दस्तावेज़ी फ़िल्मकार, बेहतरीन फ़िल्म संपादक और कवि तरुण भारतीय हमारे बीच नहीं रहे। दो दिन पहले दिल का दौरा पड़ने से उनका इंतकाल हो गया। 55 वर्षीय तरुण के इस तरह अचानक चले जाने से साहित्य, सिनेमा और सामाजिक कर्म से जुड़े उनके बहुत सारे दोस्त और मुरीद स्तब्ध हैं। ‘समकालीन जनमत’ से साभार लिये गये इस लेख में ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी ने उन्हें बहुत प्यार से याद किया है।
यह संभवत 1993 का मार्च या अप्रैल का महीना रहा होगा। जामिया के मास कम्युनिकेशन कोर्स के दूसरे साल की पढ़ाई में 400 फ़ीट नाम की एक महत्वपूर्ण एक्सरसाइज़ होती थी जिसमें हर किसी को 16 एम एम का 400 फ़ीट का एक डब्बा मिलता था। यह एक्सरसाइज़ शायद हमारी सहपाठी ज़रीना मोहम्मद की थी। ज़िया भाई की कैंटीन के बाहर सोनी कंपनी ने वीडियो स्टूडियो बनाने के लिए लकड़ी का शेड बनाया था। इसी शेड में ज़रीना अपनी फिल्म शूट कर रही थी तब पहली बार एक दुबले पतले हलकी दाढ़ी वाले लड़के को देखा। पता चला कोई तरुण हैं और दिल्ली यूनिवर्सिटी के किसी कॉलेज से ज़रीना ने उन्हें अपनी फ़िल्म में अभिनय के लिए बुलाया था। यह मेरी तरुण भारतीय से पहली मुलाक़ात थी। बात तो उस दिन नहीं हुई , हेलो हाय भी नहीं। सिर्फ़ 22 साल के एकदम युवा तरुण की याद ज़रूर है।
फिर अगले साल कोर्स ख़त्म होते-होते तरुण भी इसी कोर्स का विद्यार्थी हुआ और इस तरह हम दोनों का सिलसिला जुड़ना शुरू हुआ।
तरुण ने जामिया से पढ़ाई करने के बाद कुछ साल एनडीटीवी के एडिटिंग डिपार्टमेंट में नौकरी की, तब भी उससे मिलना नहीं हुआ, हाँ, गाहे -बगाहे उसके काम की तारीफ़ दूसरे दोस्तों से मिलती रही।
तरुण से असली दोस्ती गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल यानि प्रतिरोध का सिनेमा का सिलसिला शुरू होने के बाद बनी। वह तीन बार गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल में आया। पहली बार वह पाँचवें गोरखपुर फ़िल्म फेस्टिवल (2010) में रंजन पालित की फ़िल्म ‘इन कैमरा’ के प्रीमियर प्रदर्शन के लिए आया जिसका वह सम्पादक भी था। यह प्रीमियर उसी के अनुरोध पर रंजन दा गोरखपुर में करने के लिए राज़ी हुए। तरुण को इस फिल्म के लिए नॉन फ़ीचर केटेगरी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म संपादक का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला जिसे उसने 2015 में अवार्ड वापिसी वाले अभियान के दौरान वापिस भी कर दिया।
इसी फ़ेस्टिवल में तरुण ने ‘बहस की तलाश उर्फ़ डाक्यूमेंट्री संपादन की राजनीति‘ नाम से एक मास्टरक्लास ली। मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि उसने दर्शकों को झटके देने के लिए पहले अल्जीरिया के मुक्ति संग्राम पर आधारित मशहूर फिल्म ‘द बैटल्स ऑफ़ अल्जीयर्स‘ के हिस्से दिखाये जो कि नॉन फ़िक्शन शैली में बनी एक खालिस फ़िक्शन फिल्म थी। दर्शक यह जानकर हैरान हुए कि यह डॉक्यूमेंटरी नहीं बल्कि एक फ़िक्शन फ़िल्म है। उनकी यह हैरानी तब और बढ़ी जब तरुण ने टाटा स्टील का एक विज्ञापन बहुत चालाकी से प्रदर्शित किया। यह विज्ञापन किसी महिला तीरंदाज़ की मुश्किलों और फिर उनको हराते हुए एक मुक़ाम हासिल करने के बारे में बहुत ऊबड़-खाबड़ शैली में बनाया गया था। इस विज्ञापन का रहस्य और पॉलिटिक्स तब ज़ाहिर हुई जब विज्ञापन ख़त्म होने के बाद एक पंक्ति फ्रेम में आयी, ‘टाटा स्टील, हर दिल की मुस्कान’। न जाने और कितने उदाहरण तरुण ने उस दिन गोरखपुर के गोकुल अतिथि भवन के हाल में दिये।
इस मास्टरक्लास का असली प्रभाव अगले दिन आशीष श्रीवास्तव की नेपाल के माओवादियों पर बनी दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘फ़्लेम्स ऑफ़ द स्नो’ ( Flames of the Snow ) के प्रदर्शन के बाद सवाल -जवाब के सेशन में दिखा। तरुण की मास्टरक्लास का असर अब दिख रहा था। आशीष श्रीवास्तव की फ़िल्म की हिंदुस्तान में यह पहली स्क्रीनिंग थी और पहली ही स्क्रीनिंग में उन्हें पता लग गया था कि दर्शक उन्हें आसानी से छोड़ने वाले नहीं हैं।
चाय के समय फ़ेस्टिवल टीम और बहुत से दर्शक तरुण को घेरे हुए ‘ फ़्लेम्स ऑफ़ द स्नो’ की पॉलिटिक्स को गहरे समझने में मशगूल थे। यही वो रोमांच था जो तरुण को अगले किसी नये प्रयोग को करने के लिए उत्साह देता। क्योंकि तब तक गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल अपने मेहमानों को थर्ड एसी का रेल का किराया भी नहीं दे पाता था। मुझे अच्छी तरह याद है, तरुण संभवत इसी रोमांच के लिए स्लीपर में यात्रा करते बड़े मज़े से शिलॉन्ग से गोरखपुर पहुँचा। उसी साल मुंबई से सईद मिर्ज़ा और कुंदन शाह भी गोरखपुर में चार दिन हमारे साथ थे। देर शाम तक फ़ेस्टिवल ख़त्म होने के बाद एक छोटी बैठकी सभी मेहमानों और फ़ेस्टिवल टीम के युवा मेम्बरों के साथ हेरिटेज होटल विवेक में जमती जिसका फोटो किसी ने खींचकर रखा हो तो सबसे अच्छा फ्रेम एक साथ जाम टकराते 25 हाथों का होता। उस बैठकी के हीरो सईद ही रहते। हालाँकि गोरखपुर फ़ेस्टिवल के संस्थापक मेंबर अशोक चौधरी ही अकेले ऐसे थे जो कभी-कभी सईद पर भी भारी पड़ते। तरुण, अशोक चौधरी का भी फैन था और उनकी गप्पों को एक अलग अंदाज़ की दास्तानगोई की तरह ज़ोर देकर रेखांकित भी करता। तरुण उन सारी महफ़िलों में पूरे मन से मौजूद रहा, ज़्यादातर चुप रहकर उभरते हुए नये सिनेमा आंदोलन को समझता हुआ और कई बार कुंदन शाह के साथ किसी गूढ़ सिनेमाई गुत्थी को तसल्ली से सुलझाता हुआ।
तरुण दूसरी बार आठवें गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल में 2013 में संजय काक की फ़िल्म ‘माटी के लाल‘ (Red Ant Dream) के प्रीमियर के लिए आया। यह साल उसके लिए थोड़े और रोमांच का होने वाला था क्योंकि इस बार उसकी मास्टरक्लास से शिक्षित दर्शक ही उसके संपादन की परीक्षा लेने वाले थे। सवाल-जवाब के सेशन में फ़िल्म के निर्देशक संजय काक के साथ तरुण की भागीदारी बराबर की थी। इस साल उसने फिर एक बेहद दिलचस्प सेशन डाक्टूमेंट्री फ़ार्म के प्रयोग और दुरुपयोग पर ‘सच का सच’ के नाम से किया।
तरुण एकबार फिर चुपचाप गोरखपुर पहुँचा। यह 2015 का साल था। इस बार यह प्रतिरोध के सिनेमा का बड़ा जलसा था यानी गोरखपुर का दसवाँ फ़िल्म फ़ेस्टिवल। इस बार हमने तरुण की दस्तावेज़ी फिल्म ‘श्रमजीवी एक्सप्रेस’ का न सिर्फ़ प्रीमियर किया बल्कि वह हमारी उद्धघाटन फिल्म भी थी।
गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल के चाय के समय में उसे अक्सर बाहर की दुकान पर पहले चाय, फिर सिगरेट और फिर लेनिन पुस्तक केंद्र के स्टाल पर किताबों की खोज करते पाया जाता था। वह हमारे अभियान का सबसे प्रेमी प्रशंसक और दोस्त भी था। इस प्रेम की बानगी तब मिली जब मैं बहुत साल बाद छुट्टियाँ बिताने शिलॉंग पहुँचा। तरुण ने अपने खासी मित्रों की एक विशेष सभा मेरे लिए आयोजित की और एंजिला ने बहुत प्रेम से उस दिन बहुत सारे खासी व्यंजन मेरे सम्मान में परोसे। तरुण के प्रेम का यह सिलसिला कभी उत्तर पूर्व की फ़िल्मों के क्यूरेशन तो कभी ‘सिनेमा एडिटिंग की पॉलिटिक्स’ पर ऑनलाइन बातचीत के सेशन जैसे तारों से जुड़ता हुआ सघन होता गया ।
उसके अंदर एक खिलंदड़ा व्यक्तित्व था। वह हमेशा किसी नयी खुराफ़ात को पूरी तैयारी के साथ पेश करता। प्रस्ताव इतना आकर्षक होता कि आपको फँसना ही था। ऐसे ही एक खेल में एक मज़ेदार योजना उसने पेश की, मेरे प्रस्ताव स्वीकारने पर पूरे मन से उसे निर्मित किया और फिर उस खेल के नतीजे का बेसब्री से इंतज़ार किया और फिर सफलता मिलने पर बहुत खुश हुआ। यह योजना थी, प्रतिरोध का सिनेमा के फ़ेस्टिवलों में म्यूज़िक वीडियो के इतिहास के बहाने गानों की नयी परंपरा से दर्शकों को परिचित करवाने की। शिलॉन्ग के अपने दोस्त मार्क स्वेअर के साथ मिलकर उसने लगभग पौने दो घंटे का यह संकलन तैयार किया। ज़ाहिर है कि इस संकलन के लिए उसे कोई पैसा हमने नहीं दिया था।
इसका किक सिर्फ़ कुछ नया और मज़ेदार करने की प्रेरणा से मिला था। इसमें एक सेक्शन नग्नता पर केंद्रित था। जब पटना फ़िल्म फ़ेस्टिवल में यह संकलन चलाया गया तो स्थानीय आयोजकों को नग्नता के सेक्शन में मडोना के गाने शुरू होते थोड़ी दिक्कत शुरू हुई। थोड़ी देर बाद एक सीनियर आयोजक ने मुझसे पूछा कि क्या आपने यह वीडियो देखा है। मेरे जोर से ‘हाँ’ कहने पर उनकी जिज्ञासा थोड़ी देर के लिए शांत हुई। फिर थोड़ी देर बाद एक और आयोजक ने दर्शकों के असहज होने की बात कही तो मैंने तर्क दिया कि थोड़ी नयी तरह की चीज़ें भी देखनी चाहिए। मेरा पलड़ा इसलिए मज़बूत था क्योंकि यह वीडियो टीम को पेश हुए क्यूरेशन का हिस्सा था। टीम ने शायद व्यस्तता की वजह से इसे नहीं देखा होगा। खैर, हमारा दर्शकों के देखने की आदतों के साथ प्रयोग करने का मौक़ा पूरा हुआ और इसी तरह तरुण का रोमांच भी पूरा हुआ। मुझे याद है, उसने बाक़ायदा 20 डीवीडी का एक पैक मय कवर के तैयार भी किया बिक्री के लिए। अच्छी बात यह रही कि उसके इस नवाचार को कुछ लोगों ने नोटिस भी किया और इसकी कुछ डीवीडी हमारे स्टाल से बिकीं भी ।
सिनेमा के अलावा भी तरुण की कई दुनिया थी जिनके बारे बहुत आत्मीयता से गप्प की जा सकती है – उसकी मैथिल दुनिया, उसका कैमरा और उससे दिखता शिलॉन्ग और पूरा मेघालय और उत्तर पूर्व भी, उसकी हिंदी कविता की दुनिया, उसका रैयत (Raiot) का संसार, उसकी एंजला और एंजला के बहाने उत्तर पूर्व की कशमकश।
उम्मीद है तरुण के तमाम दोस्त, तमाम चाहने वाले देर-सबेर एक-एक करके इन सब पर अपनी बात रखकर उसकी याद को मज़बूत बनायेंगे।
अभी जब वह इस दुनिया से गया ही है, उसके बारे में ज़्यादा बात करना भी आसान नहीं।
अभी तो व्हाट्स एप पर 21 जनवरी को ही भेजी उसकी सात हिंदी कविताओं का फ़ोल्डर भी खुला नहीं है, हालाँकि कविताएँ भेजने के लिए लिखे गये शुक्रिया के जवाब में भेजा गया उसका लव वाला इमोजी ज़रूर चिढ़ा रहा है और यह दिलासा भी दे रहा है कि वह अभी फिर से उठ खड़ा होगा किसी नयी शरारत के साथ।
विदा, प्यारे! अलविदा!
thegroup.jsm@gmail.com
इस लेख के साथ छपी दो सफ़ेद-स्याह तस्वीरें क्रमशः प्रसन्न चौधरी और असद ज़ैदी की फ़ेसबुक पोस्ट्स से ली गयी हैं। हमें दुख है कि इतनी सुंदर तस्वीरों के छायाकार के नाम हम नहीं दे पा रहे हैं। तीसरी तस्वीर संजय जोशी ने उपलब्ध करायी है। सभी स्रोतों के प्रति आभार!
संजय जोशीजी ने तरुणजी की स्मृति में बहुत ही प्यारा, अंतरंग लेख लिखा है । मेरी फ़ेसबुक पोस्ट के साथ संलग्न तस्वीर की छायाकार तरुणजी की बेटी है । यह तस्वीर उनकी फोटो एल्बम से ली गई है । पोस्ट में साझा की गई कविताएँ उन्होंने मुझे इसी 21 जनवरी को मैसेज़ की थीं । कुछ कहना-लिखना मुश्किल है, स्तब्ध हूँ !