सीमा सिंह की यह कविता-शृंखला एक परिघटना को कविता में संबोधित करने का असाधारण उदाहरण है। वे ‘नया पथ’ में पहले भी छपकर प्रशंसित हो चुकी हैं। उनकी कविताएं बहुमत , वागर्थ, पाखी, उदभावना, दोआबा, कविता बिहान, समावर्तन, पोषम पा, समालोचन, अनुनाद, समकालीन जनमत, संडे नवजीवन आदि पत्रिकाओं, ई पत्रिकाओं और ब्लॉग में प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘कितनी कम जगहें हैं’ कविता संग्रह सेतु प्रकाशन से प्रकाशित।
1.
तुम्हारी देह से आगे कोई शब्द ही नहीं मिला
जिसकी ताप इतनी तेज़ होती कि जला देती
समय के वृक्ष पर उग आये फफूंद
सब एकटक तुम्हें ही देख रहे थे
जिनके हाथों में समय को दर्ज करने का था हौसला
आंखों में थी थोड़ी बेईमानी भी
वे चोर निगाहों से तुम्हारे इनस्टा अकाउंट के
चक्कर लगाते और मन ही मन चाहते
तुम यूं ही नंगे बदन समय की भट्ठी पर चढ़ कर
उनकी आंखों की चमक बनाये रखो
क्या बताऊं उर्फी जावेद तुम क्या हो
तुम साहित्य की दुनिया में आयी कोई ताज़ा
हवा का झोंका हो, जिसने एक ही झटके में
उतार दिये हैं सबके कपड़े
इस हमाम में तुम अकेली निवस्त्र नहीं हो उर्फी जावेद
बल्कि तुम तो हो ही नहीं इस कतार में !
2.
तुम अपने ही फेंके जाल में उलझ कर
लड़खड़ा रही हो
पानी के बाहर कोई नहीं जो तुम्हें सहारा देगा
बल्कि धक्का देने वालों को तुम ज़रूर
खींच सकती हो पानी के भीतर
जिस अंधेरे से निकल कर तुम यहां पहुंची हो
यह उससे अधिक काला है
तुम भ्रम में हो अभी कि तुमने खोज ली है कोई दिशा
कोई रास्ता कोई मंज़िल कोई सफ़ेद कॉलर
यह सब तुम्हारी देह की तरह ही झूठ है उर्फी जावेद
तुम्हें लगता है कि पा ली तुमने अपने हिस्से की जगह
जहां और कोई नहीं सिवा तुम्हारे
तुम्हारी आवाज़ तुम्हारी बात तुम्हारे शब्द तुम्हारी कहानी
पर सच कहूं किसी को नहीं दिलचस्पी
तुम्हारे इस वायवीय स्वप्न में
जानती तो तुम भी हो बस मान नहीं रही
तुम एक लम्बे सपने की यात्रा पर हो
जिसमें इच्छाएं नहीं पानी के बुलबुले भरे हैं
जिस दिन टकरायेगा कोई धूमकेतु
सपना टूट कर बिखर जायेगा
क्या जाने तुम भी उर्फी जावेद !
3.
जिस क्षण लगे कि बस हो गया
उसी क्षण छोड़ कर चल देना सब
तुम किसी तिलिस्मी खोह में फंस कर
वहां से देख रही हो दुनिया को
सब कुछ पा लेना और कहना कि देखो
मेरी सांसों को मिल गयी हैं आंखें
मैं देख रही हूं सबकुछ बाहर भी भीतर भी
तुमने एक तवील सफर की शुरुआत
किसी जाड़े की रात में शुरू की थी
जहां धुंध और कोहरे के सिवा कोई साथ नहीं
तुम जानती थी कोई सफ़र किसी और के सहारे
नहीं पार किया जाता
पगडंडियां सीधी नहीं होती कांटे भी होते हैं उन पर
कभी कभी नंगे पैरों में धंस जाते हैं भीतर तक
यह ज़रूरी नहीं कि हर चोट दिखायी ही दे
पैरों से रिसता लहू जम कर गाढ़ा हो जाता है
तुम भी तो जम ही गयी हो किसी उलझी फैंटेसी की तरह !
4.
कितनी रातें तुमने गुज़ारी हैं जाग कर
भीतर की उदासी सालती भी होगी कभी कभी
पीछे छूट गया जीवन छूट ही जाता है एक दिन
आख़िर कब तक उसके भार से झुके रहते कंधे
यह दुनिया जादू की झप्पी नहीं है
कि लगा लेती गले से और कहती
भूल जाओ जिस्म पर खरोचें गये नाख़ून
भूल जाओ भीतर उग आये बबूल और उसके कांटे
उसने मरहम कभी नहीं लगाया तुम्हारी उधड़ी देह पर
हां नंगी निगाहों से देखा ज़रूर, इतना देखा
कि तुम देखने की आदत बन गयी उर्फी जावेद
क्या तुम नहीं जानती कि ये वही
सदियों पुराना दरबा है
जिसकी सलाखें चाहती हैं तुम्हें देखना
हमेशा भीतर ही
क्या तुम नहीं जानती कि जिस उजाले की बात
तुम कर रही हो वह सय्याद की अय्यारी है
तुम्हें अपने ही बनाये तिलिस्म में फंसाये रखने की
निकल आओ कि इससे पहले
उसका चाकू तुम्हारी गर्दन पर चल ही जाये !
5.
तुम एक अंधेरे समय से निकल कर
दूसरे अंधेरे समय में आ गयी हो
जहां तुम्हारी उपस्थिति का अर्थ खो गया है
तुम किन बियाबान में भटक रही हो उर्फी जावेद
जहां स्याह कांटे ही कांटे हैं
तुम्हारी देह पर उभर आये हैं उनके निशान
वे अपनी फ़ितरत से गुरेज़ नहीं करते ज़रा
कितना भी बचाओगी खुद को, पर उनका चुभना तय है
लौट नहीं सकती तो ठहर ही जाओ
कोई रास्ता कोई गली कोई नुक्कड़
सुन लेगा तुम्हारी भी भटकी आवाज़
क्या जाने तुम यहां से बदल सको कोई दृश्य ।
bisenseemasingh@gmail.com
Admirable lines
Applause
Lovely
Very nice
सीमा जी खूब लिखा है। साहित्य में उर्फी को विषय बनाना ठीक नहीं, नकारा जाना चाहिए। मुझे यह विषय उचित नहीं लगा।
Badhiyaa. (Got the link sent by Samina)
-Avinash
वाह, कितना सच्चा और अच्छा लिखा आपने
गहरी संवेदना और पैनी समझ की जमीन पर, एक बेहद ज़रूरी कविता रची है। उन्हें बधाई!
इन कविताओं को पढ़ते हुए मुझे याद आया कि पॉपुलर कल्चर के बारे में साहित्य में जो अबतक लिखा गया है उसमें अबतक सबसे अधिक महत्वपूर्ण मुझे लगा है गाब्रिएल गार्सीया मारकेज़ का पॉप गायिका शकीरा पर लिखा एक आलेख जो 2002 के किसी महीने में अंग्रेज़ी अख़बार ‘द गार्जियन’ में प्रकाशित हुआ था। उस आलेख के माध्यम से हम शकीरा की सार्वजनिक वृत्त में प्रसारित छवि से इतर उसके आंतरिक व्यक्तित्व के बारे में मानीखेज बातें पहली बार जान पाए थे। गाबो उस लेख में बताते हैं कि कैसे शकीरा ने मासूम सेन्सुअलिटी का अपना एक ब्रान्ड बना लिया है और यह भी कि वह एकसाथ बुद्धिमान, असुरक्षित, शालीन, मधुर, आक्रामक और सघन होते हुए अपने पेशे के चरम पर पहुंच चुकने के बाद भी एक साधारण लड़की भर है। मेरे लिए यह हमेशा दिलचस्प रहा है कि यथार्थ की इन नई लोकप्रिय-वर्जित परिघटनाओं को साहित्य किस तरह देखता है। उर्फी जावेद ऐसी ही परिघटना है, वह भले ही ‘एक जमी हुई उलझी फैन्टेसी’ हो लेकिन वह अपनी उपस्थिति से असुविधा में डालती है, न केवल भद्र मध्यवर्गीय मन को बल्कि प्रगतिशील साहित्यिक चेतना को भी। उसका रास्ता प्रशंसनीय न होते हुए भी न केवल गहरे विश्लेषण की मांग करता है बल्कि एक तुलनात्मक अध्ययन की भी कि समकालीन समाज में मौजूद बौद्धिक नग्नता के बरअक्स उर्फी जावेद की देह के माध्यम से की जा रही अभिव्यक्तियाँ (या उसके प्रयोग) किन सांस्कृतिक विचलनों की परिणति हैं। पॉपुलर कल्चर के यथार्थ को साहित्य में जगह देते हुए इस विषय में विमर्श की संभावनाओं को आगे बढ़ाने के लिए सीमा सिंह जी को इन अच्छी कविताओं के लिए धन्यवाद।
सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक नज़रिए के साथ हालात की अक्कासी करती रचनाएं।
उर्फ़ी जावेद को केंद्र में रखकर लिखी गईं ये कविताएँ इस बात की भी पड़ताल करती हुई नज़र आती हैं कि आज का स्त्रीवाद किस तरह देह और बाजार की जकड़बंदी में गिरफ़्त होता जा रहा..सीमा को बधाई कि उन्होंने इसे अपनी कविताओं का विषय बनाया.. अपने शिल्प और कहन में भी ये कविताएँ बेहतरीन हैं