अपने देशकाल को कहने से लेकर अपने-आप को कहने तक, संजय कुंदन की कविताओं में सादगी के साथ व्यक्त होने वाली एक तीक्ष्णता है। वे हमें अपनी काव्य-युक्तियों से अधिक अपने अवलोकन के नयेपन से आकर्षित करते हैं। ‘हर हाल में सहमत बने रहने के आतंक’ और ‘सभ्यता पर दांत धंसाए हुए बीमार लोगों’ की पहचान करने वाली उनकी निगाह अक्सर हमारे सामने घटित हो रहे दृश्य के उस पहलू को उभार लाती है जिसे हम अपने संज्ञान में अलग से चिह्नित नहीं कर पा रहे थे। हमारे मुल्क के बदतर हालात और घृणा से बजबजाती जनविरोधी राजनीति को लेकर बेचैनी तो संजय में दिखती ही है, अपने और अपनों के भीतर झांकने का वह निर्मम साहस भी दिखता है जो बाहर आंख गड़ाये हुए कवियों में प्रायः नहीं मिलता। पेश हैं, उनकी रेंज का प्रतिनिधित्व करने वाली ताज़ा दस कविताएं :
———————————————————————–
पानी नहीं होगा
एक दिन शहर में पानी नहीं होगा
रंगीन फव्वारे होंगे
स्वीमिंग पूल होंगे
पानी नहीं होगा
आईफ़ोन होंगे, आईपैड होंगे, लैपटॉप होंगे
पानी नहीं होगा
स्कूटर होंगे, कारें होंगी, बुलडोज़र होंगे
मेट्रो, रैपिड रेल, हेलिकॉप्टर, हवाई जहाज होंगे
पानी नहीं होगा
एटीएम, बैंक, मेगा स्टोर, शेयर बाज़ार होंगे
गोल्फ़ कोर्स, जिम, क्लब, बार होंगे
जुआघर, होटल सेवन स्टार होंगे
पानी नहीं होगा
योजनाकारों की घिग्घी बंध जाएगी
सर नोचने लगेंगे प्रशासक
बगलें झांकेंगे इंजीनियर
मचने लगेगी भारी भगदड़
मल्टीप्लेक्स में ताले झूलने लगेंगे
भांय-भांय करने लगेंगे मॉल
रेस्तरांओं, कहवाघरों, आइसक्रीम पार्लरों और बारबेक्यू पर
मक्खियों, तिलचट्टों और छिपकिलियों का क़ब्ज़ा हो जाएगा
वीरान हो जाएंगे फार्म हाउस, कोठियां और कॉलोनियां
एक दिन शहर में पानी नहीं होगा
अंधड़ की तरह मंडराता रहेगा
पानी का श्राप।
***
पिताः पुनर्पाठ
कवियों के पिता अकसर महान होते हैं
या फिर कविता में पिता को महान बनाकर ही
प्रस्तुत करने का चलन है
पिता के संघर्ष को लेकर भावुक रहते हैं कवि
वे पिता को देखते हैं
अपने बच्चों के लिए हड्डियां गला देने वाले
तपस्वी की तरह
या परिवार को तूफ़ान से
निकाल लाने वाले
एक साहसी नाविक की तरह
यह सब वाकई होते हैं पिता
पर वह केवल ईश्वरीय नहीं होते
सामाजिक भी होते हैं
कई तरह की मिट्टियों से बनती है
मनुष्य की आत्मा
अब जैसे मेरे पिता गोर्की-चेखव को पढ़ते थे
और तुलसीदास के भी परम प्रशंसक थे
ढोल गंवार शूद्र पशु नारी के पक्ष में
उनके पास अपने कुछ तर्क होते थे
बिना किसी व्यसन के वे सादा जीवन जीते थे
एक बार उन्होंने भूमिहीन मज़दूरों के
नरसंहार का समर्थन किया
गोकि वह किसी की हत्या के बारे में सोच
नहीं सकते थे
पर अपनी जाति के हत्यारों से
अभिभूत रहा करते थे
मैं औरों की तरह उन्हें निराशा के अंधेरे में
कंदील की तरह या
करुणा का वाष्प वगैरह बता सकता हूं
पर ठिठक जाता हूं
चाहता हूं
उनके बारे में सब कुछ सच-सच बताऊं
जानता हूं इससे उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा
मुझे ही बिगड़ैल संतान बताया जाएगा
और कहा जाएगा
कैसा आदमी है, बाप को भी नहीं छोड़ा!
***
हत्यारे और उनके विरोधी
हत्यारों में ज़बरदस्त एकता थी
उनके समर्थकों में भी आम सहमति थी
वे सब बोलते हुए एक तरह मुंह खोलते
हंसते हुए सबके दांत बराबर बाहर आते
वे एक हत्या को जायज़ ठहराते हुए
एक तरह से नाक फुलाते
लेकिन उनमें सहमति होना मुश्किल था
जो हत्यारों के विरोधी थे
जो शांति कायम करना चाहते थे और लोकतंत्र
वे हमेशा एक-दूसरे को संदेह से देखते थे
जैसे एक कवि दूसरे के बारे में सोचता
यह ज़रूर अभी किसी हत्यारे की दावत से आया है
दूसरा पहले के बारे में सोचता
यह पुरस्कार के लिए किसी से हाथ मिला सकता है
जब हत्यारों के विरोधी विचारक
धरने पर बैठे होते
तब भी उनमें यह बहस चल रही होती
कि किसकी इतिहास दृष्टि ज्यादा साफ़ है
वे अकसर एक-दूसरे के संघर्ष को फ़र्ज़ी बताते
और कभी-कभी एक-दूसरे की जासूसी करने लगते
कई बार समझ में नहीं आता
उनकी लड़ाई हत्यारों से है या एक-दूसरे से।
***
कुछ स्त्रियां
कुछ स्त्रियां
कुछ स्त्रियां पितृसत्ता की स्वयंसेवक होती हैं
वे घेरती रहती हैं दूसरी औरतों को
-अरे, तुम इतनी रात अकेली कहां से आ रही हो
-अरे, तुम पति के लिए कोई व्रत नहीं रखती
-कैसी औरत हो, खाना बनाना नहीं जानती
कुछ स्त्रियां पितृसत्ता की दीवारें एक लात में
गिरा देती हैं
एक लड़की से जब पूछा जाता है
शादी के दो साल बाद भी
अब तक बच्चा क्यों नहीं हुआ
वह कहती है-हमें बच्चे नहीं करना
सोचती हूं एक कुत्ता पाल लूं।
***
बीमार शहर
आधी रात टूटती है नींद
एंबुलेंस के सायरन से
लगता है उसकी धमक से
मेरा कमरा नाच गया हो 360 डिग्री पर
कुछ ही मिनटों के अंतराल पर
गूंजता रहता है वही अलार्म
जैसे मौत की गुर्राहट
उस आवाज़ के साथ
सोचने लग जाता हूं
कौन होगा बेसुध लेटा एंबुलेंस में
हो सकता है वह एक बेहद डरा हुआ आदमी हो
जिसे उच्च रक्तचाप ने नहीं
लंबी चुप्पी ने पहुंचा दिया होगा इस हाल में
या हर हाल में सहमत बने रहने के आतंक ने
यह विजेताओं का नहीं रोगियों का शहर है
जो चाहते हैं दूसरों के दिमाग़ पर क़ब्ज़ा
जो सभ्यता पर धंसाएं हैं दांत
असल में बीमार लोग हैं
जो दूसरों को भी कर रहे बीमार
कब होगा इनका इलाज?
***
नींद की गोलियां
वे जब से मेरे साथ हैं
मैं रोज थोड़ा और विपन्न महसूस करने लगा हूं
कई बार लगता हैं वे ठठाकर हंस रही हैं
मेरे ऊपर
रिक्शे की सीट पर गुड़ी-मुड़ी सोये
एक रिक्शेवाले
या छत की मुंडेर पर खर्राटे भरते
एक मज़दूर को देख
ईर्ष्या होने लगी है
लोरियों और क़िस्सों का युग
बहुत पहले बीत चुका है
मेरे जीवन में
जब से मैंने ज़िंदगी को उछालना बंद किया
उसके साथ पिट्ठू और आइस-पाइस खेलना बंद किया
उसके साथ दांव लगाना बंद कर दिया
जब से घायल होने और बदशक्ल होने का डर सताने लगा
तभी से नींद से रिश्ता गड़बड़ाया है
मेरे सिरहाने पड़ी है नींद की गोलियां
जैसे लाइसेंसी रिवॉल्वर की गोलियां हों
जिससे डरा-धमका कर नींद को काबू कर रखा है
किसी दिन नींद ने इनसे डरना बंद कर दिया तो… ?
***
खेल
जब टीवी पर ख़बरों में जनसंहार दिखाया जाता है
उन्हें लगता है, सामने खुला है
वीडियो गेम का पर्दा
जब धमाके के साथ धुएं का सैलाब उठता है
वे रोमांचित हो उठते हैं
ख़ून से लथपथ एक बच्चा लड़खड़ाता है
उन्हें लगता है यह एक आभासी बच्चा है
जब औरतें विलाप करती आती हैं
उन्हें लगता है ये गेमिंग इंजीनियर की
डि़जाइन की गई स्त्रियां हैं
चारों तरफ बिखरे घरों, स्कूलों, अस्पतालों के मलबे को
वे शानदार ग्राफिक्स के नमूने की तरह देखते हैं
वे बार-बार चैनल बदलकर यह सब देखते हैं
खेल की उत्तेजना के साथ
उनकी उंगलियां उसी तरह हरक़त में होती हैं
जैसे फिसल रही हों रिमोट पर
जैसे है वे ही चला रहे हों टैंक
दबा रहे हों मिसाइलों के बटन
वे कुछ शातिर राष्ट्राध्यक्षों की तरह नज़र आते हैं
फिर टीवी बंद कर
हंसी-मज़ाक करते हुए
आ जमते हैं डाइनिंग टेबल पर
और तरबूज काटकर खाते हैं
लगता है पृथ्वी को खा रहे हों।
***
एक आम आदमी की प्रार्थना
वह भगवान से ज़्यादा मांगने में सकुचाता है
उसे लगता है भगवान क्या सोचेंगे
कितना लालची आदमी है
सब कुछ हमीं से मांग रहा है
वह भगवान को धन्यवाद देता है
कि उन्होंने उसे ऊंचा भले ही नहीं बनाया
पर अपने ही धरम में रखा
वह मांगता है
हे भगवान
ठेकेदार से कोई पंगा न हो
अगर हो भी तो पुलिस-थाने की नौबत न आए
कभी वह बीमार पड़े
और अस्पताल जाना पड़े तो
वहां एक बेड खाली मिल जाए
हो जाए उसका इलाज ठीक से
और अगर वह मर ही जाए
तो उस समय अस्पताल में एंबुलेंस जरूर हो
उसकी लाश को साइकिल से न ले जाना पड़े
***
एक ही सुर
जब पूरा शहर एक ही सुर में बोलने लगता है
तो हर आदमी का चेहरा भी एक नज़र आने लगता है
एक ही चेहरे वाले असंख्य लोग
जैसे एक ही व्यक्ति की हज़ारों छायाप्रतियां
एक ही शख़्स बैठा है दफ़्तरों में
कर रहा हस्ताक्षर पर हस्ताक्षर
चीख रहा जहां-तहां माइक पर
कर रहा कपाल भारती
उतार रहा आरती
चला रहा बुलडोज़र
लगता है
एक ही आयुध कारखाने में बने हथगोले
सड़कों पर लुढ़क रहे हों
कभी भी हो सकता है विस्फोट
***
इंस्टाग्राम
वह इंस्टाग्राम पर अपनी पचीस साल पुरानी
तस्वीर डाल रहा है
जिसमें वह दूल्हा बना बैठा है
और ऊंघती सी बैठी है उसकी दुल्हन
जो अब पैंतालिस साल की है
बन चुकी है एक गबरू जवान की मां
वह इस तरह तस्वीर डाल रहा है
जैसे पूरा देश उसे देखने को व्याकुल हो
कि जैसे इस तस्वीर के लिए ही
एक रेलवे फाटक अभी खोला नहीं जा रहा
किसी टपरी पर चायवाले ने केतली नीचे रख दी हो
और मोबाइल पर टकटकी लगाए बैठ गया हो
अपना ट्रक सड़क के किनारे लगा दिया हो एक ड्राइवर ने
एक हीरोइन ने अपना शॉट स्थगित कर दिया हो
एक डॉक्टर ओपीडी से बाहर निकल गया हो
संसद की कार्यवाही थोड़ी देर के लिए रोक दी गई हो
वह तस्वीर डालकर ख़ुद भी
उसे इस तरह देखता है
जैसे किसी स्टार को देख रहा हो
तभी एक कर्कश आवाज़ में
उसे मिलता है एक आदेश
वह लकड़ी, सीलन, वार्निश और
बीड़ी के गंध से भरे
एक हॉल में लौटता है
और मोबाइल को पैंट में सरका
काम पर लग जाता है।
मो. 9910257915
sanjaykundan2@gmail.com
सरल शब्दों में अभिव्यक्त आज का पूरा यथार्थ।
संजय कुंदन की अच्छी कविताएं। ये कविताएं हमारे समय को ठीक ढंग से दिखाती हैं।
बढ़िया कविताएं हैं। शानदार। कमाल की दृष्टि है। प्रशंसनीय।
हमारे समय को आईना दिखाती लाजवाब कविताएं
वर्तमान की नब्ज़ पकड़ कर लिखी गई बेहतरीन कविताएं।
सभी एक से बढ़कर एक।
इन रचनाओं के लिए संजय कुंदन जी को बधाई।
बहुत अच्छी कविताएँ
आज के युग की वास्तविक स्थिति को दर्शाती ,सवाल उठाती ,बेहद सहज बेहद प्रभावशाली ।
अपने समय के जटिल यथार्थ को सरल शब्दों में व्यक्त करती सशक्त कविताएं । बधाई , संजय कुंदन जी को !– जगदीश पंकज
पूरे परिदृश्य के साथ स्वयं को भी घेरती हुईं मार्मिक कविताएँ! संजय कुंदन जी को धन्यवाद!