“चोरों के भी उसूल होते हैं।” “नहीं, बर्खुरदार! चोरों के ही उसूल होते हैं।”–किसी फ़िल्म का यह सलीम-जावेदीय संवाद प्रवीण कुमार की कहानी लाल कलकत्ता को पढ़ते हुए अनायास याद आता है।
भले ही देश की बहुमूल्य संपदा चुराकर उसे खोखला करते चोरों के कोई उसूल न होते हों, जैसा कि चुनावी बांड्स के पूरे रहस्योद्घाटन के बाद सबको पता है, घरों में सेंध लगानेवाले पेशेवर चोरों के अपने उसूल होते हैं।
यह ऐसे ही चोरों को लेकर लिखी गयी हिंदी की एक अनोखी कहानी है। 1946-47 का कलकत्ता, बंगाल का भीषण अकाल, उसके बाद भयावह हिंदू-मुस्लिम दंगे, और उनके बीच फंसे तीन चोर। तीनों की अपनी-अपनी पृष्ठभूमि, अपनी-अपनी पीड़ाएं, क्षमताएं, कमज़ोरियां… इनकी कथा बुनते हुए दोहरे वाचक वाली प्रविधि से लिखी गयी यह कहानी अपनी परास, क़िस्सागोई और मार्मिकता के कारण ही नहीं, कई चीज़ों के बीच अन्तस्संबंध बिठाने की क़वायद में खींच ले जाने और पाठक को सक्रिय भागीदार बनाने के कारण भी अविस्मरणीय ठहरती है। कथा सुनानेवाले गुलाब काका का अतीत क्या रहा है? नज़ीर, बलेसर और ख़ासकर फुलेल के साथ उनका क्या रिश्ता है? ठीक आज़ादी की पूर्वसंध्या पर पैदा हुए गूंगी महाराज के कभी सवाक् और कभी अवाक् होने को क्या एक रूपक की तरह भी पढ़ा जा सकता है?—ये सारे सवाल ऐसे हैं जिन्हें लेखक ने पूरी तरह से आप पर छोड़ दिया है, बेशक, कुछ सुराग़ छोड़ते हुए। और उन सुराग़ों के सहारे आप कहीं एक दुविधारहित और कहीं सुविधारहित उत्तर तक पहुँच सकते हैं।
‘लाल कलकत्ता’, निस्संदेह, हिंदी कहानी की वर्द्धमान क्षमता का एक निदर्शन है।
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भरोसा तो मुझे अब भी नहीं होता है कि यह कथा भरोसे वाली है। मतलब कि यह गप्प ही है। ऐसा वास्तव में हुआ नहीं होगा। ऐसी चीज़ें ही दरअसल आगे चलकर इतिहास की वधस्थली में बदल जाती हैं। अगर आपकी नज़र पैनी है तो आप गप्प से पैदा हुई कथा-कहानी, किंवदंतियों या मिथकों को इतिहास का वध करते हुए कई बार देख सकते हैं। गप्प से तो इन दिनों नफ़रत-सी हो गयी है मुझे। गप्प कब कथा में बदल जाये और कथा कब गप्प में, तय करना मुश्किल है। दोनों ही एक-दूसरे की आंत में फंसी रहती हैं। इतिहास जैसे ठोस और चट्टानी साक्ष्य को गलाकर ये उसे रबड़-बैंड बना देती हैं। फिर जैसी मर्ज़ी, खेलिए-खोलिए, फ़ैलाइए और उल्टा-सीधा करते जाइए, मानो यही उसकी नियति हो। पता नहीं ऐसी क्या शक्ति है इन गपोड़ कल्पनाशीलताओं में जो इतिहास और उनमें दर्ज घटनाओं की तार्किकता को पूरी दुनिया में हराती रही हैं। किसी भी देश का इतिहास उठाइए और उस इतिहास पर आप काल्पनिक कथाओं और गप्प को जीतते हुए पायेंगे। ठोस से ठोस और चमकदार से चमकदार तथ्य पर गप्प और कथा की एक परत ज़रूर पायी जाती है।
मैं यह बता दूं कि गप्प या कथा सुनने में मेरी कभी कोई दिलचस्पी ही नहीं रही। कभी भी नहीं। मैंने कभी भी न अपनी नानी से कोई कथा सुनी ना अम्मा से। कथाएं उबाऊ न हों और किसी का भरोसा जीतने में कामयाब हो जायें तो यह और भी ख़तरनाक है। कथा-रस तो एक छलावा है! कथा कहने-सुनने वालों में एक ख़ास तरह की कट्टरता भी आ जाती है। बीच में टोक दो तो हिंसक हो उठते हैं!
समझिए! आजकल ऐसी ही चीज़ें परेशानी का सबब बनती जा रही हैं। ऐसा इसलिए कह पा रहा हूं कि कथा-रस के छलावे में भी मैं एक बार फंसा हूं। बस एक ही बार। पर अपनी तमाम तार्किकता के बावजूद अब तक फंसा ही हूं। वह बड़ी सूक्ष्मता से दिमाग़ में घुस पड़ी है और उसका खेल लगभग डेढ़ दशक से मेरे दिमाग़ में चल रहा है। तब से जब गुलाब काका ने अपने मरने से कुछ साल पहले वह कथा सुनायी थी। वे कथा कहते-कहते गप्प में उतर आते थे और गप्प करते-करते कथा में। आलम यह है कि अब मैं जब भी अपने देश की जंग-ए-आज़ादी का इतिहास पढ़ता-पढ़ाता हूं, अंग्रेज़ी-राज से लड़ते हुए एक से बढ़कर एक इतिहास पुरुषों की क़ुर्बानियों पर द्रवित होता हूं, क्रांतिकारियों की राजनीति और रणनीति पर मुदित होता हूं; यहां तक कि उस दौर के जन-सैलाब के बारे में सोचता-ठिठकता हूं, ठीक उसी पल तीन चोर यकायक मेरी स्मृतियों से फड़फड़ाकर मानो बाहर आ खड़े हो जाते हैं। काजल जैसी चीज़ से पुती पर चमकती हुई तीन देह। स्मृति में एक दृश्य उभरता है … एक अखंड जन-सैलाब है … बेहद उत्तेजित …क्षितिज तक फ़ैलता हुआ वह सैलाबी ‘हूह’; और ठीक उनके बीच तीन चमकते हुए काले चोर। अब सैलाब दो हिस्सों में बंट गया … दोनों हिस्से उन्हें दबोचना चाह रहे हों; पर चोरों की देह पर जादुई तेल की चिकनाई ऐसी है कि लोगों के हाथों से वे तीनों फिसल-फिसल जा रहे हैं। फिर दृश्य धुंधला पड़ने लगता है। शायद तीनों भीड़ में कहीं गुम हो जाते हैं। हैरानी की बात यह है कि उन चोरों का इतिहास किसी भी तरह की किताब के किसी भी पन्ने पर दर्ज नहीं है। उनके बारे में पढ़ा ही नहीं है कभी कुछ। बस सुना है।
किसी बढ़ी घटना की तरह काका ने जब यह कथा सुनायी थी तब का वह साल नहीं बताया था। बस इतना बताया था कि यह कथा उतरते हुए जाड़े के दिनों की है जब आज़ाद हिंद फ़ौज के हारे हुए सिपाहियों पर कोई मुक़द्दमा चल रहा था। उन्हें ही क्या पूरे गांव को उस मुक़द्दमे की ख़बर थी। वह भी इसलिए कि हमारे पड़ोस के एक गांव में कोई था जो इस फ़ौज में शामिल था और तब दिल्ली में क़ैद था। अब जाकर अंदाज़ा लगाता हूं कि वह साल फ़रवरी छियालीस का रहा होगा। बंबई के नाविक विद्रोह वाला महीना। मुझे इतना याद है कि चोरों की कथा सुनते वक़्त तब मैंने काका से पूछा था कि ये चोर कहां के थे तो उनका जवाब था – ‘एक तो इधर का ही था बाक़ी के दो भुखमरी से भागकर आये थे। बंगाल से’। मैंने फिर तंज़िया सवाल दागा था, ‘चोरों पर भी भुखमरी का असर होता है?’ इस तंज़ का जवाब देते वक़्त काका का चेहरा कसैला हो गया था , उन्होने मुझे झिड़का, ‘अरे भाई, चुराने के लिए कुछ बचा ही नहीं था वहां! गांव के गांव , शहर के शहर साफ़ हो गये थे उस अकाल में। तुम नये लोग क्या जानो अकाल? कहीं कुछ नहीं बचा था। भूख से बिलबिलाकर आदमी आदमी को खा रहा था!’ बात ख़त्म करते वक़्त उनके चेहरे पर मेरे प्रति घृणा का भाव आ गया था। मैं डरकर चुप ही हो गया था एक़दम से। पर काका की चुप्पी लंबी हो गयी। अगले कुछ दिनों तक काका मुझ से नाराज़ ही रहे। मैंने अनजाने ही उनका दिल दुखा दिया था।
फिर वह अधूरी कथा ज्यों की त्यों टिटहरी की तरह मेरी स्मृति में उल्टी लटकी रही। कुछ दिनों तक तो ज़रूर ही। गर्मी की छुट्टियां तेज़ी से बीत रही थीं और कथा थी कि मेरे भीतर टांय-टांय करने लगी थी। ऐसा पहली बार हो रहा था मेरे साथ। जब मुझसे टिटहरी की टांय-टांय बर्दाश्त नहीं हुई तो सात दिन बाद साहस करके मैं गुलाब काका के घर चला गया और अपनी धृष्टता के लिए उनसे माफ़ी भी मांगी।
उनका मन अब भी थोड़ा कठोर हुआ पड़ा था। वे बीड़ी फूंकते रहे। उनके माथे पर बित्ते भर का एक रक्तिम निशान था जो उनकी ललाट के बायें कोने में गहराई से धंसते हुए दायें कोने में ऊपर की ओर उठ जाता था। एक दफ़े पूछा भी था इस निशान को लेकर पर तब कुछ बोला ही नहीं उन्होंने। बस बीड़ी का कश खींचते रहे। उनके बीड़ी पीने से वह निशान कुछ फ़ैल-सा जाता जैसे कि धुआं उनकी छाती में नहीं, ललाट में भर रहा हो।
उस दिन क्षमा-याचना करके मैं उनके ललाट को निहारता हुआ कुछ ढिठाई के साथ वहीं बैठा रहा। फिर इधर-उधर की बातें करने लगा। कुछ देर बाद मैंने बातों-बातों में उनकी उस अधूरी कथा को प्रमाणित करना शुरू किया कि ‘काका…आपकी अकाल वाली बात एक़दम सही थी। इतिहास की किताबें बता रही हैं कि सन तिरालिस-चौवालिस में बिहार, बंगाल और उड़ीसा में ज़बर्दस्त अकाल पड़ा था। लगभग तीस लाख की आबादी भूख से एड़ियां रगड़-रगड़कर मरी थी’। तब तक मैं अपने विश्वविद्यालय में इतिहास का शोधार्थी हो चुका था और काका की कहानी और इतिहास के घटनाक्रम की दिलचस्प एकरूपता से कुछ परेशान-सा हो गया था। ऐसा संयोग होता नहीं है अमूमन। बस इसी बात ने मुझे उनके घर तक खींचा था। मुझे आगे की कहानी हर हाल में जाननी थी। ख़ैर, काका के सामने इतिहास के उद्धरणों को प्रमाण के रूप में रखने का एक फ़ायदा यह हुआ कि उनका गुस्सा कपूर की तरह उड़ता गया। बीड़ी ख़त्म करने के बाद उन्होंने कुछ-कुछ दार्शनिक अंदाज़ में मुझ से कहा, ‘चोरों पर भुखमरी का असर इसलिए होता है लाल जी , क्योंकि देश चोरों का भी होता है’।
उनकी आवाज़ बहुत मोटी और भारी थी।
बहरहाल, मुझे यह स्वीकारने में कोई हिचक नहीं कि कथा सुनने का अनुशासन मुझ में कभी नहीं रहा। इसका ख़ामियाज़ा भी मुझे काका से कथा सुनते वक़्त कई दफ़े भुगतना पड़ा था। उन तीन चोरों की कथा सुनाते वक़्त काका बीच-बीच में मुझे टोकते, ‘सुन रहे हो न लाल जी ?’ तब मैं ‘जी, बिलकुल’ कहता तो काका बरस पड़ते, ‘अरे भाई, बिलकुल-सिलकुल क्या होता है ? बीच बीच में हुंकारी मारो’। मतलब था कि उनकी कथा चलती रहे, बेधड़क, और मैं कथा के हर वज़नी कथ्य या घटना पर ‘हूं-हूं’ कहता रहूं ! क्या बेतुकी हरकत थी वह! न लॉजिक ना साक्ष्य। बस ‘हूं हूं’ कहते जाओ! सवाल पूछो तो बवाल। कथा कहते वक़्त वे जब गप्प में उतरते तो अतार्किक और इतिहास-निरपेक्ष गतिविधियों का मुझे हिस्सा बना लेते और यहीं से मेरी परेशानी शुरू हो जाती। पर रास्ता ही क्या था मेरे पास? इस कथा में झूठा ही सही, पर एक इतिहास झांक रहा था। मैं मन मारकर ‘हूं –हूं’ करता जाता।
कथा लंबी थी। कई खंडों वाली। उस दिन बस इतना ही जान पाया और उसमें भी एक दिलचस्प बात पता चली कि चोरों की एक अपनी दुनिया होती थी ,बेहद कठोर अनुशासन वाली। ‘उस वक़्त के चोरों की दुनिया आज के चोरों की दुनिया की तरह फ़रेबी नहीं थी’, काका ने कहा। बोले कि तब तो फ़ोन भी नहीं था; पर चोर रंगून से कलकत्ता , कलकत्ता से बनारस और बनारस से लेकर लाहौर और हैदराबाद तक आपस में जुड़े हुए थे। वे एक शहर से दूसरे शहर में आने के लिए कोतवाल से नहीं बल्कि चोरों के सरदारों से इजाज़त लेते थे। शहर बदलते वक़्त चोरों को बताना भी पड़ता था कि वह किसलिए दूसरे शहर में आना या जाना चाहते हैं। तीर्थ, रिश्तेदारी या घूमना-फिरना? या यह कि परिवार के साथ या परिवार के बिना? सारा डिटेल देना होता था। प्रतापी चोर अगर सपरिवार आते-जाते तो उनका विशेष ख़याल रखा जाता। यहां तक कि रस्मी तौर पर तोहफ़े भी पहुंचाये जाते उनके सम्मान में। मैं हैरान हुआ था जब काका ने बताया कि चोर चार-धाम और हज के लिए चंदा देते थे। हैरानी में मैं यहां तक सोचने लगा था काश! इतिहास की किसी भी किताब में इस तरह की कोई फ़ेहरिस्त होती! हालांकि मेरी यह सोच बेतुकी ही थी।
काका ने यह भी बताया कि चोरों के ख़ानदान भी होते थे और उनका अपना इतिहास होता था। मसलन, जो दो चोर बंगाल से भागकर आये थे उनमें से एक का ननिहाल सासाराम में था। उस चोर की भी बड़ी इज्जत थी समाज में। कारण यह था कि उसके नाना के घराने में कोई छह-आठ पीढ़ी पहले के किसी पुरखे ने एक बार शेरशाह सूरी की तलवार चुरा ली थी। वह भी खुलेआम घोषणा करके। काका कहने लगे कि ‘हुमायूं को भारत से खदेड़ने के बाद शेरशाह का माथा गु़रूर से कुछ ज़्यादा ही गरम रहने लगा था। उसने बंगाल से काबुल तक सड़कें बनवायीं, सराय बनवायीं और राहगीरों की सुरक्षा के लिए दर्जनों चोरों को बेइंतहा सजायें दिलवायीं। कई तो मर भी गये थे बेचारे। मरने वालों में कुछ निर्दोष चोर भी थे। बस क्या था! सासाराम के उस चोर ने खुलेआम घोषणा करके वह कर दिखाया जिसकी हिम्मत उस दौर में हिंदुस्तान के किसी रजवाड़े में भी न थी! जहांपनाह की तलवार ही चोरी कर ली गयी। कोहराम मच गया था उस ज़माने में। शेरशाह उस चोर की धृष्टता और बहदुरी दोनों पर दंग रह गया। पर कुपित होने की जगह कुछ संयम दिखाते हुए शेरशाह ने उस चोर की बहादुरी पर इनाम देना चाहा। इनाम में जागीर देने का ऐलान किया गया। आख़िरकार उसने हिंदुस्तान के नये बादशाह का रक्षा-कवच भेदा था। पर चोर स्वाभिमानी निकला। उसका नाम इस्माइल या इसराइल ख़न था। वह भी अफ़ग़ानी ही था। जागीर पाने के लिए हाज़िर होने की जगह उस चतुर चोर ने चिट्ठी लिखकर बादशाह से फ़़रियाद की, ‘बेगुनाह चोरों को न सतायें , यही मेरा इनाम है’। कहते हैं कि शेरशाह सूरी ने तब के बाद चोरों को दी जाने वाली सज़ा में कुछ नरमी बरतनी शुरू कर दी थी।
काका कथा में गप्प और गप्प में कथा का घालमेल करते हुए कई बार मुझे सुलगाते रहे। मैं सोचता रहता कि आख़िरकार इस तरह की विषयांतर कथाओं से कुछ निकलता भी है? कैसे खोजी जाये ऐसी कथाओं की प्रामाणिकता? धूल ही धूल है ऐसी कथाओं पर जो इतिहास से टकराकर बनने का दावा करती हैं। सासाराम का चोर हो या उन तीनों चोरों की कथा हो वह इतिहास में कहीं दर्ज नहीं। पर मेरा एक मन यह भी सोचता हुआ रोमांचित होता था कि इस तरह के चोरों की कथा का दशमांश भी अगर सही होगा तो अभी कितना कुछ है जो इतिहास के पन्नों में दर्ज़ होने से रह गया है! लेकिन वही वाली दिक्कत है। साक्ष्य कहां हैं? विश्वसनीयता इतिहास के अनुशासन के लिए बेहद ज़रूरी है। अब कोई इतिहास के पन्नों में दर्ज़ भारी-भरकम आलोड़न प्रति सजग रहेगा कि उन बेदर्ज़ चोरों की कथा पर अपनी स्याही ज़ाया करेगा?
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गुलाब काका कोई चोर नहीं थे पर यह सच है कि उनकी आय का आरंभिक स्रोत गांव वाले कभी नहीं जान पाये। कुछ लोगों ने मुझे काका के घर आते-जाते हुए, रास्ते में रोककर भेदिये ढंग से बताया था कि उस दौर में काका ने शहर में कोई बड़ा हाथ मारा था और अचानक ही गांव लौटे थे। लौटते ही संतई अपना ली। शायद तब एकाध बीघा ज़मीन भी ख़रीदी थी। पर मैं जानता हूं कि गांव क्या चीज़ है! गांव वालों की बतकही में सात चक्रव्यूह होते हैं। उनकी कथा-रणनीति किसी गप्प पर दशकों तक अभ्यास करने की वजह से अचूक हो जाती है। इसका एक ही इलाज़ है, सुनो ही मत। अगर सुन लिया तो इतिहास और वर्तमान की सारी दृष्टियां भ्रमित हो जायेंगी। गांव वाले केवल संभावनाओं की आहट पर नयी कहानी गढ़ सकते हैं। यह मैं इसलिए कह पा रहा हूं कि एक बार गांव में मैंने बस इतना ही कहा था कि दिल्ली में चमड़ा गांव की तुलना में बहुत सस्ते में मिलता है। मैंने यह भी बताया कि दिल्लीवाला चमड़ा कुछ ज़्यादा मुलायम होता है। अगले ही दिन जब मैं सोकर उठा तब तक पूरे गांव में बात फ़ैल चुकी थी कि मैं दिल्ली में किसी चमड़ा-फ़ैक्ट्री में काम करता हूं। जब मैंने सफ़ाई दी कि मैं इतिहास का शोधार्थी हूं तो उनका शक और गहरा गया।
इसी तरह गांव वाले काका के दो अजनबी साथियों के क़िस्से आज भी चोरी-छुपे सुनाते हैं। गांव वाले कहते हैं कि जवानी के दिनों में घर छोड़कर गुलाब काका दो बार भागे थे। पहली बार भागे थे बयालीस से थोड़ा पहले। गांव वालों को बयालीस इसलिए याद है कि उस साल एकाध दफ़े अंग्रेज़ सिपाहियों ने गांव में दबिश दी थी। पहली बार गांव वालों ने अंग्रेज़ तभी देखा था।
गांव वालों के हिसाब से काका दूसरी बार जब गांव छोड़कर भागे और लौटे तो सीधे संतई पर उतर आये। उनके दो अजनबी साथियों की कथा काका के पहली और दूसरी बार गांव से भागने के ठीक बीच के समय से संबंधित है। कहते हैं कि काका के पहली बार भागकर लौटने के एक या डेढ़ साल बाद उनके दो शहरी साथी गांव में अचानक प्रकट हुए। वह भी आधी रात को। उन दोनों को काका के सिवाय कोई नहीं जानता था। पहले तो उन दोनों के बारे में तमाम संदेह से भरी कथाएं चल पड़ीं। क़िस्म-क़िस्म की कथाएं। तब कुछ लोग तो उन्हें सरकारी जासूस समझने लगे थे। पर काका तो निरे अनपढ़ थे। यह हो नहीं सकता था। फिर बड़ी जल्दी ही उन दोनों ने सारे शक-सुबहे ग़ायब कर दिये और गांव के लोगों का दिल जीतने में कामयाब हो गये। उन दोनों ने गांव में ही दिहाड़ी करनी शुरू कर दी और जैसे-तैसे गुज़ारा करने लगे। गांव वाले अब भी कहते हैं कि उन दोनों की भाषा जादुई थी और दोनों गाते भी बहुत बढ़िया थे। कभी-कभी आज़ादी के तराने भी गाते थे। उनका व्यवहार इतना निर्दोष था कि कुछ ही महीनों के प्रवास में उनकी शादी के लिए लोग लड़कियां तलाश करने लगे थे। धीरे-धीरे दोनों गांव की मिट्टी में सोंधी ख़ुशबू की तरह खप गये।
गांव वालों की मानें तो असली क़िस्सा उनके आने के छह माह बाद शुरू होता है। एक दिन गांव के रामसूरत पंडित अपनी ससुराल जा रहे थे। हाल ही में उनकी शादी हुई थी और पंडित जी पहली बार ससुराल जा रहे थे। गांव वाले फुसफुसाकर बताते हैं कि तब गुलाब काका का एक साथी रामसूरत पंडित के साथ लग लिया। रास्ते में बातों-बातों में ही उसे जब पंडित जी के यात्रा-प्रयोजन का पता चला तो वह बोला, ‘अरे पंडित महाराज! पहली बार ससुराल जा रहे हैं और वह भी बिना नौकर-चाकर के? क्या इज्ज़त रह जायेगी वहां?’ रामसूरत पंडित भोले मानुस ठहरे। सोच में पड़ गये। उनकी दुविधा भांपकर काका के साथी ने दाव फेंका; पर कुछ घुमाकर, ‘पंडित जी! सच कहूं तो गांव में रहते-रहते मेरा भी मन अब कुछ उचट गया है। मैं भी अब कहीं बाहर जाने की सोच रहा हूं’।
पंडित जी ने चलते-चलते अनमने ही सवाल किया, ‘अरे कहां जाओगे! जहां जाओगे वहां मज़दूरी ही करनी होगी।’
‘कुछ दिन आराम करने की इच्छा है पंडित जी’,अंगड़ाई लेते हुए उसने जवाब दिया।
‘बिना काम के गुज़ारा कैसे करोगे?’ पंडित जी ने सहज ही पूछा था। तब वह कहने लगा, ‘इसमें गुज़ारे वाली क्या बात है? अरे आपकी जो ससुराल है न, उसी से तीन कोस दूर मेरे मामा की ससुराल है। सोच रहा हूं कि वहीं कुछ दिन टिक जाऊं’।
‘कहां है तुम्हारे मामा की ससुराल ?’ पंडित जी कुछ चौंके।
‘मुरारीपुर।’
‘अरे! वह तो दो कोस भी नहीं है मेरी ससुराल से!’ पंडित जी ने हैरानी जतायी। जबकि सच्चाई यह थी कि भोले पंडित ने पहले ही अपनी ससुराल का पता काका के उस साथी को बता दिया था। अब चोर को ख़ाली मैदान मिल गया था। वह खेलने लगा, ‘मैं तो चला जाऊंगा पंडित जी, पर आप बिना नौकर के जायेंगे ससुराल?’
‘अब नहीं है हमारे पास नौकर तो क्या करें?’ रामसूरत पंडित ने अपनी विवशता मासूमियत के साथ रखी। वे सच में भोले थे।
‘ऐसा है पंडित जी कि आपकी इज्ज़त हमारी इज़्ज़त है। आपके ससुराल वालों को क्या पता कि आपके पास नौकर है कि नहीं। न हो तो दो-तीन दिन के लिए हमें अपना नौकर बना कर ले चलिए। बोल दीजिएगा कि नया आदमी रखा है आपने।’
‘अरे राम राम! यह क्या कहते हो भाई? गुलाब नाराज़ हो जायेगा!’ रामसूरत पंडित लोकलाज बचाने लगे। नौकर रखने का अनुभव भी नहीं था बेचारे के पास। पर लालच अब ईमान पर भारी पड़ने लगा था। पंडित जी अपनी बात ख़त्म करते हुए कुछ ठिठके। इधर काका का साथी डटा रहा, पर बात फेरते हुए, ‘आपकी जैसी इच्छा प्रभु ! हमें आप लोगों ने शरण दी है गांव में। एक मौक़ा आया था एहसान चुकाने का। वह भी हाथ से गया लगता है’।
इतना कहकर काका के साथी ने खेत की दूसरी मेंड़ पकड़ ली और पंडित जी से अपनी राह अलग कर ली। उसकी इस हरकत पर पंडित जी एक़दम थम गये और उसे निहारने लगे। दस क़दम आगे चलकर काका का साथी फिर पलटा, ‘अरे मैं गुलाब से कुछ कहूंगा तब तो पता चलेगा उसे? लगता है आपको भी ससुराल में इज्ज़त प्यारी नहीं!’
तीर निशाने पर लगा था। एक आदमी बिना पैसे-कौड़ी के खटना चाहे तो किसकी मासूमियत नहीं पिघलेगी! इसके बाद जो हुआ उसे पूरा गांव जानता है। रामसूरत पंडित अपने नौकर के साथ ससुराल पहुंचे तो इतिहास ही रच गया। ससुराल वाले क्या सेवा करते पंडित जी की जो उनका नौकर कर रहा था। मालिक के सुबह उठते ही उनके दिशा-मैदान के लिए वह नौकर लोटा लेकर हाज़िर रहता था। बल्कि लोटा लेकर पंडित जी के पीछे-पीछे खेतों तक जाता था। उसके बाद कुएं से पानी खींचना, लोटा धोना , नहलाना –धुलाना; मालिक के कपड़े धोना-सुखाना। दिन में तो दो दफ़े मालिक की देह मालिश करता था। ससुराल वाले अचरज से दांतों तले उंगलियां दबाते रह गये। पर उनसे भी ज़्यादा अचंभे में ख़ुद रामसूरत पंडित थे। ऐसी सेवा की कल्पना उन्होने कभी सपने में भी नहीं की थी। ससुराल में परचम लहरा दिया था उनके नौकर ने। एक दिन अकेले में पंडित जी ने भाव में भरकर हाथ ही जोड़ दिया काका के साथी के आगे, ‘भाई ! पिछले जन्म में ज़रूर हमने मोती दान किया था कि तुम जैसा देवता मिला है इज्ज़त कमाने को!’ नौकर और मालिक भावविभोर होकर गले मिले।
गांव के लोग कहते हैं कि रामसूरत पंडित सात दिन तक ससुराल में डटे रहे। आठवें दिन मालिक और नौकर दोनों ने बड़ी मिन्नत की तब वहां से छुट्टी मिली। विदाई में मालिक के बराबर ही नौकर को बख्शीस मिली थी। फिर ससुराल से एक कोस आगे निकलने के बाद मालिक ने अलग राह पकड़ी और नौकर ने मुरारीपुर की। बिछड़ने से पहले मालिक और नौकर में भरत-मिलाप भी हुआ।
गांव वाले बताते हैं कि इधर यह सब चल रहा था और उधर गांव में एक और कांड होने-होने को था। कांड काका के दूसरे साथी के हाथों होना था। हुआ यह था कि गांव के ही एक मोटे आसामी मटुक साह की भैंस चोरी हो गयी थी। उनका ख़ानदान ब्याज पर रुपये चलाता था। रात के अंधेरे में उनकी भैंस खोली गयी थी और तीन दिन तक उसका कोई अता-पता न चला। फिर एक रात काका के दूसरे साथी ने मटुक साह के दरवाज़े पर दस्तक दी। साह ने जब दरवाज़ा खोला तो वह उनके पैरों में गिर पड़ा और लगा रोने। इससे पहले कि मटुक कुछ पूछते, काका का दूसरा साथी गिड़गिड़ाया, ‘आपकी भैंस किसी और ने नहीं बल्कि गांव के ही एक दबंग परिवार ने खोली है। अगर नाम बता दिया तो मारा जाऊंगा। गांव के लिए तो अजनबी ही हूं और ले-देकर एक गुलाब ही मेरा सहारा है’। सशंकित मटुक साह काका के दूसरे साथी को अपने आंगन में ले गये और पूरा क़िस्सा जानना चाहा। लब्बोलुआब यह था कि काका के दूसरे साथी को सांझ से ही दस्त लग गये थे। रात गये जब दस्त ने फिर परेशान किया तो फ़ारिग होने वह खेतों की ओर सरपट भागा। लुंगी उठाकर बैठा ही था कि बावनसुभा के बग़ीचे से चार आदमी बतियाते हुए आ रहे थे। वे मटुक साह की चोरी की गयी भैंस की क़ीमत पर झगड़ रहे थे। शायद सही रेट नहीं लग पा रहा था।
अंजोरिया रात में उन चारों की नज़र फ़ारिग होते इंसान पर पड़ी। हड़बड़ाकर उन्होंने लाठी तानी ही थी कि काका के उस दूसरे साथी ने ‘हां हां’ करते हुए अपना परिचय दिया। अब तो भेद खुल चुका था। भैंस की चोरी के अब चार नहीं, पांच राज़दार थे। उन चारों में से एक इसी गांव के एक दबंग परिवार का था। पर वह गुलाब और उसके साथियों को बहुत मानता था। मटुक साह से उसकी पुरानी अदावत थी। पहले तो वह काका के उस साथी पर नाराज़ हुआ पर अब किया ही क्या जा सकता था? कुछ सोचकर उसने काका के साथी के सामने प्रस्ताव रखा, ‘ तुम्हारी जगह कोई और होता तो अब तक खेत हो चुका होता। अब इस राज़ को राज़ रखो और जाकर मटुक को बोल दो कि अधिया पर भैंस मिलेगी। अगर उसे भैंस चाहिए तो?’ अधिया की बात सुनकर काका का वह दूसरा साथी फफक पड़ा, ‘हमसे पाप मत कराइए सरकार! हमारी क्या औकात है इस अजनबी गांव में?’
पर वह सरदार नहीं माना, बोला, ‘अब इसी से हम सब की इज्ज़त बचेगी। अधिया पर तैयार करो उसे’। अधिया का मतलब था उस दुधारू भैंस की वास्तविक क़ीमत की आधी रकम देनी होगी।
मटुक साह के आंगन में क़िस्सा बताते-बताते काका का दूसरा साथी फिर सिसककर रोया। घूँघट में चेहरा छिपाये मटुक साह की बहुओं को उस पर तरस आ रहा था। मटुक की बेटी ने लोटा-भर पानी लाकर उसे दिया तब जाकर उसकी सिसकी कुछ थमी। थोड़ी देर के चिंतन-मनन के बाद साह और उनके दोनों बेटों ने तय किया कि अधिया दिया जायेगा और भैंस बाइज़्ज़त वापस आयेगी। पर काका का वह दूसरा साथी मुकर गया ‘हमसे यह पाप नहीं हो पायेगा साह जी ! हमको बख़्श दीजिए’।
तब बुज़ुर्ग साह ने चिरौरी की, ‘ बात भैंस की नहीं इज्ज़त की है भाई। अगर भैंस नहीं आयी तो जग-हंसाई होगी और क्या पता यह घटना बार-बार दुहरायी जाये ? इज्ज़त ही नीलाम हो जायेगी हमारी। मान जाओ भाई , तुम्हारे पैर पड़ता हूं’।
काका का वह दूसरा साथी पिघल गया। उन चारों दबंगों ने पहले ही तय कर दिया था कि काका का दूसरा साथी अधिया की रक़म लेकर बावनसुभा के बग़ीचे में आयेगा। रक़म मिलते ही दबंग बग़ीचे की दक्षिण दिशा से भैंस को गांव की ओर पैठा देंगे और उत्तर की ओर निकाल जायेंगे। ठीक इसी बीच काका का वह दूसरा साथी कोयल की कूक जैसी आवाज़ निकालेगा और उसकी कूक सुनते ही मटुक साह बग़ीचे के पूरब से दाख़िल होंगे। कोई किसी को न देखेगा और ना ही पीछा करेगा।
सब कुछ तयशुदा ही रहा। अंजोरिया रात में काका का दूसरा साथी बावनसुभा के घने और चौकोर बग़ीचे में देखते-देखते बिला गया। इधर साह जी अपने दोनों बेटों के साथ दिल थामे उसकी कूक की आवाज़ सुनने को बेताब थे। काका के दूसरे साथी ने तब निराश नहीं किया। उसे थोड़ी देरी हुई, पर उसने कूक मारी। साह कुनबे के साथ उधर दौड़ पड़े। बग़ीचे में काका का वह दूसरा का साथी मिला और मिलते ही बोला, ‘देख के आ रहा हूं भैंस को। इसी में देर हो गयी। बग़ीचे के दक्षिणी कोण से दस बीघा आगे वह किसी का खेत चर रही है’।
भैंस मिली भी थी तो अपराध करते हुए। साह बेटों के साथ उधर दौड़ पड़े पर काका का दूसरा साथी रुका ही रहा। मटुक साह ने पूछा, ‘ अरे क्या हुआ, चलो तुम भी!’
‘क्या कहें साह जी। बेरहम दस्तों से परेशान हूं। लगता है कि वैद को दिखाना ही होगा। आप चलिए मैं बस फ़ारिग होकर आता हूं।’ काका के दूसरे साथी ने अपनी बेबशी जतलायी। उस पर अब अविश्वास करने का कोई सवाल ही पैदा नहीं हो रहा था। उधर साह जी की दुधारू भैंस किसी का खेत चर रही थी। ‘ठीक है’ कहकर बाप-बेटे भैंस की ओर दौड़ पड़े और इधर काका का दूसरा साथी फ़ारिग होने निकल पड़ा। दक्षिणी कोण से क़रीब-क़रीब दस बीघे आगे सच में भैंस किसी का खेत चर रही थी। वह खेत भी किसी ऐरे-गैरे का नहीं था, बल्कि ठाकुर का था। सांस रोककर वे सब भैंस की ओर लपके। जब उस चौपाया से दस लाठी की दूरी पर पहुंचे तो भैंस ने ज़ोर से ‘हूंफा’। उसकी हूंफ शायद आवेशित बाप-बेटों ने सुनी ही नहीं। उन्हें अब ज़्यादा ख़ौफ़ इस बात को लेकर था कि अगर ठाकुर को भैंस का चरना पता चला तो क्या होगा! भैंस के नज़दीक पहुंचते ही मटुक साह के बड़े बेटे ने भैंस पर लाठी चला दी। लेकिन प्रतिउत्तर में उस भैंस ने मटुक साह के बेटे को अपने सींग पर तौलकर दूर उछाल दिया। ‘अरे !! यह क्या ?’ जो भैंस लाठी चलाने पर भी कुछ नहीं बोलती थी बल्कि दुबककर डर से गोबर कर देती थी वह आज मारने के लिए दौड़ पड़ी है! भैंस की हूंफ़ और डकार से अंदाज़ा लगाने में देरी नहीं हुई कि यह भैंस नहीं बल्कि पगला भैंसा है। उसे जानबूझकर इधर खदेड़ा गया था। कभी-कभार ही यह इधर पैठता था वह।
पर अब देर हो चुकी थी। जब तक साह और उनके जवान बेटों को सच का पता चला तब तक वह जानलेवा भैंसा उन सबको रगेद चुका था। ‘धोखा हो गया रे!!’ ज़ोर से चीख़ते हुए वे वहां से भागे। बाप-बेटे आगे-आगे और हूंफता-डकारता पागल भैंसा उनके पीछे-पीछे। कहते हैं कि उस भैंसे ने एक-डेढ़ कोस तक पीछा नहीं छोड़ा। बूढ़े मटुक साह की तो सांस ही उखड़ी जान पड़ी थी। जब वे थमे तो पाया कि वे गांव से बहुत दूर दक्षिण में दूसरे गांव की चौहद्दी में घुस आये हैं। अब उनमें इतनी जान नहीं थी कि दौड़कर वापस गांव आ सकें और काका के उस दूसरे दोस्त की मरम्मत कर सकें। बड़े बेटे का तो जैसे कंधा ही उतार दिया था उस भैंसे ने। मटुक साह की सांस अभी भी उखड़ी हुई थी। सुस्ताते हुए, धीरे-धीरे जंग हारे सिपाहियों की तरह साह और उनके बेटे भिनसार से थोड़ा पहले अपने घर पहुंचे। भाग-दौड़ में लाठियां कहीं और छूट गयी थीं। थोड़ा और सुस्ताकर वे उधार की लाठियों के साथ गुलाब काका के घर पहुंचे। गुलाब काका अभी सो ही रहे थे। साह के बेटे जैसे दरवाज़ा ही तोड़ डालते। काका के दरवाज़ा खोलते ही कोहराम मच गया। कोई घायल तो नहीं हुआ पर साह की गालियां गांव की सीमा लांघ रही थीं।
तभी काका का पहला साथी मुरारीपुर से लौटा। ऐन उसी शोरगुल के बीच। उसे देखते ही साह भड़क गये। लगा कि उसे ही मार डालेंगे। गुलाब काका को तो काटो ख़ून नहीं। दोनों यारों को अपने तीसरे यार के किये पर पछतावा हो रहा था। पंचायत बैठाने की नौबत आ गयी। पर पंडित रामसूरत के हस्तक्षेप से मामला शांत हुआ। पंडित जी का भरोसा काका के पहले साथी ने ससुराल में ही जीत लिया था। इससे पहले कि मामला और तूल पकड़ता काका के उस पहले साथी ने भरे समाज में पंडित जी से सवाल पूछा, ‘आप ही बताइए पंडित जी, क्या एक दो कौड़ी की भैंस के लिए मैं गांव से ग़द्दारी करूंगा … मैं था क्या यहां? बताइए सबको’। गांव वालों ने देखा कि उत्तेजित होकर पंडित रामसूरत चौकी पर ही खड़े हो गये। ‘राम राम ! भरत जैसे भाई पर संदेह? सपने में भी नहीं’, कहकर पंडित जी ने काका के उस पहले साथी को गले से लगा लिया। फिर अपनी ससुराल का वह सारा वृतांत सुनाया कि कैसे पंडित जी की ही नहीं पूरे गांव की वहां इज्ज़त बढ़ी थी। वृतांत भरी सभा ने सुना।
यह बहुत बड़ी बात थी।
इसका असर जन-समूह पर तुरत हुआ। पंचायत तो नहीं बैठी पर एक छोटी मंडली विमर्श के लिए ज़रूर बैठी। काका की ही सहमति से काका के पहले साथी ने ऐलान किया कि ‘सात दिनों के भीतर उस गिरहकट-धोखेबाज़ को गांव में लाकर पटकूंगा और अगर ऐसा नहीं कर पाया तो कभी अपना मुंह नहीं दिखाऊंगा’। सभा विसर्जित हुई। उसी दिन ढलते सांझ काका से विदा लेकर उनका पहला साथी भी गांव की चौहद्दी लांघ गया।
पर अनहोनी कुछ और ही करवाने पर तुली हुई थी। सातवें दिन काका के दोनों साथी तो नहीं लौटे, पर रामसूरत पंडित ने अपने पूरे कुनबे के साथ गुलाब काका के दरवाज़े पर हमला बोल दिया। गांव ने देखा कि पंडितों का वह कुनबा जो हमेशा पोथी-माला लिये फिरता रहता है अब उनके हाथों में गंड़ासे और भाले थे जिनकी आगवानी खुद ठाकुर के कुनबे कर रहे थे। उनके ही प्रताप का नतीजा था कि गुलाब काका के घर का दरवाज़ा पंडित के कुनबे ने देखते ही देखते उखाड़ दिया। एक बार फिर गांव में कोहराम मच गया।
तब काका पर एकाध लाठियां भी बजी थीं। मामला संगीन तो था पर क़त्ल कर डालने की हद तक नहीं। अंग्रेज़ी-राज का भी कुछ असर था। गांव वालों के मन में बार-बार बस एक ही सवाल उठ रहा था कि हुआ क्या है? आख़िर हुआ क्या है?
पंडित रामसूरत ने रोते–रोते ही काका के पहले साथी का वही वृतांत सबको सुनाया जो सात दिन पहले भरी सभा में सुना चुके थे; लेकिन इस बार अपनी ओर से थोड़ा जोड़ते हुए कि कैसे ससुराल जाते हुए काका का वह साथी उनसे ‘चिपक’ गया और ‘भोले’ पंडित को अपने ‘मकड़जाल में उलझाकर’ ससुराल तक गया और फिर अपनी सेवा से सात दिन में सबका मन मोह लिया। ससुराल के लोग उसकी सेवा और लगन देखकर चकित थे।
‘फिर?’ किसी गांव वाले ने पूछा।
पर इसके जवाब में रामसूरत पंडित फफक-फफककर रो पड़े। बाक़ी का क़िस्सा बूढ़े ठाकुर ने गलियाते हुए सुनाया। ‘अरे फिर क्या होना था! पंडित और वह चोर सात दिन बाद वहां से विदा हुए। पंडित यहां आ गये और वह साला मुरारीपुर का बहाना बनाकर किसी जगह टिका रहा चार-पांच दिन। पांच दिन बाद वह पंडित की ससुराल फिर पहुंचा – अकेले ही। ससुराल के लोग अचरच में पड़ गये। वह साला चोर फ़ुक्के फाड़कर कर रो रहा था तब। मायावी ने पहले ही सबका मन मोह लिया था। उसे रोते देख सब डर गये। जब पंडित के ससुर ने पूछा कि क्यों रो रहा है तो मायावी बोला कि रामसूरत पंडित के दोनों बैलों को सांप ने डस लिया और बैल मर गये हैं। खेती-पानी का दिन है, गांव में वैसे भी बैलों की कमी है। कोई हेंगा चलाने के लिए अपने बैल नहीं दे रहा है। अगर दो दिन में हेंगा नहीं चला तो फिर आठ बीघे की ज़मीन परती रह जायेगी। इतना कहकर वह झुट्ठा फिर रोया। रामसूरत पंडित के ससुर ने पहले तो राहत की सांस ली कि बात कोई बहुत बड़ी नहीं हुई है। फिर ससुर जी मुस्कुराये और गर्व से उसको डांटा, ‘भाग साले! इसमें कौन-सी बड़ी बात है। चार बैल हैं हमारे पास अभी। दो ले जा और खेती करवा। हमारे जीते जी दामाद का खेत परती कैसे रह जायेगा?’ ससुर ने अपने बेटों से कहकर तत्काल ही दो बैलों की रस्सी उस चोर के हाथ में थमा दी। यही नहीं ! एक गाभिन गाय भी ससुर जी ने यह कहते हुए उस चोर को दे दी कि ‘सोचा था कि बछड़े के साथ तीज पर भिजवायेंगे …पर … अभी ही ले जाओ वहां इसे। इसे देखकर दामाद जी की उदासी कुछ कम होगी’।
फिर दस दिन बात पंडित रामसूरत के ससुराल वालों को लगा कि खेती-पानी हो गया होगा तो दोनों बैल वापस मंगवाये जायें। बेकार ही बैलों का भार सहेंगे दामाद जी! और आज सुबह ही पंडित रामसूरत के दोनों साले बैल लेने गांव पहुंचे। पहले तो उन्होंने पूछा कि गाय ने बछड़ा दिया है या बछड़ी ? पंडित जी कुछ समझ ही नहीं पाये। तब उनके बड़े साले ने उन दोनों बैलों के बारे में भी पूछ लिया।
फिर क्या था! दो बैलों और गाभिन गाय का क़िस्सा सुनते ही रामसूरत पंडित मूर्छित हो गये। खड़ी लाठी जैसे गिरती है ज़मीन पर ठीक वैसे ही धरती नाप डाली पंडित जी ने। जब देर तक मूर्छा ना टूटी तो टांगकर उन्हें वैदकी में ले गये सब लोग। वैद जी ने कोई जड़ी पिलायी तब जाकर मूर्छा दूर हुई ग़रीब पंडित की।
‘धोखा किया है इस गुलाब के सथियों ने। सारा हर्जाना अब यही देगा,’ बात ख़त्म करते-करते बूढ़े ठाकुर ने यही ऐलान किया था। ऐसा गांव वाले कहते हैं।
3
मैं फिर दुहरा दूं कि गुलाब काका कोई चोर नहीं थे। गांव वाले, जैसा कि मैं कह चुका हूं, बतकही के सात चक्रव्यूह रचते रहते हैं। दिन-रात और दशकों तक भाषाकस्सी होती है वहां एक ही क़िस्से पर! वे अपनी बतकही में हाथी को गलाकर झींगुर बना सकते हैं।
गुलाब काका से मेरी पहली भेंट सन् दो हज़ार सात में हुई थी। मुझे इसलिए याद है कि आज़ादी का साठवां साल था वह और उसी साल बतौर शोधार्थी दाख़िला हुआ था मेरा। उस वक़्त, यदि काका की मानें तो वे नब्बे छू रहे थे। पर वह मुझे अस्सी के आसपास के ही लगते थे। वैसे पहली मुलाक़ात काका से नहीं, काका के बेटे से हुई थी। काका के बेटे को गांव वाले गूंगी महाराज कहते हैं। गांव वालों की बातों की त्राह गूंगी महाराज की कथा भी विचित्र है। मेरे बचपन की कुछ धुंधली याद है जब पहली बार उन्हें देखा था तब वे शामियाने में बिरहा गा रहे थे। थोड़ा और ज़ोर देता हूं तो इतना याद आता है कि एक-दो बार राह चलते उनको मैंने नमस्ते किया था पर तब वे कुछ बोले नहीं। बस मुस्कुराकर रह गये। तब तक इतना ही परिचय था। बाद में पता चला कि उनको एक अजीब-सी बीमारी है। गाहे-बगाहे उनकी आवाज़ ही चली जाती है। मतलब एक़दम से ही गूंगे हो जाते हैं। गांव वालों ने बताया कि यह परेशानी जन्मना है उनको। बीस वर्षों तक काका उनको लेकर शहर-दर-शहर दौड़ते-दिखाते रहे। काका की मानें तो अंग्रेज़ी दवाइयों से लेकर जड़ी-बूटी तक इलाज़ करवाया। ना कोई देवता छोड़ा और ना किसी पीर-औलिया की दरगाह। साथ के साथ गूंगी महराज के गर्दन की हड्डी का भी इलाज़ चलता रहा। उनकी गर्दन की हड्डी बचपन की किसी गहरी चोट की वजह से टेढ़ी हो गयी थी। चोट तो ख़ैर उनके माथे पर भी थी; पर वह काका की चोट की तरह दिखती न थी। कालांतर में ना गर्दन सीधी हुई और ना गूंगेपन का दौरा ख़त्म हुआ। डॉक्टर बताते हैं कि गूंगी महाराज के माथे की कोई नस है जिसमें रक्त-संचार अचानक बंद हो जाता है और इसी वजह से उनकी आवाज़ चली जाती है। डॉक्टर मानते हैं कि दिमाग़ की नस और टेढ़ी गर्दन कि हड्डी के बीच कुछ ऐसा है जो पकड़ में नहीं आ रहा है। शुरू-शुरू में तो यह परेशानी एकाध माह ही रहती थी पर धीरे-धीरे गूंगेपन का दौरा लंबा खिंचने लगा। एक बार तो जवानी में जब गूंगी महाराज शायद सत्ताइस-अट्ठाइस साल के रहे होंगे तो उनकी आवाज़ लगभग इक्कीस महीने तक बिलकुल ही ग़ायब रही।
गुलाब काका ने उनके इलाज़ में अपनी सारी खेती रेहन रख दी थी जो धीरे-धीरे नीलाम हो गयी। पोता-पोती देखने की काका की हसरत हसरत ही रह गयी। ब्याह ही नहीं हुआ गूंगी महाराज का। फिर इस गूंगेपन की आवृति और बढ़ गयी। उनकी बढ़ती उम्र के साथ-साथ गूंगापन बढ़ता गया। यह कोई कथा नहीं बल्कि आंखों देखा हाल है। मैं जब उन्हें पूरी तरह जान पाया तब वे बेआवाज़ ही थे।
यह महज़ संयोग ही है कि बूढ़े और ग़रीब बाप-बेटे हमारे संपर्क में आ गये। हुआ यह था कि हमारे घर में जो खेती-बाड़ी संभालते थे वे मुंबई चले गये। अपने बेटों के पास। जब भी हम गांव से शहर आ जाते तो गांव के घर पर वही एक दीया-बाती करने वाले शख़्स थे। जब वे भी चले गये तो मेरे पिता ने नये आदमी की खोज शुरू की। काका के परिवार की ना माली हालत अच्छी थी ना शारीरिक। काका लाठी के सहारे पर आ गये थे और गूंगी महाराज की भी उम्र तब साठ के आसपास रही होगी। जैसे-तैसे बाप-बेटों का गुज़ारा होता था। पिता जी ने गूंगी महाराज को बस दीया-बाती के लिए रख लिया। दीया-बाती तो ख़ैर एक बहाना ही था। असली बात थी घर की रखवाली। खेती-बाड़ी को तो अधिया पर किसी को भी दिया जा सकता था और दिया भी गया पर घर का ताला किसी विश्वसनीय के हाथ में ही सौंपा जा सकता था। गूंगी महाराज पर पूरा गांव भरोसा करता है। आज तक एक शिकायत किसी ने न की और न मैंने सुनी कभी। गप्प में भी नहीं। हां गांव वाले मज़ाक में उन्हें कभी-कभार गूंगी जहाज़ ज़रूर पुकारते थे। वह इसलिए कि गांव में जब भी कोई हादसा होता या कोई घटना घटती तब गूंगी महाराज पता नहीं कैसे चुपचाप वहां हाज़िर हो जाते बल्कि सबसे पहले हाज़िर होते। यहां तक कि कोई गोपनीय से गोपनीय बात हो या दो लोग भी आपस में फुसफुसा रहे हों तो उनके पीछे तीसरे शख़्स गूंगी महाराज खड़े पाये जाते। चौकन्ने लोग बात करते या किसी गोपनीय घटना को अंजाम देने से पहले आसपास देख लेते कि कहीं गूंगी तो नहीं हैं! हालांकि गूंगी महाराज ने कभी किसी का कुछ जानबूझकर नहीं बिगाड़ा। वे अपनी सीधी राह चलते और ऐसे में किसी का कुछ बिगड़ जाये तो यह उसकी समस्या थी गूंगी की नहीं। ऊपर से यह भी था कि जब-जब उनकी आवाज़ वापस लौटती तब-तब वे किसी की नहीं सुनते थे। हर बात की तह में जाते और पूरे गांव में घूम-घूम कर हर बात की सच्चाई बताते। उनकी सच्चाई पर लोगों को भरोसा था। उनकी इस हरकत की वजह से गांव में एकाध बड़े बवाल भी हुए; पर गांव वालों का भरोसा ही उन पर इतना था कि कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाया था। वे बेहद हंसमुख थे; पर जब उदास होते थे तब महीनों उदास ही रहते थे।
गूंगी महाराज के पिता को पूरा गांव गुलाब काका कहता था तो मैं भी काका कहने लगा। उनसे जब पहली बार मुलाक़ात हुई तभी से हमारी दोस्ती हो गयी। वे कई बार गूंगी महाराज के साथ लाठी टेकते हमारे घर शाम की चाय पीने आ जाते थे। पहले वे मेरे पिता जी के साथ बैठकी लगाते और फिर देर तक मेरे साथ। काका के साथ जब बतकही जमने लगी तो समझ में आया कि काका की भाषा गांव के बाक़़ लोगों की तरह अनगढ़ नहीं बल्कि काफ़ी साफ़ है। चीज़़ों को भी वे बहुत स्पष्ट देखते-समझते थे। मैं पहली बार उनका मुरीद तब हुआ जब एक बार वे बातों-बातों में बोल बैठे कि ‘तुम लोग तो … नोट पर ही …हंसते हुए गांधी की फ़ोटो देखते रहे हो …. हमने तो…. गांधी बाबा को रोते हुए देखा है… फफककर’।
इतना सुनना था कि मेरा माथा चकरा गया। क्या कह रहा है यह ग्रामीण?
मैं गांव की गप्पबाज़ी को तब कुछ-कुछ समझने लगा था। मेरे मुंह से कुछ व्यंग्यनुमा निकल गया, ‘अच्छा!! कब?’ काका समझ गये कि उनकी यह बात मुझे गप्प लग रही है। तब तक मैं उनके तेवर से परिचित नहीं था। मैंने फिर इसरार किया पर थोड़े नरम लहजे में, तो वे बीड़ी फेंकते हुए लाठी के सहारे खड़े हो गये और कहा, ‘छोड़ो…’ ; और लाठी टेकते हुए चले गये। पर अब इतिहास जैसा विषय शोधकर्म के रूप में मेरे हाथ में था और अंग्रेज़ी-राज में मेरी ख़ासी दिलचस्पी थी। कथाएं तो ख़ैर तब भी नहीं सुनता; पर आइडिया लेता रहता था। काका की बतकही ने मेरे भीतर के शोधार्थी को पिन मार दिया था। उनकी बातों पर भरोसा तो मुझे ना तब हुआ था और न अब है; पर मैं जानना चाहता था कि इस बूढ़े ग्रामीण के दिमाग़ में गांधी या आंदोलन या अंग्रेज़ी-राज या देश को लेकर जो नक़्शा है वह किस तरह का है; उसकी कुछ स्क्रीनिंग की जाये।
मैं दूसरी बार काका पर दंग तब हुआ जब चौथी या पांचवी बैठकी में वे मेरे पिता जी से बातचीत करते हुए बोल गये, ‘आप जानते नहीं पुरुषोत्तम बाबू ! दंगा तो अकाल से भी ख़तरनाक होता है! वह पगला भैंसा होता है … कब किधर पलट जाये कोई सोच ही नहीं सकता! ऊपर से बावन बीघे की फ़सल भी रौंद मारता है।’
पता नहीं काका और मेरे पिता किस मुद्दे पर बात कर रहे थे कि काका के मुंह से यह निकला था। मेरे कानों ने बस अंतिम वाक्य ही पड़े थे।
इस बार मैं सोचता रह गया। उनके पास जाकर न सवाल किया और न फ़ब्ती कसी। बस इतना समझ में आ गया कि कुछ तो है ही इस बुज़ुर्ग के पास कहने-सुनने को। फिर मैंने उन्हें आहिस्ते-आहिस्ते खुरचना शुरू किया। रह-रहकर मैं उनसे अंग्रेज़, अंग्रेज़ी-राज या गांधी जी के बारे में पूछता रहता। एवज़ में कुछ चीज़ें आतीं भी; पर गप्प की शक्ल में और मैं भीतर-ही-भीतर झुंझला जाता। अंग्रेज़ सिपाहियों के बारे में वे कहते कि ‘छोड़ो सालों के बारे में क्या जानकर करोगे? खेतों में फ़ारिग होकर नोट से पोछ देते थे और वही नोट सड़क पर फेंक देते थे हमारे लिए ?’
एक बार की बात है कि काका गूंगी महाराज को लेकर बेहद भावुक हो गये थे। हुआ यह था कि गूंगी महाराज को जेठ की धूप लग गयी थी और बुख़ार उतर नहीं रहा था। काका तीन दिन तक उनकी सेवा-टहल करते रहे। मैं बस कल्पना कर सकता हूं कि एक अस्सी साल का बुज़ुर्ग अपने साठ साल के बेटे को ‘बाबू बाबू!’ कहते हुए कैसे सेवा करता रहा होगा! लाठी टेकते हुए वैदकी में जाना और बेटे के लिए दवाई लाना! कच्ची अमिया को उबाल कर पिलाना! कितना श्रमसाध्य होगा यह सब! जब काका और गूंगी महाराज तीन दिन तक नहीं दिखे तो उनका हाल जानने मैं उनके घर गया। घर क्या मिट्टी के दो कमरे थे जिसके सामने एक घना नीम का पेड़ था। नीम के नीचे ही बजरंगबली का छोटा-सा मंदिर था जिसमें देवता विराजमान थे। गांव वाले काका की संतई की बात करते हैं पर उनको कभी मैंने टीका लगाये या पूजा करते नहीं देख। अलबत्ता गूंगी महाराज कभी-कभार गेरुआ पहनने थे।
उस दिन मैं देर तक उनके घर ही रहा। गूंगी महाराज कुछ चंगे हो गये थे पर हल्का बुखार था उन्हें। काका गूंगी महाराज के लिए खिचड़ी बना चुके थे जिसमें से थोड़ा मुझे भी चखाया। महाराज को तो डांटकर लोटा-भर खिचड़ी पीला भी दिया काका ने। मेरे सामने ही। बाप-बेटे का प्यार देखते ही बन रहा था। उस वक़्त मुझे गांव वालों के बेरहम क़िस्से याद आ रहे थे जो काका और गूंगी महाराज को लेकर थे ; यही कि काका जब गांव छोड़कर दूसरी बार भागे थे अपने दो चोर साथियों की तलाश में और जब वापस गांव आये तो गूंगी महाराज उनकी गोद में थे। क़िस्से कई हैं। जैसे एक क़िस्सा है कि काका ने शहर में किसी मारवाड़ी की बेटी को फंसा लिया था। उस मारवाड़ी की बेटी अपाहिज थी और उनके ही मेल से गूंगी महाराज पैदा हुए। गूंगी को पैदा करने के बाद वह लड़की मर गयी और उस मारवाड़ी ने काका को लात मारकर शहर से खदेड़ दिया था। बल्कि उस मारवाड़ी ने बालक गूंगी को यह कहते हुए सड़क पर फटका था कि ‘ले जा इस टेढ़ी गर्दन वाले अपाहिज को’। पटका खाने के बाद ही बालक को गूंगेपन का रोग लग गया। गप्प तो और भी हैं, बल्कि कई-कई गप्प। एक यह भी कि उस मारवाड़ी की बेटी के मरते ही उसके गले का सोने का हार चुरा लाये थे काका और गांव लौटे तो उसे ही बेचकर मटुक साह और रामसूरत पंडित की चोरी हुई मवेशियों का हर्जाना दिया। उसी हार के पैसे से दो बीघे ज़मीन ख़रीदी और उसी के पैसे से बीस साल तक गूंगी महाराज का इलाज़ करवाने के लिए शहरों में भटकते रहे। अब इन किस्सों का कोई आधार है भला ?
उस सांझ काका के यहां खिचड़ी चखने और बैठकी लगने से बतकही का जो दौर चला तो देर रात चलता ही गया। मैंने गांधी जी वाला राग फिर अलापा ‘कब देखा था आपने गांधी जी को रोते हुए ?’ पता नहीं क्यों वे एक़दम पलट गये, बोले ‘ छोड़ो लाल जी! अब याद नहीं कि कहां देखा था। उमर भी तो हो गयी है।’ मैं समझ गया कि वे बताना नहीं चाहते या हो सकता है कि उस दिन गप्प ही मारा था। गप्प मेरे गांव की धमनियों में ख़ून की तरह बहता है। उससे कोई नहीं बच पाया आज तक। फिर भी मेरे भीतर का शोधार्थी हार नहीं मान रहा था, मैने बात बदली, ‘ कोई बात नहीं काका; पर अंग्रेज़ी-राज में लड़ाइयों को तो देखा होगा? आंदोलन बग़ैरह?’
‘गांव में कुछ नहीं था। जो लड़ाई थी वह शहरों में थी। एकाध बार पुलिस आयी थी गांव में; पर कुछ विशेष नहीं हुआ’, काका ने लापरवाह-सा जवाब दिया। आंदोलन को काका ‘लड़ाई’ कहते थे।
‘मतलब आंदोलन की धमक गांव में नहीं थी? कोई लड़ा ही नहीं होगा आज़ादी के लिए, न ?’ मैंने कुरेदा।
काका अब जाकर चौकन्ने हुए , तपाक से बोले, ‘ऐसा नहीं है। अनाज जाता था महात्मा जी को। बहुत पहले से ही’।
‘महात्मा जी कौन ?’ मैंने अंदेशे से पूछा था और मेरा अंदेशा बिलकुल सही निकला। मेरे यह पूछते ही उनका चेहरा कस गया तो मैंने ही जवाब दिया, ‘ओह ! अच्छा , महात्मा जी मतलब गांधी’।
उन्होने बीड़ी सुलगा ली और ललाट के खोखल में फिर से धुआं भरने लगे। वे वृतांत सुनाने के मूड में आ चुके थे। थोड़ा थमकर उन्होंने अपनी आंखें मूंद लीं और शुरू हुए, ‘हम लोग सात भाई-बहन थे। पैदावार भी बहुत कम होती थी। खाना तब एक सांझ ही पकता था। बाक़ी फांकी ही थी या किसी के यहां कुछ खट लिया तो मुट्ठीभर कच्चा-पक्का मिल जाता था खाने को। गेहूं तो बहुत बाद में देखा। पहले तो बस धान ही धान था। माई रोज़ सांझ को जब भात बनाती तो आठ मुट्ठी चावल डालती थी। गिनकर?। लेकिन चावल धोने और तसले में डालने से पहले एक मुट्ठी निकालकर एक हंडिया में अलग रख देती थी। हम सब छोटे ही थे। एक बार नाराज़ होकर बड़े भैया ने उससे पूछा कि एक तो मुट्ठी भर भात मिलता है खाने को … उसमें से भी निकाल क्यों लेती हो एक मुट्ठी? तब माई उनको डांटा ‘भाग बेहूदा! लड़ाई लगी है न! गांधी बाबा के लिए जाता है यह।‘
उफ़्फ़ ! पहली बार ऐसा हुआ कि कथा सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हुए। ‘क्या?’ मेरे मुंह से अचानक ही निकल पड़ा। मेरे पढ़े और सुने में एक गठजोड़ हो रहा था। वह भी इतने क़रीब जिसे मेरा मन मानने के लिए तैयार ही नहीं हो रहा था।
पर काका अपनी रौ में थे, नाराज़ नहीं हुए , बोलते गये, ‘माई बड़ी भोली थी लाल जी! उससे किसी ने कह दिया था कि बाबा जैसे ही यह लड़ाई जीतेंगे तो भर-भर पेट भात मिलेगा सबको…पर वह दिन कभी आया ही नहीं लाल जी’।
मैं हतप्रभ-सा सुनता जा रहा था काका को।
उनकी आंखें पनियल होकर ढिबरी की रोशनी में चमक रही थीं। वे पीड़ा में भरकर बोले जा रहे थे, ‘बड़ी ग़रीबी थी लाल जी! बड़ी ग़रीबी। ठीक से खाने के लिए मिला ही नहीं कभी किसी को। सारे भाई बहनों की देह बढ़ रही थी और वह खुराक मांग रही थी। जबकि अनाज …’
काका थोड़े थमे, फिर बोले, ‘देखते-देखते मेरे चार भाई-बहन मेरी आंखों के सामने सिधार गये लाल जी! ग़रीबी से तंग आकर मैंने तो गांव ही छोड़ दिया था… पर क़िस्मत फिर वापस ले आयी’।
यह कहते हुए तकलीफ़ से चेहरा पीला पड़ गया था काका का। ढिबरी की लपकती पीली रौशनी में मैं वह मुरझाया चेहरा आज भी नहीं भूलता। मैं उस वक़्त हैरत में ही था पर उनके चेहरे की उदासी देखकर मुझ पर भी उदासी छाने लगी थी।
इसी साफ़ समझ का आदमी भला चोर हो सकता है? नहीं नहीं! गांव वाले गप्प का चक्रव्यूह रचते हैं। सात दरवाज़ों वाले। ग़रीब आदमी का पेट टटोलकर अफ़वाह फ़ैलाना दुनिया का सबसे वहशियाना काम है। ऐसे आदमी पर भी गप्प? तब से मैं किसी गप्प का साझीदार नहीं होता। अब तो काका को भी गुज़रे ज़माना हो गया। उस साल छुट्टियां बिताने के बाद मैं वापस शहर आ गया था। उसके बाद के बरसों में काका लगातार बीमार रहने लगे थे। दो-तीन साल बाद गांव गया तो देखने भी गया था उन्हें। काका ने खाट पकड़ ली थी। बोल भी नहीं पाते थे। सूनी आंखों से मुझे निहारते रहे। बाद में पता चला कि गूंगी महाराज ने ख़ूब सेवा की उनकी; पर नहीं बचा सके। अब इधर सुना है कि खुद गूंगी महाराज लाठी टेककर चलते हैं। वे भी पचहत्तर पार ही कर गये होंगे। गांव वाले फ़ोन पर बताते हैं कि उनकी आवाज़ अब बिलकुल ही चली गयी है। कई बरसों से कुछ भी नहीं बोला। बस इशारों से काम चलाते हैं वे। गूंगी महाराज हमारे घर में दीया-बाती करना कब का ही छोड़ चुके थे। सोचता हूं कि कैसे जीते होंगे वे? मुझे उस सांझ की याद आज भी है जब बीमार गूंगी महाराज खाट पर ऊंघ रहे थे और बूढ़े काका मुझे कथा सुनाते हुए बीच-बीच में लाठी के सहारे उठते और गूंगी महाराज के पास जाकर उनका सिर धीमे-धीमे सहलाते हुए उन्हें पुचकारते, ‘ बाबू रे ! बचवा रे !’
गुलाब काका चले गये पर चोरों की वह कथा अभी भी फंसी हुई है मेरे ज़ेहन में जो काका ने सबसे बाद में सुनायी थी। कई खंडों में। काका को लेकर मेरे मन में बस एक आख़िरी स्मृति तब की है जब एक सांझ चाय पीते हुए वे किसी बात पर मेरे पिता से हंसते हुए बोले ‘आप जानते नहीं पुरुषोत्तम बाबू ! अंग्रेज़ जब गये तब देश भी चुराकर ले गये। पर किसी को पता ही नहीं चला। इसीलिए तो आज तक किसी ने चोरी की रपट नहीं लिखवायी’।
4
बलेसर, नज़ीर और फुलेल ये ही तीन नाम बताये थे काका ने उन चोरों के। मिलाजुलाकर तीनों ही हमउम्र थे। फुलेल इधर का था और बाक़ी के दो बंगाल के। बलेसर तो और दूर का था। रंगून का। वह आधा पुरबिया और आधा बर्मी था। मां उसकी बर्मा की थी। बलेसर नाम उसके पिता ने ही उसे दिया था; नहीं तो उसकी मां का बहुत मन था कि उसका नाम उंग रखे; पर बलेसर ही प्रसिद्ध रहा। नाम की वजह से वह पुरबियों में भी कुछ खप जाता था। वह जब दस साल का था तभी उसके पिता की हत्या हो गयी। काका के मुताबिक़ उसके पिता को बर्मियों ने ही मारा था। वहां बाहरी और भीतरी को लेकर इतनी मारकाट मची थी कि अकेली जीव को बलेसर की चिंता होने लगी। इसलिए इधर भाग आयी थी। हालांकि नज़ीर भी आधा इधर का ही था। उसका ही ननिहाल सासाराम में था। जन्म कलकत्ते में हुआ था। रही बात फुलेल की तो यदि काका की मानें तो कर्मनासा नदी के पास के किसी गांव का था। कर्मनासा नदी को लेकर काका ने एक अजीब ही कहानी सुनायी थी। वे बोले कि विश्वामित्र जब त्रिशंकु को अपने तप की शक्ति से सशरीर स्वर्ग भेजने लगे तो देवताओं से यह बर्दाश्त नहीं हुआ। सारे देवताओं ने मिलकर अपने प्रताप से उसे उल्टे पांव ही वापस धरती पर फेंकना चाहा। स्वर्ग भेजने के लिए इधर से ज़ोर विश्वामित्र लगा रहे थे और उधर से देवता उसे पृथ्वी पर पटकने पर तुले थे। त्रिशंकु हवा में ही लटका रहा। एक़दम उल्टा। महीनों उसके उल्टे लटकने से उसे जो पीड़ा हुई उसकी वजह से उसके मुंह से लार निकलने लगी। उसी लार के पानी से कर्मनासा नदी का जन्म हुआ। काका बोले कि लोग आज भी कहते हैं कि सुबह-सुबह उस नदी का नाम लेने से इंसान के सारे कर्मों का नाश हो जाता है।
गप्प तो काका की हर तीसरी बात में होती थी। पर जो इतिहास के जानकार हैं, विशेषकर प्राचीन भारत के, वे जानते हैं कि कर्मनासा के पश्चिम में बनारस पड़ता है जहां तब ब्राह्मण-राज था और कर्मनासा के पूरब में बौद्धों का साम्राज्य। दोनों के बीच वैचारिक युद्ध चलते रहते थे। रह-रहकर उनके बीच सीमाओं का भी निर्धारण होता रहता था। इतिहासकारों को शक है कि उस दौर में बनारस के पंडों ने ही यह बात फ़ैलायी होगी कि कर्मनासा लांघते इंसान के सारे कर्मों का नाश हो जाता है। इस तरह से वे हिंदू धर्म के मतावलंबिओं को बौद्धों के इलाक़े में जाने से रोकना चाह रहे होंगे। हालांकि अब सोचता हूं तो लगता है कि काका के हिसाब से तो चोरों के इलाक़ों का भी तो यही हाल था। एक-दूसरे के इलाक़े में चोरी करना दंडनीय अपराध था।
काका के अनुसार फुलेल सत्रह-अट्ठारह की उम्र में ही अपने मामाओं के यहां बंगाल चला गया था। चौबीस परगना में उसके मामा सब किसी खटाल में खटते थे। खटाल को तबेला कहा जाता है अब। वहीं खटाल में ही फुलेल की मुलाक़ात छोटी आंख और चिपटी नाक वाले बलेसर से हुई। वह बर्मी और हिंदी दोनों बोल लेता था। बालेसर तो और ही कमसिन उम्र में तबेले पर आ गया था। फुलेल से बहुत पहले। ग़रीबी और जहालत से तंग आकर उसकी मां ने उसे तबेले में मवेशियों का गोबर काछने के लिए छोड़ दिया और खुद कलकत्ते के किसी सेठ के यहां नौकरानी बन के चली गयी। अकेलेपन ने बलेसर को कुछ चतुर बना दिया था। पर वह पेट की भूख तक ही चतुर था। फुलेल ने कई बार देखा था कि गोबर हटाते वक़्त वह भैंस के थन से अपनी छोटी-सी लुटकी में दूध निकाल कर चट कर जाता था। फुर्तीला ऐसा कि एक से दस तक की गिनती के बीच वह किसी भी तरह के पेड़ को नाप जाता था। उस छोटी उम्र में भी वह अपनी मां से मिलने कभी-कभार कलकत्ता चला जाता था। अकेले ही। इसी क्रम में नज़ीर से उसकी दोस्ती हो गयी थी। नज़ीर का घर उस सेठ की कोठी के पीछे की बस्ती में था जहां बलेसर की मां आठों पहर की नौकरानी थी।
इनकी ज़िंदगी अभी अंगड़ाई ही ले रही थी कि वह अकाल पड़ा जिसे याद करके इतिहासकारों के भी रोएं सिहर उठते हैं। सबसे पहला असर भैंसों के चारे पर पड़ा। फिर उनके दूध पर। दूध होता भी तो कुछ को छोड़कर बाक़ी के ख़रीददार लापता हो रहे थे। तबेले में अनाज का स्टॉक घटता जा रहा था जबकि खाने वाले दर्जनों थे। धीरे-धीरे जब तबेले का संरक्षित अनाज़ भी स्वाहा हो गया तब हड़कंप मच गया। ज़िले में लूटमार मची थी और अनाज कहीं भी नहीं मिल रहा था। चारे के अभाव में अब मवेशी भी मरने लगे थे। वहां खटने वाले मज़दूर अपने गांव-घर सरकने लगे। मामाओं ने फुलेल पर गांव लौटने का दबाव बनाया पर फुलेल मुकर गया। किसी भी सूरत में वह गांव नहीं जाना चाहता था। पता नहीं क्यों? मज़बूर मामा सब उसे गलियाते हुए खिसक गये। कुछ दिन और बीते तो स्थिति और बदतर होने लगी। इधर जब बलेसर भी कलकत्ता जाने की तैयारी करने लगा तब फुलेल को वास्तविक संकट का अंदाज़ा हुआ। वहां से चलने से पहले बलेसर ने फुलेल पर बहुत ज़ोर डाला तो फुलेल उसके साथ हो लिया। कम से कम मज़दूरी करके भर पेट खाना तो मिलता कलकत्ते में। पर फुलेल को क्या पता था कि बलेसर उसे साथ ले चलने का इतना ज़ोर क्यों डाल रहा था। यह भेद तो बाद में खुला।
कहानी यहीं से शुरू होती है। अपनी कोठी में सेठ ने बलेसर को तो उसकी मां के साथ रहने की इजाज़त दे दी, पर फुलेल को सेठ रखने के लिए तैयार नहीं हुआ। उसने एक ना सुनी। ऐसे में नज़ीर ने अपनी बस्ती में फुलेल को शरण दी। किराया लगना नहीं था। पर अनाज़ का संकट बढ़ने से फुलेल की जमा-पूंजी तेज़ी से ख़र्च होने लगी। हर चीज़ की क़़ीमत आसमान छू रही थी। फुलेल को यह डर सताने लगा कि यह पूंजी ख़त्म हो गयी तो गुज़ारा कैसे होगा? काम के नाम पर क़ायदे का कुछ नहीं मिला था अब तक। अकाल के बढ़ते प्रकोप से कलकत्ता आनेवालों की आबादी लगातार बढ़ती जा रही थी और काम मांगने वाले पूरे शहर में हाथ फ़ैलाकर मदद की भीख मांग रहे थे। पर जैसे ही थोड़ा और वक़्त गुज़रा कलकत्ते के हालात बेक़ाबू होने लगे। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची मच चुकी थी। शहर की सड़कों पर भूख से बिलबिलाते और मरते लोगों को देखा जा सकता था। बंगाल के बाक़ी इलाक़ों से तो ख़बर आने लगी कि भूख से बेहाल अब आदमी आदमी का मांस खाने लगे हैं। पूरा कलकत्ता डरा हुआ था।
इसी बीच एक दिन नज़ीर और बलेसर फुलेल को बस्ती के पास वाले क़ब्रिस्तान के पीछे ले गये। वहां एकांत में इमली का एक घना पेड़ था। फुलेल ने देखा कि बलेसर ने अपनी बोरी से हाथभर की छिपकली निकाली। फुलेल डर गया। उसके गांव में इसे बिलगोह कहते थे जिसे देखते ही मार दिया जाता था। पर फुलेल ने देखा कि बालेसर की छिपकली के नाक में चांदी की नथिया है और वह पालतू है। बलेसर ने पहले तो उस छिपकली को चारा खिलाया और क़रीने से उसके शरीर के चारों ओर रस्सी बांध दिया। इससे पहले कि फुलेल कुछ समझ पाता बलेसर ने उस छिपकली को इमली की सबसे ऊंची डाल पर फेंका। छिपकली ने ऊंची डाल को मज़बूती से लपक भी लिया। इसके आगे फुलेल कुछ सोच पाता बलेसर छिपकली की देह से लटकी लंबी रस्सी के सहारे पेड़ पर चढ़ने लगा। छिपकली बहुत मज़बूती से डाल को पकड़े रही। हिली तक नहीं। पलक झपकते बलेसर उसी डाल पर पहुंच गया। फुलेल मुंह फाड़े यह करतब देखता रह गया। जबकि साथ में ही खड़ा नज़ीर गहरी हंसी-हंस रहा था। अब नज़ीर ने भी रस्सी पकड़ी और बलेसर की तरह फुर्ती दिखाते हुए पेड़ पर चढ़ गया। दोनों फिर फुलेल को ऊपर बुलाले लगे। फुलेल सीधे मुकर गया ‘ ना ना …एक़दम नहीं’।
उसी इमली के पेड़ के नीचे दोनों दोस्त फुलेल को रातभर कुछ समझाते रहे पर फुलेल साफ़ मुकर जाता। उन्होने यह भी कहा कि ‘तुम्हारा काम बस निगरानी करना होगा, तुम्हें कहीं चढ़ना नहीं है’। फुलेल तब भी नहीं माना। घोड़े की तरह अड़ा रहा।! फिर तीनों अपने-अपने ठिकाने लौट आये। कुछ दिन यूं ही बीते। फुलेल के पास जब कुल जमा आठ आने रह गये तब वह सोच में पड़ गया। फुलेल ने एक बार यह भी सोचा कि घर निकला जाये पर अब तो लौटने के लिए भी उतने पैसे नहीं रह गये थे। बलेसर और नज़ीर शायद इसी घड़ी का इंतज़ार कर रहे थे। उनके लिए इस मारा-मारी में फुलेल जैसा भरोसे का साथी खोजना असंभव था। दोनों लंबे समय से फुलेल पर मेहनत कर रहे थे। दोनों साथी फिर फुलेल के ठिकाने पर पहुंचे। मजबूर फुलेल अब भी दुविधा में था पर रात बीतते-बीतते उन दोनों ने फुलेल की दिमाग़ी दुनिया बदल ही डाली। वह अब चोरों का साथी था। पर शर्त यही थी कि उसका काम केवल नीचे खड़े रहकर निगरानी का होगा और ख़तरे की आहट पाते ही कोयल की कूक निकालनी थी।
फुलेल को बहुत बाद में पता चला कि यह काम तो नज़ीर का पुश्तैनी था और पिछले कई महीनों से उसने बालेसर को अपना शागिर्द बना रखा था। वह बीच-बीच में अपनी मां से मिलने का बहाना बनाकर नज़ीर की शागिर्दगी करने लगा था। बलेसर की चतुराई का नज़ीर को भी अंदाज़ा तब लगा जब वह किसी बर्मी के यहां से छिपकली उठा कर लाया। बलेसर ने बचपन में रंगून में इस तरह की छिपकलियों के करामात देखे थे। पर कलकत्ता के लिए यह एक नयी और गोपनीय तकनीक थी। उस छिपकली ने काम ही आसान कर दिया था। दोनों चुपचाप शहर में चोरी को अंजाम देने लगे थे। पर अब दिक्क़त कुछ ज़्यादा बढ़ गयी थी। अकाल और छिटपुट दंगों से अब पूरा शहर ही चौकन्ना रहने लगा था। ऐसे में इन दो चोरों को अपना नया पहरेदार चाहिए था अब। और फुलेल भी इधर राज़ी हो गया।
कलकत्ता में अकाल और आज़ादी की लहर साथ-साथ चल रही थी और इधर तीन चोर अपने कारनामों से पूरे शहर को रह-रहकर स्तब्ध कर रहे थे। स्तब्ध तो उस इलाक़े के चोर भी थे जो जान ही नहीं पा रहे थे कि यह चोरियां कौन कर रहा था। नज़ीर जानता था कि चौबीस परगना के इन दो चोरों को कलकत्ता में चोरी की इजाज़त चोरों का सरदार नहीं देने वाला था। चौबीस परगना ही क्या; किसी भी बाहरी चोर को कलकत्ता में घुसने की इजाज़त ही नहीं थी। कलकत्ता अब खुद लुटा-पिटा रहने लगा था। ऊपर से नज़ीर के हाथों चोरों की सदियों की परंपरा ध्वस्त करते हुए दो नये साझीदार ले आया था। पर भेद खुला नहीं था अभी तक। एकाध जगह तीनों पकड़ में आते-आते बच भी गये थे। जिसने उन्हें देखा था उसने दुनिया को बताया भी कि लंगोट पहने ये चोर ऐसे काले थे कि उस कालेपन की बराबरी तेल में लिपटी काली नागिन ही कर सकती है। हाथ लगाते ही फिसल जाते थे।
इन ख़बरों से बेपरवाह तीनों चोरों की हरकतें बढ़ती गयी और उनका आपसी भरोसा भी। वे क़दमताल मिलाते हुए कोठियां, मोहल्ले, क्या मंदिर क्या मस्जिद और क्या गुरुद्वारा-गिरजाघर, हर जगह हाथ फेरते गये। दान-पेटियों पर तो उनकी ख़ास नज़र रहती। पर अकाल में वह भी अधिकतर ख़ाली ही मिलती। उनकी मेहनत के अनुपात में बहुत कम निकलता था अब। कंगाली पूरे कलकत्ते में पसरी थी। अच्छे-अच्छे घरों से भी कई बार ख़ाली हाथ लौटना पड़ा था।
कलकत्ते के चोरों का सरगना यह सब अब और सहन नहीं कर पा रहा था। उसके कई गुट थे। हर गुट में खलबली मची थी। कष्ट इस बात को लेकर भी बहुत था कि वे चोर चोरी की चीज़ों का चढ़ावा तक नहीं पहुंचा रहे हैं। कौन हैं वो? सरदार ने एक टोल बनायी और आदेश दिया ‘जैसे भी हो धरो सालों को’। उस टोली ने महीनों खपा दिये तब जाकर एक हल्की-सी डोर पकड़ में आयी उन्हें। और वह डोर थी वह बर्मी जिसकी छिपकली ले उड़ा था बलेसर। बलेसर की खोज तेज़ी से शुरू हुई और एक दिन वह ट्राम से उतरते वक़्त धर लिया गया। उसकी पीठ पर लटकी वह बोरी भी मिल गयी जिसमें नथिया पहननेवाली छिपकली थी।
बेइंतहा पिटाई हुई बालेसर की तब जाकर उसके मुंह से निकला, ‘नज़ीर’। इधर फुलेल के ठिकाने पर नज़ीर और फुलेल बलेसर के इंतज़ार में गप्पें मार रहे थे। नज़ीर का निकाह जिस लड़की से होने वाला था वह नज़ीर की ही मामा की बेटी थी। यह बात फुलेल को पच ही नहीं रही थी। नज़ीर बार-बार फुलेल को समझा रहा था कि ‘भाई, हमारे में जो मां दूध के शरीक हैं, उनसे शादी नहीं हो सकती, बाक़ी किसी से भी हो सकती है’। फुलेल हैरत और चिढ़, दोनों को थामे नज़ीर की बात सुन रहा था, तभी कलकतिया चोर दाख़िल हुए। बलेसर का चेहरा खून से सना हुआ था और उसकी दोनों आंखें सूजकर काली हो चुकी थीं। उसकी दुर्दशा देखकर फुलेल की तो कंपकंपी छुट गयी। पर नज़ीर भीतर से ढीठ था। पहले तो उसने बल लगाकर बलेसर को उनके हाथों से छुड़ाया। फिर उसकी दुर्दशा करने वालों को गलियाने लगा। जो चोर बलेसर को लेकर आये थे वे जानते थे कि यह बस्ती नज़ीर की है और बहुत कुछ बिगाड़ा नहीं जा सकता है उसका। फिर भी वे दुस्साहसी निकले। उस टोली में से एक बिना कुछ बोले फुलेल के कमरे की तलाशी लेने लगा। उसका नाम जंगी पहलवान था। कलकतिया सरदार के गुट का सबसे खूंखार चोर। एकाध क़त्ल भी किये थे उसने। उसी ने बलेसर को बेरहमी से मारा था। थोड़ी ही देर में जंगी ने फुलेल की वह गठरी खोज ली जिसमें फुलेल के हिस्से का माल था। उसने कुछ गरजते हुए ही फुलेल से पूछा ‘यह तुम्हारा है?’ तभी नज़ीर ने बीच में टोका और झूठ बोल गया, ‘इसे कुछ नहीं मालूम। यह तो तबेले का दुहाल है। यह पोटली मेरी है’।
जंगी को पहले तो भरोसा ही नहीं हुआ। पर उसने कोई प्रतिवाद नहीं किया। बस टोकरी खोलकर उसमें झांकता रहा। थोड़ी देर बाद वह अपने साथियों के साथ चलता बना। जाने से पहले उसने नज़ीर को सख़्त चेतवानी ज़रूर दी, ‘रात बीतने से पहले तक सरदार के यहां हाज़िरी लगा…नहीं तो तू जानता है कि वह क्या-क्या कर सकता है?’
नज़ीर कुछ बोला नहीं उस वक़्त। पर उसकी आंखों में कलकत्ते के चोरों के सरदार का कुछ डर उतर आया था। नज़ीर की बांहों में घायल बलेसर अब भी सुबक रहा था। बड़ी गहरी चोट की थी उन लोगों ने। चोट तो फुलेल को भी कम न लगी थी। पर वह चोट मन की थी। एक तो वह चोरों की इस मंडली में जैसे-तैसे शामिल हुआ और अब उसकी चोरी का हिस्सा भी वे बदमाश ले गये थे उठाकर। उस मोटरी में चांदी और सोने के एकाध लटकन-झबिया भी थे जिनके दम पर न जाने कितने सपने देख डाले थे फुलेल ने।
फुलेल की सोच को नज़ीर भांप गया। फुलेल से बोला, ‘चिंता मत करो फुलेल! जितना गया उतना हम दोनों अपने हिस्से से दे देंगे’।
पर फुलेल उबाल खा चुका था। दिल में कई तरह की शंकाएं भी उठ रही थी। उनके सामने हांफता-रोता घायल बलेसर था जिसमें फुलेल को अपना भविष्य नज़र आ रहा था। अब माल से ज़्यादा जान की चिंता थी। इधर नज़ीर बार-बार फुलेल को दिलासा दे रहा था, ‘मैं अपना सारा हिस्सा दे दूंगा भाई। क्यों परेशान हो रहा है?’
फुलेल एक़दम फूट पड़ा, ‘अभी तो तुमने बताया था कि अपना सारा हिस्सा उस लड़की को दे आये हो जिससे तुम्हारा निकाह होने वाला है। वह लौटायेगी तुम्हें कुछ ? वह भी मुझे देने के लिए ?’
नज़ीर चुप हो गया। फुलेल अब फ़ैसला कर चुका था। किसी का कोई भरोसा नहीं। वैसे भी फुलेल किसी अड़ियल घोड़े से कम न था। जब अड़ जाता तब वह आगा-पीछा नहीं देखता था। फुलेल ने उन दोनों के सामने दांत पीसकर ऐलान किया, ‘ हमें रहना ही नहीं है तुम लोगों के साथ। अब बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा यह सब’।
फुलेल वहां से पैर पटककर स्टेशन की ओर चल पड़ा। नज़ीर और बलेसर देखते रह गये। चुपचाप। फुलेल की धोती की गांठ में तब दो सोने की गिन्नियां थीं। वह उन्हीं के सहारे वहां से गांव लौटा। तब घी बारह आने किलो मिलता था और धान दो आने पसेरी। यह बहुत था गांव में रहकर इज्ज़त के साथ जीने-खाने के लिए।
इधर अकाल और विकराल होता जा रहा था।
5
काका ने जैसा बताया था कि उतरते जाड़े में वे दोनों एक रात फुलेल के गांव पहुंचे थे। फुलेल को तो जैसे गश मार रहा था । गुज़रे महीनों में वह कलकत्ता और वहां की दुनिया को एक़दम भूल चुका था। पर अचानक उस दुनिया ने उसे सामने से दबोच लिया। क्यों आये हैं यहां ये? क्या कोई कांड करके भागे हैं? उस गठरी की स्मृति भी उमड़ आयी जो कलकतिया चोर उठाकर ले गये थे। उसकी याद आते ही ज़हर भर गया फुलेल के मन में और अब दस तरह के अंदेशे उठ रहे थे। पर आधी रात में वह क्या बहस करता उनसे? इतने में बिना कुछ कहे-पूछे नज़ीर और बलेसर झोंपड़े के भीतर आ गये थे। चुपचाप। शोर मचाकर गांव वालों को फुलेल बुलाता भी तो क्या कहता? अगर इन दोनों ने उसका भांडा फोड़ दिया तो क्या इज्ज़त रह जायेगी गांव में? फुलेल भयानक उधेड़-बुन में था और समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे वह! तब तक वह दोनों झोंपड़े में बिछी पुआल पर अपना-अपना कंबल ओढ़ कर सो गये। बहुत थके जान पड़े थे दोनों। उनकी देह पर उनके कपड़े और कंबल के सिवाय कुछ नहीं था।
काका ने बताया कि धीरे-धीरे बलेसर ने ही फुलेल को कलकत्ता की सारी राम कहानी बतायी। बलेसर पर फुलेल का अब भी कुछ भरोसा था। नज़ीर तो चुप ही रहता था। बलेसर ने फुलेल को बताया कि फुलेल के कलकत्ता से लौटने के बाद वहां के हालात और ख़राब होने लगे। चोरों के सरदार ने नज़ीर को दो वर्षों तक कलकत्ता से तड़ीपार रहने का फ़रमान सुना दिया था और बलेसर की ज़िंदगी की क़़ीमत पर उसे वापस रंगून जाने का हुक्म दिया था। सरदार को चोरी का माल न तो नज़ीर ने दिया और न ही बलेसर ने; बल्कि वे दोनों मिलने भी नहीं गये सरदार से। बलेसर की मां जिस सेठ के यहां काम करती थी उस सेठ तक चोरों ने बलेसर की कथा पहुंचा दी थी और सेठ ने बलेसर और उसकी मां को वहां से निकाल फेंका। फिर उन्होंने उसी ठीहे पर शरण ली जहां कभी फुलेल रहा करता था। इधर नज़ीर ने फुर्ती दिखायी और अपने मरहूम मामा की लड़की से निकाह कर लिया। बलेसर नज़ीर के निकाह तक दम साधे कलकत्ता टिका रहा। उस पर शहर छोड़ने का दबाव बहुत था। आये दिन चोर कोई न कोई धमकी भरी चिट्ठी गिरा जाते थे। अपनी मां को वहीं छोड़़कर वह कलकत्ता से निकल गया। वह रंगून तो ख़ैर नहीं ही गया पर चौबीस परगना के उस तबेले में ही उसने फिर शरण ले ली।
नज़ीर अपने हाथ-पांव सिकोड़कर अपनी बस्ती में ही टिका रहा। उसके मामा के नाम पर उसे अभी भी संरक्षण मिला हुआ था। वह तो अब बस्ती से भी बाहर नहीं जाता था। मां थी नहीं। बस बूढ़े और अपाहिज पिता और बीवी फ़ातिमा। यही उसकी दुनिया थी। नज़ीर और फ़ातिमा दोनों के पिता चोरी के दौरान किसी बड़े हादसे का शिकार हो गये थे। बहुत पहले। मामा की तो उसी दौरान मौत हो गयी थी और पिता अपाहिज होकर घर बैठ गये। तब से घर का ख़र्चा नज़ीर ने ही संभाला। मामी और फ़ातिमा की भी ज़िम्मेदारी उसी के कंधे पर थी।
निकाह के बाद महीनों मज़े से गुज़रे नज़ीर के। पर कब तक? नज़ीर को तंगी में जीने की आदत नहीं थी और अब ख़र्चा बढ़ता जा रहा था। उसकी बीवी भी पेट से थी। जबकि आमदनी इकन्नी भी न थी। चोरी के माल के भरोसे साल तो निकल गया पर अब उसे लगने लगा था कि ऐसे तो छह माह से ज़्यादा नहीं चल पायेगा। इधर बलेसर की भी ज़मा-पूंजी ख़त्म हो रही थी। ऊपर से शराबखोरी का ऐब भी लगा बैठा था। अपने हिस्से के चोरी के माल को बेचकर उसकी आधी रक़म वह अपनी मां के हवाले कर आया था और आधे को सालभर तक उड़ाता रहा। इधर यह चुक चुका था और उधर नज़ीर चुक रहा था। नज़ीर ने मुर्शिदाबाद जाने के लिए भी एक बार सोचा पर वहां की ख़बरें भयानक थीं। अकाल का प्रकोप कुछ कम हो रहा था पर दंगे शुरू हो गये थे। वैसे तो दंगे अब हर जगह हो रहे थे। चोरों के लिए यह अकाल से भी बुरी ख़बर थी। जब बड़ी आबादी ही आपस में लूट-मार अपना चुकी हो तो ऐसे में चोर उनका मुक़ाबला क्या करते! चोरों को तो हमेशा एक इत्मीनान से भरी ऐसी दुनिया चाहिए होती है जो रातभर चैन से सोती हो। इसी में उनका गुज़ारा था।
नज़ीर ने अपनी कमाई के लिए जुगत लगानी शुरू कर दी थी और जैसे ही तंगहाली ने कुछ ज़्यादा ही परेशान करना शुरू किया वैसे ही उसने बलेसर को संदेशा भिजवाया ‘हर-हर महादेव’।
बलेसर समझ गया कि बनारस का बुलावा आया है।
वे महीने भर वहां टिके। पर बनारस के चोरों का सरदार नहीं मान रहा था। उसने उन्हें रुसवा ही किया। कोई जगह ख़ाली न थी। चोरी की आधी कमाई देने की पेशकश तक उन दोनों ने फिर भी कोई फ़ायदा न हुआ। बस यह हुआ कि मरहूम मामा के नाम पर वहां रहने की इजाज़त मिल गयी थी। पर चोरी की नहीं। नज़ीर की सारी योजना धरी-की-धरी रह गयी। देश में ऐसा कुछ हो रहा था जिसका असर अब चोरों के आपसी रिश्तों पर भी पड़ने लगा था। नज़ीर के मशहूर घराने का नाम भी काम नहीं आया। तमाम जानने वालों ने हाथ जोड़ लिये थे। एकाध माह गुज़रते ही वे दोनों बनारस में तो नहीं; पर बनारस के आसपास छिटपुट चोरियों को अंजाम देने लगे। पर कुछ बड़ा हाथ नहीं आता। वैसे भी अब वे संभलकर चोरियां करते थे। कलकत्ते वाली ग़लती यहां नहीं करनी थी।
ले-देकर ख़र्चा-पानी निकल रहा था दोनों का। पर बड़ा हाथ न मारने की वजह से वे ऊब रहे थे। नज़ीर अपनी सारी कमाई को पैसे में बदलकर फ़ातिमा को मनीआर्डर करता था। उसे घर की बड़ी चिंता रहती। कभी-कभार वह बलेसर से उधार भी मांगता था। एकाध महीने इसी में खिंच गये। तभी काशी विश्वनाथ में चोरी हो गयी और मामला तुरंत हिंदू-मुस्लिम हो गया। चोरों के सरदार ने तमाम बाहरी चोरों पर सख़्ती दिखानी शुरू कर दी। भला हो कि उस रात नज़ीर और बलेसर गाजीपुर में एक बड़ी चोरी को अंजाम दे रहे थे। जब सरदार के सामने नज़ीर की हाज़िरी लगी तो नज़ीर ने गाज़ीपुर की चोरी का भेद खोल दिया। नहीं बताता तो मंदिर में हुई चोरी का शक जाता उस पर। बलेसर का नाम छुपाते हुए नज़ीर ने अपराध क़बूल किया। सरदार ने अपनी ओर से पता करवाया तो बात सच्ची ही निकली। सरदार ने राहत की सांस ली। पर नियम तोड़ने की सज़ा भी उसे देनी थी। नज़ीर के ख़ानदान का असर था या क्या कि सरदार ने ना चोरी के माल के बारे में पूछा और न चढ़ावा ही लिया, बस फरमान सुनाया, ‘बनारस अभी छोड़ो नहीं तो क़त्ल कर दिये जाओगे’।
वहां से अब कहां जाते दोनों! नज़ीर ने अंदाज़ा लगाया कि गाज़ीपुर वाली चोरी से इतना आ गया है कि अगले छह माह का तक सोचना नहीं है फ़ातिमा के लिए। माल तुरत मनीआर्डर में बदल गया और कलकत्ता चला गया। उसमें बलेसर का भी हिस्सा था। पर अब? पता नहीं ऐसा क्या था नज़ीर में कि कुछ सोचकर वह फुलेल से मिलने कर्मनासा की ओर चल पड़ा। ज़ोर नज़ीर ने ही डाला था। बलेसर अनमने ही तैयार हुआ था। पर उसकी भी मजबूरी थी। नज़ीर के बिना उसकी हालत एक चालाक ख़रगोश से ज़्यादा न थी। जबकि आसमान में चीलें उड़ रही थीं। बलेसर ने फुलेल को बताया कि उनका फुलेल के यहां टिकने का कोई इरादा भी न था। हां इस इलाक़े में वे तब तक टिकना ज़रूर चाहते थे जब तक तड़ीपार की तारीख़ पास न आ जाये। तारीख़ बहुत पास नहीं थी तो बहुत दूर भी नहीं थी।
फुलेल को बलेसर की बातों पर भरोसा नहीं हो रहा था; पर उन दोनों के अचानक गांव आ जाने से उसके भीतर के अकेलेपन पर जैसे मरहम लगने लगा था। उसके अपने भाइयों से अबोला ही रहता था। वजह साफ़ थी। जब फुलेल गांव लौटा था तो पता चला कि उसकी मां सिधार चुकी थी। लंबी बीमार रही वह। भाइयों ने कोई ख़बर तक नहीं की थी। तब फुलेल खूब रोया था। कितनी हसरत थी उसे फुलेल की बहुरिया को देखने की! फुलेल ने सोचा था कि पैसे कमाकर आयेगा तो मां की हसरत पूरी करेगा। अब उसका अंतिम सहारा ही दुनिया छोड़ गयी थी। उसी दिन से फुलेल ने गिरह बांध ली कि मरते-दम तक बात नहीं करनी है इन बेरहम भाइयों से। बहुत लड़ने-झगड़ने पर बंटवारे में एक फूस की कुटिया दी थी उन्होंने फुलेल को। गांव वालों से भी कम ही बातचीत करत था वह। पता नहीं क्यों?
इधर ये दोनों जिस दिन आये उसके अगले दिन बातूनी बलेसर को फुलेल ने कनखियों से खूब निहारा। फुलेल की आंखों में तब भी वह दृश्य क़ैद था जिस दिन लहूलुहान चेहरे और सूजी हुई काली आंख के साथ कलकतिया के चोर बलेसर को मारते हुए उसके ठिकाने पर ले आये थे। बलेसर जिस तरह सुबक रहा था उसे याद करके फुलेल का कलेजा आज भी गला जाता था। वह स्मृति ही थी जिसकी वजह से उन दोनों को फुलेल ने अपने यहां टिकने दिया। टिकने क्या दिया बल्कि महीनों मज़े में गुज़ार भी गये दोनों। शुरू-शुरू में तो फुलेल का ख़र्चा भी उन दोनों ने उठाया; पर जल्दी ही चुक भी गये। उनके पास सच में अब कमाने-खाने के पैसे न थे। फुलेल की गिन्नियां तो कब की घिसकर ख़त्म हो चुकी थीं और वह खुद मज़दूरी पर उतर आया था। हालांकि उस रात की अगली सुबह बलेसर ने अपनी गांठ से पांच चांदी के सिक्के निकालकर फुलेल के हाथ में रख दिये थे जिन्हें फुलेल ने अपने बिस्तर के नीचे चुपचाप दबा दिया था। पर फुलेल ने उसमें से कभी धेला भी ख़र्च न किया। कुछ दिनों बाद जब वे दोनों भी फुलेल के साथ मज़दूरी पर उतर आये तब जाकर फुलेल निश्चिंत हुआ कि बलेसर सच ही कह रहा था। चोर की जेब में जब तक इकन्नी भी रहती है तब तक तो वह हाड़-तोड़ मज़दूरी करने से बचता ही है।
फूस के छप्पर वाली कुटिया में तीनों मज़े से रहे। रात-रातभर नज़ीर और बलेसर अजीबो-ग़रीब क़िस्से सुनाकर फुलेल का दिल बहलाते। फुलेल भी कुछ सुनाता पर उसमें वह बात नहीं होती। इसी क्रम में नज़ीर को फुलेल ने नये सिरे से जाना। उसे हैरानी इस बात की थी कि नज़ीर को अब भी फुलेल से किया हुआ वादा याद था। वह बार-बार इस बात को दुहराता कि उसके हिस्से का जो माल उस दिन चोर ले गये थे हर हालत में वह फुलेल को लौटायेगा। नज़ीर से फुलेल की नज़दीक़ी बढ़ी जा रही थी। फुलेल ने महसूस किया कि नज़ीर कभी-कभी अपनी बीवी को याद करके उदास हो जाता है। उसका अंदाज़ा था कि अब तक तो फ़ातिमा बच्चा जन भी चुकी होगी। नज़ीर अपने बच्चे को लेकर ढेरों सपने देखता था। फुलेल ने महसूस किया कि शादी के बाद नज़ीर बहुत बदल गया है। बलेसर ने फुलेल को बताया था कि नज़ीर की बीवी बेहद खूबसूरत है। अगर फुलेल पैर पटककर वहां से नहीं आता तो फ़ातिमा के दर्शन भी हो जाते। बातों-बातों में एक दिन भौजाई से मिलवाने का वादा ले लिया फुलेल ने नज़ीर से। नज़ीर ख़ुशी-ख़ुशी तैयार था। काश! फुलेल का भी ब्याह हो जाता! पर वह दिन कभी नहीं आया।
नियति अपनी बेरहमी में कोई कमी नहीं रखती। अचानक ही एक के बाद एक दो बड़े हादसे हुए और फुलेल की दुनिया बदल गयी। हमेशा के लिए। काका की मानें तो नज़ीर और बलेसर दोनों ने फुलेल को धोखा दिया था। काका से बहुत पूछने पर उन्होंने इतना ही कहा कि गांव के ही आसपास के गांवों में उन दोनों ने अलग-अलग सेंधमारी की थी। दस दिन आगे-पीछे। और फिर फ़रार हो गये थे। फुलेल को जब तक पता चलता तब तक तो उसकी जान पर ही बन आयी थी। पूरा गांव उसका दुश्मन हो गया था। या तो हर्जाना देना था या फिर जेल जाना तय था। पहली बार फुलेल के मन में प्रतिशोध की आग धधक रही थी। समझ क्या रखा था उन दोनों ने उसे? गांव में अब बसर करना मुहाल था। फिर एक दिन फुलेल ने आंखों में आंसू भरकर अपना गांव छोड़ दिया। उन दो चोरों ने फुलेल की इज्ज़त मिट्टी में मिला दी थी। अब उसकी ज़िंदगी में बचा ही क्या था? सिवाय प्रतिशोध के! फुलेल ने उसी रात कलकत्ते की राह पकड़ ली। अब बर्बाद करके ही छोड़ना था नज़ीर और बलेसर को।
कलकत्ता पहुंचने में दस दिन लग गये। पर क्या क़िस्मत पायी थी फुलेल ने भी! पहली बार जब वह कलकत्ता आया था तो अकाल पड़ा था और अब जब आया तो देखा कि पूरा कलकत्ता ही लाल है। एक भयानक दंगा हो चुका था और उसके असर से कुछ छोटे-बड़े दंगे अभी भी जारी थे। महामारी में तो लोग मर रहे थे पर अब एक-दूसरे के हाथों मारे जा रहे थे। क्षत-विक्षत जलती-सड़ती लाशों के बीच कलकत्ता पहुंचकर फुलेल को सिहरन होने लगी थी। शायद उसे अपने बदला लेने के जुनून पर कुछ अफ़सोस-सा हो रहा था। पर नहीं-नहीं। सबक़ तो सिखाना ही था उन दोनों को। फुलेल के पास अब बचा ही क्या था? एक गांव था वह भी छीन लिया था उन हरामखोर ग़द्दारों ने।
6
कलकत्ता में कोई तीन दिनों का सघन क़त्लेआम चला था। ऐसा इतिहास में न कभी देखा गया न कभी सुना गया। इसके बाद तो जैसे सिलसिला ही शुरू हो चुका था। हर दूसरा या तीसरा मकान क्षतिग्रस्त हुआ पड़ा था या फिर पूरा का पूरा आग के हवाले था। पूर्वी कलकत्ता तो कुछ ज़्यादा ही। ख़ासकर के बेलियाघाट की ओर जहां नज़ीर की बस्ती थी। फुलेल ने देखा कि अब राह चलते लोग ज़्यादा चौकन्ने थे। पुलिस तो और भी चौकन्नी थी। वह हर अजनबी को रोकती, कुछ और नहीं बस उसका धर्म पूछती, नाम-गाम पूछती, उसे काग़ज़ पर लिखती और फिर छोड़ देती। एक ही दिन में फुलेल की तीन-तीन जगह धार्मिक पड़ताल की पुलिस ने। एक पुलिसवाले ने तो उसे नाज़िर की बस्ती की ओर जाने से साफ़ रोक दिया।
शहर के भीतर से आगजनी की ख़बरें अब भी आ रही थीं और घायल लोगों से भरी लॉरियां गाहे-बगाहे दिख जातीं। फुलेल के भीतर धुकधुकी उठ रही थी। कहां जायें? कहां खोजें? कई मुहल्ले तो उसे पहचान में ही नहीं आ रहे थे अब। मुहल्ला क्या, शहर ही अपनी पहचान तेज़ी से खो रहा था। वह रात में रेलवे स्टेशन की भीड़ के बीच सो जाता और दिन में उन संभावित अड्डों को दूर से झांक आता जहां उन दोनों के मिलने की थोड़ी भी उम्मीद थी। लेकिन दोनों नहीं मिले। हफ़्ता गुज़रते उसकी बौखलाहट सातवें आसमान तक चढ़ आयी। उस अड़ियल ने ठान ही लिया था कि जब तक जेब में बलेसर के दिये सिक्के हैं तब तक तो शहर की छानबीन करनी ही है।
और एक दिन वह अड़ियल तड़के ही उठा और बेलियाघाट की ओर नज़ीर की बस्ती में चुपके आये दाख़िल होने में कामयाब हो गया। वह गंवार भूल चुका था कि वह कहां है और हालात वास्तव में क्या हैं? घुटनेभर की धोती, मटमैले कुर्ते और चोर बाज़ार में ख़रीदे गये मिलिट्री जूतों के साथ वह नज़ीर की बस्ती में भीतर तक घुस आया। उसने देखा कि आधी बस्ती ख़ाक हो चुकी थी। बस्ती के कुछ लोग उसे घूर रहे थे पर अभी तक किसी ने टोका नहीं था उसे। वह चलता रहा तो कुछ उत्तेजित युवाओं की टोली उसके पीछे लग गयी। उसने अपनी चाल बढ़ा दी। लड़कों ने भी फुर्ती दिखायी। वे लड़के जब तक उसके पास पहुंचते कि किसी ने फुलेल की कलाई पकड़कर ज़ोर से से खींच दी, ‘ कहां आ गये मरने?’
यह नज़ीर था।
नज़ीर को पहचानने भर की देरी लगी और बिना सोचे-समझे ही गंवार ने नज़ीर को तमाचा जड़ दिया, ‘तुम दोनों के लिए … गद्दारों’। फुलेल चीख पड़ा।
तमाचा ज़ोर का पड़ा था। नज़ीर छितरा गया। उसके हाथ में दूध से भरी एक प्लास्टिक की बोतल थी। बच्चों को पिलाने वाली। वह छिटककर दूर जा गिरी। तभी पीछे की टोली फुलेल पर लपकी। नज़ीर ने उन्हें इशारे से रोकना चाहा। लड़के जंगली भैंसे की तरह हांफते-डकारते खड़े हो गये। उनके हाथों में हथियार चमक रहे थे। नज़ीर ने उन्हें फिर इशारा किया; पर वे ढीठ वहीं अड़े फुलेल को घूरते रहे।
नज़ीर ने धूल में सनी दूध की वह बोतल उठा ली और अपने कुर्ते से पोंछने लगा। बोतल को पोंछते हुए ही वह उन लड़कों के पास गया और समझाने लगा। आख़िरकार वे लौट गये, पर फुलेल को खूनी आंखों से ताड़ते गये।
सारा तमाशा फुलेल खड़े-खड़े देखता रहा। पता नहीं वह किस भरोसे आया था यहां और बस्ती के बीच में बेधड़क खड़ा भी था। उसे एक पल के लिए भी नहीं लगा कि उसने कोई ग़लती की है।
नज़ीर फुलेल के पास आया और हंसते हुए बोला, ‘ बलेसर को भी ऐसे ही मारना भाई’, फिर उसकी बांह पकड़कर उसे अपने घर ले गया।
कमरे में पहुंचकर फुलेल ने देखा कि बलेसर की गोद में एक छोटा बच्चा है। बच्चा चीख़-चीख़कर आसमान सर पर उठाये हुए था। नज़ीर ने फुर्ती दिखायी और दूध की बोतल के रबड़ वाले मुहाने को बच्चे के मुंह में रख दिया। बच्चा चुप हो गया।
फुलेल का गुस्सा अभी ख़त्म नहीं हुआ था बल्कि बलेसर को देखते ही छाती का पित्त माथे तक चढ़ गया उसके। जैसे ही नज़ीर ने बच्चे को बलेसर की गोद से उठाकर अपनी गोद में लिया फुलेल बलेसर पर टूट पड़ा।
नज़ीर बीच-बचाव करने नहीं आया। बच्चे को गोद में लिए चुपचाप तमाशा देखता रहा।
फुलेल बलेसर को चींथता रहा। बेरहमी से। कुछ ही देर में उसने बलेसर को कूट-पीटकर धान की बोरी की तरह पटक छोड़ा। आख़िर कितना मारता वह उसे? फिर अचानक ही फुलेल खुद रो पड़ा। रोने के सिवाय कोई चारा न था फुलेल के पास, ‘गांव छुड़ा दिया तुम सब ने मेरा … मैंने सर छुपाने की जगह दी और तुम लोगों ने ग़द्दारी कर दी …. लूटने के लिए एक मेरी इज्ज़त ही बची थी हरामखोरो?’
फुलेल फूट-फूटकर बहुत रोया। रोता गया।
इधर पिटने के बाद बालेसर अपने आपे में धीरे-धीरे आ रहा था। उसकी नाक से ख़ून निकल रहा था जिसे वह अपने कुर्ते से साफ़ करने लगा। फिर थोड़ी देर बाद कुछ सोचता हुआ बलेसर अपनी जगह से उठा और कमरे के कोने में पड़े संदूक को टटोलने लगा। उसमें से ढेर सारी चीज़़ों को वह देर तक उलटता-पलटता रहा और आख़िर में उसने संदूक से एक छोटी सी पोटली खोज निकाली। उसे खोलकर बलेसर ने फुलेल को दिखाया और फिर बांध दिया। पोटली में गहने थे।
बलेसर ने आगे बढ़कर उस पोटली को फुलेल के हाथ पर यंत्रवत रख दिया और थोड़ा ठहरकर अपने स्वभाव के विपरीत वह फुलेल से कड़ककर बोला, ‘ चल निकल जा अब यहां से …. इसमें इतना है कि तेरी गयी हुई इज्ज़त वापस लौट आयेगी …. चल भाग जा अपने गांव …अभी ही’।
फुलेल अचरज में पड़ गया। उसकी उम्मीद के एक़दम उलट था होने लगा था। वह क्या सोचकर आया था और हो कुछ और ही रहा था? आखिर मामला क्या है? बलेसर ने जब फुलेल की बांह पकड़कर दरवाज़े की ओर धकेलना चाहा तो फुलेल ने अपनी बांह झटक दी और वहीं चुपचाप खड़ा रहा।
देर तक तीनों उस कमरे में बेआवाज़ और बेहरकत रहे। बस बीच-बीच में दूध पीते बच्चे की चप-चप सुनायी देर रही थी। फुलेल तत्काल निकल सकता था। पोटली का वज़न बता रहा था कि माल असली है। पर जैसे उस पोटली ने फुलेल को बांध लिया हो। पैर ही नहीं उठ रहे थे उसके। अब तो मिलिट्री जूता भी लोहे के वज़न के बराबर लगने लगा था उसे। प्रतिशोध का भाव कपूर की तरह उड़ रहा था। बड़ी तेज़ी से। फुलेल धीरे से अपनी वास्तविक मनःस्थिति में लौट आया।
इधर अब कोई किसी से कुछ बोल नहीं रहा था। यह बात फुलेल को ज़्यादा अजीब लग रही थी। पर उसे क्या? हाथ में उसका हिस्सा था और वहां से निकलने के लिए दरवाज़ा खुला पड़ा था। यहां से निकल ही जाना चाहिए उसे। बहुत हुआ दोस्ती-यारी का नाटक। उसने मन ही मन फ़ैसला लिया। बिलकुल संयम के साथ।
वहां से निकलने से पहले फुलेल ने अपनी अंतिम औपचरिकता निभाने की सोची। एक बार फिर उसने नज़ीर और बालेसर को घूरा। दोनों सिर नीचे किये एक़दम चुप थे। फुलेल को दूध पिता बच्चा दिखा तो समझ गया कि नज़ीर की ही औलाद है। वह आहिस्ते नज़ीर की गोद के बच्चे की ओर बढ़ा। तभी बलेसर एक़दम बीच में आ गया और उसने हाथ लगाकर फुलेल को रोक दिया, ‘नहीं… दूर हट’।
उन दोनों के व्यवहार में ऐसा कुछ था जो पहले कभी महसूस नहीं किया था फुलेल ने। कभी भी नहीं। बलेसर तो एक़दम ही बदल चुका था। फुलेल एक पल के लिए सकते में आ गया; पर पोटली के वज़न ने उसे अचानक ही धीरज धारण करना सिखा दिया था। फुलेल ने बलेसर को उस वक़्त अनदेखा और अनसुना किया।
फिर और थोड़ा रुककर कुछ याद करते हुए फुलेल ने नज़ीर की चुप्पी तोड़नी चाही ‘ नज़ीर … गांव का याद है कुछ ? तुमने भौजाई से मिलाने का वादा किया था’।
नज़ीर ने फुलेल से अब जाकर नज़रें मिलायीं और मुस्कुराया भी। एक रहस्यमयी मुस्कुराहट थी वह। नज़ीर ने अपने सूखे होंठों पर अपनी गुलाबी जीभ फेरते हुए कहा, ‘माफ़ करना भाई…वह वादा तो नहीं निभा सकता अब’। बात पूरी करते-करते नज़ीर की आंखें बेआवाज़ मूसलाधार बरसने लगीं। इधर बलेसर भी सिसक पड़ा। यह पहले वाला बलेसर था- मासूम। फुलेल कुछ समझ पाता कि नज़ीर अब भरे गले के साथ ऊंची आवाज़ में रोने लगा। फुलेल गंवार था पर इतना भी नहीं। एक साथ दोनों की रुलाई फूटते देखकर फुलेल को माजरा समझते देर न लगी। वह माथा पकड़कर वहीं ज़मीन पर बैठ गया, ‘ हे भगवान !’ फुलेल के हाथ की पोटली ज़मीन पर गिरकर खुल चुकी थी अब।
उसमें भौजाई के ही गहने थे।
किसी और ने नहीं; दंगे ने निगला था फ़ातिमा को। तीनों अब एक-दूसरे को थामे रो रहे थे।
बलेसर ने बच्चों की तरह रोते-बुदबुदाते फुलेल को सारी कथा सुनायी कि गांव पर हंसी-ख़ुशी में समय कब गुज़रा पता भी नहीं चला उन दोनों को। हालांकि अब निकलने की सोच ही रहे थे वे दोनों। उन्हीं दिनों में देसी ठर्रे का स्वाद लेने बलेसर चोरी-छुपे कर्मनासा के बुधिया बाज़ार चला जाता था। और एक दिन उसे बुधिया बाज़ार में बनारस को कोई चोर मिला। वह नज़ीर को जानता था। बलेसर को भी उसने देखते ही पहचान लिया था। बलेसर तब तक नशे में चूर हो चुका था। वह बलेसर के एक़दम पास आकर उसके कान में बुदबुदाते हुए निकाल गया ‘लाल कलकत्ता … लाल कलकत्ता!’
बलेसर के होश उड़ गये। यह चोरों की दुनिया का खुफ़िया संकेत था। बेहद भरोसेमंद संकेत। कोई बहुत बड़ी घटना घटनेवाली थी कलकत्ते में। बलेसर चुपचाप गांव लौट आया उस सांझ। आते ही सो गया। नज़ीर या फुलेल से कुछ भी साझा नहीं किया। उसकी योजना थी कि कहीं से हाथ मारकर कुछ पैसे जुटाये जायें फिर वह धीरे-से लाल कलकत्ता की ख़बर देते हुए नज़ीर को लेकर कलकत्ता निकल जायेगा। यही सोचकर वह तड़के ही उठा और कारनामे के लिए निकल गया। पर गंवई इलाक़े में यह काम आसान न था। कुछ दिन लग गये हाथ मारने में। इधर जब तीन दिन तक बलेसर नहीं दिखा तो नज़ीर और फुलेल को उसकी चिंता हुई। अगले बुधिया बाजार को उसकी ख़ोज-ख़बर में नज़ीर कर्मनासा गया। नज़ीर को जानने वाला वह चोर उस दिन भी मौजूद था और नज़ीर को देखकर थोड़ा चौंका भी। पर रिवाजन सार्वजनिक जगहों पर चोर आपस में बात नहीं कर सकते थे। वह चोर नज़ीर की देह को रगड़ते हुए निकला और उसके कान में भी साफ़-साफ़ बुदबुदाया, ‘ लाल कलकत्ता …लाल कलकत्ता’। यह सुनते ही नज़ीर के रोंगटे खड़े हो गये। माथा तक सुन्न हो चुका था।
नज़ीर के मन में अब एक ही सवाल था बालेसर कहां है? कहीं उसे भी तो ख़बर नहीं लग गयी? हालात गंभीर थे। बुदबुदाते हुए उस चोर की आवाज़ में जो कंपकपी थी उससे वह फ़ातिमा और अपने बच्चे को देखने के लिए बेचैन हो गया था। अब तक तो पक्का ही जंचकी हो चुकी होगी! बेचैन नज़ीर ने तीसरे दिन ही कांड कर दिया। काका की मानें तो पास के गांव में ही उसने एक रात सेंधमारी की और कलकत्ते फ़रार हो गया।
इधर गांव के लोगों ने नज़ीर के कांड के बाद फुलेल को घेरा ही था कि बलेसर आ धमका। वह अपने काम को अंजाम देकर ही आया था। सेंधमारी के सामान को बेचकर रक़म जुटाने में कुछ समय ज़रूर लग गया था उसे। पर गांव पहुंचने पर वहां का माजरा ही कुछ और पाया उसने। नज़ीर कांड करके भाग चुका था। बलेसर को लग गया कि लाल कलकत्ते की ख़बर उस तक भी पहुंच गयी है। अब बलेसर के वहां ठहरने का कोई औचित्य न था। उसका भी भेद आज नहीं तो कल खुलना ही था। नज़ीर के बिना उस ख़रगोश के पास इतना साहस भी नहीं था कि वह फुलेल को सच्चाई बता दे। फुलेल से ग़द्दारी करने का भाव लिये उसी सांझ वह ख़रगोश भी गांव की चौहद्दी लांघ गया।
धोखा तो हुआ ही था फुलेल के साथ। इसमें किसी को कोई शक नहीं था। न नज़ीर को न बलेसर को और न फुलेल को।
बलेसर ने बताया कि इधर उनके पहुंचने से कोई माह भर पहले कलकत्ता के चोरों के बीच भारी मतभेद उभर आये थे। चोरों के गिरोह में ज़बर्दस्त टूट-फूट हो चुकी थी। कुछ सीधे हिंदू-मुस्लिम पर उतर आये थे। पर कुछ का कहना था कि हम क़ातिल नहीं हैं। आगजनी और लूट हमसे न हो पायेगी। एक चोर ने तो यहां तक कह दिया कि हमसे सुहरावर्दी के यहां चोरी करवा लो पर क़त्ल नहीं कर पायेंगे। यह कलकत्ता के सुलगाने से पहले की बात थी। पर शहर से कटने और फुलेल के गांव में उन दोनों के टिकने की वजह से इस टूट-फूट और मतभेद की कोई ख़बर समय रहते नहीं पहुंच पायी थी उन दोनों के पास। और जब तक ख़बर हाथ लगी तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
सबसे पहले कलकत्ता नज़ीर पहुंचा था; उसके बाद बलेसर। तब तक सब कुछ लुट चुका था। उन्हें लगा कि आधी आबादी दंगे में शामिल है। पहले तो तीन दिनों का क़त्लेआम चला। क्या हिंदू और क्या मुसलमान! जो जहां ताकतवर था वहीं उसने कमज़ोर को दबोच दिया। यह जब शुरू हुआ था तब से फ़ातिमा और उसकी मां घर में ही रहे। उन्हें अंदेशा था कुछ। बलेसर की मां भी नज़ीर का इलाक़ा छोडकर पश्चिमी कलकत्ता में किसी पारसी के यहां नौकर हो गयी थी। सबको कुछ न कुछ अंदेशा था पर जो हुआ वह उनके अंदेशे से कई गुना ज़्यादा हो रहा था। तीन दिन में मटमैला कलकत्ता एक़दम लाल हो गया। घुटनों तक खून जम गया था सड़कों पर। वह रिसते हुए बस्ती तक आ पहुंचा। बस्ती के कुछ लड़के इसमें शामिल थे। पहले तो उनका झुंड तीन दिन तक शहर पर भारी पड़ा। पर यह खुला खेल था। कौन किस पर भारी पड़ता है यह उसकी आबादी से तय होने लगा था। तीन दिन बाद अब शहर बस्ती पर धावा बोल रहा था। धावा भी ऐसा–वैसा नहीं। एक़दम ही बेरहम। देखते-देखते बस्ती के मुहाने के कई घर आगज़नी के चपेट में थे। कितनों ने कितनों का क़त्ल किया और कितनी अभागिनों की आबरू लूटी गयी इसकी गिनती तो अभी रह ही गयी थी। इसी बीच सरकार ने सेना उतार दी। बलवाइयों को देखते ही गोली मारने का आदेश था।
सेना ने कलकत्ता की फड़कती नसें शायद थोड़ी शांत कर दीं; पर बदले की आग में पूरा शहर मन ही मन धधक रहा था। इधर फ़ातिमा के नवजात का मुंह-पेट चलने लगा था। बच्चे को तत्काल डॉक्टर से दिखाना ज़रूरी था। आधी रात बस्ती पर जब भी हमला होता था, बस्ती में चीख़-पुकार मच जाती थी। नवजात एक़दम डर कर रोने लगता था। नवजात ही क्या पूरी बस्ती ही दहल रही थी। शुक्र था कि नज़ीर का घर बस्ती के मुहाने पर नहीं था।
जब बस्ती के आसपास सेना ने दिनरात गश्त लगानी शुरू की तब फ़ातिमा को भरोसा होने लगा कि अब सब ठीक हो रहा है। शायद बच्चे की बीमारी की वजह से वह इस फ़ैसले पर थोड़ा जल्दी ही पहुंच गयी। उसके मन की धुकधुकी फिर भी कम नहीं हो रही थी। पर बच्चे की बिगड़ती हालत से वह परेशान थी। बस्ती के मुहाने में हाफ़िज़ मियां का दवाख़ाना था। वह भी ख़ाक हो गया था। पर अब सुनने में आ रहा था कि मियां ने अपनी बची-खुची शीशियों के साथ वहीं कहीं आसपास बैठना शुरू कर दिया है। यह दिन की ही घटना थी कि पता नहीं क्या सोचकर फ़ातिमा ने कराहते-रोते बच्चे को नज़ीर के अब्बा को सौंपा और ‘अभी आयी’ कहकर बाहर जाने वाली गली पकड़ ली। फ़ातिमा की मां ने उसे जाते हुए देखा तो रोकने आ गयी। जब फ़ातिमा नहीं मानी तो उसकी मां भी उसके साथ चल पड़ी। मां-बेटी ने तय किया कि अगर हाफ़िज़ मियां नहीं मिले तो किसी लड़के को भेज कर बाज़ार से दवाई मंगा लेंगे। अभी दोनों गली के मुहाने से जुड़ी सड़क से निकलकर तिराहे तक पहुंची ही थीं कि दाहिनी सड़क पर उन्हें बलवाइयों का जन-सैलाब दिख गया। सैलाब बेआवाज़ बस्ती की ओर चला आ रहा था। मां-बेटी उल्टे पैर दौड़ीं। इसी बीच बायीं सड़क से सेना आ धमकी। शायद वह चुपचाप इसी पल की राह देख रही थी। सेना ने छूटते ही गोलियां दाग़नी शुरू कर दीं। उधर की भीड़ भी मानों इसके लिए तैयार बैठी थी। उसने भी गोलियां दाग़नी शुरू कर दीं। एकाध देसी हथगोले भी चले। मां और बेटी बीच में फंस गयीं और चीख़ने-पुकारने लगीं। गोलियों और बमों की आवाज़ के बीच उनकी चीख़ बस्ती में जैसे ही पहुंची, पूरी बस्ती उठ कर चली आयी। तैश में बस्ती के लड़कों ने गोलियां चलायीं और देसी बम फेंके। तिराहे की तीन सड़कों पर तीन देश थे अब और उनके ठीक बीच में चीख़ मारती हुईं दो मासूम औरतें। फुलेल को कथा सुनाते वक़्त बलेसर ज़ोर से सिसक रहा था। बालेसर वह था जिसे अपनी लाख चतुराई के बावजूद अभी तक समझ में नहीं आ रहा था कि देश बनने से क्या हो जाता है! उसके लिए क्या कलकत्ता और क्या रंगून? सब एक ही था। बस भाषा थोड़ी बदल जाती है। बलेसर सिसकी रोकर बताने लगा, ‘सबको बदला चाहिए था फुलेल …सबको बदला चाहिए था’।
गोलियों और देसी बमों से तिराहे के चारों ओर धुआं भर गया था। किसी को कुछ दिखायी नहीं दे रहा था। कोई नहीं जानता कि किसकी गोली मामी को लगी और किसकी भौजाई को। तिराहे पर रहम की भीख मांगती दो बेगुनाह औरतें धीरे-से ढेर में बदल गयीं।
7
फुलेल ने कभी अस्पताल का मुंह नहीं देखा था। वह तो यह भी नहीं जानता था कि अस्पताल कैसा होता है। पर वही फुलेल अब अस्पताल के लंबे-चौड़े गलियारे में लुटा-पिटा गिरा पड़ा था। दर्द से उसकी आंखें खुलकर बंद हो जातीं। वह ज़ोर लगाकर आंख खोलता पर आंख खुलते ही उसका माथा मथ जाता और पूरी दुनिया घूमती नज़र आती। अस्पताल के गलियारे में चीख़ते-रोते घायलों की क़तारें थी जिनमें ज़्यादातर के कपड़े ख़ून में सने थे। क्या औरत क्या मर्द सबकी मिली-जुली चीख़ें फुलेल के कान में पड़ रही थीं। वह कुछ सोच पाता उससे पहले आसपास के शोर के वज़न से वह फिर आंखें बंद कर लेता। दर्द से उसके नथुने फड़क उठते और आंखों के दोनों कोर रिसने लगते। वह ज़ोर लगाकर याद करता कि कहां है? क्यों है? बहुत ज़ोर डालने पर वह दृश्य उभरता कि भौजाई फ़ातिमा की मौत का जानकार वह अपना सर पकड़कर बैठ गया था। सब एकदूसरे को पकड़कर खूब रो रहे थे। उस दृश्य में दूसरे कमरे से नज़ीर के पिता के खखारने और रोने की आवाज़ साथ-साथ पड़ रही थी फुलेल के कानों में। इधर फ़ातिमा की घटना घटी और उधर नज़ीर के पिता ने बिस्तर पकड़ लिया। फुलेल के हाथ से छिटकी वह गहने की पोटली फिर न उठायी गयी। वह उस कमरे से निकलकर नज़ीर के पिता को देखने उनके कमरे में चला गया था ।
अस्पताल के गलियारे में पड़ा-पड़ा वह लगातार अपनी स्मृतियों को ख़रोच रहा था। पर उसके माथे का भयानक दर्द उन स्मृतियों को नोंच-फेंक दे रहा था। चोट बहुत गहरी थी। सिर का पिछला हिस्सा और उसके नीचे की गर्दन की हड्डी फूल गयी थी। ललाट पर तो और भी बेरहमी से वार किया था करने वालों ने। लोहे का कोई भारी-भरकम औजार था जिसके एक ही वार में फुलेल ढेर हो गया था। वह दर्द और स्मृति से एक साथ लड़ता हुआ उस दिन को याद कर रहा था जिस दिन वह नज़ीर के घर पहुंचा था। रोते और सांत्वना देते सांझ हो गयी थी। इतना झगड़ने और मारपीट करने के बावजूद भी फुलेल को वहां से वापस लौटते नहीं बन रहा था। कहां जाये? जाये भी तो क्या करे? बलेसर बता चुका था कि दंगे में तबेला भी उजड़ गया था चौबीस परगने वाला। अकाल के बाद के दंगे ने आमदनी के तमाम रास्तों पर ज़हर बो दिया था। कमाने-खाने का अब एक ही स्रोत बचा था; इधर से या उधर से दंगे और लूटपाट में शामिल हो जाओ। पर चोरों का सरदार इसमें शामिल होने से मुकर गया था। चोरों के भी परिवार थे जो कलकत्ते की तंग गलियों में रहा करते थे। दंगे का क्या भरोसा? कब किधर का रुख़ ले ले, कहां कोई अंदाज़ा था? कुछ चोर सरदार के पक्ष में थे कुछ उसके ख़िलाफ़ थे। बलेसर ने बतया था कि जब वे दोनों कलकत्ता पहुंचे थे तब तक बहुत सारे चोर गुट से टूटकर अलग भी हो चुके थे। कलकतिया सरदार अकेला पड़ता जा रहा था। जंगी पहलवान सरदार से सबसे पहले झगड़ा था और एक अलग गुट बना लिया था जो दिनोंदिन खूंखार होता जा रहा था। जंगी अपना एक अलग ही साम्राज्य खड़ा करने पर तुला था जिसमें चोरी और क़त्ल के बीच कोई भेद न था। बलेसर ने बताया कि अपनी घटती शक्ति और नज़ीर की हालत देखकर कलकतिया गुट के सरदार ने नज़ीर को फिर अपने गुट में शामिल कर लिया है ; पर यह पूछते हुए कि किधर जायेगा नज़ीर ? उसे डर था कि नज़ीर फ़ातिमा और मामी का बदला लेने के लिए कहीं हत्यारी भीड़ का हिस्सा न बन जाये। सरदार ने भी दुनिया देखी थी। वह जानता था कि यह धंधा शांत शहर में ही फलता है। नज़ीर ने तब सरदार से साफ़ कहा ‘धंधा नहीं बदलना है चाहे जो हो’। पर बलेसर को लेकर सरदार कुछ तय नहीं कर पा रहा था।
अब फुलेल, बलेसर और नज़ीर तीनों अपनी समझ बना चुके थे कि कलकत्ता के बाहर कहीं गुज़र-बसर नहीं और धंधा भी यही रहेगा। बस थोड़ी जान आ जाये कलकत्ते में। तब तक चुपचाप वक़्त काटना था। बिना किसी फ़साद में शामिल हुए। यही तय हुआ था तीनों में। लेकिन बलेसर और फुलेल को अपनी बस्ती में रखना नज़ीर के बूते के अब बाहर था। बस्ती घुटनों तक बदले के ख़ून में सनी थी। दंगे अचानक शुरू होते। फिर अगले दो दिन शांति रहती। तीन दिन पूरे कलकत्ते में प्रार्थना-सभाएं होतीं और आये दिन प्रभात-फेरियां निकलतीं। और ठीक इसी बीच दंगे अचानक शुरू हो जाते।
डॉक्टर ने फुलेल के कमर में सुई देते हुए उसकी स्मृति पर चोट कीऔर उसका हाल पूछा, ‘कोई है तुम्हारे साथ? कहां से आये हो? कोई अता-पता?’ बहुत कोशिश करके भी उसके कंठ नहीं फूट रहे थे। हलक सूखा हुआ था। बड़ी कोशिश करके फुलेल के मुंह से निकला ‘पानी …प’। डॉक्टर के कमर में थर्मस लटका हुआ था। बिना समय गंवाये वह पानी पिलाने लगा। पानी पिलाते वक़्त उसने फिर वही प्रश्न दुहराया, ‘कोई है तुम्हारे साथ? कहां के हो? संयुक्त प्रांत? या बिहार?’ पर बलेसर पानी पीकर बेसुध हो चुका था। सुई-दवाई असर कर रही थी। फुलेल की स्मृतियां ने फिर अपना काम करना शुरू किया। नज़ीर ने सबसे पहले फुलेल और बलेसर को अपनी बस्ती से दूर कालीबाड़ी वाली गली में किराये पर एक कमरा दिलवा दिया था। रहने-खाने का सारा भार भी खुद पर ले लिया उसने। वैसे भी बलेसर और फुलेल के पास था ही क्या? कुछ और दिन इसी तरह गुज़र गये। नज़ीर ने किसी तरह की कमी न होने दी। हर पांचवें या छठे दिन वे तीनों मिलते और सही समय के इंतज़ार में रणनीति बनाते। पर वह सही समय कब आयेगा तीनों ठीक से नहीं जानते थे। नज़ीर के पिता सख़्त बीमार रहने लगे। अंतिम घड़ी नज़दीक थी। वे फ़ातिमा को याद करके खूब रोते। नज़ीर तो जैसे समुद्री तूफ़ान में पानी के जहाज़ की तरह डोलने लगा था। पर जहाज़ भीतर से मज़बूत था। वह एक ही समय में अपने पिता, अपनी औलाद और अपने दोनों जिगरी यारों को किसी बड़े लड़ाकू पोत की तरह थामे हुए था। किसी के चेहरे पर शिकन तक नहीं आने दी नज़ीर ने। यहां तक कि जब उसके वालिद मरे तब उनके सर को अपने एक हाथ से उठाकर सीने से लगाये मातम मना रहा था और दूसरे हाथ में अपने बच्चे को थामे झूला झुला रहा था। पिता को दफ़नाने के बाद ही उसने बलेसर और फुलेल को ख़बर की। उसे डर था कि कहीं वे दोनों क़ब्रिस्तान तक न आ जायें।
अगली मुलाक़ात में नज़ीर ने अपने वालिद के इंतक़ाल की ख़बर दी। दोनों साथी नाराज़ न हों इसलिए इस बार अपने बच्चे को भी साथ ले आया था। इसका असर भी हुआ। नज़ीर के पिता की मौत पर फुलेल और बलेसर कुछ देर मातम में मौन रहे; पर हंसमुख गुलाबी बच्चे की किलकारी ने देर तक मातम न मनाने दिया। फुलेल और बलेसर सब भूल-भालकर उस बच्चे के साथ खेलने लगे। दोपहर से सांझ हो गयी। सांझ होते ही कलकत्ता में डर पसर जाता। नज़ीर ने बच्चे को अपनी गोद में उठाया और अगली मुलाक़ात में बच्चे को फिर लाने के वादे के साथ बस्ती लौट गया।
सब कुछ ठीक चल रहा था बस कोई आमदनी न थी। फुलेल को तो अब लाज़ आने लगी थी इस तरह बैठकर खाने में। उसने सोच लिया था कि इस मसले पर नज़ीर से बात करेगा। पर अगली मुलाक़ात में उसने नज़ीर को उदास पाया। बच्चा नज़ीर की गोद में ही था पर वह उससे कुछ लापरवाह था। बलेसर ने बच्चे को उसकी गोद से ले लिया और उसे झुलाते हुए अजीब-अजीब आवाज़ें निकालने लगा। बालक ने हंसकर किलकारी मारी। पर नज़ीर पता नहीं किस दुनिया में खोया था। फुलेल ने ही पूछा, ‘नज़ीर… कुछ हुआ है क्या?’ नज़ीर को पसीने आ रहे थे। फुलेल ने फिर पूछा तो वह कुछ लड़खड़ाती ज़ुबान में बोला, ‘ कुछ नहीं यार … पूर्बी बंगाल … ओह!!’ पूर्वी बंगाल में कुछ ऐसा हो रहा था जिसका असर मानो बहुत जल्दी ही कलकत्ते पर पड़ने वाला था। नज़ीर ने उदास होकर कहा, ‘भाई … लगता है अब सही समय नहीं आयेगा कभी … इसी हालत में काम को अंजाम देना होगा’। फुलेल और बलेसर इसी का तो इंतज़ार कर रहे थे।
तय हुआ था कि अगली मुलाक़ात में काम को अंज़ाम दे देना है। नज़ीर के दिमाग़ में सारा नक़्शा तैयार था। कोई लोहे का व्यापारी था जिसकी ख़बर बलेसर ने ही दी थी और नज़ीर को बतया था कि ‘दंगे में उसकी चल निकली है। ख़ूब माल बटोरा है उसने’। काका ने बताया था कि क़िस्मत जैसी चीज़ पर फुलेल को भरोसा उसी सेंधमारी के बाद होने लगा था। वह एक सही वक़्त था जब व्यापारी की थाती पर हाथ लगाया था तीनों ने। उस रात तीनों चोर जाड़े की धुंध की तरह आये और धुंध की तरह ही माल लेकर चंपत हो गये। कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हुई। नज़ीर के हाथ में कपड़े के टुकड़े पर नक़्शा था और उसमें जहां लाल रंग का निशान था, माल ठीक उसी ठिकाने पर मिला था। रात के अंधेर में पहली बार सोने के सिक्के फुलेल ने वहीं देखे थे। एक दो नहीं बल्कि पूरे दस सिक्के थे। बड़े नोट को भी पहली बार ही देखा था फुलेल ने। उनकी खुशी का ठिकाना न था। पूरे पांच हज़ार और दस सोने के सिक्के। माल बराबर-बराबर बांट लिया। फुलेल के हिस्से में एक सिक्का अधिक पड़ा था। बलेसर ने तो अगले ही दिन तीन सोने के सिक्के और कुछ रुपये अपनी मां के पास पहुंचा दिये। उसकी मां क्या नहीं जानती थी! फिर भी उसने मां से झूठ बोला, ‘नज़ीर का है। रखने के लिए दिया है’।
मौसम ने करवट ले ली थी और देश में ठंड शुरू हो चुकी थी लेकिन कलकत्ता पर उसका असर शायद ही होता था। बस पूर्वी बंगाल से चली आ रही हवाओं से कलकत्ता जल्दी थर्राने वाला था। नज़ीर का अंदेशा एक़दम सही साबित हुआ। देखते-देखते कलकत्ते में भयानक प्रतिक्रियाएं शुरू हो चुकी थीं। नज़ीर की बस्ती पर अब आये दिन हमले तेज़ हो गये। बस्ती में डर पसर गया था। यह सब इतनी तेज़ी से हुआ और ऐसा हुआ कि नज़ीर ने बस्ती के बाहर निकलना ही छोड़ दिया था। वह तो अब शहर ही छोड़ जाने का इरादा कर रहा था। उसे अपने बच्चे को सुरक्षित पालना था और इधर वह जिस सही समय का इंतज़ार था वह अब आने से रहा! पर कालीबाड़ी की ओर फिर भी राहत थी। बलेसर उस फ़साद के बीच भी शराब की बोतलें ख़रीद लाता और कमरे में दिन-रात चढ़ाता रहता। फुलेल को उसकी गंध से दिक्कत थी। उससे बचने के लिए वह कमरे में अगरबत्ती जलाता। फिर तंग आकर एक दिन उसने बीड़ी उठा ली। उसे उसके धुएं का स्वाद पसंद आ रहा था। धुआं उड़ाते वक़्त वह सोचता कि हालात ज़रा भी सुधर जायें तो वह गांव लौट जायेगा। बस वह सही समय आ जाये।
‘ओ भाई … चार दिन हो गये। अब तो कुछ तो बोलो?… कौन हो? कहां रहते हो? क्या कोई नहीं है इस शहर में तुम्हारा?’ कमर में सुई देते वक़्त उस डॉक्टर ने फिर पूछा। फुलेल ने अपनी चिपचिपी आंखें खोल दीं। सर का दर्द अब भी टीस रहा था पर वह पहले की तरह भयानक नहीं था। देह भी कुछ हल्की लग रही थी। ‘बुखार तो अब नहीं है तुम्हें’ मुसकुराते हुए डॉक्टर बोला और फिर वही सवाल पूछने लगा, ‘कोई है तुम्हारा?… आयेगा कोई तुम्हारे लिए?’
उसने थूक निगलकर धीमे-से जवाब दिया, ‘खोज़ रहे होंगे …आयेंगे ही’। फुलेल का भरोसा देखकर डॉक्टर ने राहत की सांस ली और फिर पूछा ‘ कौन हैं वो?’
जवाब में फुलेल कुछ नहीं बोला। बस उसके होंठ मुस्कुराहट में खिंच गये और आंखें नम होकर बंद हो गयीं। डॉक्टर को अब कुछ नहीं जानना था।
पूरी तरह होश में आने के बाद फुलेल अस्पताल के बरामदे के फ़र्श पर पड़े-पड़े दिनभर नज़ीर और बलेसर की बाट देखता रहा। अस्पताल में लारियों में लद-लदकर लोग अभी आ आ रहे थे। ख़ून से लथपथ ,रोते और चीख़ते हुए। आधे तो बरामदे में लाते-लाते ढेर हो जाते। जो लारियों से नहीं उतर पाते उन्हें मरा हुआ माना जाता। डॉक्टरों की निगरानी में मरे हुओं को छांटकर अलग किया जा रहा था। मर गये लोगों की देह पर बेतरतीबी से वार हुए थे। उनके अंग-अंग आड़े-तिरछे काटे गये थे। क्या हिंदू और क्या मुसलमान? लग रहा था कि कहीं युद्ध चल रहा है कोई। गलियारा भरने लगा था। घायल, रोगी और तीमारदार लगातार आ रहे थे पर नज़ीर और फुलेल अभी तक नहीं आये। सांझ ढल गयी। कई तरह की कराहों के बीच झींगुर बोलने लगे। लालटेन से गलियारों को कुछ रौशन किया गया। फुलेल ने उस रौशनी में प्रार्थना की ‘हे भगवन ! जल्दी भेजो दोनों को’ और वह कुलबुलाती आंतों के साथ सो गया।
आधी रात को फुलेल के कान में किसी बच्चे की रोने की आवाज़ पड़ी। उसने आंख खोली तो पाया कि उसका सर नज़ीर की गोद में है और वह उसका माथा सहला रहा है। सामने खड़ा बलेसर बच्चा गोद में लिये हिल-डुल रहा है। उन दोनों को देखकर फुलेल बेआवाज़ रोने लगा। नज़ीर फुलेल के आंसू पोछते हुए ढाढस देने लगा, ‘ना-ना फुलेल …तुम ठीक हो अब…’ पर फुलेल रोये जा रहा था। नज़ीर ने बार-बार उसे संभाला, ‘ ना-ना…. कुछ नहीं हुआ है तुम्हें …. सुबह होते ही निकल चलेंगे… बस रात गुज़र जाये’। उसकी आवाज़ में भारीपन और भरोसा दोनों था। इसी बीच बलेसर बोला, ‘चार दिन से पागलों की तरह ढूंढ़ रहे हैं हम दोनों तुम्हें। अस्पताल के अस्पताल छान मारे हमने…’। रोता हुआ फुलेल समझ सकता था कि समुद्री तूफ़ान में डोंगी खोजना इतना आसान न थ। पर अब डोंगी मिल गयी थी। क्या यह कम था!
बलेसर बच्चे को लेकर फुलेल पर झुका तो बच्चा उसे टुकुर-टुकुर निहारने लगा। बच्चे को देख कर फुलेल की आंखें बिलकुल खुल गयीं और उसने अपने दाहिने हाथ से बच्चे के माथे को छूकर पुचकारा, ‘बाबू रे …’। फिर अगले ही पल कुछ सोचकर फुलेल ने नज़ीर को झिड़का, ‘इसे यहां क्यों ले आये?’
नज़ीर ने उदास-सा जवाब दिया, ‘किसके भरोसे इसे छोड़ूं फुलेल ? कहां छोड़ूं ? इस शहर में अब कोई होश में नहीं’।
तीनों के लिए समझने-बूझने के लिए अब बचा ही क्या था! पर नज़ीर जानना चाहता था कि फुलेल की यह दुर्गति किसने की? और फुलेल था कि उसे पता ही नहीं था कि उस पर हमला किसने किया और अस्पताल कौन लेकर आया। वह मारने वाले और बचाने वाले दोनों से ही अनजान था। उसे इतना याद था कि बीड़ी का बंडल लेने वह सांझ ढले कालीबाड़ी से थोड़ा आगे निकल आया था। पान-बीड़ी की वह गुमटी बंद थी और सड़कें सूनी। सूनी सड़क देखकर वह डर गया और लौटने लगा।। वह कुछ क़दम चला ही था कि किसी ने बहुत भारी चीज़ से पीछे गर्दन पर हमला किया। अचानक की चोट से फुलेल अचकचाया और लड़खड़ाते हुए पीछे मुड़ा। वे चार थे। इतना याद था फुलेल को। जब तक फुलेल उन चारों के चेहरे की शिनाख़्त कर पाता कि एक ने आगे बढ़कर उसी भारी-भरकम हथियार से फुलेल का ललाट खोल दिया। उसके बाद का कुछ याद नहीं था उसे। नज़ीर को क़िस्सा सुनाते हुए वह आखिर में रो पड़ा, ‘भाई! धोती की गांठ में वही चार सोने के सिक्के और रुपये थे। आज आंख खुली तो देखा कि गांठ ख़ाली है’। उसके आंसू निकल आये। नज़ीर ढाढस देने लगा, ‘कोई बात नहीं फुलेल … मान लो कि मेरा हिस्सा गया… जो मेरा है वह सब तुम्हारा है भाई’। पर फुलेल की तृष्णा ख़त्म नहीं हो रही थी। उसे तो यह भी अफ़सोस हो रहा था कि क्यों उसने सिक्के और रुपये गांठ में रखे थे। कमरे में ही छुपाकर रखना था। पर बलेसर की शराबखोरी से वह डर गया था कि कहीं वह नशे में उस धन को उड़ा न ले। नज़ीर ने फुलेल को फिर समझाया, ‘ज़िंदा रहेंगे तो कई मौक़े आयेंगे भाई!’ रात के झींगुरों के शोर और घायलों की कराह के बीच फुलेल की सोती-जगती आंखों के सामने उसके दो यार और एक प्यारा बच्चा था। जान की क़ीमत के बदले यह खुशी ही तो थी! घायल देह पर जब कई जगह से मरहम लगा तब देह को सोना ही था।
सुबह हुई। डॉक्टर बलेसर को देखने आया और कुछ दवाइयां लिखकर काग़ज़ थमा दिया। उसने बताया कि सर का ज़ख्म बेहद गहरा है और उसे सूखने और टांके कटने में महीने दो महीने से भी ऊपर का वक़्त लग सकता है। एक महीने बाद आने को कहकर वह डॉक्टर फुलेल के माथे की पट्टी बदलने लगा। तभी अस्पताल में बरामदे के बाहर एक ज़ोरदार हलचल हुई। बरामदे के घायल अस्पताल के मुख्य द्वार पर झांकने लगे। पलक झपकते ही भीड़ बढ़ गयी वहां। कोई था जो मुख्य द्वार से इधर ही आ रहा था। बरामदे की ओर। वह जो आ रहा था उसी के कुछ लोग आपस में हाथों का एक घेरा बनाये बार-बार भीड़ से मिन्नत कर रहे थे ‘ हटिए …रास्ता दीजिए…रास्ता दीजिए’। पर भीड़ नहीं मान रही थी। हर किसी को उस शख़्स के दर्शन करने ही थे।
नज़ीर और बलेसर भी बरामदे में खड़े होकर उधर देखने लगे। अस्पताल के बरामदे के फ़र्श पर बैठकर जो डॉक्टर फुलेल की पट्टी बदल रहा था वह भी कुछ देर के लिए सब छोड़-छाड़कर खड़ा हो गया। फुलेल से खड़ा नहीं हुआ गया और उसने बैठे-बैठे ही अपनी मुंडी घुमायी और बरामदे में लगी डंडियों के बीच से उधर झांकने लगा, ‘ कौन है?’
नज़ीर शायद पहचान गया। वह अपनी चमकती आंखों और उम्मीद-भरी भाषा में बलेसर से कहने लगा, ‘देख लो बलेसर इस पीर को …अगर इसकी चल पड़ी तो जान लो कि हमारा सही समय जल्दी आ जायेगा। रातों-रात!’
यह बात बरामदे के फ़र्श पर बैठे हुए फुलेल के कानों में गयी और उसकी उत्सुकता और बढ़ गयी, ‘कौन है भाई यह?’
अस्पताल का बरामदा सात सीढ़ी ऊपर था। जैसे कोई सफ़ेद लहर चढ़ रही हो सीढ़ियां, वैसे ही वह आदमी अपने ही लोगों के हाथों के घेरे को तोड़ता हुआ और लंबे-लंबे डग भरता हुआ सीढ़ियों पर चढ़ा आ रहा था। मध्यम क़द , सांवला रंग और छरहरी काया। कमर से शायद कोई घड़ी लटक रही थी। घुटने तक सफ़ेद धोती और देह पर सफ़ेद सूती चादर। बेहद उदासी में डूबा हुआ चेहरा लिये वह अपनी लाठी के सहारे सातवीं सीढ़ी तक चढ़ आया। फुलेल को थोड़ी देर लगी; पर अब वह उस आदमी को पहचान गया। पहचानते ही उसके आंसू निकलने लगे। उस बूढ़े आदमी को देखते ही फुलेल को किसी और की याद उमड़ आयी थी। मानो उसका कोई ऐसा सगा था जो उस बूढ़े आदमी से ढेरों उम्मीद लगाये अब दुनिया छोड़ चुका था।
बरामदे में उस बूढ़ी देह को देखते ही सब खड़े हो गये। क्या डॉक्टर, क्या मरीज और क्या उनके तीमारदार! कुछ घायल तो उसे देखते ही बिलख पड़े, ‘बाबा …’। अब तक का सारा संचित दुख-दर्द सुलग उठा बरामदे में। उसने ‘बाबा’ कहकर बिलखने वालों को ऐसे गले लगाया जैसे उसके अपने घायल बच्चे हों। फुलेल ने देखा कि करुणा की उस सफ़ेद नदी ने अपने चेहरे की उदासी को भरसक छुपाने की कोशिश की। खुद को कुछ संयत करके नदी ने आहिस्ते-आहिस्ते सबको सहलाना शुरू किया। हर घायल और बीमार से कुछ पूछते, उन्हें बोलने का वक़्त देते, फिर डॉक्टरों को हिदायत देते और अगले बीमार की ओर बढ़ जाते। वे धीरे-धीरे बढ़ते गये और अब फुलेल की बारी आने वाली थी। फुलेल की तो सांस ही रुक रही थी। पास आकार उस नदी ने फुलेल से पूछा, ‘अब ठीक हो भाई?’ फक करके आंसू निकल आये फुलेल के। कुछ बोला ही नहीं गया उससे। पता नहीं क्यों? बस हाथ जोड़े वह नदी को निहारता रहा। तभी बलेसर ने आगे बढ़कर नदी के पांव छू लिये। नज़ीर ने भी हाथ जोड़े। नज़ीर की डबडबायी आंखों को उस नदी में कोई नबी दिख रहे थे। नदी ने समझ लिया कि ये तीनों साथ-साथ हैं। तभी नज़ीर के गोद के बालक पर नदी की नज़र जाकर ठहर गयी। अपना बायां हाथ उठाकर नदी ने बालक का माथा छू लिया तो बच्चे ने फट-से नदी की उंगली थाम ली। नदी ने अपनी उंगली वापस खींचनी चाही, पर बालक ने अपने दोनों हाथ की नन्हीं उंगलियों से नदी की उंगली कुछ ज़ोर से थामी थी। मुस्कुराकर नदी ने बच्चे से मिन्नत की, ‘अरे भाई …अब जाने दो … कब तक रोकोगे ?’ एक हल्की-सी मुस्कुराहट सबके चेहरे पर आ गयी। बच्चे ने नदी का कहना मान लिया। पर रोते हुए।
बरामदे की अगली क़तार में एक मां अपनी बेटी को साथ लेकर पड़ी हुई थी। पिछली रात ही मां-बेटी को लाया गया था। दोनों के कपड़े जगह-जगह से चीथे गये थे। बेटी अब तक बेहोश थी और उसकी मां उसके पास ही एक़दम गुमसुम बैठी थी। जैसे वह इस दुनिया में हो ही न। रात से ही उन दोनों में कोई हरकत नहीं थी। डॉक्टर आते और बेटी को ग्लूकोज़ चढ़ाते, सुई देते और उस मां से बेटी को दवाई खिलाने की कहकर चले जाते। पर दवाइयां यूं ही पड़ी हुई थीं। उस मां ने छुआ तक भी नहीं था उन्हें। उसकी बेटी में दर्जन-भर सुइयां पड़ने के बाद भी कोई हरकत न थी। पर सांस चल रही थी उसकी।
सफ़ेद नदी वहां ठहरी। उस मां ने देखा भी। पर जैसे उस मां पर नदी के पास आकर खड़े होने का कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था। वह वैसे ही शून्य में थी। फिर नदी ने ध्यान से उन मां-बेटी को निहारना शुरू किया। फुलेल ने भी अब जाकर देखा कि अचेत पड़ी लड़की के कमर के नीचे से लेकर जांघ तक ख़ून के थक्के जमे हुए हैं। करुणा की नदी की नज़र जब ख़ून के थक्कों पर गयी तो उसके चश्मे के भीतर डूबती हुई निगाहों में दर्द भर आया। नदी ने लगभग थर्राते हुए डॉक्टर से पूछा, ‘ क्या इस बच्ची के साथ भी …’
डॉक्टर उनके कान में फुसफुसाता, ‘बच्ची और उसकी मां दोनों के साथ …’। इतना सुनना था कि चश्मे के भीतर और पानी भर गया। उनकी नज़र धुंधला गयी। वह अब चश्मा उतार कर अपनी सूती चादर से साफ़ करने लगे। तब तक उस बच्ची की मां उन्हें पहचान गयी। अचानक वह मां धवल-नदी के घुटने से लिपट गयी और एक लंबी चीख मारकर फूट पड़ी, ‘ओ बाबा जी …. ओ बाबाजी ….तुम्हारे रहते हुए भी यह कैसे हो गया बाबा ?… ओ बाबा जी … जवाब दो मुझे’। सबको एक उसी से जवाब चाहिए था। सभी को। शताब्दी का सबसे भारी बोझ उस बूढ़े को ही संभालना था। पर बुज़ुर्ग बोझ तले लड़खड़ा गये और कांपती लाठी के सहारे वह वहीं बैठ गये।
फुलेल, नज़ीर और बलेसर आज उस बेचैन नदी के बिलखने के साक्षी थे जिसके हौसलों और नरमदिली के आगे एक दिन इतिहास को भी छोटा पड़ जाना था।
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घायल फुलेल फिर कालीबाड़ी वाले किराये के कमरे में लौटा। पर खड़े होकर ठीक से चलने में वक़्त लगने वाला था अभी। ज़ख्म भरने में तो और वक़्त लगना था। बलेसर किसी भाई की तरह उसकी सेवा-टहल में लगा रहा। वह उसके माथे की पट्टी बदलता, उसकी गंदी धोतियां धोता, देह पोंछता, मालिश करता, बाज़ार से ज़रूरी दवाइयां और समान लाता। सुबह-शाम भोजन पकाने की ज़िम्मेवारी भी उसी की थी। फुलेल का दिल बलेसर का समर्पण देखकर बार-बार भर आता। उस वक़्त पूरा देश शीतलहर की चपेट में चुका था। पर कलकत्ते के माथे से ठंढा ख़ून फुलेल के ज़ख्म की तरह अभी भी रिस रहा था। इन सबका असर बलेसर पर कुछ ज़्यादा पड़ने लगा था जो अपनी लाख कोशिशों के बावजूद समझ नहीं पाता था कि देश बनने से क्या हो जाता है? वह फुलेल की सेवा-टहल करते हुए कभी-कभी भुनभुनाता, ‘देश में कौन रहता है? सब तो अपने घर में रहते हैं!’
पर नज़ीर बलेसर नहीं था। वह जानता था कि पूर्वी बंगाल की ज़हरीली हवा कलकत्ते आकर ठहर गयी है। नहीं भी ठहरती तो क़ैद कर ली जाती। उसकी अपनी बस्ती अब वीरान होने लगी थी। आधी आबादी तितर-बितर हो चुकी थी। उसमें से न जाने कितने मर-खप गये और कितनों ने कहां-कहां शरण ली कोई नहीं जानता था। एक विषाक्त उदासी को छोडकर कोई कुछ नहीं जानता था। प्रार्थना-सभाएं तो अब भी हो रही थीं; पर उनका असर होते नहीं दिख रहा था।
काका कथा कहते-कहते अब थोड़ी तकलीफ़ में आ रहे थे। उन्हें बीड़ी की तलब लगी, तब जाकर मैं आपे में लौटा। मैं उनके क़िस्सों की भूलभुलैया में लगभग गुम ही था। मुझे खुद की ख़बर न थी। जब उन्होंने बीड़ी जलायी तब जाकर एहसास हुआ कि मैं हूं और कम से कम कथा में नहीं हूं। आपे में लौटते ही मेरा सोया हुआ तर्क झटके के साथ खड़ा हो गया। काका क़िस्से से अंतराल लिये हुए बीड़ी फूंके जा रहे थे। मेरे लिए सही मौक़ा था। मैं पूछ बैठा, ‘ इतनी बारीक़ी से आप तीनों की कथा कैसे जानते हैं काका? क्या कोई आपका सगा था उनमें?’
बीड़ी का धुआं फेंकते हुए वे मुस्कुराने की कोशिश करने लगे और मुझे ऐसे देखा जैसे मैंने कोई मूर्खता से भरा सवाल उछला हो। बिना नाराज़ हुए ही जवाब दिया काका ने, ‘तुम लोग सुनते कहां हो किसी को? हमारे ज़माने में सुनना-सुनाना शौक़ हुआ करता था। कर्मनासा नदी पर मकर-संक्रांति को बड़ा भारी मेला लगता है। वहां एक वैद महाराज पंद्रह दिन का प्रवास करते थे। वे कई तरह की जड़ियां-जंतर बांटते थे। लोग यह भी कहते थे कि उनका चेहरा हू-ब-हू गांधी महात्मा से मिलता है। नाम सुनकर मैं भी वहां गूंगी के लिए जड़ी लेने गया था। वहीं फुलेल से मुलाक़ात हो गयी। वह भी जड़ी लेने आया था। उसे अपनी कथा सुनाने का शौक़ था और मेरे पास फुर्सत ही फुर्सत थी। तुम नहीं जानते लाल जी कि फुलेल मकर-संक्रांति के दिन ही कलकत्ते से लौटा था।’
‘और बाक़ी के वे दोनों?’ कथा पर मेरी बारीक़ नज़र थी और मैं नज़ीर और बलेसर को कथा से ऐसे ही नहीं जाने देना चाहता था। काका ने बीड़ी को मसलकर फेंका और फुलेल की बतायी शेष कथा को याद करने लगे।
काका बताते गये कि बड़ी भारी बरसात हो रही थी उन दिनों। वह जब कभी थमती तो शहर के कई हिस्सों में पानी भरा रहता। किसी का कहीं जाना-आना दूभर हो रहा था। ठीक वैसे ही शहर के कई हिस्सों में ज़हर अब भी लबालब भरा था। न पानी निकल रहा था और न ज़हर। शहर कब अपने गड्ढे में किस राहगीर को निगल जाये, कोई नहीं जानता था।
बलेसर के हिस्से के पैसे तो कब के चुक गये थे और सारा ख़र्चा नज़ीर के पैसे से चल रहा था। राशन से लेकर फुलेल की दवाई तक सब ख़त्म हो रहा था। कालाबाज़ारी उफ़ान पर थी। उधार में ज़हर भी कोई नहीं देता था। पूंजी पूरी तरह से ख़त्म हो गयी तो उसी बरसात में बलेसर ने एक रात नज़ीर की बस्ती की राह पकड़ ली। पर वह ख़तरे से अनजान न था। छुपते-छुपाते जब वह नज़ीर की बस्ती के मुहाने तक आ पहुंचा तब बरसात कुछ थम गयी थी। उसने उस मुहाने से ही छुपकर कोयल की तरह एक गहरी कूक मारी। पहली कूक, फिर दूसरी फिर तीसरी कूक। उसकी तीसरी कूक के बाद बस्ती के बहुत भीतर से जवाबी कूक आयी। बलेसर समझ गया था कि नज़ीर तक उसके आने की ख़बर पहुंच गयी। बच्चा गोद में लिये ही नज़ीर बस्ती की शांत और तंग गलियां लांघता रहा और मुहाने पर आ पहुंचा। बलेसर ने खुसुर-फुसुर करते हुए तंगी का हाल बताया। नज़ीर को अफ़सोस हो रहा था कि वह अपनी ज़ेब में पैसे डालकर क्यों नहीं आया। बलेसर को बस्ती के भीतर ले जाना ख़तरे से ख़ाली नहीं था। पर उसे भरोसा था कि उसके रहते बलेसर को छूने की कौन हिम्मत करेगा? यह भरोसा ही उसकी सबसे बड़ी चूक साबित हुई।
भरी बरसात में भी पूरे शहर को जैसे प्यास लगी थी। ख़ून की प्यास। ख़ून देखना उसका शगल बन रहा था। इसलिए अब केवल धर्म का ही हिसाब-किताब बराबर नहीं हो रहा था अब बल्कि अपने भी अपनों का हिसाब-किताब कर रहे थे। बच्चा गोद में दबाये नज़ीर सतर्क था और बलेसर भी दबे क़दमों से साथ चल रहा था। वे घर से कुछ ही क़दम दूर थे कि पहला झटका नज़ीर को लगा। वह बच्चा गोद में लिये ही गीली धरती पर जा फिसला। बलेसर चीख़ा ‘नज़ीर !!’ पर हमलावर नज़ीर को मारने नहीं आये थे बल्कि वे तो उसे बस कब्ज़े में लेना चाहते थे ताकि कोई ख़लल ना पड़े। उनका असली निशाना था बलेसर। दो पहलवान नज़ीर पर तुरत झुक आये और गीली ज़मीन पर ही नज़ीर को दाब दिया। पहलवानों के ज़ोर से बच्चा भी दब गया। बच्चे की देह से कड़ की आवाज़ निकली और बच्चे की सांस टंग गयी। इससे अनजान नज़ीर उन दो पहलवानों को उसी अंधेरे में पहचानने की कोशिश करने लगा। मोहल्ले के नहीं थे। एक तो जंगी ही था। नज़ीर समझ गया कि यह सब अचानक नहीं हो रहा है। बात समझते ही उसकी देह ख़ौफ़ से झनझना उठी। मामला लूट-पाट का नहीं। उधर मुंह ढांपे लड़के बलेसर को दबा चुके थे। अंधेरे में उनकी छुरियां चमक उठीं। बलेसर ज़ोर से चीख़ा, ‘भाई… भाई….भाई’ पर उन्होंने एक न सुनी। उसकी आवाज़ सुनकर अंधेरी बस्ती से एक भयाकुल भुनभुनाहट उठी; पर किसी दरवाज़े या झरोखे से कोई रोशनी न आयी। शायद प्रतिशोध ने हर चीख़ को स्याह और सफ़ेद में बदल दिया था। कोई मदद न आते देख बलेसर ने कातर होकर नज़ीर को झांका। वह मुर्गे़ की तरह दो पहलवानों के बीच फड़फड़ा रहा था।
बलेसर के पेट में जब पहली छुरी उतरी तो वह सुन्न माथे से बिलख पड़ा। दूसरी छुरी सीने में उतरते उसकी बिलखती आवाज़ चीख़ और प्रार्थना दोनों में बादल गयी, ‘भाई… भाई… भाई मैं इसी देश का हूं। भाई मैं इसी देश का हूं’। पर देश किसे चाहिए था अब। सबको धर्म चाहिए था। और जंगी को बलेसर। नज़ीर ने जब एक के बाद एक बलेसर की देह को काटती हुई छुरियों की आवाज़ के बीच बलेसर के चीख़ने-बिलखने की आवाज़ सुनी तो ज़ोर लगाकर उसने अपने घुटने मोड़ लिये। बलेसर अब गलगला रहा था। इधर गोद के बच्चे की हड्डी एक बार फिर उन पहलवानों के दबाव से कड़ कर गयी। उसे सुनते हुए नज़ीर ने अपने जूते में उंगली डाली और एक पतली सी छुरी निकालने में कामयाब हो गया। छुरी जंगी के पेट के किनारे को नापते हुए पार हो गयी और ख़ून का फ़व्वारा फूट पड़ा। जंगी नज़ीर को छोड़कर अपन पेट ढांपने लगा। दूसरा पहलवान डरकर छिटक गया नज़ीर से।
बस। यहीं आकर रुक गये गुलाब काका। गला कुछ भर्रा आया था उनका। पर अब वे भी इस कहानी को और झेलने के लिए तैयार न थे। बोले कि फुलेल ने इतना ही बताया मुझे कि ‘जब बस्ती में यह सब हो रहा था तब बलेसर की राह तकते फुलेल सो चुका था। भोर से कुछ पहले कोयल के लगातार कूकने से फुलेल की आंख खुली। इस मौसम में कूक? माथे पर शिकन लिये फुलेल झटके से उठा और दरवाज़ा खोलकर गली में झांकने लगा। गली अभी शांत थी और उसके दूसरे सिरे पर नज़ीर जैसा कोई खड़ा था। फुलेल लड़खड़ाते हुए नज़ीर तक पहुंचा। वह और उसका बच्चा दोनों लहूलुहान थे। बच्चे का सिर एक तरफ़ झूल रहा था और उसके माथे पर घरेलू पट्टी जैसे-तैसे बांधी गयी थी। बाप-बेटे दोनों की देह से ख़ून रिस रहा था। फुलेल देखते ही सिहर गया ‘अरे…अरे ?’ पर नज़ीर सदमें में था। उसकी आंखें आतंक से अब भी फटी पड़ी थीं और लगातार नाच रही थीं जैसे वे अपने आसपास की हर हरकत को देख डालेंगी। फुलेल के पास आते ही नज़ीर फुसफुसाया, ‘फुलेल इसे लेकर भाग यहां से … जल्दी’।
कांपती टांगों से फुलेल ने पूछा, ‘हो क्या गया? बलेसर कहां है?’
‘भाई वक़्त जाया ना कर, नहीं तो हम तीनों मारे जायेंगे …. पहले निकलो यहां से’, नज़ीर गिड़गिड़ाया।
किराये के कमरे में समेटने के लिए था ही क्या एक बिस्तर और कुछ बर्तनों के अलावा? कमरे पर वापस भी नहीं गया फुलेल। वहीं से दोनों दबे क़दमों से भाग निकले। हर गली, हर सड़क पर कोई आहट होते ही वे अंधेरे में दुबक जाते। कुछ गलियां शांत थीं, कुछ में शोर था। किसी में आगज़नी हो रही थी; तो कोई गली जलकर ख़ाक हुई पड़ी थी। भोर होते ही नया साल शुरू होने वाला था। उसी का धार्मिक उत्सव उन्मादी मना रहे थे। यह अब समझ में आया नज़ीर को। सब पहले से तय था। आलम यह था कि निराश्रितों और भिखारियों तक ने कलकत्ता की खुली सड़कों पर रात में सोना छोड़ दिया था। वे अंधेरी जगहों पर दुबके पड़े थे या शहर छोड़ गये थे। कलकत्ते की चौड़ी सड़कें पार करते वक़्त फुलेल और नज़ीर को कंपकंपी हो रही थी।
बचते-बचाते फुलेल को स्टेशन ले आया नज़ीर। वहां भीड़ बहुत थी। पहचानना मुश्किल हो रहा था कि भीड़ में घायल कौन है और मुसाफ़िर कौन? जब वे मुसाफिरों और घायलों के बीच खप गये तब थोड़ा ठहरकर नज़ीर ने सांस ली और घायल बच्चे को फुलेल की गोद में रख दिया। फिर उसी भीड़ के बीच में वह रोने लगा। पर किसे परवाह थी। वहां हर तीसरा रो रहा था। नज़ीर वहीं बिलखते हुए सारा क़िस्सा सुना गया। बस्ती की उठा-पटक में बच्चे का यह हाल हो गया था। फुलेल ने जानना चाहा, ‘बलेसर अभी कहां है नज़ीर ? ज़िंदा है कि नहीं बस यह बता दो’।
‘मरा नहीं है … अस्पताल पहुंचा कर आ रहा हूं’। फुलेल को नज़ीर की बात पर भरोसा नहीं हो रहा था। पर नज़ीर भारी बेचैनी में था। वह फुलेल को कुछ और पूछने का वक़्त ही नहीं दे रहा था। अचानक ही नज़ीर ने धीरे-से फ़ातिमा के गहनों वाली वह पोटली फुलेल के हाथ में रख दी, ‘तुम गांव निकल जाओ फुलेल … मैं पीछे से आता हूं?’
‘लेकिन… ?’ अभी बात शुरू ही की थी फुलेल ने कि नज़ीर ने उसे रोक दिया, ‘मैं शहर में नहीं दिखूंगा तो वे मुझे खोजते-खोजते वहां तक भी आ जायेंगे फुलेल …जंगी एक अकेला नहीं है … समझो … मैं उन्हें कुछ दिन तक यहीं दिखते-छुपते रहूंगा तो शक नहीं होगा। …फिर बलेसर भी तो है यार’। बलेसर को याद करके नज़ीर फिर फूट पड़ा। फुलेल को तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था। नज़ीर ने उसे फिर भरोसा दिलाया, ‘बच्चा दे रहा हूं अपना …क्या इसे देखने नहीं आऊंगा … बस इसे कुछ दिन संभाल लो भाई…’, कहते हुए नज़ीर ने हाथ जोड़ दिये फुलेल के आगे। उसके नथुने फड़क रहे थे। नज़ीर ने वहां एक न सुनी और फुलेल को आगे कुछ बोलने-संभलने का मौक़ा दिये बिना उसे पश्चिम जाने वाली किसी रेल के डिब्बे में बैठाकर ग़ायब हो गया। जाने से पहले उसने अपने बच्चे के ख़ून से सने माथे को चूमा।
फुलेल काठ की मूरत की तरह बैठा रहा। गोद का बच्चा ज़िंदा है कि मर गया इसका भी होश नहीं था उसे। सवारियां भरने लगीं और फिर रेल चल पड़ी। इधर नये साल की सुबह ने करवट ली और उधर फुलेल ने कलकत्ता छोड़ा। सवारियां आज़ादी, अंग्रेज़ और तक़़सीम की बातों में मशगूल थीं। इधर घायल बच्चे को गोद में लिये फुलेल का सर फिर टीसने लगा था। उसके ज़ख्म हरे ही थे। इधर सवारियों की बातें सुनकर उसका माथा और गरम होने लगा और उसके भीतर अचानक ही नफ़रत की एक नदी उफ़नने लगी। उसे अब सबसे नफ़रत हो रही थी। अंग्रेज़ रहें या चूल्हे में जायें! देश बंटे या बना रहे! क्या आज़ादी? क्या अंग्रेज़? और क्या तक़सीम? एक भरपेट भात के लिए बरसों पहले वह गांव से निकला था। उसने कभी सोचा भी न था कि उसके बदले में कलकत्ता उसके रोएं-रोएं दाग़ देगा।‘
गुलाब काका ने जब यह कथा ख़त्म की तब उनके चेहरे पर फुलेल वाली ही नफ़रत उतर चुकी थी। तैश में ही काका ने अपनी बीड़ी सुलगा ली। बस दो कश लिये और बीड़ी को अपने नंगे पैर से मसल डाला। आग बुझ चुकी थी। मन को भी कुछ थामा-थिराया। जब वे उठने को हुए तो मैंने उन्हें उनकी लाठी थमायी। उन्होंने मुझे तिरछी नज़र से देखा और क़िस्से के आख़िरी सफ़े का पटाक्षेप करते हुए बुदबुदाये, ‘तुम्हें तो ख़ैर भरोसा नहीं होगा, लाल जी … पर फुलेल आज भी नज़ीर की राह ताकता है … ज़माना गुज़र गया इसी इंतज़ार में’।
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