दीवार – 2 / संजीव कुमार


इस वर्ष सलीम-जावेद द्वारा लिखित और यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘दीवार’ को रिलीज़ हुए 50 साल हो गये। इस मौक़े पर ‘दीवार 2’ कहानी को पढ़ना शायद आपको इस अविस्मरणीय फ़िल्म की सराहना और आलोचना का एक कोण मुहैया करा सकता है। यहाँ ‘दीवार’ चुपके से कैमरे में क़ैद कर लिया गया एक जीवन है, और वाचक उस जीवन की सीमाओं और संभावनाओं को समझने की कोशिश करता एक आम-गुमनाम आदमी। मेरे मित्र जोसेफ़ मथाई ने कहानी का शीर्षक सुझाया था: ‘दीवार में एक खिड़की थी जो खुली ही नहीं’ (या शायद इसी आशय का कुछ बेहतर शब्द-संयोजन था)। यह निस्संदेह उम्दा सुझाव था, पर कहानी के कथ्य से निरपेक्ष शीर्षक को ही बनाये रखना अंततः उचित लगा। –सं. कु. 

यह कोई कहानी नहीं, एक रहस्योद्घाटन है। पचासेक सालों की धूल-गर्द को झाड़कर निकाले गए कुछ लम्हे। आप चाहें तो इसे पर्दाफ़ाश की तर्ज पर गर्दाफ़ाश कह सकते हैं। पर इस गर्दाफ़ाश का मज़ा लेने की एक शर्त है: यह जिनके बारे में है, वे आपको याद होने चाहिए! जी हाँ, अगर आप ‘दीवार’ को भूले न हों और विजय, उसके बाप आनंद बाबू, उसके भाई रवि, उसकी माँ… मतलब माँ, रहीम चाचा, डावर, सावंत, पीटर—इन सबको ठीक-ठाक पहचानते हों, तब तो आगे का मज़मून आपके काम का है, वर्ना माफ़ कीजिएगा, आपके पल्ले कुछ नहीं पड़ने वाला।

जहाँ तक मेरा सवाल है, मुझे तो आप क्या ही पहचान पायेंगे, पर यक़ीनन आपने मुझे देखा है। हो सकता है, सामने से न देखा हो, पर…. याद कीजिये वह घड़ी जब विजय हफ़्ता वसूलने वाले गिरोह की धुनाई करके गोदाम से बाहर निकला था। बड़ी मुश्किल से वह गोदाम के गेट का ताला खोल पाया था, उसी चाभी से जो उसने पीटर को यह कहते हुए सौंपी थी कि अब तेरी जेब से यह चाभी निकाल कर ही दरवाज़ा खोलूँगा। बाहर आते ही एक बड़ी भीड़ उसे घेर कर ‘विजय ज़िंदाबाद’ के नारे लगाने लगी थी और वह उनके बीच से किसी नशेड़ी की तरह लड़खड़ाता पास की टूँटी पर पानी की धार के नीचे बैठ गया था।

ज़िंदाबाद करती उस भीड़ में मैं भी शामिल था। हो सकता है, आपने मेरा कंधा, या मुर्ग़े जैसी गर्दन, या ऊपर को उठे हुए सींकिया हाथ देखे हों।

इसके बाद अगले दिन डॉक की ओर जाते हुए विजय को जब डावर ने अपनी कार के पास बुलाया, तब मैं विजय से बस आठ-दस क़दम पीछे था। बेशक, इसकी संभावना कम है कि आप मुझे देख पाए होंगे, क्योंकि आपका पूरा ध्यान उन दोनों की हरकतों पर लगा रहा होगा! और जब आप फ़ुटपाथ से हटकर सड़क वाली साइड से डावर की कार में झाँकने लगे, तब तो मेरे दिखने की रही-सही संभावना भी ख़त्म हो गयी।

ख़ैर, मैं वहाँ ठहरा भी नहीं था कि ऐसी कोई संभावना बनती। जैसे ही मैंने देखा कि डावर ने विजय को आवाज़ लगाई है और विजय अपनी जानी-पहचानी ऐंठ छोड़कर उससे बात करने के लिए कार की खिड़की में झुक गया है (झुकना तो झुकना ही होता है, वजह जो भी हो!), मेरे सामने पूरा भविष्य कौंध गया और मैंने टोह लेने का चक्कर वहीं-के-वहीं छोड़ दिया। डॉक की ओर जाते हुए मुझे पता था कि अगले दिन से विजय इस रास्ते नहीं आयेगा, उसकी ज़िंदगी बदल चुकी है, और वह अब कुलियों के किसी काम का नहीं।

असल में, डावर और विजय का कॉम्बिनेशन क्या चीज़ है, इसका अंदाज़ा मुझे सालों पहले से था। ठीक उसी दिन से जिस दिन जूता पॉलिश करने वाले एक लड़के ने एक सूटबूटधारी से कहा था कि साहब, पैसा फेंक के मत दो, और एक दूसरे सूटबूटधारी ने अपने उस दोस्त को सलाह दी थी कि वह लड़के की बात मान ले।

मैं उस समय वहीं था और वह आज भी मेरी ज़िंदगी के सबसे यादगार दिनों में से है।

उस दिन विजय ने जयचंद के जूते पॉलिश किये थे और मैंने डावर के।

महालक्ष्मी रेसकोर्स के पास की फ़ुटपाथ पर वह विजय का पहला दिन था, शायद आपको पता न हो। इससे पहले वह मोज़ेज़ रोड पर बैठता था, धोबी घाट के पास, जहाँ कमाई नाम भर को थी। जब वह अपना डिब्बा लिए इस फ़ुटपाथ पर पहुँचा तो यहाँ पहले से जमे हुए लड़के उसे भगाने लगे। लाज़िमी था। आख़िर यहाँ भी कितनी कमाई थी कि उसमें एक और हिस्सा लगने से किसी को फ़र्क न पड़ता?… पर मुझे दया आ गयी। बेचारा उम्र में हम सब से छोटा था और उसकी देह में इतना भी ख़ून नहीं था कि ग़ुस्से में चेहरा लाल हो सके। मैंने इंसानियत का वास्ता देकर उसे बचाया और अपने पास बिठा लिया…

लेकिन मेरे होश उड़ गए जब जयचंद के सिक्का फेंकते ही लौंडा अपनी जगह से खड़ा हो गया और लगा झाड़ने कि ये कोई भीख नहीं है, पैसा उठाकर दो। मैंने तो सिर पीट लिया। गयी साले की जगह और गया साले का डिब्बा। किसी दुर्घटना का इंतज़ार करता मैं काम में सिर ऐसे गोते रहा जैसे मुझे पता ही न हो कि आस-पास क्या चल रहा है!

और मेरे हैरत की सीमा नहीं रही जब मैंने डावर को यह कहते सुना कि पैसा उठाकर दे दो! यह कितनी अजीब बात थी ना! और कितनी बड़ी बात! आप कभी ऐसे आदमी का चेहरा भूल सकते हैं भला?

विजय भी नहीं भूला, यह अलग बात है कि उसे डावर का नाम नहीं पता था। इसीलिए आपने देखा होगा कि पंद्रह साल बाद डावर की कार में बैठने पर जब अगले ने कहा कि मुझे अपना दोस्त ही समझो, तब विजय ने अपने ही अंदाज़ में उसका नाम जानना चाहा था, ‘दोस्तों के नाम भी होते हैं।’(कुछ ज़्यादा ही नहीं हो गया?)

बहरहाल, वह दिन मेरे लिए अगर विजय की तल्ख़ी के कारण यादगार था तो डावर की समझदारी के कारण भी। आख़िर इस बात को कितने लोग समझते हैं कि किसी इंसान के अन्दर धधकती आत्मसम्मान की आग को सिगरेट की ठूँठ की तरह जूते की तली से कुचलना नहीं चाहिए, उसकी इज़्ज़त करनी चाहिए!

जहाँ तक विजय का सवाल है, उसके अन्दर की आग को मैं भी उस दिन पूरा-पूरा कहाँ समझ पाया था! मुझे लगा था कि वह जितना आत्मसम्मान का मामला था, उससे कहीं ज़्यादा आगे के लिए अपनी जगह सुरक्षित करने के वास्ते आस-पास के लौंडों पर रोब ग़ालिब करने का। निस्संदेह, अगर ऐसा था तो यह बहुत बड़ा जुआ था, एकदम रेसकोर्स में पैसा लगाने की तरह। अगर डावर जैसा आदमी न होता और अपने ही हाथों से चमकाए हुए जूते की ठोकर खाकर यह बित्ते भर का छोकरा दूर जा गिरता तो लेने के देने पड़ जाते ना? पर जैसा कि आप जानते हैं, यह नहीं हुआ और विजय की जगह न सिर्फ़ हमेशा के लिए सुरक्षित हो गयी बल्कि वह बूट पॉलिश करने वाले हम लड़कों के बीच स्वाभाविक नेता भी मान लिया गया।

मुझे जो लगा था, उसमें शायद सत्य का छोटा-सा अंश रहा हो, पर वह पूरी तरह सच नहीं था। वह महालक्ष्मी पर विजय का पहला दिन न भी होता तो फेंके हुए पैसे पर उसकी प्रतिक्रिया वही होती, यह बात मुझे धीरे-धीरे समझ आ गयी। वह एक खौलता-खदकता हुआ इंसान था जिसके चेहरे पर मुस्कान मुश्किल से ही आती थी। लेकिन अपनी नीयत में एकदम खरा और 24 कैरेट ईमानदार। यही चीज़ मुझे बार-बार उस तक खींचकर लाती रही और आख़िरकार डॉक पर रजिस्टर्ड कुली की भर्ती का डौल जमते ही मैं ढूँढ कर उसे अपने साथ ले गया। यादव जी ने मेरे अलावा एक और किसी को लगवा देने का भरोसा दिलाया था।

आगे की बात से पहले यादव जी के बारे में आपको बता दूँ। महालक्ष्मी पर विजय के आने के छह महीने बाद ही मैंने बूट-पॉलिश छोड़ दी थी और बलार्ड एस्टेट के पास एक ढाबे पर काम करने लगा था। यह 1955-56 की बात रही होगी। यादव जी वहीं चाय पीने आते थे, हमेशा चार-पाँच के ग्रुप में। कमाल के आदमी थे। मुझे देखते ही मेरे मालिक से कहते, ‘ए मोटा, इस बच्चे से कितने घंटे काम लेता है रे? ये कब पढ़ेगा और कब खेलेगा?’ फिर मुझे कहते, ‘चल, बंद कर सेवा टहल। तुझको चार घंटे से ज़्यादा काम नहीं करना। यह मोटा करवाए तो मुझे बता। चल, बैठ जा किताब लेके।’ उनकी वजह से मुझे थोड़ा-बहुत अक्षर-ज्ञान हो गया और देश-दुनिया की कई बातें भी पता चल गयीं, नहीं तो हम जैसों की चिंता में दो जून के खाने के अलावा और कोई बात होती कहाँ है! ये यादव जी ही थे जिनकी वजह से मुझे मज़दूर एकता, यूनियन, संघर्ष, इंक़लाब जैसी बातें थोड़ी-थोड़ी समझ आने लगीं। वे डॉक के कामगारों की यूनियन में थे। अपने दोस्तों के बीच उनका पसंदीदा वाक्य था, ‘पीछू सब लड़ के मिला है, आगू भी सब लड़ के मिलेंगा।’ पीछू, आगू, मिलेंगा—ये सारे शब्द वे मज़ाक में बोलते थे, बम्बइया पारसियों की नक़ल में। ख़ुद तो पूरब के रहने वाले थे, शायद ऊपी के।

यादव जी के पास क़िस्से ही क़िस्से थे। अपने दोस्तों का मजमा लगाकर जब मज़दूरों की लड़ाई के क़िस्से सुनाने लगते तो समय कैसे निकल जाता, पता ही नहीं चलता था। उन्हीं की बातें गुपचुप सुनकर मैंने जाना कि दसेक साल पहले तक डॉक के कामगारों की ज़िंदगी कैसी नरक थी! ढाबे पर मेरी जो नौकरी थी, उससे किसी मायने में बेहतर नहीं। जहाज़ कंपनियों का कैसा सीज़न चल रहा है, इसी पर उनकी दिहाड़ी टिकी थी। कभी काम मिल जाता, कभी नहीं। उस पर भी सब कुछ टोलीवाले के भरोसे। टोलीवाला यानी ठेकेदार। सब कुछ उसकी मर्ज़ी पर था। जहाज़ कंपनी से पैसा ले पूरी टोली का और काम करवाए कम लोगों से, ये आम बात थी। कोई नियमित आमदनी नहीं, और नौकरी वाली सुविधाओं की बात तो छोड़ ही दो। ये जो कैंटीन आपने देखी है ना, जहाँ विजय ने चाय पीते हुए कहा था कि अगले हफ़्ते एक और मज़दूर हफ़्ता देने से इनकार करेगा, ये तो कल्पना में भी नहीं थी (मेरा मतलब कैंटीन से है, इस डायलॉग से नहीं)। ज़्यादा से ज़्यादा मज़दूर यही सोच पाता था कि हफ़्ते में दो-तीन दिन कुछ लोडिंग-अनलोडिंग का काम मिल जाए तो अगले हफ़्ते भर के आटे-दाल का इंतज़ाम हो जायेगा। अक्सर फ़ाके की नौबत आ जाती थी। कैंटीन में जिस रहीम चाचा को आपने देखा था—वही जो विजय से कह रहे थे कि 25 साल से यही सब देखता आ रहा हूँ—उनके बारे में यादव जी एक वाक़या बताते थे। मैं तो उस समय रहीम चाचा को भला क्या जानता, पर यादव जी का बताया वाक़या सुनकर लगभग ऐसी ही तस्वीर उस इंसान की मेरे मन में बनती थी जैसा मैंने उसे बाद में पाया।

वाक़या ये था कि एक बार दसियों दिन रहीम चाचा को कोई काम न मिला। जमा ख़र्च से हफ्ते भर तो काट लिए, उसके बाद फ़ाका शुरू हो गया। गुरूर ऐसा कि किसी से कुछ कह न सकते थे। दसियों रोज़ बाद जिस रोज़ अनलोडिंग का काम मिला, उन्हें तीन दिन हो गए थे बिना कुछ खाए। नलके पर जाकर चचाजान ने दम भर पानी पी लिया और चले सामान लादने। बड़ा-सा कार्टन पीठ पर लादकर आठ-दस क़दम चले होंगे कि बक्क करके पेट का सारा पानी कै में निकल गया और ये अल्ला का नाम लेते हुए चौखाने चित्त! बेहोश हो गए। लोग दौड़कर पास पहुंचे तो उल्टी वाले पानी में हरी घास के टुकड़े दिखे। धीरे-धीरे होश आने पर सारा भेद खुला कि पेट में कब से अन्न का दाना नहीं पड़ा था और कैसे जनाब ने थोड़ी ही देर पहले पोर्ट ट्रस्ट में एक किनारे उगाई हुई विदेशी घास का ब्रेकफास्ट लिया था। खूब डांट पड़ी। यादव जी ने साफ़ कह दिया, अल्ला का नाम जितना लेना है, लो, पर उसके भरोसे कोई काम मत छोड़ो। तीन दिन से खाना नहीं मिला तो हमें कहना था ना, अल्ला मियाँ ऐसे छोटे-मोटे काम कहाँ तक देखेंगे?

यादव जी जब यह सुनाते, तो बड़ा मज़ा आता था। पर आप तो जानते ही हैं, रहीम चाचा को इन बातों से ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ा। याद है ना, बिल्ला नंबर 786 का माहात्म्य उन्होंने ही समझाया था विजय को। अरे मियाँ, दो बोल यह भी समझा देते कि पहले और आज के हालत में कितना अंतर आ गया है और कैसे आया है! इस मामले में तो उनके पास कहने को एक ही बात थी, ‘पच्चीस सालों से यही सब देखता आ रहा हूँ।’ वाह साहब, अल्ला मियाँ में इतना भरोसा रखने वाले को ऐसा सफ़ेद झूठ कहीं शोभा देता है! पच्चीस सालों से आपने बस हफ्ता वसूली देखी है? यह नहीं देखा कि टोलीवाला सिस्टम ख़त्म हुआ, लेबर बोर्ड बना, दिहाड़ी वालों की नियमित आमदनी के लिए उन्हें रजिस्टर्ड किया गया, कैंटीन और मुफ़्त इलाज की सहूलतें मिलीं….

जी हाँ, ये सब भी उन्हीं सालों में हुआ था, संगठित लड़ाइयों की बदौलत। चालीस के दशक में यूनियनें बननी शुरू हुईं और छोटे-मोटे संघर्षों से होते हुए 1947 में आज़ादी मिलने के तुरंत बाद सबसे बड़ी हड़ताल हुई। उसका भी क़िस्सा अजीब ही है। 24 दिसम्बर से शुरू होकर 9 फ़रवरी तक, पूरे अड़तालीस दिनों की हड़ताल थी वह। 10, 000 कामगार इसमें शामिल थे—पक्के वाले से लेकर दिहाड़ी वाले तक, सब। देश भर के डॉक ठप्प पड़ गए। बाहर से आने वाले अनाज की भी अनलोडिंग नहीं हुई। देश में भुखमरी फैलने की नौबत आ गयी। परेल के कामगार मैदान में गृहमंत्री सरदार पटेल को भाषण देकर कामगारों से काम पर वापस आने के लिए गुज़ारिश करनी पड़ी। पर सब बेकार। आख़िरकार, मसला किसी तरह हल हो इसके लिए लोहिया जी ने महात्मा गांधी के साथ हड़ताल के लीडरान की मुलाक़ात तय करवाई। 30 जनवरी 1948 को प्रार्थना सभा के बाद बैठना तय हुआ।

अब आप ही सोचिए! 30 जनवरी 1948। वह भी प्रार्थना सभा के बाद। समय भी कैसे खेल खेलता है!

अंधी सुरंग में चलते हुए मज़दूरों को रौशनी वाला एक सिरा दिखा था, पर उधर बढ़ें इससे पहले ही रौशनी बुझ गयी। यादव जी अपने नेता शांति भाई के बारे में बताते थे कि कैसे जब दूसरे प्रतिनिधियों के साथ वे दिल्ली के बिड़ला भवन पहुँचे तो भयानक भीड़ उमड़ी पड़ी थी। डॉ. पटेल—हाँ, उनका पूरा नाम था डॉ. शांति पटेल—ने किसी से पूछा कि क्या बात है, ऐसी अफ़रा-तफ़री क्यों मची है, तो उसने कहा, जानते नहीं हो, बापू को किसी ने गोली मार दी। नहीं रहे।

हे राम!

अब इसके बाद भी हड़ताल को चलाते रहना भला कैसे मुमकिन था! दिल्ली से लौटे प्रतिनिधियों ने कामगार साथियों को समझाया कि शोक में डूबे हुए देश के साथ खड़े होने के लिए हड़ताल वापस लेनी ही होगी, और कोई रास्ता नहीं है। 9 फ़रवरी को हड़ताल वापस लेने का ऐलान कर दिया गया…. पर यादव जी कहते थे, हड़ताल बेकार नहीं गयी। सारे क़ायदे-क़ानून इसके बाद ही बने। पीछे जितनी सहूलतों की बात की है ना, सबकी शुरुआत उसी साल हुई।

 

आप शायद ऊब रहे हों, पर बता दूँ, विजय की कहानी मेरी ज़ुबानी सुनने के लिए आपको यह सब जानना होगा। मैंने यह सब टुकड़े-टुकड़े में यादव जी से इतनी बार सुना था कि विजय के अन्दर की धधकती आग को भी मैं कुछ अलग ही तरह से देखने लगा था। मुझे उससे बड़ी उम्मीदें थीं। पगार वाले दिन जब एक नया कुली हफ़्ता देने से मुकर गया और ग़ुंडों से झगड़ता हुआ ट्रक की चपेट में आ गया, उसके बाद के दिनों में विजय का चेहरा देखते हुए मुझे लगता था कि मैं आग की एक भट्ठी में झाँक रहा हूँ, या किसी ऐसी ज्वालामुखी में जिसका ज़िंदा, खदकता हुआ लावा बाहर आने को बेचैन है।

कैंटीन में सामने रखी चाय की प्याली की ओर से ग़ाफ़िल, गर्दन में कुली वाली रस्सी लपेटे, उस नए मज़दूर की बदक़िस्मती को याद करता विजय मेरे लिए एक ऐसा चेहरा है जिसे मैं भूल नहीं सकता।

ऐसे ही चेहरों पर इंसानियत का भविष्य टिका है, मेरी रग-रग से यह आवाज़ निकलती थी।

इसीलिए मैं पीटर के गिरोह से गोदाम में हुई मारपीट के बाद वाली रात विजय के घर गया था। आपको यह बात पता नहीं है, हालाँकि उस रात की और बातें आप जानते हैं। यह तो आपको पता ही है कि उस रात विजय की माँ ग़ुस्से में थी और उसने विजय से कहा था कि उसे मारपीट में पड़ने की ज़रूरत क्या थी। जवाब में उसने जो कहा, उससे आहत होकर अपने से डेढ़ गुना लम्बाई वाले इस जवान बेटे को माँ ने थप्पड़ जड़ दिया था। वह जवाब तो आपको याद हैं ना! ‘तो क्या मैं भी मुँह छुपाकर भाग जाता?’ एक ‘भी’ से उसने पूरी बात को पंद्रह साल पीछे मोड़ दिया था, जब उसके बाप ने बीवी-बच्चों की ख़ातिर एक ग़लत समझौते पर दस्तख़त कर दिए थे और अवसाद में डूबकर घर छोड़ गए थे।

कैसी कील गड़ी हुई थी उसकी आत्मा में! अन्दर जैसे लगातार ख़ून रिसता रहता था।

मैं माँ-बेटे की उसी बहस के थोड़ी देर बाद वहाँ पहुँचा था। दिन में हुई घटना के बाद मुझे एक अजीब-सी बेचैनी महसूस हो रही थी। मुझे लगा था कि विजय ने जो किया वह ज़रूरी था, पर उसकी आग व्यक्तिगत हीरोपंथी के वाक़ेयात में गर्क़ हो जाने के लिए नहीं है। अगर उसने अपनी आग को एक तबक़े की आग न बनने दिया तो दुनिया के रिश्ते नहीं बदलेंगे, उन रिश्तों के भीतर विजय की अपनी जगह भले बदल जाए।

मैंने जब विजय की खोली का दरवाज़ा खटखटाया, तब तक अन्दर वह तूफ़ान आकर गुज़र चुका था। रवि ने दरवाज़ा खोला और मुझे अन्दर ले गया। चाची स्टोव के सामने सिर झुकाए बैठी थीं और विजय अपना कुरता उतार कर लुंगी और बनियान में अपना बिस्तर लगा रहा था। मुझे देखकर उसने वापस कुर्ता पहन लिया और मेरे साथ बाहर आ गया।

खोली के बाहर बड़े नाले की ठिगनी-सी दीवार पर हम बैठ गए।

‘कैसे आया इस वक़्त?’ उसने अपनी उस ख़ास बुझी हुई आवाज़ में पूछा जो बुझने पर और गहरी हो जाती थी|

‘कुछ नहीं, बस, तेरा हाल लेना था,’ मैंने कहा।

‘हा…ल…,’ एक फीकी-सी हँसी में उसके होंठ हिले, ‘बस, अगले हफ़्ते से पीटर गैंग का आना बंद हो जाए तो हाल ठीक हैं, और क्या!’

‘तुम्हें लगता है ऐसा होगा?’

‘तुम्हें क्या लगता है?’

‘लगने की बात ही क्या, मैं जानता हूँ कि यह नहीं होगा।

‘क्यों?’

‘पीटर नहीं होगा तो रिपीटर होगा, और क्या!’ मैं उसके अंदाज़ में ही उसे जवाब देने की कोशिश कर रहा था, ‘देख विजय, मुझे जितना तेरी हिम्मत पर भरोसा है, उतना ही तेरी अक़्ल पर भी। तू यह कैसे भूल सकता है कि यह एक इंडस्ट्री है जिसे पीटर के पीछे से कोई और चला रहा है। एक कोई उसके ख़िलाफ़ उठ खड़ा होगा तो इंडस्ट्री बंद नहीं हो जायेगी। वे या तो उस एक को निपटा देंगे, या निपटा न पायें तो पूरे कलेक्शन में 2 रुपये का घाटा सह लेंगे। उन्हें पता है कि हर कुली अकेले-अकेले तुम्हारी तरह हफ़्ता न देने का फ़ैसला नहीं ले सकता। तुम जिस तरह इसे ज़ाती हिम्मत का मामला बना दे रहे हो, उसकी कसौटी पर कितने कुली खरे उतरेंगे?’

‘एक मिनट, एक मिनट… डायलॉग मारने के चक्कर में तुम भूल रहे हो कि हफ़्ता न देने का मेरा फ़ैसला किसी और के साथ हुई ज़्यादती की मुख़ालफ़त थी। तुम इसे ज़ाती हिम्मत का मामला कैसे कह सकते हो? क्या मैंने ‘अपना’ नुक़सान बचाने के लिए यह क़दम उठाया था? क्या तुमने सुना नहीं, पीटर कह रहा था कि अगर इस छोकड़े को हमने छोड़ दिया तो कल को और कुली भी हफ़्ता देने से इनकार करने लगेंगे?’

‘सुना है, पर पीटर को यह अच्छी तरह पता है कि जब तक एक-एक कर इनकार किया जाएगा, तब तक एक-एक कर सबक़ सिखाना भी मुमकिन है। हर कुली विजय नहीं है। और विजय भी क्या चीज़ है? पिस्तौल की गोली के आगे तुम्हारी भी क्या औक़ात!… विजय, हम मज़दूर नाज़ुक लकड़ियाँ हैं। जब तक गट्ठर न बनाओ, एक-एक कर सबको तोड़ा जा सकता है। कोई एकाध मज़बूत निकल जाए और तोड़ी न जा सके, तो इससे लकड़ियों की क़िस्मत नहीं बदल जायेगी। अगर क़िस्मत बदलनी है तो गट्ठर बनानी होगी।’

‘और उसके लिए तुम्हें ऐसे आदमी की ज़रूरत है जिसके पीछे ज़िंदाबाद के नारे लगाने वाली भीड़ इकट्ठा हो सके… क्योंकि पहले से बनी हुई गट्ठर ढीली पड़ गयी है और लकड़ियाँ उस गट्ठर के भीतर हैं भी तो बेमन से, दूर-दूर छिटकी हुईं।’

यही विजय था। आपके पेट में हाथ डालकर असली बात को खींच निकालने वाला। अपनी आँत में फँसी बात से आप खुद नावाक़िफ़ हो सकते हैं, विजय नहीं।

मैं थोड़ा सकपका गया। पर मैं जानता था कि अगर ऐसा ही है, तो इसमें बुरा क्या है! तुरंत सँभल कर मैंने कहा, ‘हाँ, ज़रूरत है, और क्यों न हो?’

‘तो अपनी ज़रूरत कहीं और पूरी करो, कॉमरेड! तुम ग़लत पते पर आ गए हो।’

‘आनंद बाबू का बेटा यह बात कह रहा है?’

‘एक बार ही काफ़ी था, दुबारा साबित करने की ज़रूरत नहीं कि तुम ग़लत पते पर आ गए हो,’ विजय ने अपनी चिर-परिचित तल्ख़ी के साथ कहा, ‘आनंद बाबू की ज़ुबान उनके दूसरे बेटे को अच्छी तरह याद है, मैं उसे कब का भूल चुका हूँ।’

‘लेकिन क्यों, भाई?’

‘क्योंकि मुझे ऐसे उसूल याद रखने का कोई शौक़ नहीं है जिसे किसी भी मजबूरी में पड़कर मिनटों में भुलाना पड़े। जिन्हें आनंद बाबू बनने की हसरत हो, वे बनें, मेरी ऐसी कोई हसरत नहीं… और मुझे हर उस लड़ाई से भी नफ़रत है जिसमें या तो तुम्हारी ज़िंदाबाद हो या मुर्दाबाद। आनंद बाबू को जिन लोगों ने आसमान पर बिठा रखा था, उन्होंने एक मजबूरी में उनके क़दम डगमगाते ही पैरों तले कुचल दिया। ऐसी ही यूनियन की बात कर रहे हो तुम? लोग अपनी-अपनी लड़ाई लड़ें, एक नेता चुनकर उसे शाबासी देने या गालियाँ सुनाने का हक़ अपने पास रखने का क्या मतलब?’

एक ज़हीन आदमी अपनी सँकरी सोच में कैसे दया का पात्र लगने लगता है, यह कोई मुझसे पूछे। मैंने ठिगनी-सी दीवार पर अधबैठे विजय को देखा। माँ का थप्पड़ खाकर होठों के किनारे से निकले ख़ून की एक जमी हुई लकीर, अस्त-व्यस्त बाल और दो दिन पहले बनायी हुई दाढ़ी के खूँटे। दो फ़ोल्ड मुड़ी हुई कुरते की बाँह से झाँकता ‘…चोर है’। वह मुझे अपनी ही बनायी हुई जेल के सींखचों के पार खड़ा दिखा। यह ऐसी क़ैद थी जिससे अपने को छुटकारा ख़ुद वही दिला सकता था।

मैंने उसे उसका क़ैदखाना दिखाने की एक कमज़ोर-सी कोशिश की, ‘विजय, अपने एक तजुर्बे से सारी दुनिया के बारे में किसी नतीजे पर पहुँचना कहाँ तक ठीक है?’

‘तुम अपने तजुर्बे से नतीजे पर पहुँचो, मुझे अपने से पहुँचने दो।’

‘लेकिन जिसे तुम अपना तजुर्बा कह रहे हो, उसमें दो बिलकुल बेमेल बातें नहीं हैं? या तो तुम्हारा ग़ुस्सा आनंद बाबू पर होना चाहिए कि कैसी भी मजबूरी थी, उन्होंने वह समझौता क्यों किया जिसकी वजह से सारे मज़दूर दुश्मन हो गए। या फिर तुम्हारा ग़ुस्सा मज़दूरों पर होना चाहिए कि उन्होंने अपने नेता की मजबूरी के साथ हमदर्दी क्यों नहीं रखी। तुम एक साथ दोनों तरफ़ तोहमत कैसे लगा सकते हो? अगर आनंद बाबू ग़लत थे तो उनके मज़दूर साथी सही थे। और अगर मज़दूर साथी ग़लत थे तो आनंद बाबू सही थे।’

‘अपना मन जो बातें सीधे-सादे ढंग से कह देता है, उन्हें मान लेना चाहिए। उनके साथ वकीलों की तरह जिरह नहीं करनी चाहिए। मेरा मन कहता है कि लीडर और फ़ॉलोअर वाले रिश्ते में ही खोट है, इसलिए मेरे बाप के मामले में दोनों ग़लत थे। मुझे कल को शैतान ठहराए जाने के लिए आज किसी का भगवान नहीं बनना और इस पर मुझे कोई दलील नहीं चाहिए।’

थोड़ी देर चुप्पी रही। फिर मैंने माहौल को थोड़ा हल्का करने की ग़रज़ से कहा, ‘भाई, पीछू सब लड़ के मिला है, आगू भी सब लड़ के मिलेंगा?’

‘पीछे अपनी-अपनी लड़ाई लड़ के मिला है, आगे भी अपनी-अपनी लड़ाई लड़ के मिलेगा।’ वह जैसे तैयार नहीं था, न तो अपनी क़ैद से निकलने के लिए, न ही माहौल को हल्का करने के लिए।

इसके बाद एक लम्बी चुप्पी पसरी रही। मैं लड़-के-मिला-है की कोई ऐसी व्याख्या सोचता रहा जो उसे लाजवाब कर दे। क्या कहूँ? कहूँ कि यूनियनबाज़ी न होती तो क्या तेरे पास यह क़ायदे की खोली होती जहाँ तीन प्राणी एक दूसरे से टकराए बग़ैर रह लेते हैं? क्या तू अपने भाई को कॉलेज में पढ़ा पाता और वह भले इंसानों वाले कपड़े-लत्ते में नौकरी के इंटरव्यू देने जा पाता? क्या यह सब आज से पच्चीस साल पहले डॉक का कोई कुली सोच भी सकता था? कहूँ कि बिल्ला नंबर 786 की अहमियत बताने वाले रहीम चाचा से पूछ ले, वह कैसी भूख थी जो घास में भी स्वाद डाल देती थी?

यह सब मेरे दिमाग़ में चलता रहा, पर मैं चुप रहा। विजय के दिमाग़ में क्या चल रहा था, ख़ुदा जाने। बस अंदाज़ा लगा सकता हूँ कि शायद वह सोच रहा हो, कहाँ थी मज़दूर एकता जब ठेकेदार ने उसकी माँ को काम से निकाला था? कहाँ थी मज़दूर एकता जब वे बेसहारा इस शहर में दाने-दाने के मोहताज़ थे? कहाँ थी मज़दूर एकता जब एक यूनियन लीडर के दस साल के बच्चे के हाथ पर गोदने से गोदा गया था, ‘मेरा बाप चोर है’?

अगर विजय के दिमाग़ में ये सवाल थे तो यह बस समझ का फेर था कि वह इन्हें सवाल मान रहा था। ये तो जवाब थे। मज़दूर एका क्यों होना चाहिए, इसका जवाब।

पर यह तो मैं तब कहता जब ये सवाल मेरे सामने आते।

मुश्किल यह भी थी कि मैं जैसे ही ख़ुद को उसकी जगह पर रखता, मुझे सारे जवाब फिर सवाल लगने लगते|

चुप्पी देर तक पसरी रही। विजय को देखकर लग रहा था कि उसने ख़ुद को बंद कर लिया है और कोई भी बात अब एक बंद दरवाज़े से टकरा कर लौट आनी है।

मैं चलने की मुद्रा में अपनी जगह से हिला। विजय जैसे इंतज़ार ही कर रहा था। वह भी सीधा हो गया।

झूठ नहीं बोलूँगा, आख़िरी बात उसने बहुत मुलायम आवाज़ में कही, बड़े प्यार से, ‘मुझे पता है, कॉमरेड, तुम्हें बहुत-सी बातें करनी थीं। पर मैं ग़लत पते की चिट्ठी खोलता नहीं। …फिर आना, और मेरे पते की चिट्ठी साथ लाना।’

मेरे गले में आकर भाप का एक गोला अटक गया। मैंने कुछ अजीब ढंग से सिर हिलाया, जिसमें न सहमति थी, न असहमति। कोई तीखा, मसालेदार, ज़हीन डायलॉग बोलने का मन बिलकुल नहीं था। निश्शब्द विदा ली मैंने।

यह विजय से मेरी आख़िरी मुलाक़ात थी।

और वह 1970 के उस दिन से ठीक पहले की रात थी जब विजय मेरे सामने से डावर की कार में बैठकर बहुत दूर चला गया।

sanjusanjeev67@gmail.com

 

 

 


3 thoughts on “दीवार – 2 / संजीव कुमार”

  1. पठनीय। शिल्प का प्रयोग भी अच्छा लगा। लेकिन कहानी ऐसे खत्म हुई मानो लेखक ‘क्रमशः ‘ लिखना भूल गया हो। कहानी जैसी प्रत्याशा जगाती है, उसमें अंत अचानक सा लगता है। विजय का डावर की गाड़ी में बैठ जाना सशक्त प्रतीक है, जिसका विस्तार होना चाहिए था।

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    • दिलचस्प, नई शैली में लिखी एक अद्भुत कहानी । यह सिर्फ कहानी नहीं बल्कि फिल्म के बहाने समय की समीक्षा है, वस्तु परक ढंग से विश्लेषित करने का उपक्रम है । आप इतनी अच्छी और सुगठित कहानियां भी लिखते हैं यह मुझे नहीं मालूम था ।कहानी पढ़ कर अपनी अज्ञानता पर क्षोभ हुआ । ऐसी और कहानियों का इंतजार रहेगा।
      शैलेंद्र अस्थाना

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  2. दीवार की कहानी के इर्द- गिर्द मैं भी घूम रहा हूं.
    वक्त,ज़माने और हालात का अद्भुत विश्लेषण

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