छह कविताएँ : बसंत त्रिपाठी


बसंत त्रिपाठी  की इन कविताओं में एक ओर ‘धंधेबाज़ों की चालाकियों’ के क़िस्से हैं  और ‘मैं’ सर्वनाम के साथ उन लोगों की शिनाख्त है जो ‘एक साथ जाति-आलोचना और जाति-दंभ लगने वाले तर्क’ की तलाश में हैं, तो साथ ही सामूहिकता, स्मृति, सहयोग और सहकार की तिलांजलि देने के बाद बंजर मन में कविता लिखने की इच्छा उबलने पर ‘रचनात्मक तकनीक से लैस एक अदद रोबोट की सख़्त ज़रूरत’ का उलाहना भी है। वे विलक्षण संवेदनशीलता के साथ हमारे समय के रुझानों को अपनी कविता में दर्ज करते हैं।

बसंत मूलतः छत्तीसगढ़ से हैं और 22 वर्ष तक महाराष्ट्र के नागपुर के एक महिला महाविद्यालय में अध्यापन के उपरांत अब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं। कविता, कहानी और आलोचना में सतत लेखन। कविता की पाँच किताबें, कहानी और आलोचना की एक-एक किताब के अलावा कई संपादित किताबें प्रकाशित। 

 

घोड़ा और घास

 

घोड़े और घास के संबंध का मुहावरा

बीसियों बार सुना था

इसके भीतर से उठ रही

धंधेबाजों की चालाकियों की आवाज़ मगर

कभी नहीं सुन पाया था

 

व्यापार का ब्रह्मवाक्य ही मानता आया था

अब तक इसे

 

चौंका तो तब

जब लोकतंत्र के शीर्ष पर पहुँचे

उस महान मक्कार ने

जनतांत्रिक अधिकारों की बाबत कहा –

‘घोड़ा घास से दोस्ती करेगा

तो खाएगा क्या ?’

000

 

चाहिए

 

चाहिए

सत्ता के राजमार्ग को छूती

जाति की कॉलोनी में

सौ वर्ग गज का एक प्लॉट चाहिए

जी, दक्षिणमुखी भी चलेगा

 

एक ऐसा तर्क चाहिए

जो जाति-आलोचना और जाति-दंभ

एक साथ लगे

 

जो बाँभन को बाँभन

ठाकुर को ठाकुर लगे

जो कायथ की राजनीति में

छुप्पम छुप्पा घुसा किए

 

शूद्रातिशूद्र के घर बैठ खा आए

घर आकर कोसे गलियाए

ऐसी निर्द्वन्द्व बेशरमी चाहिए

ऐसी चिपचिपी भाषा चाहिए

 

चाहिए एक मुखौटा ऐसा

जो दिखे एक ओर से रेशनल

दूसरी ओर से सत्ताग्रही

सत्ता के सिंहासन में

चिपकाए रखने का गोंद चाहिए

‘मुझे कुछ और करना था

पर मैं कुछ और कर रहा हूँ’ * की पीड़ा से

मुक्ति चाहिए

हिंदी समाज के पैबन्द लगे चोगे में

अपनी जाति का एक अदृश जेब चाहिए

 

चाहिए  और और चाहिए

हर बार चाहिए

घिसे हुए काइँया चेहरे पर लगाने को

ज्ञान का उबटन चाहिए

धतूरे सा शरीर ढँकने को

तर्क की चमकदार कमीज़ चाहिए

 

चाहिए एक काला कंबल

जिसे ओढ़कर घी पिएँ सब संगी साथी

और पता भी न चले

चाहिए मिस्टर इंडिया का वो गैजेट

जिसे कलाई पर बाँधकर

सिद्धांत के मैदान में उथल पुथल मचाएँ

 

चाहिए

बस यही चाहिए

000

*  रघुवीर सहाय की पंक्तियाँ

 

 

दो मिनट का मौन

 

जो संस्मरण में क्रांतिकारी बनते हैं

अक्सर उन्हें अपनी कायरता छुपाता हुआ पाता हूँ

टिप्पणीकार दरअसल अपनी दुम

और कँटीली जीभ का प्रदर्शन करते हैं

 

जो शब्दों के मंच पर

ज़रा ज़ोर से उछल रहे हैं

उनके क्रांतिकारी पाँव

भूल चुके हैं ज़मीन की छुअन

पेंदा किसी गद्दीदार कुर्सी की घात में है

सदी के श्रेष्ठ अकर्मण्य और दिमागी दिवालिये

इतिहास में थोड़ा और कूड़ा बिखेरकर लौट आये हैं

अपने सुरक्षित और निष्क्रिय वर्तमान में

 

भगोड़े तर्क करते हैं

भागने का औचित्य रचते हैं

जिनकी बुद्धि में खुजली के कीटाणु हैं

वे स्वस्थ चाम की परिभाषा बुनते हैं

 

वे हर सुबह सियार के अण्डकोष से बना कैप्सुल लेते हैं

और दिन भर ‘हुआ हुआ’ करते हैं

इस तरह कभी-कभी कुछ हो हवा ही जाते हैं

 

दरबारी बनने के अनंत कौशलों से युक्त

इन अभिमानी-उत्पाती प्रियजनों के लिए

आइए फिलहाल रखें

दो मिनट का मौन !

000

 

विकास का बुलडोज़र 

                                                  

बस्ती उजाड़ने के बाद बुलडोज़र

सरकारी परिसर में थका हुआ-सा पस्त

चुपचाप खड़ा है

उसके डैने में कुछ चिथड़े फँसे हैं

 

ध्वस्त बस्ती के मलबे में

बीनने बटोरने की थकी हुई हरकतें

आँसुओं के बीच दीख रही हैं

जैसे निर्माण के महास्वप्न में

अस्वीकार कर दी गयी मनुष्यता !

 

आखिर कौन हो सकता है ऐसे दृश्यों पर मुग्ध ?

दिमाग़ में इतनी क्रूरता

दिल में इतनी नफरत कहाँ से आ पाती है ??

 

वैध और अवैध की परिभाषाएँ

इतनी अमानवीय कब से हो गयीं ?

प्रतीकों के कैसे कुचक्र में फँस गया है हमारा समय ?

 

गाय-बछड़ा, हाथ, बंद मुट्ठी, हँसिया-हथौड़ा, गेहूँ की बालियाँ

कमल, साइकिल और झाड़ू से खुराक पाकर पुष्ट हुई

चमकदार सुविधाजीवी नागरिकता

बुलडोज़र पर लहालोट है

 

यह प्रतीकों के विपर्यय का समय है

ईश्वरों के चेहरे बदले जा रहे हैं

इतिहास को भूल-सुधार की तंग गलियों में ठेल दिया गया है

ट्रैक्टर की घरघराहट पर बुलडोज़र के जबड़े हावी हैं

चुनावी जीत के नशे में चूर सरकार ने

विकास को बुलडोज़र का समानार्थी शब्द घोषित कर दिया है

 

क्रूरताओं पर मुग्ध लोगो !

देख सकते हो तो देखो

सत्ताएँ कोमलता से पिंड छुड़ाना चाह रही हैं

तुम्हारे भीतर भी कोमलता के जो अवशेष हैं

उसके लिए भी खरीद लिया गया है

एक मज़बूत बुलडोज़र.

000

 

एकरसता

 

मुख्य सड़क से जाकर

मुख्य सड़क से ही लौटना घर

जिनसे मिलना तय किया

बस उन्हीं से मिलना

वही बोलना जो सुरक्षित हो

ख़बरें वही देखना

जो ठण्डी और आभामुक्त हो

 

मन को मुट्ठी में रखना

फिर उसे भगवद्भक्ति की ओर उछाल देना

दोपहर दो घण्टे की नींद के बाद

शाम टी वी पर हा हा ही ही हू हू

 

इतने पर भी प्रफुल्लित क्यों नहीं मन

जीवन क्यों नहीं लगता धन्य धन्य

 

रक्तचाप क्यों घट-बढ़ रहा बार-बार

विपश्यना के कठोर नियंत्रण से

दिमाग की नसें निकल क्यों जातीं हर बार

 

दिल की धड़कन वक़्त-बेवक़्त

नगाड़े की तरह बजती

मौत का डर

चिकित्सकों और बीमा कंपनियों की ओर ठेलता

 

सबकुछ तो ठीक-ठीक लगता है

फिर कौन है वो

जो पटरी पर चल रही गाड़ी की चेन

खींच देता है बार-बार ?

000

 

सामूहिकता से मुक्ति

 

मैंने अपनी याद्दाश्त

मोबाइल के मेमोरी कार्ड को सौंपी

फिर खरीद लाया एक टी.बी. का हार्डडिस्क

 

मैंने अपना बाहर

इंटरनेट को सौंप दिया

बातचीत और कहकहों के ऐवज में

ओ टी टी की तमाम खिड़कियाँ खोल लीं

 

चायघर की सामूहिकता

होम डिलीवरी को बेची

अख़बार की खरखराहट को अलविदा कहा

और तमाम अख़बारों के ई-संस्करण खरीदे

इस तरह एक बेयरा और एक हॉकर की पहचान से मुक्त हुआ

 

पैदल चलने का अधिकार-पत्र

पहियों के नाम लिख दिया

विरोध जताने के लिए सोशल मीडिया पर

लिखे कई आकर्षक पोस्ट

 

मैंने अपना बचा-खुचा सुकून बेचकर

डरावने सपने खरीद लिए

 

कविता लिखने की इच्छा अब भी उबलती है

लेकिन शब्द कमबख्त सधते नहीं

मुझे रचनात्मक तकनीक से लैस

एक अदद रोबोट की सख़्त ज़रूरत है !

000

                 basantgtripathi@gmail.com

              9850313062

मुख्य शीर्षक के नीचे दी गयी तस्वीर (फ़ीचर्ड इमेज) विश्व-प्रसिद्ध ग्राफ़िटी आर्टिस्ट बैंक्सी की एक ग्राफ़िटी है।  


5 thoughts on “छह कविताएँ : बसंत त्रिपाठी”

  1. दमदार, समसामयिक,
    बुलडोजर के सामने सीना तान कर खड़ी कविता ।
    कसाव इतना कि एक शब्द छूटा और कविता गायब।

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  2. अपने समय की लोलुप राजनीति और धार्मिक उन्माद के चलते तेजी से बदल रही परिस्थितियों और बदलते मनुष्यों को व्यक्त करती सामयिक कविताएँ ।

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  3. लोलुप समय के बारे में बात करती अच्छी कविताएं।

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  4. समय को सत्ताओं ने किस तरह क्रूर बना दिया है। इसे क्रूर बनाने वाले चेहरों को इन कविताओं के माध्यम से बेनकाब करते हैं बसंत त्रिपाठी।
    राजा अवस्थी, कटनी

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  5. इस समय को क्रूर बना दिया गया है और इसे क्रूर बनाने वालों को बेनकाब करती हैं बसंत त्रिपाठी की कविताएँ।

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