कुछ कविताएँ / शचीन्द्र आर्य


पकी-पोढ़ी निगाहों से छूट जाने वाली कई चीज़ें बच्चों जैसी निश्छल निगाह की ज़द में आ जाती हैं। शचीन्द्र आर्य की कविताएं ऐसी ही चीज़ों का संसार है। ‘हंस’, ‘पहल’, ‘वागर्थ’, ‘तद्भव’, ‘समकालीन भारतीय साहित्य’, ‘बहुमत’ (कृति बहुमत), ‘सदानीरा वेब पत्रिका’, ‘समालोचन’, ‘अनुनाद’, ‘हिंदवी’, ‘कविता कोश’ में उनकी कविताएं प्रकाशित-संकलित हैं। एक कविता संग्रह है : ‘क़ुतुब मीनार खड़े-खड़े थक गया होगा’ और एक डायरी : ‘दोस्तोएवस्की का घोड़ा’। 

 

फ़िलहाल महमूद दरवेश का देश

[I] 

बहुत दिनों से सोच रहा हूं,

जो नहीं लिख पा रहा वह क्या है ?

 

शायद ऐसा दृश्य

जिसमें कहीं कई सारे बम एक साथ गिरते हुए दिख रहे हैं

अंधेरे को चीरते,  एक  तेज़ रौशनी की सीधी रेखा बनाते

 

यह सीधी रेखा जहां

जाकर समाप्त होगी,

वहां कुछ नहीं बचेगा ।

 

यह सीधापन अभेद अचूक निशाना है

जीवन को ख़त्म करने का आविष्कार

 

वैज्ञानिकों ने इसके लिए

सैकड़ों साल प्रयोगशालाओं में

प्रयोगशालाओं के बाहर

अपनी ज़िंदगी खपा दी, ताकि

एक बटन दबाकर

किसी को भी मारा जा सके ।

 

[II]

इस एक बटन को दबाने से

क्या होता है, यही समझना चाह रहा हूं

 

इतना होने पर भी

उनकी मदद से भी

उबड़-खाबड़ मैदान

उबड़-खाबड़ कैसे बना, यह नहीं बता सकता

 

बच्चे खेल रहे होंगे

कैसे खेल रहे होंगे, नहीं बता सकता

 

बाज़ार लगा होगा, लोग समान ख़रीद रहे होंगे

बाज़ार कैसा था, कैसे लोग सामान ख़रीद रहे होंगे

नहीं बता सकता ।

 

शायद

एक आदमी

खिड़की के बाहर

ढलते सूरज, लौटते पंछियों को देख रहा होगा

 

एक औरत सोच रही होगी,

जब सब सो जायेंगे,

वह तब सोयेगी और सो जाती है

 

एक दूसरी औरत

और

एक दूसरा आदमी

इनसे अलग भी कुछ

आने वाले कल के लिए सोच रहे होंगे

यह उनका ज़ाती मामला है

 

ये सारे दृश्य और

इस कल्पना से बाहर हर दृश्य

दुनिया के किसी भी हिस्से में ऐसे ही घटित होते आ रहे हैं

कैसे घटित होते आ रहे हैं, यह बताने की शायद कोई ज़रूरत नहीं है

 

ये सारे दृश्य एक पल में

बिलकुल वैसे ही ख़त्म किये जा सकते हैं

जैसे कोई विमान, बम गिराता हुआ

आसमान से निकल जाए और उसे पता भी न चले ।

 

[III]

कमरे में उकड़ू बैठा हुआ शख़्स

क्या यह कल्पना कर सकता है

वह जहां बैठा है, वह कमरा नहीं है ?

 

कमरा कभी रहा होगा, जिसकी छत भी रही होगी

पतंग आसमान में उड़ती फिरती होगी,

पंछी इस धागे से बंधे पंछी को देखते होंगे

समंदर जहां कहीं भी होगा, लहरों को तट पर लाता होगा

धरती अपनी धुरी पर घूमती होगी और हर दिन

उस जगह ख़ुद को पाती होगी जहां कल उसने सूरज को छोड़ा होगा

 

सड़क सड़क रही होगी, मोहल्ला मोहल्ला रहा होगा

आदमी  आदमी  रहा होगा,  औरत औरत रही होगी

बच्चे बच्चे रहे होंगे, खेल रहे होंगे बच्चों की तरह मैदान में

कुत्ते, बिल्ली, ऊंट, बकरी भी कुत्ते, बिल्ली, ऊंट, बकरी रहे होंगे

फूल, घास, मिट्टी, पेड़, रेत भी फूल, घास, मिट्टी, पेड़, रेत ही रहे होंगे

आसमान आसमान की जगह होगा, धरती धरती की जगह होगी

 

सब वैसे का वैसा रहा होगा

जैसा  सब  यहां  रहा  होगा

 

बस यह जीवन,

जिसमें सब जीवन जैसा दिखयी दे,

बस यही एक बात वहां नहीं होगी

सब मुर्दा होंगे ।

 

फेफड़े, दिल, आंख, हाथ, पैर

कुछ देर पहले तक फेफड़े, दिल, आंख,

हाथ, पैर की जगह पर सही सलामत होंगे

यहां-वहां बिखरे नहीं पड़े होंगे ।

तब उन्हें पहचानना,

इतना मुश्किल नहीं रहा होगा ।

 

खंडहर बन गये

इस समय में

वह सब जो बच गये

मुर्दा लोथड़े की तरह

जिंदा रहेंगे, जहां

न कोई कल होगा

न कोई आज होगा

 

एक के बाद एक

आसमान से गिरते हुए बमों ने

उन्हें इस क़ाबिल ही छोड़ा है

वह ज़िंदा है, पर ज़िंदा नहीं है

 

इन मांस के लोथड़ों से गंध आ रही है

पसीना  सूख गया है, ख़ून बह रहा है

 

[IV]

बाक़ी बहुत सारे दृश्यों

में जो नहीं घटित हुआ है

वह बस इतना है कि उनके यहां

कोई बम नहीं फटा

किसी ने उन्हें मारने की कोशिश नहीं की ।

 

बावजूद इस ख़ाली काग़ज़ पर

ऊपर आया दृश्य उभर रहा है

 

सफ़ेद रंग की रुई है,

जिसमें अभी ख़ून लगा नहीं है

 

इस रेगिस्तान

में रुई ही रुई है

 

रुई उड़ रही है

यहां-वहां, ऊपर-नीचे

हर जगह

 

कान में, नाक में, आंख में

हर जगह

हर जगह

रुई की गंध है

 

रुई ख़ून को रोकने

के लिए

इस्तेमाल की जायेगी

तब भी ख़ून रुकेगा नहीं ।

यही ख़ून रुई में डुबोकर

लिखेगा इस दृश्य को

 

जो लिखने से

बचा रह जायेगा इसमें,

वह बारूद की गंध है

 

फ़िलहाल

इन दृश्यों का पता

(किसी) दरवेश का देश है । कल कहीं और होगा ।

 

(मार्च 2024)

***

कच्चे घर

 

ईंट मिट्टी की है

मिट्टी की

दीवारों की तरह

 

फूस से बना है

छत वाला हिस्सा

 

खपरैल का भी होता

तो नहीं बचता इस बाढ़ में

 

जल जाया करते हैं

ऐसे घर

बिन किसी बात

या

बात-बात पर

एक चिंगारी भर से ।

***

सस्ता रूपक

 

बल्ब और ट्यूब लाइट

एक दिन दावा करेंगे,

वह हमें अंधेरे से बचा रहे हैं ।

 

हम भूल जाएंगे,

दुकान से ख़रीदा है हमने

हमने ही ज़रूरत पड़ने पर स्विच का बटन दबाया है ।

***

गाली

 

कविता लिखने वाली

महिलाओं को भी

‘कवि’ कहकर

जीती गयी लड़ाई में

 

गालियां औरतों के

जननांगों पर ही दी गयीं

 

□□□

shachinderkidaak@gmail.com

 

***

 


4 thoughts on “कुछ कविताएँ / शचीन्द्र आर्य”

  1. मलबे में बदलती इस दुनिया को एक बेचैन कवि इसी तरह देखेगा और दर्ज़ करेगा।
    शचीन्द्र आर्य को पढ़ना एक सर्जनात्मक आकुलता में साझीदार होना है ।

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