चंचल चौहान की पुस्तक, ‘साहित्य का दलित सौंदर्यशास्त्र’ राधाकृष्ण प्रकाशन से हाल ही में प्रकाशित हुई है। भूमिका, उपसंहार और परिशिष्ट के लेख समेत कुल 20 अध्यायों में विभाजित इस किताब के लगभग आधे हिस्से में दलित सौंदर्यशास्त्र संबंधी सैद्धांतिक विमर्श है और शेष आधे में उस विमर्श की रौशनी में कुछ महत्त्वपूर्ण रचनाओं का विश्लेषण। पेश है, दूसरे हिस्से से एक अंश:
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आइए महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको।
— अदम गोंडवी
दलित कविता अब हिंदी साहित्य में इतनी अधिक मात्रा और गुणवत्ता में लिखी जा चुकी है कि उसके आकलन के लिए विशालकाय ग्रंथमाला तैयार हो सकती है, किसी बड़ी लाइब्रेरी का एक संभाग भर सकता है। दलित साहित्य में गहरी पैठ रखने वाले विद्वान बजरंग बिहारी तिवारी ने सही ही कहा है कि ‘साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा हिंदी की दलित कविता ज़्यादा विविधतापूर्ण और समृद्ध है। वरिष्ठ पीढ़ी से लेकर युवतर पीढ़ी तक सर्जना के इस क्षेत्र में सक्रिय है। हिंदी के धाकड़ प्रकाशनगृहों से दलित काव्यसंग्रहों का छपना इस बात का सबूत है कि पाठकीयता में परिवर्तन से लेकर प्रकाशन बाज़ार तक स्थिति निरंतर बेहतर होती जा रही है।’ (‘दलित कविता’, समालोचन, 24 जनवरी, 2018) मेरा मक़सद इस दलित कविता के विशाल महासागर का मंथन करने का नहीं है, उस मंथन की क्षमता भी नहीं है। साहित्य का दलित सौंदर्यशास्त्र जिस वैचारिकी पर मैंने सिरजा है, उसमें काव्यवस्तु की परख, गुलामगीरी और मनुवाद के प्रति बरते गये रुख़ और उसके वस्तुगत अंतर्निहित रुझान से करने पर बल दिया गया है। इस नये सौंदर्यशास्त्र से दलित कविता का ही नहीं, विश्व की किसी भी कविता का कथ्य और रूपपक्ष परखने की कोई मेथडोलॉजी विकसित करने की हड़बड़ी मैं नहीं करना चाहता क्योंकि उसमें कवि की अपनी मेहनत, काव्यकला का सार्वभौमिक ज्ञान और वस्तु के अनुरूप कलाविंबों और प्रतीकों और संकेतों का सृजन करने का कौशल काम आता है। कई बार ऐसा कौशल एकदम नयी प्रतिभाओं में दीप्त हो उठता है। मैंने इसी पुस्तक के एक अध्याय में अंग्रेज़ी कविता की इसी नये सौंदर्यशास्त्र से बानगी लेते हुए एक अश्वेत ब्रिटिश कवि कालेब फ़ेमी(जन्म: 1990) की एक कविता का विश्लेषण किया था। हिंदी की दलित कविता का वर्तमान ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा है। फिर भी आज की हिंदी दलित कविता में उभर रही जो नयी सौंदर्यचेतना मुझे बार बार अपनी ओर खींचती है, उस पर बात किये बग़ैर नहीं रहा जा सकता। मैं यहां दो उदाहरण देना चाहता हूं। यहां यह स्पष्ट कर दूं कि जो उदाहरण मैंने चुने हैं उनमें से मैं किसी युवा कवि से अभी तक नहीं मिला हूं। उनमें से पहला, अश्वेत ब्रिटिश कवि कालेब फ़ेमी से उम्र में तीन साल छोटा है, उसकी निजी ज़िंदगी के बारे में मुझे क़तई जानकारी नहीं। मैंने उसकी कई कविताएं ज़रूर पढ़ी हैं, उन्हीं में से एक कविता जो मुझे बेहद पसंद है, अपने पाठकों के साथ साझा करना चाहता हूं। कविता का शीर्षक है : ‘मेरे ख़ून का एक संक्षिप्त इतिहास’ और कवि का नाम है : पराग पावन। कविता यों है :
मेरे पुरखे
वहां, जंगल के उस पार
टीलों और पहाड़ों पर
अपने ढोर लेकर गये थे
और नहीं लौटे हैं
शाम गाढ़ी होती जा रही
यह बेला अंधेरे में डूबने वाली है
घिर आये हैं बादल / खोने लगी हैं दिशाएं
और मेरे पुरखे नहीं लौटे हैं
आकुलता के शबाब में लिपटा / अजीब मनहूस मौसम है
रौशनी की हार पर रोने वाले हैं बादल
जंगल के रास्ते अभी डूबकर मर जायेंगे पानी में
रास्तों की मौत से पहले / कबूतर लौट आये हैं घोंसलों में
मुर्ग़ियां लौट आयी हैं दड़बों तक
हिरन, घोड़े, गाय, बाघ, भेड़िये
सब लौट आये हैं जंगल के इस पार
पर मेरे पुरखे टीलों पर बैठकर
बांस की टोकरी बना रहे / बनाते ही जा रहे
शाम ख़त्म हो चुकी है
और वे / नहीं लौटे हैं
इसी देश में
मैंने मेमनों को हत्यारा साबित होते देखा
और हत्यारों को प्रधानमंत्री घोषित होते देखा
इसी देश में
ईमान की देवी को / जल्लाद की बैठक में नाचते देखा
और जल्लाद को / अहिंसा पर शोध-पत्र पेश करते देखा
मेरे भीतर की आग / किसी और दिन के लिए
क्रोध में आकाश हुई मेरी चीख़ / किसी और दिन के लिए
म्यान से निकल आयी मेरी तलवार की यह थरथराहट
किसी और दिन के लिए
आज
यह अंधेरी शाम की बेला
घिरे हुए बादल
सन्नाटा ओढ़े जंगल
और मेरे पुरखे
अभी तक नहीं लौटे हैं।
यह कविता एक मोहक सादगी और दिल को छू लेने वाली संवेदना से परिचालित है, मगर कथन भंगिमा सीधे सीधे आक्रोश कह डालने की नहीं है, वह आक्रोश, वह आग ‘किसी और दिन के लिए।’ छोटे से कैनवास पर चित्रित सब कुछ हमारे ‘उत्तर-सत्य’ युग में, हमारे देशकाल में घटित यथार्थ ही है, मगर उसके लिए एक आत्मीय चिंता, एक सरोकार बिंब के रूप में अंकित कर दिया है, ‘मेरे पुरखे/अभी तक नहीं लौटे हैं’। इतना भर कह देने से मनुवादी-फ़ासीवादी सत्ता के द्वारा ग़रीबों, दलितों और अल्पसंख्यकों पर बरपा हिंसा का दौर उभर आता है। पशु पक्षी सब सुरक्षित लौट आते हैं, शाम को अपने अपने सुरक्षित स्थलों पर, ‘मेरे पुरखे/अभी तक नहीं लौटे हैं’। फिर इतने सारे बिंब अपना अपना अर्थ लिये हुए वाचक की चिंता को और अधिक सघन बना रहे हैं। जिस तरह निराला ‘राम की शक्तिपूजा’ में रावण से हार रहे राम की चिंता को सघन अंधकार के बिंब से चित्रित करते हैं, ‘है अमानिशा; उगलता गगन घन अंधकार/खो रहा दिशा का ज्ञान’, उसी तरह यहां भी वाचक कहता है :
यह बेला अंधेरे में डूबने वाली है / घिर आये हैं बादल
खोने लगी हैं दिशाएं / और मेरे पुरखे नहीं लौटे हैं
फिर एक बात और, कविता के रूपसौंदर्य को निखारने के जो भी ‘टूल्स’ दुनिया में उपलब्ध हैं, वे सब इस छोटी सी कविता में देखे जा सकते हैं। यही वजह है कि इसे पढ़ते ही इसका जादू पाठक की चेतना पर छाने लगता है। इससे लगता है कि दलित कविता अब नये उत्कर्ष की ओर चल पड़ी है। जिस तरह प्रगतिवादी कविता के शुरू में बहुत ही नारेबाज़ी और कच्ची संवेदना से युक्त रचनाएं सामने आ रही थीं, बाद में मुक्तिबोध और शमशेर जैसे कवियों ने उसे नयी कलात्मकता से सजा कर नयी ऊंचाइयां दीं। उसी तरह लगता है कि इतिहास खुद को दुहरा रहा है। वही दलित कविता के साथ होता दिख रहा है। दलित कविता का वर्तमान ऐसे शुभ लक्षण का संकेत दे रहा है।
पराग पावन की ही तरह दूसरा कवि, विहाग वैभव की रचनात्मकता में उसी तरह का निखार अभी से दिखायी पड़ता है। फिर कह दूं, मेरी जान पहचान न तो इंगलैंड के अश्वेत कवि कालेब फ़ेमी से है, न उनके हमउम्र हिंदी कवि पराग पवन और विहाग वैभव से। बीसवीं सदी के आखि़री दशक में जन्मे इन कवियों में से किसी से भी कोई मुलाक़ात नहीं, इनमें से शायद ही कोई मुझे जानता हो। मगर इनकी कविताएं जिस सामाजिक सरोकार और मानवीय चिंता को अभूतपूर्व काव्यकौशल से व्यक्त करती हैं, वह देखते ही बनता है। इसीलिए इन्हें अपने नये सौंदर्यशास्त्र के विमर्श का हिस्सा बनाना मुझे ज़रूरी लगा।
पराग पावन की कविता में दलित समाज की चिंता पूरे शोषित समाज की चिंता की तरह उभरी है। विहाग वैभव की कविता का फलक एक रणक्षेत्र की तरह है जहां वर्गसंघर्ष और वर्णसंघर्ष की झलक नारेबाज़ी की तरह नहीं, कविता के तमाम उपलब्ध ‘टूल्स’ और संवेगों के ताप से रची दिखायी देती है। वैसे तो मैं इस कवि की कई कविताएं यहां देना चाहता था, लेकिन बानगी के तौर पर दो कविताएं जिनमें एक छोटी और एक लंबी कविता है, यहां दे रहा हूं। मक़सद तो इनमें निहित नये सौंदर्यबोध से पाठकों को परिचित कराना है। तो पहली कविता पेश है :
इस देश की नागरिकता की नयी अर्हताएं
अपनी आत्मा को ख़ूब सुखा दो पहले
फिर अपनी रीढ़ की हड्डी निकालकर सौंप आओ
हत्यारों, आतताइयों और धार्मिक उन्मादियों के हाथ
अपने मस्तिष्क में धर्म का धुआं भर लो इस क़दर कि
तुम अपनी बेटियों, पत्नियों और मांओं के लिए
कुतिया, रंडी और छिनाल जैसे संबोधनों का समर्थन कर सको
और सोच सको कि
मेरा प्रधानमंत्री इसके समर्थन में है
तो अवश्य ही अपूर्व गौरव की बात है
अपने हृदय को
फूल से बच्चों की जली लाश की राख से लीप लो
कर लो बिल्कुल मृत्यु-सा काले रंग में
और इन बच्चों की हड्डियों में
वह रंग विशेष का झंडा लहराकर
पूरे हृदय से भारत माता को करो याद
अपने कानों में ठूंस लो हत्या समर्थन के सभी तर्क-पुराण
और उन गला सुजाकर रोती मांओं की चीख़ को
भजन या राष्ट्रगान की तरह सुनो
जिनके ईश्वर जैसे बच्चे
स्कूल और अस्पताल से नहीं लौटे आज की शाम
जुबान को काटकर रख आओ सत्ता के पैरों पर
आंखों का पानी बेच आओ संप्रदाय की दुकान में
आने के पहले थोड़ा लाश हो जाओ
थोड़ा-थोड़ा हो जाओ पत्थर
फिर तो स्वागत है तुम्हारा इस देश में
एक देशभक्त और सम्मानित नागरिक की तरह।
जहां पराग पावन की कविता में ‘पुरखे नहीं लौटे हैं’, विहाग वैभव की उक्त कविता में ‘ईश्वर जैसे बच्चे / स्कूल और अस्पताल से नहीं लौटे आज की शाम।’ दोनों ही कविताएं फ़ासीवादी-मनुवादी शोषक शासक शक्तियों की हत्यारी मुहिम को सांकेतिक भाषा में व्यक्त करती हैं, कुछ इस तरह कि काव्यात्मक कथन हमारी मानवीय संवेदनाओं को उकेर देता है। विहाग वैभव की दूसरी कविता भी देखिए :
मोर्चे पर विदागीत
उसके होंठ चूमना छोड़ते हुए
उसके चेहरे को भर लिया अंजुरियों में
और उसकी आंखों को पीते हुए मैंने कहा
मैं मिलूंगा तुमसे / तुम मुझे भूल मत जाना
दिन, महीने, साल लांघकर
आऊंगा एक रोज़ अचानक / तुम्हें गोदी में उठा लूंगा
तब तुम्हारा चेहरा यक़ीनन
किसी पहाड़ी फूल-सा ताज़ा और चमकदार हो जायेगा
वह मुझे पनियाई आंख से देखती रही बस
जैसे किसी को आखि़री बार देखा जाता है
मैंने उसे अपनी देह से छुड़ाते हुए सच कहा
मैं जा रहा हूं उस युद्ध में
जिसकी घोषणा किसी मौसम ने नहीं की
जिसके बारे में कोई पीढ़ी नहीं सुनायेगी कहानियां
जिसकी वीरता के क़िस्से
सिर्फ़ शहीद हुए सिपाही कहेंगें और सुनेंगे
यह युद्ध मेरे और मेरे राजा के बीच है
मेरा उन्मादी राजा / दुनिया की हर ख़ूबसूरत चीज़ को
नेस्तनाबूद कर देने की योजनाओं में व्यस्त है
हर प्रकार की स्वतंत्रता को वह चबा लेना चाहता है
मनुष्यों को धर्म में बदल देना चाहता है
लोगों के सिर से उनका मस्तिष्क ऐसे निकाल ले रहा है कि
ख़ुद उन्हीं को कोई ख़बर नहीं हो रही
राजा जिस भी रास्ते से गुज़र रहा है
उधर की हवाओं में वही दुर्गंध फैल जा रही है
जो लाखों-लाख इंसानों की लाशों के एक साथ जलने से आती है
राजा ने एक ऐसे जानवर को गोद ले रखा है
जो अपने अपूजकों की हत्या
अपने स्पर्श भर से कर देने की क़ाबिलियत के लिए
मशहूर हो रहा है
इतना ही नहीं
मेरा क्रूर राजा
तुम जैसी बेक़सूर प्रेमिकाओं को / क़ैद करके
किसी अनंत अंधेरे में फेंक भी देना चाहता है
सदियों-सदियों के लिए
कि प्रेम कोई जघन्य अपराध हो
मेरी बातों से वह और भी उदास हो गयी
उसका गला रुंधने लगा
और उसकी ख़ूबसूरत आंखें भरभरा गयीं
वह समझ गयी कि मैं न लौटने के लिए माफ़ी मांग रहा हूं
जब मैं कह रहा हूं / मैं मिलूंगा तुमसे
मैंने उसे हिम्मत बंधायी
नहीं, वे मेरी हड्डियों में बारूद भर देंगे
निकाल लेंगे मेरी आंखें / कानों में उबलता तेल डालेंगे
मेरे नाख़ूनों में कील ठोंककर तुम्हारा नाम पूछेंगे
उस आखि़री घड़ी में मैं तुम्हें याद करूंगा
हृदय की असीम पवित्रता की दीवाल पर
तुम्हारी मुस्कुराती तस्वीर देखकर
वे बार बार पूछेंगे नाम तुम्हारा
और मैं मर जाऊंगा पर नहीं बताऊंगा
तब वे जान जायेंगे / यह अंत नहीं है
मेरा जैसा दूसरा आयेगा
तीसरा, चौथा, पांचवां और न जाने कितने आयेंगे
जो अपनी प्रेमिका के लिए
अपनी कल्पनाओं जितनी ख़ूबसूरत दुनिया चाहते हैं
वह अब फफक उठी और धम्म से मुझसे चिपक गयी
मैंने मुस्कुराते हुए / अपनी कलम उठायी
किताबों को पहना / और कविताओं को पीठ पर लाद
क़स्बा छोड़ने के पहले कहा,
मैं नहीं भी लौटा तो मेरे जैसा दूसरा लौटेगा
तुम उसे मेरे जितना ही प्यार करना
वह उसका हक़दार होगा
यूं तो / मैं मिलूंगा तुमसे
साथियो। मेरा विदागीत यहीं ख़त्म होता है
इस पेड़ को शुक्रिया कहो और चलो उठो
हमें राजा को उसकी वहशी योजनाओं समेत दफ़्न कर देना है
और समय रहते लौटना भी तो है
अपनी अपनी प्रेमिका की बांहों में
यह इतना कठिन भी नहीं है।
दलित कविता का यह है परिमार्जित और विकसित स्वरूप।
हमारा यह विमर्श अधूरा ही रह जायेगा, अगर दलित महिलाओं की लिखी रचनाओं पर बात न हो। दलित महिलाएं जहां पुरुष लेखकों की संवेदना में रचे बसे उत्पीड़न के दर्द अपने भीतर समेटे हैं, वहीं अपने पुरुष समाज के दासत्व की अतिरिक्त पीड़ा वे भी उसी तरह झेल रही हैं जिस तरह मनुवादी चेतना से आप्लावित सवर्ण पुरुषों के अधीन जीवन जी रहीं सवर्ण समाज की महिलाएं। इस दर्द की अतिरिक्त अभिव्यक्ति दलित कवयित्रियों की रचनाओं में इधर काफ़ी देखने को मिल रही है। ऐसी रचनाओं का गंभीर विश्लेषण दलित साहित्य के मर्मज्ञ बजरंग बिहारी तिवारी के लेखों में हम देखते हैं। उन्होंने दलित कवयित्रियों की रचनाओं को सार्वभौमिक महिला मुक्ति आंदोलनों के परिप्रेक्ष्य में देखा परखा है।
हमारे यहां दलित विमर्श और महिला विमर्श साथ साथ ही चले हैं और उन्हें मैं साझा जनवादी आंदोलन का ही एक हिस्सा मानता हूं। दलित और महिला हमारे समाज में मनुस्मृति, गीता और अन्य समुदायों के धर्मग्रंथों में दिये गये सामंती मर्दवादी निर्देशों से उत्पीड़ित आज भी हैं। जब से पितृसत्तात्मक वर्गविभाजित (वर्णविभाजित भी) समाज की स्थापना हुई, निजी संपत्ति की अवधारणा वजूद में आयी। तभी से दास और नारी गुलामी की ज़ंजीर में जकड़ दिये गये। दोनों को स्वामी ने अपनी निजी संपत्ति माना। इस गुलामगीरी को ‘दैवी विधान’ बताकर शोषणचक्र जारी रखा गया, और आज भी चल रहा है। यह चौंकाने वाला तथ्य है कि मनुस्मृति के दसवें अध्याय में नारी की तुलना ‘खेत’ से की गयी है जिसमें अच्छा सवर्ण ‘बीज’ डालने का निर्देश है। ठीक यही तुलना क़ुरान शरीफ़ के सूरः 2: अल-बक़रः की आयत 224 में है। इससे स्पष्ट है कि धर्मग्रंथों में ही नारी को ‘संपत्ति’ मानने की हिदायत दी गयी और वह आज भी प्रचलन में है। पुरुष वर्चस्व के तहत नारी की ‘पिटाई’ करने की मानसिकता भी इन धर्मग्रंथों में अंकित है। तुलसी की चौपाई, ‘ढोल गंवार सूद्र पसु नारी’ तो जगप्रसिद्ध है, नारी के बारे में इसी तरह का विधान क़ुरान शरीफ़ में सूरः 4, अन-निसा: आयत 34 में भी है।
आधुनिक समय में जैसे जैसे मुक्ति आंदोलन शुरू हुए तो मुक्ति की यह आकांक्षा नारी समाज में भी पैदा हुई। दलित लेखन के उभार के साथ ही पढ़ी लिखी आधुनिक चेतना संपन्न दलित लेखिकाओं ने भी अपनी वेदना का इज़हार करना शुरू किया। पिछले कुछ दशकों में ‘दलित स्त्रीवाद’ एक स्वायत्त रूप धारण कर चुका है। इस आंदोलन की सार गर्भित विवेचना बजरंग विहारी तिवारी ने की है और इसके विकास की संभावनाओं को सही नज़रिये से देखा है। उसे यहां दुहराने की ज़रूरत मैं महसूस नहीं करता। यह सर्वविदित सत्य है कि दलित नारी भी अपने घर में गुलामगीरी की शिकार है, यही चेतना उसे ‘दलित स्त्रीवाद’ की ओर ले जा रही है। मर्दवादी मानसिकता का शिकार दलित लेखक भी है। यह सचाई आज दलित विमर्श में चल रही बहसों में उजागर हो रही है। दलित लेखिकाएं सोचती हैं कि कहीं उनकी आवाज़ दबा न दी जाये, इसके लिए उन्हें खुद को ही संगठित होना पड़ेगा, वे संगठित हो कर अपनी स्वायत्तता हासिल कर रही हैं। इस स्वायत्तता की चाह उनकी कविताओं में स्पष्ट रूप में झलक रही है। रजनी तिलक ‘सांकल’ शीर्षक कविता की चार पंक्तियों में कितनी बेबाक़ी से इस चाह को बयान कर देती हैं :
चारदीवारी की घुटन / घूंघट की ओट
सहना ही नारीत्व तो / बदलनी चाहिए परिभाषा
रजनी तिलक दलित स्त्रीवाद की जुझारू आवाज़ थीं जिनकी संगठनात्मक प्रेरणा से अब उनकी आवाज़ में अनगिनत आवाज़ें घुलमिल रही हैं। उन सब आवाज़ों का लेखजोखा यहां संभव नहीं है। उन सभी में दलित मुक्ति की चाह, नारी मुक्ति की चाह और बेहतर सम्मानयुक्त ज़िंदगी की चाह झलकती है। दलित महिला कवि अपने जीवन यथार्थ को अब स्पष्ट रूप में लिख डालना चाहती है। सुशीला टाकभौरे की ‘स्त्री’ शीर्षक कविता इसी का साक्ष्य है :
एक स्त्री / जब भी कोई कोशिश करती है
लिखने की बोलने की समझने की
सदा भयभीत-सी रहती है
मानो पहरेदारी करता हुआ / कोई सिर पर सवार हो
पहरेदार
जैसे एक मजदूर औरत के लिए / ठेकेदार
या ख़रीदी संपत्ति के लिए / चौकीदार
वह सोचती है लिखते समय कलम को झुकाकर
बोलते समय बात को संभाल ले
और समझने के लिए / सबके दृष्टिकोण से देखे
क्योंकि वह एक स्त्री है!
dr.chnchlchauhan@gmail.com
दलित कविता यथार्थ के धरातल पर अपनी विशिष्ट पहचान बना रही है . मुझे भी इन कविताओं ने काफी प्रभावित किया. चंचल जी ने बड़े ही खूबसूरत ढंग से दलित कविता में सौन्दर्य चेतना को विश्लेशित किया है, वह सराहनीय है.
बेहतरीन बेहतरीन। महत्वपूर्ण पुस्तक है।यह संदेश पहुँचेगा तो आगे बात होगी।