‘धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय में यक़ीन करने वालों को नरेंद्र मोदी और भाजपा के सत्ता में आने को लेकर जो-जो आशंकाएं थीं, वे सब और अधिक भयावह रूप में पिछले दस सालों में सच साबित हुई हैं।’ —जवरीमल्ल पारख के आलेख का दूसरा भाग:
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दक्षिणपंथी राजनीति और अपराध-प्रेरित पूंजीवाद
जिस समय हिंदुत्व की सांप्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति के प्रभाव का विस्तार हो रहा था, ठीक उसी अवधि में भारत का शासक वर्ग अधिकाधिक दक्षिणपंथ की ओर झुकता जा रहा था। आर्थिक नीतियों में बदलाव की शुरुआत तो राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में ही होने लगी थी, लेकिन समाजवादी चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री रहते भारत ने आर्थिक उदारीकरण की नयी नीतियों की तरफ़ क़दम बढ़ाना शुरू कर दिया था और नरसिंहाराव के काल में तो इस नयी आर्थिक नीति के पुरोधा मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाकर इस दिशा में निर्णायक क़दम उठा लिया गया। नेहरू और इंदिरा गांधी काल की नीतियों से पूरी तरह पल्ला झाड़ लिया गया। इसका प्रभाव विदेश नीति में भी दिखने लगा था। इन बदलावों का एक पहलू यह भी था कि भाजपा की आर्थिक नीतियां उससे बिल्कुल ही अलग नहीं थीं बल्कि वह किसी भी अन्य पार्टी की तुलना में ज़्यादा दक्षिणपंथी थी। वह तो जनता के पक्ष में उतने क़दम भी उठाने में यक़ीन नहीं करती थी जो मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में वामपंथी दलों के दबाव में उठाये गये थे। अटल बिहारी वाजपेयी को कई जनविरोधी क़दमों को उठाने का श्रेय जाता है जिसमें सरकारी कर्मचारियों के हित में कई दशकों से चली आ रही पेंशन योजना समाप्त करना भी शामिल है। उन्होंने अपने कार्यकाल में विनिवेशीकरण का एक अलग मंत्रालय बना दिया और सार्वजनिक क्षेत्र की कई लाभ कमाने वाली कंपनियों का निजीकरण किया। वाजपेयी के काल में संघ का सांप्रदायिक एजेंडा भी जारी रहा, विशेष रूप से शिक्षा के भगवाकरण की कोशिशें ज़ोर-शोर से चलायी गयीं।
धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय में यक़ीन करने वालों को नरेंद्र मोदी और भाजपा के सत्ता में आने को लेकर जो-जो आशंकाएं थीं, वे सब और अधिक भयावह रूप में पिछले दस सालों में सच साबित हुई हैं। नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने से पहले जो भी वादे किये, उनमें से एक भी पूरा करना तो दूर, छुआ तक नहीं गया। विदेश से काला धन नहीं आया, बेरोज़गारी पहले के किसी भी समय से ज़्यादा बढ़ गयी। महंगाई बेलगाम हो गयी। यहां तक कि सेना में स्थायी भर्ती को समाप्त कर अग्निवीर योजना लायी गयी जिसके कारण ग्रामीण युवाओं के रोज़गार का एक बड़ा क्षेत्र लगभग बंद हो गया। ग़ौरतलब यह है कि अग्निवीर की गाज सामान्य सैनिकों की भर्ती पर पड़ी थी, सेना में अफ़सर बनने वाले वर्ग पर नहीं। मोदी सरकार ने कई ऐसे क़दम उठाये जिसके मूल में कुछ पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाना था। 2016 में अचानक नोटबंदी के द्वारा 500 और 1000 के नोटों का चलन बंद कर दिया गया। उसके पीछे दावा यह किया गया कि इससे काला धन बाहर आ जायेगा और आतंकवाद पर रोक लगेगी। लेकिन हुआ इसके विपरीत। 98 प्रतिशत मुद्रा वापस बैंकों में पहुंच गयी। यानी कि अगर इन 98 प्रतिशत में काला धन भी था तो वह अब सफ़ेद हो चुका था। सुप्रीम कोर्ट की न्यायाधीश बी वी नागरत्ना ने नोटबंदी पर सवाल उठाते हुए सही कहा कि अगर 98 प्रतिशत मुद्रा बैंकों में वापस पहुंच गयी थी, तो फिर काला धन कहां था। कहीं यह योजना काले धन को सफ़ेद में बदलने की योजना तो नहीं थी? आमतौर पर बड़े नोट इसलिए बंद किये जाते हैं कि यह माना जाता है कि काला धन बड़े नोटों में ही रखा जाता है। लेकिन 500 और 1000 के नोट दरअसल कुल मुद्रा के अस्सी प्रतिशत से ज़्यादा थे और स्वाभाविक था कि जिनके पास काला धन था, उन्होंने भी बड़ी आसानी से बैंकों के द्वारा अपने धन को सफ़ेद करने में बिना किसी रुकावट के कामयाबी हासिल की। यह स्पष्ट रूप से एक सोचा-समझा घोटाला था, अपने उन पूंजीपति मित्रों को लाभ पहुंचाने के लिए जिनके पास नगदी में काफ़ी काला धन एकत्र हो गया था। यह इस बात से भी साबित होता है कि एक हज़ार के नोट पर पाबंदी लगाकर दो हज़ार के नोट की शुरुआत की गयी।
दूसरा बड़ा घोटाला जीएसटी लागू करना था जिसके माध्यम से लगभग हर चीज़ को टैक्स के दायरे में ला दिया गया और टैक्स की दरें भी बढ़ा दी गयीं। इसके साथ ही राज्यों को टैक्स का उनका हिस्सा समय पर देने के बजाय विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों पर दबाव डालने के लिए इस्तेमाल किया गया। जीएसटी ने चीज़ों को महंगा करने में अहम भूमिका निभायी है। इसके विपरीत उन उत्पादों और सेवाओं को जीएसटी से बाहर रखा गया जो उनके प्रिय पूंजीपति मित्रों की कंपनियों द्वारा मुहैया करायी जा रही हैं।
इसके बाद सबसे बड़ा घोटाला इलेक्टोरल बॉन्ड है जिसे अब सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया है। इस बॉन्ड के द्वारा भाजपा ने आठ हज़ार करोड़ से ज़्यादा धन एकत्र किया है और इनमें से ज़्यादातर स्वेच्छा से दिया गया धन नहीं है बल्कि ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स विभागों द्वारा धमकाकर, गिरफ़्तारी का डर दिखाकर, लाभ पहुंचाकर, ठेके देकर यह धन एकत्र किया गया है। आज़ादी के बाद का यह सबसे बड़ा घोटाला है जो लाया ही इसलिए गया था ताकि असली-नक़ली और छोटी-बड़ी कंपनियों से उगाही की जा सके। अगर सुप्रीम कोर्ट इसे असंवैधानिक घोषित नहीं करता और अब तक किन कंपनियों ने कितने के बॉन्ड ख़रीदे और किन राजनीतिक पार्टियों को कितने के बॉन्ड कब दिये, यह उजागर करने का आदेश स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को नहीं देता, तो जनता को यह मालूम ही नहीं पड़ता कि किस तरह इलेक्टोरल बॉन्ड के नाम पर हज़ारों-हज़ार करोड़ का घोटाला किया गया है। और जो महज़ परंपरागत भ्रष्टाचार नहीं बल्कि अपनी प्रकृति में पूरी तरह आपराधिक लेन-देन को क़ानूनी जामा पहनाया गया है। यह घोटाला उतना ही नहीं है जितने के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे गये हैं बल्कि इन बॉन्डों को हासिल कर भाजपा ने जो हज़ारों-हज़ार करोड़ के ठेके दिये हैं, वे भी इस भ्रष्टाचार का हिस्सा हैं। इस तरह इलेक्रटोल बॉन्ड दरअसल कुछ लाख करोड़ रुपये का घोटाला है जिसकी पूरी सच्चाई तभी बाहर आ सकती है जब निष्पक्ष जांच हो। नोटबंदी की तरह इलेक्टोरल बॉन्ड का लाया जाना पूरी तरह से सोच-समझकर किया गया था जिसका मक़सद ही बड़े पैमाने पर वसूली करना था और इसके लिए कई पुराने क़ानूनों को या तो ख़त्म कर दिया गया या उन्हें इस तरह से बदला गया कि इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से अधिक से अधिक धन एकत्र किया जा सके। उदाहरण के लिए, पहले यह क़ानून था कि चुनावी चंदा केवल वे ही कंपनियां दे सकती थीं जो लगातार तीन साल तक लाभ में चल रही हों और ऐसी कंपनी भी अपने लाभ का केवल साढ़े सात प्रतिशत ही अधिकतम चंदा दे सकती थीं। इस क़ानून को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया और अब कोई कंपनी, चाहे वह लाभ में चल रही हो या घाटे में, इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से जितना चाहे धन दे सकती थी। इसी का परिणाम है कि घाटे में चलने वाली कंपनियां भी कई सौ करोड़ के बॉन्ड ख़रीद रही थीं और लाभ कमाने वाली कंपनियां भी अपने लाभ से कई-कई गुना ज़्यादा के बॉन्ड ख़रीद रही थीं। यही नहीं, पहले विदेशी कंपनियों से चंदा लेने पर प्रतिबंध था, लेकिन अब कोई भी विदेशी कंपनी अपनी देशी शाखा के माध्यम से जितना चाहे धन दे सकती थी। कंपनियों को भी अपने बारे में कुछ बताने की आवश्यकता नहीं थी। इसी का नतीजा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदने वाली बहुत-सी कंपनियां शेल (नकली) कंपनियां हैं जो इसी मक़सद से स्थापित की गयी प्रतीत होती हैं।
इसी तरह एक और बड़ा घोटाला ‘पीएम केयर्स फंड’ है, जिसे प्राइवेट फंड बताया जा रहा है लेकिन जिसमें प्रधानमंत्री पदनाम का उपयोग किया गया है। प्राइवेट फंड के नाम पर उसे आरटीआई से बाहर रखा गया है ताकि इसके बारे में कोई जानकारी जनता तक न पहुंच सके। वे इलेक्टोरल बॉन्ड जिन्हें राजनीतिक पार्टियां 15 दिन में भुनाने में नाकामयाब रहती हैं, उनका पैसा स्वत: ही पीएम केयर्स फंड में चला जाता है। इस फंड की स्थापना कोविड काल में की गयी थी, लेकिन इस फंड में पैसा कई बार सरकारी कर्मचारियों से भी वसूला गया है। दरअसल, इस फंड की भी निष्पक्ष एजेंसी द्वारा जांच होनी चाहिए क्योंकि जनता को यह जानने का हक़ है कि इस फंड में पैसा किन स्रोतों से वसूला गया और उसे कहां व्यय किया गया।
इन कुछ बड़े घोटालों के अलावा भी कई अन्य घोटाले हैं, जैसे फ्रांस से राफेल विमानों की ख़रीद का पूरा मामला बहुत ही संदिग्ध है और उसकी भी जांच होनी चाहिए। इसी तरह पिछले दस सालों में अडानी और अंबानी जैसे गुजरात के कुछ गिने-चुने धन्नासेठों को जिस तरह लाभ पहुंचाया गया है, वह स्वयं में बहुत बड़े घोटाले की ओर संकेत करता है। इसी तरह पिछले दस सालों में बैंकों से बड़ी निजी कंपनियों द्वारा लिये गये लाखों करोड़ रुपये के कर्ज़ों को बट्टे खाते में डाला गया है, वह स्वयं में बहुत बड़ा स्कैम है। इस बात की भी जांच होनी चाहिए कि मोदी शासन के दौरान जो पूंजीपति बैंकों का हज़ारों करोड़ का क़र्ज़ चुकाये बिना भारत से बाहर भाग गये, उनको भारत लाने में सरकार असफल क्यों रही हैं। अगर इन दस सालों का पूरा लेखा-जोखा लिया जाये तो इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि यह आज़ादी के बाद की सबसे भ्रष्ट सरकार है, जिसने क़ानूनों का सहारा लेकर और सरकारी संस्थानों की मदद से भ्रष्टाचार को एक संस्थागत रूप दे दिया है और इस तरह देश की पूरी अर्थव्यवस्था को तबाही की ओर धकेल दिया है।
उत्पादन और रोज़गार बढ़ाने के लिए जो क़दम उठाये जाने चाहिए थे, उसकी कोई संकल्पना तक इस सरकार के पास नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र को पंगु बनाकर निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की जो नीति नरेंद्र मोदी के शासन में आने से ढाई दशक पहले से चल रही थी, उसके भयावह परिणाम मोदी शासन के दौरान सामने आने लगे। 2020 में कोविड महामारी के दौरान जनता को उपयुक्त इलाज और अस्पताल उपलब्ध कराने के बजाय यह सरकार ताली और थाली बजाने और दिया और मोमबत्ती जलाने के टोटके करवाने में व्यस्त थी। निजी अस्पतालों का लालच और नाकारापन खुलकर सामने आ रहा था और सरकारी अस्पतालों को तो पहले ही बर्बादी की ओर धकेल दिया गया था। इसी का परिणाम था कि 2020 से 2022 के बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के अनुसार भारत में इस महामारी से लगभग चालीस लाख लोग मारे गये थे। इसका विडंबनात्मक पहलू यह भी है कि मोदी शासन के अत्यंत प्रिय बाबा रामदेव को एलोपेथी के विरुद्ध न केवल जहर उगलने की छूट दी गयी बल्कि उनकी फ़र्ज़ी दवाइयों को प्रचारित करने के लिए तमाम तरह के मंच उपलब्ध कराये गये। अपने विज्ञापनों द्वारा उन्होंने झूठे दावे किये और नतीजे के तौर पर इन संदिग्ध दवाइयों से न मालूम कितने लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया गया। सुप्रीम कोर्ट अगर सख्त़ न होता तो न मालूम उनका यह गोरखधंधा कब तक चलता रहता!
देश में रोज़गार की हालत इस हद तक बदतर है कि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार भारत में बेरोज़गारों की कुल संख्या का अस्सी प्रतिशत युवा हैं। पिछले पांच दशकों में सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी अभी है। हालत इस हद तक बदतर है कि आईआईटी और आईआईएम से निकले विद्यार्थियों को भी नौकरी नहीं मिल रही है। ऐसा कभी नहीं हुआ लेकिन आज मोदी राज के दौर में हो रहा है। मोदी सरकार यह दावा करती है कि वह कोविड के काल से अब तक प्रतिदिन 80 करोड़ लोगों को पांच किलो प्रति व्यक्ति के हिसाब से मुफ़्त अनाज उपलब्ध करा रही है। लेकिन यदि देश की लगभग 60 प्रतिशत आबादी सुबह-शाम का भोजन भी जुटाने में असमर्थ है तो इससे देश की दयनीय दशा का अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है।
देश को ऐसी भयावह स्थिति में डालने वाली इस सरकार का विरोध करने का अधिकार देश की जनता को भी है और उन विपक्षी पार्टियों को भी जो नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों से सहमत नहीं है। विरोध का यह अधिकार भारत का संविधान उन्हें देता है, लेकिन मोदी सरकार किसी भी तरह के विरोध को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है।
इन दस सालों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने लगातार कोशिश की है कि विरोध की किसी भी तरह की आवाज़ उठने से पहले कुचल दी जाये। यह काम अभिव्यक्ति पर तरह-तरह के प्रतिबंधों के द्वारा ही नहीं किया जा रहा है बल्कि मीडिया पर पूरी तरह नियंत्रण द्वारा भी किया जा रहा है। आज देश में कोई भी समाचार चैनल ऐसा नहीं है जिससे निष्पक्षता की उम्मीद की जा सके। प्रत्येक चैनल मौजूदा सत्ता की ग़ुलाम हो गयी है। ये न्यूज़ चैनल न केवल मोदी और उनकी सरकार और उनकी पार्टी के भोंपू में तब्दील हो गये हैं बल्कि मौजूदा सत्ता के विरोधियों पर हमला करने के मंच भी बन गये हैं। यही नहीं, भाजपा और आरएसएस के सांप्रदायिक एजेंडे का उग्र प्रचार करने में भी ये चैनल पूरी बेशर्मी से लगे हुए हैं और यह भी नहीं सोचते कि इसका देश के ताने-बाने पर कितना भयावह असर पड़ रहा है। दरअसल आज मीडिया के मालिक देशी-विदेशी निगम हैं और वे अपना हित इसी में समझते हैं कि मोदी सरकार के भोंपू बने रहें। मीडिया के इस चाल और चरित्र की वजह से ही उसे गोदी मीडिया नाम दिया गया है। वे स्वतंत्र लेकिन छोटे-छोटे मीडिया समूह जो निगमों के स्वामित्व से मुक्त हैं और यूट्यूब और सोशल मीडिया द्वारा अपनी बात जनता तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं, उन पर हर समय तलवार लटकी रहती है। पिछले छह महीने से न्यूज़क्लिक के प्रवीर पुरकायस्थ जेल में बंद हैं और उनको जमानत तक नहीं दी गयी है। इसी साल जुलाई से लागू होने वाला नया मीडिया क़ानून इन छोटे मीडिया समूहों के अस्तित्व के लिए चुनौती बनकर आने वाला है।
गोदी मीडिया के निर्लज्ज समर्थन के बावजूद शायद नरेंद्र मोदी और भाजपा को यक़ीन नहीं है कि 2024 के चुनाव में उन्हें उतना समर्थन मिल पायेगा जो संविधान में मनचाहा संशोधन करने के लिए ज़रूरी है। 2019 में तो पुलवामा कांड के कारण उनको व्यापक जन-समर्थन प्राप्त हो गया था और उसी के बल पर वे कश्मीर से धारा 370 हटाने, सीएए जैसा ग़ैर-संवैधानिक क़ानून बनाने में कामयाब हो गये थे। सुप्रीम कोर्ट से राम मंदिर के पक्ष में फ़ैसला हासिल करने और अयोध्या में एक भव्य मंदिर बनाने में भी उनको सफलता मिल गयी। इसके बावजूद विपक्षियों के एकजुट होने और जनसमर्थन हासिल करने की संभावना से डरते हुए आये दिन किसी न किसी विपक्षी नेता के पीछे ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स की जांच बैठा दी जाती है। उनके पास यही विकल्प बचता है कि या तो वे भाजपा में शामिल हो जायें या फिर लंबे समय के लिए जेल जाने के लिए तैयार हो जायें। आज विभिन्न पार्टियों के ऐसे बहुत से नेता जेलों में बंद हैं। इनके अलावा कई विद्यार्थी, बुद्धिजीवी, अध्यापक और सामाजिक कार्यकर्ता भी लंबे समय से बिना मुक़दमा चलाये जेलों में बंद हैं। यूएपीए और पीएमएलए जैसे क़ानूनों में ऐसे बदलाव कर दिये गये हैं कि इनमें जमानत हासिल करना नामुमकिन बना दिया गया है। चुनाव के ठीक पहले हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी और कांग्रेस के बैंक खातों पर रोक इस बात को बताती है कि वे विरोधियों को इतना पंगु बना देना चाहते हैं कि चुनाव की लड़ाई एकतरफ़ा हो जाये। तीन अप्रैल 2024 के इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी एक खोजी रिपोर्ट में बताया है कि विपक्षी दलों के जिन बड़े नेताओं ने पिछले दस साल में पाला बदलकर भाजपा का दामन पकड़ा है, उनके भ्रष्टाचार के मामलों को, जिनमें ईडी और सीबीआई की जांच चल रही थीं, भाजपा में जाने के बाद या तो बंद कर दिया गया या ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। इन पचीस नेताओं में दस कांग्रेस से, चार-चार एनसीपी और शिवसेना से, तीन टीएमसी से, दो तेलुगु देशम से और एक-एक समाजवादी पार्टी और व्हाईएसआरसीपी से भाजपा में शामिल हुए। यह बिल्कुल वैसा ही था जैसे ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स की कार्रवाई होने पर या होने के डर से कंपनियों ने इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदकर और/या एप्रुवर बनकर अपनी जान बचायी। इसी तरह द हिंदू में प्रकाशित एक शोध रिपोर्ट के अनुसार 33 कंपिनयों ने 576.2 करोड़ के बॉन्ड ख़रीदे जिसमें से 75 प्रतिशत धन भाजपा को दिया गया जबकि इन 33 कंपनियों का कुल घाटा एक लाख करोड़ से ज़्यादा था। छह कंपनियों ने 646 करोड़ के बॉन्ड ख़रीदे जिनमें से 601 करोड़ के बॉन्ड भाजपा ने भुनाये। ये लाभ कमाने वाली कंपनियां थीं लेकिन इनका कुल लाभ ख़रीदे गये बॉन्ड की राशि से काफ़ी कम था।
इन तथ्यों की रोशनी में स्पष्ट है कि अपने सारे फ़र्ज़ी दावों के बावजूद सच्चाई यह है कि कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें मोदी सरकार ने पिछले दस सालों में कुछ भी जनता के हित में किया हो। किसान, मज़दूर, बेरोज़गार युवक और यहां तक खिलाड़ी भी यदि अपनी मांगों के लिए आवाज़ उठाते हैं तो उन्हें निर्ममतापूर्वक कुचल दिया जाता है। किसान दिल्ली तक न पहुंच सकें, इसके लिए दिल्ली की सीमाओं पर सीमेंट की दीवारें खड़ी कर दी गयीं। लोहे के कांटे गाड़ दिये गये और ड्रोन के द्वारा उन पर आंसू गैस के गोले फेंके गये। यहां तक कि पैलेट से भी हमला किया गया। जिन खिलाड़ियों ने भाजपा के सांसद ब्रजभूषण सिंह के यौन शोषण की शिकायत की, न तो उनकी आवाज़, न उनकी भूख हड़ताल और न ही उनका खेलों से संन्यास लेना प्रधानमंत्री की संवेदना को जगा सका। नरेंद्र मोदी के शासनकाल में मुसलमानों की भीड़ द्वारा हत्या, उनके घरों पर बुलडोज़र चलवाना और उन्हें निरपराध होते हुए भी गिरफ़्तार करके लंबे समय के लिए जेल भेज देना आम बात हो गयी है। मणिपुर में पिछले एक साल से कुकी आदिवासी समूह और मैतेई लोगों के बीच गृह युद्ध की-सी स्थिति बनी हुई है। सत्ता समर्थक मैतेई समूहों (जो अधिकतर हिंदू हैं और बताया जाता है कि आरएसएस उनके बीच सक्रिय है) द्वारा कुकी अल्पसंख्याकों (जो अधिकतर ईसाई हैं) पर हिंसक हमले किये जा रहे हैं। अब तक 200 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। लगभग 6000 घरों को जलाया जा चुका है। लगभग 250 चर्च नष्ट किये गये हैं। 60 हज़ार लोग विभिन्न शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर हैं। हज़ारों की संख्या में हथियार लूटे जा चुके हैं। लेकिन प्रधानमंत्री को इतनी भी फुरसत नहीं है कि मणिपुर जाना तो दूर, उस पर अपनी ज़ुबान भी खोलने के लिए तैयार हों। इसी तरह पिछले कई महीनों से लद्दाख में जनता आंदोलन कर रही है। सोनम वांग्चुक ने 21 दिन की भूख हड़ताल की है, लेकिन उनकी मांगों के बारे में केंद्र सरकार की तरफ़ से कोई अपनी ज़ुबान खोलने के लिए भी तैयार नहीं है। उनकी मांग बस इतनी है कि जो वादे आपने किये थे, उन्हें पूरा करो। आर्टिकल 370 हटाने को लेकर लद्दाख के लोग खुश थे कि अब उनको अपनी स्वतंत्र पहचान के साथ-साथ अपनी लोकतांत्रिक सरकार चलाने का अवसर भी मिलेगा, लेकिन अब उन्हें लगता है कि उनके साथ ज़बर्दस्त धोखा हुआ है। संवेदनहीनता की हालत तो यह है कि उन्हीं की पार्टी का एक लोकसभा सदस्य एक अन्य विपक्षी पार्टी के मुस्लिम सदस्य को लोकसभा में अपमानजनक गालियां देता है और न प्रधानामंत्री और न कोई और नेता इसकी भर्त्सना करना भी ज़रूरी समझता है। मोदी भारत के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने इन दस सालों में एक भी प्रेस कान्फ्रेंस नहीं की है। केवल झूठ, झूठ और झूठ ही उनका सहारा है। विश्व-गुरु बनने का दावा करने वाले प्रधानमंत्री ने आज दुनिया भर में भारत की साख को जितना नुकसान पहुंचाया है, उतना इससे पहले के किसी भी समय में नहीं पहुंचा है।
(क्रमशः…)
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इस आलेख में दक्षिणपंथी हिन्दू साम्प्रदायिक पार्टी भाजपा जो सत्ता में है द्वारा देश के विभिन्न समूहों के मध्य नफ़रत पैदा करने से लेकर कश्मीर में धारा – 370 के हटने से उपजे दुष्प्रभाव, मणिपुर में दो समुदायों के मध्य खूनी संघर्ष व सरकार की विफलता, लद्दाख में छठी अनुसूची की मांग को लेकर पूरे लद्दाख में उबाल, कारपोरेट की लूट, नोटबंदी से भयंकर नुकसान जैसे सवालों को बहुत सारगर्भित ढंग से उठाया गया है। पारख जी को इस आलेख की दूसरी कड़ी को प्रस्तुत करने के लिये पुनः बहुत-बहुत बधाई।