बाबासाहेब आंबेडकर की दृष्टि में हिंदू धर्म और धर्मांतरण / रतन लाल


‘धर्मांतरण : आंबेडकर की धम्म यात्रा’ बाबासाहेब आंबेडकर के धर्मांतरण संबंधी लेखन और भाषणों का संकलन है। इसे संपादित किया है इतिहासकार और सामाजिक कार्यकर्त्ता डॉ. रतन लाल ने। संकलन के लिए पचास पृष्ठों की विस्तृत भूमिका भी उन्होंने लिखी है जो आंबेडकर के धर्मांतरण संबंधी चिंतन का निचोड़ पेश करता है। आइए, पढ़ते हैं भूमिका का एक अंश!

भारत में सदियों से धर्मांतरण होता रहा है। लेकिन बीसवीं सदी में यह एक व्यापक धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक मुद्दा बना और इसके प्रतीक बने आंबेडकर, जब उन्होंने हिंदू धर्म छोड़ने की घोषणा की। अभी हाल के दिनों में भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथ के उभार के साथ उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में धर्मांतरण विरोधी कड़े कानून बने हैं और धर्मांतरण को दंडनीय अपराध बनाया गया है। यदि कोई अन्य धर्म से हिंदू धर्म में धर्मान्तरित हो तो वह ‘घर-वापसी’ है, लेकिन हिंदू से किसी अन्य धर्म में जाने पर एक कठिन प्रशासनिक प्रक्रिया से गुज़रना अनिवार्य कर दिया गया है। इसके अलावा छोटी-छोटी बातों पर एक जाति/समुदाय विशेष की भावनाएँ छुई-मुई की तरह आहत होती रहती हैं। ऐसी स्थिति में हिंदू धर्म और धर्मांतरण के सन्दर्भ में आंबेडकर को पढ़ना और समझना अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है।

आंबेडकर विविध विषयों पर ख़ूब लिखते और बोलते थे। विविध विषयों पर उनके लेखन, व्याख्यान, ज्ञापन, साक्षात्कार तक़रीबन पंद्रह हज़ार पृष्ठों के स्थूलकाय खण्डों में प्रकाशित हैं (इंग्लिश में 17 वॉल्यूम, एक अन्य वॉल्यूम आंबेडकर के पत्रों का संकलन है, हिंदी में पत्रों वाले संकलन को छोड़कर कर 40 वॉल्यूम)।  ये इतने विस्तृत और विखंडित हैं कि एक आम पाठक के लिए एक ही विषय पर एक ही जगह सभी सामग्री प्राप्त करना मुश्किल है। एक ही विषय पर उनके विद्वत शोध भी हैं, आम लोगों के बीच दिये गये व्याख्यान भी हैं और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेख भी। हिंदू धर्म की उनकी कटु आलोचना और बौद्ध धर्म में उनके धर्मांतरण की प्रक्रिया ऐसा ही विषय है। प्रस्तुत संकलन में 1920 से लेकर 1956 तक धर्मांतरण के सन्दर्भ में आंबेडकर के व्याख्यानों के साथ-साथ ज्ञापन, साक्षात्कार, लेख आदि को शामिल किया गया है, जिससे साढ़े तीन दशक में धर्म को लेकर उनके विचारों की ऐतिहासिक यात्रा को रेखांकित किया जा सके और यह समझने की कोशिश की जा सके कि धर्म और धर्मांतरण जैसे गूढ़ विषय पर वे अपने श्रोताओं (अस्पृश्य, अधिकांश अशिक्षित) से कैसे संवाद स्थापित करते थे। आंबेडकर की धर्मांतरण सम्बन्धी गतिविधियों के भौगोलिक क्षेत्र की मैपिंग की जाए तो उसमें महाराष्ट्र से लेकर उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मद्रास, कर्नाटक, बर्मा, लंका, नेपाल आदि क्षेत्र शामिल हैं।

आंबेडकर के श्रोता, उनके दर्शक, उनका कार्य समूह और उनकी प्रमुख चिंता का विषय अछूत समुदाय ही था। आंबेडकर ने 1916 में (25 वर्ष की आयु में) कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अपना पहला मौलिक निबंध जाति विषय पर लिखा (Caste in India: Their Mechanism, Genesis and Development), जिसके अनुसार जाति की तुलना वर्ग या नस्ल से नहीं की जा सकती, यह अपने आप में एक अनोखी सामाजिक श्रेणी है – एक बंद काल-कोठरी, एक सजातीय विवाही वर्ग।1 एक अन्य अवसर पर उन्होंने इसका वर्णन इस प्रकार किया, “एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जितना ऊपर जाएँ उतना मान-सम्मान है, जितना नीचे खिसकें उतनी घृणा अपमान।”2 1919 में आंबेडकर ने चुनाव सुधारों की साउथबरो समिति के समक्ष एक लिखित गवाही प्रस्तुत की थी। यह उनका पहला आधिकारिक ज्ञापन था। आंबेडकर का तर्क था कि अछूत समुदाय मुस्लिम, ईसाई और सिक्ख की तरह सछूतों से एक पृथक सामाजिक समूह है…ब्रिटिश सरकार ने उस समय आंबेडकर के लिखित गवाही पर कोई ख़ास तवज्जो तो नहीं दी, लेकिन उनकी यह प्रस्तुति दस वर्ष बाद, 1930 में पहले गोलमेज़ सम्मलेन में उनके निमंत्रण का आधार बन गयी।3 मूकनायक के अपने पहले सम्पादकीय में भी उन्होंने जाति की व्याख्या एक बंद सीढ़ीविहीन बहुमंजिला के रूप में की।

बहरहाल, आंबेडकर ने हिंदू धर्म छोड़ने की घोषणा 1935 में की और 1956 में बौद्ध बने। लेकिन यह प्रक्रिया 1920 में ही शुरू हो गयी थी। मार्च 1920 की माणगाँव में शाहूजी महाराज के साथ मंच साझा करते हुए अपने भाषण में उन्होंने हिंदू धर्म पर गंभीर सवाल उठाये और कहा, “जन्म आधारित श्रेष्ठता और पवित्रता के कारण गुणहीन ब्राह्मणों का भी कल्याण हुआ और गैर-ब्राह्मणों पर जन्म आधारित अयोग्यता और अपवित्रता के कारण गाज गिरी हुई है। उनके पास विद्या नहीं है, इसलिए वे पिछड़ गये हैं। फिर भी विद्या और धन हासिल करने के रस्ते उनके लिए खुले हुए हैं… हमारे बहिष्कृत वर्ग की स्थिति बहुत चिंताजनक हो गयी है। लम्बे समय से अयोग्य और अपवित्र माने जाने के कारण प्रगति के दो महत्वपूर्ण कारण, नैतिक आत्मबल और स्वाभिमान बिलकुल लुप्त हो गये हैं।”4 हालाँकि इस सभा में उन्होंने धर्मांतरण की बात नहीं की, फिर भी गाँव के कुलकर्णी, तलाठी लोगों ने अस्पृश्यों में यह बात फैला दी कि सभा धर्मान्तरित लोगों की है और उसके अध्यक्ष भी धर्मान्तरित हैं। इस अफवाह की वजह से सभा में ज्यादा भीड़ इकट्ठा नहीं हो पायी।

आंबेडकर ने धर्मांतरण की अनौपचारिक घोषणा मई 1924 में सोलापुर जिले के बार्शी में हुए बम्बई प्रांतीय बहिष्कृत सम्मेलन में की। अस्पृश्यों की तुलना रोम और यूनान के दासों से करते हुए उन्होंने कहा, “..रोम का इतिहास इस बात की गवाही देता है कि गुलाम लोग गुलामी से मुक्त होकर स्वतंत्र नागरिक की स्थिति में जा पहुँचे, मगर भारत के इतिहास में अस्पृश्यों से स्पृश्य बनने का एक भी उदाहरण नहीं दिखायी देता। रोमन समाज की गुलामी की प्रथा, एक काल विशेष की स्थिति थी, उससे छुटकारा पाने के कई रास्ते थे। इसके विपरीत अस्पृश्यता त्रिकालबाधित स्थिति है और उससे मुक्ति का कोई रास्ता नहीं है।”5 अर्थात् किसी भी काल में इसकी समाप्ति की कोई गुंजाईश नहीं है। अस्पृश्यों की मुक्ति के लिए उन्होंने तीन मार्ग सुझाये: देशांतर, धर्मांतरण, नामांतर। देशांतर की सीमाओं से आंबेडकर परिचित थे क्योंकि सबके लिए यह संभव नहीं था। इसलिए उन्होंने इस देश में रह कर भी अस्पृश्यता निर्मूलन के रास्ते खोजने की वकालत की। दूसरे विकल्प के रूप में उन्होंने धर्मांतरण की बात की और अस्पृश्यों के लिए इस्लाम धर्म को स्वीकार करना अच्छा विकल्प बताया। नामांतर के सम्बन्ध में आंबेडकर ने यूटोपियाई आदर्श प्रस्तुत किया। मसलन, सभी जाति के लोगों को अपने जातिवाचक नाम छोड़कर एक ही सर्वसाधारण नाम – हिंदू – अपनाना चाहिए।6 लेकिन आज की वैश्विक परिस्थिति पर ध्यान दिया जाय तो देशांतर, धर्मांतरण, नामांतर किसी से जातीय दमन और भेदभाव में कमी नहीं आ रही, यह अब वैश्विक समस्या बन गई है।

1920 के दशक में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों के सन्दर्भ में आंबेडकर ने 1925 के तेलगु समाचार संक्रांति विशेषांक में एक महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित किया – ‘जाति और धर्मांतरण’।7  मोपला विद्रोह को संदर्भित करते हुए उन्होंने लिखा कि यहाँ तक कि हिन्दू मुस्लिम दंगों में यह प्रमाणित हो गया कि हिन्दुओं ने मुसलमानों से वहाँ ही मार नहीं खायी जहाँ वे संख्या बल में कमज़ोर थे, वरन वहाँ भी मार खायी जहाँ वे बहुत बड़ी तादाद में थे। जाति-व्यवस्था को इसकी वजह मानते हुए उन्होंने लिखा कि जितनी अधिक जातियाँ होंगी, उतनी ही अधिक एकांतिकता होगी और हिन्दू समाज में उतनी ही अधिक कमजोरी होगी। यदि हिन्दू समाज जीवित रहना चाहता है तो उसे अपनी संख्या बढ़ाने पर नहीं सोचना चाहिए, वरन उसे अपनी सघनता बढ़ाने पर सोचना चाहिए, जिसका अर्थ है जातियों को समाप्त करना। जाति का विनाश प्रकाशित करने से पूर्व आंबेडकर का यह महत्वपूर्ण बयान है, यहाँ वे जाति के विनाश की नहीं बल्कि जातीय एकता की बात कर रहे थे। अस्पृश्यता और धर्मांतरण की स्वाभाविक प्रक्रिया को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा, “मुसलमानों के सौभाग्य से, सात करोड़ के लगभग ऐसे लोग हैं जो एक बहुत बड़ा समुदाय है, जो कि किसी गिनती में ही नहीं, जो कि हिन्दू कहे जाते हैं, किंतु उनका हिन्दू धर्म से कोई जुड़ाव नहीं है, और उनकी हालत इतनी असह्य बना दी गयी है कि उन्हें आसानी से इस्लाम स्वीकार करने के लिए राज़ी किया जा सकता है। इनमें से कुछ इस्लाम में चले गये हैं तथा और भी अधिक अभी जाने वाले हैं।”8 हालाँकि 1927 में महाड़ आंदोलन के दौरान अछूतों पर हिंसक हमले के बाद उन्होंने कहा कि इस्लाम स्वीकार करने के बाद हम बाज़ी पलट सकते हैं, लेकिन इस्लाम के सन्दर्भ में अपने सुझाव को बढ़ावा देने या खुद इसका पालन करने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया।

धर्मांतरण का पहला आधिकारिक प्रस्ताव आंबेडकर की अध्यक्षता में 29 मई 1929 मध्यप्रांत और वर्हाड अस्पृश्य परिषद के सम्मेलन में पारित हुआ। हालाँकि यह तय नहीं हुआ कि कौन सा धर्म अपनाया जाय।9 आंबेडकर ने कुछ वर्षों तक धर्मांतरण की बात नहीं की। पूना समझौते पर हस्ताक्षर करने के दो साल बाद 1934 में वे धर्म परिवर्तन के विकल्प पर लौटे।10 येवला घोषणा से पहले कई ऐसी घटनाएँ हुई जिन्होंने येवला घोषणा की पृष्ठभूमि का निर्माण किया। महाड़ आंदोलन  (20 मार्च 1927) और कालाराम मंदिर प्रवेश (1930) आंदोलन के ज़रिये आंबेडकर ने यह साबित करने का प्रयास किया कि अस्पृश्य हिंदू नहीं है, जिसकी अभिव्यक्ति पहले और दूसरे गोलमेज़ सम्मलेन (नवंबर 1930- दिसंबर 1931) में हुई। आंबेडकर ने दृढ़ता से अस्पृश्यों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की माँग की। अगस्त 1932 में कम्युनल अवार्ड की घोषणा हुई, अस्पृश्यों के पृथक निर्वाचन क्षेत्र की माँग को स्वीकारा गया, सितम्बर 1932 में यरवदा जेल में गाँधी का आमरण अनशन, और अंततः पूना समझौता। इस दौरान भारत में अपूर्व राजनीतिक हलचल रही। आंबेडकर को द्रेशद्रोही, देश के लिए घातक, हिंदू धर्म विघातक तथा हिंदू-हिंदू में फूट डालने वाला इत्यादि कहा गया और धमकियाँ भी दी गयीं।11

आंबेडकर को अस्पृश्यों की मुक्ति के लिए कई मोर्चों पर एक साथ लड़ना था। पूना पैक्ट से मिले राजनीतिक अधिकार को सुरक्षित भी करना था और अस्पृश्यों को हिंदू धर्म के दायरे से, अन्धविश्वास और पाखंड से बाहर भी निकलना था। ज़ाहिर है, इसके लिए उन्हें सचेत ‘सेना’ और ‘सेनापतियों’ की भी ज़रूरत थी और लोगों को सतर्क और जागरूक भी करना था। आंबेडकर का प्राथमिक जनाधार और श्रोता उनका अपना अस्पृश्य समाज था। पूना पैक्ट और येवला अधिवेशन के बीच आंबेडकर ने अस्पृश्यों की कई सभाएँ कीं।12 अस्पृश्यों और ख़ासतौर पर महारों के बीच दिये गये इन भाषणों पर नज़र डालें तो आंबेडकर यहाँ एक शिक्षक के रूप में नज़र आते हैं। बिना आक्रोश किए वे अपने लोगों को समझा रहे थे। सबसे पहले उन्होंने अपने ऊपर लगे आरोपों का जवाब दिया, “पिछले सौ सालों से सुधारक हो या दुर्धारक, उग्रवादी हों या उदारवादी, राष्ट्र के नाम पर अपनी जाति के लोगों का पेट पाला जा रहा है। उन लोगों ने मेरे समाज के लिए कुछ भी नहीं किया है। फिर वे मुझ से ही राष्ट्र के कार्य की उम्मीद क्यों करते हैं? मुझे अपने समाज की सेवा करनी चाहिए। महाड़, नासिक और अन्य जगहों पर हुए सत्याग्रहों से मुझे यक़ीन हो चला है कि हिंदू लोगों के अंत:करण पत्थर-गारे से बनी दीवार की तरह मुर्दा हैं। वे इंसान को इंसान समझना, दूसरों को उनके हक़ देना ज़रूरी नहीं समझते। पत्थर की दीवार पर सिर पटकेंगे तो खून हीं निकलेगा। दीवार की कठोरता कम नहीं होगी। इसीलिए इस बारे में मेरा पूरी तरह मत परिवर्तन हो चुका है।”13 आंबेडकर सार्वजानिक रूप से गाँधी की आलोचना नहीं करना कहते थे। उन्होंने पूना करार को अस्पृश्यों के जीवन का एक अविस्मरणीय प्रसंग मानकर कर उसे सामाजिक क्रांति कहा और अपने श्रोताओं से बार-बार मंदिर प्रवेश और भाग्य का फल जैसी मूर्ख आत्मवंचक कल्पनाओं से बचने की अपील की। उन्होंने अपने श्रोताओं को सचेत किया कि अपने कष्टों से उबरने के लिए भाग्य, भगवान, अवतार, आडम्बर, अन्धविश्वास एवं पाखंड से दूर हो राजनीति और क़ानून बनाने की शक्ति पर ज़्यादा ज़ोर दें और शिक्षा तथा अपनी आर्थिक उन्नति पर ज़्यादा ध्यान दें।

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संदर्भ 

  1. अरुंधती रॉय. एक था डॉक्टर एक था संत, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019, पृष्ठ 95-96.
  2. वही, पृष्ठ 19.
  3. वही, पृष्ठ 101-102.
  4. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 38, पृष्ठ 2.
  5. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 38, पृष्ठ 13.
  6. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 38, पृष्ठ 15.
  7. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 10, पृष्ठ 356.
  8. वही.
  9. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 38, पृष्ठ. 165-66.
  10. अशोक गोपाल. अ पार्ट अपार्ट द लाइफ एंड थॉट ऑफ़ बी. आर. आंबेडकर, नवयान पब्लिशिंग, नई दिल्ली, 2023, पृष्ठ 488.
  11. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 38, पृष्ठ.289-90
  12. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 38, पृष्ठ.289-90, बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 38, पृष्ठ. 354-57, बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 38, पृष्ठ. 363-364, बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 38, पृष्ठ.375-80, बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 38, पृष्ठ 403-412.
  13. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 38, पृष्ठ.290.

धर्मांतरण : आंबेडकर की धम्म यात्रा, लेखक : डॉ. भीमराव आंबेडकर, संकलन एवं भूमिका : रतन लाल, प्रस्तावना : कृष्ण मोहन श्रीमाली, प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या : 558, क़ीमत : रु. 650 (अजिल्द) 


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