ध्रुवीकरण की मुखर आलोचना: ‘द हिस्ट्री टीचर ऑफ़ लाहौर’ / अदिति भारद्वाज  


किसी एक तरह की कट्टरता पर बात करने वाली रचना सभी तरह की कट्टरताओं के खिलाफ़ एक वक्तव्य बन जाती है। आज के भारत में बैठकर पाकिस्तानी कथाकार ताहिरा नक़वी के उपन्यास ‘द हिस्ट्री टीचर ऑफ़ लाहौर’ को पढ़ना मानो अपने ही परिवेश में और गहरे उतरना है। 2023 में प्रकाशित इस उपन्यास पर अदिति भारद्वाज की समीक्षात्मक टिप्पणी :

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ताहिरा नक़वी की अक्टूबर 2023 में आयी किताब द हिस्ट्री टीचर ऑफ़ लाहौर (The History Teacher of Lahore) 1980 के लाहौर की ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान के उस पूरे दौर की संवेदना को ग्रहण करती है, और इस अर्थ में वह अपने युग की प्रतिनिधि रचना कही जा सकती है। साहित्य को अक्सर अपने युग का प्रतिबिंब कहा जाता है, पर यह साहित्य की ही असीमित संभावनाओं की एक झलक है जब वह युगबोध की सीमाओं का अतिक्रमण करता हुआ एक साथ अतीत, वर्तमान और भविष्य, तीनों को अपने में समेट लेता है। द हिस्ट्री टीचर ऑफ लाहौर भी एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में लिखे जाने के बावजूद सही मायनों में न केवल एक समसामयिक प्रासंगिकता रखता है, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया को धार्मिक कट्टरवाद के ख़तरों के प्रति आगाह करता है।

मुख्यतः अनुवादक के रूप में विख्यात ताहिरा नक़वी ने इस्मत चुग़ताई, सआदत हसन मंटो, ख़दीजा मस्तूर, हाज़रा मसरूर की रचनाओं का अंग्रेज़ी तर्जुमा कर एक बड़े पाठक वर्ग तक दक्षिणी एशियाई साहित्य को लोकप्रिय बनाया है। कथा साहित्य की दुनिया में भी वह अपनी प्रभावपूर्ण उपस्थिति रखती हैं। अब तक उनके दो कहानी-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं: Attar of Roses and Other Stories of Pakistan और Dying in a Strange Country । उनकी रचनाओं में हमें एक विशिष्ट क़िस्म की सामाजिकता दिखलायी पड़ती है, जो आधुनिकता के समीप होकर भी ज़मीनी वास्तविकताओं और सामाजिक-वर्गीय यथार्थ से आंखें नहीं चुराती। द हिस्ट्री टीचर ऑफ़ लाहौर उनका पहला उपन्यास है और प्रासंगिकता और रोचकता, दोनों ही मे’यार पर खरा उतरता है। इस रचना में भी नक़वी ने जिस सामाजिकता को केंद्र में रखा है, वहां उसकी गतिशील विविधता को, उसके वर्ग-विभाजन को, उसके मामूलीपन को अपनी बहुस्तरीय विश्लेषण दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया है। और देखा जाये तो अपने आस-पास के समाज को उसके विविध शेड्स में देख पाने की दृष्टि किसी भी समाज और उसके जन-जीवन को दिखलाने की सबसे प्रामाणिक प्रविधि भी है।

शिल्प की दृष्टि से नक़वी की रचना उसी परंपरा का निर्वाह करती है जहां केंद्र में एक मुख्य पात्र/सूत्रधार रहता है और कथा के बाक़ी सभी पात्र और स्थितियां उसी मुख्य पात्र के जीवन के उतार-चढ़ाव को सामने लाने और अंततः एक चरमोत्कर्ष पर पहुंचाने के लिए होती हैं। जैसा कि उपन्यास के शीर्षक से ही स्पष्ट है, कहानी एक युवा शिक्षक आरिफ़ की है जो सियालकोट से है, पर लाहौर में इतिहास के शिक्षक के रूप में कार्यरत है। यहां यह विचार करना भी प्रासंगिक है कि लेखिका ने अपने पात्र का इतिहास-शिक्षक होना क्यों चुना है। वह अन्य पात्रों, मसलन सलमान और ज़ेहरा की तरह अंग्रेज़ी का या रूही की तरह उर्दू साहित्य का भी शिक्षक हो सकता था, पर आरिफ़ को इतिहास का विशेषज्ञ दिखलाने की योजना संभवतः इस बात से प्रेरित है कि इतिहास न केवल समाज या राष्ट्र , संस्कृति या सभ्यता के अतीत के अन्वेषण की दृष्टि रखता है बल्कि वह वर्तमान को भी इतिहास के धरातल पर तौलता है और देखा जाए तो यह इतिहास ही है जो भविष्य को भी देख पाने की अंतर्दृष्टि देता है। इसीलिए इतिहास के शिक्षक के रूप में आरिफ़ की अपने समय और समाज को देखने की दृष्टि इतनी पैनी और संवेदनशील है कि वह प्रायः उस वर्ग का हिस्सा नहीं बन पाता जो अपने विशेषाधिकारों और सुविधाओं के आड़े आने की वजह से अतीत के स्याह पन्नों को भूल जाना चाहते हैं।

उपन्यास की कथावस्तु सरल है। लाहौर के जिन्ना पार्क में बैठा 29-30 साल का युवा आरिफ़ अपने बचपन के मित्र साबिर और सियालकोट के विगत जीवन की स्मृतियों में डूबा, अपने शिक्षक बनने की यात्रा और अपनी वर्तमान स्थिति पर विचार कर रहा है। किसी भी अविकसित/विकासशील देश के युवा वर्ग की तरह ही उसके मन में भी भविष्य को लेकर द्वंद्व हैं, अनिश्चितताएं हैं। वह, जो प्रकृति से ही संवेदनशील है, कविताएं लिखता है और स्कूल के दिनों से ही इतिहास का अध्यापक बनना चाहता था, लाहौर के अपने वर्तमान जीवन से बहुत प्रसन्न नहीं है। लड़कपन में मित्र साबिर के चाचा कमाल के प्रगतिशील, परंपरा से हट कर चलने वाले साहसी व्यक्तित्व से किशोर आरिफ़ सबसे अधिक प्रभावित होता है और कहीं-न-कहीं अवचेतन में उन जैसा ही बनना चाहता है। कमाल का चरित्र भी उपन्यास के केंद्रीय चरित्रों में से है जो अपनी कम-से-कम उपस्थिति में भी उपन्यास की प्रमुख गतिविधियों का हिस्सा है। वह व्यवस्था के हाथों रौंदे जा रहे लोगों की सहायता में जुटा एक महत्वाकांक्षी और आदर्शवादी युवा है जो गुप्त रूप से समाजसेवा के अपने उद्देश्य में, ग़रीबों-अल्पसंख्यकों को उनका हक़ दिलवाने में जुटा रहता है।

नौकरी की तलाश में आरिफ़ के सियालकोट की संरक्षित ज़िंदगी छोड़ कर लाहौर आने के और फिर विभिन्न विद्यालयों में किये गये अध्यापन के भिन्न-भिन्न अनुभवों से कथा का ताना-बाना बुना गया है। इसी दौरान आरिफ़ नये मित्र भी बनाता है और कई वैचारिक प्रतिद्वंद्वी भी। उपन्यास में पात्र बहुत नहीं हैं। मुख्य रूप से कमाल, नादिरा, सलमान, ज़ेहरा, रूही, मुजाहिद और कुछ विद्यार्थी जैसे उस्मान, क़ाज़िम या दाऊद  ही कथा को दिशा देते हैं। कहानी एक शिक्षक और उससे भी अधिक एक व्यक्ति के रूप में आरिफ़ के विकास और उसकी यात्रा को समेटती है। पर यहीं पर हमें लेखिका की औपन्यासिक दृष्टि या उसके वृहत्तर रचना-संसार की विशिष्टता दिखलायी पड़ती है, जब वह कथा के इस सरल प्रवाह में ही पाकिस्तान के उन कुछ सबसे अराजक, उत्तेजनापूर्ण और तनावग्रस्त वर्षों को भी पृष्ठभूमि में रखती हैं। जनरल ज़िया-उल-हक़ के निरंकुश शासन और लोकतांत्रिक राष्ट्र की सभी नागरिक स्वतंत्रताओं के हनन और बढ़ते इस्लामीकरण के वो दशक पाकिस्तान के संक्षिप्त इतिहास के कुछ त्रासद वर्ष थे। एक ऐसा दौर जब न केवल सरकार की आलोचना राजद्रोह था बल्कि इस्लाम के प्रति अभिव्यक्त किये गये किसी भी आलोचनात्मक विचार की सज़ा मृत्यु भी हो सकती थी। इस उपन्यास में भी लेखिका की मूलभूत चिंता अगर किसी राजनीतिक-सामाजिक मसले पर गयी है तो वह है, पाकिस्तान के कुख्यात ईश-निंदा कानून (Blasphemy law) के अंतर्गत अल्पसंख्यकों, विशेषकर ईसाई समुदाय पर होने वाले हमले और जबरन धर-पकड़। पूरे उपन्यास में लेखिका ने पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों—चाहे वह ग़ैर-मुस्लिम समुदायों के हों या इस्लाम के तहत विभिन्न समुदाय (अहमदिया या शिया)—के साथ राजनीतिक-सामाजिक रूप से होने वाले भेद-भाव और एक योजनाबद्ध तरीके से की जाने वाली घेरेबंदी को रेखांकित किया है।

नक़वी दिखलाती हैं कि कैसे समाज में जब एक धर्म विशेष के कट्टर स्वरूप को ख़ास राजनीतिक एजेंडे के साथ प्रचारित किया जाता है तो स्कूलों के मासूम बच्चे भी सांप्रदायिक वैमनस्य की लपटों में घिर जाते हैं। आरिफ़ जिसने पहले भी कमाल और नादिरा के साथ मिलकर एक ईसाई बच्चे डेविड की जान बचायी थी, एक बार फिर अपने ही एक ईसाई विद्यार्थी दाऊद की उसके ही कुछ दिग्भ्रमित धर्मांध साथियों से जान बचाने की कोशिश में स्वयं मारा जाता है। और त्रासदी यह है कि आरिफ़ की मौत एक ऐसे हादसे में होती है जहां पुलिस और सेना के जवान, शिया मुसलमानों द्वारा निकाले गये रबी-उल-अव्वल के जुलूस पर गोलियों की बौछार कर रहे होते हैं और वह दुर्भाग्य से उन्हीं गोलियों का शिकार हो जाता है। शिया समुदाय पर सरकार द्वारा किया गया यह योजनाबद्ध हमला पाकिस्तानी समाज की जड़ों में ज़हर के समान घुल गयी सांप्रदायिकता की ही बानगी है।

किसी भी उपन्यास की कथा और उसके लेखन की प्रामाणिकता का पता इस तथ्य से लगता है कि उपन्यास में वर्णित देश, काल और वातावरण किस प्रकार एक ऐसी पृष्ठभूमि रच पाते हैं जो वस्तुतः ही उस युग विशेष का यथार्थ हो। 1980 के अंतिम वर्षों में जहां पाकिस्तान एक राजनीतिक अस्थिरता से गुजर रहा था—जहां अभी एक दशक पहले ही सैन्य तख़्तापलट के द्वारा लोकतंत्र को हाशिये पर डाल एक जनप्रसिद्ध प्रधानमंत्री को फांसी दे दी गयी थी और जहां एक नये तानाशाह निज़ाम के अंदर राष्ट्र-राज्य भीतर-ही-भीतर खोखला हो रहा था—सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से पाकिस्तानी इतिहास का एक स्याह दौर था। उपन्यास इन वर्षों के तमस को प्रामाणिकता से समेटता है। इस्लामीयत के अतिशय प्रचार ने जहां लोगों की बोलचाल की भाषा तक को प्रभावित करना शुरू कर दिया था, लेखिका ने उसके भी दूरगामी प्रभावों को उपन्यास में दर्ज किया है। मसलन, हम देखते हैं कि कैसे खुदा हाफ़िज़ के लोकप्रचलित संबोधन के बदले अब अल्लाह हाफ़िज़ कहना सरकारी नियमावली के तहत अनिवार्य हो गया था, क्योंकि वह इस्लाम के अधिक अनुकूल जान पड़ता था। इन परिस्थितियों में पाकिस्तान के सामाजिक वर्गीकरण में अल्पसंख्यकों की स्थिति दिन-ब-दिन कमज़ोर होती जा रही थी। लेखिका ने उपन्यास के प्रारंभ में ही लाहौर के प्रसिद्ध ईसाई मुहल्ले ‘जोसेफ़ कॉलोनी’ पर हुए संगठित हमले को दिखलाया है, जहां घरों को आग लगा दी गयी और सैकड़ों हताहत हुए थे। ऐसी कई घटनाओं और तथ्यों का संदर्भ लेखिका ने दिया है जिससे कि न केवल कथावस्तु आगे बढ़ती है, बल्कि उपन्यास एक समानांतर स्तर पर एक राजनीतिक-ऐतिहासिक स्टेटमेंट बन जाता है।

1988 में जनरल ज़िया की आपात मृत्यु से जिस प्रकार एक ही समाज में दो भिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएं होती हैं, वह एक निरंकुश शासन के प्रति लोगों की अवधारणा को स्पष्ट करती है। जहां आरिफ़, ज़ेहरा, सलमान, कमाल जैसे प्रगतिशील इस मृत्यु से अंततः पाकिस्तान में एक स्वतंत्र लोकतंत्र की स्थापना का ख़्वाब देखते हैं, वहीं समिउद्दीन और मुज़ाहिद जैसे लोग भी हैं जो ज़िया की मौत से स्वयं को अनाथ मान रहे हैं। पर पाकिस्तान के लिए एक बेहतर समय की उम्मीद कम दिखती है, क्योंकि अतीत की निरंकुशता की जड़ें समाज, संस्कृति, स्थानीय राजनीति में इतनी गहरी चली गयी थीं कि उन्हें समूल नष्ट कर पाना असंभव था। उदाहरण के लिए, लेखिका बतलाती हैं कि कैसे कुछ धार्मिक दलों ने एक नये संगठन, पासबां की स्थापना की थी, जो युवाओं को जिहाद के कामों के लिए नियुक्त करने लगा था। मासूम दिग्भ्रमित किशोरों से उनका बचपन छीन लिया गया था।

A new organisation called Pasbaan, created by the religious parties, had been recruiting young men, boys on the verge of manhood, and guns had been placed in their hands. The new guard. Vociferous when out on a demonstration, brandishing banners, hate swelling in their hearts, taking the place of fears about losing a cricket match about the agonisingly wondrous pain of first love. Botched up childhoods.’

उपन्यास में एक और तथ्य जिस पर रचनाकार की पैनी दृष्टि गयी है, वह है इतिहास का राष्ट्र-राज्य के राष्ट्रवादी-सांस्कृतिक स्वरूप को निर्मित करने के लिए किया गया मनमाना इस्तेमाल। लाहौर के विद्यालयों में जिस इतिहास के पाठ्यक्रम को पाकिस्तानी राष्ट्र-राज्य के आधिकारिक इतिहास के रूप में स्वीकृत किया गया था, वह इतिहास के भ्रामक और एकतरफ़ा अध्ययन को प्रश्रय देने वाला था। लेखिका दिखलाती हैं कि राष्ट्रप्रेम और धर्म के प्रति अंधभक्ति को राष्ट्रवाद के नाम पर प्रचारित करने के लिए जिस प्रकार इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है, वह पूरे समाज के मानसिक रेशों को बदलने की क्षमता रखता है। आरिफ़ इतिहास के इस भ्रामक प्रयोग पर स्कूल के पाठ्यक्रम में व्यापक बदलाव लाने की भी कोशिश करता है, जिसके लिए उसे कट्टरपंथी तत्वों का कड़ा विरोध और एक हद तक शारीरिक क्षति भी उठानी पड़ती है। उसका यह कथन पूरे दक्षिण एशिया के  व्यापक संदर्भ में प्रासंगिक है:

What I am saying is that history is not something we can change at will just because there are certain issues or occurrences that we don’t like or feel have to covered up.’

बहरहाल, चूंकि कहानी एक शिक्षक की है, लेखिका ने एक शिक्षक और उसके विद्यार्थियों के बीच के अनूठे संबंध पर भी नज़र डाली है और इस आयाम को भले ही कम पृष्ठ दिये गये हों, उसका प्रभाव संघनित है। आरिफ़ अपने विद्यार्थियों के लिए वह सहृदय शिक्षक है जो उनके विचारों को उड़ान देना चाहता है, उन्हें शिक्षा का सही अर्थ समझाना चाहता है और कक्षा में सभी विचारों को वाद-विवाद का अवसर देता है। एक स्थान पर वह स्कूल के प्रधानाचार्य डॉ. ख़ान से कहता है:

My intention is certainly not to create dissent but I do believe an education is not complete without an engagement of divergent views. How else can we teach tolerance.’

उपन्यास में प्रेम पृष्ठभूमि में ही है, चाहे वह आरिफ़ और रूही का प्रेम हो या ज़ेहरा और सलमान का। वह कहीं भी कथा को प्रत्यक्ष रूप से नहीं बढ़ाता। आरिफ़ जो नज़्में और ग़ज़लें लिखता है, सलमान की बहन रूही से प्रेम करता है, पर इस मामले उसकी छवि उसी दीन-हीन प्रेमी की है जिसके लिए धन और वर्ग की खाई लांघना मुश्किल है। सलमान और ज़ेहरा के प्रेम पर भी सामाजिक असमानता के साथ साथ शिया और सुन्नी विभेदों की तलवारें शुरुआत में लटकती दिखलायी देती हैं, पर अंततः सभी प्रेम की परिणति सुखांत ही है। स्त्रियों के चारित्रांकन में भी लेखिका ने एक सामान्य बात जो सभी स्त्री पात्रों के संदर्भ में समान रखी है, वह यह कि एक पारंपरिक और धर्म भीरु समाज में रहते हुए भी उपन्यास की सभी स्त्रियां अपने व्यक्तित्व से, अपनी निर्णय-क्षमता से, अपनी प्रगतिशीलता से हतप्रभ करती हैं। सब अपनी इच्छाओं और फ़ैसलों के प्रति दृढ़ नज़र आती हैं। पर इनकी भूमिकाएं सीमित हैं। सब पुरुष सूत्रधारों की यात्रा में सहयोग भर देती हैं। उनकी अपनी जीवन यात्रा नेपथ्य में ही है। इस दृष्टि से नक़वी की कथा-शैली पुरानी तरतीब पर चलती नज़र आती है, पर चूंकि उनके पास कुछ ज़रूरी मुद्दों को कथा में लाना अधिक आवश्यक था, इसीलिए भी कथानक की ये कमियां नहीं अखरतीं।

लाहौर के परिवेश को लेखिका ने पूरी जीवंतता के साथ उपन्यास में चित्रित किया है। चाहे इसकी गालियां हों या रोज़मर्रा की चहल-पहल से भरे बाज़ार, सब कथानक को गति देते हैं। चाय के स्टॉलों और होटलों पर बजने वाले रेडियों से नूरजहां के उत्तेजक गीतों की आने वाली आवाज़ भी परिवेश को प्रामाणिकता देती है, क्योंकि 1980 के अंतिम वर्षों में जब पंजाबी फिल्मों के उफ़ान का दौर था, नूरजहां की गायकी भी द्रुत गति और उत्तेजक बोलों वाले पंजाबी फिल्म संगीत तक सीमित रह गयी थी। लेखिका ने लाहौर के कुछ प्रमुख ऐतिहासिक स्थलों, जैसे शाही किला (लाहौर क़िला), शीशमहल इत्यादि की भी समसामयिक प्रासंगिकता का ज़िक्र किया है। नक़वी की शैली धीमी आंच पर चढ़े व्यंजन की तरह है, जिसमें एक-एक कर सभी रंग, सभी स्वाद घोले जाते हैं और इसलिए जिसका आस्वाद आहिस्ता, पर गहरा उतरता है। भाषा और कहने की शैली दोनों ही में एक प्रवाह है और पूरे कथानक में एक तनाव, एक उत्तेजना बनी रहती है जो पाठक को बांधे रखती हैं।

लेखन, लेखक की विचारधारा, दुनिया को देखने के उसके नज़रिये और उसके सोच का वाहक होता है। ताहिरा नक़वी भी स्पष्टतः उन लेखकों में से हैं जो किसी भी धर्म, किसी भी राजनीति के ऊपर मानवता को, मानवीय संबंधों को तरजीह देती हैं। इसलिए यह उपन्यास पाकिस्तानी इतिहास के बेहद अराजक और उत्तेजनापूर्ण वर्षों की झलकियां दिखलाने के क्रम में अंततः समकालीन राष्ट्र-राज्य की, या यूं कहें कि पूरे भारतीय उप-महाद्वीप की वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक ध्रुवीकरण की मुखर आलोचना करता है। धर्म को सामाजिक बंटवारे का आधार बनाने की राजनीतिक क़वायद का विरोध करते हुए ही आरिफ़ मारा जाता है, पर मरते हुए क्रांतिकारी शायर हबीब जालिब की जो पंक्तियां उसे याद आती हैं, वे आने वाली सभी नस्लों के लिए एक संदेश छोड़ जाती हैं:

Those who have died in the way of Truth

They have shortened the distances.’  

  aditi.bhardwaj13@gmail.com

(समीक्षित पुस्तक: The History Teacher of Lahore, ताहिरा नक़वी, 2023, स्पीकिंग टाइगर बुक्स, पृष्ठ : 248, क़ीमत : रु. 323/-) 

 


1 thought on “ध्रुवीकरण की मुखर आलोचना: ‘द हिस्ट्री टीचर ऑफ़ लाहौर’ / अदिति भारद्वाज  ”

  1. The history teacher of Lahore समीक्षात्मक अध्ययन पूरा पढ़ा, मूल पढने की इच्छा थी लेकिन है अंग्रेजी में ,अंग्रेजी उतनी मजबूत है नहीं हमारी, फिर भी काफी हद तक यह समीक्षा पुस्तक का संदेश देने में सफल रही है, जिन घटनाओं का जिक्र पुस्तक में है वह घटनाएं हमारे देश में भी घटती रहती हैं, इसलिए इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद आवश्यक हो जाता है, नई किताब से परिचय कराने के लिए संजीव जी को बहुत-बहुत धन्यवाद

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