तीन कविताएं / विशाल श्रीवास्तव


एक ऐसे समय में जब ‘विलाप को हत्या से भी संगीन अपराध बता दिया’ गया हो, विशाल श्रीवास्तव की ये कविताएं संगीन अपराध से किसी दर्जा कम नहीं ठहरतीं। ये फ़ैज़ाबाद के उस नृशंस कायांतरण की गवाह हैं जो ‘समूचे इतिहास के बैनामा और तहज़ीब के दाख़िल-ख़ारिज़’ की तरह है। और चूंकि मामला इतिहास और तहज़ीब का है, ये कविताएं एक शहर के बारे में होकर भी एक शहर की नहीं रहतीं; पूरे भारत का वर्तमान इनमें नुमायां है। 

फ़ैज़ाबाद में जन्मे विशाल वहीं रहते हैं और पढ़ने-पढ़ाने से वास्ता रखते हैं। एक संग्रह ‘पीली रोशनी से भरा कागज़’ साहित्य अकादेमी से प्रकाशित है। ‘अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार’, ‘वेणुगोपाल सम्मान’, ‘मीरा मिश्रा स्मृति पुरस्कार’ एवं ‘मलखान सिंह सिसोदिया कविता पुरस्कार’ से सम्मानित हैं।

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1  

एक शहर था फै़ज़ाबाद

 

अक्सर देर से सोकर उठने वाला यह शहर

एक सुबह जागा तो उसे बताया गया

कि आज से तुम्हारा नाम बदल दिया गया है

शहर भौंचक्का था

उसकी समझ में नहीं आया

कि अब कहे तो क्या कहे

 

अब यह कुछ ऐसा ही था कि एक सुबह आप उठें

और आपसे कहा जाये

कि आज से तुम्हारे बांये हाथ को दाहिना हाथ कहा जायेगा

और दाहिने हाथ को बांया हाथ

यक़ीन मानिए आप रोज़मर्रा के कामों में उलझन में पड़ जायेंगे

जैसे किस हाथ से आबदस्त करें और किस हाथ से खाएं

क़लम किस हाथ में पकड़ें

सड़क पर आखि़र चलें तो किस ओर चलें

जिन मोड़ों पर बांये मुड़ते हुए अपनी मंज़िल तक पहुंच जाते थे

क्या अब उनपर दाहिनी ओर मुड़ना होगा

अब कहें तो क्या कहें

कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि

मक़बरे में सोये शुजाउद्दौला ने

जब सुना कि बदल दिया गया

उनके बसाये शहर का नाम

तो अपने नसीब को कोसा

न शाहजहांनाबाद नसीब हुआ न फ़ैज़ाबाद

अब कहें तो क्या कहें

 

उधर बहू बेग़म की रूह ने कराह ली

जिस शहर के लिए छोड़ दिया था बेटा

और इतने सितम सहे फिरंगियों के

उसे हाय यह क्या हुआ जाता है

चौक के त्रिपोलिया से सांय-सांय गुज़रती हवा ने

घंटाघर से सरगोशी की

कुछ सुना तुमने

सुनकर उसने आख़िरी हिचकी ली यह कहते हुए

कि नये शहर का वक़्त बताने की क़ूवत नहीं मुझमें

 

दिलकुशा के खंडहरों में

भटकती रूहों ने पुकारा मीर अनीस को

कि लिखो इस शहर का मर्सिया

तो हम तनिक मातम कर लें

और अब कहें भी तो क्या कहें

 

अख़बारों की सुर्खि़यों ने निज़ाम के हवाले से कहा

शहर को नया हवाई अड्डा चाहिए

ताकि डैने पसारे जहाज़ों से नीतिनिर्माता पधार सकें

शहर को नया राजपथ चाहिए

उपरिगामी सेतु चाहिए

ताकि चमकते हुए काफ़िले सीधे गर्भस्थल तक जा सकें

शहर को थोड़ी नहीं, बहुत भव्यता चाहिए

जिससे दुनिया में इसका नाम हो सके

निर्माण के इस महायज्ञ में आहुतियां दी जाएं

 

अब यह विलाप का शहर था

लुटे-पिटे खोमचेवालों, गुमटी वालों, पुराने रहवासियों ने कहा

अपनी जा चुकी ज़मीन की मेड़ पर सिर पकड़े किसान ने कहा

जिसका दो कमरे का घर चला गया उस अकेली औरत ने कहा

शहर बहुत स्वार्थी है इसे हमारी क़ीमत पर क्या-क्या चाहिए

सिर झुकाये उदास और आहत शहर ने कहा

मुझे कुछ नहीं चाहिए

बस कोई मेरा नाम लौटा देता तो अच्छा था

कहते हैं उस दिन इतने आंसू बहे शहर में

कि बाजू में बहती नदी का पानी खारा हो गया

 

कहने को आप कह सकते हैं कि

यह एक शहर का शोकगीत है

लेकिन सच तो यह है कि जो हुआ

वह समूचे इतिहास का बैनामा है

और तहज़ीब का दाखि़ल-ख़ारिज़

लेकिन अब कहें भी तो क्या कहें

अब करें भी तो क्या करें

 

मलबा 

 

घबराइए नहीं

यह सीरिया नहीं हैं

न है अफ़ग़ानिस्तान

आप धर्म की पवित्र नगरी में हैं

ये है हिन्दोस्तान

यहां कोई बमबारी नहीं हुई है

ये मकान जो खंडहर सरीखे दिख रहे हैं

धर्मपथ पर स्वयं ही नतशिर हुए हैं

चटख रंग की जो ध्वजाएं फहरती थीं इनपर

उनके सहित समूचा बारजा ही गिर पड़ा है

एक रंग का बोझ कितना भारी पड़ा है

 

अब हर तरफ़ बस एक शय – मलबा

जो कल तलक था घर वह आज मलबा

घर्र-घर्र की भीषण आवाज़ों के बीच

गुज़रता है जब एक भीमकाय पीला दैत्य

मकानों को खरोंचता हुआ

दिसंबर की इस सर्द रात में

तो लगता है कि बयानबे का कोई दिसंबर

दो हज़ार बाईस के दिसंबर का पीछा कर रहा है

 

 

ऐसी ही एक सर्द रात में

लोग एक धर्मस्थल का मलबा

जीत की निशानी की तरह लेकर जा रहे थे

इन्हीं बारजों से फेंके जा रहे थे पत्थर

धर्मस्थल को बचाने जा रहे सैनिकों पर

पत्थर तीस साल बाद वापस लौटे हैं

दिसंबर दिसंबरों का पीछा करते हैं

मलबा मलबे का पीछा कर रहा है

जैसे वह इतिहास से भविष्य की तरफ़

दागा गया कोई गोला हो

जो आमादा है पूरी ताक़त से

इस शहर को नेस्तनाबूद करने पर

 

अपने अपने मलबे पर खड़े उसके उदास मालिक

दबी ज़बान में सिर्फ़ इतना कहते हैं

ज़बरा मारै औ रोवै भी न दे

फ़रमान है कि

प्रजाजन अपने पैर सिकोड़ लें

ताकि भक्ति का पथ प्रशस्त हो सके

जनता अपना पेट सिकोड़ ले

ताकि धर्माधिकारी जन आराम से खा पी सकें

 

ध्यान से देखो

तुम्हारे घरों पर दरकते हुए गुंबदों के

तीस साल पुराने शोक की शापित छाया है

यह तुम्हारे घर का नहीं

तुम्हारी आत्मा का मलबा है

नहीं पिघलेगा यह केवल

तुम्हारे आंसुओं के अम्ल से

कोई दैविक कुहासा नहीं है यह ग़र्दो ग़ुबार

कि इसे चीरकर प्रकट होगा कोई तारणहार

तुम्हारी सारी प्रार्थनाएं हो जाएंगी बेकार

क्योंकि

दिसंबर दिसंबरों का पीछा करते हैं

अन्याय अन्याय का पीछा करता है

एक धर्मस्थल के गिरने का अवसादी शोर

समय के दरवाज़े से टकराता हुआ

तीस साल बाद प्रतिध्वनि बनकर

एक ज़ोरदार धमाके की तरह लौटा है

 

बयानबे में एक विक्षिप्त शराबी नुक्कड़ पर

एक धार्मिक नारे के जवाब में

सबसे कहता फिर रहा था कि हो गया काम

वह आज भी वही कहता फिर रहा है

लेकिन इस बार यह कहते हुए वह मुस्कुराता है

यह कितना बड़ा अजूबा है कि इस समय में

लोकतंत्र का ठीक ठीक भाष्य करना

एक विक्षिप्त शराबी को ही आता है

 

मेरा घर कितना तोड़ा जायेगा

यह लिखा था लाल पेंट से

घर की बाहरी दीवार पर

मेरी बेटी ने उस इबारत को अपनी पेंसिल से काट कर

वहां ‘सेव ट्रीज़’ लिख दिया है

एक दिन बुल्डोज़र आयेगा

और उसके इस मासूम भरोसे को मलबे में बदल देगा

घर के दरवाज़े का पुराना पेड़ गिरेगा और

एक बच्ची की स्मृति में सरकार का मतलब

एक पीला विनाशकारी दैत्य दर्ज होगा

चीज़ें यूं ही मलबे में बदलती रहेंगी

चाहे वह इतिहास हो, संस्कृति हो या

एक बच्चे का भरोसा

 

फ़िल्वक़्त बस इतना ख़याल रखिएगा

अगर मैं अपने घर के मलबे पर खड़ा हुआ

विलाप की सीली भाषा में

आपको पुकारूं कभी तो

घबराइएगा नहीं

क्योंकि

यह सीरिया नहीं हैं

न है अफ़ग़ानिस्तान

आप धर्म की पवित्र नगरी में हैं

ये है हिंदोस्तान

 

सबकुछ कितना ठीक-ठाक है

 

मुझसे कहा किसी ने कि देखो

रौशनी से भरा हुआ है आसमान

परिंदे भी उड़ रहे हैं हस्बे मामूल

हवा भी वैसी ही चल रही है जैसी कि चाहिए

शहर का तापमान भी बहुत ज़्यादा नहीं है

हर चौराहे पर पुलिस मुस्तैद है

नाहक चिंता में पड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है

सबकुछ कितना ठीकठाक है

 

कहा मुझसे किसी ने कि

देखो चीज़ें एक बार शुरू हो जाएं तो

पीछे की ओर कभी नहीं लौटतीं

जैसे नदियां कहां लौटती हैं पहाड़ों की ओर

फल कब जुड़ता है अपने वृंत से

और समय, उसका तो कहना ही क्या

वह तो कमान से एक छूटा हुआ तीर है

इस बात को उसने मुझे इस भरोसे से समझाया

जैसे इतिहास कोई नदी हो

विचारधारा कोई फल

और समय लोगों को घायल करने का कोई हथियार

सबकुछ कितना ठीकठाक है

 

मुझसे कहा गया कि

इस तरह मुंह लटकाये रहने से कुछ नहीं होगा

आपको तनिक आशावादी होने की ज़रूरत है

इसके लिए चमचमाती सड़कों

या गगनचुंबी इमारतों को देख सकते हैं

कितनी तो भव्य परियोजनाएं हैं

बताते हैं कि भव्य धर्मस्थलों का दर्शन भी

निराशा का काफ़ी कारगर इलाज है

इस तरह मुझे समझाया गया कि मेरी निराशा

राज्य के विकास में कितनी बाधक हो सकती है

और वह भी एक ऐसे वक़्त में जब

सबकुछ कितना ठीकठाक तो है

 

दो एक बार समझाने के बाद

भेड़ियों ने अपने पैने दांत दिखाये

पहले-पहल जो सिर्फ़ समझा रहे थे

अब धौंस दे रहे हैं कि मैं चुपचाप मान लूं

कि चारों ओर सबकुछ ठीक ठाक है

और ऐसा न मानना देश के विरोध में एक वक्तव्य है

ऐसे में आत्मसम्मान के ज़ब्त होने का ख़तरा है

आख़िर इतनी भी क्या समस्या है

एक छोटी सी बात को मान लेने में

कि सबकुछ ठीकठाक है

 

एक अजीब सी बेचैनी का एकालाप है यह

पर्वतो! आओ मेरे वक्ष को पाषाण कर दो

ओ नदियो! आओ ले जाओ मेरी करुणा का जल

वृक्षो! आओ छीन लो मेरी आत्मा का हरापन

हे सूरज! सुखा दो मेरे गरम रक्त को

ज्योत्सना से अरज है कि विराम दे

हृदय की इस स्निग्धता को

ये सारी चीज़ें बहुत मुश्किल पैदा करती हैं

यह यक़ीन करने में कि

सचमुच सबकुछ कितना ठीकठाक है

 

कैसी अंधेरी रात का भयावह स्वप्न है यह

कि विलाप को

हत्या से भी संगीन अपराध बता दिया जाये

आप सच बोलें तो

झूठ की भावनाएं आहत करने के आरोपी हों

और इस रात के अंधकार में

चैराहे पर लुटा-पिटा, फटा-चिटा एक आदमी मिले

जो कहे कि मेरा नाम इतिहास है

कि मेरे साथ कोई बदमाशी नहीं हुई है

मैं केवल वक़्त की ढलान पर फिसलकर गिर गया हूं

आप अपने रास्ते जाएं और ज़रा देखकर चलें

वैसे तो सबकुछ ठीकठाक है

बस ज़रा सी फिसलन है सड़क पर

चूक गये तो सीधे दाहिनी ओर के नाले में गिरेंगे

 

इतिहास के इस हश्र को देखकर मैंने सोचा

कि क्या मुझे सचमुच यह मान ही लेना चाहिए

कि रौशनी से भरा हुआ है आसमान

परिंदे भी उड़ रहे हैं हस्बे मामूल

हवा भी वैसी ही चल रही है जैसी कि चाहिए

शहर का तापमान भी बहुत ज़्यादा नहीं है

हर चौराहे पर पुलिस मुस्तैद है

नाहक चिंता में पड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है

सब कुछ कितना अद्भुत है

सब कुछ कितना समरस है

सब कुछ कितना आध्यात्मिक है

सब कुछ कितना ठीकठाक है

सब कुछ कितना ठीकठाक है

vis0078@gmail.com


10 thoughts on “तीन कविताएं / विशाल श्रीवास्तव”

  1. तीनों कविताएं जैसे चलचित्र की भाँति घूम रही हो,कुछ भी काल्पनिक नहीं, आयातित नहीं,,बस सच है ,सिर्फ सच। कविवर को बधाई और लाल सलाम, इस दौर में इतनी साहस के लिए।

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  2. विशाल जी की अच्छी कविताएं पढ़ी। यह कविताएं समसामयिक यथार्थ का चित्र खींचती है। उन्हें सतत् सृजन हेतु शुभकामनाएं।

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  3. एक बदलते शहर को लेकर लिखी गईं शानदार कविताएँ।

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  4. निश्चित ही एक समय ऐसा होगा जब हम नामों को खोजेंगे , जो हमें याद है, यह ज्यादा संभव है कि नए लोग नए नाम के साथ आकर्षित हो, लेकिन इतिहास को मिटाने की यह प्रक्रिया हमें पीछे की ओर ही धकेलेगी, अपने समय के संकट को अपनी कविताओं में अच्छी तरह नए तरीके से लोगों को पहचानने का मौका दिया है, विशाल जी बधाई, सबसे बड़ी बात यह कि संजीव जी ऐसा सोचने वालों को लगातार मौका दे रहे हैं

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  5. आज के परिवेश की मार्मिक कविता जो आज की निरंकुश सत्ता से आंख मिलाकर वार्ता कर रही है
    बधाई कवि महोदय को

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  6. बेहतरीन कविताएं। इस विपरीत परिस्थिति में ऐसी कविताएं लिखने की हिम्मत के लिए आपको बहुत-बहुत साधुवाद।

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  7. ऐसे विपरीत समय में ऐसी बेहतरीन कविताओं के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद।

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