वर्तमान राजसत्ता का चरित्र और लोकतंत्र का गहराता संकट – 1 / जवरीमल्ल पारख


18 वीं लोकसभा के लिए आम चुनाव 19 अप्रैल से शुरू होने वाले हैं। इस मौक़े पर पिछले लगभग पांच दशकों के राजनीतिक विकास-क्रम पर एक विश्लेषणात्मक दृष्टि डालना उपयोगी होगा। इन्हीं दशकों में आरएसएस से संबद्ध भारतीय जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी की सिलसिलेवार बढ़त का इतिहास समाया हुआ है। ग़ैर-कांग्रेसवाद ने किस तरह हिंदू राष्ट्र के झंडाबरदारों के लिए राजनीतिक गठजोड़ों में स्वीकार्यता की राह बनायी और किस तरह उसका वोट प्रतिशत क्रमशः बढ़ता हुआ उस स्तर तक पहुंचा जहां वह पिछले दस सालों से केंद्र की सत्ता पर क़ाबिज़ रहने की क्षमता हासिल कर पायी, यह एक दिलचस्प इतिहास है जिससे आने वाले समय के लिए सबक़  लिया जा सकता है। तीन भागों में विभाजित जवरीमल्ल पारख का यह आलेख आम चुनावों से ठीक पहले हमें कई अहम नुक़्तों पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है। पढ़िए , आलेख का पहला भाग: 

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भारतीय राजनीति में भाजपा-संघ के विस्तार के निहितार्थ

चुनाव आयोग द्वारा 18वीं लोकसभा के लिए आम चुनावों की घोषणा हो चुकी है। 19 अप्रैल से 1 जून तक सात चरणों में होने वाले इस चुनाव के परिणाम 4 जून 2024 को घोषित होंगे और इसके बाद केंद्र में नयी सरकार का गठन होगा। पिछले दस साल से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार सत्ता में है। हालांकि कुछ अन्य दल भी केंद्र की इस सरकार का या तो समर्थन करते हैं या इस सरकार में शामिल हैं। लेकिन भारतीय जनता पार्टी को 2014 में भी और 2019 में भी अकेले स्पष्ट बहुमत मिला था। 2019 में 543 सदस्यों वाली लोकसभा में भाजपा के 303 सदस्य निर्वाचित होकर आये थे जो 2014 में चुनकर आये 282 भाजपा सदस्यों से 21 सदस्य अधिक थे और एनडीए में शामिल अन्य पार्टियों के सदस्यों को मिलाकर कुल 354 सदस्य थे। यह संख्या दो तिहाई बहुमत से सिर्फ़ 10 कम थी। 2014 में भाजपा को कुल 31.34 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे जो 2009 के उन्हें मिले कुल वोटों से 12.54 प्रतिशत ज़्यादा था, हालांकि सीटों में बढ़ोतरी 30 प्रतिशत से ज़्यादा हुई और इस तरह वोट प्रतिशत की तुलना में सीटें ढाई गुना ज़्यादा बढ़ीं। 2019 में वोट प्रतिशत (37.7) में 6.36 प्रतिशत की वृद्धि हुई और सीटों में लगभग 4 प्रतिशत की वृद्धि हुई। 2024 के चुनाव का उनका लक्ष्य 400 से अधिक सीटें हासिल करना है। यह इसलिए ज़रूरी है कि इस भारी बहुमत के द्वारा वे संविधान में आवश्यक संशोधन कर सकें जो हिंदू राष्ट्र के उनके लक्ष्य को प्राप्त करने में मददगार हो। यह करने के लिए नया संविधान बनाने की आवश्यकता नहीं है बल्कि इसके मूलभूत ढांचे में ही कुछ ऐसे बदलाव कर देने हैं कि ‘हिंदू राष्ट्र’ पद का इस्तेमाल किये बिना भी अपने निहितार्थ में वह हिंदू राष्ट्र का संविधान ही हो। मसलन, संविधान की प्रस्तावना में से धर्मनिरपेक्ष, समाजवाद, संघात्मक गणराज्य जैसे शब्दों को हटाना; हिंदू धर्म को अन्य धर्मों की तुलना में विशेष दर्जा दिया जाना और मुस्लिम समुदाय को संविधान मे मिले समान अधिकारों में कटौती करना जिसकी शुरुआत सीएए द्वारा हो चुकी है; हिंदू धर्म की किसी भी तरह की प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष और सांकेतिक आलोचना को अपराध घोषित करना और उसके लिए लगभग वैसी ही सज़ाओं का प्रावधान करना जैसी इस्लामी देशों में लागू हैं। लेकिन यह स्थिति अचानक नहीं हुई है। इसका एक लंबा इतिहास है जिसे जानना और समझना ज़रूरी है।

भारतीय जनता पार्टी ने अपनी स्थापना के बाद पहला चुनाव 1984 में लड़ा था। लेकिन वह चुनाव इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद की विशेष परिस्थितियों में हुआ था। कांग्रेस को लोकसभा में 414 सीटें प्राप्त हुई थीं और भाजपा को केवल दो सीटें। वोट प्रतिशत की दृष्टि से कांग्रेस ने 49.10 प्रतिशत वोट प्राप्त किये थे और भाजपा ने केवल 7.74 प्रतिशत वोट। भाजपा के वोट और सीटों में गिरावट की एक वजह यह भी मानी जाती है कि इन्दिरा गांधी की हत्या के कारण कुछ हद तक हिंदू प्रतिक्रिया भी पैदा हुई थी और इसी वजह से कांग्रेस का वोट प्रतिशत 1980 के 42.69 से बढ़कर 49.10 हो गया था, यानी 6.41 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई थी। बहुत मुमकिन है कि इंदिरा गांधी की हत्या के कारण भाजपा के परंपरागत वोटों का एक बड़ा हिस्सा (लगभग 6 प्रतिशत) कांग्रेस की ओर शिफ़्ट हुआ हो।

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख विरोधी दंगों ने सांप्रदायिक आधार पर विभाजन में अहम भूमिका निभायी। दिल्ली सहित उत्तर भारत के कई शहरों में सिखों पर जानलेवा हमले हुए। उनकी चल और अचल संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। विभाजन के बाद हुआ यह सबसे बड़ा दंगा था, लेकिन पहली बार मुसलमानों के बजाय सिखों को इसका निशाना बनाया गया था। भाजपा और आरएसएस ने कांग्रेस की इस विशाल जीत से यह नतीजा निकाला कि हिंदू समुदाय को सांप्रदायिक आधार पर एकजुट करके अपनी राजनीतिक ताक़त को बढ़ाया जा सकता है। इसीका नतीजा था, रामजन्मभूमि आंदोलन, जिसकी शुरुआत 1985 में संघ परिवार ने राष्ट्रीय आंदोलन की तरह कर दी थी। कांग्रेस नेतृत्व का एक बड़ा हिस्सा न केवल घोर दक्षिणपंथी था, बल्कि संघ परिवार के साथ सहानुभूति रखने वाला भी था (और आज भी है)। इसी हिस्से ने 1949 में बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्तियां रखवाने में भूमिका निभायी थी। इसी ने बाद में ताला खुलवाने और शिलान्यास करवाने में भी अहम भूमिका निभायी थी। इसी हिस्से ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस को संभव होने दिया था। कांग्रेस और भाजपा के बीच फ़र्क़ यही था कि कांग्रेस बुनियादी तौर पर एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी थी, लेकिन सत्ता में रहने के लिए सांप्रदायिकता के प्रति नरम रुख अपनाती थी, जबकि संघ-भाजपा का लक्ष्य ही रहा है इस देश की धर्मनिरपेक्षता और बहुसांस्कृतिकता की परंपरा को ध्वंस कर बहुसंख्यकवाद पर आधारित ब्राह्मणवादी हिंदू राष्ट्र बनाना। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लक्ष्यों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य था और जिससे उसने कभी भी पीछे क़दम नहीं हटाया।

रामजन्मभूमि आंदोलन ने देश के माहौल को धीरे-धीरे विषाक्त करना शुरू कर दिया, नतीजतन 1984 के बाद से भाजपा की सीटों और वोट प्रतिशत में लगातार बढ़ोत्तरी होती गयी। 2019 में भाजपा को 37.7 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए यानी 1984 की तुलना में वोटों में कुल 30 प्रतिशत वृद्धि हुई। अगर 1984 में कांग्रेस को प्राप्त वोट प्रतिशत (49.10) से 2019 में प्राप्त वोट प्रतिशत (19.66) की तुलना करें तो इस अवधि में भाजपा के वोट प्रतिशत में हुई बढ़ोतरी (30 प्रतिशत) और कांग्रेस के वोट प्रतिशत में हुई गिरावट (29.44 प्रतिशत) लगभग बराबर है। इसका अर्थ यह नहीं लिया जाना चाहिए कि कांग्रेस के वोटों में हुई गिरावट धर्मनिरपेक्ष वोटों में गिरावट को दिखाता है। लेकिन इतना ज़रूर है कि भाजपा के पक्ष में वोट, जो 1977 में लगभग 13-14 प्रतिशत था, उसमें लगभग 20-22 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। 2004 और 2009 में जब कांग्रेस दोबारा सत्ता में आयी, तब भी लगभग 20 प्रतिशत वोट भाजपा को प्राप्त हुए थे जो अनुकूल परिस्थियों में बढ़कर 36-37 प्रतिशत तक पहुंच गये। भाजपा के वोटों में यह भारी बढ़ोत्तरी उत्तर और पश्चिम भारत के राज्यों में सबसे अधिक दिखायी देती है जिनका 1984 के बाद से सबसे ज़्यादा सांप्रदायीकरण हुआ है।

आपातकाल के तत्काल बाद 1977 में हुए चुनाव में कांग्रेस को प्राप्त 34.52 प्रतिशत वोट की तुलना में जनता पार्टी को 41.32 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे। कांग्रेस को 1977 में 154 सीटों पर विजय प्राप्त हुई थी जबकि जनता पार्टी को 296 पर। इनमें से 93 सीटों पर वे उम्मीदवार जीते जो जनता पार्टी से पहले भारतीय जनसंघ के सदस्य थे। यानी जनता पार्टी की जीत में लगभग एक तिहाई हिस्सा भारतीय जनसंघ का था और वोट प्रतिशत की दृष्टि से भी 13-14 प्रतिशत हिस्सा उनका था जो 1984 में गिरकर 7.74 रह गया था। यह गिरावट इसलिए कुछ हद तक अस्वाभाविक थी कि भारतीय जनसंघ के परंपरागत वोटों का आधा हिस्सा कांग्रेस की ओर चला गया था। लेकिन जैसे ही रामजन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत हुई, वैसे ही भारतीय जनता पार्टी के वोटों में फिर से बढ़ोत्तरी होनी शुरू हो गयी और 1991 में भाजपा का वोट प्रतिशत 20 से ज़्यादा हो गया जो अगले पांच साल में बढ़कर 25 प्रतिशत हो गया। इस वोट प्रतिशत के बल पर वह केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब हुई। इसी वजह से वह लगभग छह साल केंद्र की सत्ता पर आसीन रही। यह और बात है कि भाजपा को अकेले स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था और कई अन्य दलों के साथ मिलकर ही वह सरकार बना सकी थी। लेकिन तथ्य यह भी है कि वोट प्रतिशत में अधिक बढ़त न होने के बावजूद भाजपा की सीटों में बहुत अधिक बढ़त दिखायी देती है। इसका कारण यह है कि कांग्रेस के वोट लगभग सभी राज्यों में फैले हुए हैं जो वोट प्रतिशत तो बढ़ा देते हैं लेकिन सीटें नहीं बढ़ा पाते।

2004 और 2009 में कांग्रेस एक बार फिर केंद्र में सत्तासीन हुई और उसकी सीटों और प्रतिशत में बढ़ोतरी हुई और भाजपा की सीटों और वोट प्रतिशत में गिरावट आयी। 2004 में भाजपा को 138 सीटों पर विजय प्राप्त हुई जो 1999 की तुलना में 44 कम थी। 2009 में भाजपा की सीटें और कम होकर 116 ही रह गयीं और वोट प्रतिशत भी 18.80 रह गया था यानी 1996 की तुलना में वोट प्रतिशत में लगभग सात प्रतिशत की गिरावट हुई। 2014 में भाजपा लोकसभा में 282 सीटों पर विजय प्राप्त करने में कामयाब रही। लेकिन इस दौरान कांग्रेस की सीटों में ज़बर्दस्त गिरावट आयी। 2014 में वह केवल 44 सीटें ही जीत सकीं और वोट प्रतिशत 19.81 ही रह गया। 2019 में कांग्रेस की सीटों (52) और वोट प्रतिशत (19.66) में बहुत मामूली सुधार हुआ। यह दिलचस्प है कि 1996 में भाजपा का वोट प्रतिशत 20.29 था, लेकिन उसने 161 सीटों पर विजय प्राप्त की थी और कांग्रेस ने 2014 में 19.31 प्रतिशत वोट प्राप्त किया था जो 1996 में भाजपा को प्राप्त वोट से केवल एक प्रतिशत कम था, लेकिन सीटो में उसके मुक़ाबले भारी गिरावट आ गयी। कांग्रेस केवल 44 सीटों पर ही विजय प्राप्त कर सकी, जो 1996 में भाजपा की सीटों (161) से एक चौथाई से थोड़ी ही ज़्यादा थी।

कांग्रेस ने दस साल शासन किया। इस दौरान ग्रामीण क्षेत्र में रोज़गार के लिए क़ानून बनाया गया जिसे महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी एक्ट (मनरेगा) नाम दिया गया था। इसके अंतर्गत एक साल में प्रत्येक ग्रामीण बेरोज़गार को कम-से-कम सौ दिनों के रोज़गार की गारंटी दी गयी थी। इसी तरह मनमोहन सिंह सरकार ने 2005 में सूचना का अधिकार क़ानून (आरटीआई) भी लागू किया जिसके द्वारा कोई भी भारतीय नागरिक सरकारी, अर्धसरकारी और स्वायत्त संस्थानों से जानकारी हासिल कर सकता था और जानकारी देने से कोई भी संस्थान इनकार नहीं कर सकता था। यह लोकतंत्रीकरण की ओर एक बहुत बड़ा क़दम था। लेकिन इन दस सालों में भ्रष्टाचार और घोटाले के मामलों ने मनमोहन सिंह सरकार को इतना बदनाम कर दिया कि यह आम धारणा बन गयी कि यह एक बहुत ही भ्रष्ट सरकार है। मनमोहन सिंह सरकार को बदनाम करने में निजी निगमों द्वारा संचालित मीडिया घरानों ने अहम भूमिका निभायी जिन्होंने न केवल कांग्रेस को बदनाम करने में बल्कि नरेंद्र मोदी और भाजपा के पक्ष में प्रचार करने में अहम भूमिका निभायी। यह स्पष्ट होने लगा था कि भारत के इज़ारेदार पूंजीपति वर्ग ने अपनी पूरी ताक़त नरेंद्र मोदी और भाजपा के पक्ष में झोंक दी थी और इसी का नतीजा था कि भाजपा की भारी जीत हुई। इस बात को भुला दिया गया कि भाजपा जिस नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में प्रचारित कर रही है, उसे 2002 के गुजरात नरसंहार से जोड़कर देखा जाता है और इसी वजह से अमेरिका और यूरोप के कई देशों में उसका प्रवेश प्रतिबंधित है।

2014 में भाजपा अपने अकेले के बलबूते सत्ता में वापसी करने में कामयाब रही जो अब तक की उसकी सबसे बड़ी सफलता थी। लेकिन यह सफलता उसे अपने सांप्रदायिक एजेंडे के बल पर नहीं मिली थी बल्कि कांग्रेस के दस साल के शासन के दौरान भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपने धुंआधार प्रचार के बल पर मिली थी। इस प्रचार की कामयाबी की वजह यह भी थी कि इस दौरान भारतीय मीडिया, नरेंद्र मोदी द्वारा जनता से जो वादे किये जा रहे थे, उनको प्रचारित करने का मंच बन गया था। यह फ़र्क़ ही मिट गया था कि ये मीडिया के स्वतंत्र मंच हैं या भाजपा के प्रोपेगेंडा मंच। नरेंद्र मोदी ने जनता को आश्वस्त किया था कि वह भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकेंगे, विदेशी बैंकों में जमा काला धन वापस लायेंगे, हर साल दो करोड़ रोज़गार मुहैया करायेंगे और किसानों की आमदनी दोगुनी कर देंगे। इस प्रचार ने उस जनता को भी अपने प्रभाव में ले लिया था जो भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे से सहमत नहीं थे। लेकिन इस बात को नहीं भूला जाना चाहिए कि भाजपा के वे परंपरागत वोटर जो नरेंद्र मोदी के 2002 के ‘कुख्यात कारनामों’ की वजह से उसे अपना नायक मानते थे, वे तो इस बात से ही उनके पीछे लामबंद हो गये थे और उन्हें यक़ीन था कि नरेंद्र मोदी संघ परिवार के एजेंडे को अवश्य आगे बढ़ायेंगे। भाजपा और संघ परिवार के इन परंपरागत समर्थकों ने सोशल मीडिया द्वारा सतह के नीचे अपने सांप्रदायिक और सवर्णपरस्त ब्राह्मणवादी मुहिम का ज़बर्दस्त प्रचार किया। सवर्णों के बीच यह फैलाया गया कि दलित और पिछड़ी जातियां जिन्हें आरक्षण के द्वारा कांग्रेस ने अपने सिर पर बैठा रखा है, उन्हें अपनी सही जगह नरेंद्र मोदी ही दिखा सकते हैं। सांप्रदायिक झुकाव रखने वालों को मुसलमानों का भय दिखाकर एकजुट होने के लिए कहा। यहां तक प्रचार किया गया कि अगर नरेंद्र मोदी जीत कर आते हैं तो लगभग एक हज़ार साल बाद भारत पर वास्तविक अर्थों में हिंदुओं का राज स्थापित होगा। लेकिन इस बार भाजपा को नहीं जितायेंगे तो हिंदू जल्दी ही अपने देश में अल्पसंख्यक हो जायेंगे और एक बार फिर मुसलमान हम पर शासन करने लगेंगे। इस तरह इस झूठे सांप्रदायिक प्रचार ने देश में एक ऐसा माहौल बना दिया जिसके कारण उत्तर और पश्चिम भारत में भाजपा की जीत आसान हो गयी और वह 2014 में स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में वापसी करने में कामयाब रही। उनकी इस कामयाबी के पीछे लगभग पांच दशकों की उनकी रणनीतिक सफलताएं, धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाली मध्यमार्गी राजनीतिक पार्टियों की वैचारिक और रणनीतिक अवसरवादिता तथा पार्टी और सत्ता दोनों में कांग्रेस की कार्यप्रणाली में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के भारी क्षरण का हाथ रहा है।

पिछले चार दशकों (1984 से 2024) में भारतीय राजनीति में कुछ बुनियादी बदलाव हुए हैं जिन्हें समझे बिना मौजूदा हालात को नहीं समझा जा सकता। हालांकि एक हद तक यह प्रक्रिया लगभग सातवें दशक में आरंभ हो चुकी थी जब कुछ ग़ैर-कांग्रेसी और कथित रूप से समाजवाद में आस्था रखने वाली मध्यमार्गी पार्टियों ने कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए भारतीय जनसंघ से गठजोड़ करने में किसी तरह का संकोच नहीं किया और जिन राज्यों में वे सरकार बनाने में कामयाब रहे वहां उनकी एक प्रमुख भागीदार भारतीय जनसंघ रही। इस तरह भारतीय जनसंघ को अपना विस्तार करने और राजनीतिक पार्टियों के बीच सम्मानजनक स्थान दिलाने में धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की भूमिका भी रही है, इसे नहीं भुलाया जाना चाहिए।

भारतीय जनसंघ सांप्रदायिक फासीवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से ही संबद्ध एक राजनीतिक दल था। आरएसएएस पर महात्मा गांधी की हत्या के समय प्रतिबंध भी लगाया गया था। राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादियों द्वारा पेश किये गये सिद्धांत ‘ग़ैर-कांग्रेसवाद’ के तहत राजनीतिक दलों का एक ऐसा गठजोड़ बनाया गया जिसका एकमात्र मक़सद कांग्रेस को सत्ता से बाहर करना था जबकि कांग्रेस और समाजवादियों की राजनीतिक-सामाजिक विचारधारा कमोबेश एक-सी थी। लेकिन जब समाजवादियों और अन्य मध्यमार्गी राजनीतिक दलों ने भारतीय जनसंघ के साथ गठजोड़ करने में किसी तरह की विचारधारात्मक अड़चन नहीं समझी तो समाजवाद पर उनकी आस्था भी धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ती गयी और भारतीय जनसंघ की हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिकता उनके लिए कोई बड़ा मुद्दा नहीं रह गयी थी।

दो दशक से ज़्यादा समय तक केंद्र और अधिकतर राज्यों में सत्ता में रहने के कारण कांग्रेस में कई लोकतंत्र-विरोधी प्रवृत्तियां मज़बूत होती गयीं। हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार बढ़ रहा था, महंगाई बढ़ रही थी, बेरोज़गारी बढ़ रही थी और इसके साथ ही जनता में असंतोष बढ़ रहा था। किसानों, मज़दूरों, युवाओं और विद्यार्थियों के आंदोलन तेज़ होते जा रहे थे। इन आंदोलनों को दबाने के लिए हिंसा और उत्पीड़न का सहारा भी लिया जा रहा था। इसी दौरान एक अदालती फ़ैसले के कारण प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की लोकसभा सीट ख़तरे में पड़ गयी थी और उन पर विपक्षी दलों द्वारा इस्तीफ़ा देने का दबाव बढ़ता जा रहा था। (जिस एक तकनीकी वजह से इन्दिरा गांधी की लोकसभा की सदस्यता को ख़ारिज कर दिया गया था, वैसे कई-कई उल्लंघन नरेंद्र मोदी हर चुनाव में करते हैं।) अराजकता की स्थिति से निपटने के लिए संविधान में दी गयी आपातकाल की व्यवस्था का लाभ उठाते हुए इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को पूरे देश में आपातकाल लागू कर दिया और लगभग सभी विपक्षी पार्टियों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया। बहुत कठोर सेंसरशिप लागू कर दी गयी। आपातकाल 18 महीने तक लागू रहा और बाद में कांग्रेस ने आपातकाल हटाने की घोषणा करने के साथ आम चुनाव की भी घोषणा कर दी। सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया। सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण की कोशिशों के कारण विभिन्न बूर्जुआ पार्टियां कांग्रेस को हराने के लिए एक झंडे तले एकत्र हुईं और जनता पार्टी के नाम से एक नये राजनीतिक दल का गठन किया गया। यहां तक कि भारतीय जनसंघ ने भी इस नये राजनीतिक दल में विलय का फ़ैसला लिया। चुनाव हुए और जनता पार्टी स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में आ गयी। संगठन कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेता मोरारजी देसाई को सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री बनाया गया। अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री बनाये गये और लालकृष्ण आडवाणी सूचना और प्रसारण मंत्री। दो महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों और केंद्रीय सत्ता में प्रभावशाली उपस्थिति ने आरएसएस को अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता की केंद्रीय परिधि तक पहुंचा दिया था। यह व्यवस्था में घुसपैठ की दृष्टि से बहुत बड़ी उपलब्धि थी। पहली बार कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गयी थी। लेकिन ज़्यादा समय तक वह सत्ता से बाहर नहीं रही। लगभग ढाई साल बाद ही जनता पार्टी सरकार अपने अंतर्विरोधों की वजह से सत्ता से बाहर हो गयी।

भारतीय जनसंघ ने अपना विलय तो जनता पार्टी में कर दिया था, लेकिन वे सभी जो किसी समय भारतीय जनसंघ के सदस्य थे और अब जनता पार्टी में थे, उन्होंने आरएसएस से अपनी संबद्धता नहीं तोड़ी थी। वे न केवल आरएसएस के सदस्य अब भी थे, वरन उनकी बुनियादी आस्था भी आरएसएस में ही थी। आरएसएस ने अपनी विचारधारा और लक्ष्यों में कभी भी किसी तरह का बदलाव नहीं किया था। उनका अंतिम लक्ष्य लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समतावादी भारत को हिंदू राष्ट्र में बदलना था। जनता पार्टी के टूटने की एक बड़ी वजह जनता पार्टी के उन सदस्यों का, जो कभी भारतीय जनसंघ से आये थे, आरएसएस से संबद्ध होना था। समाजवादी दलों से आये कुछ नेता जो पारस्परिक एकता के लिए धर्मनिरपेक्षता को बुनियाद की तरह देखते थे, उन्होंने जनसंघ के पूर्व सदस्यों की दोहरी निष्ठा पर सवाल उठाने शुरू कर दिये। उन्होंने कहा कि अगर उन्हें जनता पार्टी में रहना है तो उन्हें आरएसएस से संबंध तोड़ना होगा। स्पष्ट था कि आरएसएस से आये सदस्य इस बात के लिए तैयार नहीं हुए और इस तरह भारतीय जनसंघ जिसका थोड़े समय के लिए जनता पार्टी में विलय हो गया था, एक नये नाम के साथ भारतीय जनता पार्टी के रूप में पुन: अस्तित्व में आ गयी।

पहले भारतीय जनसंघ और बाद में भाजपा के साथ गठजोड़ की जो परंपरा ग़ैर कांग्रेसी दलों ने सातवें दशक में शुरू की थी, वह लगातार चलती रही। विडंबना यह भी रही कि थोड़े समय के लिए जब कांग्रेस सबसे बड़ा दल होने के बावजूद अन्य ग़ैर भाजपा पार्टियों के सहयोग के बिना सरकार नहीं बना सकती थी, तब ग़ैर कांग्रेस और ग़ैर भाजपा पार्टियों ने वामपंथी पार्टियों का सहयोग लेने के लिए भाजपा को भी सरकार में शामिल न कर उनका बाहर से सहयोग लिया। वामपंथी पार्टियां सरकारों में शामिल तो नहीं हुईं लेकिन भाजपा के बाहरी समर्थन से बनी सरकारों को बाहर से समर्थन देने के लिए इसलिए तैयार हो गयीं ताकि कांग्रेस को भी सत्ता से बाहर रखा जा सके। 1975 में आपातकाल लागू करने के कारण लंबे समय तक वामपंथी पार्टियों ने कांग्रेस का मूल्यांकन एक लोकतंत्र-विरोधी तानाशाही राजनीतिक पार्टी के रूप में ही किया। आपातकाल के बाद के लगभग दो दशक तक वामपंथी पार्टियों का यह मानना था कि तानाशाही का वास्तविक ख़तरा कांग्रेस से है और उसको सत्ता से बाहर रखने के लिए ऐसी सरकारों को भी समर्थन दिया जा सकता है जो भाजपा के समर्थन पर टिकी हों।

1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार जब बनी तब कांग्रेस को सबसे ज़्यादा, 197 सीटें मिली थीं। विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में एक नये दल, जनता दल का गठन हुआ और कुछ अन्य दलों के साथ मिलकर राष्ट्रीय मोर्चे का गठन किया गया। राष्ट्रीय मोर्चे को 146 सीटें, भाजपा को 86 सीटें और वामपंथी दलों को 52 सीटें मिली थीं। राष्ट्रीय मोर्चा कांग्रेस के विरोध में बना था और बोफोर्स ख़रीद में हुए भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया गया था, इसी वजह से कांग्रेस के साथ न तो राष्ट्रीय मोर्चा जा सकता था और न ही वामपंथी दल जो कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी बनाये रखना चाहते थे। राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार तभी बन सकती थी जब भाजपा और वामपंथ दोनों का समर्थन मिले। वामपंथ भाजपा के साथ किसी सरकार में शामिल नहीं हो सकता था, इसलिए वामपंथी पार्टियों ने यह शर्त रखी कि अगर भाजपा राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार में शामिल न हो, तो वह उनका बाहर से समर्थन कर सकती है। इस तरह भाजपा और वामपंथ दोनों ने राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार का बाहर से समर्थन किया और विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार अस्तित्व में आयी। सरकार से बाहर रहकर लेकिन सत्ता की नज़दीकी का भाजपा और आरएसएस ने पूरा लाभ उठाया। उन्होंने अपनी ज़मीनी स्थिति को ही मज़बूत नहीं किया बल्कि सरकार के विभिन्न संस्थानों में संघ-समर्थकों की मौजूदगी को यथासंभव मुमकिन बनाया। जम्मू और कश्मीर राज्य इसका उदाहरण है जहां विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में जगमोहन को दुबारा जम्मू और कश्मीर राज्य का राज्यपाल बनाया गया और उसी अवधि में (19 जनवरी 1990 से 26 मई 1990) इस राज्य की स्थितियां न केवल बिगड़ती गयीं बल्कि कश्मीरी पंडित समुदाय को राज्य की तरफ़ से सुरक्षा मुहैया कराने के बजाय उन्हें पलायन करने के लिए उकसाया गया। यह और बात है कि आज भाजपा इसके लिए कांग्रेस को अपराधी बताती है जबकि कश्मीरी पंडितों का सबसे बड़ा पलायन विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में हुआ था, जिसका भाजपा न केवल बाहर से समर्थन दे रही थी बल्कि उनका अपना आदमी वहां का राज्यपाल था। जगमोहन ने बाद में भाजपा की सदस्यता ले ली थी और इस पार्टी की तरफ़ से सांसद भी रहे। यहां इस बात को रेखांकित करने की ज़रूरत है कि कश्मीर में जब आतंकवादी गतिविधियां चरम पर थी, तब उनके हमले के शिकार कश्मीरी पंडित ही नहीं हुए थे, उनसे कहीं ज़्यादा बड़ी संख्या में कश्मीरी मुसलमान मारे गये। वे एक ओर आतंकवादियों की हिंसा के शिकार हो रहे थे, तो दूसरी ओर उन्हें भारत की सेनाओं के हिंसक दमन का भी सामना करना पड़ रहा था।

विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ी जातियों के बीच अपने मोर्चे को मज़बूत करने के लिए 13 अगस्त, 1990 को मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू किया। इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। हिंदुओं का सवर्ण समाज जिन्होंने दलितों और आदिवासियों को मिलने वाले आरक्षण को भी कभी मन से स्वीकार नहीं किया था, विश्वनाथ प्रताप सिंह के इस फ़ैसले के विरोध में सड़कों पर उतर आया। इनको परोक्ष रूप में भाजपा और आरएसएस का समर्थन प्राप्त था और कुछ हद तक अन्य पूंजीवादी पार्टियों के सवर्ण नेताओं का भी। भाजपा-आरएसएस ने, जिन्हें मंडल आयोग संबंधी फ़ैसले से अपना बढ़ता राजनीतिक वर्चस्व ख़तरे में नज़र आने लगा था, एक बार फिर से रामजन्मभूमि आंदोलन को तेज़ करने का फ़ैसला किया। भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने द्वारका से अयोध्या तक रथयात्रा निकालने का फ़ैसला किया। रथ-यात्रा के दौरान जगह-जगह दंगे हुए और बड़े पैमाने पर अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा हुई। भाजपा ने विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया और इस तरह वह सरकार 11 महीने में ही गिर गयी। विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने जो विश्वनाथप्रताप सिंह के मोर्चे से अलग होकर कांग्रेस के बाहरी समर्थन से प्रधानमंत्री बने। लेकिन कांग्रेस ने चार महीने बाद ही समर्थन वापस ले लिया और जून में चंद्रशेखर ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया। इन अस्थिरताओं के बीच 1991 में कांग्रेस एक बार फिर सत्ता में आयी और पूरे पांच साल के लिए पी वी नरसिंहराव देश के प्रधानमंत्री रहे। नरसिंह राव के समय ही अयोध्या की चार सौ साल पुरानी मस्जिद को दिन-दहाड़े संघ के कार्यकर्ताओं ने ध्वस्त कर दिया और वहां राम का एक मंदिर अस्थायी रूप में स्थापित कर दिया गया जिसे रोकने में कांग्रेस की तत्कालीन सरकार पूरी तरह नाकामयाब रही।

पांच साल शासन के बाद 1996 में एकबार फिर कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गयी और 1996 से लेकर 1998 के बीच कई सरकारें बनीं। सबसे पहले 1996 में भाजपा के नेतृत्व में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी जो केवल 13 दिन ही सत्ता में रह सकी। इसके बाद लगभग एक-एक साल के लिए क्रमश: इंद्रकुमार गुजराल और एच डी देवीगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चे की सरकारें बनीं। उसके बाद 1998 में 13 महीने के लिए एनडीए सरकार का गठन हुआ और अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। 1999 के आम चुनाव के जरिए भारतीय जनता पार्टी अपने अन्य सहयोगियों की मदद से एकबार फिर सत्ता में आयी और पूरे पांच साल तक अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री रहे। इस तरह 1984 से 2004 तक भाजपा केंद्र की सत्ता में तो केवल छह साल ही रही लेकिन इस अवधि में भाजपा और संघ परिवार अपनी ताक़त बढ़ाता रहा। रामजन्म भूमि आंदोलन तेज़ होता रहा और जनता के बीच सांप्रदायिक विभाजन उग्र होता गया।

कांग्रेस जब-जब सत्ता में रही, उसने भाजपा-आरएसएस के सांप्रदायिक अभियान के विरुद्ध मिलजुलकर संघर्ष करने के बजाय पूरी तरह से अवसरवादी रवैया अपनाया। 1989 से 1991 के बीच और 1996 से 1998 के बीच कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों ने भी भाजपा को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में सत्ता का हिस्सेदार बनाया और इन सबका परिणाम यह हुआ कि भाजपा जिसका 1984 में वोट प्रतिशत केवल 7.74 था, पंद्रह साल की अवधि में उसके वोट बैंक में तीन गुना बढ़ोत्तरी हुई और वह अन्य दलों के सहयोग के साथ 1998 में छह साल के लिए केंद्र में सत्तासीन हो गयी। जब 2004 में दस साल के लिए कांग्रेस केंद्र में फिर से सत्ता में आयी तब भी जनता के बीच हिंदुत्व की राजनीति के प्रभाव को कम करने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया गया। 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस और 2002 के गुजरात नरसंहार के अपराधियों को भी वह सज़ा दिलवाने में नाकाम रही। न केवल कांग्रेस बल्कि अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टियां भी इस डर से कि कहीं बहुसंख्यक हिंदू जनता उनसे दूर न हो जाये, ऐसे सभी मामलों में चुप्पी साधे रहने में ही अपनी भलाई समझी। नतीजा यह हुआ कि भाजपा अपनी नफ़रत की राजनीति का प्रचार बड़े पैमाने पर करती रही। यही नहीं, जब मौक़ा मिला वामपंथी पार्टियों और कांग्रेस को छोड़कर, और आरजेडी और डीएमके जैसे अपवादों के अलावा, लगभग सभी क्षेत्रीय पार्टियों ने कभी-न-कभी भाजपा के साथ मिलकर सरकारें बनायीं या उनसे सहयोग लिया और दिया। यहां तक कि उन्हें नरेंद्र मोदी से भी कोई परहेज़ नहीं था।

(क्रमशः…)

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1 thought on “वर्तमान राजसत्ता का चरित्र और लोकतंत्र का गहराता संकट – 1 / जवरीमल्ल पारख”

  1. भारत के राजनीतिक विकास की यात्रा में हिंदू बहुसंख्यक सांप्रदायिक ताकतों की बढ़त, सत्ता में बढ़ते दखल के साथ सत्ता पर काबिज़ हो जाना, आर‌‌एस‌एस, भाजपा द्वारा ध्रुवीकरण, नफ़रत की राजनीति कर धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक मूल्यों को नकारते हुये, संविधान की धज्जियां उड़ाकर कारपोरेट के हाथों देश को गिरवी रखना तथा साम्राज्यवाद की चाकरी करना यही सब किया जा रहा है। बहुत अच्छे लेख के लिये पारख जी को बहुत-बहुत बधाई।

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