अलग-अलग समुदायों के बीच संदेह और नफ़रत के बीज बोनेवालों को सबसे बड़ी कामयाबी क्या होती है? वह यह कि एक समय आता है जब उन्हें पत्ता भी नहीं हिलाना पड़ता और अपने संदेह के मारे समुदाय खुद ही अफवाहें उड़ाने लगते हैं, अपनी ही बनायी हुई बातों से भय और आक्रोश के शिकार होते हैं, और अंततः बिना बात के आपस में भिड़ जाते हैं। मज़्कूर आलम की चर्चित कहानी ‘कबीर का मोहल्ला’ संदेह और नफ़रत की फसल के इसी दारुण पहलू को सामने लाती है।
——————————————————–
बचाओ… बचाओ… बचाओ… कोई तो दरवाज़ा खोलो… एक कारुणिक आवाज़ के साथ गली की दोनों तरफ़ के कई दरवाज़ों पर कुछ-कुछ पलों के अंतर पर दस्तक हुई। यह दस्तक गहरी स्याह रात के सन्नाटे में लोगों के दिमाग़ में हथौड़े की तरह घम-घम पड़ रही थी … बेतहाशा भागते इस पदचाप में किसी चीत्कार या ट्रेन की व्हिसिल से भी ज़्यादा वेधकता थी। 20000 किलोहर्ट्ज से ज़्यादा की वेधकता… लोग बहरे हो जाना चाह रहे थे… सबने अपने कान बंद कर लिये… फिर भी यह आवाज़ उनके मनो-मस्तिष्क पर ठक-ठक कर रही थी… जैसे खोद डालना चाहती हो सुन्न पड़े दिमाग़ को… बैकग्राउंड से किसी हॉरर म्यूज़िक की तरह गाय की चीख़ भी दहशत पैदा कर रही थी… उस रंभाहट में इतना दर्द था कि जिसे सुनाई पड़ा, उसी का मुंह कलेजे को आ गया…
—
सुबह के चार बज रहे थे, भोर की धुंधली रोशनी ने भी बादलों की वजह से तौबा कर रखी थी। मेघाच्छन्न बिस्तर पर सोयी सुबह ने घनघोर अंधेरे का साम्राज्य क़ायम कर दिया था। तेज़ आंधी की वजह से बिजली गुल थी। इस वजह से स्ट्रीट लाइटें भी हड़ताल पर चली गयी थीं। घुप्प अंधेरे के आगोश में सोये इलाक़े को गाय की रंभाहट ने जगा तो दिया था, लेकिन उस रंभाहट के साथ बचाओ-बचाओ की चीख़ और झींगुर की घुर्रर्र-घुर्रर्र मिलकर उस सुरमई सुबह को रहस्यमयी भयावहता भी प्रदान कर रहे थे। गली की दोनों तरफ़ के अलसाये लोगों के हाथ घबरा कर स्वतः ही बिजली के खटके तक जा पहुंचे थे।
खट… खट… खट… सड़क की दोनों तरफ़ के मकानों में हुई, लेकिन रूठा उजाला नहीं आया। लोगों के मुंह से स्वतः निकला- ओह! बिजली भी नहीं है…!
लोग अपनी-अपनी छतों की तरफ़ भागे… मधुमक्खियों की तेज भनभनाहट, किसी आदमी और गाय की दूर होती जा रही चीख़ की आवाज ज्यादा सपष्ट हो गयी थी। पूरे वातावरण को खौफ़नाक बनाने के लिए गहन अंधकार के साथ बारिश की टिप-टिप और झींगुर की घुर्रर्र-घुर्रर्र तो थी ही। छत पर चढ़े लोगों ने टोह लेने की काफ़ी कोशिश की, लेकिन उन प्रयासों के आड़े कालिमा आ गयी।
एक सशंकित स्वर में बड़बड़ाया- मधुमक्खियां क्यों भनभना रही हैं?
बगल वाली छत से किसी ने डपटते हुए कहा- तुम्हें गाय की चीख नहीं सुनायी पड़ रही, सड़क के उस पार के मियंडी गाय को जबह कर रहे हैं, लेकिन तुम्हें सिर्फ़ मधुमक्खियों के भनभनाने की ही आवाज़ सुनायी पड़ रही है। वाह, भई वाह! हमारे ही कौम में ऐसे बहरे लोग पड़े हैं- मरना तो निश्चित है।
यह सुनते ही कई बाजुएं फड़कीं। अंधेरे में भी कई आंखें अचानक सुलग उठीं और पहले वाले आदमी को घूरने लगीं। वह जलती आंखों का सामना करने का ताब नहीं ला पाया। हड़बड़ाकर उसने मुंह फेर लिया… वह पूरी तरह गड़बड़ा गया था… मेरा मतलब… मेरा मतलब…
चुप! मेरा मतलब… तेरा मतलब… कोई मतलब नहीं… मियवन ने हमला बोल दिया है। किसी हिन्दू और उसकी गाय को उठाकर ले गये हैं… और उसे मार रहे हैं… देखा नहीं, वह बेचारा कैसे अपनी जान की गुहार लगा रहा है। वो मलेच्छ साले तो सुधरेंगे नहीं, लेकिन हम भी कम हैं क्या? वे आकर हमारे घर में मूत कर भी चले जायेंगे तब भी हम अपना पिछवाड़ा खोल कर उनके सामने बिछे रहेंगे… हम तो सहिष्णु लोग हैं न… उदार हृदय…।
इस बात पर गड़बड़ाये से आदमी को अपनी बहादुरी दिखाने का मौक़ा मिल गया था। जोश में आकर बोला- देखें, किस माई के लाल में इतनी हिम्मत है। अभी बाहर जाकर उन सालों को औकात बताते हैं… पता तो चले उन्हें कि हमने भी चूडि़यां नहीं पहन रखी है।
उन्हीं में से एक बुजुर्ग ने कहा- चुपचाप से यहीं पड़े रहो। मौत की मुंह में कूदना बहादुरी नहीं, मूर्खता होती है। वो स्साले एक मारेंगे, तो हम चार मारेंगे… फिलहाल खामोश रहो… घर के अंदर ही बैठे रहो… ये उनकी चाल भी हो सकती है, हमें बाहर निकालने की… वे हमारी ही घात में बाहर बैठे होंगे… जैसे ही दरवाज़ा खोलोगे, तुम्हारा भी काम तमाम। धीरज धरो, मौक़े का इंतज़ार करो… मौक़ा हमें भी मिलेगा… जैसे ही मौक़ा मिले, दबोच लो। बहुत देर तक छत पर रहने की भी ज़रूरत नहीं है। सब अंदर चलकर चुपचाप तैयारियां करो।
—
सड़क की दूसरी तरफ़ का भी माजरा कुछ अलग नहीं था। बच्चाें औरतों को घर के भीतर ही रहने की हिदायत देकर मर्द छत पर जा चढ़े और अंदाज़ा लगाने की कोशिश में थे कि मामला क्या है। घर की एक औरत, जिसका पति छह महीने पहले ही दंगे में मारा गया था, उसकी हादसे के मारे हालत खराब थी। वह बार-बार हाजत महसूस कर रही थी और वॉशरूम की तरफ़ भाग रही थी, बाहर आते ही उसके पेट में ऐंठन होने लगती और वापस वॉशरूम में घुस जाती। डर से उसके पांव थरथरा रहे थे। आंखें लाल और चेहरा सफ़ेद पड़ा हुआ था।
छत पर चढ़े लोग अंधेरे में तीर मारने की कोशिश में थे, तभी बचाओ-बचाओ की आवाज गली के कोने की तरफ़ से आयी, जहां से आगे कोई रास्ता जाता नहीं था। वहां पर कोई 10 फीट गहरा और पांच-छह फीट चौड़ा नाला था, जिसे टपना किसी के लिए भी नामुमकिन था। वे लोग कुछ सोचते इससे पहले ही फिर बचाओ-बचाओ की आवाज सुनायी पड़ी, लगा किसी का कलेजा निकाला जा रहा हो… फिर गाय के डकारने की बेहद तकलीफ़देह रंभाहट फ़िज़ा में ज़ोर से गूंजी… फिर तेज़ धम-धम धड़ाक… धरती कांपी… साथ ही आह… बचाओ की ज़ोरों की चीख़ एक बार फिर उभरी… आवाज़ थरथरायी और सब कुछ शांत … मरघट जैसी शांति।
एक ने कहा, बम! बम की आवाज़ है यह। लगता है बारिश की वजह से ज़्यादा नुकसान नहीं कर पायी। फुस्स हो गयी! बर्फबारी भी हुई है… बाहर निकल कर देखना चाहिए, मामला क्या है। कहीं कोई आदमी न फंसा हो अपना, इन काफ़िरों के चक्कर में। दूसरा बोला- इन काफ़िरों का कोई भरोसा नहीं… मुझे तो शक है कि ये उनकी कोई चाल है। बाहर भयानक दंगा फैल चुका है। ख़ामोशी के साथ अंदर चलो। वे हमें ट्रैक करने की कोशिश कर रहे हैं। छत पर रहना ख़तरनाक हो सकता है।
एक बोला- वे साले हमारे आदमियों को घर से निकाल-निकाल कर मार रहे हैं और हम घर में बैठकर अपनी-अपनी बीवियों की आरती उतारें… बात-बात पर वे हमें आतंकवादी, पाकिस्तानी हमदर्द करार देते हैं। हमेशा शक की निगाह से देखते हैं। इनका कोई ईमान-धरम तो है नहीं, न कोई भरोसा… पता नहीं किस मुसलमान को रेत दिया होगा। बड़े हमदर्द बने हो उनके। तुम्हारे …… में ढेर खुजली हो रही है तो जाओ और खोल कर मिटवा लो खुजली। तुम जैसे जयचंदों की वजह से ही हमारा यह हाल हुआ पड़ा है।
दूसरा बोला- मरने का शौक है तो जाओ। मैं कह रहा हूं कि ये उनकी बिछाई जाल है, तो बात समझ में ही नहीं आ रही। चुपचाप पड़े रहो। अभी मामला ख़त्म नहीं हुआ। अभी तो शुरुआत है। मेढक की तरह उछल रहे हैं स्साले। उछलने दो… हमें भी मौका मिलेगा, जब मिलेगा तो सूद समेत वसूल लेंगे। सुबह होने दो… एक-एक को काट डालेंगे, लेकिन अभी बहुत फुदकने की जरूरत नहीं… ख़ामोश रहने का वक़्त है। देखते नहीं, पूरी तैयारी के साथ हैं वे लोग… बम-बारूद और तमाम तरह के असलहे से लैस… अगर अभी बाहर निकले तो अंधेरे का फ़ायदा उठाकर वे हमें चुन-चुनकर मारेंगे। मैं कह रहा हूं कि वे हमें ट्रैक कर रहे हैं तो तुम्हारे समझ में बात क्यों नहीं आती। मेरी मानो तो चुपचाप अपने-अपने घरों में जाओ… तैयारी पुख्ता करो… यहां ज़्यादा देर रहे तो उन्हें ये अंदाज़ा हो जायेगा कि घर के सारे मर्द छत पर हैं। अगर उन्हें इसका जरा-सा भी भान हुआ तो वे नीचे हमारे घरों पर हमला बोल देंगे…
सब कमरे की तरफ़ भागे। दोनों तरफ़ लाठी, भाला, तलवार, त्रिशूल, बम-बारूद, बंदूक, कट्टा आदि जो कुछ भी था घर में, इकट्ठा किया जाने लगा। फ़िज़ा में नारा ए तकबीर अल्लाहो अकबर और हर-हर महादेव की आवाज़ें गूंजने लगीं।
गली की दोनों तरफ़ से उठने वाली ये ध्वनियां आपस में टकरा कर अजीब-सी प्रतिध्वनि पैदा कर रही थीं। माहौल में दहशत गहराती जा रही थी । इस अंधेरे में भी यह महसूस करना मुश्किल नहीं था कि सबका चेहरा ज़र्द पड़ा हुआ है।
पता नहीं अब क्या होगा!
—-
मैं शहर का नाम छोड़ देता हूं, लेकिन मोहल्ले का नाम आपको बता दूं, यह है कबीरगंज मोहल्ला। बताता चलूं कि यह जैसा मोहल्ला है, वैसे मोहल्ले गंगा-जमुनी तहज़ीब वाले वतन के कई शहरों में आपको देखने को मिल जायेंगे। कोई अजूबा नहीं है ये मोहल्ला। इस मोहल्ले में गली की एक तरफ़ के अधिकतर मकान हिन्दुओं के और दूसरी तरफ़ मुसलमानों के हैं। आप जानते ही हैं, ऐसे मोहल्ले जहां हिन्दू-मुस्लिम दोनों की आबादी लगभग बराबरी पर हो, तो सिर्फ़ वह मोहल्ला ही क्यों, आस-पास का इलाक़ा भी संवेदनशील हो जाता है। इसलिए सरकार ने इस मोहल्ले को संवेदनशील घोषित कर रखा है। और जहां संवेदना से भरपूर (संवेदनशील) इतने लोग रहते हों, ज़ाहिर है, वहां तनाव भी होगा ही। सिर्फ़ माहौल में ही क्यों? वहां का जर्रा-जर्रा तनाव से चमकता है और शहर भर ये जर्रे उड़-उड़कर किसी न किसी के माथे से जा चिपकते हैं, जिसकी गवाही यहां के ज़्तयादार लोगों के माथों पर पड़ी शिकन में देखी जा सकती है। चार-पांच साल में यहां दंगे हो ही जाते हैं… और इन शरारों की वजह से माथे पर पड़ी परेशानकुन सिकुड़न… वह, वह तो हमेशा बनी ही रहती हैं।
—
कमाल की बात यह है कि तमाम तनावों के बाद भी गली के दोनों तरफ़ के बीच रिश्ते की डोर भी उतनी ही मज़बूत और यक़ीनी है, जितना कांटों के साथ गुलाब का होना। सड़क के इस पार के लोगों के रिश्ते सड़क के उस पार के लोगों से दादा-दादी, चाचा-चाची, मौसा-मौसी, ताया-तायी, भाई-बहन आदि के हैं। वह भी बेहद आत्मीय… इतने आत्मीय कि ये दोनों बड़े प्यार से दिवाली-शबेबरात, होली-ईद, दशहरा आदि पर्व-त्योहार बड़े इत्तेहाद औ एकता के साथ मनाते हैं। साथ मिलकर होली के रंग में डूबते हैं, छक कर मालपुआ उड़ाते हैं। विरहा-जोगीरा तो पूरे फाल्गुन चलता रहता है। रमज़ान में सेहरी के वक़्त जगाने के लिए दोनों साथ मिलकर काफ़िला निकालते हैं और ईद में एक-दूसरे से गले मिलना तो नहीं ही भूलते, सेवइयों के साथ मटन-पुलाव भी छक कर उड़ाते हैं। दशहरे में जागरण और रामलीला का आयोजन करते हैं, दिवाली-शबेबरात में एक साथ दीप जलाते और पटाखे फोड़ते हैं। दोनों तरफ़ के लोग मिलकर कमिटी बनाते हैं, चंदा उगाही पर निकलते हैं और तरह-तरह के आयोजन करते-करवाते हैं। दोनों तरफ़ के कलाकार रामलीला, काफ़िला मुक़ाबला, देवी जागरण आदि में ऐसे भाग लेते हैं कि यह बताना मुश्किल है कि कौन, कौन है। उस दरमियान सड़क की दोनों तरफ़ कहीं कोई फ़र्क नहीं दिखता। एक-दूसरे के घर उनका रोज़ का आना-जाना रहता है और हर किसी के सुख-दुख में पूरे प्रेम एवम खलूस के साथ शामिल होते हैं। अगर किसी की बेटी बियाही जा रही हो, तो एक टांग पर खड़े रहते हैं, लेकिन वहां का पानी तक नहीं पीते। रुपये-पैसे से भी एक-दूसरे की मदद को हमेशा तैयार रहते हैं।
—
ये इतने फराख़ दिल लोग हैं कि खुशी के हर मौक़े पर भिखारी को भी शामिल करते हैं, ख़ासकर उस भिखारी को जो गली के मोड़ पर नीम के नीचे बैठा रहता है। बैठा क्या रहता है, उसने तो वहीं अपना आशियाना भी बना लिया है। पेड़ के सहारे ही एक फूस की छप्पर डाल ली है और रात में वहीं सो भी जाता है। ये कोई आज की बात नहीं है, बरसों से वह वहीं रह रहा है। क़रीब दो-तीन दशक पहले जब वह बहुत छोटा था, तब पता नहीं कहां से बवंडरियाता यहां चला आया था। मोहल्ले के ही एक आदमी ने उसे सड़कों की धूल फांकते देखा तो उसे अपने घर ले आया और खाना खिलाया। उसके माता-पिता का नाम, घर का पता आदि पूछा, तो वह कुछ बता नहीं पाया। बताते हैं कि जब उसने उस अजनबी बच्चे से उसका नाम पूछा, तो तोतली भाषा में उसने पता नहीं क्या कहा, ये न उनके समझ में आया और न मोहल्ले के और किसी को। लेकिन जनाब कुछ न कुछ तो कहना ही पड़ेगा… तो ऐसे बच्चों को जिस नाम से पुकारा जाता है, मोहल्ले वालों ने उसे उस नाम से पुकारना शुरू कर दिया। जी हां, ठीक समझ रहे हैं आप, छोटू! इसके बाद थाने में उसकी सूचना दे दी गयी। महीनों बीत गये, लेकिन वह कौन है, कहां से आया है, उसका जात-धर्म क्या है, कुछ भी नहीं पता चला। मोहल्लेवालों के बार-बार पूछताछ करने से आजिज़ पुलिस ने उसे यतीमख़ाने भेजने का निर्णय कर लिया। इस एक महीने में छोटू कभी सड़क के इस पार, तो कभी उस पार के किसी के घर में रुक जाता था। इस एक महीने में मोहल्ले वालों को उससे बेहद लगाव हो गया था। साथ में वह उनके घरों के छोटे-मोटे काम भी कर देता था। इसलिए पुलिस को उसे ले जाने नहीं दिया। तब से वह अलग-अलग दिन अलग-अलग परिवार के साथ रहने लगा। कुछ सालों तक यह सिलसिला मुसलसल चला। जब वह थोड़ा बड़ा हुआ तो मोहल्ले वालों ने ही नीम के पेड़ के नीचे उसके रहने की व्यवस्था कर दी। उसके फूस के छप्पर के ऊपर ही मोहल्ले के नाम का बैनर भी लगा दिया- कबीरगंज।
मोहल्ले में आने वालों आगंतुक बैनर पर मोहल्ले का नाम पढ़ते और उससे मोहल्ले के किसी व्यक्ति का या और कहीं का जब पता पूछते, तो उसे भी उसी तर्ज पर कबीर कह देते, जैसे रिक्शा चलाने वाला अच्छा-भला आदमी रिक्शा बन जाता है।
…तो ऐ रिक्शा… की तर्ज पर वह ऐ कबीर… बन गया। मोहल्ले वालों की ज़ुबान पर भी धीरे-धीरे उसका यही नाम कबीर चढ़ गया और उसे कबीर ही कहना शुरू कर दिया। अब तो वह भी भूल चुका था कि उसका असली नाम क्या है या मोहल्ले वाले उसे शुरू में क्या कहते थे। भूले-भटके कोई बूढ़ा-पुराना उसे छोटू कह भी देता तो वह समझ ही नहीं पाता कि उसे ही संबोधित किया जा रहा है। इस तरह कई सालों के लंबे वक़्फ़े में उसका नामकरण संस्कार पूरा हुआ।
किस जात-मजहब का है, यह तो उसे तब भी नहीं पता था जब यहां आया था और अब भी नामालूम, और वह जानना भी नहीं चाहता था, क्योंकि धर्म सीधे उसके कर्म के मार्ग में बाधा बन रहा था। हां, तो यह भी बता ही दूं कि उसका कर्म क्या था? वह कबीर की तरह कपड़ा नहीं बुनता था, वह तो भिक्षाटन के ज़रिये अपना गुज़र-बसर कर रहा था… और उसके कई दफ़्तर थे- मुख्य दफ़्तरों में थे इबादतगाहों के बुलंद दरवाज़े… और उसका मानना था कि अगर वह किसी धर्म को मानने लगेगा तो वह निर्भय होकर किसी भी धर्मस्थल के बाहर खड़ा नहीं हो सकेगा, साथ ही उसकी भिक्षा कम हो जाएगी। फिलहाल वह जिस स्टेटस में है, उसमें वह आराम से मस्जिद के बाहर पांचों वक़्त की नमाज़ के समय जाकर खड़ा हो जाता और अल्लाह के नाम पर पैसे-वैसे मांग-चांग लेता। और आरती के वक़्त मंदिर के बाहर खड़े होकर भगवान के नाम पर सदा भी लगा लेता… गुरुद्वारे और चर्च के सामने भी वह जाकर खड़ा हो जाता। शायद यही वजह थी कि वह गली की दोनों तरफ़ दुलारा था।
मोहल्ले वालों के लिए वह सुख-समृद्धि लेकर आया था। यह सच है कि नहीं, ये तो विवाद का विषय है, लेकिन एक बात पक्की है कि वह उनके लिए चमत्कारी सिद्ध हुआ था। उसके आने के बाद से मोहल्ले में चोरी-चकारी की घटनाओं में अप्रत्याशित रूप से कमी आयी थी। वैसे इसका कारण शायद चमत्कार नहीं था, बल्कि यह था कि मोहल्ले के सीवान पर ही उसका आसन था, जहां वह रात में सोता था और मोहल्ले की दूसरी तरफ़ इतना चौड़ा और गहरा नाला था जिसे पार करना किसी व्यक्ति के लिए तो कम से कम संभव नहीं था। लेकिन मोहल्ले वाले इस बात को उसका चमत्कार ही मानते थे। वे मानते थे कि एक बेआसरे को हमने आसरा दिया है, इसलिए यह भगवत कृपा हम पर हुई है।
—
चार-पांच साल बीतते-बीतते इसी प्यारे-से मोहल्ले में एक दिन सुबह-सुबह जब लोग सोकर उठते तो चाय की प्याली के साथ उन्हें यह भी पता चलता कि तूफ़ान आया हुआ है। वह भी ऐसा तूफ़ान जिसकी तीव्रता किसी भी स्केल पर नापना मुश्किल हो जाता था। फलां हिन्दू या मुसलमान की (वह लाश आदमी की नहीं होती थी) लाश फलां सड़क पर मिली है। इसके बाद शुरू होती बतंगड़बाज़ी… फलां काफ़िर ने एक मुसलमान लड़के को मार दिया या फलां मियां ने किसी हिन्दू का बड़ी बेदर्दी से क़त्ल कर दिया। और अक्सरहां यह देखा जाता कि वह समय चुनाव के पहले का होता। मीडिया में तो इसे कभी-कभी आतंकी हमले का अंदेशा भी करार दिया जाता। इसके बाद अचानक से वहां के माहौल में तनातनी पैदा हो जाती। और वही लोग, जिनमें बेइन्तहा मिल्लत थी, एक-दूसरे से डरे-डरे, सहमे-सहमे से रहने लगते। उनकी शक की ज़द में हर कोई होता। कोई भी नहीं बचता। हां, अगर कोई अपवाद था तो वह कबीर था। ऐसे हालात में भी मोहल्ले के दोनों उसकी आमद-रफ़्त बनी रहती। ऐसा शायद इसलिए था कि उसके कर्मयोग ने उसे बचा रखा था।
—
…तो उस रात भी कुछ ऐसा ही माहौल बन गया था। अंधेरा छंटने का नाम ही नहीं ले रहा था। आसमान पर छाये बादलों ने रोशनी का रास्ता चाक कर रखा था। हर-हर महादेव और अल्लाहो अकबर के नारे से पूरा इलाक़ा गुंजायमान था। लेकिन काली रात चाहे कितनी भी लंबी हो, सुबह का उजाला तो फैलता ही है। और हुआ भी ऐसा ही, उजाले के ख़िलाफ़ कालिमा और बादलों की लाख कोशिशों के बावजूद अंधेरा छंटा। रोशनी की किरणें फूटीं… अब अल्लाहो अकबर और हर-हर महादेव की आवाज़ में एक और आवाज़ शामिल हो गयी। इस आवाज़ से भी मोहल्ले के लोग अनजान नहीं थे। यह आवाज़ पुलिस जीप के सायरन की थी।
एक बार फिर लोग सशंकित हो उठे। दोनों तरफ़ कानाफूसी होने लगी। कानाफूसियों में दोनों तरफ़ के लोग अपने से दूसरी तरफ़ वालों को ज़िम्मेदार ठहराने लगे।
हमें तो पहले से ही पता था कि मामला संगीन है। जिस बात का डर था, वही हुआ न। लगता है, दंगा भयानक रूप में फैल गया है। पुलिस भी आ पहुंची। पुलिस को तो कोई लेना-देना है नहीं। दंगा रोकने का तो उसके पास एक ही उपाय है- कर्फ्यू, बस कर्फ्यू लगा देगी वह। यह बात तो इन्हें ज़रा भी समझ में नहीं आती कि इससे कितनी परेशानी होती है। घर में बूढ़े-बुजुर्ग, बीमार हर तरह के लोग रहते हैं। वे मरेंगे। या अल्लाह अब क्या होगा… आवाज़ की उस गहमा-गहमी में एक बूढ़े की आवाज़ सुनाई दी, जिसका बीमार जवान बेटा पिछली बार की चार दिन की कर्फ्यू में अस्पताल नहीं जा सका था। उसे क्या बीमारी थी, यह भी नहीं पता चल सका, लेकिन इलाज के अभाव में वह मर ज़रूर गया। बूढ़े मां-बाप जिनका कोई दूसरा सहारा नहीं था, उनके अनुसार उसे तीन-चार दिनों से सिर्फ़ तेज़ बुखार था। उनके आंखों के सामने वह मंज़र घूमने लगा था… पुलिस की जीप देखते ही उस बूढे़ के मुंह से गों… गों… की आवाज़ निकलने लगी। वह अपनी रुलाई रोकने की भरसक कोशिश कर रहा था।
एक घर से यह आवाज़ आ रही थी, हे भगवान अब क्या होगा… फिर ये मुआं कर्फ्यू… पिछली बार के कर्फ्यू के वे लंबे दिन उनके ज़ेहन में ताज़ा हो आये थे… दो दिन का रसद तो था घर में, उसके बाद के दो दिन किसी तरह पानी पर गुज़ारे, लेकिन 80 साल की वह बूढ़ी अम्मा… वह… वह… वह तो भूख बर्दाश्त नहीं कर पायी थीं… उनकी सोच भी लरज रही थी। डॉक्टरों ने इस बात की तस्दीक की थी कि इनकी मौत भूख की वजह से हुई है। शायद उस परिवार के सबके मस्तिष्क में यह बात गूंज गयी थी… सबकी आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे थे।
दोनों तरफ़ हर घर में लगभग कुछ ऐसी ही बातें चल रही थी। हे भगवान, आज ही हमारा इंटरव्यू है। कितनी जगह धक्के खाने पड़े हैं नौकरी के लिए। आज पहली बार लिखित परीक्षा पास कर एक कंपनी में साक्षात्कार तक पहुंचा हूं। अब क्या होगा। मां को कितनी आशा थी मेरी इस नौकरी से। वह कब तक दूसरों के घर में चूल्हा-बरतन करती रहेगी।
किसी को पिताजी के ओपेन हर्ट की सर्जरी करवानी थी। जितनी मुंह उतनी समस्याएं… रात को एक-दूसरे को समूल नाश कर देने वालों के सामने अब यह ससुरी कर्फ्यू सबसे बड़ी चिंता बनकर खड़ी थी।
किसी घर से यह आवाज़ आ रही थी कि अभी तो कहीं चुनाव-वुनाव भी नहीं है। अचानक से ऐसा कैसे हो गया। हमने तो पहले से तैयारी भी नहीं कर रखी है। इस बार अगर दो-तीन दिन भी कर्फ्यू चला तो हम सब भूखे मर जायेंगे।
—
यानी पूरे भारत की तरह वहां के लोगों में भी समझदारी की कमी नहीं थी। देश के अच्छे नागरिक की तरह वे भी इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि दंगे क्यों भड़काये जाते हैं, लेकिन इसके बाद भी वे भी हमारे देश के होनहारों की तरह उस दंगे में शामिल होते थे और दोनों तरफ़ के लोग एक-दूसरे को देख लेने की धमकी के अलावा मार-काट डालने से भी नहीं हिचकते थे। बाद में जब दंगा ख़त्म होता तो एक-दो महीने तो एक-दूसरे से बात भी नहीं करते, उसके बाद अमन-एकता कमिटी की बैठक होती। एक-दूसरे से अपने-अपने संप्रदाय द्वारा किये गये जुल्म की माफ़ी मांगते और फिर जनजीवन सामान्य हो जाता। जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो।
—
सायरन की आवाज़ अब गली में सुनायी पड़ने लगी थी। पुलिस के आने से लोगों में भी हिम्मत आ गयी थी। दोनों तरफ़ के लोग दरवाज़ा खोल कर बाहर निकले। पुलिस की जीप नाले के पास जाकर रुक गयी थी। पुलिस नाले में से किसी को निकालने में लगी थी। सड़क के दोनों तरफ़ के लोगों का दिल जानी-पहचानी आशंका से धड़क उठा। लाश ! किसी को मारकर फेंक दिया गया है नाले में। पता नहीं कितने लोगों को…??? सड़क के किस पार के लोग मारे गये हैं…??? या दोनों तरफ़ के…??? पता नहीं कितनी लाशें …??? हाय रब्बा, हे भगवान! अब क्या होगा…???
दोनों तरफ़ के लोग गुस्से में आस्तीनें चढ़ाते और बाजुएं फड़काते आंखों ही आंखों में एक-दूसरे को देख लेने की चुनौती देते पुलिस जीप की तरफ़ भागे… जिसके मुंह में जो-जो गालियां आ रही थी, दम भर कर दूसरी तरफ़ वाले को दे रहे थे। आस्तीन चढ़ाते, बाजू फड़काते जब तक वे वहां पहुंचे, तब तक पुलिस एक लाश बाहर निकाल चुकी थी। लाश की हालत बहुत बुरी थी। चेहरा फूला हुआ था। पूरे चेहरे पर किसी कीड़े के काटने की वजह से घाव बने हुए थे। पेट में एक गहरा सुराख था। पेट के चारों तरफ खून की पपडि़यां जमी हुई थी। कुछ जगह से अब भी खून बह रहा था। बारिश की वजह से खून पूरी तरह सूख नहीं पाया था।
अचानक दोनों तरफ़ के लोगों की आंखें फैल गयीं- कबीऽऽऽर!!! इसके बाद लोग लड़ना भूल गये, तेज़ी से लाश की तरफ़ लपके… एक साथ कई लोगों ने पूछा, क्या हुआ कबीर को?
पुलिस ने उल्टे पूछा- पहले यह बताइए कि यहां कहीं मधुमक्खी का छत्ता है क्या?
लोगों ने बताया- हां, कबीर जिस पेड़ के नीचे सोता था, उसी पेड़ पर मधुमक्खियों ने हाल ही में अपना खोता बनाया था।
तब तक पुलिस के जवानों ने नाले से मधुमक्खियों से पूरी तरह भंभोड़ी गयी एक और लाश निकाली । वह वहीं के एक आवारा सांढ़ की लाश थी।
पुलिस लाश का पंचनामा कर इंवेस्टिगेशन रिपोर्ट तैयार करने में जुटी थी। रिपोर्ट के अनुसार, कबीर जिस पेड़ के नीचे सोता था, उसी पेड़ पर लगा मधुमक्खियों का खोता किसी वजह से उजड़ गया था, (संभवतः बर्फबारी से) जिस वजह से मधुमक्खियां काफी गुस्से में थीं और सामने उन्हें जो भी नज़र आया, उसे ही अपना घर उजाड़ने का ज़िम्मेदार समझ लिया और अपने बेघर होने का गुस्सा, जो सामने मिला उसे भंभोड़ कर निकाला।
बारिश से बचने के लिए उसी पेड़ के नीचे यह सांढ़ कहीं से आकर खड़ा हो गया था। सांढ़ और कबीर, दोनों ने पेड़ के नीचे शरण ले रखी थी और दोनों के बीच एक अबोली संधि हो गई थी, लेकिन मधुमक्खियों को यह संधि रास नहीं आई और उन्होंने कबीर और सांढ़ दोनों पर हमला बोल दिया। मधुमक्खियों के भंभोड़ने के कारण ये दोनों तेज़ी से भागे। तेज़ बारिश और बर्फबारी की वजह से एक तो सांढ़ को न कुछ सूझ रहा था, न दिख रहा था, दूसरे रास्ता भी काफ़ी फिसलन भरा हो गया था। वह उसी दिशा में भागा, जिधर कबीर को भागते देखा। कबीर नाले की तरफ़ इस उम्मीद में भागा कि उसके लिए तो कोई भी घर खुल जायेगा। मोहल्ले के सारे घर इधर ही थे। और सांढ़ कबीर के पीछे शायद इसलिए भागा कि उसे लगा कि कबीर अगर इधर जा रहा है तो ज़िंदगी भी इधर ही है। कबीर ने लोगों से दरवाज़ा खुलवाने की पुरज़ोर कोशिश की, लेकिन किसी ने दरवाज़ा नहीं खोला, तभी पीछे से मूड़ी झांटते आ रहे सांढ़ से वह जा टकराया। वह सांढ़ से बचने के लिए एक बार फिर जोर लगा कर भागा और जब जान बचाने के लिए कोई रास्ता नहीं सूझा, तो सांढ़ से बचने के लिए नाले में कूद गया, लेकिन उसकी बदकिस्मती कि सांढ़ भी अपनी तेज़ी में खुद को संभाल नहीं पाया और वह भी नाले में जा गिरा…. कबीर के ठीक ऊपर… उसका सींग कबीर के पेट में जा घुसा और उसकी मौत हो गयी। पुलिस रिपोर्ट के अनुसार, भारी-भरकम सांढ़ की मौत भी इतनी ऊपर से गिरने से और मधुमक्खियों के काटने की वजह से ही हुई थी।
लाश का पंचनामा कर इंवेस्टिवेशन रिपोर्ट तैयार करने के बाद पुलिस ने लोगों से पूछा कि इसका कोई अपना है जो अंतिम संस्कार कर सके? दोनों तरफ़ के लोग आगे आ गये… हां, हम करेंगे इसका अंतिम संस्कार… पूरा मोहल्ला है इसका… इसके बाद दोनों तरफ़ के लोगों में एक बार फिर कमान खिंच गयी कि शव को दफनाया जाये या लाश को जलाया जाये… दोनों तरफ़ के लोग एक बार फिर से बांहें फड़काने लगे थे, लेकिन आज कबीर की लाश फूलों में तब्दील नहीं हुई।
उत्तर कथा
एक घंटे बाद
– कुछ सोशल साइट्स पर इस घटना के वीडियोज वाइरल हो चुके थे। इस वीडियो में दिखाया गया था कि कैसे मुसलमानों ने एक गाय की हत्या कर दी।
– कुछ सोशल साइट्स पर यह वीडियो भी चल रहा था कि एक हिन्दू ज़बरदस्ती एक मुसलमान लड़के को सुअर का मांस (वैसे इस घटना में सुअर कहीं नहीं है, वह सिर्फ़ आभासी दुनिया में ही था) खिला रहा था। उसने मना किया तो उन लोगों ने उसके साथ बुरी तरह मारपीट की। इतनी कि वह मर गया।
– किसी ने इन वीडियोज़ की जांच नहीं की। यहां तक कि पुलिस की साइबर क्राइम सेल ने भी ये जानने की कोशिश नहीं की कि ये वीडियोज़ असली हैं या नकली। सोशल साइट्स पर माल्थस की जनसंख्या सिद्धांत की तरह इसका प्रचार-प्रसार होता रहा, लेकिन कोई भी पुलिस की पकड़ में नहीं आया और न ही वीडियोज़ का सोशल साइट्स पर वाइरल होना रुका।
दो घंटे बाद
देश के कई हिस्से में सोशल साइट्स पर चल रहे वीडियोज़ को देख कर सांप्रदायिक हिंसे भड़की। कई संगठनों ने एक-दूसरे समुदाय के लोगों को औक़ात बता देने की धमकी दी।
चार घंटे बाद टीवी पर
आचर्यजनक किन्तु सत्य! अब हम आपको एक ऐसी ख़बर दिखाने जा रहे हैं, जिसे देखकर आपको यक़ीन नहीं होगा। आप विश्वास करना नहीं चाहेंगे, लेकिन इसका एक-एक शब्द सच है। एकदम सच्ची है यह ख़बर। देखिए, मधुमक्खियों की एकता की ताक़त! देखिए, कैसे एक भारी-भरकम सांढ़ को मार गिराया- (कैमरा सांढ़ की लाश पर पैन होता है)। क्या आप यक़ीन करेंगे कि इतने बड़े सांढ़ को कुछ मधुमक्खियों ने मिल कर ढेर कर दिया। लेकिन ये सच है। ये घटना है कबीरगंज मोहल्ले की। आइए, हम बात करते हैं मोहल्ले के लोगों से।
(फिर मोहल्ले के कुछ लोगों की बाइट। जिनमें वह इस दर्दनाक हादसे का बयान कर रहे हैं। पीछे सांढ़ और कबीर की लाश नज़र आ रही है। )
फिर एंकर बोलता है- पूरी ख़बर जानते हैं हम एक कमर्शियल ब्रेक के बाद।
प्रचार के बाद रिपोर्टर इस घटना का खुलासा कर रहा है : प्रकृति में कई ऐसी घटनाएं होती है जिन पर हम मानव विश्वास नहीं करना चाहते, लेकिन ये सच होती हैं। देखिए, कैसे छोटी-छोटी मधुमक्खियों ने इतने बड़े सांढ़ के साथ एक भिखारी (यहां यह बताता चलूं कि ख़बर के हिसाब से यह सिर्फ़ भिखारी है, आदमी नहीं) की जान ले ली। फिर रात की घटना का पूरा बखान- बीच-बीच में लोगों की बाइट। बैकग्राउंड में साढ़ और कबीर की लाश।
सोलह घंटे बाद
कई टीवी चैनलों ने प्राइम टाइम में इस दुर्घटना पर आधे-आधे घंटे का पैकेज बना डाला। एक-दो ने तो इस घटना के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक और पर्यावरणीय पहलू पर बात करने के लिए चार-पांच विषेशज्ञों को भी बुला लिया।
खबर 24 घंटे बाद
अख़बार में ख़बर
फ्लैग: अजीबो-ग़रीब सत्य
हेडिंग: मधुमक्खियों के काटने से सांढ़ की मौत
स्थानीय संस्करण के अख़बार के लोकल पेज पर, राज्य के दूसरे संस्करणों में प्रादेशिक पन्ने पर और देश के अन्य हिस्से के अख़बार में देश-विदेश के पन्ने पर। प्राइम टाइम में टीवी पर चले पैकेज से लगभग मिलती-जुलती ख़बर। ऐसा लगता था कि टीवी देख कर ही किसी रिपोर्टर ने यह ख़बर लिखी है। कई विदेशी अख़बारों के इंटरनेशनल पन्ने पर भी इसी आशय की ख़बर।
एक हफ्ते बाद
सात दिन बीत जाने के बावजूद देश के कई हिस्से में सांप्रदायिक तनाव बरकरार।
एक साल बाद
कबीर की पुण्यतिथि पर मोहल्ले वालों ने एक बार फिर इस अहद को दोहराया कि वे हर समस्या का हल आपस में मिल-बैठ कर करेंगे। किसी के बहकावे में नहीं आएंगे। और कौमी एकता मंच के तहत ‘कबीर कवि गोष्ठी-सह-मुशायरे’ का आयोजन किया।
mazkooralam@gmail.com
बहुत बेहतरीन कहानी। सदियों से कबीर का शव अंतिम संस्कार के लिये आज भी चौराहे पर पड़ा हुआ है।- सुनील