2 फरवरी 1960 को हरसूद (अब जलमग्न), ज़िला खंडवा, मध्यप्रदेश में जन्मे वसंत सकरगाए के कविता-संग्रह हैं : ‘निगहबानी में फूल’, ‘पखेरू जानते हैं’, ‘काग़ज़ पर आग’ एवं समकाल की आवाज़ शृंखला के अंतर्गत चयनित कविताओं का संकलन। वे अनेक पुरस्कारों से सम्मानित महत्त्वपूर्ण समकालीन कवि हैं। कथेतर गद्य की पुस्तक ‘सुद में हरसूद’ भी प्रकाशित है।
(1)
पिता के चेहरे पर उजड़ा हुआ पार्क
इस घर के भूखंड पर खड़े होकर पिता ने
सबकुछ सोचा था
सोचा था बड़ा सा सुंदर पार्क होगा घर के सामने
कुछ क़दमों पर बाज़ार
दो किलोमीटर के फ़ासले पर अस्पताल
दस मिनट में पहुंचा जा सकता है बस-अड्डे रेल्वे-स्टेशन
होने पर बस-ऑटो की हड़ताल
पैदल आया-जाया सकता है इन जग़हों पर
मीलों पैदल चल चुके पिता ने
सबकुछ सोचा था इस घर के भूखंड पर खड़े होकर
फूले नहीं समा रहे थे
घर बनवाते समय
बच्चों को बेहतर तालीम दिलाते समय
पिता ने सोचा था एक-न-एक दिन
बच्चे भी लग जायेंगे नौकरी-पानी से
उन्हीं की तरह
एक दिन अचानक पार्क के माली को हटाया गया
सबसे पहले घास मुरझायी, फिर पेड़ हुए उदास
सबसे पहले चोरों ने पार्क की फेंसिंग चुरायी
जिसकी रिपोर्ट किसी ने नहीं लिखायी
चिड़ियों ने गीत गा-गाकर कई दिनों तक
कोशिश की उदास पेड़ों को मनाने की
लेकिन एक रात पेड़ों से ऊंचा
खड़ा हो गया मोबाइल टावर दैत्याकार
चिड़ियों ने आना और गाना बंद कर दिया मृत्यु के भय से
एक उजड़ा हुआ पार्क
मैंने पहली बार देखा था पिता के चेहरे पर
कितनी ही बार छूटी रेल-मोटर
यातायात में अटके पिता की
और घर से अस्पताल की छोटी-सी यह दूरी
योजन कोस में बदल गयी थी भीड़ के समंदर में
हिचकोले खाती एम्बुलेंस में पिता ने
जब ली थी अंतिम सांसें
डिग्रियां नहीं,अंततः बच्चों के काम आयी
बैंक-लोन के लिए इस घर की रजिस्ट्री
अलग-अलग कमरों में खुली
बच्चों की अपनी-अपनी दूकानें
एक दिन
घर में घुस आयेगा पूरा बाज़ार गड़ेदम
इस घर के भूखंड पर खड़े पिता ने
सबकुछ सोचा था घर बनवाते समय
बस! यह नहीं सोचा था।
(2)
आसमान बनना
मनमानी चाहे जितनी कर लीजिए-
गाज गिरा दीजिए
आग बरपा कीजिए
अंधड़ चला दीजिए
पर इस आलमे-ज़ाहिर पर ग़ौर फ़रमाइए
कि विध्वंस में भी सृजन के संस्कार होते हैं
कि असहमति जताने के कुछ रस्मो-रिवाज़ होते हैं
कि बिगड़ी को बनाने के कुछ सूत्र छोर होते हैं
कि उमड़ना-घुमड़ना पड़ता है बादल-सा पहले
कि बदलना पड़ता है भीतर की दामिनी को इशारों में पहले
कि डराना-धमकाना पड़ता है गरज कर पहले
गाज गिराई जाती है तब कहीं जाकर
कहीं-कहीं, कुछ ही लोगों पर
अपने ही क्रोध को करना होता है इतना पानी-पानी
कि हर शै हो सुहानी-सुहानी
यूं ही साधुवाद नहीं पाती मनमानी
आग बरपाता है सूरज दिनभर
तो प्यार से दिलभर सहलाती है चांदनी रातभर
जब उजाड़ जाता है अंधड़ सबकुछ
तो शीतल पवन सुझाती है नवजीवन के नवसूत्र
माना आसान नहीं आसमान को छूना
आसान नहीं आसमान पर टिके रहना
छूने और टिकने भर से आसमान
कोई आसमान नहीं हो जाता
कि पता है उसे, करना है कितना सृजन कब विध्वंस
कितना किसका मान और किसकी आस कितनी
इसीलिए वो है- आसमान!
मनमानी चाहे जितनी कर लीजिए
किन्तु पहले आसमान बन जाइए
आसमान पर रहते हुए
बहुत ज़रूरी होता है
आसमान बने रहना।
(3)
हरसूद में बाल्टियां
महानगर की तर्ज़ पर
हरसूद में नहीं थीं दमकलें
लिहाज़ा नहीं फैली दहशत
कभी सायरन के ज़रिये
और आग की ख़बर आग की तरह
चूंकि दमकलें नहीं थी इसलिए आग बुझाना
नैतिक दायित्व में शामिल था, नौकरी नहीं
छठवें दशक के उस दौर में भी
बूंद-बूंद पानी के लिए जब जूझ रहा था हरसूद
उठते ही कोई लपट नाजायज़
किसी घर से ग़ैर वाजिब धुआं
पलक झपकने से पहले ही
पानी भरी बाल्टियां लिये लोग
दौड़ पड़ते थे आग की ओर
हां, थाना कचहरी और रेल्वे-स्टेशन पर
टंगी ज़रूर रहीं ये निकम्मी… ताउम्र
सड़कर गल जाने की आख़िरी हद तक
रेत भरी कुछ लाल बाल्टियां
जिनकी पीठ पर लिखा होता था ‘आग’
जो तक़दीर बनने की पायदान पर
इस्तेमाल होती रहीं ऐश-ट्रे और पीकदान बतौर
कि बुझाते थे लोग ‘आग’ में
बीड़ी-सिगरेट की आग और थूकते थे आग पर
दुनिया की बड़ी से बड़ी अदालत में
ख़ुदा को हाज़िर नाज़िर मान
कि एक दिल की अदालत भी है यहां
दे सकता हूं यह बयान
कि मेरे पूरे होशो-हवास में
कभी नहीं बनी बड़ी तबाही की वजह आग
फिर किसने और क्यों फैलायी अफ़वाह यह
तबाही की हद तक फैलती है आग
बहरहाल करते हुए ज़मीनी आस्थाओं को ख़ारिज़
जिंदा दफ़न, अमान्य हर शर्त तक
लिया गया फ़ैसला
कि पाट दिया जाये कोना-कोना
पानी से हरसूद का
जगह-जगह से नुंची-पिटीं
मूक रहीं जो बरसों-बरस
लटकी-पटकी वक़्त की तरह
होते-होते हरसूद से बेदख़ल
लोगों के संग-साथ
बहुत रोयी थीं बाल्टियां भी।
(4)
नाप
कितना कम हूं मैं
आपको अब क्या बताऊं!
न आकाश तक हाथ पहुंचते हैं
न पाताल तक पांव
टुकुर-टुकुर देखता रहता हूं आसमान
पांव से कुरदेता रहता हूं ज़मीन
मेरे नाप का कोई आदमी मिले
तो बताना मुझको
(5)
कागज़ पर आग
आग वो ही लिख सकता है
जिसकी आंखों में पानी हो
ज़रूरी नहीं खीसे में माचीस का होना
लेकिन कपास-चकमक से संगत ज़रूरी हो
आग़ वो ही लिख सकता है
जिसकी क़लम में बहता लावा हो
लेकिन यह तमीज़ भी ज़रूरी हो
कि शब्द ख़ाक न कर दें काग़ज़ को
आंखों से टपके पानी, पर शब्दों की आग मद्धिम न हो
काग़ज़ भींगकर गलथान न हो
आग उगलते सूरज से जिसकी गलबाहियां न हो
तपते भट्टे की दुहाइयां न हो
जिसने न झोंकी हो भाड़ कभी
न खुलनेवाली गिरह की कितनी ही गांठें हों
बातें हों, और सिर्फ़ बातें ही बातें हों
हिम की छाती पर जो अलाव नहीं लिख सकता
काल के भाल पर जो सवाल नहीं लिख सकता
लिखने को वह कुछ भी लिख सकता है
मगर आग नहीं लिख सकता !
(6)
भ्रम
एक दिन अचानक
उफान पर आयेंगे गहरे और अंधे कुएं
और सारे मेंढ़क बाहर निकल जायेंगे
कुछ देर टर्रायेंगे कहीं बैठकर
फिर फुदक-फुदककर जायेंगे
ताल नदी समन्दर किनारे
हाय! कितना बड़ा यह संसार
और लगायेंगे
जीवन की पहली लम्बी छलांग
यह मेंढ़कों का नहीं
अंधे और गहरे कुंओं का
दिन होगा
भ्रम
टूटने का!
(7)
मृग-तृष्णा
दूर तक खिंची हुई है
एक बड़ी बाधा मेरे मन के बीचोंबीच
जिसके एक हिस्से में जंगल हराभरा
दूसरे में तपता रेगिस्तान दूर तक फैला हुआ
यह जो मृग है न! पूरा जंगल फिरता हुआ
खुशियों में लम्बी-लम्बी कुलाचें भरता हुआ
जब कभी आ जाता है बाधा के ठीक पास
यकायक सदा-ए-आब की कोई चमकीली
बदगुमानी बार-बार पास बुलाती है उसे
…और वो बाधा लांघ जाता है
उसे वापस बुलाता हूं चीख़-चीख़कर
बनिस्पत उसकी छलांगों के
मेरी क़ातर आवाज़ बहुत पीछे रह जाती है
…लौटता है अर्धविक्षिप्त-सा थकाहारा अधमरा-सा
बबूल नागफनी से बिंधा लहूलुहान कराहता हुआ
उसे पता है एक मजबूत
कांधा है मेरी आत्मा के भीतर
जिस पर रोया जा सकता है सर पटक-पटककर
जब लौटता है बिलख-बिलखकर अर्सा रोता है
रोकते-रोकते सिसकियां फिर बमुश्क़िल कह पाता है-
‘फकत गुमां नहीं है सेहरा पर पानी का होना
धरती को ओढ़ता-बिछाता हूं
धरती के नीचे क्या है सूंघ लेता हूं
बेशक कहती हो दुनिया इसे सराब मेरा
बेज़ा तड़पता हूं जिसके लिए
हक़ीक़त तो यह है कि तपते मरुस्थल के नीचे
बहती जरूर है एक मीठी नदी
जिसके कितने ही घाट
लोग घट-घट बुझाते हैं प्यास
फिर क्यूं मेरी भागस्थली पर तपता मरुस्थल है
बस, यही एक तड़प मुझे रेज़ा-रेज़ा भटकाती है’
मेरे कलेजा का टुकड़ा है यह मृग मेरा
लिहाज़ा उतना ही तड़पता हूं मैं भी
एक नदी की याद में
मेरे तपते रेगिस्तान के ठीक नीचे जो बहती है।
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अच्छी कविताएँ।