क्या सामान्य नागरिक भी अकल्पनीय क्रूरता के वाहक बन सकते हैं? / महेश मिश्र


यह आलेख बताता है कि 1996 में प्रकाशित एक किताब किस तरह होलोकॉस्ट के संदर्भ में आम जर्मन की भूमिका को लेकर हमारी धारणा की बुनियाद हिला देती है। ‘पूरा जर्मनी जानता था क्या चल रहा है और गिनती के लोगों को छोड़कर सबको यह “न्यायपूर्ण” और “सही” लगता था!’ किताब की स्थापनाएँ बहसतलब हो सकती हैं, उपेक्षणीय कतई नहीं। 

किताब का परिचय दे रहे हैं, महेश मिश्र जिन्हें सोशल मीडिया के दायरों में एक सजग और अथक पाठक के रूप में पहचाना जाता है। उनका अध्ययन व्यापक है और किताबों पर सुचिन्तित टिप्पणी करने की क्षमता असंदिग्ध। 

  

डैनियल जोनाह गोल्डहैगन की पुस्तक हिटलर्स विलिंग एक्ज़ीक्यूशनर्स : आर्डिनरी जर्मन्स ऐंड द होलोकॉस्ट एक बेचैन कर देने वाला दस्तावेज़ है। गोल्डहैगन इसे इतिहास की पुस्तक बताते हैं—नैतिक, दार्शनिक उद्देश्यों के लिए लिखी गयी नहीं। पुस्तक में इस्तेमाल की गयी प्रविधि भी ऐतिहासिक है। तथ्यों की छानबीन करने और उनको पर्सपेक्टिव में रखने वाली शैली में लिखी गयी लगभग साढ़े छ: सौ पृष्ठों में फैली यह पुस्तक नात्सीवादी जर्मनी के जर्मन लोगों द्वारा किये गये यहूदी जनसंहार का विधिवत अध्ययन है। लेखक ने वास्तविक हत्या करने वालों को, जो लाखों की संख्या में थे, अध्ययन का केंद्र बनाया है। जनसंहार में लगी तीन प्रमुख संस्थाओं—पुलिस, वर्क कैम्प्स, डेथ मार्चेज़—के सिलसिलेवार वर्णन को अपनी पुस्तक का आधार बनाकर सैकड़ों विवरण जुटाये हैं और उनका वस्तुनिष्ठ ढंग से आकलन किया है।

होलोकॉस्ट को समझने के लिए एसएस (SS), गेस्टापो, बड़े नेताओं, फ़्यूहरर, हिमलर, गोएबल्स इन सबके अध्ययन तो पहले से ही प्रचुरता में मौज़ूद रहे हैं। ‘सामान्य जर्मन’ की भूमिका का बेहद सारगर्भित अध्ययन करने वाली यह किताब गहरे सबक देने वाली है। नात्सीपूर्व जर्मनी में यहूदियों के ख़िलाफ़ जो भावनाएं, विश्वास, पूर्वग्रह थे, वे सब जनसंहार के लिए ‘उपजाऊ’ ज़मीन मुहैया करा रहे थे। हिटलर, नात्सी पार्टी ने उसको और उग्र बनाया और नरसंहार की दिशा में ले गये—ऐसा व्यापक जनसंहार जो इतिहास में अतुलनीय साबित हुआ है, कम से कम अभी तक तो। इस जनसंहार में साठ लाख निर्दोष यहूदी जनता का क़त्ल किया गया। इतने ठंडेपन से कि शिण्डलर्स लिस्ट, द पियानिस्ट, सोर्बिबोर जैसी फिल्में अपनी सारी गंभीरता और बेबाक चित्रण के बावजूद पकड़ नहीं पायी हैं।

हम समझते हैं, ‘ऑडियो-विज़ुअल’ माध्यम में भी फ़िल्माने की सीमाएँ हैं! क्रूरता के लिए ऐसी सीमाएँ निर्धारित नहीं हैं। आप संशय में होंगे, सोच रहे होंगे—ऐसा नहीं है। चलिए एक पैराग्राफ देखते हैं इसी पुस्तक से:-

“Meanwhile, Rottenfuhrer Abraham shot the children with a pistol. There were about five of them. These were children whom I would think were aged between two and six years. The way Abraham killed the children was brutal. He got hold of some of the children by the hair, lifted them up from the ground, shot them through the back of their heads and threw them into the grave. After a while I just couldn’t watch this any more and I told him to shop. What I meant was he should not lift the children up by the hair, he should kill them in a more decent way.”

इस बीच, रोटेनफुहरर अब्राहम ने पिस्तौल से बच्चों को गोली मार दी। वे लगभग पाँच थे। ये वे बच्चे थे जिनकी उम्र मुझे लगता है कि दो से छह साल के बीच थी। अब्राहम ने जिस तरह से बच्चों को मारा, वह क्रूर था। उसने कुछ बच्चों को बालों से पकड़ा, उन्हें ज़मीन से उठाया, उनके सिर के पीछे से गोली मारी और उन्हें कब्र में फेंक दिया। कुछ देर बाद मैं यह सब और नहीं देख सका और मैंने उसे खरीदारी करने के लिए कहा। मेरा मतलब था कि उसे बच्चों को बालों से नहीं उठाना चाहिए, उसे उन्हें ज़्यादा सभ्य तरीक़े से मारना चाहिए।

पाठक समझ ही रहे होंगे कि यह क़िताब क्या कहना चाह रही है। इसका एक पात्र कह रहा है कि मारना तो ठीक है, कभी-कभी दृश्य (उनमें से किसी-किसी को ही, सबको नहीं) विचलित कर देता है। यह दया, करुणा वाली बात नहीं है। बस, माँस या ग्रे मैटर इधर-उधर छितरा जाता है जो (किसी-किसी को) अच्छा नहीं लगता है! उनके सौन्दर्य-बोध में वह उपयुक्त नहीं बैठता है।

बाक़ी सामूहिक हत्याओं को सेलिब्रेट किया जाता था। मारने के फ़ोटो लिए जाते थे, अपनी व्यक्तिगत परिधि में उसे गर्व से पेश किया जाता था। पूरा जर्मनी जानता था क्या चल रहा है और गिनती के लोगों को छोड़कर सबको यह ‘न्यायपूर्ण’ और ‘सही’ लगता था!

किसी भी सामान्य व्यक्ति की सहज-स्वाभाविक जिज्ञासा हो सकती है कि जब यह कत्लेआम चल रहा था तो यीशु के बंदे क्या कर रहे थे? उदात्त प्रवचनों से भरी बाइबिल का क्या कोई असर नहीं पड़ रहा था? लेखक-साहित्यकार, कलाकार, न्यायालय और बाक़ी संस्थाएँ क्या कर रही थीं?

चर्च के पदाधिकारी तो हिटलर का स्वागत कर रहे थे। उन्हें लग रहा था कि नये युग की पहचान बन रही यह आधुनिक प्रश्नाकुलता जो है न, उससे तो पूरी धर्मसत्ता ही ख़तरे में आ जायेगी, इसलिए सत्ता ऐसी होनी चाहिए जो सवाल न पसंद करती हो! जो सारे अधिकारों को एक जगह इकट्ठा रखे—संक्षेप में, सर्वाधिकारवादी हो!

और बाक़ी संस्थाएँ विलिंग एक्ज़ीक्यूशनर्स थीं, अर्थात् अपनी पूरी इच्छा और विवेक से इस नरसंहार में भाग ले रही थीं। इन हत्याओं का ज़ोर-शोर से अनुमोदन हो रहा था ।

जर्मनी का नात्सीवादी काल सभ्यता के सारे मानकों को ही उलट-पलट दे रहा था। मानवतावाद को मूर्खता मान रहा था, कायरता मान रहा था। दया फ़िज़ूल की बकवास थी उनके लिए। उनके पास प्रजातीय शुद्धता (रेशीयल प्युरिटी) का मिशन था और मारने, मिटा देने के अलावा कोई टिकाऊ अंतिम समाधान (फ़ाइनल सॉल्यूशन) तो होता नहीं है!

इस मिशन में लगे जर्मन, यहूदियों को कीड़े-मकोड़ों से ज़्यादा नहीं मान रहे थे। उन्हें मनुष्य मान ही नहीं रहे थे, इसीलिए न सिर्फ उन्हें मार रहे थे बल्कि उस मारने को अपनी डयूटी मानते थे। जान से मारने, सामाजिक रूप से पंगु बनाने में, पूरी यहूदी जनसंख्या को सिनोगोग में भरकर जला देने को वे खुशी से देखते थे। बाहर निकलने की कोशिश में लगे यहूदियों को धक्का मारकर अंदर कर देते थे, आग के हवाले कर देते थे। आम नागरिक उससे सार्वजनिक उल्लास (कार्निवल) जैसा आनंद लेते थे।

गोल्डहैगन ने होलोकॉस्ट की मार्क्सवादी व्याख्या को अपर्याप्त और ग़लत माना है। मोटे तौर पर होलोकॉस्ट का मार्क्सवादी विश्लेषण इसे केवल नस्लीय घृणा के रूप में न देखकर पूंजीवादी संकट और वर्ग संघर्ष के संदर्भ में देखता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, नात्सी शासन, बड़े पूँजीपतियों के समर्थन से, यहूदी समुदायों को बलि का बकरा बनाकर वर्ग संघर्ष को भटकाने और श्रमिक आंदोलनों को कुचलने के लिए उभरा था। और ये बाध्य करने वाले श्रम शिविर सिर्फ़ विनाश (फ़ाइनल सॉल्यूशन) के अड्डे नहीं थे, बल्कि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के हिस्से भी थे। यहूदी व्यापारियों और वित्तीय संस्थानों को निशाना बनाना पूँजीवादी संकट का एक रणनीतिक पहलू था। मार्क्सवादी दृष्टि के हिसाब से होलोकॉस्ट कोई ऐतिहासिक अपवाद नहीं, बल्कि यह दिखाता है कि संकटग्रस्त पूँजीवाद कैसे फ़ासीवादी आतंक का सहारा ले सकता है।

गोल्डहैगन मार्क्सवाद की इस मूल स्थापना को, कि भौतिक अस्तित्व आपके विचार और भावनाएँ बनाता है, सही नहीं मानते हैं। उनके अनुसार नात्सी जर्मनी में यह उलटा था। यहाँ विचार और भावनाओं ने उनके अस्तित्व और कर्मों को निर्धारित करना शुरू कर दिया था। हालाँकि अपनी पुस्तक के जर्मन संस्करण की भूमिका में गोल्डहैगन यह स्वीकार करते हैं कि मंदी न होती तो नात्सी सत्ता में न आते और नात्सी सत्ता में न आते तो इस पैमाने का जनसंहार नहीं होता। लेकिन वे पुन: यही कहते हैं कि जर्मनी में एन्टीसेमेटिक भावनाएँ इतनी गहरीं न होतीं तो इन हत्याकांडों का विरोध होता, इसके लिए खुशी-खुशी लोग हाज़िर न होते।

पुस्तक अलग-अलग घटनाओं के विवरण जुटाती है और यह साबित करती है कि जिस अमानवीय स्तर की बर्बर कार्रवाईयाँ जर्मनी में चल रही थीं, वे इतिहास में अपना कोई समानान्तर नहीं रखती हैं। ऐसे ही एक विवरण के हवाले से लेखक बताते हैं कि एक बार तो पुलिस का कल्याणकारी संभाग (वेलफेयर विंग) एक शाम की डिनर पार्टी में ज़िद करता है कि अगले दिन होने वाले ‘किलिंग ऑपरेशन’ में उसे भी मौका दिया जाए। यह ‘फ़न’ वे भी चाहते थे।

पुस्तक में लेखक ने यह भी बताया है कि यह तथ्य है कि यदि कोई इन हत्याकांडों में गोली चलाने से इंकार करना चाहता था तो कर सकता था लेकिन हत्यारों (executioners) की संख्या हमेशा ज़रूरत से ज़्यादा रहती थी। उनकी कमी कभी नहीं पड़ती थी।

डैनियल गोल्डहैगन की यह पुस्तक होलोकॉस्ट अध्ययन में सच में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है। पुस्तक इस प्रचलित-स्थापित मान्यता को चुनौती देती है कि जर्मन नागरिक केवल नात्सी शासन के आदेशों का पालन कर रहे थे या डर के कारण इस नरसंहार में शामिल हुए थे। इसके विपरीत, गोल्डहैगन तर्क देते हैं कि जर्मन समाज में गहरे तक जड़ जमाये हुए पूर्ण यहूदी-विरोधी भावना इतनी गहराई तक सामान्य जर्मन नागरिकों को अपने दैत्याकार आगोश में ले चुकी थीं कि उस भावना ने स्वेच्छा से उन नागरिकों को नरसंहार में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।

गोल्डहैगन के ये तर्क न केवल साहसिक हैं, बल्कि इसके नैतिक और ऐतिहासिक निहितार्थ भी हमें असहज कर देने वाले हैं। उदाहरण के लिए, जब एक जर्मन क़स्बे में पुलिस-कर्मियों को यह छूट दी गयी थी कि वे चाहें तो यहूदियों की हत्या करने से इनकार कर सकते हैं, उन्होंने न केवल खुशी-खुशी लोगों को मारा, बल्कि उन्हें अपमानित भी किया, उनके साथ क्रूरता की, और इस कृत्य में आनंद लिया। एक अन्य भयावह दृश्य में, सैनिकों ने यहूदी पुरुषों को मारने के बाद महिलाओं और बच्चों को नाचने के लिए मजबूर किया, फिर उन्हें गोली मार दी—यह सब बिना किसी ज़बरदस्ती के, केवल अपनी मर्ज़ी से। ये घटनाएँ गोल्डहैगन की इस केंद्रीय स्थापना को ही मज़बूत करती हुई दिखती हैं कि इस क्रूर जर्मन शासन का समर्थन केवल आदेशों के कारण ही नहीं था, बल्कि आम जर्मनों की स्वयं की भाव-धारा भी इसकी प्रमुख वजह बनी हुई थी।

इस पुस्तक को व्यापक आलोचना का भी सामना करना पड़ा। यह कहा गया कि गोल्डहैगन के तर्क एकपक्षीय और संकीर्ण हैं और वे जर्मन व्यवहार को आकार देने वाले आर्थिक, सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक कारकों को नजरअंदाज़ करने वाले तर्क हैं। उदाहरण के लिए, क्रिस्टोफर ब्राउनिंग की ऑर्डिनरी मेन इस बात पर ज़ोर देती है कि कैसे सामाजिक दबाव, आज्ञाकारिता और धीरे-धीरे हिंसा के प्रति संवेदनहीन होते जाने से भी सामान्य लोग हत्यारे बनते गये। जबकि गोल्डहैगन का तर्क लगभग पूरी तरह यहूदी-विरोधी भावना पर केंद्रित है। इस वजह से पुस्तक मानवीय व्यवहार की जटिलताओं के लिए यथोचित स्थान नहीं छोड़ पाती है।

इसके बावजूद, हिटलर्स विलिंग एग्ज़ीक्यूशनर्स निस्संदेह एक महत्वपूर्ण और असहज करने वाली पुस्तक है। यह पाठकों को सामूहिक उत्तरदायित्व, ऐतिहासिक स्मृति और इस भयावह सच्चाई से अलग तरीक़े से रूबरू कराती है कि किस तरह सामान्य नागरिक भी अकल्पनीय क्रूरता के वाहक बन सकते हैं। गोल्डहैगन के सभी निष्कर्षों से सहमत न होते हुए भी, यह मानने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए कि हृदय विदीर्ण कर देने वाली यह पुस्तक इतिहास के ज़रूरी सबकों से भरी हुई है जिन्हें भुलाया जाना मानव-सभ्यता को ख़तरे में डालने के बराबर है।


2 thoughts on “क्या सामान्य नागरिक भी अकल्पनीय क्रूरता के वाहक बन सकते हैं? / महेश मिश्र”

  1. उफ़! मौत में भी आनंद ढूंढने वालों का यह विवरण जुगुप्सा जगाता है। महेश जी ने बेहद शानदार समीक्षा लिखी है। उन्हें बधाई।

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  2. महेश मिश्र की यह सुचिंतित समीक्षा बड़ी मौजूँ और बारंबार पठनीय है।
    नात्सीवाद किन परिस्थितियों में फलता-फूलता है, इसका बेहतरीन विवेचन प्रस्तुत अध्ययन में है।
    हम अपने देश की मनःस्थिति तथा आसन्न संकट की थाह समीक्षा पढ़ते हुए पाते हैं।
    समीक्षक को हार्दिक धन्यवाद।

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