सीमा सिंह की कविताएं ‘इस हिंदू होते समय’ का प्रति-आख्यान हैं। यहां स्त्रियों के मंगलसूत्र की चिंता करते प्रधानमंत्री के मन में स्त्रियों की चिंता के दोयम होने की पहचान है तो मुस्लिम नाम वाले एक आम हिंदुस्तानी गांव के नाम की फ़िक्र भी। शहर के बदन पर मल दिये गये ‘एक ही रंग’ का प्रतिकार करती ये कविताएं आवेश की जगह शांत-सौम्य भाषा में अपनी बात कहती हैं और हमारी जानी-पहचानी स्थितियों के अचिह्नित पहलुओं को बहुत संवेदनशील तरीक़े से सामने ले आती हैं।
नेशनल पी जी कॉलेज, लखनऊ में पढ़ानेवाली सीमा सिंह का एक कविता-संग्रह ‘कितनी कम जगहें हैं’ सेतु प्रकाशन से प्रकाशित है।
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मंगलसूत्र
वह सिन्धु घाटी सभ्यता के उत्खनन से निकला
कोई प्रागैतिहासिक आभूषण नहीं था
जिसको इतिहासविद और पुरातत्व विभाग के
अधिकारी सुरक्षित रखने का भरसक प्रयास करते
बरसों पड़ी जमी धूल को साफ़ कर चमकाते
म्यूज़ियम में रखने जैसा भी इतिहास नहीं था उसका
कि सजा दिया जाता रौशनी से भरे कमरों में
जिससे पुख़्ता हो इतिहास का कोई पन्ना
इतना भर इतिहास भी तो नहीं था उसके पास
राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में भी नहीं कोई ज़िक्र
जिससे स्थापित हो कोई समानता
वह समान काम के लिए समान वेतन जितना भी
ज़रूरी नहीं था , न ही निर्धारित थे उससे काम के घंटे
बल्कि उनको धारण करने वालियों के हिस्से
कभी आया ही नहीं काम का समान वितरण
और काम के घंटों का तो कोई हिसाब ही नहीं
इधर अचानक प्रधानमंत्री को चिंता हो आयी है
स्त्रियों के मंगलसूत्र की
स्त्रियों की चिंता अब भी दूसरे पायदान पर है !
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पताकाएं
पूस की रातों में शीत ज़्यादा है कि कोहरा
कहा नहीं जा सकता
पर हवाओं में कुछ अलग ही गरमी है
कुत्ते लैम्प पोस्ट के नीचे ठिठुरते हैं
एक पीली रौशनी तारी है अंधेरे में
दिन भर एक ही तरह की आवाज़ें पीछा करती हैं
झंडे इमारतों से निकल सड़कों पर आ गये हैं
पताकाएं लहरा रहीं हैं आकाश में
विचारधारा का कोई मतलब नहीं रहा अब
पॉलिटिक्स भी तय करके क्या होगा भला
एक ही रंग मल दिया गया है शहर के बदन पर
जहां जुलूस हैं, नारे हैं, भीड़ है अनियंत्रित
मैं खोजती हूं शांत दोपहरों का अमलतास
सड़कों पर उन्मुक्त रातें
और खाली मैदानों पर दूर तक हरियाली
अपनी आंखों को छुपा कहां ले जाऊं भला
पागलपन इस कदर हावी है कि अपना ही घर
मुझे विरोधी करारा देता है
जबकि सभी नियमों का पालन करने वाली
एक आम नागरिक से ज़्यादा मेरी हैसियत कुछ नहीं
फिर भी मेरी खोज में लगी है एक वैचारिक सत्ता
बहुत जागी हुई रातों की कहानी है मेरे पास
नींद दु:स्वप्नों से भरी हुई
जो आधी रात टूटती है एक ही खटके से
मेरी कहानी में किसी को दिलचस्पी नहीं
कि वहां नहीं है कोई देवता जिसकी प्रतिष्ठा की जानी है
उस कहानी का कथावाचक मारा जा चुका है
अब आप चाहे तो अपनी धार्मिक पताकाएं फहरा सकते हैं वहां !
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इस हिन्दू होते समय में
उनके ध्यान में नहीं आया है अभी
इस छोटे से गांव का नाम
जहां सुबह वैसी ही होती है हस्बे मामूल
जैसी कि पूरे देश में
सूरज पूरब की खिड़की से झांकता हुआ ही
निकलता है रोज़
चिड़िया बतियाना शुरू कर देती है भोर से ही
लोग सानी पानी के लिए निकल पड़ते
अपनी अपनी दिशाओं में
स्त्रियां आज भी सबसे पहले झाड़ू ही उठाती हैं
और लग जाती हैं सफ़ाई में
मानो पूरी दुनिया को साफ़ करने का ठेका
इनके ही कंधों पर रखा हो
वे झाड़ बुहार के फेंक आती सारा कूड़ा
गांव से लगे घूरे पर
जो दिन ब दिन ऊंचा होता जा रहा
जिस पर नहीं जाता ध्यान किसी का
उसकी बढ़ती ऊंचाई पर पूरे देश के कूड़े को
ढोने का अंतिम भार है
छोटे लड़के खाली नेकर पहने
सड़कों पर यूं ही उछलते फिरते हैं
लड़कियां फ्रॉक पहने बिखरे बालों में
किसी पेड़ के नीचे झुंड बना कुछ करती नज़र
आती हैं
गांव दिन के समाप्त होने के इंतज़ार तक में
उलझा रहता है तरह तरह से
दुआ सलाम देश दुनिया पर बहस
चलती रहती है एक छोटे बस स्टैंड पर जहां
सुबह का अख़बार दोपहर तक पहुंचता
और वे नज़रें बचा पढते हैं कि कहीं देख तो नहीं
लिया किसी ने उनके चेहरे पे उनके गांव का नाम
और मैं सोच रही कि इस हिन्दू होते समय में
आख़िर कब तक बचा पायेंगे वे एक मुसलमान नाम !
bisenseemasingh@gmail.com
अच्छी कविताएँ हैं! समकालीन स्त्री कवयित्रियों में सीमा सिंह अपनी वैचारिक स्पष्टता और संयत काव्यभाषा के कारण अलग पहचान बना रही हैं।
सीमा जी ने जो प्रतिरोध रचा है,उस संवेदना की जरूरत हमारे समय को है, अमूमन लोग चुप रहना ठीक समझते हैं ,ऐसी बातों पर जहां बोलना जरूरी होता है ,फिर भी सीमा जी ने अपने समय को पहचाना और उसे रेखांकित किया , आपको साधुवाद
अच्छी कविताएँ हैं।
समकालीन समय में जो रचनाकार अपने समय के यथार्थ को दर्ज कर रहे हैं सीमा उनमें से एक हैं ..सीमा की कविताएँ मानवीय मूल्यों की पक्षधरता की बात करती हैं..उनकी काव्य भाषा और शिल्प बेहतरीन है..सीमा को शुभकामनाएँ..वे ऐसे ही लिखती रहें
बढ़िया कविताएँ हैं.
सभी साथियों का धन्यवाद 🙏🏻
हमारे समय में समकालीनता और यथार्थ को जो कवि दर्ज कर रहे हैं ,उनमें से सीमा सिंह का नाम महत्वपूर्ण है..वे अपनी कविताओं में मानवीय मूल्यों और उसके सौंदर्य बोध को बचाने की बात करती हैं..बेहतरीन कविताओं के लिए सीमा को बधाई और भविष्य में रचते रहने के लिए शुभकानाएँ💐
सुंदर कविताएं जिन में अनेक संवेदनाएं हैं जिन के केंद्र में गम्भीर मानवीयता की संवेदना स्थित है। सरल भाषा कविताओं का आभूषण है।
समय की चिंता प्रकट करती कविताएं।
‘पताकाएँ’ कविता में ‘ठिठुरते लैंप पोस्ट’ का आना अदनान की कविता से लिया हुआ लगता है।
इसी कविता में “मुझे विरोधी करारा देता है” में ‘करारा’ की जगह ‘करार’ होना चाहिए था। हो सकता है यह टाइपिंग मिस्टेक हो।
इसके अलावा कविताएँ अच्छी हैं। हालाँकि तात्कालिक घटनाओं पर लिखी गयी कविताओं को कुछ लोग अच्छा नहीं मानते। लेकिन यह कविता अच्छी बन पड़ी है। साम्प्रदायिक समय के तनाव को रचती कविताएँ।👌