‘कोसल में विचारों की कमी है’ / जवरीमल्ल पारख


एक जागरूक और विचारवान राष्ट्र ही लोकतंत्र की रक्षा कर सकता है। क्या भारत के पास अपने लोकतंत्र को बचाने की योग्यता शेष है? जवरीमल्ल पारख का यह आलेख व्यापक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इस प्रश्न को उठाता है और एक दिशा तलाशने की कोशिश करता है। 18 वीं लोकसभा के लिए जारी आम चुनावों  के तीसरे चरण की पूर्वसंध्या पर पढ़िए, तीन भागों में विभाजित इस विस्तृत आलेख का पहला भाग :

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हिंदी कवि श्रीकांत वर्मा के कविता संग्रह, मगध में एक कविता संकलित है, ‘कोसल में विचारों की कमी है’। इस कविता की अंतिम दो पंक्तियां हैं :  कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता,/कोसल में विचारों की कमी है!’ यह कविता मुझे हमारे देश के मौजूदा हालात को समझने में काफ़ी मददगार लगती है। यदि कोसल को हम भारत का लोकतंत्र समझें तो उस पर यह कविता पूरी तरह से लागू होती है। एक युद्ध चल रहा है, जनता और शासक के बीच, ग़ैरबराबरी का। एक तरफ़ अक्षौहिणी सेनाएं हैं, हज़ारों हाथी और घोड़े हैं और दूसरी तरफ़ जनता है, अस्त्र-शस्त्रहीन और बंटी और बिखरी हुई। युद्ध एकतरफ़ा है और किसे जीतना है, पहले से तय है। लेकिन कविता कहती है कि जीत के बावजूद ‘कोसल’ टिक नहीं सकता क्योंकि हमारे लोकतंत्र में विचारों की सचमुच कमी है। दरअसल, विचारों का क्षरण हो रहा है और इसी वैचारिक क्षरण का नतीजा है कि हम आज उस मुक़ाम पर पहुंच गये हैं जहां ‘कोसल’ यानी भारतीय लोकतंत्र के अधिक दिन तक टिकने की संभावना भी क्षीण होती जा रही है। एक जागरूक और विचारवान राष्ट्र ही लोकतंत्र की रक्षा कर सकता है। क्या हम हमेशा से ही ऐसे थे या हमारे लोकतंत्र में ही ऐसी खोट रही है, जिसने हमें इस वैचारिक पतन तक पहुंचा दिया है? हमारे लोकतंत्र का सबसे जीवंत ग्रंथ और हमारा पथ प्रदर्शक संविधान है और उसी पर सबसे अधिक कुठाराघात हो रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है, इसे ही समझने का प्रयास इस आलेख में किया गया है।

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हमारा अतीत और आज़ादी के संघर्ष का वैचारिक पक्ष

 

जब देश में आज़ादी की लड़ाई चल रही थी, तब साथ ही साथ विचारों की लड़ाई भी चल रही थी। अंग्रेज़ों द्वारा भारत को उपनिवेश बनाने से पहले तक जिसे हम भारत या भारतीय उपमहाद्वीप के रूप में जानते हैं, वह उस अर्थ में एक ‘राष्ट्र’ नहीं था, जिस अर्थ में हम पिछले लगभग दो शताब्दियों से समझ रहे हैं। आज़ादी और ग़ुलामी की संकल्पना भी वह नहीं थी जो अंग्रेज़ों के शासन के दौरान विकसित हुई। भारत में कई सहस्राब्दियों से विभिन्न जाति (क़ौम के अर्थ में न कि कास्ट के अर्थ में) और नस्ल के लोग आते रहे हैं और यहां पर बसते रहे हैं। उनमें से कई जातियों और नस्लों की अपनी स्वतंत्र पहचान भी ख़त्म हो चुकी है। जो पहले से बसे हुए थे, उनका नये आने वालों के साथ संघर्ष भी हुआ, लेकिन यह संघर्ष जनता के बीच नहीं बल्कि आमतौर पर शासकों के बीच हुआ। जनता का जीवन आमतौर पर इन संघर्षों से अछूता रहा। जिसे हम भारत के रूप में जानते हैं, वहां बाहर से आने वाली जातियां अपने साथ अपने रीति-रिवाज, अपनी संस्कृति, अपना धर्म, अपनी मान्यताएं, अपनी भाषा, अपनी वेशभूषा और अपना खानपान भी लेकर आयीं। इन सबका असर जो पहले से रह रहे थे, उन पर पड़ना स्वाभाविक था। लेकिन यह भी सही है कि नये आने वालों ने बहुत कुछ उनसे भी ग्रहण किया जो पहले से रह रहे थे। धीरे-धीरे नये और पुराने एक-दूसरे से इस तरह घुलमिल गये कि आज यह बताना मुश्किल है कि जिसे हम अपनी पहचान के रूप में जानते हैं, उनमें से कितना कहां-कहां से प्राप्त हुआ है।  जो जितना पहले आया उसकी पहचान उतनी ही अधिक यहां की परंपरा में समाहित हो गयी और जो जितना बाद में आया, उसकी बहुत-सी पहचानें बची रहीं, लेकिन वे भी अपनी बची-खुची पहचानों के साथ इस धरती को ही अपनी सबसे बड़ी पहचान मानते रहे।

यूरोपीय जातियों का, विशेष रूप से अंग्रेज़ों का आना कई अर्थों में पहले आने वालों से अलग और विशिष्ट रहा है। वे यहां बसने नहीं आये, बल्कि यहां की संपदा को लूटने आये और उस लूट से वे अपना घर भरने आये। लेकिन वे मध्ययुग में आने वाले लुटेरों से इस अर्थ में भिन्न थे कि वे अल्प समय के लिए नहीं बल्कि लंबे समय तक यहां के लोगों को पराधीन बनाकर, उनके ऊपर शासन करके और लूट की एक ऐसी व्यवस्था क़ायम करके इस काम को करना चाहते थे कि जिन्हें वे लूट रहे थे, जिनको पराधीन बना रहे थे और जिन पर शासन कर रहे थे, वे लूटे जाकर भी, पराधीन होकर भी और शासित होकर भी यही समझें कि उन्हें पहले से एक बेहतर शासक मिला है जो दरअसल उनका हितैषी है, क्योंकि उसका असली मक़सद हमारा उद्धार करना है, हमें सुसभ्य बनाना है और हमारे असली शत्रुओं की पहचान कराना है। इस औपनिवेशिक सोच का असर बंकिमचंद्र से लेकर सावरकर और गोलवलकर तक में देखा जा सकता है। बंकिमचंद्र ने, आनंदमठ में अपने एक पात्र के यह कहने पर कि ‘मुसलमान राज्य विनष्ट हुआ है, लेकिन हिंदू राज्य स्थापित नहीं हुआ। अब भी कलकत्ते में अंग्रेज़ प्रबल हैं’ तो उस पात्र के गुरु जवाब देते हैं, ‘अंग्रेज़ बहिर्विषयक ज्ञान के अच्छे ज्ञाता और लोकशिक्षा में बड़े निपुण हैं। इसलिए अंग्रेज़ को राजा बनायेंगे। अंग्रेज़ी शिक्षा के कारण इस देश के लोग बहिस्तत्व में सुशिक्षित होकर अंतस्तत्व को समझने में समर्थ होंगे। तब सनातन धर्म के प्रचार में कोई बाधा नहीं रहेगी। तब सच्चा धर्म अपने आप पुनरुद्दीप्त होगा। जब तक वैसा नहीं होंगे, तब तक हिंदू फिर ज्ञानवान, गुणवान और बलवान नहीं होंगे, जब तक अंग्रेज़ी राज्य अक्षय रहेगा। अंग्रेज़ी राज्य में प्रजाजन सुखी होंगे-निष्कंटक होकर धर्माचरण कर सकेंगे’। (आनंदमठ, हिंदी अनुवाद, पृ.147, लोकभारती प्रकाशन, नयी दिल्ली)। इस कथन का अर्थ यह है कि हिंदू राज्य स्थापित करने के लिए अंग्रेज़ों के राज्य का स्थापित होना हिंदुओं के हित में है। कमोबेश ऐसी ही सोच हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की भी थी। यह संयोग नहीं है कि न तो सावरकर और उनकी हिंदू महासभा और न ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आज़ादी की लड़ाई में कभी भाग लिया। सावरकर ने तो अंग्रेज़ों की ओर से युद्ध लड़ने के लिए भारतीयों का आह्वान भी किया था और जगह-जगह भर्ती कैंप भी स्थापित किये थे।

अंग्रेज़ों ने यहां आकर शासन ही नहीं किया, बल्कि इतिहास, समाज और संस्कृति संबंधी अब तक की हमारी समझ को भी राजनीतिक इरादे के साथ बदलने की कोशिश की। यह काम उनसे पहले आने वाले कथित ‘हमलावरों’ ने कभी नहीं किया क्योंकि वे जिन इलाक़ों से आये थे, भारत उनकी दृष्टि में उनसे बेहतर जगह थी, उपजाऊ, ख़ुशहाल, अपेक्षाकृत शांत और सुसभ्य। यहां के प्रति उनके मन में गहरा आकर्षण था। इन्हीं वजहों से वे यहां आये और यहीं बस गये। यहां आने वालों में से कुछ शासन करने के इरादे से भी आये थे, लेकिन यहां की आबोहवा उन्हें इतनी अपनी लगी कि उन्होंने इसे हमेशा-हमेशा के लिए अपना घर बना लिया। उनमें अपने से पहले रहने वालों के प्रति नफ़रत और श्रेष्ठता का भाव नहीं था। यह कहना भी सही नहीं है कि उन्होंने यहां के लोगों को जबरन मुसलमान बनाया। इस्लाम स्वीकार करने की सबसे बड़ी वजह हिंदू धर्म की वर्ण व्यवस्था थी जो अपने ही धर्म के एक वर्ग को मनुष्य होने के अधिकारों से भी वंचित रखती थी। वर्ण व्यवस्था में शूद्रों के साथ गु़लामों से बदतर व्यवहार होता आ रहा है। इस वर्ण व्यवस्था ने ही इस्लाम के आने से पहले ही शूद्र माने जाने वाले समुदायों को हिंदू धर्म को तिलांजलि देने के लिए प्रेरित किया था। हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध, सिद्ध, नाथ आदि संप्रदायों में जाने के पीछे यही बर्बर वर्ण व्यवस्था थी।

अब तक के ‘हमलावरों’ के विपरीत यूरोप से आने वालों ने यहां रहने वालों को हीन दृष्टि से देखा। उनमें एक दूसरे के प्रति नफ़रत का भाव भरा और भारत के इतिहास की एक ऐसी व्याख्या पेश की जिससे प्रभावित होकर लोग सैकड़ों सालों से साथ-साथ रहने वालों को ही अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझने लगे। पश्चिम से आने वालों ने हमारे पर शासन ही नहीं किया उन्होंने शिक्षा सहित विभिन्न संस्थानों के माध्यम से हमें भी अपने जैसा बनाने की कोशिश की। लेकिन यूरोप के इन शासक वर्गों की औपनिवेशिक सोच से अलग और विपरीत यूरोप में ही एक नयी सोच की ज़मीन भी तैयार हो रही थी। दरअसल, अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध और उन्नीसवीं सदी में यूरोप बहुत बड़ी उथल-पुथल से गुज़र रहा था। हालांकि यह बदलाव वहां 15वीं-16वीं सदी से आरंभ हो गया था। लेकिन जिसे ज्ञानोदय का काल कहते हैं, वह दरअसल सामंती मध्ययुग से पूरी तरह संबंध-विच्छेद का काल था। एक नये युग की शुरुआत हुई जिसे आधुनिक काल के नाम से जाना गया। यह सही है कि यूरोपीय जातियों ने एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के बहुत बड़े क्षेत्र को अपने उपनिवेश बना लिये थे, लेकिन यह भी सही है कि इसी दौर में यूरोप में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता और सामाजिक न्याय के विचार भी तेज़ी से पनप रहे थे और इन्हीं विचारों का चरम उत्कर्ष मार्क्सवाद में दिखायी दिया। ये विचार उन उपनिवेशों में भी पहुंच रहे थे, जहां के बाशिंदों को अपनी जैसी शिक्षा देकर उन्हें मानसिक रूप से अपना जैसा बनाना उनका लक्ष्य था। अपने जैसा बनाने का अर्थ यह था कि वे अपने इतिहास, अपनी परंपरा और अपनी संस्कृति से नफ़रत करने लगें। कुछ हद तक ऐसा हुआ भी, लेकिन उनकी इच्छा के विपरीत बहुत कुछ ऐसा भी हुआ जो शायद वे नहीं चाहते थे। इसी आधुनिक शिक्षा ने जहां एक ओर भारतीयों को विज्ञान और वैज्ञानिक सिद्धांतों से परिचित कराया तो दूसरी ओर पूंजीवाद से लेकर समाजवाद तक की विचारधाराओं से भी परिचय कराया।

लार्ड मैकाले जो चाहते थे, बहुत से भारतीय वैसा बनने को ही अपने जीवन का लक्ष्य समझने लगे। गोरे साहब की जगह काले साहब जो मानसिक रूप से अंग्रेज़ों के गु़लाम हों। लेकिन उसी अंग्रेज़ी शिक्षा ने भारतीयों में कुछ और प्रभाव भी पैदा किये। भारतीय इतिहास की जो विकृत व्याख्या यूरोपीय विद्वान पेश कर रहे थे, उसी ने उनमें यह पुनरुत्थानवादी एहसास भी पैदा किया कि हम हमेशा से ऐसे नहीं थे। आज हम जिस पतनशील दौर से गुज़र रहे हैं, हमारा अतीत वैसा न था। हमारा भी एक स्वर्णकाल था जब हम समृद्ध थे, सुखी थे, संपन्न थे, ज्ञानवान थे। हमारा पतन इसलिए हुआ क्योंकि मध्ययुग में मुसलमानों ने आक्रमण कर हमारे स्वर्णिम अतीत से हमें जुदा कर दिया। यह इसलिए हुआ क्योंकि इस धरती पर बौद्ध धर्म जैसा एक ऐसा पंथ पैदा हुआ जिसने वैदिक और ब्राह्मण ज्ञान परंपरा के आगे चुनौती पैदा की। इस पंथ ने हमें कमज़ोर और खोखला बना दिया। जिस वर्णाश्रम व्यवस्था ने हमें एकसूत्र में बांध रखा था, उसे छिन्न-भिन्न कर दिया। हरेक वर्ण के कर्त्तव्य निश्चित थे और समाज में उनकी जगह भी। अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए वे समाज को एक सुदृढ़ आधार प्रदान कर रहे थे। लेकिन बौद्ध, जैन आदि पंथों ने अनावश्यक रूप से लोगों में ईश्वर प्रदत्त श्रेणीबद्धता के बारे में संदेह पैदा किया। जो नारी अपने पति की सेवा द्वारा सहज ही मोक्ष प्राप्त कर सकती थी, उसके मन में भी पतिव्रात्य धर्म के प्रति संदेह पैदा किया। अशोक जैसे बलशाली राजा युद्ध द्वारा साम्राज्य का विस्तार करने की बजाय अहिंसा को ही परम धर्म मानने का प्रचार करने लगे। नतीजा यह हुआ कि देश अंदर ही अंदर कमज़ोर होने के लिए अभिशप्त हो गया और एक कमज़ोर देश गु़लाम बनाये जाने से बच नहीं सकता। यही वजह है कि बर्बर और हिंसक जातियों ने जो इस्लाम धर्म के अनुयायी थे, हमें गु़लाम बनाया। हमारी औरतों का अपमान किया और हमारे धर्मस्थल तोड़े। इस तरह शिक्षित भारतीयों (जो लगभग सभी सवर्ण जाति से थे) के एक समूह में पुनरुत्थानवादी, ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक सोच पनपने लगी। इस सोच का प्रतिनिधित्व करने वाले कई संगठन उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी में अस्तित्व में आये।

शिक्षित भारतीयों का एक अन्य समूह भी अंग्रेज़ी शिक्षा से प्रभावित होकर सामने आया जिन्होंने इतिहास की उपनिवेशवादी व्याख्या को स्वीकार करने की बजाय पश्चिम में जो वैचारिक क्रांति हो रही थी, उसकी ओर ज़्यादा ध्यान दिया। उन्होंने स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता, बंधुत्व जैसे विचारों के आलोक में भारत के अतीत और वर्तमान दोनों को समझने की कोशिश की। उन्होंने धर्म, जाति, नस्ल, भाषा और भौगोलिक विविधताओं को भारत की विशिष्ट पहचान माना और यह जानने की कोशिश की कि हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराओं में ऐसे कौन-से पक्ष हैं जिनके कारण भारत अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक विविधताओं के बावजूद कुछ ऐसी बुनियादी कमज़ोरियों से ग्रस्त रहा जिनके कारण एक लोकतांत्रिक, समतावादी और न्यायपूर्ण समाज बनने से पीछे हटता रहा। वर्णव्यवस्था आधारित सामाजिक संरचना ने एक ऐसी श्रेणीबद्धता स्थापित की जिसके शिखर पर ब्राह्मण और जिसके सबसे निचले पायदान पर शूद्र और दलित थे जिन्हें उन अधिकारों से भी वंचित किया गया था, जो मनुष्य होने के कारण उन्हें सहज रूप से प्राप्त होने चाहिए थे। शूद्र से ऊपर जो तीन वर्ण थे, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य उन्हें सवर्ण कहा गया और शेष अवर्ण थे। इनके बीच एक और भेद था। सवर्ण वे थे जो हाथ से काम नहीं करते थे और जो श्रम करते थे, वे सब अवर्ण या शूद्र थे। शूद्रों के श्रम से पैदा हुई संपत्ति पर स्वयं उनका अधिकार नहीं था। उन्हें किसी भी तरह की संपत्ति रखने के अधिकार से वंचित कर दिया गया था (मनुस्मृति, 10/129)।

स्त्री चाहे किसी भी वर्ण की हो उसे श्रम करना पड़ता था, इसलिए वह सदैव जन्मना शूद्र मानी गयी। शूद्र की तरह उसे भी शिक्षित होने और शास्त्र ज्ञान हासिल करने का अधिकार नहीं था। इस बर्बर और अमानवीय वर्णव्यवस्था को ईश्वर प्रदत्त कहा गया। स्वाभाविक था कि इस ब्राह्मणवादी वर्णव्यवस्था और जातिवाद के विरुद्ध आवाज़ उठती और वह उठी। भारत का इतिहास दरअसल इस क्रूर सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष का इतिहास भी है। चार्वाक जैसे लोकायतवादी से लेकर बौद्ध, जैन, नाथ, सिद्ध, निर्गुणपंथ आदि विभिन्न पंथों ने ब्राह्मणवादी वर्णव्यवस्था के विरुद्ध लगातार संघर्ष किया। जब-जब ब्राह्मणवाद को दुबारा सत्ताश्रय मिला उसने इन ब्राह्मणवाद विरोधी पंथों को हिंसक तरीक़े से कुचलने का काम भी किया। भारत की धरती से बौद्ध धर्म का विलुप्त हो जाना, जैन धर्म का ब्राह्मणधर्म के आगे अपने आप को समर्पित कर देना और केवल एक छोटे से समुदाय में अपने को सीमित कर लेना, नाथों से लेकर निर्णुणपंथियों का संस्थानीकरण होकर उन पर सवर्णों का वर्चस्व स्थापित हो जाना, इस लगातार चलते संघर्ष की त्रासद परिणतियां है। लेकिन यह संघर्ष कभी रुका नहीं।

अंग्रेज़ों के आने के बाद यह संघर्ष एक नये दौर में प्रविष्ट हुआ। जो नया शिक्षित मध्यवर्ग उभरकर आया, उसने प्राचीन धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथों का अध्ययन करके यह समझने का प्रयास किया कि हमारा अतीत किस तरह का था। उसमें क्या ऐसा था जिस पर हम गर्व कर सकते हैं और क्या ऐसा है जिससे छुटकारा पाना ज़रूरी है। हमारी धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराओं में ऐसा क्या है जिसे हमें आगे ले जाना चाहिए और कौन-सी ऐसी परंपराएं हैं जिनसे मुक्त होना चाहिए। दुनिया में शायद ही ऐसा कोई समाज होगा जहां पति के मरने पर स्त्री को उसके शव के साथ ज़िंदा जला दिया जाये। यदि ज़िंदा न भी जलाया जाये तो विधवा के रूप में उसे नारकीय जीवन जीने को मजबूर किया जाये। बाल विवाह, अनमेल विवाह, बहु विवाह, सती प्रथा, वैधव्य जैसी कुप्रथाओं में कुछ भी गर्व करने लायक़ नहीं था। लेकिन विडंबना यह थी कि सदियों से सवर्ण हिंदू इन प्रथाओं पर गर्व करते आये थे। ज़िंदा जलायी गयी स्त्रियों को सती कहकर उनके मंदिर बनाये गये। यह बहुत दूर की बात नहीं है कि 1987 में राजस्थान में रूपकंवर नाम की 17 वर्षीय विवाहित स्त्री को सती के नाम पर ज़िंदा जला दिया गया और उसके समर्थन में न केवल आंदोलन हुए, ‘जनसत्ता’ ने संपादकीय लिखकर सतीप्रथा का महिमामंडन किया।

जातिप्रथा कम भयावह नहीं थी। मामला केवल चार वर्णों तक सीमित नहीं था। प्रत्येक वर्ण में भी श्रेणीबद्धता के कई-कई सोपान थे। दलित सबसे नीचे थे और ब्राह्मण सबसे ऊपर। दलितों को तो सवर्ण मनुष्य ही नहीं समझते थे। उनका स्पर्श भी उनके लिए पाप था। एक दलित की अपेक्षा गाय कहीं ज़्यादा पवित्र और पूजनीय समझी जाती रही है। लेकिन विडंबना यह थी कि दलितों की अलग-अलग जातियों में भी श्रेणीबद्धता थी और उनमें एक दूसरे के प्रति लगभग वैसा ही अपने को उच्च मानने और दूसरे को निम्न समझने का भाव था जैसा सवर्णों और अवर्णों में था। उनमें छूत-अछूत का भाव भले न हो, लेकिन बेटी और रोटी का संबंध उनमें भी नहीं था। यही स्थिति ब्राह्मणों (और अन्य सवर्ण जातियों) में भी थी। यू. आर. अनंतमूर्ति के उपन्यास, संस्कार में ब्राह्मणों के बीच मौजूद श्रेणीबद्धता का जो विकराल रूप वर्णित किया है, वह भयावह है। जो ब्राह्मण अपने को उच्च मानते थे, वे अपने से निम्न समझने वाले ब्राह्मणों के घर भोजन करने को भी पाप समझते थे। उनसे रिश्ता क़ायम करना तो बहुत दूर की बात है। ये दो उदाहरण केवल यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि सामाजिक स्तर पर कितने बड़े बदलाव की ज़रूरत थी। हालांकि दलित जातियां बहुत-सी ऐसी बुराइयों से मुक्त थीं जिनमें सवर्ण जातियां गहरे तक धंसी हुई थीं। सतीप्रथा, वैधव्य आदि से वे मुक्त थीं। इसी तरह ग़ैर हिंदू समाज भी इन बुराइयों से मुक्त था। हां, बाल विवाह और अशिक्षा जैसी बुराइयां ज़्यादा व्यापक स्तर पर फैली हुई थीं।

अठारहवीं सदी के मध्य से अंग्रेज़ों का साम्राज्य धीरे-धीरे व्यापक और मज़बूत होता गया और इसके साथ ही अंग्रेज़ी शिक्षा और शासन व्यवस्था का जाल भी फैलता गया। इसकी प्रतिक्रिया दो रूपों में सामने आयी एक समाज-सुधार आंदोलन द्वारा और दूसरा आज़ादी के संघर्ष द्वारा। समाज सुधार आंदोलन का विरोध उन पुराणपंथी, ब्राह्मणवादी और पुनरुत्थानवादी तत्वों द्वारा हुआ जो रूढ़िबद्ध परंपराओं में किसी तरह के बदलाव के पक्ष में नहीं थे। उन्नीसवीं सदी इस संघर्ष की सदी है। लेकिन इन दो तरह की धाराओं के बीच के संघर्ष को समझने की बजाय कई बार दोनों को एक ही धारा मानकर पेश किया जाता है। जो समाज में बदलाव के पक्षधर थे और प्रतिगामी परंपराओं से छुटकारा पाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, उनको उन पुनरुत्थानवादियों के साथ जोड़कर देखा जाता था जो एक-दो सुधारों की बात तो करते थे, लेकिन जो परंपरा में किसी आमूलचूल बदलाव के पक्षधर नहीं थे। वे वर्णव्यवस्था के पक्षधर थे, ब्राह्मण की श्रेष्ठता पर किसी तरह का प्रश्नचिह्न लगाना वे धर्म विरुद्ध समझते थे। गाय उनके लिए पवित्र और पूजनीय थी और उसके वध को वे इतना बड़ा पाप समझते थे कि उसके लिए वे मनुष्य की हत्या भी कर सकते थे। मुसलमानों के प्रति रूढ़िवादी हिंदुओं की नफ़रत की एक वजह यह भी रही है कि वे यह मानते हैं कि वे गोमांस खाते हैं जबकि सच्चाई यह है कि उत्तर भारत को छोड़कर देश के बहुत से क्षेत्र में हिंदू भी गोमांस खाते रहे हैं। आरएसएस जैसे सांप्रदायिक संगठनों ने गाय के प्रति हिंदुओं की आस्था का सदैव फ़ायदा उठाया और मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा करने के लिए उन्हें उकसाने का काम किया। वे आज भी सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने के लिए गाय का इस्तेमाल करते हैं।

इन दोनों तरह की धाराओं में बदलाव भी होते गये। समाज सुधार का आंदोलन ज़्यादा व्यापक हुआ। दलितों और पिछड़ी जातियों के अपने बुद्धिजीवी और नेता उभरकर आये जिन्होंने इन वर्गों पर गहरा प्रभाव डाला। ज्योतिबा फुले, बाबा साहब आंबेडकर और दूसरे कई बुद्धिजीवियों ने सामाजिक बदलाव में अहम भूमिका निभायी। इस तरह समाज सुधार की धारा बीसवीं सदी के मध्य तक अधिक मूलगामी और अग्रगामी होती गयी। सती प्रथा के विरोध से शुरू हुआ समाज सुधार का आंदोलन न केवल स्त्री शिक्षा बल्कि स्त्रियों की मुक्ति के अन्य कई पक्षों से जुड़ता चला गया। इसी तरह छुआछूत की समाप्ति की मांग से शुरू हुआ आंदोलन जातिवाद के हर रूप के उन्मूलन तक पहुंच गया था। भारत के बुद्धिजीवी वर्ग का सबसे प्रगतिशील हिस्सा आज़ादी के आंदोलन के साथ-साथ सामाजिक दृष्टि से उदारवादी और प्रगतिशील था। वह अंधराष्ट्र्वाद, पुनरुत्थानवाद और प्रतिक्रियावाद का विरोधी भी था। ईश्वर और धर्म में स्वयं भले विश्वास न करता हो, लेकिन दूसरों के विश्वासों का अनादर न करता था। लेकिन वह यह जानता था कि वैज्ञानिक और विवेकशील सोच से ही भारत एक आधुनिक और प्रगतिशील राष्ट्र में बदल सकता है। जो मानता था कि शासन के किसी भी मामले को धर्म, जाति, नस्ल, जेंडर और भाषा के आधार पर तय नहीं किया जाना चाहिए। वह धर्म, जाति, लिंग, नस्ल आदि के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को प्रतिगामिता समझता था और उसकी कामना थी कि आज़ाद भारत एक ऐसा देश बने जिसकी बुनियाद में स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व के मूल्य हों। इसीलिए जब भारत का संविधान बना तो उसकी प्रस्तावना (प्रिएंबल) में ही वह मानवतावादी दृष्टि अपने सर्वोत्तम रूप में व्यक्त हुई जिसके लिए भारत के लोगों ने लगभग उतने ही समय तक वैचारिक संघर्ष किया था, जितने समय तक आज़ादी हासिल करने के लिए संघर्ष किया गया था।

इस संघर्ष ने प्रतिगामी ताक़तों को कमज़ोर भले ही किया हो, ख़त्म नहीं किया था। भारतीय समाज में कुछ ऐसी बुनियादी खोट थी जिसके कारण ये प्रतिगामी ताक़तें बार-बार नयी शक्ति के साथ उभर आती थीं और प्रगतिशील, लोकोन्मुखी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक बदलाव के बीच बारबार अवरोध बनकर उपस्थित हो जाती थीं। आज़ादी की पूर्व संध्या पर भी ये प्रतिगामी ताक़तें इतनी मज़बूत थी कि इसके नतीजतन देश का धर्म के आधार पर विभाजन हुआ और आज़ादी हासिल होने के थोड़े समय बाद ही महात्मा गांधी की हत्या कर दी गयी। इन दो त्रासद घटनाओं के बावजूद भारत ने वही मार्ग चुना जिसके लिए उसने लगभग डेढ़ शताब्दी तक संघर्ष किया था और जिसे हमारे संविधान में अभिव्यक्ति मिली थी। इन प्रतिगामी ताक़तों के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष किया जाना अभी शेष था।

हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) इन प्रतिगामी ताक़तों का प्रतिनिधित्व करती थीं। महात्मा गांधी की हत्या में प्रत्यक्ष संलिप्तता के कारण हिंदू महासभा का राजनीतिक प्रभाव धीरे-धीरे ख़त्म हो गया। लेकिन 1925 में स्थापित आरएसएस जिस पर महात्मा गांधी की हत्या के बाद कुछ समय के लिए प्रतिबंध लगा था, वह एक ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक संगठन था। उसने अपनी मूल प्रेरणा नाज़ीवाद और फ़ासीवाद से ली थी। आरएसएस के सबसे बड़े विचारक समझे जाने वाले माधव सदाशिव गोलवलकर ने ‘हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा’ पुस्तक में लिखा था, ‘जर्मन नस्ल का गर्व आज चर्चा का विषय बन गया है। नस्ल तथा उसकी संस्कृति की शुद्धता बनाये रखने के लिए, देश को सामी नस्लों- यहूदियों- से स्वच्छ करके जर्मनी ने पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया है। यहां नस्ल का गौरव अपने सर्वोच्च रूप में अभिव्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी दिखा दिया है कि किस तरह ऐसी नस्लों तथा संस्कृतियों का, जिनकी भिन्नताएं उनकी जड़ों तक जाती हैं, एक एकीकृत समग्रता में घुलना-मिलना लगभग असंभव ही है।यह हिंदुस्थान में हमारे लिए एक अच्छा सबक़ है कि सीखें और लाभान्वित हों’ (गोलवलकर की हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा : एक आलोचनात्मक समीक्षा, शम्सुल इस्लाम, अंग्रेज़ी से अनुवाद : अशोक कुमार पांडेय, फ़ारोस मीडिया एंड पब्लिशर्स प्रा. लि. पृ. 189-90)। अपनी इसी पुस्तक में गोलवलकर ने नाज़ीवाद से सबक़ लेते हुए हिंदुओं के लिए भी वैसा ही सिद्धांत पेश कर दिया। गोलवलकर स्पष्ट रूप से कहते हैं कि भारत केवल हिंदुओं का राष्ट्र् है और बाक़ी सभी धार्मिक और नस्ली समुदाय विदेशी हैं। वे भारत में रह सकते हैं लेकिन जब वे ‘अपने विभेदों को पूरी तरह समाप्त कर दें’ और ‘ख़ुद को पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में समाहित कर दें’। अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि ‘अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें राष्ट्र के रहमो-करम पर, सभी संहिताओं और परंपराओं से बंधकर केवल एक बाहरी की तरह रहना होगा, जिनको किसी अधिकार या सुविधा की तो छोड़िए, किसी विशेष संरक्षण का भी हक़ नहीं होगा’ (वही, पृ. 201-202)। अगर वे अपने को राष्ट्रीय नस्ल में समाहित नहीं करते हैं तो ‘जब तक राष्ट्रीय नस्ल उन्हें अनुमति दे वे यहां उसकी दया पर रहें और राष्ट्रीय नस्ल की इच्छा पर यह देश छोड़कर चले जायें’।

स्पष्ट है कि आरएसएस के अनुसार हिंदू राष्ट्र में ग़ैरहिंदुओं विशेष रूप से मुसलमानों और ईसाइयों को नागरिकता के वे अधिकार नहीं मिल सकते जो हिंदुओं को स्वाभाविक रूप से प्राप्त होंगे। यानी उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनकर रहना होगा। गोलवलकर के ये विचार जो सदैव आरएसएस और उनके सभी संगठनों के लिए प्रेरक रहे हैं और पिछले दस साल के अपने शासन के दौरान नरेंद्र मोदी और भाजपा सरकार ने जो बहुत से क़दम उठाये हैं, वे हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में ही उठाये गये क़दम हैं। इस रास्ते में सबसे बड़ी बाधा भारत का संविधान है जिसे आरएसएस ने कभी स्वीकार नहीं किया था, आज वह दावा चाहे कुछ भी करे। वर्तमान में भारत के संविधान को बचाना ही सबसे बड़ा संघर्ष है।

(क्रमश:…)

jparakh@gmail.com

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1 thought on “‘कोसल में विचारों की कमी है’ / जवरीमल्ल पारख”

  1. बहुत ही तार्किक और ज्ञानवर्धक आलेख। शेषांश का इंतजार।

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