नौ कविताएँ / अशोक शुभदर्शी


“प्रेम बचाने के लिए नहीं बनाया गया / कोई परमाणु बम / नफ़रत बढ़ाने के लिए / कितने ही” –इस बार जमशेदपुर के कवि अशोक शुभदर्शी की कविताएँ :

रंग

रंग बिखेरे थे उसने
बहुत से
पर सब फीके, धब्बों-से दीखते थे
गहरा, चटक कोई नहीं

खुद उसका मन नहीं रंगा था गहरे रंग से
तो वह क्या रंग सकता था
किसी और को

न कोई विचार था उसके पास
न कोई ख़ास समझ

सिर्फ चालाकी दिखायी थी उसने
रंग बिखेरने में

अलसाया, उदास, कर्तव्य विमुख
दिशाहीन रहा था
भीतर से वह

बाहर से उसने दिखायी थी
खूब गर्जना-तर्जना

वह निपटता रहा था
सिसकियों से
झकोरों से

जब तूफ़ान आया
तो धुल गये थे
उसके बिखेरे सभी
फीके, दाग-धब्बों-से रंग।

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भाषा

भाषा मौन से उपजती है
मौन जब छलकता है
भाषा हो जाती है

नदियों का कल कल
सागर का गर्जन
चहचहाट चिड़ियों की
गड़गड़ाना मेघों का
भाषा है प्रथम

मौन जब मौन रहता है
वह ठीक से व्यक्त हो रहा होता है

वे सारी भाषाएं जो सामने आती हैं
अधूरी रह जाती हैं

दिखता है भाषाओं का अधूरापन
उनके प्रकट होते ही
वे परिभाषित नहीं कर पातीं
दर्द मौन का
पूरी तरह से।

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मैं प्रश्नचिह्न हूँ

मैं एक प्रश्नचिह्न
कोशिश नहीं करना
मुझे मिटाने की
बिना उत्तर दिये

जब तक उत्तर नहीं दे देते
मुझे बने रहने देना
मैं जहाँ हूँ
वहीं/जिस रूप में हूँ/उसी रूप में

खेतों में
दफ़्तरों में
अस्पतालों में
बिस्तरों पर
तुम्हारी आँखों में
जहाँ हूँ मैं
वहीं, मुझे बने रहने देना

मैं मिटूँगा नहीं
बिना उत्तर पाये
तुम एक बार मिटाओगे
मैं फिर उभर आऊँगा

तुम बार-बार मिटाओगे
मैं बार-बार उभर आऊँगा

मैं प्रश्नचिह्न हूँ
बिना उचित उत्तर पाये
नहीं मिटूँगा

तुम छिपाओगे
मैं नहीं छिपूँगा
तुम हल्का करोगे
हल्का नहीं होऊँगा
तुम भटकाओगे
नहीं भटकूँगा
बना रहूँगा
अपनी जगह

मैं प्रश्नचिह्न हूँ
बना रहूँगा।

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विषवृक्ष

यह एक विषवृक्ष है
खूब बड़ा हो रहा है
खूब फैल रहा है
खूब हरा- भरा है

फल-फूल नहीं लगते
इस वृक्ष में
कभी लगता है फूल तो
नहीं होती उसमें कोई सुगंध

फल आता है तो बहुत ज़हरीला
किसी के किसी काम का नहीं
कोई चख नहीं पाता

आत्महत्या करनी होती जिसे
वह इसे खाता है मज़े से

जो आते हैं आश्रय के लिए
इसकी छांव में
भूले- भटके
या कोई खिंचा चला आता है
इसके रंगीन आकर्षण में
उसे निगल जाता है यह वृक्ष

फिर पता नहीं चलता
उसके अस्तित्व का

इस वृक्ष की शाखा, टहनी, पत्ते
सभी खूंखार

दूसरे वृक्ष की छांव में रहने वाले हों
या उस तरफ से गुज़रने वाला कोई राही
उसे झपट्टा मारकर दबोचता
और फिर लील जाता है यह वृक्ष

इधर पिछले वर्षों बिखेरे गये
इसके अनगिनत बीज चारों तरफ़
जो अब उगते जा रहे हैं
बड़े शान से।

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दर्द

चुप नहीं रहा समाज
देखकर उसकी विक्षिप्तता
उसके सोच-व्यवहार में आई कमी को

यह जो दिख रही थी उसकी सक्रियता-सी
यह उसकी महत्वाकांक्षा नहीं थी
यह उसमें आया अनावश्यक पिछड़ापन था

उसे दंडित किया
सहा नहीं
क्षमादान नहीं किया
उसके ऊट-पटांग कार्यों पर समाज ने

समाज के पास न समय था
न धैर्य न कोई तरीक़ा
उसके असंतुलन के उपचार का

समाज भूला गया उसका संघर्ष
उसकी उपलब्धियां सारी
और लग गया उसकी खिल्ली उड़ाने में
उसी की चर्चा में थोड़ा क्रूर होकर

उस पर पत्थर फेंके
थूका
गालियां दीं भद्दी-भद्दी
छेड़ा तरह तरह से
ताने मारे
और उसे पीटा भी

उसके पीछे पड़कर
सबने मनोरंजन किया अपना

उसके सम्मान की कोई बात नहीं थी
इतना किया जा सकता था
उसे छोड़ा जा सकता था
उसकी जगह उसके हाल पर।

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रोशनी

हम जिस गली- कूचे में रहते हैं
अक्सर यहां रोशनी नहीं आती है

आती भी है तो आने जैसी नहीं आती
आती है और चली जाती है

कभी जो ठहरने लगे यह रोशनी
तो हम भाग जाते हैं
अंधेरे कक्ष में

हमें आदत पड़ गयी है जीने की
अंधेरे में
हम जीते हैं मानकर रोशनी
अपने अंधेरे को

वह अपनी रोशनी जो दिखती है
परायी-सी
बहुत खलती है हमें

हम सच से डरते हैं
और जीते हैं झूठ की दबंगई में

ऐसा नहीं है कि
हम दीप नहीं जलाते हैं
पटाखे नहीं फोड़ते हैं
रोशनी की तरफ़ जाने के लिए
हम मिसाइल भी छोड़ते हैं

मगर यह सब
और बढ़ा देता है अंधेरे को
कम नहीं करता है

हमें खूब आता है गुम हो जाना
अपने ही उगाये
एक भयानक शोर में।

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युद्ध में मारा गया एक बच्चा
(फिलिस्तीन में चल रहे युद्ध के संदर्भ में)

मैं युद्ध में मारा गया एक बच्चा हूं
मैं नहीं जानता था
कि कोई युद्ध चल रहा है

मैं निकल रहा था घर से गेंद खेलने
और बच्चों के साथ
एक गोला आया
गिरा हमारे ऊपर
मैं लहूलुहान होकर चूर हो गया
मर गया

मेरे साथ चल रहे बच्चे मारे गये
मेरे मां-बाप
भाई-बहन
पड़ोसी भी मारे गये
सब मारे गये

अब कोई गाड़ी लेकर आयेगा
हमें दफ़ना देगा दूर ले जाकर
वह आंसू नहीं बहायेगा हमारे लिए
वह करेगा यह सब
एक काम की तरह

अब मुझे कोई याद नहीं करेगा
अब मैं सपना नहीं हूं किसी का
अपने देश का भविष्य नहीं हूं

मेरी मृत्यु एक समाचार भर है
मेरा कभी नाम नहीं लिया जायेगा
मेरी मृत्यु व्यर्थ चली गयी है।

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प्रेम

प्रेम को छोड़ दिया गया है
दिल के भरोसे
दिल कभी जीतता है
छोटी-सी दुनिया प्रेम की
कभी हार जाता है

कभी युद्ध नहीं हुआ प्रेम के लिए
नफ़रत के लिए होते रहे हैं
बड़े-बड़े युद्ध

प्रेम की बाढ़ नहीं आती
नफ़रत की आती है सुनामी भी

नफ़रत उजाड़ती रही है
दुनिया को बार-बार

प्रेम बचाने के लिए नहीं बनाया गया
कोई परमाणु बम
नफ़रत बढ़ाने के लिए
कितने ही

फूल मुरझा जाते हैं खिलकर
कांटे नहीं
टीसती रहती है चुभन
कांटे की देर तक

वह अमृत बूंद नहीं मिलती
जिसे रखकर होंठ पर
अमर हो जाये कोई

ज़हर मिलता है बाज़ार में
व्यर्थ नहीं जाता है
जिसका असर कभी।

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पृथ्वी संग्रह करती है

पृथ्वी संग्रह करती है
हवा, धूप, जल, चांदनी,
छांव

पृथ्वी संग्रह करती है
संग्रह कर सकती है सिर्फ़ पृथ्वी

वह संग्रह करती है
प्रेम और करुणा का

कहीं से भी
किसी के लिए
नहीं करती है वह संग्रह
घृणा का

पृथ्वी जीवन का संग्रह करती है
उसे उगाती है
अंकुरित होने देती है

माटी, धूल, रेत
जंगल, पहाड़, समुद्र
किसी भी तरह से
वह संग्रह करती है
अपनी उपयुक्त चीजों का।

 संपर्क : 91427 06026

 

 

 

 

 


3 thoughts on “नौ कविताएँ / अशोक शुभदर्शी”

  1. अपने समय को बड़ी ही सूक्ष्मता और गहराई से रेखांकित करती कविताएँ ।

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  2. अपने समय की गवाही देती सटीक-संवेदनापूर्ण कवितायें

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