‘जब घर में बेटा आया, आयशा ने ही उसका नाम कबीर रखने का सुझाव दिया। एक नाम, जो मुसलमानों-हिन्दुओं में साझा है, इस तरह कबीर गांधी को हर कोई पहली नज़र में, पहली मुलाक़ात में उसके नाम के कारण किसी खाँचे में नहीं डाल सकेगा, नकार नहीं देगा। आयशा, जिसने अपनी ज़िंदगी आसान करने के लिए किसी समय फ़ातिमा बनने से इन्कार कर दिया था, अपने बेटे की ज़िंदगी आसान करने के लिए कितनी दूर तक का सोचने लग गई थी !’
पढ़िए, पंजाबी के वरिष्ठ कथाकार सुकीरत की कहानी :
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दूसरे दर्ज के ए.सी डिब्बे में उसे किनारे की, रास्ते वाली सीट मिली है। उसके सामने वाली सीट का मुसाफ़िर पहले से ही ऊपरी बर्थ पर लेटा हुआ है। रास्ते के दूसरी तरफ़ दो नौजवान जोड़े बैठे हुए हैं। चालीस के आस-पास की उम्र के , लेकिन उसकी अपनी उम्र के नज़रिए से देखें तो उन्हें नौजवान ही कहा जाएगा। सफ़र लम्बा है, वह भी दोनों सीटों के पिछले पुठ्ठों को जोड़ कर अपनी बर्थ तैयार कर लेता है, एक तरफ़ से पर्दा आधा खींच लेता है और अधलेटा होकर पसर जाता है।
दोनों जोड़े लगातार बातों में व्यस्त हैं, न चाहते हुए भी उनकी बातें उसके कानों में पड़ रही हैं।
“हमारा राहुल बाहर सैटल होना चाहता है, पर यह मानते ही नहीं। कहते हैं इकलौता लड़का है, अगर वह भी बाहर चला गया तो आगे बिज़नेस कौन सँभालेगा। बात इन की भी ठीक है, लेकिन आजकल के बच्चे किसी की सुनते कहाँ हैं, अपनी मनमर्ज़ी करते हैं।”
“बिज़नेस किस चीज़ का है भाई साहब आपका?” पूछने वाला शायद दूसरी औरत का पति है।
“कॅापर वायर का, ताँबे की तारें जो मशीनों और पंखों आदि में डलती हैं।“
“यह तो बढ़िया बिज़नेस है, काफ़ी कमाई वाला।”
कमाने वाला व्यक्ति तो हामी नहीं भरता, पर उसकी औरत एकदम से बोल पड़ती है, “इसीलिए तो राहुल को बाहर भेज कर खुश नहीं, किसी बात की कमी नहीं है हमें यहाँ, करोड़ों की जायदाद है, नौकर, ड्राइवर, सारी सुख-सुविधाएँ मौजूद हैं, राम जी की कृपा से,” औरत कुछ शेखी बाज़ लगती है।
“बिल्कुल सही कह रहे हैं, लेकिन आजकल सभी बच्चों के सिर पर बाहर सैटल होने का भूत सवार है। हमारे बेटे ने अभी नौवीं क्लास में दाख़िला लिया ही है, पर सारा ध्यान कनाडा जाने की तरफ है,” दूसरी औरत बता रही है।
“बच्चे कितने हैं आपके?” पहली वाली की आवाज़ फिर कानों में पड़ी।
” दो। बड़ा विनीत है, चौदह साल का, और उस से एक साल छोटी प्रेरणा। दोनों कारमैल कॉनवैंट में पढ़ते हैं, और आजकल स्कूल ट्रिप पर गए हुए हैं। और आपके?”
“हमारे भी दो ही हैं, बेटी बड़ी है और राहुल उससे दो साल छोटा। राम जी की कृपा से फैमली कम्पलीट है। ज़्यादा बच्चे करने भी क्या हैं, आबादी पहले ही इतनी बढ़ी हुई है, इन मुसलमानों के कारण। चार-चार बीवियाँ रखते हैं, और धड़ाधड़ बच्चे पैदा करते हैं।“
“सच कहा, मिसेज़ कक्कड़! इन्होंने भी एक दिन शाखा से आ कर बताया था कि यू.पी, बिहार में मुसल्लों की गिनती कितनी बढ़ गई है। हिन्दुओं के गाँवों के गाँव खाली हो रहे हैं। कहते हैं, यही हाल रहा तो 2050 तक भारत में मुसलमानों की आबादी इतनी बढ़ जायेगी कि इनका ही राज हो जायेगा।“
उसके अन्दर से बैचेनी उठती है कि वह भी सफ़र की इस गुफ्तगू में शामिल हो जाये और कहे, “नहीं, सभी मुसलमान एक जैसे नहीं होते, मेरा तो एक ही फ़र्जन्द है, आपकी तरह दो-दो भी नहीं। और चार-चार बीवियों वाले किसी मुसलमान से आज तक नहीं मिला, चाहे ख़ुद मुसलमान हूँ, सारी उम्र मुसलमानों के आसपास बिताई है।” लेकिन वह सिर्फ़ आत्मालाप कर रहा है, बोलता नहीं। वैसे भी, आजकल बोलता ही कौन है?
“अभी कोई कसर थी, राज तो इनका ही चला आ रहा था। वोटों की ख़ातिर पिछली सरकारों ने कितना तुष्टीकरण किया इनका। यह तो अब मोदी जी की सरकार आई है तो इनको ज़रा अपनी औक़ात में रहने की आदत पड़नी शुरू हुई है…।”
उसको हैरानी होती है, कि ये बातें वह पंजाब में बैठा सुन रहा है ! इतने सालों से वह पंजाब में इसीलिए तो टिका हुआ था कि यहाँ अपने आप को महफ़ूज़ समझता था। अब भी तो वह दिल्ली, बैंक के हैड ऑफिस इसीलिए तो जा रहा था कि किसी तरह बुलन्दशहर हुई अपनी बदली को रुकवा सके। यूपी वापिस जाने के लिए दिल बिलकुल नहीं मानता था , बल्कि वहाँ जाने से ख़ौफ़ खाता था। जालंधर ब्रांच से उठा कर चाहे उसे किसी छोटे से कस्बे में भेज दें पर तबादला यूपी न करें। लेकिन इन मुसाफ़िरों की बातों से तो लगता था कि यूपी वाला ज़हर पंजाब की हवा में भी असर करने लग गया था। शायद यह हवा पूरे मुल्क में ही बहने लगी थी। कैसा ज़हर था, जो हर किसी को चढ़ने लगा था। कहीं तो, अन्दर ही अन्दर, वह भी इस बात को महसूस करता ही होगा क्योंकि अब एहतियातन पंजाब से दिल्ली की टिकट बुक करते हुए वह एम.एस. गांधी लिखता है, अपना पूरा नाम मोहसिन असगर गांधी नहीं, जिससे हर ऐेरे-ग़ैरे को पता न लग जाए कि वह मुसलमान है। गुजरातियों को छोड़ कर बाकी राज्यों के लोगों को कम ही पता होता है कि गांधी नाम वाले मुसलमान भी होते हैं, और पारसी भी। बापू का नाम ही इतना बड़ा था कि बहुत से लोग गांधी सुनकर उसे अपने आप ही हिन्दू समझ लेते थे।
कैसा समय आ गया हैं कि अपनी मज़हबी पहचान छिपाकर रखने में ही समझदारी है !
हालाँकि मज़हबी विचारों वाला वह कभी भी नहीं था, बल्कि उसके घर के लोग, उसके रिश्तेदार उसको बेदीन कह कर नीचा दिखाते थे, उससे नाराज़ रहते थे।
वह दाऊदी बोहरा मुसलमान है, अपने इस फिरके, शिया मुसलमानों के एक छोटे से हिस्से, की बन्दिशें वह कभी भी कबूल नहीं कर सका। घर वालों की ढेर नाराज़गी, और मिन्नतें–मलामतों के बावजूद कालेज पहुँचने के बाद उसने जमात जाना बिल्कुल ही छोड़ दिया था। और फिर, उसका इश्क़ आयशा के साथ हो गया था जो लखनऊ के सुन्नी किदवई ख़ानदान से थी। न वह बोहरी समुदाय से थी, न ही किसी और शिया सम्प्रदाय की, और न ही गुजराती। ऊपर से सितम यह कि नाम भी आयशा। हज़रत मोहम्मद साहब की उस बीवी का नाम जिसको दुनिया भर के शिया ख़ुदगर्ज़ कहकर जानते हैं, इमाम अली के ख़िलाफ़ जंग लड़ने वाली मानते हैं, और समझते हैं कि इस्लाम में सदियों से चली आ रही शिया- सुन्नी दरार का कारण भी वही थी। सुन्नी मुसलमान उसको माँ का रुतबा भले ही देते हों, कोई शिया परिवार अपनी बेटी का नाम आयशा नहीं रखता।
माँ ने घर में जिहाद छेड़ दिया, उनके परिवार पर बोहरियों के प्रमुख सईदना साहब का कृपा वाला हाथ हमेशा रहा था, पिछले 50 सालों से ख़ानदान का हर विवाह उन के आशीर्वाद से ही हुआ था, बल्कि कई रिश्तों के तो सुझाव भी ‘आका मौला’ की तरफ से ही आए थे। बम्बई के छोटे से बोहरा भाईचारे में ,जहाँ हर किसी को दूसरे की ख़बर रहती थी, बल्कि हर कोई दूसरे की ख़बर रखना अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी समझता था, यह बात पहले ही फैल चुकी थी कि ग्रांट रोड वाले गाँधियों का मंझला लड़का जमात में शामिल होने का फ़र्ज़ अदा करने से कतराता है। लोग माँ से छुपे इशारों में सवाल करते थे, अम्मा बेयक़ीनी जैसे बहाने बनाती थी। और अब असगर एक सुन्नी लड़की के साथ विवाह पर अडिग था, और उस पर उसका नाम भी आयशा, जिससे हर राह चलते को भी पता चल जाए कि बोहरा परिवार सुन्नी बहू घर ले आया है। जमात में सौ-सौ बातें होंगी, और लोगों की छोड़िए वे ‘आका मौला’ को मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहेंगे।
असगर भी अपनी ज़िद पर कायम था, विवाह होगा तो आयशा के साथ ही होगा, नहीं तो सारी उम्र कुँआरा बैठा रहेगा। हार कर अम्मा ने शर्त रखी, आयशा शियत कबूल कर ले और अपना कोई वाजिब सा नाम चुन ले ताकि हर ऐरे-ग़ैरे को मीन-मेख़ निकालने का मौका ही न मिले। लेकिन इस बार आयशा अड़ गई, न तो वह सुन्नी रिवायतें छोड़ने के लिए तैयार थी, न ही नाम बदलने के लिए। भले ही असगर की तरह वह भी कोई कट्टर नहीं थी परन्तु सिर्फ़ उसके घर वालों की तसल्ली के लिए वह शिया होने के लिए तैयार नहीं थी। जो एहसास उसके अंदर से नहीं उठते, उनका दिखावा करने का कोई मतलब नहीं था।
“आयशा, तुम्हारा शियत कबूल न करना मुझे बिल्कुल समझ आता है, यह माँ का बेवजह और दकियानूसी इसरार है, लेकिन अगर तुम उन का दिल रखने के लिए नाम बदल लो.., ” असगर ने हिचकिचाते हुए तजवीज़ रखी।
” नहीं, असगर, मैं उसूलन नाम नहीं बदल सकती। अगर आज मैंने यह छोटा सा समझौता कर लिया तो कल इससे कहीं बड़े समझौते करने पड़ेंगे .. तुम समझते ही हो।” असगर समझता भी था, और आम लड़कियों से उलट आयशा की इसी ख़ुद-मुख़्तारी और इरादों की पक्की होने ने ही तो उसको आकर्षित भी किया था। उसने बात वहीं छोड़ दी।
दो अड़ियल व्यक्तियों की ज़िद के आगे अम्मा को हार माननी पड़ी। निकाह हो गया और बम्बई जैसे घरों की क़िल्लत वाले शहर में आयशा और असगर को उसके माँ बाप और छोटे भाई के साथ इस भरे हुए घर में ही आ कर रहना पड़ा। ये आयशा के लिए बड़े कठिन साल थे, सिर्फ़ इसलिए नहीं कि माँ ने अपने आप ही सबके सामने उसे फ़ातिमा कह कर बुलाना शुरू कर दिया, बल्कि इसलिए कि इस तरह के हर यत्न के बावजूद बोहरा समाज के लिए वह हमेशा सुन्नी आयशा ही रही। हफ्तावारी जमात में तो शिरकत उसे करनी भी नहीं थी, जहाँ असगर ने भी सालों से जाना छोड़ा हुआ था। किसी विवाह-शादी या तीज-त्योहार पर भी उसे हमेशा यह एहसास कराया जाता कि वह बाहरी है। इन अनकहे इशारों के मारे गए तीर किसी खुल कर किए गए तंज या फूहड़ लहजे में मारे गए ताने से कम तीखे नहीं होते। आयशा ही नहीं, असगर को भी यह समझ में आ गया था कि बोहरा रिश्तेदारों के लिए वह हमेशा बाहरी ही रहेगी।
इसलिए जब असगर का बैंक वालों ने बीकानेर तबादला किया तो इस तबादले को उसने ख़ुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। इन दोनों समुदायों के बेमेल समझे जा रहे इस मेल वाली जोड़ी के लिए बोहरा समाज की हर पल की जकड़न से दूर रहना ही ठीक था। बीकानेर, अपने मकान में, चाहे किराए का ही सही , वे अपनी स्वतंत्र ज़िंदगी शुरू कर सकेंगे। किसी के प्रति जवाबदेह नहीं होंगे। वैसे भी, 1992 की घटनाओं के बाद बम्बई शहर की फ़िज़ा भी बदल गई थी, शहर पहले की तरह खुले दिल का नहीं रहा था, लोगों में और दोस्तों के बीच भी, मज़हबी काँटे उग आए थे। इस तरह की दोहरी मार झेल रही जोड़ी को लगा कि बिलकुल नयी जगह पर जा कर रहना उनको राहत ही देगा।
उनका अनुमान ठीक भी निकला, और गलत भी।
ठीक इसलिए क्योंकि बीकानेर में लोगों के लिए वे सिर्फ़ एक नौज़वान मुसलमान दम्पति थे, शिया बोहरा पति और सुन्नी बीबी का बेमेल जोड़ नहीं। किसी को इस बात से कोई सरोकार नहीं था कि एक व्यक्ति गुजराती है और दूसरा उतर प्रदेश से।। बीकानेर वालों के लिए तो वे दोनों ही बाहरी थे। न कोई अधिक बेगाना था, न कोई कम अपना। और ग़लत इसलिए कि 1992 के बाद की घटनाओं ने सिर्फ़ बम्बई ही नहीं, पूरे देश की फ़िज़ा में अलगाव की कड़वाहट घोल दी थी। चाहे बीकानेर में कोई फ़साद नहीं हुए, कोई बम नहीं थे फटे थे, लेकिन वातावरण गर्मजोशी वाला भी नहीं था। वे लोग जो सिर्फ़ गांधी सुनकर दोस्ताना हाथ बढ़ाते थे, असगर सुनते ही पीछे हट जाते थे। खुल कर अपनी बेज़ारी का इज़हार कोई नहीं करता था, पर एक- दो को छोड़ कर न किसी सहकर्मी, और न ही किसी पड़ोसी का उनसे औपचारिकता से ज्यादा सामाजिक सम्बन्ध बन सका। इस तरह के दायरे में ज़िंदगी अपनी तो थी, परन्तु जैसे सिकुड़ कर रह गई हो। जब घर में बेटा आया, आयशा ने ही उसका नाम कबीर रखने का सुझाव दिया। एक नाम, जो मुसलमानों-हिन्दुओं में साझा है, इस तरह कबीर गांधी को हर कोई पहली नज़र में, पहली मुलाक़ात में उसके नाम के कारण किसी खाँचे में नहीं डाल सकेगा, नकार नहीं देगा। आयशा, जिसने अपनी ज़िंदगी आसान करने के लिए किसी समय फ़ातिमा बनने से इन्कार कर दिया था, अपने बेटे की ज़िंदगी आसान करने के लिए कितनी दूर तक का सोचने लग गई थी !
अगले सालों में बैंक की नौकरी के साथ जुड़े तबादलों ने उनको कई शहरों और राज्यों का निवासी बनाया। आयशा बम्बई के प्रसिद्ध स्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ाती थी, उस बड़े नाम के आधार पर, जहाँ कहीं भी असगर का तबादला होता, आयशा को किसी न किसी प्राईवेट स्कूल में नौकरी मिल जाती। तीन लोगों के परिवार में किसी किस्म की आर्थिक दिक़्क़त नहीं थी, साल में एक चक्कर बाराबंकी का और एक बम्बई का लगा लेते, दोनों तरफ के रिश्तेदारों को मिल लेते, इकलौते कबीर को उसके ननिहाल, ददिहाल की तरफ के बहन-भाइयों के साथ मिला लाते। असगर दामाद था, सो भारतीय तौर-तरीकों के मुताबिक उसे बाराबंकी वालों ने उसके हिस्से की तवज्जो हमेशा दी। आयशा के लिए भी बम्बई ससुराल वालों के पास जा कर कुछ दिन काटना अब पहले की तरह मुश्किल न रहा। थोड़े दिनों के लिए आई मेहमान होने के कारण उस के साथ पुरख़लूस व्यवहार ही होता, साथ ही कबीर के पैदा होने के बाद माँ के व्यवहार में भी ममतामय बदलाव दिखने लगा, कबीर उन का चहेता पोता था। वैसे भी, जैसे सभी परिवारों में होता ही है, समय के साथ आयशा को भी बाहरी नज़र से देखना कम होता गया।
लेकिन समय के साथ मुस्लिम समाज के प्रति बेगानेपन की नज़र बढ़ती बढ़ती कहीं तिरस्कार, और कहीं नफ़रत की हद तक पहुँच गई थी। असगर और आयशा को समझ नहीं था आ रहा कि उन के आदर्श व्यवहार के बावजूद कोई भी पड़ोसी या सहकर्मी उन के साथ मेल-मिलाप के लिए राज़ी क्यों नहीं था। असगर को इस वातावरण पर खीझ पैदा होती। आयशा को डर लगता था। अपने से ज्यादा उसको डर कबीर के कारण लगता। वे तो एक सिकुड़ते जा रहे दायरे में रह सकते थे, पर साथियों के साथ बेगाने होने के बर्ताव का कबीर पर क्या असर हो रहा होगा ! टीचर होने के कारण वह बच्चों की मानसिकता समझती थी, कबीर के मन पर पड़ने वाले वाले असर के बारे में परेशान थी।
“ऐसे तो कबीर में कांप्लेक्स पैदा हो जाएंगे, असगर। मेरा ख़्याल है आप किसी तरह अपना तबादला वापिस बम्बई की तरफ ही करवा लें। वहाँ अपने लोगों में . . .।”
असगर न चाहते भी हंस पड़ा, “अपने लोगों से भागने के लिए ही तो बम्बई को छोड़ कर आए थे . . .।”
“आप समझते नहीं, कबीर अपने आप को औरों से बेदख़ल महसूस करता है। उसका यूँ अंदर ही अंदर घुलना उसको किसी गलत राह पर भी मोड़ सकता है, मुझे बड़ा डर लगता है कि वह किसी के बुरे प्रभाव में न आ जाये . . .।“
असगर समझ गया कि आयशा का इशारा किस की तरफ है, “तुम इतना ज़्यादा दूर की चिन्ता मत किया करो। कबीर की परवरिश हमने की है, उसका ददिहाल परिवार चाहे कारोबारी था, लेकिन ननिहाल की तरफ़ से राजनैतिक सूझ और देश प्रेम उसकी रग-रग में दौड़ता है। उसको नहीं पता उसके नाना जान ने आज़ादी के लिए कितने साल जेलों में काटे। और हम कौन सा उसे किसी मदरसे में पढ़ा रहे हैं कि किसी मूर्ख मौलवी की बातों के प्रभाव में आ जाएगा।“
“पर फिर भी, आप अपना तबादला बम्बई कराने की कोशिश तो करें, हमारा घर- परिवार तो वहीं है। बहुत बरस निकाल लिए अपनों से दूर . . .।“
असगर ने दोबारा यह तो न कहा कि उन अपनों के कारण ही तो बम्बई छोड़ कर आए थे, परन्तु आयशा को समझाया, “बम्बई जैसे शहर को छोड़ कर छोटे शहर जाना तो आसान है , लेकिन वापिस तबादला करवाना बहुत मुश्किल है। लोग मोटी सिफ़ारिशें करके भी कामयाब नहीं होते।”
उस दिन तो बात आई गई हो गई, परन्तु कुछ ही महीनों बाद यह सवाल आयशा ने फिर उठाया, “बम्बई न सही, किसी छोटे शहर ही सही, पर यहाँ से निकलो। मुझे अब यहाँ रहना बिल्कुल सेफ नहीं लगता . . किस तरह घर के अंदर घुस कर हत्यारों ने मुहम्मद अख़लाक़ को मारा . . वह भी उसके अपने पड़ोसियों और गाँव वालों ने. . .।“
उस समय असग़र नोएडा की एक ब्रांच में पोस्टेड था, और दादरी, जहाँ के एक गाँव में फ्रिज में गाय का मांस होने के शक में गाँव वालों ने अपने ही पड़ोसी को बेदर्दी से मार डाला था, उसी ज़िले में पड़ता था। असग़र ने पहली बार, गंभीरता के साथ अपना तबादला किसी अन्य राज्य में करवाने का सोचा । मुहम्मद अख़लाक़ के क़ातिलों को न सिर्फ़ पकड़ा ही नहीं गया बल्कि उनको धर्म- रक्षक और हीरो कह कर प्रचारित किया जा रहा था, वे राजनैतिक नेताओं के साथ उन की चुनावी रैलियों में सरे-आम घूम रहे थे, उनका फूलों के हार से स्वागत किया जा रहा था। इस वहशत को देख कर असगर के भीतर भी ख़ौफ़ की लहर उठी, मुल्क किन हालातों की तरफ़ धकेला जा रहा था। कैसे हुक्मरानों के हाथों में आ गया था!
आयशा, जिसने कभी नियम के साथ नमाज़ नहीं थी पढ़ी, अब तक़रीबन हर रोज़ आयत-उल-कुरसी पढ़ने लग गई थी।
कबीर अगर कालेज से, या कहीं भी और गया हो, ज़रा सा भी लेट हो जाए आयशा दरूद-ए-पाक का विरद करने लगती, कभी चार कुल पढ़ती और बात बात पर उसका दिल बैठने लगता।
फिर कबीर को भी वेल्लोर में दाख़िला मिल गया, और असगर ने किसी भी दक्षिणी राज्य में बदली के लिए हाथ पैर मारने शुरू किए। एक तो दक्षिणी राज्य इस खुल्लम खुल्ला फ़िरक़ापरस्ती से बेलाग़ लगते थे, और दूसरे कबीर भी उन से बहुत दूर नहीं होगा। परन्तु मनमर्ज़ी की बदली कराना कौन सा कोई आसान काम था, बहुत कोशिश, और एक सिफारिश की मदद से साल के अंदर-अंदर असग़र की बदली जालंधर ही हो सकी।
पंजाब उन की पहली तो छोड़िए, दूसरी पसंद भी नहीं था।
“कैसे रहेंगे वहाँ जा कर, हमें तो पंजाबी बिल्कुल ही नहीं आती। अनजानी ज़बान, अपरिचित लोग . . .,” आयशा को अब यह डर था कि वहाँ जा कर वह लोग बिल्कुल ही अकेले हो जाएंगे।
“हिंदी तो आती है न, आजकल सभी हिंदी बोल लेते हैं। वैसे पंजाब सेफ जगह है, आज तक कभी भी कोई लिंचिंग की, ख़बर मुसलमानों के साथ अनहोनी की खबर वहां से नहीं आई,” असग़र ने आयशा को भरोसा देने की ख़ातिर कहा, वैसे डर उसे भी था कि ख़ालिस पंजाबी परिवेश में जा कर रहना आसान नहीं होगा। बदली चंडीगढ़ जैसे मिले-जुले शहर में हुई होती तो और बात थी।
तब भी जालंधर पहुँच कर शुरूआती दिनों से ही उन्हें महसूस हुआ कि पंजाब के माहौल में एक गुणात्मक फ़र्क़ है । मकान किराये पर लेते समय किसी ने उन का धर्म नहीं पूछा: वह क्रिस्तान हैं या मुसलमान, इस बात से किसी का कोई सरोकार नहीं था।सरोकार था तो इस बात का कि वह नौकरीपेशा लोग हैं, और तीन या पाँच सालों में मकान ख़ाली कर जाएँगे।न ही किसी को इस बात में दिलचस्पी थी कि वह मांस-मछली खाते हैं। उनके हिसाब से, जो खाएं-खिलाएं, और किराया समय पर मिलता रहे। हिंदुस्तान के कई शहरों को अनुभव झेल चुके, और तक़रीबन हर जगह सीधे -टेढ़े ढंग से पूछे गए इन जैसे सवालों के जवाब देने के आदी आयशा और असगर के लिए यह शुरू से ही अनोखा अनुभव था। कई शहरों में उन्हें, मुसलमान होने के कारण मकान मिलने से ना होती रही थी। कहीं कहीं तो मजबूरन रहना ही मुसलमान मोहल्लों में पड़ा था, जो भीतर से न आयशा की पहली पसंद था न असगर की। धार्मिक आधार पर खड़ी इन जैसी अलग- थलग बस्तियों की फ़िज़ा उन को अपने खुले रहन-सहन के मुताबिक़ नहीं लगती थी।
जालंधर, अपनी कॉलोनी में वे शायद मुसलमानों का अकेला परिवार थे। परन्तु पहले दिन से सिवा ज़बान के, उनको कोई बेगानापन महसूस न हुआ। आयशा ने नोट किया कि उनकी उम्र के पंजाबी लोग हमेशा उन से पंजाबी में ही बात करते थे, चाहे उन को हिंदी पूरी समझ आती थी। आयशा अगर हिंदी में कुछ पूछती, जवाब पंजाबी में मिलता। लेकिन इस अनमेल सी गुफ्तगू का लाभ यह हुआ कि दोनों जल्दी ही पंजाबी समझने लग पड़े। एक बात आयशा ने ही और नोट की, “असगर, यहाँ माता-पिता पंजाबी बोलते ने, बच्चे हिंदी । अजीब मामला है, जैसे बच्चों को पंजाबी आती ही न हो।“
“बच्चे ही नहीं, मैंने देखा है कि दफ़्तर में बहुत से नौजवान भी हिंदी में ही बोलना पसंद करते ने. . आपस में भी।”
किसी विशुद्ध पंजाबी शहर में जा बसने के अपने शुरूआती डर के उलट जालंधर उन को बड़ा रास आया। आयशा को भी जल्दी ही एक बड़े प्राईवेट स्कूल में नौकरी भी मिल गई। न अपने सहकर्मियों , और न ही पड़ोसियों के व्यवहार से उनको कभी एहसास हुआ कि उनके मजहब के कारण उन्हें अलगाया जा रहा है, या उनको दबी नज़रों से जाँचा परखा जा रहा है। ऐसा माहौल उन्हें लम्बे अर्से बाद मिला था कि उनको ख़ुद ही महसूस हुआ कि पिछले कई सालों से वह अनचाहे ही संकोची और बन्द-बन्द ज़िंदगी जीने के आदी हो गए थे, परन्तु अब फिर खुल कर साँस ले रहे थे।
मिसिज़ सग्गू ने इस दिन उन को हलवा भेजा। आयशा ने धन्यवाद करते हुए कहा, “आपका हलवा बड़ा स्वाद था। असगर भी बहुत तारीफ़ करते थे।“
“हलवा नहीं, आयशा जी, कड़ाह प्रसाद,” मिसिज़ सग्गू ने मुस्कुराते हुए समझाया, और फिर हर संक्रान्ति, और पर्व-त्योहारों पर एक भरी पूरी डिब्बी देसी घी में बने कड़ाह प्रसाद की उन के घर पहुँचने लग गई।
आयशा ने भी छोटी ईद पर सेवईयों का भरा बर्तन श्रीमती सग्गू की तरफ भेजा, जिसकी उतनी ही भारी तारीफ़ हुई, “आयशा जी, इस जैसी स्वादिष्ट सेवियाँ तो मैंने कभी खाई ही नहीं, सच में … ।”
बकरीद के समय पर आयशा ने हिचकिचाते पूछा, “श्रीमती सग्गू, बिरयानी खा लेते हैं आप?” जानना तो वह वास्तव में यह चाहती थी कि क्या मांस खा लेने वाले ये लोग उनके घर का पका मांस भी खा लेंगे।
“आयशा जी, वादू (बिलकुल)। यह तो पसन्द ही बहुत करते हैं।” उसको यह समझ तो न आया कि ‘ वादू’ का क्या मतलब है, लेकिन इतना समझ आ गया कि एतराज़ उनको किसी क़िस्म का नहीं। श्रीमती सग्गू के ऐसे उत्साही जवाब ने आयशा को खुश कर दिया, बिरयानी ही नहीं, उसके साथ उसने ढेर सारे शामी कबाब भी भिजवा दिए, जो उसने ईद के मौके पर घर आए कबीर की फ़रमाइश पर बनाए थे। इन सब की बहुत तारीफ़ भी हुई।
“बहुत सालों के बाद ईद मनाने का मज़ा आया है, असग़र। वह ईद ही कैसी अगर आप अपने हम सायों को उस में शामिल न कर सको।“
जालंधर में तीन साल बड़े आराम से गुज़र गए। बम्बई और लखनऊ, दोनों शहरों को सीधी गाड़ियाँ जातीं थीं, और ज़रूरत पड़ने पर अमृतसर का हवाई अड्डा भी दूर नहीं था। उन को कभी न महसूस हुआ कि वह देश के किसी दूर के सरहदी राज्य में रह रहे हैं। इसीलिए जब अगला तबादला बुलन्दशहर होने के आर्डर आए, उनके हाथ-पैर सुन्न पड़ गए। इन समय उतर प्रदेश वापसी? यह तो नोएडा वापिस जाने से भी बुरी नियुक्ति थी। इसीलिए आज वह हैड आफिस जा रहा है, एक सिफारिशी चिट्ठी जेब में, और एक आस मन में लिए कि पंजाब के किसी बड़े शहर न भी सही, मुकेरियाँ या करतारपुर जैसी छोटी जगह पर भी पोस्टिंग मान लेंगे।
पर अब वह यह क्या सुन रहा था? बाहर के राज्यों वाली नफ़रती हवा पंजाब तक भी पहुँच गई थी। वह ज़हर जिस की मार से अभी तक पंजाब बचा रहा था, उसका असर यहाँ तक फैल गया था। और या फिर यह उसी की खुशफहमी थी कि पंजाबी इस प्रभाव से मुक्त हैं। लेकिन अच्छे-बुरे, थोड़े बहुत सिरफिरे लोग तो कहीं भी हो सकते हैं, उसके अपने मज़हब में भी मिल जाते हैं। इस जैसे लोगों की सुन कर अपना मन क्यों ख़राब करे? उसने अपने आधे खिंचे पर्दे को और ठीक किया, जैसे इन मुसाफ़िरों की ज़हरीले बातों और अपने के बीच सरहदी दीवार खड़ी कर रहा हो, और साथ लाया रिसाला खोल कर पढ़ने बैठ गया।
लेकिन पर्दा कोई आवाज़ सोख लेने वाली दीवार तो होती नहीं, न चाहते भी उन जोड़ों की लगातार चली आ रही चैं- चैं उसके कानों में पड़ रही थी। अब उनकी बातों का रुख अपने बच्चों की आगे वाली पढ़ाई की तरफ मुड़ गया था।
“हमारा विनीत पढ़ाई में बुरा नहीं, परन्तु आगे से प्रोफेशनल कालेजों में दाख़िला मिलना ही बड़ा मुश्किल हो गया है, इस रिज़र्वेशन के चक्कर में, सभी सीटों पर ही इन एस.सी., एस.टी. वालों का कब्ज़ा हो गया है।”
“सही कह रहे हो नीता जी, इन चूहड़े-चमारों का ही समय है आजकल। हर तरफ़ इन्हीं का राज हो गया है, अब तो . .।”
“ज़रा आवाज़ नीची करके बोल, रेलगाड़ी में बैठी हुई हैं। उनमें से किसी बैठे ने सुन लिया तो सभी को अभी अंदर करवा देंगे,” उस औरत के पति ने कुछ धीमी आवाज़ में दबी हुई घुड़की दी।
“अब इन नीची जातियों का तुष्टीकरण पता नहीं कब तक चलेगा . .,” औरत सुर धीमा करते हुए भी कहने से न हटी।
असग़र ने अपने पर्दे का बचा हुआ आधा हिस्सा भी खींच लिया।
मो. 9316202025
अनुवाद -बलवन्त कौर
tobalwant@gmail.com
शानदार कहानी…. आज के माहौल और हालत की सही तर्जुमान
दक्षिण के राज्य को छोड़कर पूरे देश का माहौल इसी तरह ज़हरीला बना दिया गया है. लोग एक विशेष कम्युनिटी को शक और घृणा की नजर से देखने लगे हैं . आपसी मेल मिलाप खत्म सा हो गया है. आज की सियासत ने वोट की खातिर दिलों में दूरियां पैदा कर दी है. ये चले भी जाते हैं तो इस माहौल को बदलने में बहुत वक्त लगेगा.
आज भी हिंदुओं की बड़ी एक तादाद इसे पसंद नहीं करती लेकिन खुल कर इसका विरोध भी नहीं करती
A beautiful story. I don’t know if we always have a latent hatred towards Muslims or the hate was injected in our minds after 2014. But Punjab has decidedly been an exception. Even during Shaheen Bagh agitation, Sikhs from Punjab volunteered to provide food to Muslim agitators. Hatred for Muslims can get you votes anywhere in North India except in Punjab.
And yet all this seems so different from our childhood experiences. As a child I remember living in a large house in Jalandhar where one of our neighbours was a Kashmiri Muslim family, and we treated them like any other neighbour, not merely Muslims.
Btw Akhlaq was killed not because he kept beef in his refrigerator but because someone said he keeps beef in his fridge
Kudos Sukirat – please keep sharing