तीन कविताएँ / शालिनी सिंह


ये उस दौर के दुःख में शामिल कवि की कविताएँ हैं जिस दौर में कथावाचक हर कथा की समाप्ति के समय दिन बहुरने की बात कहता है, पर दिन बीतते जाते हैं, बहुरते नहीं। ‘धूप और बादलों की लुकाछिपी की यात्रा’ से कविता को लौटा कर उसे समय के अँधेरों को दर्ज करने का ज़रिया बनाने वाली ऐसी कवि ही ‘अपने हिस्से के कुछ सुख’ भेजकर दूसरों की ‘उदासी कम करने’ का हौसला बाँध सकती है। आइए,पढ़ते हैं शालिनी सिंह की तीन ताज़ातरीन कविताएँ :

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धूप के बंद दरवाज़े

 

धूप के बंद दरवाज़े

यही एक बिम्ब पकड़ा था किसी रोज़ मेरी भाषा ने

और इसी बिम्ब की रोशनी में कविता चली आई मेरे पास

काग़ज़ पर लिखा ही था धूप

कि स्याह सफ़ेद बादलों ने आसमान घेर लिया

इधर धूप को ड्योढ़ी से लौटता देख रही थी

उधर घर घर सदस्यता के पर्चे  बँट रहे थे

ज़माना ले रहा था सदस्यता उसी ख़ेमे की

जिस तरफ़ सत्ताओं के घोड़े दौड़ रहे थे

सरगम में लपेट कर मुनादी करवाई जा रही थी

कि बादल बरसें तो भीगें केवल हमारे खेत

फूल खिलें तो महकें केवल हमारे आँगन

जहाँ अब हर दिन धर्म के हवाले से था

और अधर्म के लिए कोई नीति न थी

जुलूसों के लिए चौकस पहरेदारी थी

हुल्लड़बाज़ों के लिए पूरी तरह मुक्त थीं सड़कें

समय के कान और आँख सुनते हैं

अनसुनी कर दी गई सभी आवाज़ों को

आँखें देखती हैं नेपथ्य का भी हर दृश्य

समय जब चलाएगा स्मृतियों के तरकश से तीर

तो लेगा हर एक से हिसाब

बीते हुए समय का

एक कविता जो धूप और बादलों की लुकाछिपी की यात्रा पर थी

समय में दाख़िल होकर अँधेरों के शब्द बुन रही थी

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यात्राओं के अनुवाद

 

दूर किसी शिला पर बैठ समय के पन्ने पलटती हूँ

करती हूँ असंख्य यात्राओं के अनुवाद

यात्राएँ जो चलीं सुदूर किन्ही सीमाओं से

यहीं की धूप छाँव में जिन्होंने डाल लिए डेरे

देह गंध सब कर दिया इसी मिट्टी के सुपुर्द

अब सदियों बाद भी वही यात्राएँ चुभ जाती हैं तुम्हारे पाँव में काँटों की तरह

मानो तुमने अपने मन में एक साथ बहुत से पत्थर जमा कर लिए हों

कि उनकी केवड़े की महक में डूबी शीरे-सी ज़बान भी बेअसर हो जाए

उनके हृदय की नदी में तुम्हारे डाले दुख के सिक्के गहरे और गहरे बैठते जा रहे हैं

हो कोई कुशल गोताखोर तो निकाले

मैं तो बस अपने पास वाली नदी के पहरे पर बैठी रहती हूँ

कि कोई सिक्का गिरे तो भीतर जाने से पहले ही रोक लूँ अपनी हथेलियों में

और भेज दूँ अपने हिस्से से कुछ सुख

जो उनकी उदासी को कम कर सकें

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कथावाचक

 

उनके  पास पानी और हवा

के पक्ष में अनगिन दलीलें थीं

वे अपनी क्षमता भर जतन कर रहे थे

कि उनकी आवाज़ में समूचा देश शामिल हो जाए

 

देश का हर व्यक्ति अब सिनेमा था

या सिनेमा जैसा ही अब देश था

नृत्य की तो बात ही न पूछें

हर सार्वजनिक स्थान पर

कोई न कोई नाच रहा था

 

सरोकारों में देश शामिल नहीं था

जीवन में जीने जैसा कुछ कम कम बचा था

बस मुक्ति मिलती थी तो  हर पल को कैमरे में क़ैद करने के बाद

 

जनता के सवाल निहुर निहुर कर

समय के सबसे चर्चित देवता की पाँव पूजी कर रहे थे

 

डंके पर डंका बजता था

ध्वनियाँ ही ध्वनियाँ गूँजती थीं

शामियाना सजता था

बाज़ार सजते थे

पर मन को किसी ठौर राहत न मिलती थी

 

कथावाचक हर कथा की समाप्ति के समय दिन बहुरने की बात कहता था

पर दिन बीतते तो थे लेकिन बहुरते नहीं थे

 

satyshalini@gmail.com


6 thoughts on “तीन कविताएँ / शालिनी सिंह”

  1. क्या ही खूबसूरत कविताएं हैं। समय के सामने डटी हुई। चुनिंदा शब्दों में समय, राजनीति और प्रकृति का बेहद संतुलित संयोजन।

    बहुत बधाई शालिनी।

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    • बहुत अच्छी कवितायें हैं। धूप के बंद दरवाजे आज के अंधेरे समय का बहुत अच्छा चित्रण है। यात्राओं के अनुवाद में कवयित्री ऐसी नदी के किनारे बैठी है, जहां दु:खरूपी सिक्के उसमें डाले जा रहे हैं, वहीं वह दु:ख के सिक्के को रोककर सुख का सिक्का डालना चाहती है, दु:ख से भरे संसार में कहीं छोटा सा सुख का जुगनू जैसा ही प्रकाश तो हो। कथावाचक कविता में कवि सत्ता की जयकार में आम आदमी के सरोकार दबा दिये जाते हैं, और अच्छे दिन के पाठ पढ़ाये जाते हैं, जो कभी नहीं आते। शालिनी जी को बहुत-बहुत बधाई एवं ढेरों शुभकामनायें।-सुनील

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  2. शालिनी सिंह की कविताओं में ताजी हवा का झोंका है जो धुप के बंद दरवाजों में भी अपनी रोशनी बिखेर रही हैं ।
    बहुत बहुत बधाई अनूठे बिंब और प्रतीकात्मक कविताओं के लिए …

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