पाँच कविताएँ / शालू शुक्ला


‘तुम फिर आना बसंत’ कविता संग्रह के लिए शीला सिद्धांतकर सम्मान से सम्मानित शालू शुक्ला विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। पढ़ते हैं उनकी पाँच ताज़ा कविताएँ।

पिता के बाद

प्रायः पिता के बाद
अधिकार से पहना हुआ मायका
उतार आती हैं बेटियाँ
छूट जाता है घर में दनदनाते हुए घूमना
अधिकार, मनुहार, रौब और शिकायतें
छूट जाती हैं साधिकार फ़रमाइशें
एक सुलभ सा संकोच पैरों में उतर आता है
पिता के बाद कोई नहीं पहुँचता हृदयतल तक

‘कैसी हो’ में ही पूरी कर ली जाती है ज़िम्मेदारी
‘सब ठीक है’ को मान लिया जाता है ठीक
जबकि कुछ भी ठीक नहीं होता प्रायः
पिता सिर्फ़ पिता नहीं होते
पूरा का पूरा मायका होते हैं
पिता के बाद मजबूरी में रहना पड़े मायके तो
बेटियाँ मायके वालों के प्रति
क्षमा प्रार्थी रहती हैं।

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मुक्ति का जल

पिता से जब उनका हाल पूछा जाता तो
कहते बुढ़ापा स्वयं एक बीमारी है
बीमारी ने जब उन पर धावा बोला
तो समय काँटे की तरह चुभने लगा
रातें जाले की तरह उलझनें लगीं
चलना फिरना उठना बैठना कठिन हो गया

बेटी ने जी जान से पिता की सेवा की
पिता पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गये
बेटी मन ही मन खुश थी
अपनी सेवा पर
किन्तु पिता बहू पर ज़्यादा प्यार मनुहार लुटाते रहे
यहाँ तक की बहू के सामने कृतज्ञ से रहते

पिता के व्यवहार से बेटी ने खुद को
अपमानित महसूस करते हुए
पिता से सवाल किया
सेवा बेटी करे
मेवा बहू को मिले
क्यों?

बेटियाँ चाहे जितनी सेवा करें
लेकिन मुक्ति तो बहू के जल से ही मिलती है
पिता ने कहा।

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समभाव

पहाड़
उसे ज्यों का त्यों

फिर से
क्षितिज पर रख देगा

इसी विश्वास पर
सूरज

उगते और डूबते समय
समभाव रखता।

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मल्लू

मेरे अक्षर ज्ञान से
इमला पढ़ना सीख गये थे
आदिवासी बच्चे
बस मल्लू की सीख ‘छ’ से ‘छाता’ पर अटकी थी
बार बार रटाने पर भी
उसे छ से छाता नहीं याद हुआ
ज्ञान में व्यवहारिकता लाते हुए मैंने समझाया
घर से बाहर बारिश से बचाने वाला छ से छाता होता है

हमलोग बारिश में घर से बाहर
बोरा ओढ़कर जाते हैं
हमारे लिए छ से छाता नहीं
छ से बोरा होता है
मल्लू ने कहा

ठीक उसी दिन से हमारे देश में
शब्दों के अभिप्राय बदल गये
हत्या का अभिप्राय मृत्यु
अखबार का अभिप्राय बाजार
कानून के प्रति आस्था का अभिप्राय अभियोग से बाइज्जत
बरी होना।

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जब हम चार लोग साथ थे

शून्यता की हद तक पसरा आकाश
रोशनी से नहाया गीला सा चाँद
प्रीति की चौखट पर जलते हुए तुम
विरह की दहलीज़ पर बुझती सी मैं
हम दोनों ही जानते थे
चौखट की सीमाएँ
सीमाओं की आँच ने हमारी आधी उम्र निगल ली

फिर खुदा जाने तुम्हें क्या सूझा
तुमने अचानक से पूछा था मुझसे
‘मैं तुम्हारे लिए क्या हूँ ?’
तुम्हारे सवाल पर झुक आया था आकाश
खो गया था चाँद
स्तब्ध सी मैं
सोचती रही
क्या कभी धुएँ ने पूछा होगा आग से
खुशबू ने कभी पूछा होगा फूल से कि ‘मैं तुम्हारे लिए क्या हूँ’

नासमझी में मैंने तुम्हारे सवाल
हवाओं में उछाल दिये
अलसाये आकाश ने सवाल को
अपनी छाती में सहेज लिया
काल दर काल पलट गये
अब तुम साथ नहीं हो तो
चाँद तुम्हारा प्रतिनिधि बनकर
उसी सवाल के साथ
मेरी चौखट पर बैठा है

मैं उसे कैसे समझाऊँ
कि तुम मेरे जीवन का वह अभाव हो
जो मुझे ले जाता है मनुष्यता के बेहद क़रीब
तुम प्रीति का वह चरम सौन्दर्य हो
जो मृत्यु को सहज बना देता है।

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5 thoughts on “पाँच कविताएँ / शालू शुक्ला”

  1. बेहद संवेदनशील एवं सच को प्रतिरोपित करती कविताएं।

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