छह कविताएँ / राघवेंद्र प्रपन्न


विडंबनाओं की पहचान और उनकी सहज संप्रेषणीय अभिव्यक्ति राघवेंद्र प्रपन्न की कविताओं को विशिष्ट बनाती है। वे बिना अधिक शब्द ख़र्च किये समय-समाज-राजनीति की किसी एक विडंबना को आहिस्ते रेखांकित कर देते हैं। पढ़िए, उनकी छह कविताएँ :

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शब्दों की चुप्पियाँ

भरमार शब्दों के बीच
जो पढ़ नहीं सकते
उनके लिए तो शब्द है — अनपढ़
पर जो पढ़ना जानते हुए भी
पाठ से बच निकलते हैं
उनके लिए क्या है?

जो देख नहीं सकते
उनके लिए तो शब्द है —
पर जो देखकर भी
पतली गली से निकल लेते हैं
उनके लिए क्या है?

जो बोल नहीं सकते
उनके लिए तो शब्द है —
जो बोलना तो जानते हैं
पर बोलने के ऐन मौक़े पर
बोलने से बच निकलते हैं
उनके लिए क्या है ?

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पायंदाज
(पाँवपोछनी)

सत्ता और जनता के मुहाने पर पड़ा
मैं पायंदाज हूँ
मेरी कई क़िस्में हैं
जिसमें से कुछ प्रमुख हैं-
समरसता, लोकतंत्र और देशभक्ति

सत्ता से जनता
और जनता से सत्ता में
अवाजाही के बीचम-बीच
पड़ा-पड़ा मैं
केवल पाँव साफ़ करने के काम आता हूँ

000

केवल इसलिए

केवल इसलिए
न गिरते जाना
क्योंकि तुमने गिरना शुरू कर दिया
और एक बार गिरना शुरू हो जाने पर
रुकना नामुमकिन है
तुम कोई वस्तु नहीं कि तुम पर
वस्तुओं के गिरने का नियम लागू होता है

केवल इसलिए
ख़ंजर झिड़कने से
परहेज न करना क्योंकि
खंजर का अपना मनोविज्ञान होता है
एक बार चलाना शुरू कर देने पर
वह तुम पर सवार हो जाता है
और तुम्हारे मार्फ़त खुद को चलाता ही जाता है
तुम कोई वस्तु नहीं कि तुम पर
गति का जड़त्व काम करता है

000

अपवाद

वैसे तो सजीव और निर्जीव में
बुनियादी फ़र्क़ होता है
पर एक चीज़ में वे समान होते हैं
वह यह कि, वे प्रतिक्रिया देते हैं-
जैसे, रूई अपने धुने जाने पर
खूब उत्पात मचाती है
जैसे, नदी अपने बाँधे जाने पर
खूब फनफनाती है
जैसे, बैल अपने नाथे जाने पर
खूब बिचरता है
जैसे, गदहा हद से ज्य़ादा हुरियाए जाने पर
तगड़ी दुल्लत्ती झाड़ ही देता है

पर ये नियम
इंसानों पर लागू नहीं होते

000

गणित की जिंदगी

वैसे तो आरंभिक अवस्था में बच्चे,
सीखते हैं गणित के पूर्णांक –
1 , 2 , 3,
पर पूरे दिन जिस्म तोड़ने के बाद
उसने अपने बाप को
चार पेट की भरपूर भूख के सामने
एक पावरोटी को
चार हिस्सों में फाड़ते देख
सीखा — पौना-चौथाई

एक प्याली चाय की तलब को
चार भागों में बाँटते देख
सीखा — एक बटा चार

वैसे तो आरंभिक अवस्था में बच्चे
सीखते हैं -ग्राम और किलो
पर अपने यहाँ रोज़-रोज़ पुड़िया में बँधा
सामान आता देख
उसने सीखा — छटाक, रत्ती

औना-पौना, रत्ती-छटाक ने
उसका पीछा यहीं नहीं छोड़ा,
जब वह बाप, पति और दोस्त बना
तब भी
औना-पौना, रत्ती-छटाक ही
बाप, पति और दोस्त बन पाया

जब वह अट्ठारह साल का हुआ
तब नागरिक बना पर एक बाटा चार

उसके आंगन में अब कभी चाँदनी उतरती है तो
पौना-चौथाई, रत्ती-छटाक ही उतरती है

000

ताज्जुब

शिक्षक बचते हैं
ऐसे प्रश्न बनाने से
जिनके जवाब के सही-ग़लत होने की
ज़िम्मेदारी उन पर आ जाए

विद्यार्थी बचते हैं
ऐसे उत्तर देने से
जिनके सही-ग़लत होने की
ज़िम्मेदारी उन पर आ जाए

पत्रकार बचते हैं
ऐसे प्रश्न पूछने से
जिससे सवाल के, सवाल बन जाने की
ज़िम्मेदारी उन पर आ जाए

साधारण लोग बचते हैं
ऐसे सवाल करने से
जिससे सवाल करने की
ज़िम्मेदारी उन पर आ जाए

विशेष लोग बचते रहे हैं
ऐसे सवाल करने से
जिससे उनकी विशिष्टता
सवाल के घेरे में आ जाए

इस प्रकार सभी
ऐसे प्रश्नों और उत्तरों की ओर उमड़ रहे हैं
जिसकी ज़िम्मेदारी किसी और के ऊपर आ जाए

वे बचे रहना चाहते हैं , महफ़ूज़ रहना चाहते हैं
फिर सभी
ताज्जुब से पूछ रहे हैं कि
हमारी नियति का फैसला कोई और क्यों ले रहा है

r.prapanna@gmail.com

 


7 thoughts on “छह कविताएँ / राघवेंद्र प्रपन्न”

  1. बहुत सम्यक् तरीके से आपने हरेक बारीकियों का वर्णन वर्णन किया है। अद्भुत 👏

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  2. बिडंबनाओं को रेखांकित करती बेहतरीन कविताएँ।

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  3. बहुत ही खूबसूरत तरीके से आपने भावनाओं को शब्दों में ढाल दिया। सर आपकी प्रत्येक कविता एक विशेष बिंदु और उसके महत्व को लेकर चलती है।
    शब्दों की चुप्पियाँ और गणित की ज़िन्दगी कविता ने मेरे हृदय में आपकी कविता ने एक विशेष जगह बना ली। 🙏🏻✨🌻

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  4. शुक्रिया अजय। कौन सी कविता पठक तक पहुँच रही है इसका अता-पता इस तरह की टिप्पणियों से चलता है और मुझ सरीखे रचना में दिलचस्पी रखने वालों के लिए पृष्ठपोषण का काम भी करता है।

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  5. वाह! आपकी हर कविता निशब्द भी करती है और बातचीत के नए रास्ते भी खोलती चलती है।

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  6. अरे अनुपम जी!मेहरबानी।आपको यहाँ देखकर थोड़ा चौका पर अच्छा ही लगा।

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