क्या कोई ऐसी कहानी हो सकती है जिसमें घटनाएँ नदारद हों, फिर भी आपको एक क़ायदे की शुरुआत मिले और क़ायदे काअंत भी? क्या कोई ऐसी कहानी हो सकती है जिसमें मुख्य भूमिकाएँ घर के कोनों-अंतरों में छिपे जीव-जंतु निभा रहे हों, फिर भी वह बिना प्रतीकात्मक हुए अंततः मनुष्य के बारे में एक बेहद संवेदनशील कथ्य सामने रखती हो? क्या कोई ऐसी कहानी हो सकती है जिसका रचनाकार एक बड़ी बात कहने की महत्त्वाकांक्षा से बिल्कुल अछूता दिखता हो, फिर भी कहानी बहुत बड़ी बात कह जाती हो? जैसे कित-कित और आइस-पाइस खेलते हुए निहायत अगंभीर तरीक़े से एक जीवन-दर्शन पेश कर दिया जाए? आइए, समीना ख़ान की यह छोटी-सी कहानी पढ़ते हैं जो ‘वनमाली कथा’ के ताज़ा अंक में प्रकाशित हुई है।
यह कहानी बच्चों, वयस्कों और बूढ़ों के लिए है।
खटाक। कट कट कट कट कट। दहलीज़ से दूर होते क़दमों की आवाज़। खटाक के बाद बजने वाले पांच कट का मतलब लम्बी फुर्सत। यानी ये सन्नाटा देर तक बरक़रार रहने वाला है। इंटरलॉक में चाबी पांच बार घुमाने का मतलब ही यही होता है कि यह कट कट लम्बी आज़ादी का बिगुल है।
इस आवाज़ के बंद होते ही दरवाज़े के अंदर का नज़ारा। मकान में ख़ामोशी, सन्नाटा, अपनी जगह पर थमा झिलमिलाता सा हर सामान। बंद खिड़की-दरवाज़े के बावजूद हलकी रोशनी, अंधेरे से टक्कर लेती सफ़ेद दीवारें।
इस इंटरलॉक की आवाज़ ने एक बा-ख़बर संसार को बेख़बर कर दिया। सुनसान मकान में ज़िंदगी की हलचल साफ़ महसूस होने लगी और देखते ही देखते एक अलग दुनिया वजूद में आती महसूस हुई।
इस सन्नाटे के बीच हरकत की पहल घड़ी के बराबर में टंगे फ्रेम से हुई। डाइनोसॉर के घराने वाली छिपकली ने आधी खोपड़ी बाहर निकाली। मुआइना किया कि वाक़ई अकेलापन हक़ीक़त है तो ख़ुशी से गोल होती हुई बिना कांच वाली आयल पेंटिंग पर विराजमान हो गई। पेंटिंग में पेड़ों के झुरमुट पर जमी गर्द की परत ने कलाकारी को कुछ धुंधला कर दिया था जिस पर हलकी झिल्ली वाली छिपकली ज़रा निखरकर आ रही थी।
जिनके पुरखे डाइनोसॉर बनकर इस धरती पर राज करते थे, वह आज दो बाई तीन के फ्रेम में टहलने के लिए मालकिन की लम्बी विज़िट के इन्तिज़ार में कान खड़े रखती हैं। जिस अय्याशी से इन्होंने फ्रेम पर डेरा डाला था, उसे देख कर यही लग रहा था कि गोवा के बीच पर पहले सन और फिर मून बाथ का मज़ा लेना है। अचानक किसी ख़याल ने इनके आराम में दख़ल दिया तो खुद को ज़रा सी ज़हमत देकर पहले बाएं देखा और फिर गर्दन 180 डिग्री घुमाते हुए दाएं देखने के बाद रिलैक्सेशन मुद्रा में वापसी की।
छिपकली और मालकिन दोनों को ही पता था कि दोनों ही एक-दूसरे की निगरानी में हैं। फ्रेम के ऊपर मौजूद छिपकली भी भरी दोपहरी में यह ख्वाब देख रही थी कि मालकिन ने उसके वजूद को क़ुबूल कर लिया है। उसने राहत की सांस ली और मालकिन की आवाज़ अपने कानों में महसूस की- “ठीक है, ठीक है, रह लो यहां मगर आबादी बढ़ाने की ज़रूरत नहीं। बस तुम्हें ही इजाज़त दे रहे हैं।” छिपकली को भी पता था कि उनके लिए फ्रेम तक पहुंचना और उसे भगा देना मुमकिन नहीं मगर उसने जिस ख़याल को ख़ुद पर हावी किया, वह यह था कि शायद बहुत दिन तक इस लुका-छिपी वाले साथ ने मालकिन के दिल में उसके लिए कोई जगह बना दी हो।
मिसेज़ रूथ इस चमचमाते हुए मकान में दो बरस से अकेली रह रही थीं। मिस्टर फ्रेडरिक के जाने के बाद बेटे ने उन्हें अपने पास न्यूज़ीलैण्ड बुलाना चाहा मगर उनके लिए इस घर को छोड़ना आसान नहीं था। बेटे को बस इतना ही कहा था- ‘’इस मामले में मेरे साथ ज़बरदस्ती मत करना। कोई क़सम नहीं खायी है मगर जब तक मुमकिन होगा यहीं रहना चाहूंगी।”
डेनियल मां को जानता था। उनसे बस इतना ही कहा- ”मेरे लिए छुट्टियों में आना ही मुमकिन होगा, बाक़ी आप जब चाहें मेरे साथ आ सकती हैं। लिली को भी कोई एतराज़ नहीं और बच्चे भी आपके साथ रहना पसंद करेंगे।”
मिस्टर फ्रेडरिक का बनवाया मकान और उनकी आधी पेंशन मिसेज़ रूथ के लिए काफ़ी थी। वक़्त गुज़ारी के लिए वह सुबह दस बजे से दोपहर दो बजे तक का समय घर से कुछ दूर ओल्ड एज होम में बितातीं और रात का खाना इस तरह पकातीं कि अगले दिन दोपहर में गर्म करके खाया जा सके। नाश्ता ब्रेड दूध अंडे वाला होता, हफ्ते में एक दिन फल भी खरीद लेतीं। रात के खाने के बाद कुछ देर की चहलक़दमी और सोने से पहले थोड़ा सा पढ़ना। कभी-कभार वीकेंड पर शहर के दूसरे छोर पर रहने वाली अपनी बहन के घर चली जातीं। यहां से वापसी में इतवार की शाम हो जाती और अगले दिन से फिर वही रूटीन।
कमरे से बाहर खुलने वाला दरवाज़ा पूरी तरह से खुला तो नहीं था मगर लॉबी का काफ़ी नज़ारा करा रहा था। खुले दरवाज़े से फ्रिज का एक हिस्सा बिलकुल साफ़ नज़र आ रहा था। जिस सुरमई रेफ्रिजरेटर की छत पर अल्लम-गल्लम सामान सलीके के रखा था, उसी फ्रिज के क़दम हमरंग फाइबर के स्टैंड पर जमे थे। अगली हरकत इसी स्टैंड पर हुई। फ्रिज के पायों को थामे इस फाइबर स्टैंड के चारों गोल कोनों के बीच जो ब्रिज जैसा गलियारा था, वहां से वह सरकती हुई दरवाज़े के पास वाले गोले पर टिक गयी और मुंह बाहर निकाला। ये कमसिन-सी चुहिया थी।
कमउम्री उसकी तनी हुई खाल और चमकती आंखों से नज़र आ रही थी। दहशत कुछ कम थी मगर मुस्तैदी फ़ितरत का हिस्सा थी। गर्दन के घूमने से बालों की जो लहर बनती थी, उसकी चमक भी कमसिनी की चुग़ली कर रही थी। इनके तने हुए कान सर्विलांस मोड पर थे। सन्नाटे के शक को यक़ीन में बदलता पाया तो सबसे पहले दबी हुई दुम ने ख़ुशी मनायी और नाज़ुक से बदन ने बड़ी ही फुर्ती के साथ ज़मीन पर चंद क़ुलांचें भर डाले।
इन लोहे और कंक्रीट वाले मकानों ने बिल का कॉन्सेप्ट ही ख़त्म कर दिया है। बस बातें हैं बड़ी-बड़ी- ‘कच्चे मकान बड़े अच्छे होते थे’, ‘घड़े का पानी बहुत मीठा होता था’। इस नादान ने भी सुना है कि पहले ज़माने में पका खाना फ्रिज में और कच्चा डिब्बों में सील नहीं रहता था। तब का इंसान खाने खिलाने का शौक़ीन था। बोरों में अनाज रहता था, टोकरी में सब्ज़ियां और डलिया में बची रोटी का कुछ-कुछ हिस्सा इनके बिलों को भी गुलज़ार कर दिया करता था। अगर कोई चीज़ किसी पाबन्दी के घेरे में आयी तो इन्हें भी अपने दांतों की तेज़ी आज़मा लेने का पूरा हक़ था। फ़िलहाल तो गज़ भर ज़मीन और अपने हिस्से की आज़ादी सेलिब्रेट करने में वह इतनी मगन थी कि खाने-पानी का भी होश न रहा।
रेफ्रिजरेटर से सटी ग्रेनाइट की किचन टेबल पर जल्दी ही छोटे-छोटे कॉकरोच ने अपना साम्राज्य फैलाना शुरू कर दिया। पता नहीं कब से गैस बर्नर की पाइपलाइन और नॉब में दम साधे बैठे थे। खुली हवा में सांस लेने का उन्हें कोई शौक़ तो नहीं था, बंद नालियों और सीलन में ही इनकी ज़िन्दगी गुज़र जाती है। लेकिन यह सोचकर बाहर निकल ही आये हैं कि बिना ख़तरे, इलाक़े का जायज़ा लेने का मौक़ा भला क्यों खो दिया जाए। क्या उन्हें नहीं पता कि उनके ख़ात्मे के लिए बड़े पुख्ता इंतिज़ाम मालकिन ने किये हैं। जहां उनकी बिरादरी के किसी बन्दे ने बाहर निकलने की ग़लती की, वहीं एक ज़हरीले स्प्रे ने उसे तड़पाकर मार गिराया। मौत से पहले लोटते-पोटते कितने ही साथियों को बदली करवट के साथ हवा में अपने पैर और पर फड़फड़ाते देखा है। ग्रेनाइट पर पड़े-पड़े ख़ुद से ही सवाल किया- ”तरक्क़ी तो हमने भी की है। गुम्मे पर रखे सिल बट्टे की दरारों से निकलकर हमारी नस्ल आज मिक्सर के ढांचे तक शिफ़्ट हो चुकी है। इंसानों को यह तो सोचना ही चाहिए कि आख़िर हम सब भी तो इस दुनिया और क़ुदरत का हिस्सा हैं। जिनकी मेंटेनेंस के लिए एक टके का भी ख़र्चा नहीं, उनके ख़ात्मे के लिए इतनी मोटी रकम! यह तो वही मिसाल हुई कि दो कौड़ी की झोपड़ी गिराने के लिए लाखों का मिसाइल दाग़ दिया जाए। वाह रे सर्वश्रेष्ठ! इतनी छोटी है तुम्हारी सोच। बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी करते हो कि चार दिन की ज़िन्दगी और हम चार पल वालों की उम्र से इतनी नफरत!”
पता नहीं किस कोने से तीन-चार मक्खियां बरामद हुई और कमरे में उड़ान भरने लगीं। कमरे में सन्नाटा था। अब डिजिटल घड़ी आ जाने के बाद से टिक-टिक की आवाज़ें भी ख़त्म हो चुकी थीं। भन्न-भन्न का शोर किसी को भी बता सकता था कि इस कमरे में कौन गर्दिश कर रहा है। एक गुस्ताख़ ने तो हद ही कर दी। सीधा उस फ्रेम पर जा बैठी जिसमें कांच के पीछे से जवान मिसेज़ रूथ मुस्कुरा रही थीं। ब्लैक एंड वाइट मिसेज़ रूथ। मक्खी ने भी बड़े इत्मीनान से उनके नयन-नक़्श का मुआयना किया और उनके माथे पर चंद काले ज़र्रे छोड़कर उड़ ली।
सारे खिड़की-दरवाज़े बंद मिले तो शैतान की ख़ाला उर्फ़ बिल्ली मौसी ने बड़ी ही मायूसी से उस जंगले से अंदर झांका जिसने घर के आंगन जैसे आज़ाद इलाक़े को भी हिफ़ाज़त के घेरे में ले लिया था। एक तो दाख़िले के सारे रास्ते जाम, उसपर अठखेलियां करती चुहिया ने मौसी की सांसों को हलकी गुर्राहट में तब्दील कर दिया। वक़्त के साथ कहावत बदली और खिसियानी बिल्ली जंगला नोचती नज़र आयी। कमसिन चुहिया ने फ्रिज के स्टैंड में पनाह लेकर अपना सिर बाहर निकाला। एक बार जंगले की तरफ़ देखा, फिर मिसेज़ रूथ के बेड की तरफ़ और चीं-चीं की आवाज़ में ज़ोर से कहा- “थैंक्यू मिसेज़ रूथ।”
जल्दी ही ज़ीरो बैक्टीरिया सफ़ाई वाले घर की पोल चीटियों की उस क़तार ने खोल दी जो रेफ़्रिजरेटर पर रखी एक शीशी की तरफ़ धावा बोल चुकी थीं। भरपूर साफ़-सफ़ाई के बाद भी खांसी के सीरप से टपकी एक बूंद। इस अनदेखी का साइलेंट नक्कारा पता नहीं कब इस फ़ौज को बाख़बर कर गया। चीटियों का क़ाफ़िला बोतल को घेर चुका था। कई जाबांज़ चीटियां उस चढ़ाई तक पहुंच चुकी थीं जहां ढीले ढक्कन से यह गुस्ताख़ बूंद बाहर आयी थी।
सूखे पड़े वाशबेसिन की जाली से कुछ भारी भरकम तिलचट्टे हवाखोरी करने बाहर आ गये थे मगर साफ़-सफ़ाई और सूखेपन से उन्हें कोई ख़ास सरोकार नहीं था। इसलिए ज़्यादा एन्जॉय नहीं कर पा रहे थे। इनके जिस्म नहीं, लम्बे एंटीना हरकत में दिखे। आख़िर सीनियर सिटिज़न ठहरे। तजुर्बा ज़्यादा हो तो जिस्म आराम का हक़दार हो ही जाता है।
दुखों का पहाड़ तो राई बराबर मच्छर के हिस्से में था। दिनभर परदे के पीछे पड़ा रहता और रात को जब क़तरा भर खून की तलाश में निकलता तो वह घेराबंदी जैसे सरहद पार के दुश्मनों से टक्कर लेने का इंतिज़ाम किया गया हो। धूप और हवा भले ही रुक जाए मगर घर में दाख़िले की हर जगह पर जाली तनी हुई है। पंखा-कूलर बंद करने का मौसम आया तो अपने ही चारों तरफ़ मच्छरदानी तान ली। इतने पर भी चैन नहीं मिला तो कभी किसी अगरबत्ती का धुंआ और कभी कोई बिजली से चलने वाला हथियार। ज़रा हवा में लहराते देखा तो फ़ौरन चार्ज किया हुआ रैकेट दे मारा। जब-तब कोई न कोई स्प्रे। बस चले तो इलाक़े के कॉर्पोरेटर से कहकर फॉग वाली गाड़ी से सुबह दोपर शाम धुंए का बवंडर गुज़रवा दें। हर दिन बाज़ार और भी ज़्यादा पावरफुल मॉस्किटो किलर पेश कर रहा है, उसके बावजूद अगर मौक़ा मिलता है तो खुली किताब में ही क़ब्र बनाने से नहीं चूकता है ये ज़ालिम इंसान। उसने दिल ही दिल में सोचा- ”महज़ एक क़तरा ख़ून की ख़ातिर कितनी बड़ी जंग में ख़ुद को मुब्तिला कर लिया है। मगर अफ़सोस तो इस बात का है कि जिसकी बग़ावत में इतना हथियार जमा किया है, उसका नाम गब्बर या खड़ग सिंह नहीं मच्छर की औलाद रखा है।” उसे यह ख़याल भी कौंधा- ”न मेरे पास रहने का घर न जीने की गृहस्थी। ज़िंदगी भी बहुत छोटी है मगर मेरी मौत का इतना सामान है कि ख़ुद पर फ़ख़्र करने का दिल चाहता है।”
हमेशा की तरह अगर कोई अपनी लगन में मगन था तो वह थीं मकड़ी मैडम। ख़ूब अच्छे से उन्हें पता था कि हफ़्ता-दस दिन के अंदर वैक्यूम क्लीनर में उनसे दुश्मनी वाला पाइप सेट करके इन तमाम बुनी झालरों को नेस्तनाबूद कर दिया जाएगा। जाला बुनते बुनते मकड़ी जज़्बाती हो गई और ख़ुद से ही बतियाने लगी- ”यह ज़ुल्म तो हमारी क़ौम ने सदियों से झेला है। किसी ज़माने में झाड़ू से हमारे ख़िलाफ़ जंग लड़ी जाती थी। बदलते वक़्त के साथ कई तरह के ब्रश वजूद में आये और अब इस वैक्यूम क्लीनर पर बात रुकी नहीं है। यह जानते हुए भी जिस कारीगरी से पहले जाला बुना जाता था उसमे आज तक रत्ती बराबर फ़र्क़ नहीं आया है। इन्हे तो हमारे हुनर की क़द्र करनी चाहिए।”
‘तू क्या ले के आया था और क्या ले के जायेगा’, के फंडे पर काम करने वाली इस क़ौम को पुताई करके जब-जब इनके इलाक़े से बेदखल किया गया, तब तब इन्होंने उसी शिद्दत से अपना आशियाना फिर वहीं तामीर किया। जहां मौक़ा मिला बटन बराबर जाला बुन दिया और जैसे ही लम्बी फ़ुर्सत हाथ आयी तो अपने ही तार पर तैरती हुई कई फिट नीचे तक नज़ारा कर लिया। मालकिन माने या न माने, मगर मकड़ी ख़ुद को सफ़ाई अभियान का हिस्सा मानती है। जिसे इस बात पर ऐतराज़ हो, वह ख़ुद आकर देख ले कि कितने कीट-पतंगे उसके बुने जाल में आकर फंसते हैं और जान से हाथ धो लेते हैं। मगर उसने न कभी ग़ुरूर किया और न ही शिकायत। बस कर्म से मतलब रखा।
अचानक फुर्र के साथ फड़फड़ाहट की आवाज़ ने सभी को चौंकने पर मजबूर कर दिया था। छिपकली ने फ्रेम पर ही दम साध लिया मगर चुहिया ने लम्हे भर में खुद को महफूज़ करने के साथ माजरा भी समझ लिया था। जंगले से एक साथ चिड़िया और चिडढा दाखिल हुए थे। इनकी चोंच में दाल और चावल का दाना नहीं बल्कि घास-फूंस के उलझे हुए तिनके थे। अकसर इधर आते और पंखे के उस कप में घोंसला बनाने की कोशिश करते जिसका रुख छत की तरफ था। कमरे के सन्नाटे में खुद को परवाज़ करने से रोक नहीं पाए। इस मौज मस्ती में एक तिनका और कुछ कूड़ा बेड पर गिरा। जो पिछली सफ़ाई के बाद भी कटोरे में जमा रह गया था। कपड़े की चिट, रुई के रेशे और कुछ उलझे से धागे, यह सब किसी पुराने फेरे की जमा पूंजी थी। बेड पर इस बिखरे सामान से बेफ़िक्र दोनों अपने खेल में मगन थे। कभी टकराते तो कभी एक दूसरे से चोंच लड़ाते। इस धमाचौकड़ी ने कहीं पास गश्त लगाती बिल्ली को एक बार फिर से तांक-झांक के लिए मजबूर कर दिया। कुलांचे भरती चुहिया को हज़म न कर पाने का ग़म कम नहीं था, उड़ान भरते इस जोड़े ने जो ज़ख्म दिया, उसने मौसी की आह को बड़ी भारी गुर्राहट में बदल दिया था। चिड़िया और चिडढे ने दुबककर पंखे के ऊपरी कटोरे में पनाह ली। क़ैद की यह आज़ादी मौसी के लिए जानलेवा साबित हुई। बेचारी इस बार भी खिसियाहट में लोहे के जंगले को नोच कर रह गई।
मिसेज़ रूथ बहन के घर से एक रात और दो दिन गुज़ारकर आती थीं। इतनी लम्बी आज़ादी इन सभी को बोर और बेहाल कर दिया करती। छत की मकड़ी हो, दीवार की छिपकली या फिर फ्रिज के पीछे छुपी कमसिन सी चुहिया, मालकिन की ग़ैर मौजूदगी में सभी ऊब चुके थे। किसी के भी जीवन में जैसे कुछ बचा ही नहीं था। टकटकी बांधे यह सब इंटरलॉक की कट-कट का इन्तिज़ार कर रहे थे। इन्तिज़ार ख़त्म हुआ। इंटरलॉक से एक बार फिर पांच बार कट-कट की आवाज़ आई और पूरे घर में मौजूद हर जानदार हस्ती ने मुस्तैदी के साथ अपनी-अपनी पोज़िशन ले ली।
मिसेज़ रूथ के चेहरे का इत्मीनान बता रहा था कि अपनी पनाहगाह में वापस आकर खुश हैं। बिस्तर पर पड़े तिनके देखकर मुस्कुराईं फिर चारों ओर का जायज़ा लिया। पहले बिस्तर की चादर बदली फिर अपने कपड़े। आज चहलक़दमी का मन नहीं था। हाथ में किताब लिये डेनियल से बात करती अपने बिस्तर पर आ गईं- “हाँ, मैं आराम से पहुंच गयी हूं। कैथी और बच्चों के साथ बहुत अच्छा वक़्त बीता।”
मिसेज़ रूथ के हाथ की किताब गोद में थी। नाक पर रखे रीडिंग वाले चश्मे को ज़रा नीचे सरकाते हुए उन्होंने सुकून से घर का जायज़ा लेना शुरू किया। कमसिन चुहिया ने महसूस किया कि मालकिन से निगाह चार हुई है और झट-पट फ्रिज के पीछे गुम हो गयी। फिसलती निगाहें छत के कोने पर मौजूद मकड़ी को देख सकती थीं मगर उसने छुपने की कोशिश नहीं की। उनकी घूमती गर्दन अब फ्रेम पर थी। छिपकली ने जैसे मुस्कुराकर कहा- ”गुडनाइट” और फ्रेम की आड़ में आराम करने चली गयी। मिसेज़ रूथ ने नाक पर रखा चश्मा उतारा, किताब और चश्मे को साइड टेबल पर रखा। लैंप का स्विच बंद किया और उनके मुंह से निकला- ”गुडनाइट।” लेटते हुए वह कह रही थीं- ”डेनियल! तुम्हें कैसे बताऊं कि मैं अकेली नहीं।”
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बहुत खूब, अच्छी कहानी.समीना जी ने बिना बिम्ब और प्रतीकों के माध्यम से जीवन्त वातावरण का सृजन कर दिया.
-राजा सिंह
वाह ! कमाल की कहानी है। एक सांस में पढ़ा ले गई। आपकी टिप्पणी भी बेजोड़ है, संजीव जी ! पढ़ने की ऐसी जिज्ञासा पैदा की कि बस शुरू हो गया। समीना जी को हार्दिक बधाई एवं साधुवाद!
मिसेज रूथ के घर के रहवासियों के प्रति संवेदना की क्या गजब बुनावट है ! मुझे लगा कि कुछ लंबा और ठीकठाक घटित होगा लेकिन डेनियल से एक लाइन के संवाद ने इतनी शानदार कहानी को हजम कर लिया। दुखी हूं। गुड नाइट मिसेज रूथ।
एक अलग जॉनर की बेहतरीन कहानी ।समीना को बधाई
कहानी अच्छी है। पढ़कर अच्छा लगा।
समीना के भीतर सोंचने की ,महसूस करने की विलक्षण क्षमता है..वे आसपास घटित होते साधारण दृश्यों में भी कुछ न कुछ असाधारण ढूँढ ही लेती हैं , एक बात और जोड़ना चाहूँगी कि उनका सटायर कमाल का है.. तो लिखते समय उनकी भाषा में जो चुटीलापन आता है, वे उसके लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करती होंगी..वो उनके भीतर इनबिल्ट है..एक अलग तरह के विषय पर बेहद अच्छी कहानी के लिए समीना को बधाई 💐
अच्छी कहानी है। कहानी है इसे पढ़ते हुए दो बैलों की कथा याद आ गई। हालांकि दोनों ही कहानियों में अंतर होने के बावजूद चरित्र के रूप में जानवरों का इस्तेमाल हुआ है। समीना जी ने मुहावरे का प्रयोग बहुत ही अच्छे ढंग से किया है। पहली पंक्ति यदि किसी और तरीके से लिखी गई होती तो पाठक के लिए ज़्यादा सुविधाजनक होता।
सच में अच्छी कहानी। खासकर- आजकल जो हम सेलेक्टिव नैतिकता और सेलेक्टिव संवेदना देख रहे हैं, उस पर सटीक ‘मार’।
समीना ने कमाल की कहानी लिखी है। रूथ की आत्मा में दाखिल होकर। ऐसे नजारे हम सब अपने घरों में देखते हैं मगर सच में देखते नहीं। देखना इस तरह होना चाहिए कि हमारे आस-पास रहने वाले इंसान ही नहीं छोटे छोटे तमाम प्राणी हमारे जीवन के ही हिस्से हैं। उनका अपना संघर्ष है जीने का। उन्हें साथ जीने देने और उनके साथ जीने का सलीका आदमी को आना चाहिए। यह कहानी घर के बाहर की विशाल दुनिया के लिए भी एक रूपक की तरह प्रस्तुत होती है। मैं मनुष्य हूं और बाकी सब मक्खी, मच्छर, मकड़े, चूहे हैं, ऐसी समझ ठीक नहीं है। जो कमजोर हैं, हमसे ही चुराकर, कुतरकर लिये गये अनाज पर जीते हैं, वे सब मार दिये जाने चाहिए, यह सोचना भी अर्थपूर्ण नहीं है। कहानी कई स्तरों पर अपना अर्थ खोलती नजर आती है। बधाई समीना।
बहुत ही अच्छी कहानी।
बधाई और शुभकामनाएँ।
अगर मन लेखक हो तो लिखने को पात्रों की कमी नहीं है। समीना के लेखक मन को ढेर सारी बधाई।
वाह। कमाल की कहानी। पूरी एक छुपी हुई दुनिया यहाँ खिल उठी है।
Chuhiya ki kamsini bht piyaari lagi aur kakrocho per ki gaye fezool kharchi samina aap kaise itna gehra soch leti h
बहुत सुंदर कहानी। यही तो कल्पनाशीलता है। और यही है कहानी कहने / बुनने की कला।
कहानी में जिस तरह जीव जंतुओं को प्रतीक के रूप में इस्तेमाल कर जीवन के अकेलेपन को भरने की कोशिश की गई है वह समीना की लेखनी का निराला अंदाज है। बढ़ती उम्र के साथ अकेलापन के दौर से सभी को गुजरना होता है लेकिन इसे महसूस न करते हुए भी खुश रहा जा सकता है यह कहानी नया नज़रिया पेश करती है।
इस नए बिंब की कहानी के लिए आपको बहुत बहुत बधाई समीना!
समीना ख़ान की कहानी ” पनाहगाह ” हमें एक ऐसी दुनिया में ले जाती है जो हमारी जानी- पहचानी भी है और अजनबी भी। यह माहौलयाती अदब यानी इको- लिट्रेचर के मौजूदा ट्रेंड के खांचे में फिट तो बैठती ही है पर एक अलग जीवन वृत्त भी रचती है। हम से अलग जीव हमारे दुश्मन नहीं बल्कि हमारी ज़िन्दगी का हिस्सा हैं और हमारी जैविक वैविध्यता को संरक्षित करने का उपक्रम भी। और ये हमारे अकेलेपन के भरोसेमंद साथी भी। कहानी बड़े इत्मीनान से ठहरकर जीवों की इंस्टिंक्ट और उनके जीने एवं अपने स्पेस में आज़ादी को एन्जॉय करने का बड़ा ही अनोखा ग्राफ़िक पेश करती है। यह पर्यावरण सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए एक अनुकूल वातावरण निर्माण हेतु परिस्थितिकी में संतुलन, समन्वय और सहयोग से सह-अस्तित्व पर ज़ोर देती है। यहां सब अपने हैं, कोई ग़ैर नहीं और सब को अपना जीवन जीने का बराबर का अधिकार है। नो धौंस, नो वर्चस्व। सुन्दर दुनिया का राज़ बनाने में है, मिटाने में नहीं। इन्हीं सरोकारों की , ताज़गी का एहसास कराती बामक़सद कहानी।
अली इमाम ख़ाँ, झारखण्ड।
एकरसता और अकेलेपन से घिरे नए मनुष्य को राह दिखाती कहानी।
समीना को बधाई और शुक्रिया।
रश्मि शर्मा, 11pm 17 मई 2025, आपने कहानी का नया व अनोखा विषय लिया, दिल को छू गया, जीव हो या इंसान ज़्यादा देर अकेला नहीं रह सकता मिसेज़ रूथ के good नाइट में सब आ गया 🙏💐