कला-संस्थानों में खुले नज़रिये को हतोत्साह किया जाने लगा है। आस्था आहत हो जाने के हवाले से कला-परिसरों में हुड़दंगियों के उपद्रव बढ़ने लगे हैं। एक सदी बाद भारत में फिर ‘राष्ट्रवादी’ कला का शोर मचाने की तैयारियां जारी हैं। … सत्ताकेंद्रों में विराजे ‘संस्कारवादियों’ के पास न तो प्राच्यवाद की व्यवस्थित समझ है, न ही प्राचीन भारतीय कला-परम्पराओं अथवा शैलियों की ठीकठाक जानकारी। —मनोज कुलकर्णी का आलेख :
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15 अगस्त 1947 भारतीय इतिहास में वह संधिस्थल है, जहां से पहले और बाद की तवारीख़ को अलगाया जाता है। क़रीब दो सौ बरस साम्राजी ताक़त के चंगुल में रहने के बाद आज़ाद हुए मुल्क के सीने पर विभाजन के ताज़ा ज़ख्म थे, कुछ ही महीनों बाद महात्मा गांधी की हत्या से जो और गहरा गये थे। तब भी एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनने की ख्व़ाहिश जीवित रही। ऐसा देश बनाने की प्रस्तावना भी जिसके पास पुरातन सभ्यता की विरासत थी, आज़ादी-आंदोलन के आदर्श थे और आने वाले युग को समतापूर्ण, न्यायपूर्ण और गरिमामय बनाने के सपने भी।
इतिहास के किसी भी दौर की समाजार्थिक चुनौतियां और उनसे मुक़ाबले की राजनीतिक रणनीतियां उस वक़्त की सांस्कृतिक हलचलों को आकार देती हैं। परम्पराएं प्रश्नांकित किये जाने के साथ-साथ नवाचारों के प्रति उत्सुकता बढ़ने लगती है। पुरातन के प्रति आस्था और नवाचार के लिए बढ़ते आकर्षण का द्वंद्व, संभव है, किसी युग में मुखर मिले और किसी दौर में इस कदर चुपचुप कि बाज़ दफ़ा उसे चीन्ह पाना ही मुश्किल जान पड़े। ‘अंतर्वस्तु’ के परिवर्तन को जानने, समझने और व्यक्त करने की छटपटाहट ‘रूप’ के साथ प्रयोग के लिए उकसाती है। कला-साहित्य में घटित ऐसे बदलावों को लक्षित, रेखांकित और व्याख्यायित कर काल-खण्ड विशेष की पहचान स्थापित करने की चुनौतियां सदैव बनी रहती हैं।
नये देश में क्या भारतीय कला भी नयी थी? आज़ादी के बाद ही क्या भारतीय कला ‘आधुनिक’ हुई? इन सवालों के जवाब ढूंढते हुए सबसे पहले ‘बॉम्बे प्रोग्रेसिव आर्टिस्टस् ग्रुप’ का ज़िक्र आना स्वाभाविक है। अनेक लोग उसे ही भारतीय चित्रकला में आधुनिकता का प्रस्थान बिंदु मान लेते हैं। आज़ादी के लगभग साथ-साथ अस्तित्व में आए इस समूह के कुछ कलाकारों की रचनात्मक उपस्थिति बेशक ख्यात हुई, किंतु यह सचाई अनदेखी नहीं छोड़ी जा सकती कि जिन विचारधारात्मक बहसों और रचनात्मक संघर्षों से ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘भारतीय जननाट्य संघ’ (इप्टा) जैसे सांस्कृतिक आंदोलन विकसित हुए थे, ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप’ की स्थापना ठीक उसी वैचारिक धरातल पर नहीं हुई थी।
चित्रकार फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा की पहल से एकजुट हुए इस समूह के शुरुआती सदस्य सैयद हैदर रज़ा, मक़बूल फ़िदा हुसेन, कृष्णाजी हावलजी आरा, हरि अम्बादास गादे जैसे चित्रकार और एकमात्र शिल्पकार सदानन्द बाकरे भिन्न सामाजिक और धार्मिक पृष्ठभूमि से आते थे। उनमें न तो शैलीगत समानता थी, न ही सुस्पष्ट वैचारिक साझेदारी। उस वक़्त वामपंथी विचारों और कम्युनिस्ट पार्टी के नज़दीक रहे सूज़ा के सिवाय बाक़ी सदस्यों का सोच चाहे जितनी मानवीय रहा हो, यह तथ्य अविवादित है कि उनकी राजनीतिक चेतना सुविचारित नहीं थी। ता-उम्र अस्थिर और बड़बोले रहे सूज़ा हालांकि समूह की अगली कला-प्रदर्शनी तक कह चुके थे कि समूह के नाम में ‘प्रोग्रेसिव’ पद जुड़ा होना बेमानी है, कि वे सब वामांधता को पीछे छोड़ आये हैं!
‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप’ के ये सदस्य भारतीय कला के तत्कालीन परिदृश्य, ब्रिटिश राज में क़ायम कला-संस्थानों की रूढ़ियों और पूर्ववर्ती बंगाल स्कूल की पुनरुत्थानवादी कला-शैली से बेशक असंतुष्ट थे। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में यूरोप-अमेरिका में विकसित उत्तर-प्रभाववादी, घनवादी और अभिव्यंजनावादी कलाशैलियों के प्रभावों से अपने-अपने निजी चाक्षुष-मुहावरे अर्जित करने की रचनात्मक बेचैनी से भरे हुए थे। उन्हें कला की किसी शैली, विधि, सामग्री और तकनीक का बंधन नामंज़ूर था। वैश्विक कला-परिदृश्य में अपनी जगह तलाशते यूरोप में जा बसने वाले कलाकारों में इस समूह के दो प्रमुख सदस्य सूज़ा और रज़ा भी थे। बाद के बरसों में राम कुमार, अकबर पदमसी, तैयब मेहता, वासुदेव गायतोंडे, कृष्ण खन्ना, मोहन सामंत जैसे चित्रकार भी इस समूह से जुड़े। हालांकि 1956 में यह समूह बिखर गया।
ये कलाकार भारतीय ‘अवांगार्द’ थे, इस विचार से असहमत आवाज़ें भारतीय कला-संसार में उठी हैं, जो प्रोग्रेसिव समूह के उत्थान को प्रतिष्ठित कला-दीर्घाओं, प्रभावशाली प्रायोजकों और धनपति खरीदारों के संरक्षण के साथ ही प्रभावशाली संपादकों और कला-समीक्षकों द्वारा दिये गये ‘अतिरिक्त’ महत्व का कारनामा बताती हैं। तब भी यह निर्विवाद है कि उपरोक्त समूह के अधिकतर नामों ने अभिव्यंजनात्मकता, अमूर्तन और भारतीय कलातत्वों के मिश्रण से विकसित निजी कला-मुहावरों से भारतीय कला में अपनी विशिष्ट जगह बनायी जिससे बाद की पीढ़ियां प्रेरित-प्रभावित भी होती रहीं। विशेषतः हुसैन की असाधारण रचनात्मक सक्रियता और नाटकीय व्यक्तित्व तो आम जनता के लिए लम्बे समय तक भारतीय चित्रकारी का पर्याय ही बने रहे।
भारतीय कला का इतिहास-लेखन कला-प्रवृत्तियों की बजाय ‘व्यक्तियों’ पर अधिक केंद्रित क्यों रहा? 1940 तक कोलकाता की कला-गतिविधियों के इर्द-गिर्द किया जाता रहा कला-विवेचन एकाएक मुंबई केंद्रित क्यों हो गया? इतर बड़े और मझौले शहरों के कला-संस्थानों की रचनात्मक हलचलें और कलाकारों के हस्तक्षेपकारी प्रयोग लगभग अलक्षित क्यों छूट गये? 1947 के बाद अनेक स्थापित कलाकारों के दिल्ली आ बसने के क्या कारण थे? उसी दौर में सक्रिय देवयानी कृष्ण (1910-2000) और जया अप्पास्वामी (1918-1984) जैसी महिला कलाकारों का महत्व उसी शिद्दत से क्यों नहीं रेखांकित किया जा सका ? महानगरों की व्यावसायिक कला-दीर्घाओं, रसूखदार कला-ग्राहकों, राजनीतिक संबंधों, साधन सम्पन्न कला-संस्थानों, उनके मठाधीशों की उच्चवर्गीय और अक्सर वर्णवादी ‘पुरुष’ मानसिकता से मिलजुल कर बनी शक्ति-संरचना को नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता।
कोई भी ऐतिहासिक परिघटना रैखिक और इकहरी नहीं होती। हिंदुस्तान की आज़ादी की पचहत्तरवीं वर्षगांठ, एक मौजूं मौक़ा है कि गुजिश्ता बरसों में हमने क्या खोया-पाया इसका जायज़ा लें। भावी कला-संसार कैसा हो सकता हैं, अनुमान लगाने की कोशिश करें।
ब्रिटिश-राज, आज़ादी का आंदोलन और कला-प्रवृत्तियां
स्वतंत्रता बाद के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मूल्यों के निर्माण की ज़मीन आज़ादी के आंदोलन के दौरान बनी। गुलामी से मुक्ति की कामना और उसके लिए संघर्ष से एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य के सपने तक पहुंचने की प्रक्रिया से तत्कालीन कला-साहित्य अछूते कैसे रहते? ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने की लड़ाई ने जनता के सांस्कृतिक-बोध को किस तरह बदला, विभिन्न कला-रूपों में वे कैसे व्यक्त हुए? स्वतंत्र भारत की कला-गतिविधियों और परिवर्तनों की गति, प्रगति और कुछ अर्थों में दुर्गति को भी समझने-जांचने के लिए आज़ादी पूर्व के करीब डेढ़ सौ बरसों पर सरसरी नज़र डालनी होगी।
उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में अंग्रेज़ी शिक्षा-पद्धति और पश्चिमी अर्थव्यवस्था अपनाने से भारतीय बाज़ारों की सूरत बदलने लगी थी। व्यापारिक नगरों में उभरते मध्यवर्ग की बदलती रुचियों और आवश्यकताओं की पूर्ति का सामान वहां बिकने लगा था। संभावनाएं तलाशते कुछ यूरोपीय चित्रकार भी भारत आने लगे थे। तब तक सामंती आश्रय पाती रही कला-शैलियां लुप्त होने लगी थीं। बदलते परिवेश में अपनी ज़रूरत अनुसार शिल्पकार और नक्शानवीस तैयार करने के लिए अंग्रेज़ों ने कुछ संस्थान शुरू किये, जो कालांतर में कला महाविद्यालय बनते गये। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत का परिचय पश्चिमी चित्रकला से होना आरम्भ हो गया था। भारतीय चित्रकला में अंकन पद्वति और कला-सामग्री के बदलाव आने लगे थे। राजा रवि वर्मा (1848-1906) पहले प्रमुख भारतीय चित्रकार थे, जिन्होंने अंग्रेज़ी शिक्षक की देख-रेख में तेलरंगों से यथार्थवादी पद्धति में चित्र बनाना सीखा था। भारतीय लघुचित्र परम्परा की जलरंगी शैलियों से हट कर वे यूरोपीय पद्धति से परिप्रेक्ष्य और आकृति-संयोजन कर चित्र बनाने लगे थे। भारतीय पुराणों और महाकाव्यों पर आधारित उनकी वृत्तात्मक कलाकृतियों की छापा-प्रतियां साधारण घरों तक भी पहुंचने लगी थीं। इस तरह आम जनता भी उनके चित्रों और नाम से कुछ परिचित होने लगी थी।
विज्ञान की चमत्कारी खोजों और नयी सैद्धांतिक स्थापनाओं से यूरोप में क्रांतिकारी तौर पर बदलते सामाजिक-आर्थिक जीवन में ढहती पुरातन मान्यताओं और नयी दार्शनिक अबधारणाओं के उसी दौर में भारत में ब्रिटिश राज एक तरफ रसूखदार अभिजनों की जीवन दृष्टि को आध्ुनिक बना रहा था, तो दूसरी तरफ अपने साम्राज्यवादी मंसूबों की खातिर मज़हबों के बीच फूट डाल रहा था। बरस 1905 में अंग्रेज़ों ने बंगाल को धार्मिक आधार पर विभाजित कर डाला था। ‘बंग-भंग’ से नाखुश बंगाली भद्रलोक की ब्रिटिश-हुकूमत के विरूद्ध उभरी नाराज़गी ‘स्वदेशी’ की मुखर पक्षधरता में तब्दील होने लगी। वैसा ही आग्रह बंगाल के तत्कालीन चित्रकारों में भी दिखायी देने लगा था। रवि वर्मा के चित्रों को विदेशी कला-तकनीक में देशी मिथकों और आख्यानों की संकर प्रस्तुति मानने वाले वे लोग उनकी शैली को औपनिवेशिक मानसिकतायुक्त अनुकरण मानने लगे थे। भारतीय कला के पारम्परिक मूल्यों और तत्वों की पुर्नस्थापना और कलात्मक विरासत के पुनर्मूल्यांकन के पक्षधरों में कलागुरु अवनींद्रनाथ टैगोर (1871-1951) प्रमुख थे। उन्हें ई.बी. हैवेल (1861-1934) जैसे प्रभावी कला-प्रशासक, इतिहासकार और अंग्रेज़ी लेखक और आनंद कुमारस्वामी (1877-1947) जैसे कला-विचारक का समर्थन हासिल था। हैवेल मानते थे कि सूक्ष्म आध्यात्मिक विचारों की रचना के लिए स्वाभाविक रूपों का आदर्शीकरण ही भारतीय कलाकारों की युगांे-युगों की उपलब्धि है, जबकि पाश्चात्य चित्रकला भौतिकवादी और नश्वरता प्रधान है।
कला-इतिहास में ‘बंगाल स्कूल’ नाम से जानी गयी चित्रांकन की वह ‘राष्ट्रवादी’ शैली ‘देशी’ की वकालत करते-करते ‘हिंदू’ प्रतीकात्मकता की तरफ चली गयी। अवनींद्रनाथ रचित ‘भारत माता’ का चित्र जिसका सटीक उदाहरण है। कालांतर में बंगाल-स्कूल के शिष्य शांतिनिकेतन सहित मद्रास, लाहौर, लखनऊ जैसे कला-संस्थानों के प्रमुख बने। इस तरह फैलने के पर्याप्त अवसर पाने वाली उस शैली में भी ज़्यादातर पौराणिक मिथकों और राजे-नवाब का ही चित्रण हुआ। 19 वीं सदी के शुरुआती समय में जब यूरोप के कलाकार प्रभाववाद और घनवाद के बीच सेतु बनाने वाले पॉल सेजां के असर की गिरफ्त में थे, पुरातनता के साथ पिकासो के नये कला-प्रयोग चर्चा पाने लगे थे, भारत में उक्त ‘राष्ट्रवाद’ उभर रहा था।
1920-1930 के दशकों में आकर भारतीय चित्रकला परिदृश्य में रवींद्रनाथ टैगोर (1861-1941) और अमृता शेरगील (1913-1941) वास्तविक आधुनिक हस्तक्षेप करते हैं। कला को अंतर का प्रगटीकरण मानने वाले रवींद्रनाथ कला-तत्वों, शैलियों, विधियों, विषयों और कलासामग्री के चयन में उदार थे। विश्वप्रसिद्ध कवि, संवेदनशील कथाकार-नाटककार, अनूठे संगीतकार और प्रयोगधर्मी शिक्षाविद् की प्रसिद्धि अर्जित कर चुके रवि बाबू साठ पार की उम्र में इत्तफाकन चित्रकारी तरफ मुड़े थे। कागज़ के हाशिये पर आकृतियों में तब्दील होती गयीं उनकी लयात्मक ‘गोदागादी’ किसी विचार का विष्लेषण अथवा किसी यथार्थ की चित्रात्मक प्रस्तुति न होने से स्थापित शैलियों में अटती भी नहीं। रवींद्रनाथ के प्रशिक्षित चित्रकार न होने और उनके चित्रों को एक बहुप्रतिभाशाली के समय बिताने का उपक्रम मानने की रूढ़िवादी धारणा के बावजूद तथ्य यही है कि भारतीय चित्रकला में नवाचार को प्रतिष्ठित करने में उनका अवदान उल्लेखनीय है। अनायास नहीं था कि उन्होंने शांति-निकेतन में भारत के अनूठे शिल्पकार रामकिंकर बैज को अपनी अलहदा शैली और तबीयत से कलाकारी करने का वातावरण उपलब्ध कराया।
भारतीय पिता और हंगेरीयन माता की पश्चिमी जीवन-शैली में पली-बढ़ी संतान अमृता के पास यूरोपीय कला-संस्थान से हासिल अकादमिक कला-शिक्षा थी। यूरोप छोड़ कर भारत में अपनी जडे़ं तलाशती उस युवति को अल्प जीवन ही मिल पाया। करीब दस बरसों के अमृता के सक्रिय कला-जीवन में उत्तर-प्रभाववादी शैली के साथ भारत की अजंता और पहाड़ी लघुचित्र-शैलियों के कतिपय कला-तत्वों के समन्वय से बने चित्र भारतीय कला-इतिहास को अर्थपूर्ण तरीके से बदलते हैं। पौराणिक नायकों और प्रसंगों की बजाय वे आम ग्रामीण जीवन को अपने चित्रों में प्रतिष्ठित करती हैं।
कालांतर में बंगाल में नन्दलाल बोस, विनोद बिहारी मुखर्जी, मुंबई के नारायण श्रीधर बेंद्रे, कट्टींगेरी कृष्ण हेब्बार आदि ने अपनी राह बनायी। कांग्रेस अधिवेशन में मंडप सजाने के लिए गांधीजी की पसंद रहे नन्दलाल बोस को भारत के संविधान की मूल प्रति की सज्जा का दायित्व भी सौंपा गया था। कुछ समीक्षक हालांकि संविधान की मंशा और तत्संबंधी उनके चित्रांकन में संगति का अभाव बताते हैं। लोककला की सादगी और समतलता तथा प्राचीन यूरोपीय शैली के तत्वों के समावेश से बना जामिनी राय का विशिष्ट चाक्षुष मुहावरा बाज़ार के दबावों में निरंतर दोहराव बन कर रह गया।
दो विश्वयुद्धों, समाजवादी क्रांति, फासीवाद के उभार और अंत तथा साम्राज्यवाद विरोधी राजनीतिक और वैचारिक उथल-पुथल वाले बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में बने-चले अनेक कलांदोलन से प्रभावित होते भारतीय कलाकारों के एक हिस्से पर 1940 के दशक में वामपंथी विचारों का असर होने लगा था। 1943 में कोलकोता में शुभो टैगोर, निरोद मजूमदार, रथिन मोईत्रा, प्राणकृष्ण पाल, गोपाल घोष, परितोष सेन और प्रदोष दासगुप्ता आदि चित्रकारों-मूर्तिकारों द्वारा मिल कर बनाया ‘कलकत्ता ग्रुप’ दरअसल भारत का पहला वामपंथी कला-समूह था। अकाल, विश्वयुद्ध और विस्थापन से भरे त्रासद समय के गवाह इन कलाकारों में कुछ भूमिगत वामदल से भी संबंद्ध रहे। कला को महज सौंदर्याभिव्यक्ति न मान कर उसे सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ को सामने लाने का औजार मानने वाले चित्तोप्रसाद, जेनुइल अबेदिन और सोमनाथ होर आदि ने गहरी राजनीतिक चेतना के साथ उस दौर की भयावहता को चित्रित किया है। दिल्ली, मद्रास, लाहौर और मुंबई में भी वैचारिक और रचनात्मक हलचलें बढ़ रही थीं। पश्चिमी कलांदोलनों से प्रेरित, अंतर्राष्ट्रीयवाद के पैरोकार युवा कलाकारों की कृतियांे पर पिकासो, हेनरी मूर आदि का असर दिखायी देने लगा था।
नेहरु-युग और कला-संसार
शिक्षित तबका, साहित्य-सिनेमा संसार और बौद्धिक जगत जवाहरलाल नेहरू के इस स्वप्न से प्रभावित था कि आज़ाद देश में गरीबी, अज्ञान, बीमारी और अवसरों की असामनता से मुक्ति मिलेगी। भारत को आधुनिक राष्ट्र-राज्य बनाने की उनकी महत्वाकांक्षी परियोजना भी उत्साहकारी थी। आध्यात्मिक की अपेक्षा सांसारिक संस्कृति के तरफदार नेहरू की कला संबंधित शुरुआती प्राथमिकताएं आकल्पन और पारम्परिक शिल्प के क्षेत्र में देखी गयीं। ग्रामीण कलाओं, हथकर्घा और हस्तशिल्पों के पुनरुत्थान की हिमायती हस्ती पुपुल जयकर उनकी करीबी रहीं, जो कालांतर में अनेक महत्वाकांक्षी सांस्कृतिक संस्थानों और परियोजनाओं की प्रमुख बनीं।
लोकतांत्रिक संस्थाओं और परम्पराओं को गढ़ने तथा धर्मनिरपेक्ष सामाजिक ताने-बाने को मज़बूत करने में अथक सक्रिय रहे नेहरू के प्रधानमंत्रीकाल में भारत के समृद्ध अतीत को सहेजने के लिए राष्ट्रीय संग्रहालय अस्तित्व में आया और आधुनिक कला धरोहर के संरक्षण, अध्ययन और प्रदर्शन के लिए ‘राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय’ की स्थापना की गयी। भारतीय चित्रकला, मूर्तिकला की विविध विधाओं में अध्ययन और शोध को बढ़ावा देने, कला की विविध शैलियों के बीच संवाद स्थापित करने के लिए व्याख्यान, संगोष्ठियों, प्रदर्शनियों और प्रकाशन आदि के लिए ‘ललित कला अकादमी’ जैसी स्वायत्त संस्था बनायी गयी। इसने अपनी कल्पनाशीलता और सक्रियता खो देने से पहले वार्षिक कला-प्रदर्शनियों और अंतर्राष्ट्रीय त्रिवार्षिकियों के ज़रिये भारतीय कलाकारों को देशी-विदेशी कला-रुझानों से परिचित कराने का महत्वपूर्ण काम किया।
वर्ष 1963 में कला-समूह ‘ग्रुप 1890’ की पहली और एकमात्र सामूहिक प्रदर्शनी का उद्घाटन नेहरू ने किया था। यह ‘बॉम्बे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप’ के बाद दूसरा समूह था, जिसके कुछ सदस्यों के कला-मुहावरों और वैचारिक चिंतन ने अपनी मुकम्मल पहचान अर्जित की। बाद की पीढ़ी के कलाकारों को प्रेरित-प्रभावित करने वालो में जगदीश स्वामीनाथन, गुलाम मोहम्मद शेख, जैराम पटेल, हिम्मत शाह आदि नाम उल्लेखनीय हैं। इस समूह की दूसरी प्रदर्शनी कभी नहीं हो सकी। ‘ग्रुप 1890’ का घोषणापत्र लिखने वाले चिंतक चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन की कभी ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप’ के बारे में धारणा थी कि 1960 के दशक में बदलते वक्त के साथ प्रोग्रेसिव कलाकारों का उत्साही आग्रह और साहसिक पहल मद्धिम पड़ने लगी और मूलतः विद्रोही रहे ये कलाकार व्यवस्था कर हिस्सा बनते गये। हालांकि बाद के बरसों में खुद स्वामीनाथन भी कला-व्यवस्था का सक्रिय अंग बने। भोपाल के भारत भवन में लोक और आदिवासी कला को नागर कला के समांतर प्रतिष्ठित करने का उनका संवेदनशील प्रयोग, उनके जैसी गंभीरता और संवेदना के अभाव में, बाद में निस्तेज पड़ता गया है।
1960-70 में एक धारा अमूर्तन की तरफ भी गयी। ‘वस्तु’ की बजाय ‘भाव’ को तरज़ीह देते रंगों की परतों, पोत के आघातों और अपरिभाषित आकारों से ऐसे प्रयोग किये गये। वासुदेव गायतोण्डे और रामकुमार भारतीय अमूर्तन के शुरुआती चित्रकार रहे हैं। जी.आर.संतोष जैसे कुछ कलाकारों ने तांत्रिक प्रतीकों का भी समावेश अपने चित्रों में किया। जीवन के अंतिम हिस्से में स्वदेश लौट आए रज़ा के ज्यामितीय चित्रों में ‘बिंदू’ की उपस्थिति में आध्यात्मिक विस्तार देखने की कोशिशें भी हुईं। मगर, वास्तविक चुनौतियों की अनदेखी करते ज़्यादातर अमूर्त प्रयोग कला-तकनीक के कुशल उपयोग भर बनकर रह गये और इनका अंधानुकरण अधिकाशंतः सुंदर और सजावटी कृतियों के निर्माण तक ही रह गया।
वैचारिक-कला
1960 के दशक में वैश्विक कला-परिदृश्य में अस्मितामूलक विमर्शों से उपजी कला-प्रवृत्तियां ज़ोर पकड़ने लगी थीं, तीसरी दुनिया तक उन सवालों और आंदोलनों की चेतना कुछ बरस बाद पहुंच सकी। भारतीय कला में 1970 के दशक में धीरे-धीरे किंतु निरंतर चित्रफलक पर आम जीवन की उपस्थिति सघन होती गयी। ग्रामीण और आदिवासी जीवन के बाद महानगरीय जीवन के विरोधाभास, विद्रूप, संकट और संघर्षं भी चित्र-विषय बनने लगे थे। सुधीर पटवर्धन के चित्रों में मुंबई के तलछट का जीवन रंगाकार पाने लगा था।
भारतीय कला कब आधुनिक हुई, यह रेखांकित करने वाली प्रख्यात कला-आलोचक गीता कपूर ने 1981 में आकृतिमूलक आख्यानात्मक चित्रों की महत्वपूर्ण प्रदर्शनी प्रस्तुत की थी – ‘प्लेस फॉर पीपल्’ (जनता के लिए जगह), जिसे उत्तरआधुनिकता की तरफ भारतीय कला के प्रारम्भिक प्रस्थान की तरह देखा जाता रहा है, किंतु कुछ ही बरसों बाद 1985 में बड़ोदा में कुछ चित्रकारों-शिल्पकारों ने ‘रेडिकल ग्रुप’ बना कर उस चलन के प्रति विरोध दर्ज कराया। मुख्यतः केरलवासी ये मार्क्सवादी कलाकार आपातकाल के दौर में एकजुट हुए थे। स्थापित व्यवस्था के प्रतिरोध और उत्तरऔपनिवेशिक भारत की वंचित-शोषित जनता के यातनापूर्ण जीवन को चित्रित करने के लिए उन्होंने साधारण कला-सामग्री की वकालत की। बड़ोदा-स्कूल द्वारा प्रोत्साहित आख्यानात्मक शैली के विरोधी इन कलाकारों ने कला बाज़ार का विकल्प तलाशने के लिए स्थानीय कलाकारों और जनता के साथ मिल कर केरल के एक गांव में कला-शिविर भी आयोजित किया था। समूह के अंतर्विरोध इस कदर गहराते गये कि इसके संस्थापक के.पी.कृष्णकुमार ने खुदकुशी कर ली। एक सामूहिक संभावना जल्द ही ओझल हो गयी।
भूमंडलीकरण के दौर के साथ फोटो-यथार्थवादी चित्र भी बनने लगे। गांधी की करुणा से प्रभावित चित्रकार अतुल डोडिया इसके प्रमुख हस्ताक्षर रहे। सामाजिक, राजनीतिक सवालों को अपनी यथार्थवादी चाक्षुष भाषा में वे तर्क, रूपक, पहेली या कहावत को बरतते दिखते हैं। अपनी प्रयोगात्मकता को बाद में डोडिया ने त्रिआयामी माध्यमों में भी विस्तार दिया।
तेज़ी से बदलते राजनीतिक-सामाजिक यथार्थ की जटिलता को अभिव्यक्त करने के लिए कलाकारों को चित्रों-मूर्तियों जैसे पारम्परिक स्थिर रूप नाकाफी लगने लगे। नये बिम्बों, प्रतीकों, रूपकों के साथ-साथ नयी कला-सामग्री की तलाश और सौदर्यानुभूति की बदलती कसौटियांे बीच परफार्मेंस, वीडियो, फिल्म, ध्वनि-प्रयोग, फोटोग्राफी और संस्थापन आदि वैकल्पिक कलारूपं भारतीय कलाकारों को भी आकर्षित करने लगे। अब ‘वैचारिक-कला’ में शुमार इन तमाम कला-विधाओं को प्रारम्भिक हिचक के बाद देर-सबेर अकादमिक मान्यता दे दी गयी है।
भारतीय समाज में लैंगिक के अलावा जाति आधारित शोषण को संबोधित करने वाले कलाकारों को सामाजिक यथार्थ में सीधे हस्तक्षेप करने की संभावना के चलते वैकल्पिक कला-माध्यमों ने आकर्षित किया। ‘शरीर’ से उपजी सामाजिक-मानसिक प्रताड़ता चूंकि ऐसे मुद्दों की केंद्रीय बहस में रही हैं, नारीवादी चिंतनों और दलित आंदोलनों से उद्वेलित कलाकारों ने स्वयं के ‘शरीर’ को ही कला-प्रयोगों का हिस्सा बनाया। ‘परफार्मेंस’ विधा के ऐसे प्रयोग पारम्परिक नाट्यप्र्रदर्शन से कई मायनों में भिन्न होते है। व्यक्तिगत अनुभवों, सामाजिक क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं, आलोचनाओं को दर्शाने और मानसिक जड़ता बदलने के लिए किये जाने वाले ऐसे प्रदर्शनों में देश, काल, शरीर के साथ ही प्रस्तुतकर्ता और जनता के बीच के रिश्ते महत्वपूर्ण होते हैं। सामाजिक, राजनीतिक टिप्पणी करते ये कलाप्रयोग कलादीर्घा अथवा संग्रहालय में प्रत्यक्ष अथवा वीडियों के जरिये प्रदर्शित किये जाते हैं। अनेक कलाकार सार्वजनिक स्थानों पर किसी स्थानीय मुद्दे पर भी ऐसे प्रयोग करते रहे हैं। भारत में रुमन्ना हुसेन (1952-1999) जैसी स्त्री कलाकार ने इस विधा में महत्वपूर्ण शुरुआती प्रयोग किये। जातिवादी उत्पीड़न को प्रगट करती ‘दलित’ अभिव्यक्तियां चूंकि बाज़ार के अनुकूल नहीं होती, भारतीय कला का दलितवादी उभार मुख्य परिदृश्य से लगभग अलग छोड़ा जाता रहा है।
पारम्परिक शिल्पकला से आगे बढ़ने की बेचैनी से कलाकारों ने रोज़मर्रा की वस्तुओं और कुदरती चीज़ों के समावेश और संयोजन से जो प्रयोग किये, वे संस्थापन (इंस्टॉलेशन कला) कहलाये। कला-दीर्घाओं, संग्रहालयों के अलावा सार्वजनिक अथवा निजी स्थानों पर भी ये ‘संयोजन’ प्रदर्शित किये जाते रहे है। पारम्परिक शिल्प के स्थायीपन के बरक्स इनकी ‘तात्कालिकता’ के कारण शुरुआती दौर में ये कला-बाज़ार के प्रतिकार के बतौर भी प्रचारित किये गये। ऐसी ‘निर्मितियां’ अमूमन विशिष्ट पर्यावास में की जाकर प्रदर्शनी उपरांत ‘विघटित’ कर दी जाने से संग्राहकों द्वारा निजी संग्रह के लिए खरीदे जाने की गुंजाइश नहीं थी। भारत में अतीत और वर्तमान को प्रश्नांकित करते ऐसे संस्थापनों की शुरुआत मुख्यतः विवान सुंदरम ने की। ‘खोज इंटरनेशनल’ जैसी पहल ने कालांतर में दक्षिण एशियाई देशों के अनेक नये कलाकारों को इन विधाओं में अवसर उपलब्ध कराये।
बाज़ार लेकिन अधिक चालाक था। ऐसे कलारूपों को अपने अनुकूल बनाने की तिकड़में उसने खोज निकालीं। अब अधिकतर ‘परफार्मेंस’ और ‘इंस्टॉलेशन’ व्यावसायिक प्रायोजन से होते हैं। यथार्थ में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करते कला-प्रयोग लगभग हाशिये पर हैं। पिछले दो दशकों में भारतीय कला-जगत में सनसनी से आये सुबोध गुप्ता के शुरुआती ‘परफार्मेंस’ हों या बाद के ‘इंस्टालेशन्स’, बाज़ार उनका अनुकूलन करने में सफल रहा है।
कला बाज़ार, सांप्रदायिक संकीर्णता के असर
बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत-कैम्प के पराभव, शीतयुद्ध की समाप्ति और दुनिया में बदलते शक्ति-समीकरणों में एक तरफ धार्मिक कट्टरपंथ को सिर उठाने का मौका मिला तो दूसरी तरफ साम्राज्यवाद को नया अवतार धरने की मोहलत। अमेरिकी नेतृत्व में दुनिया के गरीब और पिछड़े मुल्कों को पढ़ायी जाती ‘भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण’ की पट्टी के बीच भारत भी वित्तीय पूंजी और सट्टा-बाज़ाराना उठा-पटक की चपेट में आया। कला-बाज़ार में भी उछाल आया। अंतर्राष्ट्रीय निलामघरों की आमद हुई। कलाकृतियों की बोलियों पर पड़ने वाले जिनके हथौड़े रातोरात किसी अनाम कलाकार को सितारा बना देते थे। पारम्परिक कला-संरक्षक पीछे छूटने लगे। कलाकृतियों का वायदा-कारोबार पनपने लगा। कला, कारपोरेट और फैशन-जगत का जो गठजोड़ विकसित हुआ, उसके तहत कला-प्रदर्शनियां बौद्धिक गतिविधि की बजाय पेज-3 मार्का अखबारी सनसनी बनती गयीं। स्थापित कला-दीर्घाओं के बरक्स अनेक नयी कला-वीथिकाएं धड़ाधड़ खुलती गयीं। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में अविश्वसनीय ऊंचाई तक पहुंचे कलाकृतियों के दामों से व्यापारिक छल-छद्म भी बढ़ते गये। नामी कलाकारों की ‘नकली’ कलाकृतियां बाज़ार में आ गयीं। गैरकानूनी तरीकों से बनाये धन के निवेश के लिए ‘कलाकृतियां’ खरीदी जाने लगीं। कला-मेलों का दौर शुरू हुआ, जिसमें कला-वीथिकाएं अपने-अपने ‘माल’ की नुमाइशें लगाती हैं।
वर्ष 2008 की अंतिम तिमाही में आई वैश्विक मंदी में भारतीय कला-बाज़ार का हवामहल एकाएक ढहा। कलाकृतियों को आधार-मूल्य पर बेच पाना तक असंभव हो गया। नवधनाड्य निवेशक ठगा-सा महसूस करने लगे। कुकुरमुत्तों सी उग आई कला-वीथिकाओं पर ताले पड़ने लगे। यथाशीघ्र अधिकतम मुनाफा पीटने की गरज से कला-कारोबार में घुस आये व्यापारी तो फिर अपने पुराने धंधों में लौट गये, जीना मुहाल तो उन नवेले कलाकारों का हुआ जिन्हें इस बीच बाज़ार ने सिर चढ़ा लिया था।
भारत में नयी आर्थिक-नीतियों के लिए पलक-पावड़े बिछाने से ठीक पहले सामाजिक-न्याय की राजनीति मुखर होना शुरू ही हुई थी कि उसे पीछे धकेल सांप्रदायिक सियासत को आगे बढ़ जाने की जगह मिल गयी। अयोध्या में बाबरी मस्जिद ध्वस्त करने के बाद जिसकी ताकत बढ़ती गयी है। इसके दुष्प्रभावों से कला-संसार भी अछूता नहीं बचा है। शुरुआत हुई थी देश के सर्वाधिक चर्चित चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन के चित्रों पर हमलावर होने के साथ। जन्मना मुसलमान होने के कारण वे आसानी से संकीर्ण सांप्रदायिक ताकतों के निशाने पर आ गये। खुद को पांच हज़ार बरस पुरानी भारतीय सांस्कृतिक विरासत का प्रतिनिधि मानने वाले हुसैन के चित्रों में मौजूद मिथकों को हिंदू देवी-देवताओं का अपमान बता कर देश भर की अदालतों में उन पर मुकदमे ठोक दिये गये थे। मानसिक प्रताड़नाओं से त्रस्त 90 पार की उम्र वाले शीर्षस्थ चित्रकार को आखिर देश छोड़ देने के अलावा कोई उपाय न सूझा!
बरस 2014 में बहुसंख्यक की सांप्रदायिकता के वैधता हासिल करने के बाद से सरकारी संस्थानों और कला अकादमियों के एजेंडे पर भारतीयता के नाम पर ‘हिंदुत्व’ लाने और ‘लोक’ के हवाले से ‘ब्राह्मणवादी’ मूल्यों को बढ़ावा देने की परियोजनाओं को पोसा जाने लगा है। भारतीय चित्र-(मूर्ति)कला के गौरव की चर्चा करते हुए भीमबैठका के प्रागैतिहासिक शैल-चित्रों, हड़प्पाकालीन नर्तकी के सलोने शिल्प, सांचीस्तूप के पथरीले दरवाज़ों पर उत्कीर्ण तथागत की जीवन गाथा और अजंता के बौद्ध चैत्यालय और विहारों की सम्पन्न कला-धरोहर का ज़िक्र होता है। सचाई यह है कि सदियों तक ये सब दबे-ढके ही रहे। अंग्रेज़ों के आगमन के बाद 1851 से 1957 के बीच इन्हें खोजा और इनके महत्व को जाना जा सका है, बीच के लम्बे अरसे की भारतीय कला-परम्पराएं इनके प्रभावों से अछूती ही रहीं। जिस संकुचित इतिहास दृष्टि को अब प्रोत्साहित-प्रायोजित किया जा रहा है, समसामयिकता की बजाय (मनमानी) ‘सांस्कृतिक विरासत’ पर ज़ोर दिया जाने लगा है, उसमें ये सारे तथ्य बुहार कर रख दिये जा सकते हैं। कला-संस्थानों में खुले नज़रिये को हतोत्साह किया जाने लगा है। आस्था आहत हो जाने के हवाले से कला-परिसरों में हुड़दंगियों के उपद्रव बढ़ने लगे हैं। एक सदी बाद भारत में फिर ‘राष्ट्रवादी’ कला का शोर मचाने की तैयारियां जारी हैं। पचहत्तर वर्ष की आयु पूरी करती आज़ादी के बावजूद, यदि ऐसा हुआ तो नितांत उथले और फूहड़ तरीके से होगा। क्योंकि सत्ताकेंद्रों में विराजे ‘संस्कारवादियों’ के पास न तो प्राच्यवाद की व्यवस्थित समझ है, न ही प्राचीन भारतीय कला-परम्पराओं अथवा शैलियों की ठीकठाक जानकारी ही।
चाक्षुष कलाएं अक्सर राज्याश्रय अथवा बाज़ार के भरोसे रही आयी हैं। मुनाफे से मतलब रखने वाला बाज़ार शासकों का विरोध नहीं करता। अपना ‘माल’ खपाने के हथकंडे उसे मालूम हैं। हुसैन प्रसंग में साबित हो चुका है कि सत्ता-तंत्र का रुख देख बाज़ार ने उन्हें अलग-थलग छोड़ दिया था। बावजूद इस तथ्य के कि उस वक्त हुसैन की कृतियों की मांग सर्वाधिक थी। हालिया कला-मेलों में आयोजकों ने साफ चेता दिया था कि किसी तरह की ‘राजनीतिक’ गतिविधि सहन नहीं की जाएगी!
सांप्रदायिक सत्ता-तंत्र, अकादमियों के संकीर्ण सोच वाले नियंताओं, कला-संस्थानों के अनुदार माहौल, संकुचित नज़रिये वाले कला-शिक्षण के साथ कला-बाज़ार और कारपोरेट खरीदार मिल कर आने वाले समय में भारतीय कला को किस दिशा में ले जायेंगे, इसका सही पता तो कुछ बरसों बाद ही मिल पायेगा। हाल-फिलहाल इसके प्रतिकार की भी कोई सुगबुगाहट नज़र तो नही आ रही।
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मनोज कुलकर्णी जी का आलेख काफी अच्छा लगा। भारत के कला जगत एक वस्तुपरक मूल्यांकन करता , विभिन्न पड़ावों की समीक्षा करता बढ़िया लेख है। हिंदी में कला पर ऐसे आलेख लिखने वाले बहुत कम हैं। उन्हें बधाई।
काफी पहले ‘नया पथ’ ने चित्रकला का एक संग्रहणीय और यादगार विशेषांक निकाला था।
बहुत उम्दा आलेख है