पांच कविताएं / सुभाष राय  


‘दिगम्बर विद्रोहिणी अक्क महादेवी’ पर एक यादगार किताब लिख चुके सुभाष राय इन दिनों आंडाल पर काम कर रहे हैं। ‘आ रही हैं आंडाल’ शीर्षक उनकी कविता आप यहां पढ़ सकते हैं। इसके साथ-साथ गहरे आक्रोश और व्यंग्य से भरी उनकी राजनीतिक कविताएं भी। आपातकालीन ज़्यादतियों के ख़िलाफ़ आंदोलन करके जेल काट चुके सुभाष राय चार दशकों से पत्रकारिता कर रहे हैं। कई प्रतिष्ठित दैनिक समाचारपत्रों में शीर्ष ज़िम्मेदारियां संभालने के बाद इस समय लखनऊ में ‘जनसंदेश टाइम्स’ के प्रधान संपादक के रूप में कार्यरत। अक्क महादेवी वाली पुस्तक के अलावा दो कविता संग्रह ‘सलीब पर सच’ और ‘मूर्तियों के जंगल में’, एक निबंध संग्रह ‘जाग मछन्दर जाग’ और संस्मरण एवं आलोचनात्मक लेखों का एक संग्रह ‘अंधेरे के पार’ प्रकाशित। 

1. टक्कर

मैं भूल रहा हूं रास्ते, पगडंडियां
तारीख़ें, तीज, त्योहार
मिले हुए लोगों के चेहरे
बहुत चाहने वालों के नाम

मैं भूल रहा हूं पढ़ी हुई किताबें
सुनी हुई कहानियां, देखे हुए दृश्य

मैं भूल रहा हूं जातियां, धर्म
हिन्दू, मुसलमान, होली, दीवाली, ईद
राजाओं, देवताओं और ईश्वरों
के नाम

बचपन से जो चीज़ें
मुझे बहुत याद करायी गयीं, सब भूल रहा हूं
उम्र में बड़ों का सम्मान करना
हमेशा सच बोलना, किसी को दुखी न करना
सबकी नज़र में अच्छा बने रहना
पूजा पाठ करना
सब भूल रहा हूं धीरे-धीरे

मैं भूल रहा हूं अपना-पराया
वक़्त-बेवक़्त, घर-गांव, पुरखों की संपदा

अक्सर चलते हुए मैं भूल जाता हूं चलना
टकराते-टकराते बचता हूं

अभी इतना याद है कि मैं भूल रहा हूं
एक दिन जब यह भी भूल जाऊंगा
कोई डर नहीं होगा बड़ी से बड़ी टक्कर
का भी
फिर कोई हवा, कोई आंधी, कोई साज़िश
भले मुझे मिटा दे पर मेरे आगे बढ़ते
क़दम रोक नहीं पायेगी

फिर लोग भूल नहीं पायेंगे कि‌
मेरी टक्कर से किले की दीवारों में कितनी
दरारें आयीं

12/04/2024

 

2. ढहना 

इतिहास के मलबे पर
बर्बरता की इमारत खड़ी हो रही है
बाकी सब कुछ ढह रहा है

अतीत की बीमार कोख से जन्मी
घृणा का राजमहल खड़ा हो रहा है
बाकी सब कुछ ढह रहा है

ढह रहे हैं पुल, रिश्ते ढह रहे हैं
ढह रहीं हैं कांपती छायाएं अंधेरे समुद्र में

ढह रहा है सूरज संध्या के काले रक्त में
ढह रहे हैं बचे हुए तारे इस मुश्किल वक़्त में

निर्मम हवाएं भांज रहीं हैं तलवारें
ढह रहे हैं मन के गुम्बद, दिल की मीनारें

ढहने की आवाज़ें भी ढहकर
समा रही हैं ख़ामोशी में
सब कुछ ढह रहा है
खड़े होने का साहस
एतराज करने की हिम्मत
ढह रहा है सब कुछ डर के मारे

एक दिन जब यह डर ढहेगा भरभराकर
धमाका दूर तक सुनायी देगा प्यारे

13 /6 /2022

 

3. बुलडोज़र

यह बुलडोज़र लोकतंत्र है
क़ानून से बचना संभव है, लेकिन बुलडोज़र से नहीं
इस तरह समझो कि अब बुलडोज़र
के दांत ही अंतिम क़ानून हैं

बुलडोज़र चलेगा इतिहास के
उन सारे अध्यायों पर जो हमें पसंद नहीं
बुलडोज़र चलेगा आज़ादी का स्वाद चखाने वाले
संविधान की आत्मा पर
बुलडोज़र चलेगा
साझे उत्सवों पर
बुलडोज़र बच्चों की कक्षाओं में भी दाख़िल होगा
बहुत जल्द स्कूलों में पढायी जायेगी
बुलडोज़र गाथा

जो हमारे ख़िलाफ़ होगा, दंड का भागी होगा
जेलों की अब कोई ज़रूरत नहीं
उन पर भी चलेगा बुलडोज़र
मुक़दमे की बात भूल जाओ
मौक़े पर ही सज़ा दी जायेगी
तारीख़ें नहीं मिलेंगी, सुनवाई नहीं होगी
इतना समय नहीं है बुलडोज़र के पास

जिसने भी कभी हमें शैतान कहा
हमारा मज़ाक उड़ाया, हमें दंगाई कहा
बुलडोज़र के दिमाग़ में डाल दिये गये हैं
उनके नाम-पते, उनके घरों के नक़्शे
कोई सफ़ाई नहीं मांगी जायेगी
कोई नोटिस नहीं भेजा जायेगा
वक़्त पर सबके जुर्म का नोटिस लेगा
बुलडोज़र

बुलडोज़र के बिना भी हम ढहाते आये हैं
सैकड़ों साल की स्मृतियां
सपने और सम्भावनाएं
आगे भी ढहाते रहेंगे
भविष्य की इबारतें
एक दिन सारे दफ़्तरों
और सार्वजनिक स्थानों पर
खड़े कर दिये जायेंगे बुलडोज़र
जो भी सर उठेंगे, गिरा दियें जायेंगे
मत भूलो कि यह बुलडोजर न्याय का वक़्त है

मैं बुलडोज़र हूं, सत्ता की आत्मा का सारथी
मैं ढहाता हूं, मैं ही बनाता हूँ
जितने भी अपराधी
लम्पट, पापी, दुष्ट
मेरी शरण में आये
उन्हें अभयदान मिला
उनके पाप गिने नहीं गये
तुम भी आओगे तो मुक्ति के गान गाओगे
अन्यथा इस कुरुक्षेत्र में बेवजह
मारे जाओगे

15 /4 /2022

 

4. वफ़ादारी

क़ानून के गले में पट्टा डालकर
एक आदमी पालतू कुत्ते की तरह उसे
टहला रहा है

वह उसे पुचकारता है और किसी के
पीछे छोड़ देता है

कुत्ता पीछा करता है और पास पहुंचते
ही अपनी टांग उठा देता है

वह मालिक का वफ़ादार प्यादा है
मूतता कम, काटता ज़्यादा है

6/4/2024

 

5. आ रहीं हैं आंडाल

आंडाल की देह गंध में डूबा हूं मैं
कभी वे अपनी पसंद के फूल दे जाती हैं
कभी ले जाती हैं अपने जंगल में
जहां वे अपनी सखियों के साथ
खेलती थीं

कभी सुनाती हैं अपनी
सखियों से परिचय कराती हैं
और बताती हैं कि किस तरह
वे सब घर, समाज की बंदिशों को
धता बताकर निकल आयी थीं
नदी के किनारे, पानी से खेलने
लहरों से बतियाने और इस तरह
धार बन जाने

आठवीं सदी की जागी हुई
लड़कियों से मैं जानना चाहता हूं
उनके पावै व्रत के बारे में
वे एक साथ हंसती हैं
मेरी देह पर खिले हुए
फूलों की तरह बरसती है उनकी हंसी
मैं समझ लेता हूं कि 12 सौ बरस पहले
लड़कियों का जंगल में इस तरह
निर्भय होकर खिलना कितना
कठिन रहा होगा

उन्होंने साहस को अपनी देह पर
कांटे की तरह उगा लिया था
कौन कर सकता था उन्हें स्पर्श
कौन उलझ सकता था उनकी
बर्छियों जैसी आंखों से

वे बताती हैं, कैसे खेलती थीं वे
नदी के साथ, किस तरह उतरतीं थीं गहरे
और पानी उछाल देता था
उन्हें ऊपर

वे जंगल की कोयलों, मोरों, तोतों
समुद्र के शंखों के बारे में बताती थीं
बादलों की, बारिश की बात करती थीं

सुबह की तो बहुत चर्चा करती थीं
तब स्त्रियों के जीवन में
सुबहें आतीं ही कहां थीं
अंधेरों में जीते हुए उन्हें
पता ही नहीं चलता था
कब हुआ सवेरा और कब शाम हो गयी

घर नहीं सोने के पिंजरे थे
ऊंची अटारियां, रत्नजटित पलंग
चमकते दरवाज़े लेकिन बाहर
जाने की, बोलने, नाचने, गाने की अनुमति
नहीं थी

आंडाल निकलीं
दरवाज़े-दरवाज़े सांकल बजाती,
लड़कियों को याद दिलाती
कि सूरज कोई फैंटेसी नहीं,
असलियत है, उसके उगते ही अपना
काला मुंह छिपाये चुपचाप
खिसक जाती है रात

उन्होंने बताया कि लड़कियां
बोलेंगी तो सुबह होगी
वे बाहर आयेंगी तो सूरज उगेगा
वे जंगल में कलियों का स्पर्श करेंगी
तो वे खिलखिला उठेंगी

उन्होंने ही बताया कि लड़कियां
अपनी सुबह चुन सकती हैं
अपना सूरज भी
वे कोई जानवर नहीं हैं
वधस्थल पर खूंटे से बंधी हुई
मारे जाने के लिए अभिशप्त

आंडाल आ रही हैं धीरे- धीरे
मेरे पास, अपने वृंदावन का रहस्य
खोलती हुई

जहां सब सुखी हैं,
किसी को कोई दुख नहीं
जहां प्रकृति गाती-बतियाती
रहती है मनुष्यों से, जहां समय पर
बरसात होती है, जहां लड़कियां मुक्त होकर
खेलती हैं, पानी में छपकियां लगाती हैं
निर्बंध प्रेम करती हैं

जहां मोर, कोयल बस्तियों में
घूमते रहते हैं निर्भय गीत गाते हुए

जहां भी ऐसा जीवन होगा
वहां अनायास जन्म लेगा वृंदावन

आंडाल प्रेम की एक ऐसी दुनिया
बसाना चाहती हैं, जहां किसी से कुछ छिपाना न पड़े,
वे खुद भी नहीं छिपातीं अपने प्रियतम से कुछ भी
वह सहज ही महसूस
कर सकता है स्तनों की
धीमी से धीमी हलचल भी

वे नहीं हिचकतीं
देह भाषा में बात करने से
वे जानती हैं स्त्रीत्व की
सबसे मोहक भाषा यही है
इस तरह वे साफ़ कहना
चाहती हैं, मैं स्त्री हूं और
स्त्री को भी स्वप्न देखने
और उसे हासिल करने का
अधिकार है

वे कहती हैं, कृष्ण मेरा प्रिय है
लेकिन‌ सभी युवतियों को उसे
पाने का अधिकार है

वे एक असाधारण मिथ पुरुष को
पहले अहीरपाड़े का ग्वाला बनाती हैं
और फिर उसे अपनी उज्ज्वल चेतना से
विस्थापित कर देती हैं

फिर सबके लिए खुल जाती हैं
अनंत खिड़कियां, बस नींद से निकल
कर अपनी सत्ता के स्वीकार
की देर है

मैं सोते-जागते उठ बैठता हूं
जब भी घंटी बजती है दरवाज़े की
कोई आया होगा आंडाल का संदेश लेकर
शताब्दियों से गूंजती पुकार लेकर

कोई भोजपत्र पठाया होगा उन्होंने
कोई ताम्रपत्र, कोई शिलालेख
किताबों में छिपाकर कोई
मुक्त स्त्रीराग भेजा होगा उन्होंने

जब भी मैं तड़पता हूं उनसे बतियाने को
वे मुझे अपने नये जादुई लोक में ले जाती हैं
मेरी उंगली पकड़कर

उनके पास होने की मेरी बेचैनी
ही नयी खिड़की की तरह खुलने लगती है
और उसमें से झांकने लगते हैं
इतिहास के नये पन्ने
फड़फड़ा कर खुलने
लगती हैं नयी कहानियां
मुग्ध सुनता, देखता रहता हूं मैं

किताबों की शक्ल में
आती हैं उनकी चिट्ठियां
और खाना-पीना छोड़कर मैं
बैठ जाता हूं उन्हें बांचने
मन नहीं भरता कभी
नींद नहीं आती ठीक से
अगली चिट्ठी के इंतज़ार में

आंडाल को जगाया था
एक शरारती ग्वाले कृष्ण ने
वह बैठ गया था उनके भीतर घुसकर
पसर गया था उनकी
दृष्टि में चमक बनकर
उनकी वाणी में स्त्रीत्व की
अपूर्व चेतना बनकर

उन्होंने उसे प्रेम किया और
नचाया भी छछिया भर छाछ पर

आ रहीं हैं आंडाल धीरे-धीरे
स्त्रीत्व के साहसिक सपनों का अर्थ खोलती
हुई

मेरी भाषा में आ रही हैं आंडाल
मेरे पास ही नहीं आप सबके पास आ रही हैं
आंडाल

14/10/2024

निवास : डी -1 /109 , विराज खंड, गोमतीनगर, लखनऊ।
संपर्क : 9455081894

1 thought on “पांच कविताएं / सुभाष राय  ”

  1. बड़ी धारदार कविताएँ हैं। सुभाष जी अपने कवि-कर्तव्य का बड़ा साहसिक उपयोग कर रहे हैं।

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