गुरमीत कड़ियालवी की यह पंजाबी कहानी 1913 से 1919 तक पंजाब के लेफ़्टिनेंट गवर्नर रहे माइकल फ्रांसिस ओ’ड्वायर की पत्नी ओना ओ’ड्वायर के अवलोकन बिंदु से उधम सिंह द्वारा 1940 में उसके मारे जाने की घटना को प्रस्तुत करती है। यह वही लेफ़्टिनेंट गवर्नर था जिसने जनरल डायर के जालियां वाला बाग कांड को सही ठहराया था। ओना की चेतना के झरोखे से 1919 और 1940 की घटना को देखने-दिखाने वाली इस कहानी का अनुवाद किया है राजेंद्र तिवारी ने।
1968 में जन्मे गुरमीत कड़ियालवी पंजाबी के प्रतिष्ठित कथाकार हैं। उनके छह कहानी-संग्रह, एक उपन्यास, और बाल-साहित्य की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं।
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माइकल फ्रांसिस ओ’ड्वायर मीटिंग में जाने के लिए तैयार होने लगा तो ओना का दिल डूबने लगा। डर तो पहले भी लगता रहता था, पर आज आम तौर से कुछ ज़्यादा ही घबराहट हो रही थी। एक बार तो ओना का मन हुआ था कि पति को सख़्ती से रोके, पर वह ओ’ड्वायर के कठोर और रूखे स्वभाव से सहमती थी। उसने झिझकते-झिझकते माइकल को दबी जबान से मीटिंग में न जाने की सलाह दी थी।
“माइकल, यदि चल सके तो जाने का प्रोग्राम कैंसिल कर दो। मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है,” ओ’ड्वायर को रोकने के लिए ओना ने अपनी तबीयत ख़राब होने का बहाना बनाया था।
“यू नो! मेरा जाना कितना ज़रूरी है। कैक्सटन हॉल में इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसाइटी की संयुक्त और महत्वपूर्ण मीटिंग है। यू नो, कैसे लोग आ रहे हैं मीटिंग में? मीटिंग की अध्यक्षता लारेंस डूंडास मार्कुअस ऑफ़ जैटलैंड कर रहा है जो उन्नीस सौ सत्रह से उन्नीस सौ बाइस तक बंगाल का गवर्नर रहा है और सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फ़ॉर इंडिया के पद पर रहने के कारण हिंदुस्तानी मामलों के बारे में उसकी विस्तृत जानकारी है। ऐंड यू नो, बांबे का गवर्नर रहा लार्ड लमिंगटन और मुझसे पहले पंजाब का लेफ्टीनेंट गवरर्नर रहा लुइस डेन भी विशेष तौर पर आ रहे हैं।”
“क्या आपका जाना अत्यावश्यक है?” ओना की आवाज़ बड़ी मद्धम थी। उसके माथे पर पड़ी सिकुड़नें और गहरी हो गयीं। वह माइकल से बातें करती अक्सर इन रिटायर हुए बूढ़े नौकरशाहों का मज़ाक़ उड़ाया करती थी। वह ब्रिगेडियर जनरल परसी साइकस को मानसिक रोगी, लूईस डेन को लंबे कानों वाला बुड्ढ़ा और लार्ड लमिंगटन को मक्खीचूस कहा करती थी। ओना सबसे अधिक नफ़रत लार्ड जैटलैंड से करती थी। जब माइकल पंजाब का लेफ्टीनेंट गवर्नर था, लार्ड जैटलैंड बंगाल का गवर्नर हुआ करता था। ओना जानती थी कि माइकल के अधिकतर फ़ैसलों पर इसी खबीस और अकड़बाज बुड्ढे लार्ड जैटलैंड का असर होता था।
‘यू नो तू क्या कह रही है? मैं इस मीटिंग का हीरो होऊंगा। आई मीन रियल हीरो। यू नो, पूरे संसार की सिच्यूएशन कितनी क्रिटिकल है। नाज़ी हिटलर आगे ही आगे बढ़ता चला आता। अफ़गानिस्तान की मौजूदा स्थिति भी ब्रिटिशर्स के लिए बड़ी महत्वपूर्ण है। मीटिंग में इन तमाम मसलों पर विचार होना है। क्या मेरा वहां होना ज़रूरी नहीं है?” माइकल ओड्वायर ने पत्नी ओना की आंखों में झांकते हुए उल्टा उससे ही सवाल किया था। ओना ने देखा, माइकल की आंखें मरुस्थल बनी हुई थीं जिनमें दूर-दूर तक पानी नहीं था। ओना पिछले तीन दशकों से ऐसी ही खुश्क आंखों का सामना करती आ रही थी। कभी कभी तो उसको ओडवाइर के सख्त़ चेहरे और खुश्क आंखों से डर लगने लगता था।
“यू नो! मैं इस विचारधारा का हूं कि जहां कहीं भी गड़बड़ हो, तुरंत सख़्ती के साथ दबा दिया जाये। यू नो, बागियों से निबटने के मामले में तो मेरे मतभेद लार्ड हार्डिंग वायसराय से भी रहे हैं। मैं फांसी की सज़ा वाले 24 गदरियों में से 17 की सज़ा घटाकर उम्रकैद में बदल देने के वायसराय के फ़ैसले से सहमत नहीं हुआ था। मैं अपने अफ़सरों को अक्सर ही शेख सादी का कोटेशन सुनाया करता था- यदि नदी के किनारे तटबंध में छेद हो जाये तो छोटे-से ढेले से बंद किया जा सकता है, यदि बंद न किया गया तो यह हाथी को डुबो देने वाला कटाव बन सकता है,” माइकल ओ’ड्वायर के होठों पर हल्की-सी मुस्कान आयी। जिस ढंग से उसने शेख सादी का कथन उद्धृत किया था, ओना को माइकल की मुस्कान जहरीली लगी थी।
“इन बातों का आज की मीटिंग से क्या संबंध है?”
“बड़ा गहरा संबंध है। यू नो, हिटलर हमारे साम्राज्य के लिए कितना बड़ा ख़तरा बन गया है। उधर, इंडिया में कांग्रेस ने अपना आंदोलन तेज़ कर दिया है। ऐसे हालात में कांग्रेस और उसके लीडरों के प्रति किसी तरह की नरमी वाला व्यवहार बिल्कुल ठीक नहीं है। आज के ब्रिटिश रूलर्ज को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि इतना बड़ा साम्राज्य रातों-रात खड़ा नहीं हुआ, इसके वास्ते हमारे पुरखों को बहुत खून बहाना पड़ा है। लेबर पार्टी के नेता देश को इंडिया के प्रति पॉलिसी तब्दील करने की सलाहें देते हैं। कुछ नेता तो इंडिया को आज़ाद कर देने की बातें भी करने लगे हैं। क्या यह ठीक है? क्या हम लाखों गोरे लोगों की कुर्बानियों की बदौलत काले लोगों को जीत कर खड़ा किया गया विशाल साम्राज्य तबाह होता देख कर चुप रह सकते हैं?” माइकल ओ’ड्वायर ने टेबल पर इतने जोर का मुक्का मारा कि ओना डर गयी।
“आपकी उम्र अब पचहत्तर साल हो गयी है। आपको अंदर बाहर आते-जाते रहने की अपेक्षा आराम की अधिक ज़रूरत है। जो कुछ आप कह रहे हो, क्या यह कहने के लिए ही मीटिंग में जाना है? यह तो आप प्रधानमंत्री या सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट को पत्र लिख कर भी कह सकते हो। पत्र की वैसे भी एक डाक्यूमेंटरी महत्ता होती है। फिर सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट को फोन भी कर सकते हो। आपने पहले भी तो कई बार ऐसा किया है,” ओना ने अपनी ओर से जैसे अंतिम हथियार चलाया, यद्यपि वह जानती थी कि माइकल ओ’ड्वायर के फ़ैसले लोहे पर लकीर होते हैं। अब यदि उसने जाने का फ़ैसला कर ही लिया था तो उसको रोक सकना किसी भी तरह मुमकिन नहीं था।
“ओना डार्लिंग!” ओ’ड्वायर का लहजा एकदर्म नर्म हो गया। ओना माइकल का स्वभाव जानती है, वह जानती थी कि माइकल अब कोई बहुत क्रूरता भरी शेखी बघारेगा।
“यू नो, यदि सारी बातें पत्रों या फोनों द्वारा की जा सकतीं तो मीटिंगों और कॉन्फ्रैंसों की आवश्यकता ही क्या थी? मुझे मीटिंग में तेरह अप्रैल 1919 की घटना के बारे में बताना है। यू नो, तेरह अप्रैल उन्नीस सौ उन्नीस, बैशाखी वाले दिन की ब्रिटिश इतिहास में क्या महत्ता है? यह दिन इंडिया में ब्रिटिश साम्राज्य की उम्र लंबी करने वाले दिन के तौर पर जाना जाता है।”
“ओह माई गॉड!” ओना की छाती में बायीं तरफ़ दर्द उठा। उसने दोनों हाथ छाती पर रख लिये।
“इंडिया के लोग इस दिन को सदियों तक याद रखेंगे। जालियां वाले बाग की घटना को याद करके कांपते रहेंगे। यू नो, मेरे हुक्म पर ब्रिगेडियर जनरल रैज़ीनल ऐडवर्ड डायर ने बग़ावत की चिनगारियों को ज्वाला बनने से पहले ही दबा दिया था। यह डायर की एक निर्णायक कार्रवाई थी। क्या नज़ारा था ! घायलों को कोई पानी देने वाला भी नहीं था वहां। डायर ने ब्लडी इंडीयन्ज को अच्छा सबक़ सिखाया था।”
“नो माइकल नो! वह समय याद न करवाओ। क्या यह अच्छा था? क्या ऐसा करना ज़रूरी था? तुम्हें इस क़त्लेआम पर गर्व क्यों है?”
“यू नो, कर्नल जेम्ज़ क्या कहता है? उसका कथन है कि तुम बाघ को नरमी से नहीं मार सकते। तुम चाय की प्याली से दहकी आग नहीं बुझा सकते। ओना डार्लिंग! हमने क्रुद्ध चीते को मारने के लिए सख्त़ी की थी। यूं ही थोड़ी-सी सख़्ती। इससे अधिक भी की जा सकती थी। हमने बग़ावत की दहकी आग को बुझाने के लिए चाय की प्याली का उपयोग नहीं किया था, पूरा महासागर बग़ावतियों पर उड़ेल दिया था। अब तू ही बता, जालियां वाले बाग की घटना पर गर्व क्यों न करें?” माइकल ओ’ड्वायर की आंखों का मरुस्थल फैल कर और डरावना तथा भयानक हो गया था।
“ओना डार्लिंग- यू नो! मेरा लोहे जैसा पक्का विश्वास है कि हमारे देश के लोग मुझे ‘सेवियर ऑफ़ द ब्रिटिश रुल इन इंडिया’ के तौर पर सम्मान देते रहेंगे। तब भी जब मैं इस दुनिया में नहीं होऊंगा। जब तक दुनिया रहेगी। ‘सेवियर ऑफ़ द ब्रिटिश रूल इन इंडिया’। हा हा हा! क्या यह गर्व करने वाली कोई छोटी बात है?”
ओना का अंतःकरण गुस्से और दर्द से भर गया। गला कड़वा हो गया जैसे कुनेन की गोली कंठ में अड़ गयी हो। उसका मन हुआ कि कहे, “जिन लोगों के भीतर से मनुष्यता और मुहब्बत बिल्कुल ही मर जाये, ऐसी बातें वे लोग ही कर सकते हैं। जिनकी आंखों में पानी नहीं तेजाब हो और जिनके दिमाग़ में हर समय भेड़िये गुर्राते हों, वे किसी भी क़त्लेआम पर गर्व कर सकते हैं।” पर वह कह न सकी। वह जानती थी कि बोलने का कोई फ़ायदा नहीं होना।
“मिलते हैं। आकर चाय पियेंगे साथ,” कहते हुए फ्रांसिस माइकल ओ’ड्वायर द्वार से बाहर हो गया था। ओना पत्थर का बुत बन कर खड़ी जाते हुए माइकल को देखती रही। वह पति को ‘अपना ख़याल रखना’ भी नहीं कह सकी थी जो माइकल के बाहर जाते वक़्त अक्सर कहती थी।
माइकल के जाने के बाद ओना का जी भी घर में न लगा, वह नौकरानी मार्था को बता कर लाइब्रेरी जाने के लिए घर से निकल आयी। वापसी पर उसने घरेलू उपयोग के लिए कुछ सामान ख़रीदने के बारे में भी सोचा। तब ओना को नहीं पता था कि उसको संदेशा भेज कर बुलवाया जायेगा।
ओना के घर में घुसते ही मार्था ने मुंह पर हाथ रखकर बाहर आती चीख़ को बड़ी मुश्किल से रोका। उसकी आंखें रोने के कारण लाल हुई पड़ी थीं। किसी अनहोनी घटना के घटित हो जाने के भय के कारण ओना सोफ़े पर ढह पड़ी थी।
“क्या हुआ मार्था? क्या कुछ बुरा घटित हुआ? तू इतनी भयभीत क्यों है?” ओना ने पूरी हिम्मत के साथ अपने-आपको सोफ़े पर से खड़ा करते हुए पूछा था।
“अच्छी खबर नहीं है।”
“क्या है? बताती क्यों नहीं?” ओना की धड़कन तेज़ हो रही थी।
“माइकल सर को किसी सिरफिरे ने गोली मार दी है।”
“उफ़! एक न एक दिन यह होना ही था, मार्था,” ओना फिर धड़ाम से सोफ़े पर गिर पड़ी। मार्था भाग कर पानी का गिलास ले आयी और ओना के मुंह से लगा दिया।
“अपने आपको संभालो, मैम! कुछ नहीं होगा सर को। बड़ी जल्दी ठीक हो जायेंगे। परमेश्वर आपके सुहाग की रक्षा करेंगे,” मार्था ने झिझकते झिझकते मालकिन का कंधा पकड़ लिया। जिस भावना से मार्था ने कहा था, उसने ओना को पिघला कर रख दिया था। उसको कुछ वर्ष पहले मार्था के पति की मौत याद आयी। तब रोती हुई मार्था को हौसला देने के लिए ओना ने भी बिल्कुल इसी तरह उसका कंधा दबाया था।
“मार्था, किसका फोन था?”
“कोई डफ़रन नाम का सार्जेंट था।”
“तेरे माइकल सर जीवित तो हैं?” मार्था को हैरानी हुई कि ओना मैम ने यह शब्द इतनी आसानी से कैसे कह दिये थे!
“डफ़रन ने सिर्फ़ इतना कहा कि सर को दो गोलियां लगी हैं। गोलियां लगते ही वह नीचे गिर पड़े,” माइकल ओ’ड्वायर की मौत वाली बात को छिपा कर मार्था ने अधूरा सच कहा।
“गिर पड़े? और कुछ नहीं बताया?”
“हमलावर ने दो गोलियां जैटलैंड सर को भी मारीं। एक गोली लैमिंगटन के दाहिने हाथ में और एक सर लुईस की बांह में लगी है।”
“हमलावर को पकड़ लिया है या मार दिया है? क्या वह कोई इंडियन बॉय है?”
“डफ़रन के मुताबिक हमलावर ने भागने की कोशिश ही नहीं की और अपने-आपको गिरफ़्तारी के लिए पेश कर दिया। वह गिरफ़्तारी के समय नारे लगा रहा था।”
“कैसे नारे?”
“इंक़लाब ज़िंदाबाद-इंग्लैंड मुर्दाबाद-साम्राज्यवाद मुर्दाबाद! इंक़लाब…,” मार्था को जो कुछ भी सार्जेंट से पता चला था, उसने बता दिया।
“इंक़लाब ज़िंदाबाद-इंग्लैंड मुर्दाबाद-साम्राज्यवाद मुर्दाबाद! इंक़लाब ज़िंदाबाद-इंग्लैंड मुर्दाबाद-साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!इंक़लाब ज़िंदाबाद-इंग्लैंड मुर्दाबाद-साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!”
ओना के कानों में नारों की आवाज़ें गूंजने लगीं। उसने हैरान होकर आस पास देखा, वहां तो कोई भी नहीं था। फिर ये आवाज़ें कहां से आ रही थीं?
“मार्था! तेरा माइकल सर साम्राज्य का बहुत बड़ा प्यादा था। मुझ डर था कि बेगुनाहों का ख़ून किसी-न-किसी दिन बारूद बन कर माइकल की मौत का कारण बनेगा। जिस दिन अमृतसर के जालियां वाले बाग में शांतिपूर्ण ढंग से मीटिंग कर रहे हज़ारों बेगुनाहों को मौत के घाट उतार दिया गया था, यह डर उस दिन से ही अपने साथ उठाये फिरती आ रही थी। आख़िर मेरा डर सच्चा साबित हुआ। समय बड़ा बेलिहाज़ है, मार्था! तुम्हारी हर ज़्यादती का जवाब ज़रूर देता है,” ओना पागलों-सी बोले जा रही थी।
“तेरे माइकल सर जा चुके हैं, मार्था… बहुत दूर। जहां जाकर कोई वापस नहीं लौटता। ओना की हालत देखते मार्था का धैर्य भी टूट गया, वह फूट फूट कर रोने लगी। जब दिल हल्का हो गया तो ओना सोफ़े से उठकर दीवार पर लटकती माइकल ओ’ड्वायर की फोटो के आगे जा खड़ी हुई।
“समझ में नहीं आता, माइकल, तू एक प्यार भरी रूह से पत्थर के जिगर वाली हत्यारी मानसिकता में कैसे तब्दील हो गया?”
मार्था हैरान थी कि ओना मैडम इतनी जल्दी इतना सहज कैसे हो गयी थी।
“मिस्टर फ्रांसिस माइकल ओ’ड्वायर! तू कितना खूबसूरत और जवान था। भरे हुए शरीर वाला एक तेज़, ज़हीन नौजवान। मैंने जिस माइकल को प्यार किया था- वह मुहब्बत से आकंठ भरा था। समझ में नहीं आता, मुहब्बत
से भरा हुआ तेरा खूबसूरत दिल नफ़रत और हैवानियत से कैसे भर गया?” ओडवाइर की तस्वीर से बातें करती ओना बहुत दूर चली गयी थी।
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चौदह मार्च सन् उन्नीस सौ चालीस के अख़बार टेबल पर बिछे पड़े हैं। यद्यपि ख़बरें पढ़ने को ओना का बिल्कुल ही मन नहीं करता, पर नज़र स्वयमेव माइकल ओ’ड्वायर पर हुए हमले वाली ख़बरों पर चली जाती है।
“सर के हत्यारे को फांसी लगेगी,” मार्था चाय का कप टेबल पर रखते ओना के सामने वाली कुर्सी पर बैठ गयी। ओना ने खाली-खाली नज़रों से घूर कर मार्था की ओर देखा। उसके द्वारा कहा गया ‘हत्यारा’ शब्द ओना के ज़ेहन में कहीं अटक गया। न चाहते हुए भी उसने राजधानी से छपने वाला सबसे मशहूर अख़बार ‘द डेली मिरर’ उठा लिया। अख़बार के पहले पन्ने पर दो बॉक्स बनाये हुए थे। एक बॉक्स में ओडवाइर तथा दूसरे में हमलावर की फोटो छपी हुई थी। ओना ने मन-ही-मन में दोनों फोटुओं को एक दूसरे से मिला कर देखा।
“इनमें से लंबे समय तक कौन जीवित रहेगा?” यह विचार ओना के दिमाग़ में कश-म-कश पैदा करने लगा। उसको पंजाब में रह चुके लेफ्टीनेंट गवर्नर माइकल फ्रांसिस ओ’ड्वायर का क़द हमलावर के मुक़ाबले कहीं छोटा महसूस हुआ।
“हत्यारे को फांसी लगेगी” मार्था के शब्द बार बार दिमाग़ में उपद्रव मचाने लगे थे। फांसी का ख़याल आते ही दुनिया भर के क्रांतिकारी उसकी आंखों के आगे से गुज़र गये।
उन दिनों में ओना पंजाब में ही थी जब गदर पार्टी के अगुवा नेता करतार सिंह सराभा को उसके साथियों समेत सेंट्रल जेल लाहौर में फांसी पर लटकाया गया था। फांसी के अगले दिन, सत्रह नवंबर उन्नीस सौ पंद्रह के अख़बारों में चारों तरफ़ इन गदरी नौजवानों की ही चर्चा थी। अख़बारों ने, हँसते हुए कर्तार सिंह सराभा की फोटो लगायी थी।
ओना की आंखों के सामने लाहौर जेल में फांसी के तख्ते पर झूलते सरदार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के चेहरे भी आये। इंग्लैंड के अख़बारों में इन तीनों की तस्वीरें छपी थीं। तब तक वह ओ’ड्वायर के साथ लंदन आ चुकी थी। उस दिन वह माइकल के साथ सोफ़े पर बैठी थी। माइकल ने भगत सिंह की फांसी वाली ख़बर पढ़ कर सुनायी थी।
“यू नो, भगत सिंह और बी.के. दत्त ने नेशनल एसेंबली में बम धमाका किया था। यह हिज़ मैजिस्टी के ख़िलाफ़ सीधी सीधी बग़ावत थी। इनको तो फांसी से भी बड़ी सज़ा मिलनी चाहिए थी,” माइकल ने गुस्से और नफ़रत से दांत पीसे थे। माइकल की आवाज़ इन क्रांतिकारियों के प्रति तिरस्कार भरी थी किंतु ओना की सिर सम्मान में झुक गया था। उसको अपने मायके के देश फ्रांस का क्रांतिकारी नेता वेलां याद आया।
“हाकिमों के बहरे कानों को अवाम की आवाज़ सुनाने के लिए धमाका करने की ज़रूरत पड़ती है। फ्रांसीसी क्रांतिकारी वेलां ने भी ऐसा ही किया था,” ओना के मुँह से स्वयमेव निकल गया। माइकल ओ’ड्वायर उसके मुंह की ओर देखता रह गया था। उसका चेहरा और सख्त़ हो गया था।
“यू नो, तू हमेशा क्रांतिकारियों का पक्ष लेती है। कभी फ्रेंच क्रांति की बातें करने लगती है, कभी रूस में इंक़लाब करने वालों की कहानी छेड़ देती है और कभी आइरिश रिपब्लिकन आर्मी के बाग़ियों की पक्षधर बन बैठती है।”
“क्योंकि मेरी रगों में फ्रांस के क्रांतिकारियों का खून है – दुनिया की पहली क्रांति मेरे देश में ही तो हुई थी। मुझे फ्रांसीसी होने पर गर्व है।”
“क्या तुझे ब्रिटिश लोगों से नफ़रत है?” माइकल की भंवें तन गयी थीं।
“यदि मैं ब्रिटिशर्ज़ से नफ़रत करती होती तो तुझसे ब्याह करने का फ़ैसला करती? यदि कर ही लिया था तो तेरे बच्चों की मां क्यों बनती? क्या इतना समय इकट्ठे तेरे साथ बिता सकती? और स्पष्ट करती हूं- क्रांतिकारी अच्छी ज़िंदगी के लिए लड़ते हैं और अच्छी ज़िंदगी के लिए लड़ने वाले किसी से नफ़रत नहीं करते। हां, मनुष्यों को कीड़े-मकोड़े समझने वालों से नफ़रत ज़रूर की जा सकती है।”
“क्या क्रांतिकारी होना गर्व की बात है? यू नो, भगत सिंह और उसके साथियों ने नाहक खून बहाया था?”
ओना कितनी ही देर तक माइकल की आंखों में देखती रही। वहां नफ़रत के सिवा कुछ नहीं था।
“दूसरे देश पर बलात् क़ब्ज़ा करने वाले निर्दोष होते हैं? नाहक खून किन लोगों ने बहाया है, यह तुम मुझसे ज़्यादा अच्छी तरह जानते हो। वैसे यह सवाल तुम जैसे पूर्वाग्रही लोग अक्सर उठाते रहते हैं और समय समय पर उठाते रहेंगे। माइकल, मैं तो हैरान हूं तुम पर।”
“किस बात से?”
“आइरिश रिपब्लिक आर्मी वाले बाग़ी कितने समय से आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। तुम आइरिश होने के बावजूद बाग़ियों की हिमायत नहीं करते। हिमायत तो एक तरफ़, तुम तो क्रांति के नाम से ही सहम जाते हो। मुझे तो यक़ीन नहीं होता कि तुम आइरिश हो भी?”
“मुझे क्रांति और क्रांतिकारियों से नफ़रत है। ओना, हम चौदह बहन-भाई थे। बड़ा फार्म हाउस था हमारा। मेरे पिता जोहन का घर आइरिश बाग़ियों ने जला दिया क्योंकि मेरे पिता ने बाग़ियों का साथ देने से मना कर दिया था। कितना बड़ा कुसूर था यह?” माइकल की बात सुनकर ओना के उदास चेहरे पर व्यंग्यपूर्ण मुस्कान आ गयी।
“कुसूर तो जालियां वाले बाग में शांतिपूर्ण मीटिंग कर रहे लोगों का भी कोई नहीं था जिनको तुम्हारी पुलिस और फ़ौज ने अंधाधुंध फायरिंग करके मौत के घाट उतार दिया था।”
“तू यह क्यों भूल जाती है कि जनरल डायर की कार्रवाई के बाद पंजाब के उच्च धार्मिक अगुवाओं ने विशेष तौर पर उसे सम्मानित किया था,” ओ’ड्वायर के चेहरे पर मुस्कान उभरी थी।
“इससे डायर का जुल्म जस्टीफ़ाई तो नहीं हो जाता? यूं तो हिंदुस्तान के कितने ही लोग हैं जो जागीरों, रुतबों, ख़िताबों और खैरातों के लालच में तुम्हारा साथ देते हैं। साथ ही नहीं देते, अपने हमवतनी देशभक्तों के साथ गद्दारियां भी करते हैं। फिर तुम भी यह क्यों भूल जाते हो?”
“क्या?”
“कि ब्रिटिश पार्लियामेंट में इस घटना की ज़ोरदार निंदा की गयी है। विंस्टन चर्चिल, जिसको तुम शराबी लेखक कहते हो, वह तुमसे लाख दर्जे अच्छा निकला जिसने पार्लियामेंट में इस घटना को भयानक और मनहूस कहते हुए निंदा की। पूर्व प्रधानमंत्री हैनरी ऐकुस्थ भला क्या बोला? उसने डायर की हरक़त को अति घिनौनी और अत्याचारी कहा है। डायर को सम्मानित करने वाले तो याद हैं तुम्हें – गीतांजलि वाला नोबल पुरस्कार विजेता रवींद्र नाथ टैगोर क्यों याद नहीं, जिसने घटना के विरोध में ‘सर’ का ख़िताब तुम्हारी सरकार के मुंह पर फेंक मारा। डीयर माइकल, यह एवार्ड तुम्हारी सरकार ने ही दिया था।”
“तुम सदा रांग सोचती हो।”
“तुम उपनिवेशवादी लोग जिसको रांग कहते हो, असल में वही राइट होता है।”
“यह कोई चाय की प्याली में आया उबाल नहीं था बल्कि बड़ी बग़ावत की तैयारी थी। तुझे कितनी बार स्पष्ट कर चुका हूं कि यदि रैज़ीनल डायर लोगों पर गोली चलाने का हुक्म न देता तो बाग़ियों के हौसले बहुत बढ़ जाने थे।”
“फिर क्या होता? यही कि माइकल ओ’ड्वायर जैसे गोरी नस्ल के तानाशाहों को राजाओं-महाराजाओं जैसी ऐश्वर्यपूर्ण ज़िंदगी छोड़ कर वापस अपने वतन इंग्लैंड लौटना पड़ता। यही कि इंडियन लोग उपनिवेशवादी गुलामी के जुए से मुक्त होकर आज़ाद फ़िज़ा में सांस लेने लगते।” ऐसे मौक़ों पर ओना की आवाज़ सख्त़ हो जाती थी। उस समय उसको सख्त़ स्वभाव वाले माइकल ओडवाइर की भी परवाह नहीं होती। वह अपनी बात निस्संकोच कह देती थी।
“यू नो, हिंदुस्तान के जाहिल और असभ्य लोग मुल्क को संभालने के योग्य नहीं है। तू सोच यदि हिंदुस्तान के लोग असभ्य और निकम्मे न होते तो हम मुट्ठी भर लोग हज़ारों मील दूर से आकर यहां राजसत्ता पर अधिकार जमा लेते? ओना डार्लिंग, इस बात को समझ कि हमारा हिंदुस्तान पर राज करना ईश्वरीय इच्छानुसार ही है। गॉड ने हम व्हाइट लोगों की ड्यूटी लगायी है कि हम हिंदुस्तान के असभ्य लोगों को तहज़ीब सिखायें।”
“सही कहा माइकल तूने। गॉड ने कुल दुनिया को तहज़ीब सिखाने की ज़िम्मेदारी तुम्हीं व्हाइट लोगों की लगायी है। तुम्हारा महान लेखक रूडयर्ड भी तो यही लिखता – गोरे लोगों को कालों का बोझ उठाना चाहिए,” ओना ने कहा तो व्यंग्य से था, पर माइकल ओना के बोलों के व्यंग्य को पकड़ नहीं सका था।
“हिंदुस्तानी अगुवा भी निठल्ले और निकम्मे हैं! उनको कोई तजुर्बा नहीं है।”
“कैसा तजुर्बा?”
“शासन प्रशासन का।”
“सीधा क्यों नहीं कहते कि देसी हुक्मरान व्हाइट रूलर्ज़ की तरह मुल्क को नोच खसोट नहीं सकेंगे। हो सकता वह तुम्हारे भी बाप दादे साबित हों। माइंड न करना, माइकल…हुक्मरान किसी भी मुल्क के हों, देसी हों या विदेशी, एक ही मिट्टी के बने होते हैं। फ़र्क सिर्फ़ इतना होता है कि देसी हाकिमों के होते लोगों में आज़ाद होने की फ़ीलिंग बनी रहती है।” ओना की तीखी बातों ने माइकल को तड़पा दिया था।
“कुछ भी कह- यह सूरज की रोशनी की तरह साफ़ है कि गोरी नस्ल असभ्य लोगों पर राज कर रही है और राज करने का अधिकार कुदरत ने दिया है।”
“यदि असभ्य लोगों पर राज करना गोरी नस्ल का कुदरती अधिकार है तो अपने जल, जंगल और ज़मीन के लिए लड़ना भी लोगों का कुदरती अधिकार है। जैसे हिंदुस्तानी इंक़लाबी लड़ रहे हैं। जैसे तेरे अपने आइरिश इंक़लाबी हैं। स्पेन से अलग होने की लड़ाई लड़ रहे कैप्लोनियन इंक़लाबियों के बारे में भी जानते ही हो। और भी कितने ही देशों में इंक़लाबी तहरीकें चल रही हैं।” ओना की दलीलों के आगे माइकल को चुप्पी धारण करनी पड़ी थी।
माइकल से हुई कितनी ही बातें ओना को याद आ रही थीं। उसने कांपते हाथों से दूसरा अख़बार उठा कर आंखों के पास कर लिया। इस अख़बार ने तो बड़ा संपादकीय लेख छाप कर ओ’ड्वायर पर हमले की कार्रवाई को कायरतापूर्ण बताते बागियों के ख़िलाफ़ सख्त़ कार्रवाई करने के लिए लिखा है। ओना को ऐसे सारे अख़बारों पर गुस्सा आया जो सरकारों की चाटुकारिता में उनके हर अच्छे-बुरे फ़ैसले का गुणगान करने लगते हैं।
ओना को तेरह अप्रैल उन्नीस सौ उन्नीस की घटना के बाद वाले दिनों में इंग्लैंड के अख़बारों में छपे, जनरल डायर और ओडवाइर को जायज़ ठहराने वाले लंबे-लंबे लेख याद आये। कई अख़बारों ने तो डायर और ओडवाइर को हीरो बताते हुए दोनों को विशेष सम्मान देने की बात तक छाप दी थी। ‘मॉर्निंग पोस्ट’ तो सारे अख़बारों से आगे निकल गया था। डायर के वापस इंग्लैंड लौटने पर उसकी सहायता के वास्ते ‘डायर मेमोरियल कोष’ चलाया और इस कार्य के लिए छब्बीस हज़ार पाउंड जमा किया।
ओना को अठारह सौ बहत्तर की कूका लहर के दौरान पंजाब के शहर मलेरकोटला में उनचास कूकाओं को तोपों से उड़ाने संबंधी कुछ समय पहले ‘पायनियर’ अख़बार में छपा ज़हरीला व्यंग्य याद आया जिसमें लिखा था, ‘आप अंडा तोड़े बगैर आमलेट नहीं बना सकते।’ ओना का मुंह कड़वाहट से भर गया।
‘सरकार की चाटुकारिता करते रहने वाला मीडिया नफ़रत का कारोबार करने के अलावा और कुछ कर ही नहीं सकता। यदि सरकार इनको बैठने के लिए कहती है तो यह लेटने लगते हैं।’ वह मन ही मन बड़ी देर तक राष्ट्रवादी अख़बारों को गालियां देती रही।
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ओना ने ‘द डेली हेराल्ड’ अख़बार खोलकर आंखों के सामने किया।
अख़बार के पहले पन्ने पर एक बॉक्स में हमलावर की फोटो है। लंबा ओवरकोट पहने स्वस्थ व्यक्ति ने सिर पर अंग्रेज अफ़सरों जैसा हैट पहना हुआ है। रोबदार चेहरे पर डर का कोई निशान नहीं है। बल्कि अजीब खुशी और संतुष्टि झलकती है।
“मैं मरने से नहीं डरता। मरने के वास्ते बुढ़ापे की प्रतीक्षा करने का क्या फ़ायदा? जब तुम जवान होवो, मरना तब ही चाहिए,” मुस्कराते हुए हमलावर ने कहा था। उसके इस अचानक हमले के कारण अंग्रेज सिपाही सहम गए थे।
“क्या जैटलैंड मर गया है? मैंने उसको भी दो गोलियां मारी थीं। इस हरामखोर को भी मरना चाहिए था। इसने भी हिंदुस्तानी अवाम पर बड़े जुल्म ढाये थे,” हमलावर ने डीकन से पूछा तो वह चुप रहा था। उसकी ख़ामोशी की ओर देखते हमलावर ने अफ़सोस में सिर हिलाते कहा, “मुझे तो यक़ीन था कि मैंने बहुत सारे अत्याचारियों का ख़ात्मा कर दिया होगा। मुझे अपनी ढिलाई पर अफ़सोस है।”
सार्जेंट जौनज़ ने हमलावर का हाथ पीछे ले जाते पूछा था, “क्या नाम है तेरा? तुझे पता इसका नतीजा क्या होगा? तुझे कैनन रों पुलिस स्टेशन ले जाना है जहां तेरे ख़िलाफ़ एफ़आईआर होगी।”
“मेरा नाम मुहम्मद सिंह आज़ाद है। मैंने ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति रोष व्यक्त किया है, जिसका मुझ कोई अफ़सोस नहीं है। मैंने बरतानवी साम्राज्य में भारतीयों को भूखों मरते देखा है। मुझे इसका कोई डर नहीं कि क्या सज़ा मिलेगी। चाहे कैद हो या फांसी। मैंने अपना फ़र्ज़ निभाया। इंक़लाब जिंदाबाद-साम्राज्यवाद मुर्दाबाद-इंग्लैंड मुर्दाबाद।”
ओना अपने पति माइकल ओडवाइर के क़ातिल द्वारा, पकड़े जाने के बाद दिये गये बयान पढ़ कर सन्न रह गयी। वह स्वयं पर हैरान हुई कि उसको अपने पति के क़ातिल के ख़िलाफ़ किसी क़िस्म की नफ़रत पैदा क्यों न हुई। हमलावर ने उम्र के उस पड़ाव पर उसके पति का क़त्ल किया था जिस पड़ाव पर पति पत्नी का आपसी साथ बड़ा महत्वपूर्ण होता और दोनों एक दूसरे का आसरा बन कर बुढ़ापा बड़ी आसानी से काट लेते हैं।
“क्या बुढ़ापे में मुझे माइकल के साथ की अधिक ज़रूरत नहीं थी? अब क्या पता अगला समय कैसा-सा व्यतीत हो ?” ओना ने स्वयं से सवाल किया था।
“ओना उन हज़ारों लाखों लोगों के बारे में सोच जिनको माइकल जैसे सामराजियों ने मिट्टी के ढेर में तब्दील कर दिया। उनके मां बाप का बुढ़ापा आंसुओं में किस तरह ग़र्क हुआ होगा? उनकी विधवाओं के क्या हाल हुए होंगे? उनके बाल बच्चों का क्या बना होगा?” अपने सवाल का जवाब उसने स्वयं ही दे दिया था।
“हमलावर का असल नाम तो कोई और ही होगा- मुहम्मद सिंह आज़ाद तो इसने रख लिया है। इस नाम से हिंदुस्तान की साझी तहज़ीब की महक आती है। हैरानी है कि यह शख़्स अपने भीतर जलती आग को ठंडा करने के लिए पूरे इक्कीस साल प्रतीक्षा करता रहा। पता नहीं कहां-कहां भटका होगा। कितने मुल्कों में होता हुआ लंदन पहुंचा होगा। कितने हज़ारों मील नापे होंगे। कभी रोटी मिली होगी- कभी भूखा सोना पड़ा होगा। ब्रिटिश साम्राज्य का आधी दुनिया पर तो राज है। इतने देशों की इंटलीजेंस से बचना कहां आसान काम है। पता नहीं क्या-क्या बनना पड़ा होगा। फिर इतने वर्ष बदले की आग को अंदर दबा कर रखना… इतने समय में तो आदमी गुस्से से वैसे ही फट जाये। ओना के अंदर सोच का समुद्र उपद्रव मचा रहा था।
“क्या नहीं हो सकता था इन इक्कीस सालों में? मुहम्मद सिंह आज़ाद बने इस नौजवान को पुलिस किसी केस में पकड़ भी सकती थी। जिस समुद्री जहाज़ में वह सफ़र करता था, वह डूब भी तो सकता था। हो सकता था माइकल को मारने के लिए इंग्लैंड तो पहुंच जाता, पर उसको कहीं से हथियार ही नहीं मिलता। यदि मिल भी गया था तो वह मीटिंग हाल में दाख़िल ही न हो सकता। संभव था कि मौके पर पिस्टल ही चलने से इनकार कर देतीं या फिर उसका निशाना ही चूक जाता। यह भी तो हो सकता था कि…जनरल डायर की तरह माइकल फ्रांसिस ओडवाइर भी किसी बीमारी से मर जाता। फिर यह नौजवान अपनी आंतरिक अग्नि को कैसे शांत करता? क्या अपने अंदर के बदले की आग को शांत करने के लिए मुझे या मेरे बच्चों को…?”
यह सोचते ओना कांप उठी। उसने मार्था द्वारा थोड़ी देर पहले लाकर रखा पानी का गिलास उठाया और गट गट करके पी गयी। उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा। वह बच्चों के बारे में सोचने लगी। बेटी ओना मैरी ओडवाइर कहीं दूर गयी हुई थी। उसको टेलीग्राम देकर घटना की जानकारी दे दी थी और उसे कल तक आ जाना था। इकलौते पुत्र को तो आज शाम को ही आ जाना था। दोनों बच्चे अपनी ही विचारधारा वाले थे। मैरी तो इतिहास में ख़ासी रुचि रखती थी और मां से फ्रेंच क्रांति के बारे में कितनी ही बातें कर लेती। बाप जिन बातों पर गर्व करता रहता था- बच्चों के लिए उनकी कोई भी महत्ता नहीं थी।
ओना अपने ही सोच से परेशान हो गयी। उसने दो तीन बार सिर झटका। उसका मन हुआ कि मार्था को आवाज़ देकर पास बुलाये और अपने अंदर हो रही उथल-पुथल के बारे में बताये, पर वह ऐसा न कर सकी।
– माइकल, तू साम्राज्य को दृढ़ पैरों पर करने में ही लगा रहा। दरअसल तू यही समझता रहा कि अंग्रेज कौम पैदा ही राज करने के लिए हुई है। मैं तुझे इतिहास की खिड़की में से गहरी खाइयों में दफ़न हुए विशाल साम्राज्यों की ओर झांकने के लिए कहती रही… तू इतिहास का मज़ाक उड़ाता था। तू अजीब क़िस्म के कॉम्प्लेक्स का शिकार था। जब मौक़ा मिलता तो इतिहास को अपने अनुसार बरत लेता। जी करता तो इतिहास को अय्याश हाकिमों की कब्रगाह कह देता। कभी अपने पुरखों के राज पर कुढ़ता जो तेरे अनुसार किसी वक़्त आयरलैंड के एक हिस्से पर राज करते रहे थे। मैं समझती तेरे अंदर भी राज करने की शहंशाही भूख चमकती रहती थी।- ओना ने टेबल पर रखी माइकल की लिखी किताब ‘इंडिया आई नो इट’ उलट पलट कर देखा और रैक में रख दिया।
-तेरे आदर्श भी तेरे जैसे ही थे। कभी तू अठारह सौ सत्तावन की बग़ावत को कुचल देने वाले निकल्सन को अपना आदर्श कहता, उसके गुणगान करता। कभी हेनरी लारेंस तेरे लिए गुरु हो जाता। तू दावा करता कि हर बग़ावत को दमन से दबाया जा सकता है। माइकल, बहुत गलत सोचता था तू। सिरों पर कफ़न बांध कर निकले लोगों को बमों बंदूकों से भला कैसे डराया जा सकता? इनके हौसलों के आगे तो पहाड़ भी झुक जाते। किसी फ़िलॉस्फ़र ने ठीक ही कहा कि इंक़लाबी कभी बीमारी से नहीं मरते। ओना ने दिमाग पर जोर देकर सोचा, पर फ़िलॉस्फर का नाम याद न आया। आख़िरकार इस नतीजे पर पहुंची कि यह किसी चिंतक का कथन नहीं था बल्कि यह सच्चाई तो उसके अपने अंदर से निकली थी।
ओना ने सारे अख़बारों की तह लगायी और उठा कर कार्निस पर रख दिया।
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ओना ओ’ड्वायर रीती रीती नज़रों से खला में देखे जाती थी। माइकल को दफनाये आज पांच दिन हो चुके थे। यद्यपि उसने अपने हाथों से माइकल ओडवाइर को बार्कवुड के कब्रिस्तान में दफ़नाया था किंतु उसको अभी भी माइकल की मौत का यक़ीन नहीं आ रहा था। वह डाइनिंग टेबल पर चाय का कप रखे कितनी ही कितनी देर तक माइकल की प्रतीक्षा करती रहती। चाय और सिगरेट के हद से बढ़ कर शौकीन माइकल के लिए मार्था से कहकर बार-बार चाय बनवा लेती। माइकल द्वारा लाकर रखे सिगरेट के पैकेट बार-बार इधर से उठा कर उधर रखती रहती। उसे माइकल की आवाज़ का भ्रम होता रहता। लगता जैसे माइकल ने चाय या सिगरेट के लिए आवाज़ दी है। वह सिगरेट का पैकेट और माचिस उठा कर माइकल के स्टडी रूम की ओर जाती और फिर बावरी-सी वापस आकर सोफ़े पर ढह पड़ती।
मार्था को ओना की ऐसी हालत पर तरस आता। वह आने बहाने माइकल सर की बातें करके अपनी मालकिन का ध्यान दूसरी तरफ़ लगाने की कोशिश करती।
“ओना मैम! आपकी और माइकल सर की जोड़ी कितनी खूबसूरत थी। यह फोटो देखो! आप दोनों राजकुमार और राजकुमारी लगते हो। सर कितने सुंदर होते थे!”
“हां, मार्था! माइकल बहुत खूबसूरत था। कभी दिल का भी बड़ा खूबसूरत था। उसकी बातों में फूलों और तितलियों का ज़िक्र होता था। सच पूछो तो वह घास पत्तियों पर ओस की बूंद-सा निर्मल था, तब ही तो उसको प्यार करती थी। फिर वह इंडियन सिविल सर्विस की ऊंचे रुतबे वाली नौकरी पर लग गया। केवल इक्कीस साल का था जब उसको शाहपुर ज़िले का कलेक्टर बना दिया गया। पंजाब का लैंड डाइरेक्टर भी रहा। रेवन्यू कमीश्नर बना। तब माइकल बत्तीस वर्ष की भरी जवानी में था जब हम दोनों ने ब्याह कर एक होने का फ़ैसला किया। मैं उसके पास आ गयी थी। जब वहां जाकर देखा… बहुत कुछ बदल चुका था। माइकल के मुहब्बत भरे दिल में पारा थिरकने लगा था। सत्ता में फूलों और तितलियों का नहीं, ओहदों, तमगों और सम्मानों का ज़िक्र होता। उसकी लालसाएं बढ़ती ही जाती थीं। वह बदल गया था- वह लगातार बदल रहा था। मैं बेबस देख रही थी।”
“सर में इतनी तब्दीली कैसे आयी? प्यार करने वाला इतनी जल्दी बदल सकता है ? ऐलन तो अपनी मौत तक उसी तरह का रहा जैसा मुझे अल्हड़ उम्र में मिला था। निश्छल-नर्म नाजुक और नज़ाकत से भरा हुआ। भोलाभाला-सा… यदि जीवित होता… कितनी बढ़िया ज़िंदगी होनी थी हमारी,” मार्था ने गहरी आह भरी।
“जब मैंने माइकल से मुहब्बत करनी शुरू की थी, वह भी निश्छल, नर्म, नाजुक और नज़ाकत से भरा होता था। पर उसके मुहब्बत वाले हरे भरे वृक्ष पर जैसे कामनाओं की अमरबेल ने घेरा डाल दिया था। वह ऊंचा ही ऊंचा चढ़ता जा रहा था। यह दिसंबर उन्नीस सौ बारह की कोई ठंडी दोपहर थी जब हमने सरकार द्वारा माइकल को पंजाब का लेफ्टीनेंट गवर्नर बना देने की ख़बर सुनी। महज़ अड़तालीस साल की छोटी उम्र और इतना बड़ा रुतबा ! ऊपर से नाइटहुड का ख़िताब। अब वह पंजाब का निरंकुश शासक था। बेपनाह ताक़त। फिर वायसराय लार्ड हार्डिंग की थपकी। लंदन में डाउनिंग स्ट्रीट से चलते बरतानवी तख़्त की शाबाशी और अपनी गोरी नस्ल के सर्वोत्तम होने का नाक तक भरा गुमान। फूलों, तितलियों, कविताओं और मुहब्बत के बारे में सोचने का वक़्त अब कहां था उसके पास? वह तो ब्रिटिश साम्राज्य को सुदृढ़ करने के बारे में ही सोचता था। मार्था, जब किसी इंसान को सर्वोत्तम और ताक़तवर होने का भ्रम हो जाये, वह इंसान नहीं रह जाता, कुछ और हो जाता है। ताक़तवर मनुष्य किसी को प्यार नहीं कर सकता- वह केवल और केवल धौंस जमा सकता है।”
“ओना मैम, आप तो सर को इतना प्यार करते थे, आपने कभी नहीं समझाया था?”
“अब मेरी सुनता ही कब था,” ओना के चेहरे पर अफ़सोस और व्यंग्य की मुस्कान उभरी।
“सत्ता के नशे में चूर हुए लोगों को समझाना बड़ा मुश्किल होता है, मार्था। सत्ता मनुष्य को हर तरह से भ्रष्ट करके अहंकारी बना देती है। सत्ता से तो धर्म भी डरता है।” ओना सरकार द्वारा समय-समय पर माइकल ओडवाइर को दिये गए तमगों, ख़िताबों और सम्मानों की ओर हिक़ारत भरी निगाहों से देखने लगी थी।
“मार्था, यह जो दीवार पर टंगे हुए हैं, सत्ता ऐसे ख़िताब और थपकी माइकल जैसों को बांटती रहती है। इन झूठी थपकियों की फूंक में आये माइकल जैसे अफ़सरशाह अवाम का शिकार करते हैं। इन ख़िताबों, तमगों और सम्मानों ने माइकल की सोच को उल्टा घुमा दिया था। उसको मेरी आवाज़ सुनायी ही नहीं देती थी। मैं बहुत ज़ोर से पुकारती थी। मैं फूलों, तितलियों की बातें करने वाले माइकल को बहुत आवाज़ें देती थी पर…,” ओना फूट फूट कर रोने लगी थी।
“मैम, रिलैक्स… प्लीज़ स्वयं को संभालो। मेरी मानो तो कुछ देर के लिए सो जाओ। जिस दिन सर दिवंगत हुए है… आप बड़ी मुश्किल से कुछ घंटे ही सोये होगे।”
“नींद कहां आती है, मार्था? मुझे तो नारों की आवाज़ें सुनायी देती रहती। ध्यान से सुन, ये आवाज़ें अब भी आ रही हैं। लाखों करोड़ों आवाज़ें। इंक़लाब ज़िंदाबाद-साम्राज्यवाद मुर्दाबाद।”
“आप ठीक नहीं हो, मैम! कोई आवाज़ नहीं आ रही।”
“तू ग़लत कहती है, मार्था। माइकल भी यूं ही कहता होता था। अंत तक कहता रहा कि कोई आवाज़ नहीं आ रही। सारे हाकिम यूं ही कहते होते हैं। जिनके कानों पर पट्टियां बंधी हों, उनको लोगों को कोई आवाज़ नहीं सुनायी देती।”
“आपने ठीक कहा, ओना मैम! आपने बिल्कुल ठीक कहा। हाकिमों को आवाम की कोई चीख़ पुकार सुनायी नहीं दिया करती।”
“मार्था, तुझे पता ये आवाज़ें मुझे पहली बार कब सुनायी दी थीं?” ओना के सवाल के जवाब में मार्था कुछ न बोली, पर उसकी आंखे सवाल बन गयीं।
“जब मैं पहली बार माइकल के साथ इंडिया गयी थी और तेरह मार्च उन्नीस सौ चालीस, माइकल की हत्या वाले दिन तक सुनती रही हूं। अब भी सुनायी देती है और शायद मेरे कब्र में पड़ने तक सुनायी देती रहे। पर मैं हैरान हूं कि माइकल इतना बहरा क्यों था? उसको सुनायी क्यों नहीं देती थी?” ओना खिड़की के सामने आ खड़ी हुई जैसे सुनायी दे रही आवाज़ों को और ध्यान से सुनना चाहती हो।
“आपको माइकल को यह आवाज़ें सुनने के लिए मज़बूर करना चाहिए था।”
“कहा था। बार-बार कहा था। कहती ही रहती थी।”
“पहली बार कब कहा था?”
“सन उन्नीस सौ चौदह में। तब प्रथम विश्वयुद्ध भड़क चुका था। ब्रिटेन इसमें उलझ चुका था। उसने ज़ोर जब्र से अपने अधीन उपनिवेशों को युद्ध के मैदान में घसीट लिया। इन उपनिवेशों में से जबरन फ़ौजी भर्ती करने लगा। इंडिया के गांवों, क़स्बों में से भी धक्केशाही के साथ फ़ौजी भर्ती किये जाने लगे। जैलदारों, नंबरदारों, पटवारियों, कानूनगोओं, तहसीलदारों, दरोगाओं और दूसरे सरकारी अहलकारों के लिए भर्ती कराने के कोटे निर्धारित कर दिये गये। मांओं के युवा पुत्रों को ज़बरदस्ती पकड़-पकड़ कर जंग की भट्टी में झोंकने के लिए हज़ारों मील दूर भेजा जाने लगा।”
“तौबा! तौबा! यह तो बहुत बड़ी धक्केशाही थी,” मार्था ने कानों पर हाथ रख लिये।
“लोगों पर जुल्म हो रहे थे। फ़ौज में भर्ती न होने वाले गांवों के लोगों की ज़मीनें जायदादें कुर्क हो रही थीं। जेलों में ठूंसा जा रहा था। विरोध करने वाली औरतों को बालों से पकड़ कर घसीटा जाता। बुजुर्गों को कंटीली झाड़ियों पर बिठाया जाता। उनके मुंहों पर थूका जाता। कोड़े बरसाये जाते। वह कौन-सा अत्याचार है जो लोगों पर नहीं किया जा रहा था। पंजाब से सबसे अधिक भर्ती करने पर ज़ोर दिया जा रहा था। मार्था, मैं उस समय की चश्मदीद गवाह हूं। नौजवान बारूद की खुराक बन रहे थे और बुजुर्ग मां-बाप कराह रहे थे।”
“ओह माई गॉड!” मार्था की चीख निकल गयी थी।
“तब मैंने पहली बार माइकल को अवाम की आवाज़ सुन कर अमानवीय जुल्म बंद करने को कहा था।”
“फिर?”
“सुनते कहां हैं बंद आंखों कानों वाले। इस जंग में हज़ारों नहीं, लाखों पंजाबियों की कुंदन जैसी देहें कब्रों में जा पड़ी। पीछे मांओ के पास आहें थीं। ग़ुम हो गये पुत्रों की प्रतीक्षा थी और गोरी चमड़ी के लिए बद्दुआएं थीं,” ओना ने मुंह दूसरी तरफ़ कर भर आयी आंखों का आंसू साफ़ किया किंतु मार्था को पता चल गया।
“माइकल सर के लिए यह ठीक नहीं था,” मार्था ने टिशू पेपर ओना को पकड़ाते कहा।
“फिर गदर आंदोलन शुरू हो गया। यह भी प्रथम विश्वयुद्ध के दिनों की बातें हैं। अमरीका, कनाडा तथा दूसरे देशों से सैकड़ों हज़ारों की संख्या में गदरी इंडिया की धरती की ओर आ गये। वे देश में बड़े स्तर पर सशक्त विद्रोह फैला कर गोरी नस्ल को देश से बाहर निकाल देना चाहते थे।”
“ओह! फिर?” मार्था ने उत्सुकता दिखायी।
“मैंने माइकल को सख्त़ी के साथ कहा था, बरतानवी सरकार को टेलीग्राम भेज कर सारे हालात से वाक़िफ़ कराओ। डाउनिंग स्ट्रीट को बता दो कि बहुत हो गयी है लूट खसोट, अब इंडिया से चले जाना ही बेहतर होगा। और खून बहाया जाना ठीक नहीं। बाग़ी नौजवान जान हथेली पर रखे फिरते हैं। उनको अपनी मौत की बिल्कुल ही फ़िक्र नहीं। यदि इंडिया के कुछ लोग भी बाग़ियों से मिल गये तो एक भी अंग्रेज का बच कर निकलना मुश्किल हो जायेगा।”
“फिर क्या जवाब दिया माइकल सर ने?”
“हूं…! दिया था जवाब। बड़ा उजड्ड-सा, जिसमें से अहंकार की बू आती थी। कहने लगा, ‘यू नो, ब्रिटिशर्ज ने अट्हारह सौ सत्तावन की बग़ावत को कितनी बेरहमी से कुचला था? दिल्ली की गलियों में बाग़ियों के खून से परनाले बह चले थे। बाग़ी और उनको पनाह देने वालों को चौराहों पर फांसी पर लटकाया गया था। बग़ावती हिंदुओं के मुंहों में गाय और मुसलमानों के मुंहों में सुअर का मांस डाला गया था। तीखी छूरियों से औरतों के स्तन काट दिये गये थे। ऐसी सजाएं दी गयीं कि शैतान की रूह भी कांप उठी थी। यू नो, सत्तावन की बग़ावत के महज़ पंद्रह साल बाद पंजाब के नामधारियों ने बग़ावत करने की हिमाकत की तो मलेरकोटला में एक ही दिन में उन्नचास नामधारी कूकाओं को तोपों के दहानों से बांध कर उड़ा दिया गया,’ अपनी ओर से माइकल ने छाती चौड़ी करके बड़े गर्व के साथ कहा था।”
“ओह… प्रभु! बेगुनाहों की हत्या करने वालों को माफ़ करना। वे नहीं जानते कि वे कितना ग़लत कर रहे हैं,” मार्था ने गले में डाली सलीब को चूमा था।
“मार्था, फ्रांसिस माइकल ओडवाइर, लेफ्टीनेंट गवर्नर ऑफ़ पंजाब के सख़्त आदेशों पर सैकड़ों गदरियों को पकड़ कर फांसी पर लटका दिया गया। सैकड़ों बाग़ियों को समुद्र के ऐन बीच अंडमान की सैलुलर जेल में सड़ने मरने के लिए भेज दिया। इनकी जायदादें कुर्क कर लीं। पुलिस, क़ानून, जज और अदालतें इनकी अपनी थीं। अपील दलील कहां थी? और दुख की बात…. माइकल जैसों के चेहरों पर अफ़सोस का कोई तनिक भर निशान भी नहीं होता था। वह घर पर हो या दफ़्तर में – सिगरेट का कश खींचते, धुएं के बादल बनाता रहता। इन धुएं के बादलों में से उसको अपनी तरक्क़ी की सीढ़ियों नज़र आतीं, पर मुझे धुएं में से अंग्रेजी साम्राज्य की चिता जलती दिखायी देती।… तू देख सकती है। ब्रिटिश साम्राज्य बरबादी के किनारे है। आने वाले पांच-सात सालों में इस साम्राज्य का सूरज बहुत छोटा-सा रह जायेगा।”
ओना खिड़की के बाहर देखने लगी। सूरज डूब रहा था।
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ओना ने मन-ही-मन माइकल ओ’ड्वायर के क़त्ल के दिनों का हिसाब. लगाया। माइकल के क़त्ल वाले दिन, तेरह मार्च उन्नीस सौ चालीस से आज तक बहुत कुछ सुनती और भोगती आ रही थी। अपने पति के ऊपर गोलियां चलाने वाले व्यक्ति के बारे में नित्य नयी जानकारी ओना को मिलती रही थी। पुलिस या इंटेलीजेंस विभाग का कोई उच्चाधिकारी उसके पास आकर चल रहे घटनाक्रम के बारे में जानकारी दे जाता था।
“रेसपेक्टेड ओना मैम ! सर माइकल ओ’ड्वायर का हत्यारा बहुत जल्द फांसी के तख़्ते पर होगा,” एक दिन चीफ इंसपेक्टर रौलिंग्ज़ ओना के घर आया था। रौलिंग्ज़ बात बता कर देर तक ओना के चेहरे की ओर देखता उसकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करता रहा था।
“इसका अब क्या अर्थ है? उसके फांसी चढ़ने से मुझे कोई लाभ है? कांटे बो कर कोई फूलों की आस कैसे कर सकता है?” ओना के जवाब ने चीफ़ इंसपेक्टर रौलिंग्ज़ का उत्साह ठंडा कर दिया था।
“हत्यारे का नाम मुहम्मद सिंह आज़ाद नहीं है,” ओना के जवाब की प्रतीक्षा करता चीफ़ कुछ देर चुप रहा, पर उसकी ओर से कोई उत्साह न दिखाने पर वह स्वयं ही बोला था।
“उसका असल नाम उधम सिंह है।”
अब ओना ने सिर ऊपर उठा कर देखा था।
“वह पंजाब सूबे के एक छोटे से क़स्बे सुनाम से है।”
“ओह! यह सुनाम की धरती के लिए बड़े गर्व की बात होगी कि उधम सिंह उसकी मिट्टी में से पैदा हुआ जैसे स्ट्रैटाफोर्ड को गर्व है कि विश्वप्रसिद्ध लेखक विलियम शेक्सपियर ने वहां जन्म लिया। जिस तरह स्ट्रैटफोर्ड में विलियम का शानदार स्मारक बना है, सुनाम के लोग भी किसी दिन अपने नायक की याद में शानदार स्मारक बनायेंगे,” ओना की बातें सुनकर रौलिंग्ज़ का मुंह खुला ही रह गया।
“मिस्टर रौलिंग्ज़! हैरान होने की आवश्यकता नहीं है। हर कौम के अपने शहीद होते हैं। जैसे अंग्रेज कौम के लिए माइकल शहीद हो सकता है, पर हिंदुस्तानियों के लिए कसाई प्रशासक से अधिक कुछ भी नहीं। हां, देर सवेर मुहम्मद सिंह आज़ाद, या जैसा आपने बताया है, उधम सिंह अपने लोगों के लिए शहीद बन जायेगा। आपकी अदालतें एक-न-एक दिन फांसी के तख़्ते तक ले ही जायेंगी।”
“बन जायेगा से क्या मतलब?”
“हां, बन जायेगा। अभी तो वहां के सियासी अगुवाओं के लिए वह भटका देशभक्त ही है। तुमने महात्मा गांधी के उस बयान को सुन लिया होगा जो उसने माइकल की मौत के बाद दिया था।”
“हां, उसने सर माइकल ओडवाइर की मौत, लार्ड लमिंगटन, लार्ड जैटलैंड और लुईस डेन के घायल होने पर गहरा दुख व्यक्त करते हुए इसको पागलपन वाली कार्रवाई कहा,” चीफ़ रौलिंग्ज़ ने तुरंत उत्तर दिया था।
“अपने बयान में उसने मेरे प्रति भी संवेदना व्यक्त की।”
“हां, मैम, मैंने पढ़ा है।”
“मैं माइकल की मौत से बुरी तरह टूट गयी हूं। बहुत उदास और दुखी भी, पर सच जानो मुझे महात्मा गांधी का हमदर्दी व्यक्त करना बिल्कुल ही अच्छा नहीं लगा। जान हथेली पर रखकर अपने देश की आज़ादी के लिए लड़ रहे नौजवानों को भटका, गुमराह या अतिवादी कह देना क्या ठीक है? इस तरह तो फिर फ्रेंच क्रांति के लिए लड़ने वाले सारे नौजवान ही अतिवादी हुए। सोवियत क्रांति ले आने वाले क्या भटके नौजवान थे? क्या सारे आइरिश क्रांतिकारी खूंखार हैं? फिर तो दुनिया के तमाम क्रांतिकारी ख़तरनाक भेड़िये हुए। और उस तेज़ तर्रार वकील जवाहरलाल नेहरू की ओर देख लो। वह भी गोल-मोल बात करता है। माइकल के क़त्ल को ग़लत भी कह रहा है और बरतानिया सरकार को चेतावनी भी दे रहा। दूसरे भी बहुतेरे हिंदुस्तानी नेता इसी तरह के हैं। ऐसे नेताओं के बारे में तुम क्या सोचते हो?”
“मैम! यह राजनीति है और हम पुलिस या फ़ौज वालों को इसकी अधिक समझ नहीं होती।”
“पुलिस या फ़ौज राजनीति को समझे बिना निहत्थे लोगों पर केवल गोली चलाना जानती है?” ओना की इस बात का रौलिंग्ज के पास कोई जवाब नहीं था।
“पता है वे राजनीति क्यों कर रहे हैं?” ओना ने एक और सवाल दागा।
“क्या पता?” रौलिंग्ज़ के कंधे कानों की ओर बढ़े।
“द्वितीय विश्वयुद्ध में जिस तरह के हालात बने हुए हैं, निस्संदेह इंग्लैंड युद्ध हार जायेगा। उसको हिटलर के आगे घुटने टेकने पड़ेंगे। यदि जीत भी गया तो यह जीत हार से भी बुरी होगी। हिंदुस्तानी लीडर जानते हैं कि अंग्रेजों को बहुत जल्दी हिंदुस्तान से जाना पड़ेगा। ये इस दांव में बैठे हुए हैं कि अंग्रेज जाते हुए सत्ता उनके हाथों में देकर जायेंगे। सत्ता के इधर-उधर खिसक जाने का डर सताता रहता है भारतीय नेताओं को।”
“क्या हमें सचमुच वहां से निकलना पड़ेगा?” रौलिंग्ज़ के इस बेवकूफ़ी भरे सवाल का जवाब देने की आवश्यकता ओना ने नहीं समझी। उसने रौलिंग्ज़ को जूस का गिलास पीने का इशारा किया।
“चलो छोड़ो… तुम मुहम्मद सिंह आज़ाद के बारे में बताओ। जेल में किस तरह का व्यवहार करता है? जब अदालत में आता है तो क्या उसके चेहरे पर कोई डर या सहम होता है?”
“मुहम्मद सिंह आज़ाद नहीं, मैम, उधम सिंह। उसके चेहरे पर कभी डर या सहम का नाम की कोई चीज़ नहीं देखी।”
“मुहम्मद सिंह आज़ाद हो या उधम सिंह, इसमें क्या फ़र्क है? है तो एक ही व्यक्ति।”
“मैम, नाम में बहुत कुछ है।”
“हां, हां! सही कहा तुमने, नाम में बहुत कुछ रखा है। शेक्सपियर का यह कहना ठीक नहीं कि नाम में क्या रखा। नाम में ही तो सारा कुछ है। ब्रिटिश इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाने के लिए ही तो माइकल तानाशाहों जैसा व्यवहार करता रहा। नाम चमकाने के लिए ही तो जनरल डायर जालियां वाले बाग के छोटे-से गेट के आगे खड़े होकर गोलियां बरसाता रहा। यह नाम ही तो है जिसको बदल कर कोई उधम सिंह मुहम्मद सिंह आज़ाद बन जाता है और पूरे इक्कीस वर्षों बाद इतिहास के पन्नों पर अपनी मुहर लगा देता है।”
रौलिंग्ज को पूर्व अंग्रेज अधिकारियों पर गोली चलाने और मारने वाले की तारीफ़ बिल्कुल ही अच्छी नहीं लग रही थी, पर उसकी पुलिसिया बुद्धि के पास ओना की गहरी गंभीर बातों का कोई तोड़ नहीं था।
“आप अपना ख्याल रखना। किसी तरह का ख़तरा या ज़रूरत महसूस हो तो तुरंत फोन कर देना,” रौलिंग्ज़ ने उठ कर जाते हुए जानबूझ कर आवाज़ को बहुत भेदभरी बनाते चौकन्ना किया, पर ओना पर इसका कोई असर नहीं हुआ और वह सहजता से बैठी रही।
माइकल के क़त्ल में हर दिन आते नये मोड़ के बारे में ओना को किसी-न-किसी बात का पता लगता रहता। एक दिन जानकारी मिली कि उधम सिंह उर्फ मुहम्मद सिंह आज़ाद ब्रिकस्टन जेल में से अपनी जान पहचान वाले लोगों को चिट्ठियां लिखता रहता है। वह अक्सर किताबें भेजने के लिए कहता है। और तो और, उसने अदालत में शपथ लेने के लिए वारिस शाह द्वारा लिखी ‘हीर’ नाम की बहुचर्चित किताब की मांग की है।
यह सुनकर ओना को हैरानी नहीं हुई थी। हिंदुस्तान क़याम के समय उसने भारतीयों ख़ासकर कर पंजाबियों के इतिहास और संस्कृति के बारे में काफ़ी जानकारी हासिल की थी। इस कारण वह जानती थी कि पंजाब के ग्रामीण जनमानस को ‘हीर’ से कितना गहरा लगाव है। हीर तो एक तरह से पंजाबी नौजवानों के सपनों की शहजादी है।
उधम सिंह द्वारा अपने किसी परिचित को लिखे पत्र की शब्दावली सुनकर तो ओना अंदर ही अंदर हंस पड़ी थी। इस चिट्ठी में उधम सिंह स्वयं को हिज़ मैजिस्टी का दामाद कहता है।
“कितना बेख़ौफ और निडर है!” ओना ने स्वयं से कहा था।
एक दिन मिलने आये पुलिस अधिकारी ने ओना से उधम सिंह द्वारा जेल से लिखी चिट्ठियों के पकड़े जाने के बारे में बताया।
“ओना मैम! उधम सिंह एक बेहद ख़तरनाक अपराधी है। उसकी कुछ चिट्ठियां पकड़ी गयीं जिससे पता लगता है कि उसने जेल से भागने की कोशिश की है। उसने अपने परिचित को चोरी छिपे जेल के अंदर सलाखें काटने के लिए आरी भेजने के लिए लिखा था। उसका मक़सद जेल से भाग कर किसी को मारना हो सकता है। उसके निशाने पर कौन होगा कह नहीं सकते। इसके कारण मैम आपको भी बहुत ज़्यादा चौकन्ना रहने की ज़रूरत है।”
“क्या मीटिंग वाले दिन तुम्हारी पुलिस चौकन्नी नहीं थी?”
अधिकारी चुप रहा था।
“मुझे ऐसा नहीं लगता कि उसने जेल से भागने की कोशिश की होगी। यदि कोशिश की होती तो जेल की दीवारें उसको रोक नहीं सकतीं।”
अधिकारी ओना की बातों पर हैरान ही नहीं, परेशान भी हो रहा था।
“आप क्या कह रही हैं, मैम? उधम सिंह ने माइकल सर को बेरहमी से मारा है। हम सभी का ज़ोर उसको फांसी के तख्ते तक ले जाने में लगा है। वह ख़तरनाक और खूंखार अपराधी है। उसने घिनौना अपराध किया है,” अधिकारी को लगा कि ओना मानसिक तौर पर पर परेशान होने के कारण ऐसी बातें कह रहीं है।
“क्या उधम सिंह सचमुच ख़तरनाक अपराधी है?”
“बिल्कुल!”
“फिर तो वह हैरिंग वर्थ पर गोली चला कर भाग सकता था। तुम्हारी पुलिस का ही तो कहना है कि हैरिंग बर्थ उसकी राह में आ गयी थी। मिस्टर, मैं लंबे समय तक पंजाब में रही हूं। वहाँ की संस्कृति निहत्थे पर वार करना ठीक नहीं समझती। क्या मैं तुमसे कुछ पूछ सकती हूं?”
“क्यों नहीं?”
“तुम्हारी सरकार ने भारत में औरतों, बच्चों और निहत्थे लोगों को मारा है। क्या तुम खूंखार नहीं? उधम सिंह ने मेरे जीवन साथी को मारा है। इसका मुझे दुख है और मेरे जीवित रहने तक रहेगा। कहीं न कहीं उधम सिंह के प्रति रंज भी है और रहेगा भी, पर क्या उधम सिंह ने औरतों, बच्चों और बेकसूर लोगों पर कोई जुल्म किया है? यदि नहीं तो खूंखार कैसे हुआ?” पुलिस अधिकारी को लगा, उठकर जाना अच्छा ही नहीं, ज़रूरी भी है।
इन्हीं दिनों में ओना की मानसिक हालत बड़ी उदास और अवसाद भरी थी, पर हमदर्दी प्रकट करने वाले अधिकारियों की बातें उसको तनिक भी अच्छी नहीं लगतीं। कई अधिकारी तो जान बूझ कर उसके गिर्द रहस्य का जाल तान देते।
ओना को पारिवारिक मित्रों और परिचितों से माइकल के क़त्ल की चल रही अदालती कार्यवाही का भी पता लगता रहता था। ऐलडर्न नामक मित्र ने तो बड़ी हैरानी भरी बात बतायी थी, “बड़ा अजीब है, डिफेंस का वकील सेंट जोह्न ने कोर्ट में सिद्ध किया है कि ओडवाइर सर और हमलावर मुहम्मद सिंह आज़ाद उर्फ उधम सिंह के बीच दोस्ताना संबंध थे।”
“अब तो तरह तरह की बातें सामने आयेंगी जिनमें सच्चाई कम और रोमांस अधिक होगा। कोई कुछ कहेगा, कोई कुछ। कुछ तो यहां तक जायेंगे कि माइकल और उधम सिंह साथ में ड्रिंक लेते थे। यह पत्रकार तो किसी भी हद तक जा सकते हैं। क्या करें, अख़बारों का पेट तो भी भरना होता है।”
“उधम सिंह ने अपने बयानों में माना है कि वह ओडवाइर से कई बार मिला था। पता लगा कि उधम सिंह एक बार तो ओडवाइर सर से तब मिला था जब सर पार्क में अपने कुत्ते समेत सैर कर रहे थे।”
“मिस्टर ऐल्ड, इसका मतलब पता क्या है?” ओना ने पारिवारिक मित्र की आंखों में झांकते सवाल दागा था।
“क्या?”
“यह कि क्रांतिकारी निहत्थे पर वार करना उसूलन ठीक नहीं समझते। तुम बताओ, उस समय माइकल को मारना कोई मुश्किल काम था?” ओना को हैरानी भरी ख़बर बता कर हैरान करने के मक़सद से आये दोस्त ने ओना की बातें सुनकर हैरान होकर जाने में ही भलाई समझी।
ओना का दामाद नॉर्मन ह्यूसन अदालती कार्यवाही देखने के लिए लगातार जाता था। इस केस में अदालत ने उसकी गवाही भी दर्ज थी।
“मॉम! माननीय जज ऐटकिंसन की कोर्ट ने डैड के क़ातिल को फांसी की सज़ा सुना दी है,” अदालती कार्यवाही के ख़त्म होते ही नॉर्मन बड़ी तेज़ी से घर लौटा था। उसने बड़े उत्साह के साथ ख़बर सुनायी थी। ह्यूसन को आशा थी कि ओमा ख़बर सुन कर ज़रूर संतुष्टि की लम्बी सांस लेगी, पर वह तो सहजता के साथ बैठी रही थी।
“हत्यारे को 25 जून 1940 को सवेरे नौ बजे फांसी पर लटका दिया जायेगा,” प्रतिक्रिया जानने के लिए नॉर्मन ने आंखें मदर-इन-लॉ के चेहरे पर गड़ा दीं। वह भी चुप बैठी रही।
“हैरानी यह है कि उधम सिंह ने रोते बिलखते रहम की भीख नहीं मांगी। उल्टा सरकार के क़ानूनी सलाहकारों की ओर व्यंग्य भरी ज़हरीली नज़रों से देखा। डायस पर जूरी मेंबरों की ओर थूक दिया। मौत की सज़ा का तो उसके ऊपर कोई असर ही नहीं था।”
ओना ने हल्का-सा सिर ऊपर उठाया और दामाद के चेहरे की ओर देखा।
“थैंक्स गॉड!” ओना ने लंबी सांस भरी। नॉर्मन को समझ में नहीं आया कि ओना ने ईश्वर को धन्यवाद उधम सिंह को फांसी की सजा सुना देने की ख़बर सुन कर दिया था या कि उधम सिंह के स्थिर रहने के बारे में सुन कर।
“मॉम, लगता नहीं कि क़ातिल को 25 जून को फांसी होगी। उसके क़ानूनी सलाहकार जूरी के पास मौत की सज़ा के ख़िलाफ़ अपील ज़रूर दायर करेंगे। पर…,” नॉर्मन ने जान बूझ कर वाक्य कुछ अधूरा छोड़ा।
“पर… मुझे यक़ीन है कि जूरी द्वारा अपील रद्द कर दी जायेगी।”
“तुम अब आराम करो- थके हुए आये होगे,” कहते हुए ओना माइकल की किताबों वाले रैक के आगे जा खड़ी हुई। नॉर्मन समझ गया था कि मॉम इस विषय पर और बात नहीं करना चाहतीं।
पंद्रह जुलाई की शाम को बेटी मैरी ओडवाइर ने ओना को जूरी के फ़ैसले के बारे में फोन पर बताया, “मॉम, जूरी ने उधम सिंह की अपील रद्द कर दी है। उसको 31 जुलाई 1941 को सवेरे नौ बजे पैंटनबिल जेल में फांसी पर लटका दिया जायेगा।”
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लंदन की पैंटनविल जेल में उधम सिंह को फांसी दिये जाने वाली ख़बर यद्यपि ओना ने रेडियो से प्रसारित सरकारी बुलेटिन द्वारा सुन ली थी, पर सारे घटनाक्रम की पूरी जानकारी देने के लिए लंदन का शैरिफ़ जार्ज परसी विशेष तौर पर मिलने आया था। फांसी देने के समय ड्यूटी पर हाज़िर रहे जेल डाक्टर को भी वह साथ ही ले आया था।
जार्ज पिछले लंबे समय से ओडवाइर परिवार का नज़दीकी मित्र था। वह जब भी ओडवाइर के पास मिलने आता, दोनों धीरे-धीरे शराब की घूंटें भरते, सिगरेट के कश खींचते और ताश खेलते। माइकल की मौत शैरिफ़ के लिए निजी हानि थी।
“आज आख़िर माइकल सर को इंसाफ़ मिल ही गया,” जार्ज परसी ने तसल्ली की लंबी सांस ली थी।
“उधम सिंह के फांसी चढ़ने से तो माइकल को इंसाफ़ मिला है, क्या माइकल की मौत से जालियां वाले बाग में मारे गये सारे लोगों को इंसाफ़ मिल गया।” ओना के दिमाग में यह विचार तेज़ी से कौंधा, पर उसने इस विचार को होठों तक नहीं आने दिया। उसने जार्ज की बात के जवाब में दूसरा ही सवाल पूछ लिया।
“जार्ज, जब उधम सिंह को फांसी के तख़्ते की ओर ले जाया जा रहा था तो क्या वह नार्मल था?”
“क्या मतलब?”
“क्या उधम सिंह जेल कर्मचारियों के आगे गिड़गिड़ा रहा था? उसने फांसी के तख़्ते की ओर जाने से इनकार तो नहीं किया जैसा कि मौत की सज़ा वाले अक्सर करते हैं।”
ओना का सवाल सुनकर जार्ज ने स्वयं जवाब देने के स्थान पर जेल के डॉक्टर की ओर देखा।
“नो, मैम! उधम सिंह बिल्कुल शांत था। रोना या गिड़गिड़ाना तो एक तरफ़, उसके चेहरे पर तो उदासी का भी कोई चिह्न नहीं था बल्कि संतुष्टि झलकती थी। मैंने स्वयं उसकी मेडिकल जांच की थी, न दिल की धड़कनें तेज़ थीं, न खून का दबाव अधिक था। वह तो बल्कि आम तौर से भी अधिक सहज था,” जेल के डाक्टर ने शब्द संभल संभल कर उपयोग किये थे।
“यह क्रांतिकारी भी तो बड़ी ढीठ मिट्टी के बने होते हैं,” जार्ज के मुंह से स्वयमेव निकला था। ओना ने महसूस किया कि जार्ज अपनी ओर से तो उधम सिंह के ज़ज्बे की तारीफ़ करना चाहता था, पर उससे झिझकते हुए शब्दों को घुमा गया था।
“फांसी पर चढ़ते उसने कुछ तो कहा होगा?”
“जेल वार्ड से फांसी वाले तख्ते तक नारे लगाता रहा।”
“कैसे नारे?” ओना ने उत्सकुता से पूछा।
“इंक़लाब ज़िंदाबाद- साम्राज्यवाद मुर्दाबाद-हिंदुस्तान जिंदाबाद!”
ओना ने आंखें बंद कर लीं। दाहिने हाथ से छाती पर सलीब का निशान बनाया।
“मैं माइकल को बहुत समय से यह आवाज़ें सुनने के लिए कहती रही थी- अफ़सोस उसने मेरी एक नहीं सुनी,” उसने दुख में सिर पटका।
“काश! हुक्मरान अवाम की आवाज़ सुन लिया करें।”
जार्ज परसी और जेल डॉक्टर हैरानी से ओना के मुंह की ओर देखते रह गये थे।
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मूल पंजाबी से अनुवाद
राजेन्द्र तिवारी
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