते हैं। वे आज कमाने और आज ही खाने पर विश्वास रखते हैं। विश्व के सभी ऋषि मुनि भी इसी बात पर बल देते हैं कि मनुष्य को आज पर ही जीना चाहिए। आज के ज़माने में सबसे पिछड़े माने जाने वाले बैगा आज भी इस पर अमल कर रहे हैं। अपने अध्ययन प्रवास के दौरान देखा है कि बैगाओं के अधिकांश घरों में दरवाज़े नहीं है, कुछ में हैं तो उन पर ताले लगाने की व्यवस्था नहीं है। अन्य जातियों के बीच रहने वाले कुछ बैगा घरों में ताले भी लगे देखे तो यह पाया कि उनके घरों की चाबियां उनके छोटे-छोटे नासमझ बच्चों के गले में माला की तरह डली हुई हैं। इनके घरों के सामने एक छोटा-सा आंगन अवश्य ही होता है जिसके बीच में एक आग जलाने का स्थान होता है जिसे वे “कोंढा” कहते हैं। इसी आग के चारों ओर उनका परिवार हर रात को सोता है। बारिश के दिनों में वे इसी कोढे कूड़े के ऊपर एक ढबुआ लगा लिया करते हैं। उनके इसी आंगन के ठीक ऊपर इससे लगकर एक मंडप बना होता है जिसे वे मढ़वा कहते हैं। इस मंडप की ऊंचाई लगभग आठ से नौ फुट होती है। इस मंडप का ऊपरी हिस्सा एक बराबर बांसों से पटा होता है। यह मंडप चारों ओर बराबर ऊंचाई का होता है, बांस की इस पाटन के ऊपर अच्छी तरह से बनी हुई मिट्टी से मोटी छपाई की जाती है। मंडप के ऊपर की छपाई उनके आंगन की तरह चिकनी होती है, इसके चारों ओर एक से दो इंच की दीवार-सी बनी होती है, इस पर सही प्रकार से गोबर से लिपाई की गयी होती है। यह मंडप उनके वनोपज संग्रह को धूप में सूखाने का स्थान है। इस तरह के मंडप बनाने की वजह यह है कि परिवार के सभी सदस्यों के अपने-अपने काम पर जाने के बाद उनके द्वारा संग्रह की गयी वनोपज चौपाये जानवरों से सुरक्षित दिनभर धूप में सूखती रहें।

इनके घरों के पास एक छोटी-सी गृह वाटिका भी होती है जिसे “बाड़ी” कहा जाता है। इस बाड़ी में वे अपने उपयोग की फल सब्ज़ियां आदि उगाते हैं। उनकी यह वाटिका, घर और आंगन जो आपस में एक दूसरे से सटे हुए होते हैं, मोटे-मोटे लक्कड़ों की बाड़ से घिरे हुए होते हैं। बाड़ बनाने के लिए वे मोटे-मोटे लक्कड़ों को, जिनका व्यास लगभग चार से आठ इंच तक होता है, एक दूसरे से सटाकर जमीन पर लंबाई में गाड़ते हैं। ये लक्कड़ एक से डेढ़ फिट ज़मीन में गाड़े जाते हैं तथा ज़मीन से बाहर ये छ: से आठ फिट ऊंचे होते हैं। इस बाड़ का दरवाज़ा उनके आंगन या बाड़ी में उनकी सुविधानुसार होता है। बाड़ के इस दरवाज़े को वे “फरका” कहते हैं। उनके फरके के बीच वे एक अंग्रेजी के Y के आकार की लकड़ी खड़ी करके गाड़ते हैं। लकड़ी का एक भुजा वाला हिस्सा नीचे की ओर होता है जो ज़मीन में लगभग दो फुट गहरा गड़ा होता है, लकड़ी का दो भुजाओं वाला हिस्सा ऊपर की ओर होता है। लकड़ी जिस स्थान पर दो भुजाओं में बढ़ती है, वह हिस्सा ज़मीन से लगभग दो फीट ऊंचा होता है। ऊपर वाली दोनों भुजाएं दोनों ओर बाड़ से सटी होती हैं। दोनों भुजाओं के बीच की खाली जगह से लोग उनके घरों में आते-जाते हैं। इस तरह के फरकों से आदमी तो आ-जा सकते हैं, पर चौपाये जानवर इसमें से उनके घर-आंगन और बाड़ी के अंदर नहीं जा सकते। मोटे-मोटे लक्कड़ों की बाड़ की वजह यह है कि उनके गांव के आस-पास के जंगलों में अन्य चौपाये जानवरों के
साथ-साथ जंगली सूअर भी बहुत पाये जाते हैं जो इनकी बाड़ियों में लगी फसलों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं, और जो अन्य तरह की बाड़ों से नहीं रोके जा सकते। इनके आंगनों के ही पास बाड़ी में एक बर्तन मांजने की भी जगह होती है जो एक दो या तीन ऊपर की ओर समतल पत्थरों से बना ओटला-सा होता है। इन ओटलों के पास राख की एक ढेरी देखी जाती है, जो उनके रसोई के बर्तन साफ़ करने के लिए मार्जक के रूप में काम आती है। इसके पास ही एक या दो घड़े रखे होते हैं। कुछ घरों में टूटे हुए घड़े भी देखे जाते हैं, जिनका ऊपरी आधा हिस्सा ग़ायब होता है। ये घड़े उनके बर्तन धोने के काम आते हैं। यह भी अधिकतर देखा जाता है कि बैगा महिलाएं अपने रसोई के बर्तन पहाड़ी के पास के जल स्रोत से ही मांजकर लाती हैं। जल स्रोतों से लगभग पन्द्रह से तीस फिट दूरी पर बर्तन मांजने का एक सार्वजनिक ओटला होता है।

घास के बने बैगा घरों के विषय में सिलपिड़ी गांव की वृद्धा मानीबाई ने बहुत मिन्नतें करने पर यह लोक कथा सुनायी :

जब धरती माता ने नागा बैगा के गले में फूलों की माला डाली, तब सभी देवताओं ने उसे गंदा करने के लिए उस पर गाय का गोबर फेंका। फिर नागा बैगा धरती माता को अपने घर ले गया। जब ये घर के आधे रास्ते में थे, तब धरती माता बोली – यह सच है कि मैंने तुम्हारे गले में माला डाली है, पर तुमने खाम के फेरे नहीं लगाये हैं। उसी रास्ते में एक साल का पेड़ था। नागा बैगा ने धरती माता की चोटी पकड़ी और धरती माता ने उसके सिर के बाल पकड़े और इस प्रकार दोनों ने एक दूसरे को जकड़ लिया। फिर उन्होंने इस पेड़ के फेरे ले लिये। सात बार उन्होंने जल्दी-जल्दी फेरे लगाये। जब वे रुके तो वे अलग-अलग दिशा में बुरी तरह गिर पड़े। वे इतनी बुरी तरह गिरे कि धरती माता की सिर की चोटी निकलकर बाहर आ गयी और नागा बैगा के बाल उखड़ गये। दोनों को बहुत दर्द हुआ। वे एक-दूसरे के ऊपर नाराज़ होने लगे। धरती माता ने अपने पति नागा बैगा के बाल दूर फेंक दिये। इसी प्रकार नागा बैगा ने अपनी पत्नी के बाल दूर फेंक दिये। नागा बैगा के बाल नुकीली घास में बदल गये और धरती माता के बाल घास-फूस में बदल गये। बैगा ने नुकीली घास को फूस के ऊपर अपने छप्पर पर रखा। इसलिए औरतों को छप्पर पर नहीं चढ़ने दिया जाता क्योंकि यह घास नागा बैगा के बाल हैं।

सभी बैगा घरों में लगभग एक जैसा ही आवश्यक घरेलू सामान होता है। रोटी या दलिया बनाने के लिए बैगा जाति के लोगों को आटे और दलिये की आवश्यकता होती है। अनाज को पीसकर आटा या दलकर दलिया बनाने के लिए पत्थर से बनी हुई, हाथ से चलायी जाने वाली चक्की, जिसे वे चकिया कहते हैं, अधिकतर घरों में पायी जाती है। बैगा महिलाएं अपने घरों में अनाज संचित करने और सुरक्षित रखने के लिए मिट्टी से एक बड़े से पात्र का निर्माण करती है जिसे मंदूला कहते हैं। इसमें रखा गया अनाज काफ़ी लंबे समय तक ख़राब नहीं होता है। मिट्टी से बने काले रंग के घड़े को हंडिया कहते हैं। यह अनेक कामों में आती है। भात, खिचड़ी, पेज आदि पकाने के लिए छोटे आकार की हंडिया उपयोग में लायी जाती है। पीने के पानी के संग्रह के लिए, शराब बनाने के लिए भी हंडिया का प्रयोग होता है। अनाज, नमक आदि को बरसात के दिनों में सुरक्षित रखने के लिए भी हंडिया का उपयोग किया जाता है। नीचे पैंदी की ओर से घड़े जैसी परंतु ऊपर की ओर से देकची की तरह दिखने वाले, घड़े के मुक़ाबले थोड़े चौड़े मुंह वाले मिट्टी के काले बर्तन को तिलैया कहते हैं। दाल, सब्ज़ी आदि बनाने के लिए बैगा तिलैया का ही प्रयोग करते हैं। छोटे आकार की हंडिया को डबली कहते हैं। दैनिक उपयोग के नमक, मसाले आदि डबलियों में ही रखे जाते हैं। दूध, दही और तेल भी डबलिया में रखे जाते हैं। हंडिया, तिलैया और डबली आदि को ढंकने के लिए उथले तसले की C आकर के मिट्टी के बर्तन का उपयोग किया जाता है, जिसे परैया कहते हैं। परैया जैसे ही आकृति वाले परंतु आकार में कुछ बड़े मिट्टी के उथले बर्तन ढक्सा कहे जाते हैं। ढक्सा आटा माड़ने, चावल आदि धोने के साथ-साथ भात को पसाने के काम भी आता है। वह ढक्सा जिसकी पैंदी में बीचों-बीच लगभग एक इंच व्यास का छेद होता है, पैना कहा जाता है। पैना भात तथा भाजी बनाने के काम आता है। पीतल के पैना भी कुछ बैगा परिवारों के पास देखे जाते हैं। दिया सामान्य से थोड़े बड़े आकार के काले रंग के डबलों के ढक्कन की तरह प्रयोग में लाये जाते हैं, दैनिक उपयोग के लिए नमक, मिर्च भी इन्हीं में दिया जाता है। लौकी को सुखाकर बीच में से गूदा निकालकर डौआ बनता है जो करछुल की तरह हंडिया से दाल, भाजी, खिचड़ी तथा पेज आदि निकालने के काम आता है। लकड़ी से बनी करछुल जैसी चीज़ चटुआ कहलाती है। चटुआ दाल, सब्ज़ी आदि को चलाने तथा पेज को घोटने के काम आते हैं। कांसे, पीतल आदि धातुओं से बनी खड़ी बाट की थालियों को टठिया या बटकी कहते हैं। बटकी खिचड़ी, मांड और पेज आदि पीने के काम आती है। कांसे से बने लोटे को चरू या गडुआ कहते हैं। ये पानी पीने के काम आता है। कांसे से बने कटोरे को खरिया कहते हैं जो भाजी आदि खाने के काम आता है। पीतल से बनी हुई खड़ी बाट की बड़ी थाली को बटका कहते हैं। यह बर्तन भात पसाने, आटा गूंदने आदि के काम में लाया जाता है। बटका की ही तरह थोड़ी कम ऊंची बाट की बड़े आकार की थाली, जिसकी बाट थोड़ी बाहर की ओर झुकी होती है, कोपर या परात कहलाती है।

बैगा छोटे आकार की हल्के भार की कुल्हाड़ी को टंगिया कहते हैं। जंगल जाते समय या एक गांव से दूसरे गांव जाते समय बैगा महिला तथा पुरुष अपने साथ टंगिया अवश्य रखते हैं। आमतौर पर फसल काटने के काम में आने वाले हंसिया बैगा घरों में आवश्यक रूप से पाये जाते हैं। हंसिया बांस, घास या डोरी आदि काटने के काम आता है। बैगा बांस से बने धनुष को कमान कहते हैं जो पहले जंगली जानवरों के शिकार करने के काम आता था। लोहे के फर लगे तीर को बिसार कहते हैं। इन्हीं में से कुछ में फर के पीछे की तरफ़ जहर से सना आटा लगा होता है। यह जहर वाला बिसार चोरी-छुपे बड़े जानवरों के शिकार के काम आता है। पक्षियों के शिकार के लिए विशेष क़िस्म के तीरों का उपयोग किया जाता है जिन्हें ठेपी या ठेसी कहते हैं। इन तीरों में लोहे के फर की जगह लकड़ी के ही बने, सामने की ओर से सपाट फर लगे होते हैं जो पक्षियों को बिना घायल किये तीव्र ठोकर मारकर नीचे गिरा देते हैं। शिकार करना बैगाओं का प्रिय शगल है। जन्म के बाद बच्चे के हाथ में सबसे पहले धनुष ही थमाया जाता है। बैगा चोरी-छुपे अब भी बड़े शिकार करते हैं। जिस दिन बड़ा शिकार हाथ लगता है, उसे गांव के सभी घरों में बहुत कम क़ीमत में, जैसे कि बीस रुपये किलो बेचा जाता है। मेरे प्रवास के दौरान कई बार इन लोगों ने मुझे भी मांस बेचा। शुरू में अवैध शिकार के डर से मैंने मना किया तो रतन सिंह ने मुझे समझाया कि अगर आपने मांस नही ख़रीदा तो आपको गांव छोड़ना पड़ेगा। सभी घरों में मांस देने का उद्देश्य ये होता है कि कोई भी शिकार की शिकायत नहीं कर सके। बैगा चूहों का भी शिकार करते हैं और भूनकर, नमक लगाकर चाव से खाते हैं।

बैगा बांस से बहुत से गृहोपयोगी सामान बनाते हैं। बांस की पतली तीलियों से बनी कलात्मक टोकरियां टुकनी कही जाती है। ये टुकनी अनाज, महुआ तथा अन्य वन उत्पाद आदि रखने के काम आती है। सामान्य से बड़े आकार की टुकनी को चंगेर या झलकी कहते हैं। इनके ऊपरी हिस्से का व्यास ढाई फीट से ऊपर होता है। ये झलकियां कम भार वाली चीजों को रखने, लाने-ले जाने के काम आती हैं। अनाज का भूसा, पत्तल बनाने के पत्ते, खाली घड़े आदि भी झलकी में ही रखकर लाये-ले जाये जाते हैं। बांस की पतली काड़ियों से भली प्रकार से बुनकर बनायी हुई गोल चकरीनुमा आकृति छिटवा कहलाती है। इन छिटवों का व्यास दो फुट से तीन फुट तक होता है। छिटुवा कटी हुई सब्ज़ियों, फल तथा वन औषधि को सुखाने के काम आते हैं। बांस की चौड़ी पट्टियों से विशेष प्रकार से बुनकर बनायी हुई चटाइयां लगभग सभी बैगा घरों में देखने को मिलती हैं। घर के दैनिक अनाज से जुड़े काम करने के लिए सूपा बहुत ही ज़रूरी उपकरण है। बैगा जनों के घरों में पाया जाने वाला बांस से बना उपकरण सरकी नदी-नालों से मछली पकड़ने के काम आता है। कुमनी और कुरू भी बांस से बने अन्य उपकरण होते हैं जो मछलियां पकड़ने के काम आते हैं। छींद के लंबे पत्तो से बनी झाड़ू को बैगा बहरी तथा अनाज रखने के लिए बांस से बनी कोठी को खुड़साजी कहते हैं। मज़बूत पत्थर (चकमक पत्थर) की धारदार चिल्फी को आपस में रगड़कर बैगा आग की चिंगारी पैदा करते हैं। मिट्टी को पकाकर बनायी हुई चुंगी चिलम कहलाती है और जंगलों में घूमते हुए चिलम न होने की दशा में बैगा वृक्षों के पत्तों की चिलम बना लेते हैं जिसे वे चोंगी कहते हैं।

बैगा भोजन में पके हुए चावलों को भात कहते हैं। भात बनाने के लिए कांड़ी मूसर की मदद से छरे हुए चावलों को सूपे की सहायता से पछोरकर साफ़ कर लिया जाता है। इन चावलों को किसी बटका में डालकर पानी से एक या दो बार धो लिया जाता है तथा इन गीले चावलों को एक पैना में दबाकर रख दिया जाता है। भात बनाने के बाद निकलने वाले गाढ़े सफ़ेद पानी को मांड़  कहते हैं। बैगा इस मांड़ को भी फेंकते नहीं हैं, बल्कि इसमें नमक-मिर्च डालकर पी जाते हैं। बैगा एक पेय प्रतिदिन सुबह पीना बहुत पसंद करते हैं, इसे वे पेज कहते हैं। पेज गेहूं की दलिया, मक्का की दलिया तथा चावल से बनाया जाता है। हंडिया में दो-तीन दिन के लिए सड़ाकर खट्टा घोलो पेज बनाते हैं। मक्के के दूध भरे दानों वाले भुट्टे को दुधी कहते हैं। वे इन भुट्टों का भी पेज बनाते हैं, जिसे वे दुधी पेज कहते हैं। हरे पत्ते वाली सब्ज़ियों को बैगा भाजी कहते हैं। पेज के साथ स्वाद के लिए भाजी बीच-बीच में खायी जाती है।

बैगा सामान्य क़द-काठी के मज़बूत शरीर के धनी होते हैं। सामान्य रूप से बैगा पुरुष बंडी, लंगोटी, कलंगी, बीरन आदि पहनते हैं जबकि महिलाएं वस्त्र के रूप में बगरा, मुंगी, लुगरा, चकधड़िया पहनती हैं।

परंतु बैगा एक सौंदर्यप्रिय जनजाति है जिसे सजना-संवरना अच्छा लगता है। बैगा पुरुष आकर्षक नैन-नक्श और मज़बूत क़द-काठी को सुंदर दिखाने के लिए हाथ में कड़े के प्रकार का आभूषण पहनते हैं और स्त्रियां केवल विवाह के अवसर पर ही लकड़ी की खड़ाऊनुमा वस्तु धारण करती हैं। सिर के बालों पर फूंदरा का भी आभूषण इस्तेमाल किया जाता है। बैगा महिलाएं नाक में कोई आभूषण नहीं पहनतीं। जैसा कि पहले बताया, वैसे तो सभी जनजातियों में गोदना गुदवाया जाता है किंतु बैगा जनजाति में गोदना का विशेष महत्व है। किसी भी बैगिन को उसके माथे पर गुदे गोदने से आसानी से पहचाना जा सकता है। महिलाएं माथे से लेकर पैरों तक सारे शरीर पर गोदना गुदवाती हैं। बैगा जनजाति में महिलाएं अनिवार्य रूप से गोदना गुदवाती है तथा पुरुष भी गोदना गुदवाते हैं। आयु के अलग-अलग पड़ाव में अलग-अलग गोदना गुदवाने की प्रथा है। विवाह के पहले तक गोदना गुदवाने का ख़र्च लड़की के मां-बाप वहन करते हैं जबकि विवाह के बाद स्त्री के गोदने का ख़र्च उसका ससुर वहन करता है। जिस बैगिन का गोदना जितना अधिक स्पष्ट और साफ़ होता है, उसे उतना ही सौभाग्यशाली माना जाता है।

गोदना गोदने का काम बदनिन करती है जिसे बैगा लोग गोदना-हारिन कहते हैं। वह गोदना गोदने के बदले कुछ रुपये लेती हैं। ऐसी मान्यता है कि यदि बैगिन गोदना नहीं गुदवायेगी तो मृत्यु के बाद भगवान उसे साभर (सब्बल) से गोद देंगे।

बैगा आमतौर पर अपने कुलदेवता, देवता और देवी से संबंधित विभिन्न प्रतीकों को गोदना पसंद करते हैं। उनके बीच यह आम धारणा है कि यह देवता और पूर्वज उन्हें विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं, बुरी आत्माओं, काले जादू, दुश्मनों, जंगली जानवरों आदि से बचाते हैं। उदाहरण के लिए, बैगा महिला अपने तलवे पर त्रिकोण का प्रतीक गुदवाती है। दाहिना पैर उस जादुई उद्देश्य के लिए है जो नंगे पैर चलने पर महिला के पैर को चोट लगने और कटने से बचाता है। सुरक्षा के लिए बांयें पैर के तलवे पर बिंदुओं की एक श्रृंखला के साथ अंडाकार, पैर के ऊपरी हिस्से में पांच बिंदु और रेखा, प्रत्येक पैर के अंगूठे पर एक बिंदु और बड़े पैर के अंगूठे से लेकर छोटे पैर के अंगूठे तक एक रेखा गुदवाती हैं। ऐसा माना जाता है कि पैरों पर ये चिह्न उन्हें वज़न सहन करने में सक्षम बनायेंगे।

शरीर के कुछ विशिष्ट हिस्सों में गोदना गुदवाने का कुछ औषधीय महत्व होता है और ऐसा माना जाता है कि यह गोदना कुछ विशिष्ट बीमारियों को ठीक करने में मदद करता है। किसी ज़हरीली चीज़ को खाने के प्रभाव से बचने के लिए बैगा महिला मुंह के नीचे चेहरे पर कोबरा की छवि गुदवाती हैं।

गोदना को आदिवासियों का धन और आभूषण माना जाता है। धातु, प्लास्टिक, लकड़ी और घास से बने आभूषण अस्थायी प्रकृति के होते हैं और इन्हें किसी भी समय तोड़ा या हटाया जा सकता है या इनके चोरी होने की संभावना रहती है। इसके अलावा ये महंगे हैं, जिन्हें आर्थिक रूप से ग़रीब जनजाति द्वारा वहन करना हमेशा संभव नहीं है। गोदना उपरोक्त सामग्री से बने गहनों की तुलना में महंगा नहीं है और प्रकृति में स्थायी है, जो मृत्यु के बाद भी साथ नहीं छोड़ता। इसलिए आदिवासी लोग इसे धन मानते हैं और अपने शरीर को विभिन्न प्रकार के गोदनों से सजाना पसंद करते हैं। गोदना यौन इच्छा को भड़काने के महत्वपूर्ण तरीकों में से एक है, यौन अभिव्यक्ति के लिए शरीर के अंगों पर गोदना गुदवाने का एक लंबा इतिहास रहा है।

बैगा समुदाय के जन्म से लेकर मृत्यु तक के अपने संस्कार हैं। गर्भवती बैगिन घर, खेत और जंगल का कार्य अनवरत करती है। जिस प्रकार आधुनिक समाज में गर्भवती स्त्री की गोद भराई की रस्म होती है, वैसा बैगा जनजाति में नहीं होता। घर की बुजुर्ग महिला समय-समय पर आवश्यक निर्देश अवश्य देती है और जड़ी बूटियों का सेवन कराती है। जन्म के समय महिला को माई बेला की जड़ चबाने के लिए दी जाती है। ऐसी मान्यता है कि इससे प्रसव आसानी से हो जाता है। महिलाओं का प्रसव घर में दाई या सुनमाई करवाती है। बच्चे के जन्म के बाद दाई गर्भनाल या नरा को छुरे से काटकर प्रसूता कक्ष में गाड़ देती है। शिशु के जन्म के बाद जच्चा कनहरी या फूल को भी वहीं गाड़ दिया जाता है और उस पर आग जलायी जाती है जो नरा सूखने तक जलती है। शिशु को सूपा में सुला दिया जाता है जिसमें पहले से ही कोदो या कुटकी के दाने रहते हैं। कुछ समय बाद जच्चा-बच्चा को गर्म पानी से स्नान करा दिया जाता है। इसके बाद दोनों को पुआल (कोदो पैरा) पर सुलाया जाता है। फिर एक दवाई बड़ी उजहा पिलायी जाती है। कुछ समय बाद मां को कोदई का भात और उड़द दाल खाने के लिए देते हैं। बैगा जन्म के समय कोई गीत नहीं गाते और न ही नृत्य होता है।

बैगा जनजाति में विवाह के समय वर पक्ष वधू पक्ष को दहेज देता है, जिसे खरची कोदई कहते हैं। इनमें छह प्रकार के विवाह होते हैं – मंगनी विवाह या चढ़ विवाह, उठवा विवाह, चोर विवाह, पैठुल विवाह, लमसेना विवाह और उढ़रिया विवाह।

मंगनी विवाह घर वालों की सहमति से होता है। इसमें लडकी की इच्छा सर्वोपरि होती है। इस विवाह में विवाह से पहले फलदान होता है, जिसमें लड़के के घर वाले कुछ बड़े बुजुर्गों के साथ लड़की के घर जाते हैं और लड़की के पिता से कहते हैं, “हमें प्यास लगी है,” तब लड़के का पिता दो बोतल मंद लाकर रखता है और लड़की का पिता किसी बुजुर्ग महिला के साथ अपनी बेटी के पास जाकर पूछता है, “मंद पियूं?” यदि लड़की ना बोले तो लड़के वाले तुरंत लौट जाते हैं और यदि हां बोले तो रिश्ता तय मन माना जाता है। फिर लड़की का पिता और मंद लेकर आता है, जिसे सब मिलकर पीते हैं और रिश्ता तय कर दिया जाता है। इसके बाद विवाह होता है, जिसमें रस्म निभाने वाले कुछ विशेष व्यक्ति होते हैं। प्रथम दोसी – यह कोई बुजुर्ग व्यक्ति होता है जो विवाह के समय रस्म-रिवाज पूर्ण करवाता है; दूसरा सुआसिन – ये वर और वधू की सगी बहनें, या चचेरी-ममेरी बहनें होती हैं एवं सभी अविवाहित होती हैं। सुआसिन विवाह समारोह के दौरान वर-वधू की विभिन्न कार्यों में सहायता करती हैं।

पंद्रहवें दिन मंगलवार को वर पक्ष दस-बीस आदमियों के साथ लड़की वालों के यहां आता है। लड़का भी साथ रहता है। वह अपने साथ एक या दो पीपे मंद लेकर आता है। इसे सगाई कहते हैं। लड़की के द्वार पर लड़के वाले बिलमा गीत गाते हैं और नाचते हैं। नृत्य के बाद गांव के बड़े-बूढ़े और बाराती आंगन में बैठ जाते हैं। इस मंद को स्वीकार करते ही मुकद्दम विवाह का ज़िम्मेदार व्यक्ति बन जाता है और गांव की लड़की को अपनी लड़की मानता है। सगाई के दिन बहुत से औपचारिक संस्कार होते हैं जिनमें शराब ज़रूरी होती है।

इसके बाद किसी मंगलवार को ही बारात की तैयारी हो जाती है। बारात की तैयारी में एक पीपा मंद पी जाती है। यह बारात का नेग है। कमर में हल्दी से रंगा हुआ लहंगा, सफ़ेद कमीज, कमीज पर काली जैकेट और सर पर चाकनुमा पगड़ी और पिछोरा। यहीं दूल्हे राजा को मोर मुकुट पहनाते हैं। भोजन करने के बाद बारात रवाना होती है। बहन द्वार पर भाई का रास्ता रोककर नेग मांगती हैं। भाई सवा रुपया या सवा पांच रुपये का नेग बहन को देता है। बैगा क्षेत्र में हाथी नहीं होते लेकिन दुल्हे की इच्छा होती है कि वह हाथी पर बैठकर बारात लेकर जाये। ऐसे में खटिया और सूपा को काला कपड़ा पहनाकर सांकेतिक हाथी बनाकर दूल्हे को उस पर बिठाकर ले जाते हैं। हाथी की ऐसी व्यवस्था नही होने पर दूल्हा घोड़े पर या अपने मित्रों की पीठ पर बारी-बारी से बैठा कर ले जाया जाता है। बाराती पैदल होते हैं। उनके किसी के भी पैर में जूते नहीं होते, दूल्हा भी नंगे पैर होता है। बारात के साथ एक समय का भोजन, दस बोतल मंद और सुआसिन करस कौआ सिर पर रखकर चलती है। बाराती बाजे के साथ परघोनि नृत्य करते हुए जाते हैं।

विवाह में भी बहुत से नेग होते हैं। अगुवानी के बाद दुल्हा-दुल्हन को घर ले जाया जाता है।

बैगा समाज में उठवा विवाह का प्रचलन अधिक है। इसमें शादी का पूरा ख़र्च लड़के वाला उठाता है। इसमें लड़की के पिता, रिश्तेदार, मित्र, सभी लड़के वालों के यहां पहुंच जाते हैं। दोनों पक्षों की ओर से सगाई की तिथि निश्चित कर ली जाती है। इसके बाद विवाह की तिथि तय की जाती है तथा विवाह की सभी रस्म चढ विवाह के समान संपन्न की जाती हैं।

बैगाओं में प्रेम विवाह को ले भगा, ले भगी या चोर विवाह भी कहते हैं। इसमें लड़का-लड़की अपनी सहमति से भाग जाते हैं। इसके बाद अपने-अपने मित्रों के हाथ ख़बर भेज देते हैं कि हम लोग अमुक समय पर अमुक जगह मिलेंगे। लड़का-लड़की के माता-पिता उस स्थान पर पहुंच जाते हैं और उन्हें मना कर अपने घर ले आते हैं और नियमानुसार मुकद्दम के यहां पहुंचते हैं। इनके विवाह में मुकद्दम की भूमिका मुख्य होती है।

पैठुल विवाह में कुंवारी लड़की रात के समय अपने घर से कुछ गहने लेकर लड़के के घर में पीछे के रास्ते से घुस जाती है और लड़के के ऊपर हल्दी छिड़क देती है। इसे लड़की की स्वीकारोक्ति माना जाता है। लड़के के घरवाले घर में मौजूद रहते हैं। सुबह घर का मालिक इस बात की सूचना मुकद्दम और अन्य व्यक्तियों को देता है। मुकद्दम सबसे पहले लड़की की इच्छा पूछता है और जवाब से संतुष्ट होने पर लड़की की इच्छा से तुरंत मड़वा में भांवर करा देता है। इसके बाद लड़की के पिता को संदेश भेजते हैं। वह आता है और विवाह की बातें तय होती हैं। निश्चित तिथि पर धूमधाम से विवाह हो जाता है। वधू पक्ष वर पक्ष से ख़र्च वसूलता है जो प्राय: रूपयों की शक्ल में होता है।

लमसेना विवाह एक प्रकार से सेवा विवाह है। जब लड़के के माता-पिता विवाह करने में असमर्थ हों तो लड़का लड़की के पिता के घर स्वेच्छा से रहने चला जाता है और वहां खेती-बाड़ी, जंगल आदि के सब काम करता है। यदि लड़की का पिता लड़के के काम से संतुष्ट हो जाता है तो एक ही वर्ष में अपनी लड़की का विवाह लड़के से कर देता है। लमसेना रहने की अवधी प्राय: पांच से सात वर्ष होती है। उसके बाद लड़की अपने पति के साथ अलग घर में रह सकती है।

उढ़रिया विवाह चोर विवाह की तरह होता है। इसमें भी लड़का-लड़की भाग जाते हैं, किंतु इसमें दोनों के माता-पिता की रज़ामंदी नहीं होती। इसमें विवाहित स्त्री अपनी मर्ज़ी से दूसरे लड़के के घर में घुस जाती है और दूर के रिश्तेदारों की मदद से विवाह कर लेती है। इस विवाह में गांव के पंच इकट्ठे होते हैं और स्त्री के गहनों की जांच करके उन्हें ज़ब्त कर लेते हैं। उसका भावी देवर उस पर एक लोटा गर्म पानी डाल देता है जिससे उसे पवित्र हुआ मान लिया जाता है। पंच मंद पीते हैं। स्त्री का पूर्व पति नये पति से हर्जाना वसूल करता है, जिसे दावा कहते हैं। दावा रूपये-पैसे, गाय-बैल आदि के रूप में होता है, इसका निर्धारण मुकद्दम करता है। दावा चुकाने के बाद दोनों पक्षों में मिलन होता है जिसे मिलौकी कहते हैं। इसमें मुकद्दम की मुख्य भूमिका होती है। वह दो खपरियों में एक-एक रुपया, दूब और कच्चा हींग रखता है और पंचों के सामने उन्हें तोड़ देता है जिसे बैर टूटना कहते हैं, अर्थात पूर्व पति और वर्तमान पति के बीच दुश्मनी को समाप्त माना जाता है। इसके बाद स्त्री पूर्व पति, वर्तमान पति और पंचों को भोजन कराती है, जिसके बाद पूर्व पति अपने घर लौट जाता है।

बैगा जनजाति में बहुविवाह प्रचलित है। प्राय: पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करते हैं। स्त्रियों को भी दूसरा विवाह करने की स्वतंत्रता है। वह अपनी मर्ज़ी से दूसरे पुरुष के साथ विवाह करके जा सकती है। विधवा पुनर्विवाह को मान्यता प्राप्त है जिसे चूड़ी पहनना कहते हैं। विधवा का विवाह प्राय: उसके देवर से होता है, किंतु यदि स्त्री किसी अन्य व्यक्ति से विवाह करना चाहे तो कर सकती है। यदि परित्यक्ता स्त्री गर्भवती होती है तो उसके शिशु पर पूर्वपति का अधिकार होता है।

बैगा जनजाति में शव को जलाने और दफ़नाने, दोनों तरह की प्रथाएं प्रचलित हैं। प्राय: शव को दफ़नाया जाता है किंतु यदि किसी की मृत्यु लंबी बीमारी के बाद हुई हो तो उसे जलाया जाता है। बैगाओं के शमशान नदी के उस पार होते हैं। इनकी मान्यता है कि भटकती मृतात्मा कभी नदी को पार करके इस तरफ़ नहीं आ सकती। मरने वाले की अंतिम सांस के समय उसकी आत्मा की तृप्ति के लिए उसके मुंह में दही एवं सोने और चांदी का सिक्का रखते हैं, जिससे उसका अगला जन्म वैभवशाली रहे। इसे सामरा प्रथा कहते हैं। जब किसी की मृत्यु हो जाती है तो घर का मुखिया या कोई अन्य व्यक्ति गांव के सभी व्यक्तियों को सूचना देता है। ख़बर मिलते ही सब लोग इकट्ठे हो जाते हैं। मरते समय व्यक्ति को ज़मीन पर नहीं उतारते। शव को स्नान नहीं कराया जाता। शरीर में तेल-हल्दी लगाकर नया लंगोट पहना देते हैं। पांच या छह हाथ का सफ़ेद कपड़ा कफ़न के लिए प्रयोग करते हैं। कफ़न आ जाने पर शव को खाट से उतारकर ज़मीन पर रखते हैं और कफ़न उढ़ाकर हल्दी पीसकर छिड़कते हैं।

खटिया को आंगन में निकाल कर घर के दरवाज़े के पास उल्टा करके रखा जाता है, जिस पर शव को लिटा दिया जाता है। शव का पैर घर की तरफ़ होता है। स्त्री के सिरहाने में उसके गहने और पुरुष के सिरहाने में उसके तीर-कमान, तम्बाकू, चिलम, चोंगी आदि रखते हैं। हांडी में तिल, तेल, नमक रखते हैं। कंडे में आग और अलग से पुआल रखते हैं। इस प्रकार शव का संपूर्ण शृंगार करके अंतिम यात्रा के लिए निकलते हैं। वैसे बैगाओं में अग्नि संस्कार नहीं पाया जाता, फिर भी यदि शव को जलाना होता है तो लकड़ी का प्रबंध किया जाता है। शव को तीन परिक्रमा करवाके चिता पर उत्तर दिशा की ओर पैर करके औंधा लिटाया जाता है। कफ़न और अन्य कपड़े उतार दिये जाते हैं। चिता को मुखाग्नि बेटा, पति या भाई देता है, उनकी अनुपस्थिति में पंच लोग मुखाग्नि देते हैं। मृतक के सिरहाने रखे सभी सामान को चिता में डाल दिया जाता है।

शव को दफ़नाने की क्रिया को माटी देना कहते हैं। इसमें सब्बल से लगभग पांच-साढ़े पांच फीट लंबा, ढाई फीट चौड़ा और तीन फीट गहरा गड्ढा, जिसे खंद कहते हैं, खोदा जाता है। सबसे पहले उसमें हल्दी-चावल डालते हैं, फिर मंद डालते हैं और शव के सभी कपड़े उतार कर उत्तर दिशा की ओर पैर करके गड्ढे में लिटा दिया जाता है। सबसे पहले मृतक का लड़का या पति तीन मुट्ठी मिट्टी शव के सिर से पैर तक डालता है, उसके बाद सभी लोग मिट्टी से उसे पाट देते हैं। मृतक की सभी वस्तुओं को कब्र के ऊपर रख दिया जाता है। अंतिम संस्कार के बाद सब लोग नदी या नाले के पास स्नान करने आते हैं। घर का मुखिया या लड़का साथ लाये कफ़न को गीला करके उसके पानी को टपकाते हुए घर की ओर चलता है, बाकी सब उसके पीछे एक कतार में चलते हैं। इस समय सबसे आगे चल रहा व्यक्ति एक सिक्का हाथ में लेकर उस पर थूक कर पीछे वाले व्यक्ति को देता है और इस प्रकार सब ऐसा करते हैं। अंतिम व्यक्ति पैसा पीछे फेंक देता है। ऐसा करने का कारण यह बताया जाता है कि इससे भूत-प्रेत पीछा नहीं करते।

मृतक के घर में तीन दिन तक सूतक लगा होता है। इन दिनों घर में खाना नहीं बनता, पड़ोसी या अन्य रिश्तेदार अपने घरों से भोजन लाकर देते हैं। तीसरे दिन घर को लीपते हैं, घर में खाना बनाते हैं और वह खाना लेकर शमशान जाकर मृतक को भोजन कराते हैं। भोजन में मछली, केकड़ा और एक बोतल मंद का होम दिया जाता है। होम में सारई लकड़ी की राल का प्रयोग करते हैं। मछली और केकड़ा को कब्र या चिता वाले स्थान में रखकर उस पर मंद छिड़कते हैं, शेष बचे मंद को पंच लोग पीकर वापस आ जाते हैं। घर में पुन: मंद के साथ सब भोजन करते हैं। इसके आगे का क्रिया करम बैगा अपने सामर्थ्य के अनुसार गांव के लोगों के साथ सलाह करके प्राय: दस-पन्द्रह दिन, छ: मास या एक साल में करते हैं।

मुकद्दम घर के मालिक को आवश्यक निर्देश देता है। निर्देशानुसार महुए की व्यवस्था करके मंद तैयार करते हैं। गांव के युवा जंगल से महलोन के पत्ते इकट्ठे करके पतरी बनाते हैं और भोजन तैयार करके सब साथ में भोजन करते हैं। इस सामूहिक भोज को मांदी कहते हैं। मृतक के क्रिया-कर्म के समय गीत नहीं गाये जाते किंतु नगाड़ा बजाना अनिवार्य होता है। नगाड़े की आवाज़ सुनकर सब जान जाते हैं कि नहावन में जाना है।

नहावन मृत्यु संस्कार के अंतिम दिन नहाने को कहते हैं। बैगा जनजाति में नहावन तीन प्रकार के होते हैं – मांदी नहावन, मैलों नहावन और उजरी मांदी।

मांदी नहावन में सभी रिश्तेदारों और गांव वालों को न्योता देते हैं। घर की साफ़-सफ़ाई की जाती है। घर में सब मंद पीकर शमशान जाते हैं। जाते समय एक मुर्गा, चावल और मंद लेकर जाते हैं। अंतिम संस्कार वाली जगह पर सब अपनी-अपनी मंद से तर्पण करते हैं। बाजा निरंतर बजता रहता है। तर्पण करने के बाद चावल के दानों को बिखेर दिया जाता है और मुर्गे को छोड़ दिया जाता है। यदि मुर्गा दाने चुग लेता है तो यह माना जाता है कि तर्पण लग गया और मृत आत्मा की शांति के लिए फिर मंद पीते हैं। इसके बाद सब नदी के पास आकर स्नान करते हैं। चिता की राख विसर्जित करते हैं, दाढ़ी-मूंछ मुड़वाते है, किन्तु सर के बालों को पूरा नहीं मुड़वाते हैं। यहां भी मंद पीते हैं। वापस आकर घर का मालिक चार बोतल मंद निकालता है जिसे उठियार-सुठियार का मंद कहते हैं। इसके बाद भोजन होता है।

मैलों मांदी में स्नान करके वापस आने के बाद भोजन, मंद और पानी लेकर गांव के बाहर जाकर मृतक को अंतिम भोज दिया जाता है। वापस आकर पंच सबसे पहले लड़के के मुंह से मंद जूठा करते हैं फिर सभी पंच हाथ धोते हैं और लड़के को एक-एक कौर भोजन खिलाते हैं।

उजरी मांदी में प्राय: विधवा का विवाह उसके देवर से होता है, जिसमें प्रत्येक घर से दाना तथा मंद लाते हैं जिसका हिसाब-किताब बाद में होता है। घर का मालिक बुजुर्गों को मंद पिलाता है। इसके बाद वे घर के अंदर जाते हैं। विधवा को देवर के नाम की चूड़ी पहनाते हैं और नये कपड़े धारण करते हैं। घर के अन्य सदस्य भी नये कपड़े पहनते हैं। इसके बाद विधवा और अन्य परिजन बाहर आकर सबका आशीर्वाद लेते हैं। नगाड़ा बजता रहता है, नगाड़े वालों को अनाज और तय की गयी राशि दी जाती है। सभी बैगा-बैगिन नाचते हैं। नृत्य समाप्त होने के बाद सभी अपने-अपने घर चले जाते हैं। इस समय विवाहित जोड़े के बहन-बहनोई को गाय-बछिया और कपड़े आदि का दान मृतक व्यक्ति के नाम से किया जाता है। उपहार में आये मंद को घर वाले पीते हैं। इस प्रकार उजरी मांदी संपन्न हो जाता है। नवजात शिशु की मृत्यु हो जाने पर उसे घर में ही दफ़ना दिया जाता है एवं कब्र पर दो महीने तक आग जलायी जाती है।

बैगाओं का पुनर्जन्म में अटूट विश्वास है। भाग्य पर भी इनका पूरा भरोसा है। मंद पीते हुए एक रात पुनर्जन्म पर रतन सिंह बैगा से बात हो रही थी, तो उसने भाग्य से जुड़ी ये लोक कथा सुनायी :

बहुत पुराने समय की बात है। उस साल वर्षा बिल्कुल ही नहीं हुई। वर्षा नहीं होने पर गांव के लोगों को जीवन-यापन की भारी चिन्ता हो गई।

एक दिन मुखिया ने विचार-विमर्श किया और राजा से भेंट कर उन्हें अपना दु:ख सुनाने के लिए गांव से चल पड़े। राजा का महल काफ़ी दूर था। रास्ते में भोजन तैयार करने के लिए उन लोगों ने दाल-चावल रख लिया था। मुखिया के साथ गांव का एक अनाथ नवयुवक भी चल पड़ा था। अब सब लोग चल पड़े और काफ़ी दूर जाने के बाद भोजन तैयार करने के लिए एक जगह रुक गये। भोजन तैयार किया, खाया और थोड़ी देर विश्राम किया। किंतु उस नवयुवक के पास भोजन सामग्री नहीं थी। अकाल की-सी स्थिति थी। सारे लोग अस्त-व्यस्त थे। चावल कम था, इसलिए किसी ने भी उस नवयुवक से भोजन के लिए नहीं कहा। उसे भूख के साथ-साथ थकान भी लगी थी। वह जंगल के भीतर जाकर एक पेड़ की छांव में सुस्ता रहा था। उसी समय खरगोशों का झुंड उसे दिखलायी पड़ा। नन्हे-नन्हे सुंदर खरगोश उसी के आसपास मंडराने लगे थे। वर्षा नहीं होने के कारण पानी की भारी कमी हो गयी थी। सारे तालाब, कुएं-बावड़ी आदि सूख गये थे। नन्हे खरगोशों को बहुत प्यास लगी थी। वे अपनी माता से पूछ रहे थे, “मां, हमें बहुत प्यास लगी है। पानी कब गिरेगा?”

तब उन्हें उनकी माता बताने लगी, “कल थोड़ी-थोड़ी और परसों सूप के धार की तरह भारी वर्षा होगी, बच्चो। तुम लोग धीरज रखो। अधिक व्याकुल मत हो।”

माता खरगोश की बातें वह नवयुवक बड़े ध्यान से सुन रहा था। वह मुंह धोने के लिए वहां से उठ कर पानी की तलाश करने लगा। थोड़ी ही दूरी पर एक बड़ा-सा तालाब था, किंतु उस इतने बड़े तालाब में भी पानी दिखायी नहीं पड़ रहा था। वह आगे बढ़ा तो बीच में बिल्कुल थोड़ा-सा पानी दिखायी दिया। वह अभी मुंह धोने ही वाला था कि उस पानी से एक मछली उछली और कहने लगी, “आज तो नहीं, किंतु कल थोड़ी-थोड़ी और परसों तो मूसलाधार बारिश होकर ही रहेगी।”

नवयुवक ने मछली की बात सुनी, किंतु ‘यह मछली भला क्या जानती है’ सोचता हुआ मन ही मन हंसा और अपना मुंह-कान धोकर वापस होने लगा।

तभी वहां की एक मेंढकी ने भी वैसा ही बताया। तब उस नवयुवक को विश्वास हो गया। उसने उन घटनाओं का ज़िक्र किसी से भी नहीं किया। थोड़ी ही देर में सारे लोग वहां से आगे चल पड़े। चलते-चलते वे राजमहल जा पहुंचे। राजा से अपना दु:ख बखान किया।

तब राजा ने कहा, “फिलहाल जीवन-रक्षा के लिए तो मैं तुम्हें अपने राजकोष से अन्न दे दूंगा। किंतु हमें भगवान के ऊपर भरोसा करना पड़ेगा। वर्षा तो होगी, किंतु कब? इसे निश्चयपूर्वक बता पाना संभव नहीं।”

इतने में उस नवयुवक को मौका मिल गया। उसने राजा से कहा, “महाप्रभु! वर्षा कब होगी, इस बात को मैं निश्चयपूर्वक बता सकता हूं। आपका आदेश होने पर मैं बता दूंगा।”

उसकी बात सुनकर वहां उपस्थित सारे लोग बहुत हंसे। राजा भी हंस पड़ा। तब नवयुवक ने कहा, “हुजूर! मेरी बात झूठ होने पर मुझे मार डाला जाये।” सुनकर सभी को घोर आश्चर्य हुआ। किसी तरह बताने का आदेश होने पर उसने कहा, “कल थोड़ी-थोड़ी किंतु परसों मूसलाधार बारिश होगी।”

उसकी बात सुनकर राजा बोला, “तुम्हारी बात सच हुई तो मैं अपनी बेटी का विवाह तुम्हारे साथ कर अपना राज्य भी तुम्हें सौंप दूंगा। किंतु झूठ हुई तो तुम्हे मृत्युदंड दिया जायेगा।”

नवयुवक ने सुनकर “हां” कहा।

अगले दिन देखिये, बूंदा-बांदी हुई और तीसरे दिन सच में मूसलाधार बारिश! जनता ने भारी सुख का अनुभव किया। नवयुवक की बात सच हुई। तब राजा ने उसे नवयुवक से अपनी बेटी का विवाह कर उसे ही अपना राज्य भी सौंप दिया। नवयुवक के भाग्य में राजयोग लिखा था। उसने राज-भोग करते हुए अपना जीवन-यापन किया।

 

बैगा जीवन के केन्द्र में कृषि कर्म है। जंगल के निरंतर संपर्क में रहकर बैगाओं के पर्व, त्योहार प्रकृति से गहरा तारतम्य रखते हैं। बैगाओं के मुख्य त्योहारों में बिदरी पूजा, हरियाली अमावस्या, नवाखाई, छेरता प्रमुख हैं।

बिदरी पूजा बैगाओं के बीज बोने के पूर्व अच्छी फसल की कामना का त्योहार है। जेठ या आषाढ में बीज बोने के दो-तीन दिन पहले गांव में सभी को सूचित कर दिया जाता है कि अमुक दिन बिदरी पूजा की जायेगी। गांव की महिलाएं अपने-अपने घर आंगन लीपने लगती हैं। गृह स्वामी महलोन के पत्तों से बने दोनों में अलग-अलग प्रकार के अनाज, जो बोये जाने हैं, भरकर लाता है। बोये जाने वाले बीजों में कोदों, कुटकी, माड़िया, कंगनी, ज्वार, बाजरा, राहर, मक्का एवं भाजियों के बीज होते हैं। गांव का सारा अनाज जो दोनों में रख कर मुकद्दम के आंगन में इकट्ठा कर लिया जाता है। मुकद्दम के घर दवार, गुनिया, कोटवार और बरूवा आदि आते हैं। दवार सबसे पहले धरती माता की पूजा करता है। एकत्रित सभी अनाजों को मिलाकर आंगन में रास बांधते हैं। सभी मिले हुए अनाज की रास पर एक-एक सफेद प्याज रखा जाता है। गुनिया होम-धूप करता है। होम सराई की लाशा से दिया जाता है। इसके बाद अलग-अलग रंग की इकट्ठी की गयी मुर्गियों की पूजा की जाती है। बिदरी पूजा में नारायण देव को छोड़कर सभी देवी-देवताओं का आह्वान और पूजा की जाती है। बैगा रात में उपवास करते हैं।

धरती माता को काली मुर्गी, कुंवारी माता को कबरी मुर्गी, छितकवार देवी को कबरी मुर्गी, ठाकुर देव को सफ़ेद मुर्गा, खैरमाई को नारियल तथा दूध चढ़ाया जाता है। ठाकुर देव तथा खैरमाई की पूजा गांव के बाहर उनकी स्थापना की जगह पर की जाती है। रास मंद का छिड़काव किया जाता है। गुनिया दवार मंत्र पढ़ते हैं, दवार बची हुई मंद पी जाता है। अनाज के ढेर पर मुर्गियों का ताज़ा खून टपकाया जाता है। दोनों में एकत्र अनाज को मिला दिया जाता है जिसे सभी कृषक बैगा एक-एक दोने ले जाते हैं। अभिमंत्रित अनाज खेती-बाड़ी में बोये जाने वाले अनाज में मिला देते हैं। इस तरह बोया गया बीज खूब पकता है। जंगली पशु फसल को नुकसान नहीं पहुंचाते तथा फसलों को किसी भी प्रकार के रोग नहीं होते।

हरियाली अमावस्या त्योहार सावन की मरती अमावस्या को मनाया जाता है। इसे हरैली त्योहार भी कहते हैं। हरियाली अमावस्या के दिन घर का सयाना बैगा बड़े सवेरे उठकर जंगल जाता है। वहां से बांस की झिरी, भिलवा की डाल, जोगी लटी की जड़, हंसिया थापर तथा भवरमाल की डलिया काटकर खेतों में ले जाता है। वहां धरती माता की पूजा कर डालियां गाड़ देता है। यह एक टोटका है जिसके बारे में माना जाता है कि इससे खेत में फसल अच्छी होती है। गांव का दवार शुभकामना के लिए प्रत्येक घर में एक-एक डाल अवश्य खोंसता है। इसके बदले उसे नेग दिया जाता है। हरैली के दिन घर-द्वार लीपे-पोते जाते हैं तथा घर में अच्छा भोजन बनता है। उस दिन बबरा नामक मिठाई हर घर में बनती है, यह खास व्यंजन है। उस दिन मंद छककर पी जाती है। संपूर्ण बैगा ग्राम के युवक-युवतियां मंद के नशे में धुत रहते हैं।

नवाखाई फसल कटाई का पर्व है। बैगाओं की ऐसी मान्यता है कि जो कुछ भी फसल आयी है, उसे पहले पितरों को खिलाना चाहिए। नवा खाई पितरों की तृप्ति और नयी फसल के भोग का त्योहार है।

छेरता बैगा बच्चों का त्योहार है। गांव के टूरा-टूरी (लड़का-लड़की) हाथ में छड़ी लिये साधु वेश में घर-घर जाकर छेरता मांगते हैं। समूह गान की लय में –

छेर-छेर छेरता।
कोठी का दाना हेरता।
दार चाउर देरता।

कहते हुए छड़ी से जमीन को कुरेदते हैं। घर का मालिक बच्चों को दाल-चावल तथा कुदई नेग देकर विदा करता है। बच्चे पूरे गांव से अनाज इकट्ठा कर किसी नदी किनारे जाते हैं, स्नान करते हैं और उसी अनाज को पकाते हैं। छेरता में धरती माता को होम धूप लगाते हैं। शाम को सभी बच्चे घर आ जाते हैं। यह त्योहार पूस माह की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। बाहर के लोगों के प्रभाव के कारण आजकल बैगा दशहरा, दीवाली और फाग भी मनाने लगे हैं।

बैगा आदिवासी बेवर खेती करते हैं। पिछले कुछ समय से इसमें कमी आयी है, पर अभी भी यह काफी प्रचलित है । बैगा धरती को अपनी मां मानते हैं तथा उसकी छाती पर हल नही चलाते। बेवर विधी से खेती बिना जुताई के की जाती है, जिसके लिए पहले ग्रीष्म ऋतु में पेड़ों की छोटी-छोटी टहनियों, पत्तों,घास और छोटी झाड़ियों को इकट्ठा कर उनमें आग लगा दी जाती है। उसकी पतली राख की परत पर बीजों को बिखेर दिया जाता है। जब बारिश होती है तो बिखेरे गए बीज अंकुरित होने लगते हैं। अनुकूल मौसम और बारिश की नमी के कारण अंकुरित बीज धीरे-धीरे बड़े हो जाते हैं और फसलें लहलहाने लगती हैं।

इस विधि से एक जगह पर एक वर्ष ही खेती की जाती है। अगले साल दूसरी जगह पर खेती होती है। इस खेती को स्थानांतरित खेती ( sifting Cultivation) कहते हैं। बेवर विधि में अधिकांश काम हाथ से करना पड़ता है। खेती का अधिकांश काम महिलाएं करती हैं। वे खेत तैयार करना, बोनी, नीड़ाई-गुड़ाई, कटाई और बीजों के भंडारण का काम करती हैं।

दूसरे आदिवासी समाजों की तरह बैगाओं में भी सामूहिक श्रम करने की अद्भुत परंपरा है। वे इसे “सहाव” कहते हैं। घर बनाना, खपरे बनाना और खेती जैसे बड़े और श्रम-साध्य कामों के लिए सहाव परंपरा का उपयोग किया जाता है। सहाव के लिए पूरे गांव को बुलाया जाता है। निमंत्रण पाकर पूरा गांव जुट जाता है और मिल-जुल कर काम करते हैं। इसके लिए उन्हें मज़दूरी नहीं दी जाती। इसी तरह बैगाओं की खेती भी सामूहिक आधार पर ही होती है। उत्पादित फसलों का आपस में बंटवारा होता है। इन कामों में लगे श्रम का मूल्य चुकाने के लिए बदले में रुपया नहीं देते बल्कि “सहावभात” खिलाते हैं। किसी के पास इस भोज को कराने के साधन न हों तो उसका इंतज़ाम भी सामूहिक रूप से कर लिया जाता है।

बैगा कठोर श्रम करने वाले मेहनती लोग हैं लेकिन इनके यहां आलसीपन की लोक कथाएं भी मिलती हैं। लमोठा गांव के बुजुर्ग मुकद्दम रामजी से ये कथा सुनी थी :

एक गांव में एक आलसी था। उसकी दो पत्नियां थी। वह आलसी कोई काम-धाम नहीं करता था। उसकी दोनों पत्नियां उस पर बहुत नाराज़ हुआ करती थीं। वह खाने-पीने में भी आलसी था। भात को हाथ से उठाकर खाने में भी वह आलस करता था। उसकी पत्नियां उसे अपने हाथों से भोजन कराया करती थीं।

एक दिन उसके साथियों ने उससे कहा, “चलो, जामुन खाने चलें।” उनके ऐसा कहने पर उसने ‘हां’ की और उन लोगों के साथ चला गया। चला तो गया किंतु ज़मीन पर पड़े जामुन को भी उठाकर नहीं खा रहा था। वहां भी वह आलस करने लगा। सभी लोगों ने जामुन खाये किंतु वह आलसी आलस्य के कारण चुपचाप बैठा रहा। साथियों ने कहा, “क्यों भाई! तुम जामुन क्यों नहीं खाते?”

” मुझे आलस आ रहा है,” उस आलसी ने कहा।

तब साथियों ने कहा, “अच्छा, तुम्हें बीन कर खाने में भी आलस आ रहा है तो तुम जामुन के पेड़ के नीचे मुंह खोलकर चित लेट जाओ। मुंह में जामुन गिरे तो खा लेना।”

आलसी ने सुना और वह मुंह खोलकर जामुन के पेड़ के नीचे चित पड़ा रहा। भला उसके लिए कहां से गिरता जामुन! एक भी नहीं गिरा। तब सांझ होने पर आलसी घर आ गया, दोनों पत्नियों को डरा-धमका कर भोजन किया और सो गया। रात में उसने विचार किया, ‘मेरी दोनों पत्नियों मुझसे बहुत झगड़ा करती हैं। मैं कल सुबह “बात” बेचने जाऊंगा।’ सुबह हुई तो वह चल पड़ा बात बेचने। अपना गांव छोड़कर वह पड़ोस के गांव में गया और ‘बात लो, बात लो’ कहता गली-गली घूमने लगा। तब लोगों ने कहा, “हम नहीं खरीदेंगे। हमारे पास खरीदने को कुछ भी नहीं है। तुम साहूकार के घर की ओर जाओ। शायद वह खरीदे तो खरीदे।”

ऐसा सुनकर आलसी साहूकार के घर के पास गया और ‘बात लो, बात लो’ कहता आवाज़ देने लगा। साहूकार आंगन में ही खाट पर बैठा था। कहा, ‘अच्छा, कौन सी बात है? जरा लाओ तो सही। मैं खरीदूंगा।”

तब वह आलसी साहूकार के पास गया और बोला, “देखो, साहूकार! मैं तीन बातें बेचूंगा। किंतु प्रत्येक बात की कीमत हज़ार रुपये होगी। खरीदना हो तो बोलो।”

“अच्छा कौन-कौन सी बात है, बताओ,” कहकर साहूकार ने उसे बिठाया।

उसके ऐसा कहने पर वह आलसी वहां बैठ गया और बोला, ” मैं जैसा कहूं, तुम भी वैसा ही कहना।”

साहूकार ने कहा, “ठीक है, तुम बताओ तो! तुम जैसा कहोगे मैं भी वैसा ही कहूंगा।”

आलसी ने कहा, ” क्या करते हो भूग्गुस-भूग्गुस?”

तब साहूकार ने भी कहा, “क्या करते हो भूग्गुस-भूग्गुस?”

आलसी बोला, “हां, साहूकार! मेरी एक बात हो गयी। निकालो अब एक हज़ार रुपये।”

साहूकार ने सुना और एक हज़ार रुपये गिनकर आलसी को दिये और कहा, “अच्छा, दूसरी बात कौन-सी है?”

आलसी ने कहा, “क्या देखते हो, इधर-उधर?”

साहूकार ने भी वैसा ही कहा और फिर एक हज़ार रुपये गिन दिये।

तब आलसी ने कहा, “किधर भागते हो, हड़बड़ – हड़बड़?”

साहूकार ने भी वैसा ही कहा और फिर से हज़ार रुपये गिन दिये। गिन देने पर ठग ने ‘अब तुम इन बातों को कभी भी न भूलना। समय-समय पर कहते रहना’ कहकर साहूकार को समझाया और रुपये की गठरी लाद कर घर चला गया।

संयोग की बात कि उसी दिन की रात में उस साहूकार के घर तीन चोर पहुंचे। आधी रात बीत चुकी थी। दीवार को वे सब्बल से भूग्गुस-भूग्गुस फोड़ रहे थे। तभी साहूकार की नींद खुली। उसने मन ही मन सोचा, आज मैंने तीन हज़ार में तीन बातें खरीदी हैं, जरा बोलकर तो देखूं! वह जोर से बोल पड़ा, “क्या करता है, भूग्गुस-भूग्गुस?”

इतना सुनना था कि चोर आपस में कहने लगे, “लगता है, साहूकार ने हमें देख लिया है!” कहकर वे इधर-उधर देखने लगे। तभी साहूकार फिर चिल्ला पड़ा, “क्या देखते हो, इधर-उधर?” सुनकर चोरों को विश्वास हो गया। वे आपस में कहने लगे, “देखा! वह हम पर ही चिल्ला रहा है।” और वे भागने को हुए। तभी साहूकार फिर से चिल्ला पड़ा, “किधर भागते हो, हड़बड़-हड़बड़?” अब तो चोरों को पूरा विश्वास हो गया और वे वहां से बगटुट भागे। साहूकार की तीनों बातें समाप्त हो गयी थीं। वह फिर से सो गया। सवेरे उठकर घर का एक चक्कर लगाने की उसकी रोज़ की आदत थी। सो वह सवेरे उठ कर आदत के अनुसार घर का एक चक्कर लगा रहा था कि उसे दीवार का वह हिस्सा दिखायी पड़ा। वह समझ गया कि रात में चोर यहां अपना कौशल दिखा रहे थे, किंतु उसकी तीनों बातों को सुन कर ही वे भाग गये। उसने सोचा, ‘मैंने तीन हज़ार में तीन बातें खरीदी थी, किंतु इससे मेरी तीन लाख की संपत्ति चोरी होने से बच गयी’ यह सोच कर वह उस आलसी की जय-जयकार करने लगा।

डिंडौरी और मण्डला में बैगा लोग बेगानी बोली बोलते हैं। बैगाओं ने प्रकृति में पाये जाने वाले जीव-जंतुओं की बोली का अनुसरण किया है। उन्हीं के अनुसार उनकी बोली प्राकृतिक मिठास लिये रहती है। एल्विन (1939 ) के अनुसार बैगाओं की बोली ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा थी। शुद्ध रूप से बैगानी बोली पुराने बुजुर्ग लोगों को ही आती है। आजकल इस बोली ने अन्य बोली-भाषाओं के तत्व आत्मसात कर लिये हैं।

मध्य प्रदेश में लोक नृत्य का अक्षय भंडार है। विशेषकर बैगा जनजाति तो अत्यंत नृत्य एवं संगीत-प्रेमी समूह है। बैगाओं का अपना आदिम संगीत है। जंगलों में रहने के कारण अदम्य साहस के साथ उनमें संगीत सरिता भी प्रस्फुटित होती है। बैगाओं का संगीत प्रकृति की देन है। कल-कल करती नदियों, शरारती हवाओं से बैगाओं ने स्वर-ताल और लय को पकड़ा है। खेतों में, जंगलों में पसीना बहाते हुए बैगाओं ने गीत गाये हैं। बैगाओं के श्रम से संगीत उपजा है। इसलिए उनके समूह गीतों में एक ख़ास रिद्म है जो दूर से पहचानी जा सकती है। बैगा पर्व-त्योहारों, सगाई-शादी में उन्मुक्त होकर नाचता-गाता है। वह थोड़ी देर के लिए अभावों, दुख-दर्द और असुविधाओं को भूलने की चेष्टा करता है। नृत्य-गीत ही बैगाओं को ऐसी असाधारण स्थिति में जीने की प्रेरणा और उत्साह देते हैं। इनके लोक नृत्य दशहरा से शुरू होकर बरसात के प्रारंभ तक चलते रहते हैं। इनके लोक नृत्य बिना शृंगार के नहीं होते। शृंगार करके ही बैगा युवक-युवतियां नृत्य में उतरती हैं। बिना शृंगार के किसी को नृत्य में शामिल ही नहीं किया जाता है। पुरुष अपना शृंगार करते हैं और स्त्रियां अपना शृंगार करती हैं।

पुरुष कमर में लहंगानुमा घेरदार साया पहनते हैं। शरीर में कमीज, सालूखा तथा काली जैकेट पहनते हैं। सिर पर चाकनुमा पगड़ी, उस पर मोर पंख की कलगी, गले में भिन्न रंगों की मूंगा मालाएं, गिलट या पीतल के सिक्कों की हमेल तथा कानों में मूंगे-मोतियों के बाले पहनते हैं। बैगा युवक कमर में रंग-बिरंगा सूरवार और पैरों में लोहे तथा पीतल के पैजन, पीठ पर लाल, नीला छींट का पिछौरा बांधना नहीं भूलता। उनके हाथों में ठिमकी रहती है। पूर्ण शृंगारित बैगा युवक किसी दूल्हे से कम दिखायी नहीं देता।

स्त्रियां नृत्य के लिए अधिक सजती-संवरती हैं। स्वभाव से ही स्त्रियां शृंगार-प्रिय होती हैं। ये शरीर पर मुंगी धोती पहनती हैं। युवतियां बालों को अधिक सजाती हैं। सिर के मूड़े में मोर पंख की कलगी खोंसती हैं। बगई घास या बीरन घास के छोटे-छोटे छल्लों को मिलाकर बनाया गया सांकलनुमा लादा का गुच्छा जूड़े में बांधती हैं जो कमर तक लटकता रहता है। ये कलात्मक मालाएं वे स्वयं तैयार करती हैं। इसी प्रकार गले में स्वयं के द्वारा तैयार की गयी नीले, पीले, सफ़ेद रंग की छोटी-छोटी गुरियों की मालाएं पहनती है, कानों में तरकुल और मूंगों के बाले पहनती हैं। हाथों में गिलट के चूड़े, पतेले, हाथ की अंगुलियों में मुंदरी, पैरों में कुसकुट की बनी तीन धारनुमा पैरी या पायजेब, पैरों की अंगुलियों में दो-दो चुटकियां पहनती हैं। इतना शृंगार करने पर ही बैगा युवती किसी नृत्य में उतरती है।

इनके प्रमुख नृत्य सुआ नृत्य, दशेरा या दशराहा नृत्य, करमा नृत्य, रीना नृत्य, सैला नृत्य, बिलमा नृत्य, झरपट नृत्य और तपाड़ी नृत्य हैं।

बैगाओं के पास सभी विषयों पर अपनी कथाएं और गीत हैं। बैगा गीतों में उनके जंगल जीवन की सच्ची अभिव्यक्ति होती है। नृत्य या गीत के पूर्व ये लोग अपने देवी-देवताओं का स्मरण अवश्य करते हैं।

तोरे हरे नाना हो तोरे नाना।
भला तोरे हरे नाना हो।

तोहि की सुमरी रे माई धरती आय।
तोहीकी लागे भार।

तोहिकी सुमरी रे बाबा डोंगर दौहार।
तोहिको लागे भार।

तोहिको सुमरी रे वनस्पति।
तोहिको लागे भार।

तोहिकी लागे रे हंसा उड़ास।
तोहिके लागे भार।

( हे धरती माता, सबसे पहले मैं तुमको स्मरण करता हूं, तेरे ऊपर मेरा भार है। हे दौहार पर्वत, तुमको भी स्मरण करता हूं, तेरे ऊपर भी मेरा भार है। हे वनस्पति देवी, तेरा भी स्मरण करता हूं, तेरे ऊपर भी मेरा भार है। हे मेरे मन की आत्मा, तेरा भी स्मरण करता हूं,तेरे ऊपर भी मेरा भार है।)

बैगा जनजाति के कुछ वाद्य यंत्र हैं – मांदर, ढोलक, नगाड़ा, बांसुरी, ठिसकी, डफला, सिंगबाजा इत्यादि।

बैगा समाज में सामूहिक जीवन की परंपरा है। परिवार बैगाओं के सामाजिक संगठन की इकाई है। बैगाओं का सामाजिक संगठन आंतरिक रूप से सुव्यवस्थित और सुसंगठित है। विवाह से पूर्व पुत्र पिता के साथ संयुक्त परिवार में रहता है। विवाह होने के बाद पुत्र और पुत्रवधू के लिए पास में ही अलग मकान बना दिया जाता है। पुत्री विवाह होने के बाद लमसेना की स्थिति में अपने पति के साथ तीन से सात वर्ष तक पिता के पास रहती है। पुत्र या पुत्री दामाद अलग रहने पर भी पिता के परिवार से बराबर संपर्क रखते हैं। माता-पिता किसी भी पुत्र के साथ स्वेच्छा से रहते हैं। परिवार में बड़ों का सम्मान होता है। छोटे उनकी आज्ञा सदैव मानते हैं, परिवार में सबसे बड़ा व्यक्ति मुखिया होता है।

बैगा समाज पुरुष प्रधान है। समाज में पुरुष के बनाये गये नियम-विधान ही लागू होते हैं। सामाजिक रीति-रिवाज के परिपालन में पुरुषों की इच्छा सर्वोपरि होती है। किसी भी झगड़े-फसाद, रिश्तों, सामाजिक व्यवहारों के निर्णय, सब पुरुष के हाथ में होते हैं।

स्त्रियों का अनादर पूरे बैगा समाज का अनादर माना जाता है। ऊपर से रूढ़िग्रस्त दिखने वाला आदिम बैगा समाज आंतरिक रूप से नारी को कई प्रकार की स्वायत्तता और स्वतंत्रता प्रदान करता है। कोई भी युवती अपने मनपसंद युवक से विवाह कर सकती है, विवाह विच्छेद कर सकती है। रिश्ते तय करते समय पुरुष महिलाओं से सलाह लेते हैं। बैगा समाज में मां,बहन, नानी, दादी वही सम्मान पाती है जो अन्य सभ्य समाजों में होता है। घर के कामों के अलावा कृषि कार्यों में स्त्री पुरुष के साथ बराबर हाथ बंटाती है।

बैगा समाज की व्यवस्था की धुरी पंचायत पर टिकी होती है। पंचों का निर्णय सर्वमान्य होता है। पंच के फ़ैसले के विरुद्ध कोई उजर नहीं होता। ग्राम में प्रबंध ग्राम के मुखिया करते हैं, यह उनका नैतिक उत्तरदायित्व है। बैगा पंचायत में पांच पंच होते हैं। मुकद्दम, दीवान, समरथ, कोटवार और दवार। मुकद्दम गांव का मुखिया होता है, इनकी नियुक्ति परंपरागत ढंग से वंशानुगत होती है जिसे सरकार भी मान्यता प्रदान करती है। यह गांव का प्रमुख प्रबंधक होता है। दीवान मुकद्दम का सहायक होता है। मुकद्दम के नहीं रहने पर गांव के सारे कार्य दीवान करता है। समस्त गांव के सामाजिक कार्यों और मेहमानों के आने पर राशन की व्यवस्था करता है। कोटवार शासकीय सेवक होता है, लेकिन समाज में उसका भी महत्वपूर्ण स्थान होता है। दवार गांव का पुरोहित या पंडा होता है, यह अच्छा वैध होता है और धार्मिक कार्य तथा पूजा पाठ करता है।

इस जनजाति के लोग उस समय बहुत कठोर हो जाते हैं जब उन्हें पता चलता है कि उनके गांव की किसी युवती को किसी बाहर के आदमी ने छेड़ा अथवा उसके साथ बलात्कार किया है । वे कुल्हाड़ी से उसकी हत्या कर देते हैं चाहे वह व्यक्ति कितना भी बड़ा आदमी क्यों ना हो। किसी भी बाहरी व्यक्ति की हिम्मत नहीं कि वह किसी बैगा महिला को छू सके। बाहर का व्यक्ति यदि इन बातों का ध्यान रखकर उनके बीच जाये तो वे उसके साथ अच्छा व्यवहार रखते हैं।

इस जनजाति की अर्थव्यवस्था का आधार मुख्यत: खेती, ओझागिरी, झाड़-फूंक, जड़ी-बूटियों को एकत्र करके उपचार करने , बांस की चटाई और अन्य उत्पाद बनाकर बेचना, शिकार-मछली पकड़ना, पशुपालन, मुर्गी पालन, लकड़ी बेचना, शहद-हर्रा इकट्ठा करके बेचना, कंद-मूल-फल इकट्ठे करना और मज़दूरी करना है। बैगा गांवों में अलग-अलग जगह साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक हाट बाज़ार लगते हैं जहां बैगा अपने उत्पाद बेचते-ख़रीदते हैं।

बैगा जनजाति के लोग सदियों से वैद्य का कार्य करते आ रहे हैं। यह लोग असाध्य से असाध्य रोगों का उपचार अपने वन परिसर में पायी जाने वाली जड़ी-बूटियों से करते आ रहे हैं। पहले बताया गया है कि इस जनजाति के लोग अपने आप को सुषेन वैध के कुटुंब का बताते हैं। बैगा जनजाति के लोग अभी भी जड़ी बूटियों और तंत्र-मंत्र से अपना उपचार करते हैं।

यहां के बैगा सामान्य बीमारियों जैसे दर्द, बुखार, घाव, सर्दी, खांसी, दस्त, सूजन और अन्य गंभीर बीमारियों के लिए अनेक पौधे उपयोग में लाते हैं। जैसे – गर्भपात हेतु घुंघचीधरती (एब्रस प्रीकैटोरिअस), तपेदिक हेतु वज़दंती (बाउलेरिया प्रीओनिटिस), बवासीर हेतु बीजा ब्लूमिया ( ब्लूमिया लैसेरा), कुष्ठ रोग हेतु चिरचिरा (एकाइरेन्थस एसपेरा), कैंसर हेतु सफेद अरंड (जैट्रोपा क्यूरकस), सर्पदंश हेतु दूधबेल ( परगुलेरिया डैइमिया), मधुमेह के लिए बीजा (टेरोकापस मारसूपियम), कान के दर्द हेतु रमतिला (गूइजोटिया एबीसिनिका), सिफलिस एवं गोनेरिया हेतु सेमल (बाम्बवैक्स सीबा) इत्यादि का प्रयोग करते हैं।

सर्प काटने पर इंद्रावन की जड़ खिलाते हैं तथा करौंदा की जड़ को पानी में उबालकर पिलाने से या राहर की जड़ों को चबाने से सर्प का ज़हर उतर जाता है। सर्प काटने पर बैगा तंत्र-मंत्र का सहारा भी लेते हैं।

जनजातीय समाज अपनी परंपराओं को लेकर बहुत सजग रहते हैं। आधुनिक समाजों के साथ मुख्यधारा से जुड़ने के साथ-साथ वे अपनी परंपराओं को भी जीवित रखने का पूर्ण प्रयास कर रहे हैं। बैगाओं ने बदलावों को बहुत कम स्वीकार किया है, इसी कारण इन्हें विशेष संरक्षण प्रदान किया गया है।

बैगा जनजाति के स्त्री-पुरुष समय बदलने के साथ-साथ समाज की मुख्यधारा के संपर्क में भी आने लगे हैं। सरकार ने उनका जीवन-स्तर सुधारने के लिए कई मुख्य योजनाएं और उप-योजनाएं चलायी हैं। साथ ही, इन योजनाओं को ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंचाने के लिए सामुदायिक रेडियो केंद्रों की भी स्थापना की गयी है। चांड़ा में सामुदायिक रेडियो केंद्र स्थापित किया गया है जो दस घंटे बैगा जनजाति के लोगों को उनकी भाषा में मनोरंजन करने के साथ उनको सरकारी योजनाओं के बारे में बताता है। उनकी दिन-प्रतिदिन की समस्याएं भी सरकार तक पहुंच रहीं हैं जिसके कारण गांव को बिजली, पानी, स्वास्थ्य, रोजगार के अवसर प्राप्त हुए हैं। बेवर खेती को भी बैगा अब छोड़ने लगे हैं। उन्हें खेती करने के लिए ज़मीन और जोतने के लिए साधन उपलब्ध कराये गये हैं। चांड़ा में बिजली के साथ सौर ऊर्जा की भी व्यवस्था की जा रही है। बैगाओं का रहन-सहन बदल रहा है। सरकार की मदद से गांवों में पक्के मकान दिखने लगे हैं। नई पीढ़ी के लोग बोलचाल के साथ पहनावा और खान-पान भी बदल रहे हैं। पढाई के कारण युवतियां इनकी प्रमुख पहचान गोदना को भी छोड़ रही हैं।

बैगा साप्ताहिक हाट से भी अपनी ज़रूरत के समान को खरीदते हैं। महिलाएं गर्भावस्था के समय स्वास्थ्य केंद्र से परामर्श लेती हैं और दवाओं का नियमित सेवन भी करती हैं। चांड़ा में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से लेकर विद्यालय तक हैं। शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए कई बालवाड़ी भी खोले गये हैं। सरकार ने भी सामुदायिक रेडियो को बढ़ावा देने के लिए चांड़ा सहित आसपास के गांवों में क़रीब हज़ार रेडियो सेट बांटें हैं। लेकिन अशिक्षा का स्तर अभी भी बहुत ऊपर बना हुआ है। साथ ही, बैगा शराब पीने और अंधविश्वास से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। इसका खामियाज़ा इनको बिचौलियों के हाथों लुटकर चुकाना पड़ता है। वर्तमान में प्रकृतिपुत्र बैगाओं के पास रोज़गार की समस्या है। पारंपरिक व्यवस्थाओं से पर्याप्त आमदनी नहीं हो रही हैं। वर्तमान समय में संचार की स्थिति बेहतर होने के साथ उनकी समझ भी विकसित हो रही है। बाहर के लोगों से मिलने के कारण बैगा अब थोड़े चालाक भी हो रहे हैं। सरकारी योजनाएं उन्हें निकम्मा बना रही हैं। इनमें काम करने की आदत छूट गयी है। वोट की राजनीति के कारण हर महीने बैगा माताओं के खाते में पैसे आ जाते हैं। राशन पूरी तरह मुफ़्त है जिसे मिलते ही ये दुकानों पर बेच देते हैं।

जैसे भी हो, अपने रीति-रिवाजों, अपनी परंपराओं को संरक्षित रखने की शर्त पर आधुनिकता के साथ घुलने-मिलने की प्रक्रिया बेहद जटिल और बहुस्तरीय है जो बैगा समाज में इन दिनों घटित हो रही है।

संपर्क : 9351159540


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