नौ कविताएं / प्रदीप अवस्थी


प्रदीप अवस्थी के पास गहरी उदासी की कविताएं हैं तो आक्रोश, संघर्ष और उम्मीद की भी। लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। प्रतिष्ठित वेब-पोर्टल्स पर समसामयिक मुद्दों, समाज और सिनेमा पर कई लेख प्रकाशित हुए हैं। कविताओं का एक साझा संकलन और एक उपन्यास, ‘मृत्यु और हंसी’ (2023)। विश्व-सिनेमा में गहरी रुचि रखनेवाले प्रदीप इन दिनों मुंबई में पटकथा-लेखक हैं।

 

विलासिता

यह भावुक होने का समय नहीं
जब
भावुकता भी विलासिता है

दो पत्थर उठाने हैं
और रगड़ते रहना है
जब तक
पैदा न हो आग।

 

क़त्ल जारी रहें

कोई नहीं देख रहा
जो देख रहा है
वह हंस रहा है या चुप है
जो मार कर चला गया
गौरवान्वित है

अच्छे और सभ्य लोगों तक
कभी कोई ख़बर नहीं पहुंचेगी

क़त्ल जारी रहें।

 

फिर कभी नहीं लौटे पिता

हिल्स ऑफ़ हाफ़लॉंग –
यही नाम लिखा था जगह का
सरकारी काग़ज़ों में

वॉलन्टरी रिटायरमेंट लेकर कोई लौटता है घर
बीच में रास्ता खा जाता है उसे
दुख ख़बर बनकर आता है
एक पूरी रात बीतती है छटपटाते
सुध-बुध बटोरते

अनगिनत रास्ते लील गये हैं सैकड़ों जानें
एक-दूसरे से अपना दुख छुपाकर रखने वाले अपने
कैसे रो पाते होंगे फूट-फूटकर भला

असम में लोग ख़ुश नहीं है
बहुत सारी प्रजातियां अपनी आज़ादी के लिए लड़ रही हैं
उनके लिए कोई और रास्ता नहीं छोड़ा गया है शायद
हथियार उठाना मजबूरी ही होती है यक़ीन मानिए
कोई मौत लपेटकर चलने को यूं ही तैयार नहीं हो जाता

आप देश की बात करते हैं
युद्ध की बात करते हैं,
देश तो लोग ही हैं ना!
उनके मरने से कैसे बचता है देश?

बॉर्डर पर, कश्मीर में, बंगाल में,
छत्तीसगढ़ में, उड़ीसा में, असम में,
मरते हैं पिता
उजड़ते हैं घर
बचते हैं देश!

अख़बारों में कितनी ग़लत ख़बरें छपती हैं, यह तभी समझ आया

सामान लौटता है
गोलियों से छिदा हुआ खाने का टिफ़िन
रुका हुआ समय दिखाती एक दीवार घड़ी
बचपन से ख़बरें सुनाता रेडियो
खरोंचों वाली कलाई-घड़ी
ख़ून में भीगी मिठाइयां
लाल हो चुके नोट
वीरता के तमग़े
और धोखा देती स्मृति

कितनी बार आप लौट आये
वह मेरी नींद होती थी या सपना या कुछ और
जब चौखट बजती थी और आप टूटी-फूटी हालत में आते थे
फिर कुछ दिनों में चंगे हो जाते थे
ऐसा मैंने कुछ सालों तक देखा
अब वे साल तक नहीं लौटते

हर बार सोचा कि
इस बार जब आप आयेंगे सपने में
तो दबोच लूंगा आपको
सुबह उठकर सबको बोलूंगा कि देखो
लौट आये पापा
मैं ले आया हूं इन्हें उस दुनिया से
जहां का सब दावा करते हैं कि नहीं लौटता कोई वहां से
ऐसी सोची गयी हर सुबह मिथ्या साबित हुई

काश! फिर आये ऐसा कोई सपना
फिर मिल पाए वही ऊर्जा एक घर को
जो पिता के होने से होती है

हे ईश्वर!
कोई कैसे यह समझ पैदा करे
कि बिना झिझके सीख पाये कहना
‘पिता नहीं हैं’

आख़िरी स्मृतियों में बचती है रेल
प्लेटफ़ार्म पर हाथ हिलाते हुए पिता का पीछे छूट जाना
उस आख़िरी साथ में पहली बार उन्होंने बताये थे अपने सपने

अंतिम बार वे नहीं आये
चार गोलियों से चार जगह छिदा
(दायीं जांघ, पेट, छाती और माथा)
उनका शरीर आया
और आया उनका बक्सा
सात साल पहले इसी दिन वे लौटे
हमने उन्हेँ जला दिया
फिर कभी नहीं लौटे
पिता।

(2007 की घटना को लेकर 2014 में लिखी गयी कविता)

 

देर तक मेरा फड़फड़ाना ज़िन्दा रहे

उम्मीद जितना घातक शब्द है
उतना ही सुंदर भी
और अगर याचना ही अंत है
तो तुमसे क्यों नहीं !

जैसे लड़खड़ाता था तुम्हारे पास आते-आते
तुमसे दूर जाते हुए भी वैसे ही लड़खड़ाता हूं
और मेरी चलने की चाह ख़त्म होती जाती है

किसी युद्ध में जैसे एक छोटा-सा बच्चा
अपनी जान बचाने के लिए बदहवास दौड़ता रहे
और छुपने की जगह मिलने पर
बैठ कर रो पाये चैन से
ऐसे
गोद नसीब हो तुम्हारी
बच्चे को मार जाये गोली कोई

जब मैं एक मासूम कबूतर हो जाऊं
तुम्हारे घर की खिड़की के एक कोने में
बनाऊं एक घर

मेरी उड़ने की मंशा और बंधे पंखों के बीच
देर तक मेरा फड़फड़ाना ज़िन्दा रहे।

 

नाश्ते में खाइये हमारे भविष्य

वे मुझे बार-बार एक सपने में ले जाकर खड़ा कर देते हैं
और उनसे कहते हैं कि वे हंसते हुए मेरे सामने से निकल जायें
इसके बाद मेरा हड़बड़ाना और ना सो पाना

हमसे कभी कहा नहीं गया
पूछने तक की हिम्मत बटोर भी नहीं पाये हम
लेकिन इशारों से समझाया गया
कि दुनिया को नहीं है तुम्हारी ज़रूरत
और हम ज़िद्दी बच्चे-सी बेशर्मी लिये
बजाते रहे कुण्डियां
मांगते रहे छांव

हर कसौटी पर खरा उतरना था हमें ही
हम भी आत्मघाती होने की हद तक डटे रहे
कि देखो
ज़रा-सा भी नहीं गलता हमारा दिल
दे तो रहे हैं इम्तिहान सारे हंसते हुए

आइये
अपने सुन्दर चेहरे और ख़ूबसूरत दिल लेकर
बिछाइये कसौटियों की कंटीली दरी
हम रंगीन सपने देखते हुए लोटेंगे उस पर
उफ़ ज़रा भी नहीं करेंगे
और दुखों से घिसता हुआ दिल लेकर
खरे उतरेंगे हर बार
सौ में पूरे सौ नंबर लायेंगे मास्साब
हथेली खोलकर खड़े हैं
चलाइये छड़ी और छील दीजिये
पीठ और छाती सब खुली है
नाश्ते में खाइये हमारे भविष्य

खंगालो समुन्दर
डामर पर तोड़ो पैर
घंटों आंखें गड़ाये दीवारों में ढूंढ़ो जवाब
आंखों का पानी पीते चबाओ रोटी के टुकड़े
रह-रहकर सुखाओ धड़कन
हर यातना सजाओ माथे पर
अब चुप रहो
अब मुस्कुराओ
अब ख़ुश हो जाओ

तजुर्बे कितने, कब, क्या
ज़लील उतने
जितना वे कहें
जो पलटकर ना देखें एक भी बार

और उन सबके लिए जिन्होंने नहीं रखा कोई भी वास्ता
गले में छाले पड़ गये हैं तुम्हें दुआएं देते-देते
कोई दुख तो नहीं अब!
ख़ुश तो हो न!
हंसते तो हो!

 

बदहवासी

फ़ुटपाथ पर बैठा चिंघाड़ता
आवाज़ लगाता
आवाज़ का गला घोट देता मेरा गला
उठ कर दौड़ना चाहता तुम्हें रोकने
निर्दयता से चिल्लाती तुम्हारी आवाज़ों की रस्सी
बांध देती मेरे पैर
बादल घिरने लगते
एक कोयल की मीठी आवाज़ को ढक देती एक कव्वे की कर्कश आवाज़
दूर कहीं जंगल में एक हिरण का शिकार होता
दिल्ली में फैलता ज़हरीला धुआं
मेरा दम घुटता

बसों और रेलों में लौटता हुआ
रास्ते भूलता और काली बिल्लियों को घूरता
उखड़ती सांसों और कराहों के शोर से बचने के लिए
मांगता बर्फ़, रगड़ता कानों पर
फ़ोन पर सुबकता, आईना चूमता
तुम्हारी ख़ुशबू में सने फ़र्श पर लोटता, उसे सहेजता
पीठ टंगी रह गयी जहां दीवार में तुम्हारी
जीभ सटा कर बिलखता
पत्थर उठाता, घिसता अपना जिस्म
मर जाता

प्यार करता।

 

माफ़ी मेरी दोस्त

जब एक-एक दिन बिताना
एक युद्ध लड़ने जैसा था
जो मैं लड़ता ही रहता था
भीतर गहरी उथल-पुथल और
आवश्यकता से अधिक शांत और भावहीन चेहरा लिए
जैसे एक संघर्ष में हूँ लगातार और किसी को पता नहीं चलना चाहिए
तब प्यारी और रोमैंटिक बातें नहीं कर पाने के लिए
माफ़ी मेरी दोस्त

न तुम्हारा चाहना ग़लत था
न मेरी सूखती जाती इच्छाएँ

समय ही शायद ग़लत रहा होगा
हमेशा ही ग़लत रहा जो कमीना

यही कहना होगा
जब कुछ बचेगा नहीं कहने के लिए।

 

देखो! कितना बौराया हूं मैं

यह आक्रामक चेहरा लिये घूमते लोगों का समय है
जहां वे शब्द याद रखते हैं
क्या बोलना है भूल जाते हैं
हर कोई किसी दूसरे को
ख़त्म करने की गुहार लगा रहा है
हर अपराध का
हर न्याय का
एक ही तरीक़ा रह गया है – बर्बरता

और मैं आंखों में कटार लिये हुए भी
तुम्हें बाहों में लपेटकर चूमने की हिम्मत रखता हूं

ख़बरें तलवार बनकर दिमाग़ में घुस रही हैं
और मज़हब नफ़रत चढ़े ख़ंजर की तरह
नसों में उतारा जा रहा है
लोगों का उल्लास भी अब डराता है
कोहराम यहां का नया नारा है

देखो!
कितना बौराया हूं मैं
सब तो ठीक है
यहां इस कमरे में
मेरी आंखों के आगे नहीं हुआ आज तक कोई बलात्कार
ना ही कोई रेल गुज़री
किसी का सिर काटते हुए इस कमरे से
तकिये से मुंह दबाकर सांसें रोकने
और छटपटाते पैरों का दृश्य भी फ़िल्मों में ही देखा है
और मेरी आंखों के सामने
आरा मशीन में डालकर पीसा भी तो नहीं गया
अपने पैसे मांगने पर किसी मज़दूर को
बस नींद ही तो नहीं आती मुझे

और तुम कहती हो
प्यार बचा लेगा इस दुनिया को।

 

…इतने में ख़ुदकुशी की ख़बर आती है

सूरज जब डूबता है
कौन छीन लेता है उससे उसकी चमक

कोई दो बजे का वक़्त होगा रात में
या जितना भी आप रखना चाहें
रोता है कुत्ता
बड़ा मनहूस कहते हैं लोग पर कौन जाने
कांच चुभ गया हो पैर में कहीं

मेरे सोते हुए शरीर में से उठकर चल देता है एक शरीर
और दिन-भर बैठ कर मुझे देखा करता है
मैं भाग बस उसी से रहा हूं
कई सारे कटे-फटे निशान हैं उसकी नंगी छाती पर
और तुम मनाये जाने की गहरी इच्छा लिये रूठती हुई
कंधे झटकती हो मेरी हथेलियों से तो रुक जाता है मेरा भागना
अपनी आंखें रख देता हूं तुम्हारे सीने में
तो रास्ता बदल लेती हैं मुफ़लिसियां

अजनबी शहर से लौटते बार-बार
अजनबी होते जाते घर की ओर
ठहरने और लौटने की कश्मकश में
कट-कटकर गिरते थोड़े यहां-वहां

…इतने में ख़ुदकुशी की ख़बर आती है
मैं पिछली बार के घावों पर बर्फ़ घिसता चला जाता हूं
जैसे बचपन में नहलाते समय मां
कोहनी का मैल छुड़ाने के लिए रगड़ती थी ईंट का टुकड़ा
दुनिया की सारी बर्फ़ पिघल रही है मां
और मैं अपने दिनों की उल्टियों में जी रहा हूं
ऊपर से इन ख़बरों ने दूभर कर दिया है जीना
विदा दो….

भाषा असमर्थ हो जाती है
शब्दों की पीठ पर लदे अर्थ फिसलने लगते हैं
रुदन अपने लिए होता है
अपने भीतर के ताप को कम करने के लिए
ताप इतना आता कहां से है

मत कहना।

awasthi.onlyme@gmail.com


1 thought on “नौ कविताएं / प्रदीप अवस्थी”

  1. अच्छी कविताएं। बधाई।
    समय को समझने, पकड़ने की कोशिश।

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