“हर रचनाकार अपनी ‘वस्तु’ का चुनाव अपनी संवेदनक्षमता के आधार पर करता है, तो आलोचक को अपनी रुचि के अनुसार यह चुनने का मौलिक अधिकार क्यों नहीं कि वह किस पर लिखे और क्या लिखे? उसके चयन से किसी को उपेक्षित करने का आरोप लगाना उचित नहीं। एफ़ आर लीविस ने कहा था कि ‘सारी आलोचना निजगत होती है, या फिर वह कुछ भी नहीं होती।’ आख़िर तरसेम गुजराल ने भी तो तेरह रचनाकार अपनी पसंद और संवेदना के अनुकूल ही चुने। भूमिका में और पुस्तक में भी जिन लेखकों या आलोचकों के नामोल्लेख हैं, वे भी उनके अपने अध्ययन और चयन के मुताबिक़ हैं, यही छूट हर लेखक / आलोचक लेता है, इसलिए गिले शिकवे का कोई औचित्य नहीं।”– तरसेम गुजराल की किताब पर चंचल चौहान :
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तरसेम गुजराल बहुमुखी प्रतिभा के धनी लेखक हैं। कविता, कहानी, उपन्यास और आलोचना आदि में लगातार उनके लेखन की सक्रियता दिखायी देती है। अभी हाल में ही उनकी पुस्तक, कहानी का यथार्थ शीर्षक से प्रकाशित हुई है जिसे पढ़ने का समय मैंने निकाला, हालांकि आंखें छपित अक्षर पढ़ने में पहले जैसी क्षमता नहीं रखतीं, फिर भी टेबल लैंप आदि साधनों से पुस्तक पढ़ डाली। ज़िंदगी भर पुस्तकें पढ़ने का ‘एडिक्ट’ रहा, तो यह ‘पागलपन’ छूटता नहीं, हालांकि आंखों के साथ ज़्यादती करने से अब कष्ट होता है।
तरसेम गुजराल ने इस पुस्तक में 1975 से 2000 के बीच के समय में रचनारत कहानीकारों में से तेरह अपने पसंदीदा लेखकों की कहानियों का आकलन किया है। ‘परिशिष्ट’ में तरसेम गुजराल पर चंद्रकला का लेख शामिल है। इस तरह चौदह रचनाकार इस किताब में चर्चित हैं। शुरू में एक आठ पेजी भूमिका भी है जिसमें बहुत कुछ बहसतलब स्थापनाएं हैं, कहानी आलोचना को लेकर शिकवे गिले हैं। ऐसा लगता है कि ये शिकवे गिले ही कहानी आलोचना में उनके सक्रिय होने के प्रेरक तत्व हैं। वे ‘परिकथा’ में भी किस्तों में कहानी आलोचना लिख रहे हैं, यह स्वागतयोग्य क़दम है। साहित्य में जो काम ‘मान्यवर आलोचक’ से नहीं हो पाया, उसे दूसरे लोग करें, वे भी ‘मान्यवर’ हो जायेंगे, सार्थक रचना लेखक को सतह से उठता हुआ आदमी बना ही देती है। ‘उसने कहा था’ के रचनाकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी अपनी इसी रचना से कालजयी हो गये, वे किसी ‘मान्यवर आलोचक’ के मुखापेक्षी नहीं थे! मेरे विचार से किसी भी रचनाकार को यह कुंठा नहीं पालनी चाहिए कि उस पर आलोचक ध्यान नहीं दे रहे, या अमुक अमुक रचनाकारों की उपेक्षा हो रही है। अगर उसकी रचना को आम पाठक पढ़ रहे हैं तो यही काफ़ी है, कोई रचनाकार क्या आलोचकों के लिए लिखता है, या साधारण पाठकों के लिए? जिस तरह हर रचनाकार अपनी ‘वस्तु’ का चुनाव अपनी संवेदनक्षमता के आधार पर करता है, तो आलोचक को यह मौलिक अधिकार क्यों नहीं कि वह अपनी रुचि के अनुसार किस पर लिखे और क्या लिखे? उसके चयन से किसी को उपेक्षित करने का आरोप लगाना उचित नहीं। एफ़ आर लीविस ने कहा था कि ‘सारी आलोचना निजगत होती है, या फिर वह कुछ भी नहीं होती।’ आख़िर तरसेम गुजराल ने भी तो तेरह रचनाकार अपनी पसंद और संवेदना के अनुकूल ही चुने। भूमिका में और पुस्तक में भी जिन लेखकों या आलोचकों के नामोल्लेख हैं, वे भी उनके अपने अध्ययन और चयन के मुताबिक़ हैं, यही छूट हर लेखक / आलोचक लेता है, इसलिए गिले शिकवे का कोई औचित्य नहीं। फिर कथासाहित्य कविता की तरह किसी भाष्य की गुंजाइश कहां छोड़ता है! आलोचक जिन कहानियों में कुछ ऐसा तत्व देखता है जिसे साधारण पाठक शायद न देख पायें, तो वह उस कहानी की पेचीदगियों को आलोचना के माध्यम से खोल देता है। बाक़ी तो कहानी की आलोचना की ज़रूरत है ही नहीं। पाठक उसका आस्वाद लेते हैं, यही उसकी सार्थकता है। इसी वजह से दुनिया में अनगिनत लिखी जा रही कहानियों में से कुछ एक ही सुधी आलोचकों को व्याख्या के लिए प्रेरित करती हैं। यही बात उन कविताओं पर भी लागू होती है जो बिना लागलपेट सीधे सीधे बयानबाज़ी करती हैं, जैसे ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ जिसे हमने बचपन में ख़ूब गाया, मगर इस पर आलोचना कहीं नहीं पढ़ी। इसके विपरीत तुलसीदास की चौपाइयों की व्याख्या करने की इच्छा जागती है, राजा जनक की वाटिका में ‘कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि/कहत लखन सन राम हृदय गुनि / मानहु मदन दुंदुभी दीन्हीं/ मनसा विश्व विजय की कीन्हीं।।’ बाबा ने इसमें अंग्रेज़ी में प्रचलित अलंकार ‘ऑनोमेटोपोइया’(onomatopoeia) यानी ‘अर्थानुरणन’ अलंकार का बेहतरीन प्रयोग किया है। ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ विश्वगुरू की बालसुलभ अतिशयोक्ति है, इसीलिए वह स्कूली बच्चों की गाने की चीज़ है, साहित्यिक रचना नहीं है। शायद इसी वजह से काव्यालोचन का ध्यान इस कविता पर नहीं गया। कथासाहित्य में भी ऐसा बहुत सा है जिस पर आलोचना को कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं।
तरसेम गुजराल की किताब में लंबी भूमिका के बाद पहले कहानीकार उदयप्रकाश हैं, उन पर लिखे अध्याय का पहला वाक्य है, ‘आज उदयप्रकाश की कहानियों पर बात करने से पहले ही जादुई यथार्थवाद की बात सामने आ जाती है।’(पृ.17) इसे गर्वोक्ति न समझा जाये तो बता दूं कि हिंदी में ‘जादुई यथार्थवाद’ की अवधारणा पर सबसे पहले मैंने ही ‘हंस’ के सितंबर 1986 के अंक में ‘जादुई यथार्थवाद का एक कहानीकार’ शीर्षक लेख में चर्चा की थी, जिसमें पंकज बिष्ट और उदयप्रकाश की कहानियों में आये इस नये बदलाव को रेखांकित किया था। बाद में मेरा एक पूरा लेख, ‘जादुई यथार्थवाद की अवधारणा’ शीर्षक से ‘हंस’ के ही सितंबर,1987 अंक में छपा। उसी अंक के संपादकीय में राजेंद्र यादव ने मुझे इस बात का श्रेय दिया कि इस टेकनीक की पहचान पहली बार चंचल चौहान ने की, बाद में उस पर बहस भी चली, एक आयोजन भी हुआ। यहां यह भी बता दूं कि उदयप्रकाश के पहले कहानी संग्रह, ‘दरियाई घोड़ा’ पर सबसे पहले मैंने ही एक रिव्यू लेख लिखा जो सतीश जमाली ने अपनी पत्रिका, ‘नई कहानी’ के मार्च 1984 के अंक में छापा। उसमें टेपचू कहानी पर मैंने लिखा, ‘…टेपचू का विकसता हुआ रूप कहानी में अद्भुत यथार्थवाद का जादू पैदा करता है।’ ‘हंस’ के सितंबर 1987 के अंक में जहां ‘जादुई यथार्थवाद की अवधारणा’ शीर्षक मेरा लेख था, उसी में लातिन अमरीकी साहित्य की विदुषी प्रो. विभा मौर्य का एक लेख ‘अद्भुत यथार्थवाद’ पर छपा था, जबकि मैं टेपचू कहानी में उस टेकनीक को मार्च 1984 में ही देख रहा था। बाद में मैंने एक पूरा लेख, ‘उदयप्रकाश की ‘टेपचू’ कहानी’ शीर्षक से लिखा जिसे राकेश रेणु ने अपनी पत्रिका, ‘समकालीन परिभाषा’ के जुलाई-सितंबर 1991 के अंक में छापा। मेरे ये लेख मेरी पुस्तक, ‘हिंदी कथा साहित्य : विचार और विमर्श’ (साहित्य भंडार, इलाहाबाद) में संकलित हैं। मैं उदयप्रकाश की कई कहानियों के मूल किरदारों को जानता हूं, उस दौर की उनकी रचनाप्रक्रिया का मैं अंतरंग साक्षी रहा हूं। सव्यसाची की पत्रिका, ‘उत्तरगाथा’ जब 1980 में दिल्ली से हम लोगों ने निकाली तो उदयप्रकाश की कई कहानियां उसमें छापीं। लेकिन मैंने वस्तुगत रूप से उदयप्रकाश की कहानियों की विकसित कलाक्षमता को रेखांकित किया, दोस्ती के नाते नहीं। उदयप्रकाश एक कहानीकार के रूप में बेजोड़ रचनाकार हैं।
अपनी इस रामकहानी को यहां देने का मक़सद आत्मश्लाघा न माना जाये, इसे देने की ज़रूरत इसलिए महसूस हुई क्योंकि तरसेम गुजराल ने भूमिका में पृ. 13 पर इस तरह की टिप्पणी की, मानो 1975 से 2000 के बीच की कहानियों पर आलोचकों का ध्यान ही नहीं गया, जोकि सही नहीं है। ‘मान्यवर आलोचक’ से शायद उनका इशारा नामवर जी की ओर है, उनसे उन दिनों यह अपेक्षा रखना भी सही नहीं लगता। साहित्य तो प्रवहमान धारा है, एक रचनाकार या आलोचक अपना योगदान करता हुआ उस प्रवाह का हिस्सा बनता है, तो दूसरा अपने समय और रचनालोक को समझता और विश्लेषित अंकित करता है। इस तरह यह प्रवाह क़ायम रहता है। 1980 के बाद की कहानियों में आ रहे बदलाव को हम में से बहुत से चिन्हित कर रहे थे। मैंने उदयप्रकाश और पंकज बिष्ट की कहानियों के विश्लेषण के माध्यम से इस बदलाव को लगातार रेखांकित किया। नेशनल बुक ट्रस्ट से पंकज बिष्ट की कहानियों का जो संचयन प्रकाशित हुआ, उनकी कहानियों का आकलन करते हुए उसकी लंबी भूमिका मैंने ही लिखी। इन दो कहानीकारों के अलावा भी इसी दौर में रचनारत और कई उभरते कहानीकारों जैसे मीरा कांत या अनुज पर भी मैंने लेख लिखे जो मेरी उक्त किताब में संकलित हैं, उसके बाद के कई लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में आ रहे बदलाव की पहचान मैंने अल्पना मिश्र की कहानियों पर लिखे एक लंबे लेख में अंकित की। इस तरह जहां बेहतर रचनाएं सामने आ रही हैं, तो उनमें से अपनी कलात्मक क्षमता के अनुरूप आलोचना में भी जगह बना रही हैं। मैं मायूसी का कोई कारण नहीं देखता। तरसेम गुजराल ने अपनी किताबों में, इस किताब के कई लेखों में भी आलोचकों की उपेक्षा का उल्लेख बार बार किया है, लगता है कि इसके बग़ैर उनसे नहीं रहा जाता, वे इसे ‘आब्सैशन’ बना बैठे हैं।
क्षमा करें, इस भटकाव के बाद तरसेम गुजराल की किताब, ‘कहानी का यथार्थ’ पर फिर लौटते हैं। जैसाकि मैंने बताया, पहला अध्याय उदयप्रकाश की कहानियों पर केंद्रित है। तरसेम जी ने उदयप्रकाश की लगभग सभी महत्वपूर्ण कहानियों का पुनर्पाठ इस अध्याय में प्रस्तुत किया है, उदयप्रकाश जिस तरह वैश्विक स्तर पर आ रहे सामाजिक राजनीतिक बदलाव को संजीदगी से समझ रहे थे, तरसेम गुजराल भी उसी बदले हुए यथार्थ को उन कहानियों में देख समझ रहे हैं। इस अध्याय का मूल भाव उसी यथार्थ को रचना में प्रतिबिंबित होते देखना है। दूसरा अध्याय अब्दुल बिस्मिल्लाह की कहानियों पर है। उनकी भी कुछ कहानियों का पुनर्पाठ जैसा ही वे करते हैं, उनका कोई भाष्य जो शायद संभव भी न हो, वे नहीं करते, अलबत्ता अंत में यह ज़रूर लिखते हैं, ‘हिंदी आलोचना की अभी तक भ्रांति ही बनी रही कि समय न्याय करेगा। इनकी कहानियों के साथ समय रहते न्याय नहीं हो पाया।‘(पृ.40)। किताब के तीसरे अध्याय में संजीव की कुछ कहानियों को सहानुभूतिपूर्ण तरीक़े से पेश किया है, उनका भी कोई क्रिटीक नहीं है। वे संजीव के बारे में बताते हैं कि ‘कहानियों में बहस और तर्क प्रस्तुत करते हैं ताकि विचारधारात्मक धरातल स्पष्ट हो सके।‘(पृ.54) तरसेम जी यह नहीं बताते कि कहानीकार की यह सीमा है या उसका गुण।
किताब का चौथा अध्याय अरुण प्रकाश की कहानियों पर केंद्रित है। हालांकि इस अध्याय में भी कहानियों का पुनर्पाठ ही है, लेकिन कई जगह तरसेम जी ने सूक्ष्म विवेचन भी प्रस्तुत किया है, ख़ासकर ‘भैया एक्सप्रेस’ कहानी के कई स्थलों का मार्मिक विवेचन, जिसकी वजह से यह एक अच्छा लेख बन पड़ा है। शायद कहानी का संबंध पंजाब के उस दौर के यथार्थ से होने के कारण यह बेहतर विवेचन संभव हुआ हो, जिसकी सही पकड़ तरसेम जी से बेहतर भला किसे हो सकती है। मगर ‘समीक्षक’ नामक प्राणी से शिकायत यहां भी दर्ज है, ‘…अन्य कुछ और कथाकारों की तरह कथा समीक्षक द्वारा उनकी मुनासिब पहचान दर्ज नहीं की गयी। यह एक भूल है और दुखद भी।’(पृ.67)
पांचवें अध्याय में शंकर जी की कहानियों का विशद विवेचन है। तरसेम जी के कथालोचन की यह ख़ूबी है कि वे हर रचनाकार के साथ दोस्ती का सलूक करते हैं, पूरी आत्मीयता से कहानियों के कथ्य और उसकी भाषा शैली आदि पर सकारात्मक टिप्पणी करते हैं, देशविदेश के लेखकों, चिंतकों के छोटे छोटे उद्धरण भी चस्पां कर देते हैं, कई बार ऐसे उद्धरण संदर्भ से छिटके हुए भी दिखायी देते हैं। इस हड़बड़ी में कई नाम ग़लत छप गये हैं जैसे शंकर जी के कथाकर्म पर लिखे लेख में दूसरे ही पैरे में अफ़्रीकन श्वेत लेखिका नादीन गोर्डिमर का नाम ‘नारीन गॉडिगर’ छपा है।(पृ.68) इसी तरह इसी लेख में पृ.73 के अंतिम पैरे में ‘फ्रेडरिक जेम्सन’ का नाम ‘जेमेसन’ लिखकर जो उद्धरण विजय कुमार के हवाले से चस्पां किया है उसका कुछ भी सिरपैर नहीं है, पूरी तरह अशुद्ध है। पृ. 75 पर ‘हबर्ट माक्यूर्ज’ भी ग़लत और संदर्भरहित है। इस लेख की बस यह ख़ूबी ज़रूर है कि इसमें शंकर जी की कहानियों के पुनर्पाठ के माध्यम से कहानीकार के सामाजिक सरोकार और बदलते यथार्थ की पहचान सही सही चिन्हित हुई है।
छठे अध्याय में हरियश राय की कहानियों का पुनर्पाठ है। इस लेख में भी पूरी आत्मीयता और प्रेमभाव से कहानीकार की कुछ कहानियों का परिचय कराया गया है। भारत में 1991 के बाद लागू नयी आर्थिक नीति जिसे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी ने सारी दुनिया पर थोप दिया है तेज़ी से अपना प्रभाव जीवन के हर पहलू पर डाल रही है। हरियश राय की कहानियों में इसी बदले हुए यथार्थ की पहचान अंकित है। इसे तरसेम जी ने भी सही तरीक़े से इस आकलन में दर्ज किया है। ‘आमची मुंबई’ कहानी में एक पात्र ‘शिंदे’ जो शिवसेना का मेंबर है मकानों की दलाली करता है और घनघोर रूप से सांप्रदायिकता का ज़हर अपने हित के लिए फैलाता है। हरियश जी को क्या पता था कि बहुत पहले लिखी उनकी कहानी का वही काल्पनिक पात्र सचमुच एक दिन मुंबई में पूरे राज्य का मुख्यमंत्री बन जायेगा, यह कहानी इस तरह से इलहामी कहानी भी बन गयी। मुंशी प्रेमचंद ने 1933 में सांप्रदायिकता के बारे में जो कुछ कहा था, वह आज भी लागू हो रहा है, उन्होंने लिखा था, ‘सांप्रदायिकता सरकार का सबसे बड़ा अस्त्र है और वह आख़िर दम तक इस हथियार को हाथ से न छोड़ेगी।” (‘विविध प्रसंग-दो’, पृ. 118, 23 फ़रवरी 1933) उनका अनुमान था कि ‘सरकार ने भारत में सांप्रदायिकता का बीज बो दिया है और किसी दिन इस वृक्ष का फल भारत और भारतीय सरकार दोनों के लिए घातक साबित होगा।‘ (वही, पृ. 418, 4 सितंबर 1933)। जब से मोदी सरकार ने केंद्र की सत्ता हथियायी है, तब से लगातार यह ज़हर समाज में तेज़ी से फैलाया जा रहा है, उसी की वजह से रोज़ जघन्य हत्याएं, बलात्कार और हिंसा की वारदातें सामने आ रही हैं। जैसे जैसे संसदीय आम चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, अंधभक्तों की फ़ौज नियोजित तरीक़े से सांप्रदायिक दंगे करने में लगा दी गयी है, लगता है कि आम चुनाव तक ये घिनौनी हरकतें रोज़ बढ़ेंगी। हिंदी कथाकारों में इसे लेकर बेहद बेचैनी है, वही बेचैनी हरियश राय की ‘आमची मुंबई’ कहानी में और हाल ही में प्रकाशित उपन्यास, ‘दहन’ में देखी जा सकती है। तरसेम गुजराल ने भी इसी कहानी के आकलन के साथ यह चिंता व्यक्त की है : ‘धर्म के नाम पर देश को बर्बरता और अराजकता में धकेला जा रहा है और हिंसा का व्यापक स्तर पर स्वीकार फ़ासीवाद की तरफ़ ले जाता है।’(पृ.98) ।
सातवें अध्याय में अभय की कहानियों का सहानुभूतिपूर्ण आकलन है। तरसेम जी ने अभय की कुछ कहानियों के कथानक पेश करते हुए उनकी रचनाशीलता की व्याख्या की है। इसी तरह आठवें अध्याय में हृषिकेश सुलभ की कुछ कहानियों के माध्यम से उनके कथाकर्म का आकलन पाठक के सामने रखा है। इस आकलन के बीच ही एक बार फिर ‘हिंदी के यशस्वी कहानी आलोचक’ से इन कहानियों की उपेक्षा की शिकायत है। अपनी शिकायत को बल देने के लिए खुद कहानीकार का वक्तव्य भी उद्धृत कर दिया है (पृ. 116) तरसेम जी, दर असल, किसी रचना के साथ आलोचनात्मक रुख़ नहीं अपनाते। इसीलिए एक कमज़ोर रचना की कमियां भी नहीं देख पाते जिनकी वजह से बहुत सी कहानियों की उपेक्षा होती है। ढेरों ‘सत्य’ कथाएं, ढेरों अख़बारी स्टोरीज़ छपती हैं, वे सभी उपेक्षा का शिकार होती हैं। वे साहित्यिक रचनाएं नहीं होतीं।
इसके बाद नौवें अध्याय में महेश दर्पण की कुछ कहानयों का पुनर्पाठ अंकित है। इन कहानियों में बदलते समय और समाज की पहचान को तरसेम जी ने सही तरीक़े से समझा और व्याख्यायित किया है। दसवें अध्याय में नर्मदेश्वर की कहानियों का आकलन किया गया है। उनकी कुछ कहानियों के आकलन के माध्यम से जन के प्रति नर्मदेश्वर की प्रतिबद्धता को तरसेम जी ने ठीक ही रेखांकित किया है। इसी तरह महेश कटारे की कहानियों का आकलन भी ग्यारहवें अध्याय में हुआ है।
इस किताब के बारहवें अध्याय में रमेश बत्तरा की कहानियों का आत्मीयतापूर्ण आकलन है। रमेश बत्तरा से मेरी भी दोस्ती थी, उन्होंने चंडीगढ़ में मुझे हिंदी आलोचना पर एक लेक्चर देने के लिए बुलाया था, वहां तब इंद्रनाथ मदान, कुमार विकल, सुरेंद्र मनन, नरेंद्र निर्मोही और कई लेखक और यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक व छात्र मौजूद थे। उसके बाद वे दिल्ली आ गये तो अक्सर मिलना जुलना होता था, जलेस की छोटी गोष्ठियां निर्मला गर्ग उनके घर पर ही आयोजित कर लेती थीं। वे बहुत ही प्यारे इंसान थे, बेहतर कथा लेखन की काफ़ी संभावनाएं बत्तरा जी में थीं, मगर वे असमय विदा हो गये। तरसेम जी ने उनकी चर्चित कहानी, ‘जंगली जुगराफ़िया’ का सही आकलन किया है, कहानी के ‘फौजासिंह’ की प्रीतो के साथ जो हुआ, उससे भी ज़्यादा वहशी सलूक आज मणिपुर में कारगिल के वीर जवान की प्रीतो के साथ हुआ है। इस तरह की कहानियां सार्वभौमिकता का यथार्थ रच जाती हैं। तरसेम जी ने रमेश बत्तरा की कई कहानियों का पुनर्पाठ करते हुए उनकी कथ्यगत और शिल्पगत ख़ूबियों को चिह्नित किया है। बत्तरा जी सचमुच अपने शिल्प को विकसित करने की कोशिश कर रहे थे जैसाकि उनकी कहानी ‘लड़ाई’ में भाषिक संरचना के नये प्रयोगों से ज़ाहिर होता है। इसी तरह बारहवें अध्याय में तरसेम जी ने एस आर हर्नोट के कथाकर्म का आकलन भी पूरी सहानुभूति के साथ किया है। अंत में ‘परिशिष्ट’ के तौर पर एक लेख चंद्रकला का है जिसमें लेखिका ने तरसेम गुजराल के कथाकर्म का विस्तार से परिचय कराया है।
इस पुस्तक की एक ख़ूबी या कमी यह है कि इसमें आलोचकों के प्रति तो ‘आलोचनात्मक’ रुख़ मौजूद है; मगर हर कहानी के आकलन में अन-आलोचनात्मक रवैया अख़्तियार किया गया है। तरसेम जी अपने आकलन में ‘सब-आल्टर्न’ इतिहासचेतना के शिकार दिखायी देते हैं, इसीलिए ‘हाशिये के लोग’ जैसी हवाई अवधारणा बार बार उनके लेखन में आती है। हिंदी के अनेक लेखक हिंदी के दो सर्वनामों यानी ‘वह’ और ‘वे’, ‘यह’ और ‘ये’ का सही प्रयोग अपने लेखन में नहीं कर पाते। हिंदी में यह प्रवृत्ति एक बीमारी की तरह फैली हुई है। सोशल मीडिया ने इस बीमारी को और ज़्यादा फैला दिया है। एक ही पैरा में लेखक के लिए आदरसूचक ‘वह कहते हैं’ और दो पंक्तियों के बाद ‘वे सोचते हैं’ जैसे अराजक प्रयोग मिलते हैं, तरसेम जी का लेखन भी इस असावधानी से मुक्त नहीं है। उदरहरण तो बहुत हैं, मगर साक्ष्य के तौर पर पृ. 29 पर देखें, अंतिम पैरे के ऊपर वाले पैरे में उदयप्रकाश के बारे में शुरू में लिखा : ‘वह उपनिवेशवाद, उत्तर-उपनिवेशवाद दबाव को ठीक से समझते हैं…’ और इसी पैरे के अंतिम वाक्य में, ‘वे चेतनहीनता को चेतना देने वाली कहानियां भी दे पाये हैं।’ व्याकरणसम्मत तो यही होगा कि बहुवचन क्रिया के लिए कर्ता को भी बहुवचन रखें, जैसा सही प्रयोग ‘वे’ वाले वाक्य में हुआ है, ‘वह’ वाले वाक्य में नहीं। पता नहीं, हिंदी लेखक इस तरह की हिंदी लिखकर कब तक इस भाषा को, बक़ौल रघुवीर सहाय ‘दुहाजू की बीवी’ बनाये रखेंगे।
dr.chnchlchauhan@gmail,com
(कहानी का यथार्थ, लेखक : तरसेम गुजराल, प्रकाशक : अनन्य प्रकाशन, ई-17 पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032; मूल्य : 450 रुपये .)