पाँच कविताएँ / हरीश चन्द्र पाण्डे


हरीश चन्द्र पाण्डे हमारे समय के विशिष्ट कवि हैं। लोग उनकी कविताओं का इंतज़ार करते हैं। प्रकाशित कृतियाँ हैं : ‘कुछ भी मिथ्या नहीं है’, ‘एक बुरूंश कहीं खिलता है’, ‘भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं’, ‘असहमति’ तथा ‘कछार-कथा’ (कविता-संग्रह); ‘कलैंडर पर औरत तथा अन्य कविताएँ’, ‘मेरी चुनिन्दा कविताएँ’ (चयन); ‘दस चक्र राजा ‘ (कहानी-संग्रह); ‘संकट का साथी’ (बाल कथा-संग्रह); ‘एक बुरूंश कहीं खिलता है’ कविता-संग्रह का अंग्रेजी रूपांतरण ‘अ फ्लावर ब्लूम्स समवेयर’ नाम से प्रकाशित । कविताओं के कुछ अनुवाद बांग्ला, तेलुगू, ओड़िया, मराठी, पंजाबी, अंग्रेजी, मैथिली आदि भाषाओं में प्रकाशित। उन्हें ‘शमशेर सम्मान’, ‘केदार सम्मान’, ‘सोमदत्त सम्मान’, ‘ऋतुराज सम्मान’, ‘मीरा स्मृति सम्मान’ तथा ‘हरिनारायण व्यास हिन्दी काव्य पुरस्कार’ और उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित किया गया है।

(1)

आदमी की भूमिका में रोबोट

न पंचतत्वों से बने हैं ये
न विलीन होंगे उनमें
तब आद‌मी का पर्याय कैसे बनेंगे

न आधार कार्ड बनेगा न पैन कार्ड
काटो तो खून नहीं निकलेगा

हाँ, किसी ईश्वर की ज़रूरत नहीं होगी इन्हें
न जाति होगी न धर्म
तब वोट कैसे देंगे भाई

खालिस कृत्रिम मेधा से काम न चलेगा
कुछ भाव संवेग भी हो
कुछ ऐसा कि सोचा जाए—
चलो आज वृद्धाश्रम की ओर निकल चलें
किसी बूढ़े जर्जर कंधे पर हाथ रख दें
सुनें, जब तक वह सुनाना चाहे

उसका जी हल्का कर लौटें
अपना जी भरा हुआ

 

(2)

यह जो

वस्तु की तरह बेचा गया लोहा
विचार की तरह खरीदा गया था
कह लें
आरी, लोहा नहीं एक विचार थी

काठ को चीर कर दो फाड़ करना था उसे
उंगली को दो फाड़ कर गई

बुरादे की जगह खून बहने लगा है
समय लगता है इरादों को भाँपने में

यह जो व्हाट्सएप यूनीवर्सिटी में
चिराइन गंधी धुआँ दिखाई दे रहा है
बुरादे की जगह रक्त का झरना है…..

 

(3)

दो दृश्य
(संदर्भ : कोरोना काल )

(एक)

एक अटैची सस्ती सी
उसे अभी किसी कमरे में होना था
वह सड़क पर है

एक औरत है
उसे इस वक़्त घर-बाहर के किसी काम में होना था
सड़क पर है

एक रस्सी है
जिसे सड़क पर कतई नहीं होना था सड़क पर है

वह तनाव में तो है
पर औरत और अटैची के बीच

यह एक ऐसी ऋतु है जब औरत रस्सी से अटैची को खींची चली जा रही है
और उसका बच्चा उसके ऊपर सोया हुआ है

यह एक ऐसी ऋतु है जब
अटैची के पहियों की खड़-खड़ नींद उड़ाने की बजाय
लोरी का काम कर रही है

कभी पहियों के आविष्कार ने
समाज की मंथरता को जो गति दी थी
यह उसी का दाय है कि
औरत के अपने गाँव लौटने की गति को
त्वरा मिल गई है

अटैचियों ने कभी सोचा भी न होगा कि
उन्हें इस तरह भी सड़क पर उतार दिया जाएगा
और पहियों ने भी कभी सोचा न होगा कि वे एक दिन
किसी बच्चे के पावों के छालों को अपने ऊपर ले लेंगे

यूँ तो खिंचती हुई अटैची का भार बढ़ ही गया होगा
पर खींचने वाली एक मां थी इसलिए
केवल वजन बढ़ा बोझ नहीं
बच्चा जैसे कहीं बाहर नहीं उसके भीतर सोया है

औरत एक आपात दुख को खींची चली जा रही है
उसके पैर आगे की दुनिया नाप रहे हैं
उसके हाथ पीठ पीछे की दुनिया सँभाले हुए हैं

बीच में रह-रह कर वह ऊपर वाले को निहारती है
ऊपर रह-रह कर द्रोण दिख जाते हैं

(दो)

एक मृतक को जीवित समझना भी क्या खेल है
खाली गिलास को भरा समझकर उठाने सा

अब देखो ना
एक बच्ची प्लेटफार्म पर
अपनी सोई माँ की ओढ़नी को उठा रही है बार-बार
जन्म-मृत्यु को दुनिया जाने
वह अपनी माँ के सोने-जागने को जानती है
समझ रही है
उसके गालों को चूमने वाले अधर-प्रकोष्ठों का रस
अभी सूखा नहीं है
पयोधरों का दूध जाम नहीं हुआ है

जीवित और मृत माँओं के ये दो दृश्य हैं

जाग रही माँ का बच्चा सो रहा है
मृत माँ की बच्ची जाग रही है

चलते समय दोनों की यात्राएँ अनंतिम थीं……

 

(4)

विभाजन

बया की तरह बुने थे
रिश्ते-नाते-याराने
एक साथ बिखर गए सब

अदावतें पुश्तैनी थीं, जायदाद की तरह
एक साथ छूटे दोनों

बस एक पोटली थी साथ जानी
कहीं कुछ न झाँका कोनों-अतरों में

हारमोनियम अपने लिए कभी नहीं रही एक सामान
घर छोड़ते वह भी असबाब में शामिल हो गई

जहाँ भी हुई तलाशी कहीं कुछ न निकला
राग सारे कंठ में थे
घर छूटा था घराना नहीं

गिरह जो खेली
राग झरने लगे
भैरवी ने नई सुबहें दे दीं

किसी का पुराना घर अब हमारा नया है
वे जो गए इस घर से अपना सबकुछ छोड़कर ठीक हमारी तरह
होंगे कहीं उधर

यहाँ टूट गए उनके असबाब में दीवार पर लटकता एक
कलैंडर भी शामिल है

परिचित व्यथा वाले ओ अपरिचित !
तुम्हारे कान्हा यहीं रह गए हैं कलैंडर में
ओ छूट गई हारमोनियम
मुझे एक बाँसुरी मिल गई है ….

(पाकिस्तानी कथाकार ख़दीजा मस्तूर की कहानी ‘उस आँगन में’ को पढ़कर)

 

(5)

जलते हुए नहीं

दीये साँझ होते ही हाथ उठा देते हैं कि हमें जलाओ
चूल्हे चाहते हैं कि उन्हें कम से कम दो बार जलाया जाए रोज़
पर आग है कि बस्तियों को प्राथमिकता दे रही है

लपटें उठती हैं पंचम में लहराती वर्तुल
उससे और भी ऊपर उठती हैं धुआँ काला गाढ़ा
कि भ्रम छाँह में बैठ जाए थका हारा पथिक
और राख झाड़ता हुआ उठे

चाहे चुरा के लाई गई हो स्वर्ग से किसी प्रमथ्यु द्वारा
चाहे जन से जनी हो पाषाण या काष्ठों के घर्षण से
बमुश्किल पाई आग मुफ्त में बँट रही है

सभ्यता के पहिये चलते हुए भाते हैं, जलते हुए नहीं
जलते हुए चलते तो कतई नहीं

 harishchandrapande@gmail.com


13 thoughts on “पाँच कविताएँ / हरीश चन्द्र पाण्डे”

  1. हमेशा की तरह ताजी कविताएं जो हमेशा ताजी रहती हैं।

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  2. इंसानियत के लिए बेचैन कविताएँ।
    दीपशिखा की तरह जलती हुई, ढाढस बँधाती हुई।

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  3. पठनीय और संग्रहणीय कविताएँ । नलिन भाई का चयन और प्रभावशाली कविताओं के लिए हरिश्चंद्र जी को साधुवाद। नयापथ का कार्य अनुकरणीय है । – प्रदीप मिश्र,इंदौर

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  4. जबरदस्त अभिव्यक्ति।
    ऐतिहासिक अन्धेरे को प्रकाशित करती और समसामयिक को ललकारती।

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  5. अपने प्रिय कवि की कविताएं पढ़कर इस दुनिया के विस्तृत फलक को समझने में श्री वृद्धि हुई।” आदमी की भूमिका में रोबोट” और अन्य कविताएं ध्यान आकर्षित करती हैं। सादर प्रणाम!

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  6. हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं मन को झकझोर देती हैं। उनकी दृष्टि उस दृश्य को रचती है जिस पर आमतौर पर ध्यान नहीं जाता।

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  7. समकालीन परिदृश्य में भाषा,वस्तु और.कहन में अलग ठाठ की कविताएं।

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