जवरीमल्ल पारख की किताब ‘साहित्य कला और सिनेमा’ पर हरियश राय की संक्षिप्त टीप
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साहित्य, कला और सिनेमा जवरीमल्ल पारख की नयी किताब है। जवरीमल्ल पारख का नाम फिल्म समीक्षक के रुप में बहुत आदर और सम्मान से लिया जाता है। फिल्मों से संबंधित उनकी किताबों को पढ़ने से फिल्म को देखने और फिल्म में दिखाए गए यथार्थ के पीछे छिपे यथार्थ को देखने की एक दृष्टि मिलती है जिससे किसी भी फिल्म के कई- कई अर्थ हमारे सामने खुलते हैं। तब हमें लगता है कि फिल्म को देखना सिर्फ देखना भर नहीं है बल्कि हमारे समय और समाज की उन धड़कनों को महसूस करना भी है जिसे फिल्म का निर्देशक अपने दर्शकों को बताना चाहता है।
किताब को पढ़ते हुए मुझे लगा कि यह किताब केवल फिल्मों को समझने के लिए ही उपयोगी नहीं है बल्कि एक बेहतर कहानी लिखने की कला को भी समझने के लिए निहायत ज़रूरी किताब है। वह इसलिये कि फिल्म में दृश्यों और संवादों के माध्यम से कहानी आगे बढ़ती है। एक अच्छी कहानी लिखने के लिए भी यह ज़रूरी है कि उसमें बेहतर दृश्य हों, कसे हुए संवाद हों, भाषा में रचनात्मकता हो, तभी कहानी फिल्म के दृश्य की तरह पाठकों के दिल और दिमाग में भीतर तक प्रवेश करेगी। जवरीमल्ल जी अपनी इस किताब में इस सवाल से भी टकराते हैं कि सिनेमा में कलाकार बड़ा होता है यह कहानी? वे निष्कर्ष देते हैं कि फिल्मकार के लिए शब्दों में लिखी कहानी केवल एक आइडिया होती है जिसे पढ़कर या सुनकर फिल्मकार इस बात की संभावना तलाश करता है कि क्या इस पर फिल्म बनाई जा सकती है।
पारख जी अपनी इस किताब में फिल्मों में दृश्य को शक्ति को भी एक शक्ति मानते हैं और बताने की कोशिश करते हैं कि संवादों का इस्तेमाल किये बिना भी प्रभावशाली दृश्यों की रचना कैसे की जाती है। इस संदर्भ में वे मुग़ल-ए-आज़म में सलीम और अनारकली के मिलन के क्षण का उल्लेख करते हैं जब अनारकली अकबर के आने की खबर से सलीम से छूटकर भागती है और फिर अकबर से डर कर सलीम की ओर भागती है। इसी तरह बंदिनी फिल्म में जब कल्याणी विकास बाबू की पत्नी को ज़हर देती है तो उस दृश्य में कोई संवाद नहीं है। दृश्य की पृष्ठभूमि में हथोड़े की आवाज़ और वेल्डिंग के बीच में आती चमक से उसके मन के अंतर्द्वंद्व को पर्दे पर उतारा गया है। ऐसे कई उदाहरण इस किताब में मौजूद हैं जो फिल्मों में दृश्यों की रचनात्मक भूमिका का सामने लाते हैं और जिनसे ही कथावस्तु की गहराई का एहसास होता है। यही बात साहित्य में भी लागू होती है जिसे इस किताब को पढ़ते हुए समझा जा सकता है। साहित्य भी दृश्य और संवादों के सहारे अपना प्रभाव कई गुना बढ़ा सकता है। केवल नरेशन के सहारे कथा साहित्य में बोझिलता ही पैदा होती है। जवरीमल्ल जी कई फिल्मों के कई दृश्यों का विस्तार से विश्लेषण करते हुए मानते है कि सिनेमा एक दृश्य माध्यम है जिसकी शक्ति दृश्यात्मकता में हैं।
जवरीमल्ल अपनी इस किताब में एक ओर साहित्यिक रचनाओं पर बनी फिल्मों को समाज की कसौटी पर कसकर उनकी ख़ासियत बताते हैं तो दूसरी ओर फिल्मों को कला की कसौटी पर भी परखते हैं। वे फिल्मों में व्यक्त यथार्थ के मूल में निहित विचार को सामने रखते है। सन 2008 में आई फिल्म ‘ए वेन्ज़्डे’ का विशेलषण करते हुए बताते हैं कि फिल्म आतंकवाद से उत्पन्न भय और गुस्से का इस्तेमाल काउंटर टेररिज्म को सही ठहराने के लिए करती है।
इस किताब के माध्यम से जवरीमल्ल जी सिनेमा की निर्माण प्रक्रिया को, उसके कलात्मक सौंदर्य को, सिनेमा में प्रयुक्त होने वाली ध्वनियों, दृश्यों, संवादों के निहितार्थ को समझाने की कोशिश करते हैं। मसलन वे बताते है कि जुरासिक पार्क फिल्म देखते वक्त यह पता चलता है कि अतीत से छेड़-छाड़ करना कितना ख़तरनाक हो सकता है और मैट्रिक्स को देखकर हम समझ सकते हैं कि तकनीक के मानव जीवन पर हावी होने के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं। अवतार बहुत साफ तौर पर बताती है कि प्रकृति से छेड़-छोड़ और विभिन्न सांस्कृतिक समुदायों को अपने स्वार्थ के लिए शिकार बनाना एक नये तरह का उपनिवेशवाद है। इस किताब को पढ़ने के बाद इन फिल्मों को नये-नये अर्थ खुलने लगते हैं।
किताब में जवरीमल्ल ने इस बात पर ध्यान खींचा है कि कहानी या उपन्यास लिखते वक़्त घटनाओं के माध्यम से चित्र भी निर्मित किया जा सकता है। इस संदर्भ में वे प्रेमचंद की कहानी शतरंज के खिलाड़ी के उस प्रसंग का जि़क्र करते है जहां मीर और मिर्ज़ा शतरंज खेलते समय आपसी तकरार में तलवारें निकाल लेते हैं और आपस में लड़ते हुए मारे जाते हैं। वे इसे एक मुकम्मल दृश्य मानते हैं क्योंकि इसमें फिल्म की तरह गतिशील चित्र और ध्वनियां दोनों साथ-साथ हैं।
किताब अपने कथ्य में ही फिल्म और साहित्य के अंत:संबधों को समये हुए है। किताब का हर अध्याय जहां फिल्म की तकनीक का, फिल्मकार की दृष्टि और उसके मूल्यबोध का विश्लेषण करता है, वहीं साहित्यिक कृतियों का भी फिल्मकार की दृष्टि से मूल्यांकन करता है। जवरी जी आंद्रे बाजां के इस कथन को कोट करते है कि ‘फिल्म का काम भौतिक वास्तविकता को मुक्त करना नहीं बल्कि हमें भौतिक नियति से मुक्त करना है।’
जवरीमल्ल ने अपनी इस किताब में साहित्य कला और सिनेमा के अंतर्संबधों की पड़ताल का काम पूरी निष्ठा और ईमानदारी और साहित्य व सिनेमा के प्रति समर्पण भाव से किया है। वे फिल्म और साहित्य की महत्ता को जिस तीव्रता और बौद्धिक विकलता से महसूस करते हैं, उसी तीव्रता ओर गहनता के साथ इसे व्यक्त भी करते हैं। यह किताब फिल्मों को देखने और समझने की एक नई दृष्टि हमारे सामने रखती है।
(साहित्य कला और सिनेमा : अंत: संबंधों की पड़ताल; जवरीमल्ल पारख , वाम प्रकाशन ,दिल्ली , 2024, क़ीमत : 750 रुपये)
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