केशव तिवारी के प्रकाश्य संग्रह नदी का मर्सिया तो पानी ही गायेगा से सात कविताएं
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कवि कविता से कुछ दूर
फल डाल में अच्छे लगते हैं
गड़रिये रेवड़ के पास
नाव नदी के बीचों बीच
और कवि कविता से कुछ दूर
थोड़ा दिखता थोड़ा ओझल
घृणा से बिल्कुल नहीं
घृणा से नहीं बिल्कुल नहीं
प्रेम करने की कोशिश में
मारा जाऊंगा
किसी हत्यारे किसी भय से नहीं
शांति के आश्वासनों पर किये विश्वास
से मरूंगा
धूर्तों की धूर्तताओं से तो बच लूंगा पर
हे संतो, आपके आप्त वचनों से
न बच पाऊंगा
कितने दिन बाद
कितने दिन बाद सद्यः प्रसवा गाय को
अपने बछड़े शिशु को चाटते चोकड़ते
देखा सुना
दूध से औराते तने थन
कितने दिन बाद देर तक सुनता रहा
बकरियों का अपने परिवार के साथ
सामूहिक स्वर
जम के झऊणी दरवाज़े की नीम की
मोटाई डार
कितने दिन बाद लगभग आंख खो चुकी
पूर्वहिन आजी ने टोया मेरा चेहरा
हाथ पकड़ पूछा कहां रह्या एतने दिन
दुल्हिन आय अहैं की नाहीं
दिखा विपत्ति का खूंटा जस का तस
दरवाज़ों पर गड़ा
ओझा दिखे सोखा
काली के थान पर
अभूवाती स्त्रियां
घाम तापते
पंडा दिखे परधान दिखे
जिसे नहीं देखना चाहता था वह भी दिखा
कितना दिखा अनदिखा
कहा अनकहा
कितने बाद मथुरा काका ने
पिता के नाम से देख के पुकारा मुझे
कितने दिन बाद दिखे
वही तकलीफ भरे चेहरे
जो कुछ ख़ास बोले नहीं हाल लिया
और बुझे कदमों से चले गये
कहीं चीज़ें अंधेरे में पड़ी हैं
हो सकता उस कोने
तक भी न जा पाऊं
जहां मूसर कांडी चकिया पड़े हैं
हो सकता है उस पच्छू के
कोने तक भी न जा पाऊं
जहां हड़िया में हाथ डालते
डंस लिया था करिया नाग
जाना तो बहुत बहुत कोने अंतरे था
उस परछाईं तक भी
जो कब से भटक रही है
माटी की दीवारों पर
जाना तो बहुत बहुत कोने अंतरे था
पर ये घर है कि खभार
कहीं चीज़ें अंधेरे में पड़ी हैं
कहीं चेहरे ।
इस सृष्टि में एक भी आवाज़
जो लिखने से रह जायेगा
वो भी लिखा रहेगा कहीं न कहीं
कोई धीर नदी लिख देगी अपने कछार
की छाती पर
जो बोलने से रह जायेगा उसे कोई
किलहटी बोलेगी एलानिया किसी पेड़ की डाल से
हर हाल में दर्ज होगा मनुष्य का दर्द
और उल्लास हर हाल में
कितने नये रास्ते बन रहे हैं
कितनी पदचापें गूंज रही हैं
जो नहीं सुन रहे हैं एक दिन
उन्हें भी सुनना पड़ेगा
इस सृष्टि में एक भी आवाज़
व्यर्थ नहीं जायेगी
प्रेम पियारे
तलवार से बचना सीख लिये हो
तो नहन्नी* से मारे जाओगे
बारिश में तो बच लोगे
जब चांदनी रात में गिरेगी चिर्री तब
घृणा घृणा कहते हुए थोड़ा सुध में रहो
लपक के पियोगे प्रेम पियाला और
ऐंठ जाओगे
प्रेम पियारे…
* नहन्नी = नाखून काटने का यंत्र
मायके का शहर
बेटियां मां बाप के न होने पर
मायके के शहर आती हैं
अचानक जब वो अपनी छोटी बच्ची को
शहर में अपने मित्रो की स्मृति
नाना नानी की चिन्हारी
जो शहर से जुड़ी है दिखा रही होती हैं
तभी कोई बूढ़ा पिता का मित्र मिलता है
खांसता हुआ
पूछता है तुम कब आईं भरे गले से
घर क्यों नही आई
ये उसी घर की बात कर रहा होता है
जहां ये खुद रात गये पहुंचता है
और बहू से नज़र बचा रखा खाना खा
सो जाता है
ये शहर कितना अपना था कभी
वो पल पल महसूस करती
फिर भी उदासी छुपाते
चहक चहक दिखा रही होती है
नानी की किसी सहेली का घर
जहां वो कभी आती थीं जब
तुम्हारी उम्र की थी पर
सांकल खटकाने का साहस नही कर पाती
कौन होगा अब कौन पहचानेगा
वो देखती है अपना स्कूल और
पल भर को ठहर जाती है
देखती है पुराना उजड़ा पार्क
और तेज़ी से निकल जाती हैं
कई बार लगता है
ये बूढ़ा शहर उनके साथ साथ
लकड़ी टेकते
पीछे पीछे खुद सब देखते समझते
एक कविता में आया है – ‘ विपत्ति का खूंटा ‘ , याद नहीं आता कि यह हिंदी कविता के दरम्यान पहले कहीं आया है या नहीं।
सभी कविताएं गहरे स्पर्श करती हैं।
बहुत ही सुंदर सहज प्रभावशाली कविताएँ
बहुत सुंदर और सहज कविताएँ हैं ..