‘महाराज’ : अंधभक्ति, अविवेक और धर्म-सत्ता (भाग-1) / जवरीमल्ल पारख


उन्नीसवीं सदी के लगभग मध्य का महाराजा लाइबेल केस यों तो भली-भांति दस्तावेज़ीकृत है, पर इतिहास का सामान्य ज्ञान रखने वालों को इसके संबंध में ज़्यादा जानकारी नहीं रही है। उस संभावनाशाली ऐतिहासिक प्रसंग को थोड़ी रचनात्मक छूट लेते  हुए लोगों तक पहुंचाने का श्रेय ‘महाराज’ फ़िल्म को जाता है। मूल मामला, आज के समय में उसकी प्रासंगिकता, और उसकी फ़िल्म-प्रस्तुति की शक्तियां और सीमाएं–इन पर विस्तार से चर्चा कर रहे हैं सिनेमा-अध्येता जवरीमल्ल पारख

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ओटीटी प्लेटफार्म नेटफ्लिक्स पर 21 जून 2024 को यशराज फ़िल्म्स की महाराज फ़िल्म रिलीज़ हुई है। यह फ़िल्म पहले 14 जून 2024 को रिलीज़ होने वाली थी, लेकिन गुजरात उच्च न्यायालय ने इसके प्रदर्शन पर अस्थायी रोक लगा दी थी। यह गुजराती पत्रकार और लेखक सौरभ शाह के इसी नाम के गुजराती उपन्यास पर आधारित है जो पहली बार अक्टूबर, 2013 में प्रकाशित हुआ था। यह उपन्यास अंग्रेजों की अदालत में चले एक मानहानि के मुक़दमे से प्रेरित है जो 1862 में लड़ा गया था। मुक़दमा उस समय के पत्रकार और समाज सुधारक करसनदास मूलजी (1832-1871) से संबंधित है जिनके विरुद्ध वल्लभाचार्य संप्रदाय से संबंधित सूरत की हवेली (मंदिर) के प्रमुख गोसांई जदुनाथ जी ब्रजरत्न जी ने मानहानि का मुक़दमा दायर किया था। इन हवेलियों के प्रमुख गोसांइयों को महाराज कहा जाता था। गुजरात उच्च न्यायालय में वल्लभाचार्य संप्रदाय के पुष्टि मार्ग से संबंधित वैष्णव अनुयायियों और विश्व हिंदू परिषद जैसे सांप्रदायिक संगठनों ने फ़िल्म पर रोक लगाने के लिए एक याचिका दायर की थी। उनका दावा था कि यह फ़िल्म उनके संप्रदाय को बदनाम करती है और यदि यह फ़िल्म रिलीज़ हो जाती है तो उनके संप्रदाय के लोगों के विरुद्ध सांप्रदायिक तनाव पैदा कर सकती है। गुजरात के उच्च न्यायालय में दायर इस याचिका के कारण फ़िल्म रिलीज़ होने में एक सप्ताह की देरी हुई। इस विवाद के कारण लोगों को यह जानने की दिलचस्पी भी हुई कि फ़िल्म में ऐसा क्या है जिसके कारण हिंदुओं का एक संप्रदाय अपनी भावनाओं के आहत होने और सामाजिक-सांप्रदायिक अशांति और तनाव पैदा होने की आशंका व्यक्त कर रहा है।

वल्लभ संप्रदाय पूरे उत्तर और पश्चिम भारत में काफ़ी प्रतिष्ठित संप्रदाय था और इसे राजाओं और सेठों का आश्रय भी मिला हुआ था। गुजरात में इस संप्रदाय के जो मंदिर या संस्थान थे, उन्हें हवेली कहा जाता था जहां संप्रदाय के प्रमुख रहते भी थे और वहां उनके आराध्य श्रीनाथजी का मंदिर भी होता था जिनके दर्शन और सेवा करने के लिए आने वाले भक्त अपने को वैष्णव कहते थे । इस संप्रदाय के आराध्य श्रीनाथ जी यानी कृष्ण का बालरूप। इस पंथ में कृष्ण के बालरूप की आराधना की जाती थी। हिंदी के भक्त कवि सूरदास भी इसी वल्लभ संप्रदाय के थे और पुष्टि मार्ग के अष्टछाप कवियों में प्रमुख थे। उन्होंने अपनी कविताओं में कृष्ण की बाल लीलाओं का ही वर्णन किया है। इस संप्रदाय की स्थापना का श्रेय वल्लभाचार्य (1478-1531) को दिया जाता है जिन्हें इस संप्रदाय की परंपरा में कृष्ण का अवतार माना जाता है। जुर्गन लुट के अनुसार,

‘पुष्टि मार्ग के मुताबिक भक्त का अंतिम लक्ष्य कृष्ण के साथ एकाकार हो जाना है। यह एकता जिस उपासना मार्ग से होती है उसे तय करने का काम वल्लभ संप्रदाय के गुरु करते थे जिन्हें महाराजा कहा जाता था। इन महाराजाओं को पूजा-उपासना तय करने से लेकर भक्तों के जीवन तक पर पूरा अधिकार होता था। वे संप्रदाय के भक्तों की स्त्रियों को अपने साथ सोने के लिए भी अधिकारपूर्वक आज्ञा देते थे। भक्त उन्हें अपनी स्त्रियों का संकल्प-दान करते थे। बंबई के एलफिंस्टन कालेज से पढ़कर निकले नई सुधारचेतना वाले युवकों में से एक करसनदास मूलजी ने, जो खुद वल्लभ संप्रदाय के गुजराती वैष्णव परिवार के थे, इस धार्मिक भ्रष्टाचार और शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी’ (वसुधा डालमिया और एच. वॉन स्टाइनक्रोन द्वारा संपादित रिप्रेजेंटिंग हिंदूइज्म : दी कंस्ट्रक्शन आफ रिलीजियस ट्रैडीशंस एंड नेशनल आइडेंटिटी  पुस्तक में शामिल जुर्गन लुट के निबंध ‘फ्रॉम कृष्णलीला टू रामराज : ए कोर्ट केस एंड इट्स कांसेक्वेन्सेज़ फ़ॉर दि रिफ़ॉर्मेशन ऑफ़ हिदुइज्म’, वीरभारत तलवार की पुस्तक रस्साकशी के अध्याय ‘धर्म और समाज सुधार’ से उद्धृत अंश, पृ.180)।

करसनदास मूलजी और महाराज लाइबेल केस

करसनदास मूलजी का जन्म 1832 में बंबई में एक गुजराती वैष्णव परिवार में हुआ था। उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा बंबई के प्रख्यात एलफिंस्टन कालेज में प्राप्त की थी।एलफिंस्टन कालेज की स्थापना 1823 में की गयी थी। इस कालेज से 19वीं सदी के कई प्रख्यात लोगों ने शिक्षा प्राप्त की थी। भाऊ दाजी लाड, धीरजराम दलपतराम, दादाभाई नौरोजी, आर जी भंडारकर, नर्मदाशंकर लालशंकर, करसनदास मूलजी, महीपतराम रूपराम और नानाभाई रुस्तमजी राणिना इनमें प्रमुख थे। इन्होंने एक संस्थान की भी स्थापना की थी जिसमें वे समकालीन यूरोपीयन क्लासिक्स और वैज्ञानिक विषयों का अध्ययन करते थे और भारतीय सामाजिक रीति-रिवाजों की परीक्षा करते थे। ज़ाहिर है कि इस कॉलेज और उससे संबद्ध इस तरह के संस्थानों का असर करसनदास मूलजी पर भी पड़ा था। वे गुजराती ज्ञानप्रसारक मंडली के भी सक्रिय सदस्य थे जिसकी स्थापना एलफिंस्टन कालेज के विद्यार्थियों ने 1851 में की थी। उनके समर्थकों और सहयोगियों में ज़्यादातर एलफिंस्टन कालेज के उनके साथी थे।

ऐसा नहीं है कि करसनदास ने वल्लभ संप्रदाय के पुष्टि मार्ग में व्याप्त भ्रष्ट आचरण को ही मुद्दा बनाया था, समाज सुधार के और भी कई मुद्दे वे उठाते रहे थे। 1851 में ही करसनदास के सामने एक बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई। एक साहित्यिक प्रतियोगिता के लिए उन्होंने एक निबंध लिखा जिसमें उन्होंने विधवाओं के पुनर्विवाह का समर्थन किया। जब उनके इन विचारों की ख़बर उनकी बड़ी मां के पास पहुंची जो करसनदास की मां की मृत्यु के बाद उनकी देखभाल करती थीं, तो उन्हें तत्काल घर से निकाल दिया गया। उस समय तक करसनदास का विवाह हो चुका था। उन्होंने एक छात्रवृत्ति के माध्यम से अपना जीवनयापन आरंभ किया और बाद में एक परीक्षा पास करने पर एक चेरिटेबल स्कूल में, जिसकी स्थापना सेठ गोकलदास तेजपाल ने की थी, उनकी नौकरी लग गयी।

विचारवान और समाज सुधारक के रूप में करसनदास ने किस तरह विकास किया इस पर टिप्पणी करते हुए वसुधा डालमिया ने लिखा है, ‘करसनदास जी को अपने धार्मिक समुदाय में प्रचलित कुप्रथाएं बेहद नापसंद थी- सबसे ज़्यादा, महाराजाओं यानी पुष्टिमार्ग के गोसाइयों द्वारा समुदाय के सदस्यों की बीबियों-बेटियों के साथ ली जाने वाली छूट। वे खुद को ईश्वर के देहावतार के रूप में पूजे जाने की इजाज़त देते थे, इसलिए ईश्वर के प्रति तन, मन और धन के अर्पण को व्यक्तिगत रूप में ग्रहण भी करते थे। लिहाज़ा जिस स्त्री को भी वे पसंद करें, उसे व्यक्तिगत रूप में हासिल करने की उन्हें आज़ादी मिल गयी थी। करसनदास जी ने पहले संप्रदाय के सिद्धांत और इतिहास का अध्ययन शुरू किया। उस चीज़ के आकलन में जिसे वे मूल धर्मसार मानते थे, वे एच एच विल्सन और मैक्समूलर जैसे पश्चिमी प्राच्यविदों से ख़ासे प्रभावित थे जिन्होंने बाद के संप्रदायों को पुरातन शुद्धता से हुए विचलन के रूप में देखा था। महाराजाओं का संप्रदाय उनके अनुसार विशेष रूप से भ्रष्ट और विधर्मी था। यह संप्रदाय तुलनात्मक रूप से नयी चीज़ थी। उसका यह नयापन करसनदास जी के हिसाब से, प्राधिकार के उनके हर दावे को अवैध ठहरा देता था, ख़ास तौर से कृष्ण का देहावतार होने के उनके दावे को। करसनदास जी ने अपनी खोजों को प्रचारित करने के लिए लेख लिखने शुरू किये’ (हिंदू परंपराओं का राष्ट्रीयकरण, अनुवाद : संजीव कुमार, योगेंद्र दत्त, 2016, राजकमल पेपरबैक्स, नयी दिल्ली, पृ. 335-36)।

करसनदास ने अपने लेखन की शुरुआत दादाभाई नौरोजी के अख़बार रास्ट गोफ्तार से की थी। बाद में उन्हें महसूस हुआ कि उन्हें स्वयं भी एक अख़बार निकालना चाहिए। करसनदास ने समाज सुधार में यक़ीन करने वाले अपने संपन्न प्रगतिशील मित्रों की मदद से 1855 में सत्य प्रकाश साप्ताहिक अख़बार का प्रकाशन आरंभ किया जिसके माध्यम से वे अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाते थे। इस अख़बार में छपे लेखों के कारण ‘समुदाय के महाराजाओं और अगुआ सदस्यों से, जो कि नगर के प्रभावशाली व्यापारी थे, उनका विवाद शुरू हुआ। एक महाराजा, जदुनाथजी बृजरत्नजी महाराज, करसनदास जी के इर्द-गिर्द बने समूह को विधवा पुनर्विवाह जैसे मुद्दों पर बहस की चुनौती देने सूरत से बंबई आये। उनके बीच जो गर्मागर्म बहस चली, वह सत्य प्रकाश और जदुनाथजी के अपने नये-नये शुरू हुए अख़बार में छपी’ (वही, पृ. 336)।

1858 में बंबई उच्च न्यायालय में दयाल मोतीराम ने एक मुक़दमा दायर किया था और उसमें गवाही के लिए वैष्णव गोसाईं जीवनलालजी महाराज को बुलाया गया। लेकिन उन्होंने गवाही देने से इन्कार कर दिया। यही नहीं वे लंदन से एक ऐसा आदेश जारी करवाने में भी कामयाब रहे कि किसी भी वैष्णव गोसाईं को कोर्ट में गवाही देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। साथ ही, उन्होंने अपने वैष्णव अनुयायियों को तीन बातें मानने के लिए मजबूर किया कि कोई भी वैष्णव अनुयायी महाराज के विरुद्ध नहीं लिख सकता; कोई वैष्णव अनुयायी महाराज को कोर्ट में नहीं घसीट सकता; और यदि कोई महाराज के विरुद्ध मुक़दमा दायर करता है तो उसका सारा व्यय वैष्णव अनुयायियों को उठाना पड़ेगा और उन्हें यह भी सुनिश्चित करना पड़ेगा कि महाराज को कोर्ट में न जाना पड़े। करसनदास ने सत्य प्रकाश में लिखे कई लेखों में इस समझौते की आलोचना की और उसे गुलामीखत यानी गुलामी का समझौता कहा। करसनदास के प्रति महाराजाओं में विद्वेष भावना भरी हुई थी, इसके बावजूद उनका जाति बहिष्कार नहीं किया गया क्योंकि यह भी डर था कि और ज़्यादा प्रतिक्रिया हो सकती है और मुक़दमे दायर हो सकते हैं। जब जीवनलाल महाराज के अनुयायियों की संख्या कम होने लगी तो वे बंबई छोड़कर चले गये (दि प्रिंट में प्रकाशित उर्विश कोठारी के लेख से, 31 अक्टूबर, 2023)।

1860 में करसनदास मूलजी ने सत्यप्रकाश में कई लेख लिखकर महाराजाओं के अनैतिक आचरण का विरोध किया और बताया कि ये अनैतिक प्रथाएं वैष्णव संप्रदाय में शुरू में नहीं थीं। वल्लभाचार्य के पौत्र गोकुलनाथ से, जिन्होंने पुष्टि मार्ग की शुरुआत की, गोसाईं महाराजा की परंपरा शुरू हुई। उन्होंने मूल ब्रह्मसंबंधी मंत्र में कुछ इस प्रकार के संशोधन किये जिनसे आगे के महाराजाओं के लिए इस उपासना मार्ग के दुरुपयोग का रास्ता खुल गया (वसुधा डालमिया और एच. वॉन स्टाइनक्रोन द्वारा संपादित रिप्रेजेंटिंग हिंदूइज्म : दी कंस्ट्रक्शन ऑफ़ रिलीजियस ट्रैडीशंस एंड नेशनल आइडेंटिटी पुस्तक में शामिल जुर्गन लुट के निबंध ‘फ्रॉम कृष्णलीला टू रामराज : ए कोर्ट केस एंड इट्स कांसेक्वेन्सेज फ़ॉर दि रिफ़ॉर्मेशन ऑफ़ हिदुइज्म’, वीरभारत तलवार की पुस्तक रस्साकशी के अध्याय ‘धर्म और समाज सुधार’ से उद्धृत अंश, पृ.180)। वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ ने यह दावा करना शुरू किया कि वल्लभाचार्य कृष्ण के अवतार थे। गोकुलनाथ ने इसे एक संस्थागत रूप दे दिया और इसके बाद सभी महाराजाओं ने अपने को कृष्ण का वंशज और कृष्ण का अंश घोषित किया। करसनदास ने भी अपने लेख में गोकुलनाथ को ही अनैतिकता की शुरुआत का दोषी माना था।

पुष्टिमार्ग में दैनिक सेवा और दर्शन का बहुत माहात्म्य है। सेवा के माध्यम से संप्रदाय के सदस्यों को कृष्ण की लीलाओं के रस को समझने के लिए भाव का अनुभव करना होता है जिसके माध्यम से भक्त कृष्ण के प्रति नि:स्वार्थ प्रेम का अनुभव करता है। सेवा घर पर निजी तौर पर होती है, लेकिन एक महत्त्वपूर्ण पहलू हवेली में सामुदायिक सेवा भी है। पुष्टिमार्ग में कृष्ण की प्रतिमाएं मंदिरों में नहीं बल्कि हवेली में स्थापित की जाती है। हवेली को कृष्ण का निजी निवास माना जाता है और इसमें केवल नियत दर्शन समय पर ही प्रवेश दिया जाता है। पुष्टिमार्ग में चार प्रकार के भावों का उल्लेख मिलता है: दास्य, सख्य, मधुर और वात्सल्य। इसमें मधुर भाव में भक्त को गोपी की भूमिका में रखा जाता है जो रात के समय कृष्ण की लीलाओं की प्रेम-क्रीड़ा में भाग लेती है। यह मधुर भाव की भक्ति ही सेवा के ऐसे रूपों में बदलती गयी जिसने वल्लभ संप्रदाय में कई अनैतिक परंपराओं की शुरुआत कर दी और यह सब इसलिए संभव हो सका कि वैष्णव भक्तों में यह विश्वास भर दिया गया कि महाराज स्वयं कृष्ण के वंशज, अंश या अवतार है और उनके साथ किसी भी तरह का संबंध, दैहिक या मानसिक, दरअसल सीधे कृष्ण से संबंध स्थापित करना है। इसमें कुछ भी अपवित्र और अनैतिक नहीं है।

करसनदास मूलजी ने अपने साप्ताहिक पत्र सत्य प्रकाश में 21 अक्टूबर 1860 को वल्लभ संप्रदाय के पुष्टिमार्ग से संबंधित हवेलियों के महाराजाओं के बारे में एक लेख प्रकाशित किया था जिसमें इन हवेलियों में व्याप्त व्यभिचार का पर्दाफ़ाश किया था। इस लेख में आरोप लगाया गया था कि हवेली के महाराज स्त्री अनुयायियों का यौन शोषण करते हैं। गुजराती में लिखे गये इस लेख का शीर्षक था: ‘असल धर्म अने हालना पाखंडी मतो’। इस शीर्षक का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया था, ‘दि प्रिमिटव रिलिजन ऑफ़ दि हिंदूज एंड दि प्रेजेंट हेटेरोडॉक्स ओपीनियान्स’ यानी ‘हिंदुओं का आदिम धर्म और वर्तमान शास्त्र-विरुद्ध अपसिद्धांत’। वसुधा डालमिया के अनुसार इस लेख में करसनदास मूलजी ने लिखा था, ‘चूंकि पुराणों ने स्वयं यह घोषणा की थी कि कलियुग में अनेक छद्म धर्म और अपसिद्धांत उभरेंगे, इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं कि बाद के दादूपंथियों, रामानंदियों और सबसे बढ़कर वल्लभाचार्य के संप्रदाय जैसे सभी संप्रदाय शास्त्र विरुद्ध है’ (हिंदू परंपराओं का राष्ट्रीयकरण, पृ. 336)। करसनदास के लेख के इस अंश से स्पष्ट है कि वे जदुनाथ महाराज के आचरण के ही आलोचक नहीं थे बल्कि वल्लभ संप्रदाय के भी आलोचक थे, जबकि फ़िल्म में उन्हें पक्का वैष्णव और वल्लभ संप्रदाय का अनुयायी बताया गया है।

यहां यह उल्लेखनीय है कि स्वयं करसनदास मूलजी का परिवार वणिक जाति का था और वल्लभ संप्रदाय के पुष्टिमार्ग का अनुयायी था जो अपने को वैष्णव मानते थे। लेकिन अपने परिवार की परंपरा के बावजूद उन्हें धर्म और समाज से संबंधित कई परंपराएं ग़लत लगती थीं और वे उनका विरोध करते थे। इसलिए उनकी पहचान एक समाज सुधारक के रूप में थी (वही, पृ. 335)। हिंदू धर्म के कई नये पंथों की आलोचना करने के साथ-साथ उन्होंने विशेष रूप से वल्लभ संप्रदाय के पुष्टिमार्ग की तीखी आलोचना की। वसुधा डालमिया के शब्दों में, उन्होंने इस संप्रदाय के ‘महाराजाओं के लोभी और लंपट रवैये की निंदा की और संप्रदाय की कठोरतम शब्दों में आलोचना की’। स्वयं करसनदास के शब्दों में ‘…अन्य संप्रदायों ने कभी उस तरह की निर्लज्जता, क्षुद्रता, बदमाशी और धोखाधड़ी नहीं की जैसी महाराजाओं के संप्रदाय ने। महाराजाओं को उस तरह से कोई धार्मिक प्राधिकार हासिल नहीं था’। अपने इस लेख में करसनदास मूलजी ने महाराज जदुनाथ का नाम लेकर आरोप लगाये थे (वही, पृ. 336)। उन्होंने लिखा था कि जदुनाथजी ब्रजरत्नजी महाराज ने अपनी स्त्री अनुयायियों के साथ यौन संबंध बनाये हैं। यह बहुत गंभीर आरोप था और यही वजह थी कि जदुनाथ महाराज ने करसनदास मूलजी और सत्यप्रकाश के प्रकाशक नानाभाई रुस्तमजी राणिना के विरुद्ध मानहानि का मुक़दमा दायर कर दिया। जदुनाथ का कहना था कि इस लेख द्वारा लेखक और प्रकाशक ने उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा पर गहरी चोट की है और उनके अनुयायियों की भावनाओं को आहत किया है। उन्होंने हरजाने के तौर पर पचास हज़ार रुपयों की मांग की। वसुधा डालमिया के अनुसार,

‘इस मुक़दमे ने पूरे मुल्क में सनसनी फैला दी; आने वाले दशकों में कृष्ण भक्ति का कोई ऐसा विवरण नहीं मिलता जिसमें अदालत की कार्रवाइयों के दौरान प्रकाश में आयी बातों का उल्लेख न किया गया हो, भले ही उसका स्वर महाराजाओं के पक्ष में हो। इन कार्रवाइयों के दौरान यह बात साफ़ होकर उभरी कि महाराजा लोगों को अपने अनुयायियों की धन-संपदा और पत्नियां सहज उपलब्ध रहती थीं’ (वही, पृ. 336)।

करसनदास मूलजी के विरुद्ध दायर इस मुक़दमे के कारण उन्हें जान से मारने की धमकियां दी जाने लगीं। मानहानि का यह मुक़दमा आधुनिक काल के वारेन हेस्टिंग्स के बाद सबसे चर्चित और महान मुक़दमा माना गया।

वीरभारत तलवार ने वसुधा डालमिया और स्टाइनक्रोन की पुस्तक के आधार पर जुर्गन लुट को उद्धृत करते हुए लिखा है कि इस मामले की ‘सुनवाई के दौरान हज़ारों की भीड़ महाराजाओं के समर्थन में उमड़ती थी। मूलजी को पुलिस संरक्षण प्रदान करना पड़ा।…केस कई महीनों तक चलता रहा और सुनवाई के दौरान वल्लभ संप्रदाय की कई बुराइयों के सबूत सामने आते गये जो देश के सभी अख़बारों में छपे। रोंगटे खड़े कर देनेवाले ‘धार्मिक तथ्य’ सामने आये। भक्त परिवार की स्त्रियों के यौन शोषण के अलावा एक गवाह ने बतलाया कि उन्हें महाराजा द्वारा चबाये गये पान को अपने मुंह में डालकर चबाना पड़ता था। एक दूसरे गवाह ने बताया कि महाराजा जिस पानी से पांव धोते थे, उसी को उन्हें पीना होता था। एक डॉक्टर ने स्वीकार किया कि उसने एक महाराजा के यौन रोग (वेनरल डिजीज़) का इलाज किया था (वही, पृ.181)।

महाराज के विरुद्ध गवाहों को रोकने के लिए महाराज के प्रबंधकों ने भाटिया जाति के लोगों की बैठक की और एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें कहा गया था कि भाटिया जाति का कोई भी सदस्य अगर महाराज के विरुद्ध गवाही देता है तो उसे जाति से बहिष्कृत कर दिया जायेगा। इस प्रस्ताव को करसनदास मूलजी ने अदालत में यह कहकर चुनौती दी कि ऐसा एक साज़िश के तहत किया गया है। फ़िल्म में इस प्रसंग का उल्लेख तो है लेकिन इसे फ़िल्म में विस्तार नहीं दिया गया है। यह मामला भाटिया कांस्पिरेसी केस के नाम से जाना जाता है। इस संबंध में जस्टिस जोसेफ़ अर्नाल्ड ने नौ आरोपियों को दोषी पाया और उनमें से दो पर एक-एक हज़ार रुपये का और सात पर पांच-पांच सौ रुपये का जुर्माना लगाया गया। मुक़दमे पर होने वाले ख़र्च के एवज में करसनदास को एक हज़ार रुपये का भुगतान करने का भी आदेश दिया गया।

महाराज लाइबेल केस की सुनवाई 25 जनवरी 1862 को शुरू हुई और इसका फ़ैसला 22 अप्रैल 1862 को सुनाया गया। सुनवाई के दौरान महाराज की तरफ से इकतीस गवाह पेश किये गये, तो करसनदास और नानाभाई के समर्थन में 33 लोगों ने गवाही दीं। इन गवाहियों के कारण करसनदास और नानाभाई के विरुद्ध मानहानि का मुक़दमा ख़ारिज हो गया। महाराज का यह दावा, कि वे कृष्ण के अवतार हैं या अंश हैं, स्वीकार नहीं किया गया। फ़िल्म में किशोरी के मुख से महाराज जदुनाथ उर्फ़ जेजे को कृष्ण का वंशज कहा गया है। लेकिन इसे फ़िल्म में मुक़दमे का हिस्सा नहीं बनाया गया। जबकि फ़ैसले में जस्टिस अर्नाल्ड ने लिखा था, ‘इस मुक़दमे में प्रश्न धर्मशास्त्र का नहीं, नैतिकता का है। जिस सिद्धांत पर बचाव पक्ष और उनके गवाहों ने अपने तर्क प्रस्तुत किये हैं, वह सरल रूप से यह है कि जो नैतिक रूप से ग़लत है, वह धर्मशास्त्रीय रूप से सही नहीं हो सकता’। फ़ैसले में कही गयी यह बात बहुत ही महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यहां क़ानून का आधार धर्म को नहीं, नैतिकता को माना गया है, जो न्याय की एक आधुनिक संकल्पना है। फ़िल्म में इनसे मिलती जुलती बातें कही गयी हैं, लेकिन ठीक उस रूप में नहीं जिस रूप में मूल मुक़दमे के फ़ैसले में कही गयी थीं। जस्टिस अर्नाल्ड ने करसनदास और उनके साथियों की इस बात के लिए प्रशंसा की कि उन्होंने एक ताक़तवर और भ्रष्ट नेता के विरुद्ध दृढ़ इरादे के साथ संघर्ष किया और बुरे रिवाजों की सार्वजनिक रूप से भर्त्सना की और उनका पर्दाफ़ाश भी किया (उर्विश कोठारी के आलेख से)। कोर्ट ने करसनदास को मुक़दमे पर ख़र्च हुए 14,000 रुपये के एवज में 11,500 रुपये दिलवाये। इस मुक़दमे ने आगे के लिए एक नज़ीर स्थापित करके यह महत्त्वपूर्ण संदेश दिया कि क़ानून के आगे प्रत्येक व्यक्ति बराबर है, चाहे वह पुरोहित ही क्यों न हो।

फ़ैसले में वल्लभ संप्रदाय के पुष्टि मार्ग पर भी टिप्पणी की गयी थी। अंग्रेज जज, सर मैथ्यू साउस्से ने पुष्टिमार्ग के सिद्धांतों को मूल हिंदू मत के विपरीत बताया:

‘ये मत और नियम उन सिद्धांतों के विपरीत ठहरते हैं जिन्हें हम हिंदू धर्म के मूल सिद्धांत के रूप में जानते हैं और जो वेदों में बताये जाते हैं। वहां इस तरह के देहधारण की कोई चर्चा नहीं है, बल्कि सुविदित अवतार की चर्चा है और हिंदू क़ानून तथा नैतिक नियम विवाह से पहले की शील-पवित्रता तथा विवाहित अवस्था में एकनिष्ठता का संस्कार देते हैं। इसलिए, जहां तक पूरी बात के इस पक्ष पर हमारी राय का सवाल है, मुद्दालेह ने सफलतापूर्वक यह दिखाया है कि वल्लभाचार्य संप्रदाय के मत इन मामलों में पुरातन हिंदू धर्म के मतों से उलट है’ (मूलजी द्वारा उद्धृत, 1865, हिंदू परंपराओं का राष्ट्रीयकरण, पृ. 389-90)।

करसनदास मूलजी पर लिखी अपनी पुस्तिका में अच्यित याज्ञिक और मकरंद मेहता ने कहा है कि इस मुक़दमे ने इस परंपरागत धारणा को अस्वीकार कर दिया कि गौ और ब्राह्मण की रक्षा करना राज्य का दायित्व है। करसनदास ने 1857 में महिलाओं के लिए स्त्रीबोध नाम की पत्रिका प्रकाशित की और कुछ समय के लिए मुंबइनु बाज़ार (मुंबई बाज़ार) साप्ताहिक पत्र भी प्रकाशित किया। राजकोट राज्य के सहायक अधीक्षक के पद पर कार्य करते हुए उन्होंने विज्ञान और उद्योग से संबंधित विज्ञानविलास नामक मासिक पत्रिका भी निकाली। इस दौरान उन्होंने एक बार इंगलैंड की यात्रा भी की जिसका विवरण एक पुस्तक में लिखा। 1871 में केवल 39 वर्ष की अवस्था में करसनदास मूलजी का देहांत हो गया।

करसनदास मूलजी पेशे से पत्रकार थे और उनकी कलम को रोकने के लिए ही जदुनाथ महाराज ने मानहानि का मुक़दमा दायर किया था। जदुनाथ और दूसरे महाराज अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहते थे क्योंकि उनके पास धर्मसत्ता की ताक़त थी और उनको यह ताक़त मिल रही थी उन हज़ारों-हज़ार अनुयायियों से जो उन पर न केवल श्रद्धा रखते थे बल्कि उनकी कही हुई बात को अपने लिए आदेश मानते थे। ये अनुयायी अपने तन-मन-धन पर इन महाराजाओं का अधिकार समझते थे क्योंकि उनका विश्वास था कि ये कृष्ण के वंशज हैं। जिन जीवनलालजी महाराज ने अपने अनुयायियों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाये थे, उनके अनुसार, उनके विरुद्ध न बोलना था, न लिखना था और न ही उनके विरुद्ध मुक़दमा दायर करना था। लेकिन जदुनाथ महाराज, जो जीवनलाल महाराज वाले मामले से आश्वस्त थे कि उनके अनुयायी उनके विरुद्ध न खड़े हो सकते हैं और न ही संगठित हो सकते हैं और न कोर्ट में जा सकते हैं, उन्हें विश्वास था कि यदि वे स्वयं मानहानि का मुक़दमा दायर कर देंगे तो करसनदास मूलजी को कोर्ट से ही सज़ा दिलवायी जा सकती है। उनको विश्वास था कि कोर्ट उनके विरुद्ध नहीं जायेगा क्योंकि कोई भी अनुयायी उनके विरुद्ध गवाही देने का साहस नहीं कर सकेगा। इस तरह यह केस पत्रकारिता की स्वतंत्रता की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। करसनदास मूलजी और उनके प्रकाशक नानाभाई अत्यंत विरोधी परिस्थितियों के बीच भी न लिखना छोड़ते हैं और न ही सज़ा के डर से सच बोलने से पीछे हटते हैं। उनके इस साहस ने ही इस मुक़दमे को ऐतिहासिक और पत्रकारिता के इतिहास में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अप्रतिम मिसाल बना दिया है। इन्हीं महान पत्रकार और समाज सुधारक करसनदास मूलजी के जीवन और  मानहानि के मुकदमे को आधार बनाकर सौरभ शाह ने गुजराती में महाराज नामक उपन्यास की रचना की है। महाराज फ़िल्म इसी उपन्यास पर आधारित है जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है। फ़िल्म में कुछ ऐतिहासिक पात्र हैं जिनकी इस मुक़दमे में सक्रिय भूमिका रही हैं, लेकिन कुछ काल्पनिक पात्र हैं जिनके माध्यम से उपन्यास रचा गया है। हालांकि फ़िल्म की बहुत-सी घटनाएं करसनदास के जीवन में सचमुच घटित हुई थीं। कह सकते हैं कि उपन्यास चाहे जितना काल्पनिक हो, लेकिन उसके मूल में जो मुक़दमा है, वह न केवल सच्चा है बल्कि उससे जुड़े सारे मुद्दे ऐतिहासिक रूप से सच्चे हैं। यही नहीं, उपन्यास का फ़िल्म के रूप में जिस तरह रूपांतरण किया गया है, वह उसे हमारे समय के लिए प्रासंगिक भी बना देता है।

(जारी…)

jparakh@gmail.com


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