जवरीमल्ल पारख की किताब जीवन की पाठशाला पर विष्णु नागर की टिप्पणी
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जवरीमल्ल पारख प्रतिष्ठित साहित्य आलोचक होने के साथ संचार माध्यमों और हिंदी सिनेमा के सक्रिय समीक्षक भी हैं। संयोग से उनकी अभी तक प्रकाशित महत्वपूर्ण पुस्तकों में संचार माध्यमों और सिनेमा पर प्रकाशित पुस्तकों की संख्या अधिक है, पर वे मूलतः साहित्य के आलोचक हैं। सिनेमा और जनसंचार माध्यम तक उनका रास्ता भी साहित्य से होकर गया है। अभी दिल्ली में हुए अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेले में उनकी दो महत्वपूर्ण पुस्तकें आयी हैं – कालेज के अध्यापक के रूप में उनके अनुभवों-संस्मरणों की पुस्तक जीवन की पाठशाला और ‘साहित्य, कला और सिनेमा के अंत:संबंधों’ की पड़ताल करती एक और पुस्तक।
जीवन की पाठशाला दरअसल फेसबुक पर लिखे उनके अधिकतर संस्मरणों का संग्रह है। ये संस्मरण उन्होंने जून, 2019 से लिखने आरंभ किये थे। बीच में कोरोना के कारण कुछ अंतराल आ गया था, फिर कुछ समय बाद उन्होंने यह सिलसिला आरंभ किया। ये संस्मरण मुख्यतः अमरोहा के एक कॉलेज में पढ़ाते हुए उनके अनुभवों और सीख के बारे में हैं, पर इसी में उनकी अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि तथा वातावरण, जोधपुर में बचपन से विश्वविद्यालय तक शिक्षा प्राप्त करने के अनुभव, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध के दौरान प्राप्त अनुभव भी आ गये हैं। जो अभी इस पुस्तक में छूट गया है, वह इग्नू (इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय) में अध्यापन के उनके अनुभव हैं, जो किसी और कॉलेज तथा विश्वविद्यालय में अध्यापन के अनुभव से कतई भिन्न हैं क्योंकि इस विश्वविद्यालय का विचार अलग है। यहां प्रत्यक्ष रूप से, आमने-सामने छात्र और शिक्षक नहीं होते।
लेखक की ईमानदारी, स्पष्टता और निर्भीकता के कारण ये संस्मरण फेसबुक पर पढ़ने के दौरान मुझे महत्वपूर्ण लगे थे। इन पर मैंने यदा-कदा टिप्पणी भी की थी। इन संस्मरणों की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इनमें उन्होंने अपने पर कम से कम फोकस किया है और कहीं किया है तो अपने समय और समाज की गवाही देने के लिए। अपनी बात करते हुए लेखक इस बात को अकसर नहीं भूलता, जबकि अमूमन लेखक इसे भूल जाते हैं।
लेखक ने अपना और शिक्षक के पेशे का महिमामंडन कहीं नहीं किया है बल्कि इसकी समस्याएं और सड़न भी बतायी हैं। अध्यापकों की भर्ती में धर्म और जाति का वर्चस्व, पढ़ाने और परीक्षा की चुनौतियां,कॉपी जांचने के समय पड़नेवाले दबाव और शिक्षकों का झुक जाना,पीएच-डी थिसिस किसी को धन देकर लिखवाना आदि जो यथार्थ है, उसे दृढ़ता और सच्चाई के साथ उन्होंने खोला है। उसके बीच उन्होंने अपनी नैतिकता को किस तरह बचा कर रखा, उसके लिए किस तरह का संघर्ष किया, इसके विवरण हैं। एक बार उनकी जाति के प्रिंसिपल ने अपने आध्यात्मिक गुरु के द्वारा उनकी बेटी से विवाह का दबाव बनाने की कोशिश की तो पारख जी किस तरह त्यागपत्र देने के लिए उद्यत हो गये और प्रिंसिपल को कैसे पीछे हटना पड़ा, ऐसे कुछ प्रसंग भी इस पुस्तक को महत्वपूर्ण बनाते हैं। इसी तरह विवाह सादा हो, उसमें दहेज का प्रवेश न हो, इसका उनका अपना संघर्ष भी उदाहरणीय है।
यह एक तरह से जवरीमल्ल जी के संस्मरण ही नहीं, उनकी आत्मकथा भी है, जिसकी अवधि 1975 है 1987 तक के बारह साल तक आकर रुक गयी है, वरना पुस्तक का आकार काफ़ी बड़ा हो जाता। समर्पित अध्यापक के रूप में उनका अध्यापन का कुल अनुभव क़रीब चालीस साल का रहा है। शायद बाद के वर्षों के उनके अनुभव आगे किसी किताब में आयें। जब वे जोधपुर के अपने समय की बात करते हैं तो उनकी अपनी दुनिया का पूरा शहर और समाज जीवंत हो उठता है और जब वे अमरोहा की बात करते हैं तो बात कॉलेज तक सीमित नहीं रहती, वह अमरोहा के भूगोल, इतिहास, समाज और जीवन को समेटती है। वहां कम्युनिस्ट आंदोलन की स्थिति और वहां के निर्भीक और सच्चे जनसेवी नेता शराफ़त हुसैन रिज़वी साहब की बात भी पूरे सम्मान के साथ आयी है। सव्यसाची का उल्लेख भी बार-बार आया है, जो एक तरह से लेखक को वामपंथ के और निकट लाये और रिज़वी जैसे नेताओं के भी क़रीब लाये। अपनी पत्रिका का मंच उन जैसे नये लेखक को उपलब्ध करवाया।
इसमें अनेक रोचक प्रसंग भी हैं। जैसे, एक बस में एक यात्री की सीट के झगड़े को लेकर थप्पड़ों और घूंसों से पिटाई हो रही थी। जिसकी पिटाई हो रही थी, वह शायद अकेला था। वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा- ‘अरे मार दिया रे, मार दिया, मास्टर को मार दिया।’ पीटनेवालों ने जब सुना कि यह अध्यापक है तो वे एक क्षण रुके और फिर उसे झन्नाटेदार थप्पड़ मारते हुए कहा कि साले, ये बात तू पहले नहीं बता सकता था? पाप करा दिया!
एक रोचक प्रसंग मैनेजर पांडेय तथा डा.नामवर सिंह के बारे में है। जोधपुर विश्वविद्यालय में तब ये दोनों अध्यापन करते थे। लेखक के अनुसार, नामवर जी तो पढ़ाने में बेजोड़ थे ही, पांडेय जी भी अपनी विद्वत्ता, विश्लेषण क्षमता और अध्यापन के कौशल के कारण लोकप्रिय थे। पांडेय जी का उच्चारण लेकिन मानक नहीं था। वह सौंदर्य को ‘सोंदर्ज’ आदि उच्चारित करते थे। वायुसेना के एक पूर्व अधिकारी पूनिया ने हिंदी से प्रेम के कारण एम.ए. में प्रवेश लिया था। उनके लिए उच्चारण दोष के आगे सब कुछ छूंछा था। उन्हें विशेषकर शिकायत पांडेय जी के उच्चारण दोष से थी। एक दिन वे नामवर जी के पास इसकी शिकायत करने गये। पांच मिनट बाद ही वे मुंह लटकाकर बाहर आ गये। उन्होंने पाया कि स्वयं नामवर जी चपरासी से कह रहे थे -‘एक ठो पान देना तो’। पूनिया जी का कहना था कि जब नामवर जी इस तरह की हिंदी बोल रहे हैं तो उनसे किसी की क्या शिकायत करूं! इसकी परिणति यह हुई कि पुनिया जी हिंदी शिक्षण की स्थिति से इतने निराश हो गये कि उन्होंने हिंदी में एम.ए. करने का इरादा ही छोड़ दिया।
बहरहाल, यह एक पठनीय पुस्तक है,केवल उनके लिए नहीं जो शिक्षण के पेशे से जुड़े हैं, बल्कि हर पाठक के लिए जिसकी जीवन में दिलचस्पी है।
(जीवन की पाठशाला, जवरीमल्ल पारख, नवारुण प्रकाशन, 2024, पृष्ठ : 258, क़ीमत : रु. 390)
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एक दिलचस्प पुस्तक की रोचक समीक्षा।
किताब मँगवाकर पढ़ता हूँ।
नागर जी को धन्यवाद।
पारख जी को बधाई।
पाठक को किताब की ओर बहा ले जाने वाली समीक्षा