दास्तान-ए-वैशाली : उत्तरोत्तरकांड / संजीव कुमार


सन 2000 में इन पंक्तियों के लेखक ने अपने बचपन के मुहल्ले में एक सिनेमा हॉल के बनने और बंद होने का संस्मरण लिखा था–‘मनस्चलंतिका टीका के मटमैले पर्दे पर दास्तान-ए-वैशाली’। 2011 में उसका उत्तरकांड लिखा गया। और 2022 में यह उत्तरोत्तर कांड। मूल दास्तान और उसका उत्तरकांड पढ़ना चाहें तो यहां पढ़ सकते हैं। -सं. कु. 

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मध्य रात्रि, 13-14 जून, 2022। राजा बाज़ार, पटना।

7 गुना 8 फुट का कमरा है। एक थोड़े बड़े बक्से जैसा। खिड़की, रौशनदान कुछ नहीं। बत्तियां बुझा देने के बाद हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा।

यों अंधेरा भी एक नेमत है। कमरे की बदसूरती उसमें गुम हो गयी है। अलबत्ता वह बंद हवा की बास का कुछ नहीं बिगाड़ सकता। और इस अहसास का भी जिस चादर पर लेटा हूं, वह भले ही ड्राइक्लीन्ड होने के दावे के साथ कुछ देर पहले मेरे सामने बिछायी गयी हो, उस पर पड़े दाग़-धब्बों की दावेदारी कहीं ज़्यादा मज़बूत है।

खैरियत है, एक एसी है। वह अगर पौवा नहीं तो अधिक-से-अधिक अद्धा क्षमता पर काम कर रहा है, पर कमरे के आकार के हिसाब से इतना भी काफ़ी है।

घुप्प अंधेरे में लेटा हुआ मैं अदृश्य छत को ताक रहा हूं।

तो आज यह भी होना था! यह शहर जिसे मैं ‘अपना’ मानता हूं, जहां मैंने पैदाइश से लेकर भरपूर जवानी तक का समय बिताया, इस शहर में मुझे एक रात होटल में भी गुज़ारनी थी। और वह भी ऐसे होटल में जहां जी भर कर अंगड़ाई लो तो हाथ-पैर दीवारों से अड़ने लगते हैं।

शहर को अपना मानने का मुग़ालता तो दिन में ही टूट गया था। होटल में रात बिताने की मजबूरी ने आकर जैसे उस पर मुहर लगा दी।

बीते दिन की सुबह मैं एक पारिवारिक काम से बेगूसराय पहुंचा था। एक दिन रहकर अगले दिन पटना से दिल्ली की फ्लाइट लेनी थी। मैंने रात साढ़े नौ बजे की टिकट बुक की। योजना यह थी कि सुबह बेगूसराय से पटना के लिए निकल लूंगा। 12-1 बजे तक राजेंद्र नगर टर्मिनल पर ट्रेन छोड़कर सबसे पहले भूतपूर्व वैशाली सिनेमा वाली जगह पर जाऊंगा। यह तो विपिन ने बहुत पहले बता दिया था कि अब वहां इमारत के भग्नावशेष भी नहीं हैं, एक मॉल बनने जा रहा है। बस, देखना चाहता था कि वह जगह अब कैसी दिखती है। क्या मॉल में उस जगह के अतीत की कोई निशानी शेष रह गयी है?  क्या मल्टीप्लेक्स ने अपने पुरखे की कुछ यादें संजोयी हैं? क्या यह मुमकिन है कि वैशाली की कोई पुरानी फ़ोटो कहीं दिख जाये और मैं अपने मोबाइल फ़ोन में उस फोटो की एक फोटो चुरा लाऊं?

वैशाली अनुसंधान के बाद अपने पुराने मुहल्ले में, जहां मुझे पहचानने वाला कोई न था, थोड़ा भटकना था। फिर शाम के 7:30 बजे तक पटना एयरपोर्ट पहुंच जाना था जहां से 9:30 बजे दिल्ली के लिए फ्लाइट लेनी थी।

राजेंद्र नगर टर्मिनल, वैशाली सिनेमा, राजेंद्र नगर का रोड नंबर 1 और तिकोनिया पार्क का घेरा—इन सबको मिलाकर जितना दायरा बनता है, उसे जानने वाला कोई भी व्यक्ति कहेगा कि अरे, इसके लिए 5-6 घंटे का समय हाथ में रखने की क्या ज़रूरत?

अब तो मैं भी यह जानता हूं—क्या ज़रूरत? पर जिस समय योजना बनायी थी, उस समय जाने कैसे लग रहा था कि एकदम भागम-भाग वाला शेड्यूल है। अगर ट्रेन पहुंचने में थोड़ी देर हो गयी तो शायद अपनी योजना का मुहल्ले में घूमने वाला हिस्सा अगली बार के लिए मुल्तवी करना पड़ेगा।

मेरा हिसाब-किताब इतना कमज़ोर नहीं है। कितने बजे तैयार होना शुरू करेंगे तो कितने बजे निकल पाएंगे, और अंततः कितने बजे पहुंचेंगे—अपने परिवार में इस तरह के अनुमान लगाने का विशेषज्ञ माना जाता हूं। इस बार विशेषज्ञता किस बिल में घुस गयी, पता नहीं! खैर!

आज सुबह 9 बजे मैंने बेगूसराय से पटना के लिए राज रानी एक्स्प्रेस पकड़ी। जिन्होंने ट्रेन पकड़ाई, उन्होंने आग्रह भी किया था कि 2-3 बजे के बीच वे अपनी कार से पटना जाने वाले हैं, मैं उनके साथ ही चल चलूं। तीन-साढ़े तीन घंटे का रास्ता है, सात बजे से पहले एयरपोर्ट पहुंचने में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं। पर मैंने पटना में कुछ ज़रूरी काम होने का बहाना किया। काम क्या है, यह नहीं बताया। बता देता तो उसका ‘ज़रूरी’ होना भी तो साबित करना पड़ता?

बहरहाल, राज रानी में बैठने की जगह नहीं मिली, पर आराम से पीठ टेककर खड़े रहने का जुगाड़ हो गया। गर्मी और उमस भयंकर थी। ट्रेन चली तो हवा के झोंकों से थोड़ी राहत मिली। बख्तियारपुर पहुंचने पर लगा, चलो आधा रास्ता कट गया, आधा और कट ही जायेगा। प्लेटफ़ॉर्म से पानी और कुछ खाने का सामान ख़रीदने की इच्छा हुई, पर यह सोचकर छोड़ दिया कि यहां रुकने का समय बमुश्किल एक-दो मिनट होगा। जब पांच मिनट गुज़र गये तो अफ़सोस होने लगा—इससे अच्छा तो ख़रीद ही लाते। दस मिनट गुज़रने पर अफ़सोस और बढ़ा, पर नीचे उतरने की हिम्मत भी बढ़ी। उतरकर ताज़ा समाचार यह मिला कि ट्रेन में कुछ समस्या है, जिसका निवारण होने में दसेक मिनट और लगेंगे। समय गुज़रने लगा। आधा घंटा, पौना घंटा… जब एक घंटा हो गया तब घोषणा कर दी गयी कि ट्रेन अब आगे नहीं जा पायेगी। इंजन में कोई गड़बड़ी है जो तत्काल ठीक नहीं हो सकती। पीछे से आती किसी ट्रेन का विकल्प दिया गया, पर ज़्यादातर यात्रियों ने उसे भरोसे के लायक़ नहीं माना। 12 बज चुके थे, इसलिए मेरे सामने भी उनकी राय को मानने के अलावा कोई उपाय नहीं था। शाम तक पटना पहुंचने से क्या फायदा! किसी से पूछा कि पटना के लिए बस मिल जायेगी? उसने कहा, हां, फोर्लेन तक चले जाइए, वहाँ से मिल जायेगी।

अब ये फोर्लेन क्या है?

स्टेशन से बाहर निकलकर एक दुकान से गुटखा लिया और पूछा कि फोर्लेन तक जाने का क्या उपाय है?

‘ई वाला टोटो पकड़ लीजिए न! फोर्लेन जायेगा,’ उसने कहा।

टोटो मतलब ई-रिक्शा। ऑटो का छोटा भाई। मैं बैठ गया। 10 रुपये में फोर्लेन । अब जाकर रहस्य खुला। यह फ़ोर  लेन वाली शानदार हाइवे है। पीछे बिहार शरीफ़ की तरफ़ से आती है और पटना को जाती है। उसके कोने पर कुछ देर इंतज़ार करने के बाद एक बस मिली। सामने बड़े हुरूफ़ में लिखा था, ‘एसी कोच’। चिलकती धूप और उमस के बीच यह किसी वरदान की तरह लगा। लपक कर अंदर गया। अंदर जाने पर पता चला कि एसी तो बमुश्किल अपनी चौथाई क्षमता पर कूंथ रहा है, और बैठने की जगह के नाम पर दोनों तरफ़ की कतारों के बीच वाली जगह पर टिकायी गयी बेंच है। बैठ गया। उपाय क्या था? कंडक्टर ने अस्सी रुपये लिये। मैंने कहा, यार, बड़ी गर्मी है। इससे अच्छा तो खिड़कियां खोल दो। कंडक्टर बोला, ‘एसी है न, सर! इसमें खिड़की थोड़े खोला जाता है!’ ‘पर एसी चले भी तो?’ मैंने कहा। ‘फुल चल रहा है, सर। गरमिए एतना है, का कीजिएगा!’ कंडक्टर ने आगे बढ़ते हुए कहा। मैं हार मानकर चुप हो गया।

लेकिन आगे की सवारियों को हैंडल करना उसके लिए इतना आसान न था। मुझसे दो सवारियां छोड़कर जो युवक बैठा हुआ था, उसने अस्सी की जगह बीस रुपये दिये और घोषणा कर दी कि एसी काम नहीं कर रहा है, सीट के नाम पर लकड़ी का बेंच मिला है, इसलिए बीस रुपया से एक पैसा ज़्यादा नहीं। रखना है त रखो, नहीं त झाल बजाओ। उसके कहने के अंदाज़ में कुछ ऐसा था कि कंडक्टर एकदम से औक़ात में आ गया। ‘हमको भी आगे जबाब देना पड़ता है। मालिक हिसाब नहीं लेगा? ऐसे मत कीजिए।’ ‘मलिकवा सीट का हिसाब लेगा कि बेंच का, रे? उससे बोलो, एसी ठीक करवाए।’

इस तरह के संवाद चलते रहे और कोई घंटे-डेढ़ घंटे में हम पटना के गुलज़ारबाग़ वाले छोर पर पहुंच गये। मैंने कंडक्टर से कहा कि मुझे राजेंद्र नगर टर्मिनल के पास उतार देना। वह बोला, ‘कहां, सर! यहीं उतरना पड़ेगा। अब बस को इससे आगे घुसने का परमिसन नहीं है।’

मतलब यह कि अभी वैशाली तक पहुंचने के मेरे धैर्य की परीक्षा ख़त्म नहीं हुई है। ट्रेन के बाद टोटो, टोटो के बाद बस, और अब बस के बाद फिर ऑटो या टोटो। मैंने पता किया। एक शेयरिंग वाला ऑटो मिल गया। उसे मैंने समझाया कि टर्मिनल के बाद रेलवे लाइन की दूसरी तरफ़ राजेंद्र नगर के लिए जो सड़क जा रही है, उधर जाना है। उसी कोने पर उतार दे। बंदा समझदार था। उसने ठीक उस जगह उतारा जहां से सड़क पार करके कुछ सीढ़ियां चढ़ने उतरने के बाद मैं राजेंद्र नगर ओवर ब्रिज के नीचे वैशाली की सड़क पर था।

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ओवर ब्रिज के नीचे की दुनिया आश्चर्यजनक रूप से ज्यों-की-त्यों थी। जैसी छोड़ गया था, हू-ब-हू वैसी। बीच-बीच में मैं पटना आता रहा था, पर इस हिस्से को तीसेक साल बाद देख रहा था। अभी-अभी मैं ठीक बगल में राजेंद्र नगर टर्मिनल जैसे झकास रेलवे स्टेशन को देखता आया था जो मेरी स्मृति में एक टिन शेड वाला उजाड़-सा हॉल्ट था। पर ओवरब्रिज के नीचे की दुनिया ब्रिज की वृष्टि-छाया और बगल से गुज़रती रेलवे लाइन के कारण हर तरफ़ से कटकर मानो मूल निवासियों के रिज़रवेशन में तब्दील हो गई थी। वहां अतीत संरक्षित था।

भात-दाल-आलू की भुंजिया (सूखी सब्ज़ी)… बैंगन के भरते के साथ सिंकी हुई और तली हुई लिट्टी… लाल चटनी के साथ सिंघाड़ा (समोसा)… नींबू डला सत्तू… चिनिया केले… चाय… पान-सिगरेट-खैनी (अब गुटखा भी जुड़ गया था)… झुमका-टिकुली-सिंदूर-ओढ़नी-जरी….

भूख लग आई थी, पर मैं ओवर ब्रिज के लगभग छोर तक पहुँचने से पहले रुकना नहीं चाहता था, जहां गुज़रे ज़माने में वैशाली थी। दाहिनी तरफ़ लगातार ढलान उतरते ओवर ब्रिज और बायीं तरफ़ तरह-तरह की होर्डिंगों वाले मकानों के बीच से होते हुए मैं कुछ ही मिनटों में वहां था। एक पंचमंज़िला इमारत के ढांचे के सामने।

चारदीवारी के तुरंत बाद, अंदर की पूरी जगह को घेरता पांच मंज़िलों वाला यह ढांचा खड़ा था। कुछ समय पहले तक काम चलते रहने की याद दिलाते हरे आवरण जगह-जगह ऊपर से नीचे लटके हुए थे। लटकने की उस लापरवाही में काम जारी न रहने की ख़बर छुपी थी, या कि छपी थी। उन हरे पर्दों के लहराने के अलावा कहीं कोई और हरक़त नहीं। न आते-जाते मज़दूर, न ठक-ठुक-घर्र-घों की कोई आवाज़। सब कुछ उतना ही शांत जैसा बंद पड़ी वैशाली के परिसर में दिखता था।

फ़र्क़ यही था कि यहां कोई परिसर नहीं था। पूरी जगह इमारत ने घेर ली थी। वैशाली चारदीवारी से घिरी एक बड़ी-सी जगह के बीचोंबीच अपना चपटा-चौतरा सीना लिये तनकर खड़ी दिखती थी। उसके आसपास का ख़ालीपन ही उसका वैभव था। पर यह ढांचा जिसे मैं देख रहा था, इसे खड़ा करने के लिए चारदीवारी के बाद कोई जगह छोड़ी नहीं गयी थी, जैसे वह शुद्ध बर्बादी हो!

ख़ाली जगहों को बर्बादी समझने वाला स्थापत्य ही अब सर्वव्यापी है। मकानों की कतारों के पास से गुज़रो तो वे एक-दूसरे से ऐसे चिपक कर खड़े मिलते हैं कि उनके बीच से पीछे के आसमान की कोई झलक नहीं पा सकते। आज से 25 साल पहले ऐसे ही स्थापत्य को उगता देखकर विनोद कुमार शुक्ल ने दीवार में उस खिड़की की कल्पना की होगी जिससे होकर रघुवर प्रसाद और सोनसी शहर के बीचोंबीच प्रकृति के एक खुले विस्तार में उतर जाते हैं।

खिड़की से वहां पहुंचना हर किसी के नसीब में नहीं है। उसी खिड़की से वह जगह न तो रघुवर प्रसाद के मकानमालिक को दिखती है, न उनके कॉलेज के प्राचार्य को। वह तो रघुवर के अंतस का ही, जो आज के स्थापत्य की छाया बनने से बचा हुआ है, बाह्यीकरण है । जिनका अंतस स्वयं इस स्थापत्य की छाया हो, वे उस जगह को क्योंकर पा सकते हैं! उनके पास बाहर प्रक्षेपित करने के लिए अपने अंदर ही कोई जगह बची है क्या?

पीठ पीछे ओवर ब्रिज की ढाल का आख़िरी हिस्सा और सामने यह विराट ढांचा। बीच की संकरी जगह में खड़े-खड़े अचानक एक गहरी थकान मेरी नसों में उतरती चली गयी। जैसे कोई फ्लडगेट खुल गया हो और जो कुछ अभी तक एक जगह इकट्ठा था, पूरे वेग के साथ देह के चप्पे-चप्पे पर क़ाबिज़ हो गया हो।

उसका रंग गहरा सांवला था।

मैंने अपने हाथों को देखा। वे काले और बेजान दिख रहे थे। पलकें भारी हो आयीं… हरारत…

एकाएक मुझे लगा, मैं खुद से बाहर निकल आया हूं और थकान से कुम्हलाए हुए एक शख्स को देख रहा हूं। पकी हुई झब्बा मूंछों वाला, पसीने से लथ-पथ एक गंजा अधेड़ आदमी। पीठ पर रकसैक बैग। उसके अंदर एक जोड़ी कुर्ता-पायजामा, अंतर्वस्त्र, तौलिया और फंसी हुई कलम वाली एक नोटबुक।

आधे ख़ाली इस बैग में क्या समेटकर ले जाने की उम्मीद में आया है यह आदमी? अनिर्वचनीय उछाह से भरा कोई उजला दिन? जो यहां छूट गया था और फिर कभी लौटकर नहीं आया?

या धूल में लिपटा कोई उदास लम्हा? जिसकी धूल और उदासी को झाड़कर उसके कान में फुसफुसाना था, बहुत हुआ, बचपना छोड़ो और बड़े बनो?

या किसी ठीये पर अटकी रह गयी बिना बात की एक खुशी? जिसने अपना ठीया छोड़ने से इंकार कर दिया था?

क्या समेट ले जाने आया है यह आदमी? ओवर ब्रिज के नीचे की दुनिया भले ही सालों से ज्यों की त्यों पड़ी हो, क्या उन छूटी और अटकी हुई चीजों का ठीया भी बचा हुआ है? अगर होता तो यह आदमी हवन्नक की तरह इस इमारत के कंकाल को क्यों ताक रहा होता?

व्यस्त दिखने की कोशिश करता निरी फुर्सत का मारा यह आदमी आख़िर कर क्या रहा है यहां?

खुद को बाहर से देखते हुए मैंने लगभग अपनी विक्षिप्तता को देखा। जिस जगह तक पहुंचने के लिए इतनी कसरत की थी, वहां पांच मिनट ठहरना भी अब भार हो रहा था।

आगे बढ़ना पड़ा…

गोलंबर… बायीं तरफ़ एक लाइन से पार्क की हुई कई जेसीबी मशीनें… सामने सड़क पार गोलाई में बनी इमारत के नीचे दुकानों की कतार… उनसे पहले फुटपाथ पर खाने के ठेले…

मैंने एक ठेले पर खड़े होकर लिट्टी-चोखा खाया और बोतलबंद पानी के लिए सामने के जनरल स्टोर में चला गया। पानी के साथ इस उम्मीद में एक सिगरेट भी ले ली कि शायद सिगरेट पीते हुए दुकानदार से निर्माणाधीन या अनिर्माणाधीन मॉल के बारे में कुछ बातें हो पायेंगी। मेरा अंदाज़ा सही था। दुकानदार भी फुर्सत में था और बातें करने के लिए समुत्सुक। मेरा दूसरा अंदाज़ा सही नहीं था। वह मेरी ही उम्र का दिखता था और मुझे लगा था कि हो न हो, इस इलाक़े में रहने के कारण यह मेरे ही स्कूल में पढ़ा हो और शायद 82-83 में ही इसने भी मैट्रिक पास किया हो।

ऐसा नहीं था।

खैर! मॉल के बारे में जिज्ञासा करने पर उसका चेहरा कड़वा हो आया, ‘मारिए साला, ई जगहे सापित है। सिनेमा हॉल त चला नहीं और पार्टनर सब के झगड़ा में बंद हो गया। फिर कोई लिया त रेनोभेसने नहीं करा पाया। उसके बाद केतना साल से ई मॉल बन रहा है त बनिए रहा है। देखिए न, चार साल से त ऐसे हीं है। यहाँ कुछ नहीं हो सकता है।… आदमी को न, जरूरत से जादा ऐम्बिशन होना भी ठीक नहीं है। ओतने होना चाहिए जेतना के लायक आप हैं! गलत बोल रहे हैं?’

ऐम्बिशन वाली बात में निश्चित रूप से कोई कहानी छिपी थी, पर वह कुरदेने पर भी बाहर नहीं आई। मैंने भी ज़्यादा मेहनत नहीं की। वैशाली प्रसंग को आगे बढ़ाने की ग़रज़ से कहा, ‘हॉल तो बढ़िया था!’

लेकिन दुकानदार थोड़ा भी उदार होने के लिए तैयार न दिखा, ‘बढ़िया था त काहे पिट गया? दुनंबरी सिनेमा लगाता था खाली।’

समझते देर नहीं लगी कि यह आदमी मुझसे खासी कम उम्र का है। मेरा हमउम्र होता तो ऐसा कैसे कहता?

‘पर हम तो इसमें मुकद्दर का सिकंदर और कुर्बानी भी देखे हैं,’ मैंने प्रतिवाद किया।

‘अरे, चार दिन का जवानी किसका नहीं होता है? दु-चार साल का बात रहा होगा,’ उसने कहा।

‘आप कह रहे हैं कि इस जगह का कुछ नहीं हो सकता है, लेकिन बिल्डिंग तो लगभग तैयार है! मॉल शुरू होने में आधा से जादा काम तो हो गया है,’ मैंने जिज्ञासा की।

‘कह तो रहे हैं, चार साल से यही हाल है। आप न कभी-कदाल आने वाला आदमी हैं? हम त रोजे इसको देख रहे हैं।’

मेरी सिगरेट ख़त्म हो गयी थी और उसके साथ वैशाली प्रसंग भी। मैं तिकोनिया पार्क की तरफ़ बढ़ गया।

तीखी धूप झेलते हुए हिम्मत जवाब देने लगी थी। कह नहीं सकता, यह थकान से बुझे हुए मन का देखना था या सचमुच ऐसा ही था, कि अपना मुहल्ला मुझे बेहद गंदा और अव्यवस्थित लगा। जैसे कुछ भी तरतीब से न हो। मकान ज़्यादा चमकदार हो गये थे, सड़कें ज़्यादा गंदी। शायद जिन दिनों मैं यहां था, पॉलीथिन नाम की चीज़ प्रचलन में नहीं आयी थी, न ही गुटखे का पाउच। आज सड़क किनारे के खाली पसारे पर उन्हीं का क़ब्ज़ा था।… मैं सांस लेने के लिए एक जगह टेक लगाकर बैठ गया। सामने पिनाकल हॉस्पिटल का बोर्ड दिखा। यह असल में डॉ. चिंताहरण का मकान था। डॉक्टर साहब तो अब शायद ही इस दुनिया में हों, पर उनकी अगली पीढ़ी होगी और वह भी डॉक्टर ही होगी। उन्होंने ही इस क्लिनिक को हॉस्पिटल बना दिया होगा। पर इसका नाम पिनाकल रखने की क्या ज़रूरत थी? ‘चिंताहरण’ तो खुद अस्पताल के लिए एक उम्दा नाम हो सकता था! चिंताहरण हॉस्पिटल। ऐसा अस्पताल जो आपकी चिंता हर ले! शायद उनकी अगली पीढ़ी इस नाम का मतलब न जानती हो, या शायद उन्हें लगा हो कि अंग्रेजी नाम में चिंता का हरण करने की ज़्यादा कुव्वत है!

इस नाम को देखकर मन खट्टा होने को आया था, पर याद करके हंसी छूट पड़ी कि डॉ. चिंताहरण के लिए हम कितनी चिंता का विषय हुआ करते थे। एक होलिकादहन के मौक़े पर इसी मकान के पिछवाड़े में सजा कर रखी गयी लकड़ी की सारी बल्लियां हमने चुरा ली थीं और उस बार अगजा कूड़ा-कबाड़ जैसी चीज़ों से नहीं, लकड़ी की सीधी, स्वस्थ बल्लियों से जला था।

डॉक्टर साहब के मकान का प्लाट बहुत विशाल था। पिछवाड़े में लंबी-चौड़ी ख़ाली जगह थी जिसमें थोड़ी-बहुत खेती भी होती थी। इस ख़ाली जगह को घेरने वाली चारदीवारी हमारी गली में पड़ती थी। 1975 की बाढ़ में वह चारदीवारी गिर गयी तो काफ़ी समय तक उस ख़ाली हिस्से में हमारी निर्बाध पहुंच बनी रही। लंबे अरसे बाद चारदीवारी बनायी गयी तो हमने बीच से दस-बारह ईंटें निकालकर एक आदमी के जाने-आने लायक़ रास्ता बना लिया। उसकी जब भी मरम्मत की जाती, कुछ ही दिनों में सेंध वापस लग जाती थी।

वैसे बल्लियां चुराने के लिए इस रास्ते का इस्तेमाल नहीं किया गया था। इस काम के लिए हमने दूसरे रास्ते का इस्तेमाल किया जहां अगजा कार्यकर्त्ताओं के दिखने की कोई गुंजाइश नहीं थी।

इच्छा हुई कि एक बार गली में जाकर देख आऊं, चारदीवारी को आज के बच्चों ने भी वह इज़्ज़त बख्शी है या इस तरह के कर्तव्यों की ओर से वे ग़ाफ़िल हो चले हैं?

कुछ ही कदम के फ़ासले पर मेरी गली थी… लेकिन उसके पास पहुंचकर क़दम ठिठक गये। वह अजनबी-सी लग रही थी। न मुहाने पर भूंजे की दुकान, न उसके तुरंत बाद खपरैल वाला नीतू का मकान।

नहीं, मुझे इस बात की शिकायत नहीं है कि मेरी गली का आंशिक देसीपना बचा क्यों नहीं रहा! खुद सुविधाओं में जीने और दूसरों को सादगी का सौंदर्य समझाने की धूर्तता मुझमें भी है, पर इतनी भी ज़्यादा नहीं। बस, अपनी गली मुझे एक परायी-सी जगह लगी, और जगहों के परायेपन की ख़ास बात यह है कि जो कभी ‘अपनी’ रही हो, वही कभी ‘परायी’ लग सकती है। आप जिन जगहों से गुज़रते हैं, उनमें से निन्यानबे फ़ीसद न अपनी होती हैं, न परायी।

मैं उस अपनी-परायी गली यानी रोड नंबर 1/बी में जाने की जगह सीधी सड़क पर बढ़ता चला गया।

अब दिमाग़ ने काम करना बंद कर दिया था। मुझे बिल्कुल समझ में नहीं आ रहा था कि मैं यहां क्या करने आया हूं। आख़िर क्या सोचकर मैंने 5-6 घंटे का समय अपने हाथ में रखा था? और वह भी जून की तपती दोपहरी का समय?

अगर अपने बचपन के मुहल्ले में घूमने के बारे में मैंने पहले से कुछ सोच भी रखा था तो अब वह दिमाग़ की स्लेट से मिटा दी गयी लिखावट की तरह था। मुझे बिल्कुल नहीं पता था, और न है, कि मैंने क्या सोचा था। शायद मुझे ग़लतफ़हमी रही हो कि मैं छूटी हुई जगह में नहीं, छूटे हुए समय में जा रहा हूं। या शायद यह उम्मीद रही हो कि हर क़दम पर मुक्त साहचर्य मेरे अंदर दबी पड़ी यादों को छेड़ेगा और मैं उनसे घिरा हुआ, गोया अपने दोस्तों से घिरा हुआ, भटकता रहूंगा।

अपना भटकना जितना ही व्यर्थ लगता जा रहा था, थकान उतनी ही बढ़ती जा रही थी। कोई 500 मीटर की सड़क नापकर जैसे ही मैं नाला रोड के टी पॉइंट पर पहुंचा, दिनकर चौराहे की ओर से आता एक ऑटो दिख गया। अपने स्वभाव के विपरीत बिना मोलतोल किये मैंने उसे एयरपोर्ट के लिए राज़ी कर लिया। 4 बजे थे। मुझे पता था कि साढ़े चार-पांच के बीच एयरपोर्ट पहुंचने पर घंटों झख मारना पड़ेगा। पर वैसे ही कौन-सा तीर मार रहा हूं!

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पटना के जयप्रकाश नारायण एयरपोर्ट में घुसकर वातानुकूलित माहौल मिला तो लगा, जान में जान आ गयी। ऐसी कुर्सी चुन ली जिसके पीछे खंभा था। सर टिकाकार सोने के लिए ऐसी जगह ठीक रहती है, नहीं तो आगे की तरफ़ झुकते-झुकते बार-बार झटके के साथ जगना पड़ता है।

उखड़ी-उखड़ी-सी ही सही, नींद आ गयी। कोई घंटे भर बाद उठा तो कॉफ़ी, सैंडविच…

सब कुछ के बावजूद आलस्य और उचाटपन बना रहा।

जो गड़बड़ी हुई—और वह कोई मामूली गड़बड़ी नहीं थी—वह इसी वजह से हुई। अलबत्ता आज भी मेरे घर में कोई यह मानने को तैयार नहीं है। सभी लोग मेरी स्वाभाविक मंद बुद्धि को इसका कारण मानते हैं, और साथ ही, मोबाईल में मैसेज चेक न करने की आदत को।

तो हुआ यह कि मैंने पहली मंज़िल पर बने कैफ़ेटेरिया में दूसरी कॉफ़ी पीते हुए अपने नाम की घोषणा सुनी। जाने क्यों, लगा नहीं कि पब्लिक अनाउन्स्मेन्ट सिस्टम पर गूंजता यह ‘मेरा’ ही नाम है। होगा कोई संजीव कुमार, जो चेक-इन करने के बाद समय भुलाये बैठा होगा। दिल्ली जाने वाली फ्लाइट के लिए उसका नाम पुकारा जा रहा था। मेरी फ्लाइट में अभी बहुत देर थी। दुर्योग से इस बार कोई किताब साथ नहीं थी। मोबाईल में ही कुछ ढूंढकर पढ़ने लगा। समय कट गया।

नौ बजे के आसपास मैं निर्धारित बोर्डिंग गेट पर पहुंचा कि देखें, अभी तक अंदर जाने की शुरुआत क्यों नहीं हुई है? वहां कोई नहीं था। आश्चर्यजनक रूप से पूरे वेटिंग एरिया में ही लोग बहुत कम थे। बस, एक किसी और जगह की फ्लाइट की बोर्डिंग हो रही थी। उसके अलावा लगभग सारी जगहें ख़ाली।

एकाएक मन में घंटी बजी। बल्कि उसे घंटा कहना चाहिए। लगा, आगे झुकते-झुकते एक झटके में नींद खुली है। याद आयी अपने नाम की पुकार। दौड़कर एक कर्मचारी से पूछा कि दिल्ली की साढ़े नौ बजे वाली ‘गो एयर’ की बोर्डिंग कब होगी? उसने हैरत से मुझे देखा, ‘वह तो आज साढ़े आठ बजे चली गयी! नाम पुकारा होगा। आपको मैसेज भी किया होगा।’ मैंने मैसेज चेक किया। सूचना वहां पड़ी थी कि उड़ान का समय एक घंटा पहले हो गया है।

मैंने कर्मचारी से पूछा, ‘पूरा खाली क्यों हो गया है? रात में और कोई फ्लाइट नहीं है क्या?’

‘नहीं, अब सुबह 6 बजे ही यहां से फ्लाइट है। वो जो बोर्डिंग हो रहा है न, उसके बाद एयरपोर्ट बंद हो जायेगा,’ उसने बताया।

बहरहाल, सुरक्षाकर्मियों के पास गया। पता चला कि फ्लाइट छूट गयी तो अब यह जगह भी छोड़नी पड़ेगी। सुबह की फ्लाइट के लिए रात भर एयरपोर्ट के अंदर इंतज़ार नहीं कर सकते। सब कुछ बंद करने का समय हो चुका है। एक सुरक्षाकर्मी को मुझ पर दया आ गयी। उसे मेरा मंदबुद्धि होना दिख गया होगा। ‘गो एयर’ वालों को उसने फ़ोन किया और काउन्टर खोलकर मेरी समस्या हल करने का अनुरोध किया। बाहर पहुंचकर थोड़ी देर इंतज़ार करने पर काउन्टर खुला। पहले तो उन्होंने कहा कि फ्लाइट बदलने की फीस के तौर पर दो हज़ार रुपये देने पड़ेंगे, फिर जब मैं इस बात पर अड़ा रहा कि ग़लती मेरी नहीं है, तो आख़िरकार वे निःशुल्क सुबह की फ्लाइट की टिकट देने पर राज़ी हो गये। सात बजे की फ्लाइट थी। मैंने पूछा, ‘ठहरने का इंतज़ाम… ?’ उम्मीद थी कि अब जब उन्होंने अपनी ग़लती मान ली है तो रात बिताने की व्यवस्था भी कर देंगे। पर यह पत्ता चला नहीं। अपना इंतज़ाम खुद करना था। एयरपोर्ट से बाहर निकलकर एक रिक्शेवाले से कहा कि आसपास किसी होटल में ले चले। उसने मेरी मुराद पूरी की।

इस तरह रात के ग्यारह बजे मैं 1300 रुपये वाले सिंगल ए सी डीलक्स रूम में आ गया—7 गुणा 8 फुट का डीलक्स रूम… एक थोड़े बड़े बक्से जैसा… खिड़की रौशनदान कुछ नहीं… ठीक से अंगड़ाई लो तो हाथ-पैर दीवारों से अड़ने लगते हैं।

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बासी हवा से छुटकारा पाने के लिए कमरे से निकल कर कॉरिडोर में आ गया हूं। यहां सांसों की आवाजाही में कोई बाधा नहीं। सामने फ्लाइओवर है जिससे होकर दसेक मिनट में कोई ट्रक या कार गुज़र जाती है। नीचे की सड़क एकदम शांत पड़ी है—जैसे दिन भर की चिल्ल-पों, अफरा-तफरी, धक्का-मुक्की के बाद अब गहरी नींद में सोयी हो।

देर रात स्ट्रीट लाइट में सोये हुए किसी शहर को देखो तो वह कितना प्यारा और मासूम लगता है! अपनी सर्वोत्तम संभावनाओं का पता देता, जिन्हें कभी दिन का उजाला नहीं देखना है।

तीन बजे हैं, और डेढ़ घंटे बाद मुझे अपना आधा खाली बैग टांगे इस सड़क और शहर की नींद से एक सपने की तरह गुज़र जाना है—सुबह का सपना जो, कहते हैं, सच होता है। एयरपोर्ट पैदल आधे घंटे से कम का रास्ता है, पर कोई रिस्क नहीं लिया जा सकता। कहीं ऐसा न हो कि रास्ता पूछने के लिए एक भी आदमी न मिले और मैं भटक जाऊं!

अब नहीं। बिल्कुल नहीं।

अब न कोई वैशाली, न राजेंद्र नगर, न तिकोनिया पार्क। सब जहां हैं, जैसे हैं, खुश रहें!… और मैं भी, जहां हूं, जैसा हूं…

sanjusanjeev67@gmail.com


9 thoughts on “दास्तान-ए-वैशाली : उत्तरोत्तरकांड / संजीव कुमार”

  1. वाह!
    अद्भुत गद्य!
    जो पढ़े, हमक़दम बन जाए।

    “सर। गरमिए एतना है, का कीजिएगा!”
    *का कीजिएगा* यही इस रचना का बीज पद है।

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  2. 1979 ई. में उस वैशाली में मैंने फिल्म ” मासूम ” देखी थी। मॉर्निंग शो में। उस दिन किसी कारण मैं बहुत परेशान था और समय काटने व चिंता मुक्त होने के लिए शायद उससे अच्छा कोई और ठौर नहीं था मेरे पास। आज आपके इस पोस्ट ने वैशाली की भव्यता की याद दिला दी। इस पोस्ट को पढ़ते हुए लगा जैसे मैं अपने अतीत में चहलकदमी कर रहा हूँ।

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  3. बहुत सुंदर, अद्भुत। गद्य लेखन में माहिर हो।

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  4. बहुत अच्छा गद्य।आपकी आलोचना का गद्य भी रुखा सूखा नहीं होता।आप इस तरह के गद्य की ओर अधिक ध्यान न देकर गलत कर रहे हैं। कहना चाहता था – अपराध – मगर अपने को रोक लिया।

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  5. कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है, अमिताभ बच्चन, राखी और शशि कपूर की फ़िल्म ‘कभी-कभी’ इसी वैशाली सिनेमा हॉल से आकर्षित होकर नाइट शो में देखा था, इसी के पास छह नं.गली में डाक्टर ए एन सिन्हा से कान का इलाज कराया था… अब सब स्मृति है, शहर में मकान है, माल है, सड़कों पर पानी है लेकिन शहर का पानी उतर गया है…
    बढिया संस्मरण…

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  6. वाह भई । क्या बात है। दास्ताने वैशाली-1 नया पथ के किसी अंक में छपी थी, ऐसा याद आ रहा है। इस दूसरी कड़ी को पढ़ कर कह सकता हूं कि, यार, उपन्यास की योजना की झलक इसमें दिखायी दे रही है। यदि पांच पेज रोज़ का अनुशासन लागू कर लिया जाये तो एक बेहतरीन यादगार उपन्यास हिंदी साहित्य को मिल सकता है जिसका गद्य अद्भुुत होगा।

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  7. बेगूसराय से राजेंद्र नगर टर्मिनल तक आते हुए की संपूर्ण यात्रा ऐसा लगा जैसे मैं अपने पांच साल पीछे मुड़कर देख रहा हूं। पापा मम्मी का विश्वास और सपना लेकर पटना आया हूं, गांव के दोस्त के साथ कमरा लेकर रहता हूं। पटना की कोचिंग संस्थानों के सपनों और डर के व्यापार जाल में फंस चुका हूं। फंसने का ज्ञान अभी हो रहा है, तब तो उस बाजार के लिए मैं बहुत भोला था। घर से आटा चावल लेने लगभग हर सप्ताह घर चला जाता हूं, पटना में यह unaffordable है। मेरा घर है बरौनी रेलवे जंक्शन से 10 किलोमीटर दूर भगवानपुर ब्लॉक। अभी दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए करते हुए पटना के यात्रा को याद करके नॉस्टलजिया फील कर रहा हूं।….

    इस संस्मरण को पढ़कर अपना संस्मरण लिखने को प्रेरित हुआ हूं। लिखूंगा जरूर।
    शुक्रिया संजीव सर 😍

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